जब भी हैदराबाद का उल्लेख हमारे सामने होता है तो सर्वप्रथम दम बिरयानी, ईरानी चाय, उस्मानिया बिस्कुट जैसे स्वादिष्ट व्यंजनों के स्मरण से मुंह में पानी आ जाता है। एक पल यदि अपनी जठराग्नि से पृथक जा कर सोचें तो हैदराबाद, इस शब्द से हमारे समक्ष चारमीनार, सैकड़ों वर्ष प्राचीन गोलकोंडा दुर्ग जैसे कई धरोहरों की छवि उभर कर आ जाती है। यदि आप इतिहास में रुचि रखते हैं तो आप कदाचित यह जानते होंगे कि यह सब आरंभ कब तथा कैसे हुआ। १४ वी. सदी में हुए इस्लामिक आक्रमण से भी पूर्व, मोतियों के इस नगर में गोल्ला-कोंडा (गोलकोंडा) दुर्ग की माटी के नीचे से इसका आरंभ हुआ था। तीन सहस्त्र वर्षों पूर्व यहाँ जिस महापाषाण युगीन जीवन का अस्तित्व था, वह स्थल गोलकोंडा दुर्ग के समीप ही है। उस स्थान पर अब हैदराबाद विश्वविद्यालय स्थित है।
हैदराबाद के विकास को ५ पृथक चरणों में बांटा जा सकता है:
- प्रागैतिहासिक
- इस्लाम पूर्व
- इस्लामी
- स्वतंत्र
- उच्च-तकनीकी नगर
ये इसके विकास की विभिन्न समय सीमाएं हैं। अंतिम चार चरणों पर अनेक अनुसंधान एवं सामग्री उपलब्ध हैं। फिर भी हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुछ ही शिक्षक एवं वैज्ञानिक हैं जिन्होंने इस क्षेत्र के प्रथम मूल निवासियों के विषय में जाना है। गच्छीबावली के चकाचौंध भरे क्षेत्र के नाक के ठीक नीचे इस प्राचीनतम महापाषाण स्थल को गुप्त रूप से अंधकार एवं विस्मृति में छुपा दिया गया था।
भारत का प्राचीनतम महापाषाण स्थल
यह स्थल कहाँ है?
आप यह गुप्त कलाकोष विश्वविद्यालय के मुख्य प्रवेशद्वार से कुछ सौ मीटर की दूरी पर देख सकते हैं। हैदराबाद के आई टी हब से घिरा यह क्षेत्र गच्छीबावली में पुराने बॉम्बे राजमार्ग से केवल सौ मीटर दूर स्थित है। फिर भी यह प्राचीनतम महापाषाण स्थल इस विश्वविद्यालय परिसर के एक अंधेरे कोने में लुप्त था। यदि इस स्थान को रास्ता बनाने के लिए विशेष रूप से स्वच्छ नहीं किया गया होता तो यह स्थान तथा वहाँ जाने का मार्ग अच्छे जानकार के प्रशिक्षित आँखों को भी दृष्टिगोचर नहीं हो पाता। एक प्रकार से ऐसा कह सकते हैं कि यह अंधकार ही इस स्थल का सर्वोत्तम सुरक्षा कवच था।
यह कितना प्राचीन है?
हैदराबाद विश्वविद्यालय के भीतर स्थित यह भारत का प्राचीनतम महापाषाण स्थल है। इस स्थल को विश्व का प्राचीनतम लौह युगीन स्थल भी माना जाता है। विश्वविद्यालय के दो प्राध्यापक, के. पी. राव तथा आलोका पाराशर ने सन २००३-०४ में इस स्थान को खोजा था। लौह युग सामान्यतः १००० वर्ष ईसा पूर्व माना जाता है। किन्तु यहाँ पायी गई कई महापाषाण वस्तुएं उससे भी १००० वर्ष पीछे ले जाती हैं, अर्थात लगभग २७९५-२१४५ ईसा पूर्व।
यहाँ प्राप्त हुए मिट्टी के पात्रों की आयु मापने के लिए थर्मो-ल्यूमिनेसेंस तकनीक का उपयोग किया गया है। इन्हे सर्वप्रथम १९७२ में देखा गया था। प्रथम प्रारम्भिक खुदाई पुरातात्विक विभाग के तत्कालीन ए. पी. ने किया था। तत्पश्चात खुदाई एवं खोज का कार्य विश्वविद्यालय के अपने इतिहास प्राध्यापकों द्वारा किया गया।
जिन्हे प्राचीन युग के विषय में अधिक जानकारी नहीं है, उनके लिए महापाषाण का अर्थ है बड़ा पत्थर जो यूनानी शब्द ‘मेगास’ अर्थात बड़ा तथा ‘लिथोस’ अर्थात पत्थर से मिलकर बना है। महापाषाण सामान्यतः आवासीय क्षेत्र से दूर स्थित शमशानगृह के भीतर बड़े समाधि पत्थरों से भी संबंध रखता है। यह स्थान वास्तव में महापाषाणी शमशान स्थान था।
ग्रेनाइट मेनहिर (स्मारक शिला)
इस पुरातत्व स्थल पर एक विशाल २०,००० किलोग्राम की ग्रेनाइट स्मारक शिला है। पुरातात्विक दृष्टिकोण से इस मेनहिर का अर्थ है, ‘मेन’ अर्थात शिला तथा ‘हिर’ अर्थात लंबा। इसका अर्थ है लंबी शिला जो कब्र पर रखी जाती है। इस शिला की ऊंचाई भूमि के ऊपर २० फुट से अधिक हो सकती है तथा भूमि के नीचे भी यह आधार देने के लिए २० फुट गहरी जा सकती है।
यह स्थल २१ समाधिस्थल भी पाए गए है। यहाँ काली एवं लाल मिट्टी के बर्तन पाए गए हैं। जैसे कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं। इस स्थल की एक विशेष खोज है एक मापक पात्र जिसका माप २५० मिलीलीटर है।
पुरातात्विक उत्खनक मानते हैं कि यदि यह एक शमशान स्थल है तो जिन पूर्व-ऐतिहासिक महापाषाण कालीन लोगों ने इसकी संरचना की थी वे इस स्थल से कुछ किलोमीटर दक्षिण की ओर बसे होंगे। इसका अर्थ है कि वे जहां निवास करते थे वह भाग विश्वविद्यालय के दक्षिण भाग में कहीं था। विकास एवं आवास के नाम पर मानव सभ्यता ने वह भूमि हड़प ली है।
इस स्थान के आसपास कई जल स्त्रोत हैं जो इस परिकल्पना को समर्थन देते हैं कि विश्वविद्यालय का दक्षिण परिसर एक समय एक जीवित महापाषाणी सभ्यता को बसाया हुआ था।
इतिहास
यदि कोई हैदराबाद का इतिहास जानने का इच्छुक है तो यही वह स्थान है जहां उसे हैदराबाद का इतिहास देखने मिलेगा। शाब्दिक रूप से हमें प्रागितिहास कहना चाहिए क्योंकि इस स्थल के विषय में ना तो लिखा गया है ना ही संचयन किया गया है। इस स्थल के विषय में कोई भी मौखिक अथवा लिखित सामग्री उपलब्ध नहीं है। यह चित्र स्थल-संग्रहालय का है जहां दर्शकों को देखने के लिए उत्खनन खुला छोड़ा गया है। आप यहाँ उस काल के मिट्टी के पात्र तथा उनके टुकड़े देख सकते हैं।
यहाँ एक तथ्य आप ध्यान रखें कि यह इकलौता भारतीय पुरातात्विक उत्खनन स्थल है जिसे स्थल-संग्रहालय के रूप में संरक्षित किया गया है।
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इस महापाषाणी स्थल पर प्राप्त कलाकृतियों को देख कर यह ज्ञात होता है कि इस स्थान के निवासियों ने भैंसों एवं बकरियों को पाला था। यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वे खाने के लिए ज्वार, बाजरा इत्यादि की खेती करते थे।
जैव विविधता
भारत का यह प्राचीनतम शमशान स्थल, परिकल्पित जीविका स्थल तथा विश्वविद्यालय का परिसर सभी अधिसूचित जैव विविधता आरक्षित क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं। यह विश्वविद्यालय, जिसका क्षेत्रफल लगभग २२०० एकड़ है, एक जैव विविधता संवेदनशील केंद्र है। यहाँ तेलंगाना राज्य की सर्वाधिक जैव विविधता उपलब्ध है जो किसी भी वन से अधिक है।
सौभाग्यवश अथवा दुर्भाग्यवश, यह स्थल किसी भी बाहरी व्यक्ति, यहाँ तक कि विश्वविद्यालय के अपने विद्यार्थियों के लिए भी सहज उपलब्ध नहीं है। विश्वविद्यालय के मानव जाती विज्ञान विभाग के विद्यार्थियों का इस स्थल में वर्ष में एक भ्रमण आयोजित किया जाता है जो उनके पुरातत्व पाठ्यक्रम का एक भाग है तथा जिसके लिए पूर्व-व्यवस्था की जाती है। यह भ्रमण तब आयोजित किया जाता है जब दक्षिण-पश्चिम मानसून अपने अंतिम चरण को पार कर गया हो तथा धरती की नमी सूख गई हो। धरती इतनी स्थायी हो गई हो कि झाड़ियों को हटा सकें तथा समीप स्थित सड़क से यहाँ तक का मार्ग पुनः खींचा जा सके।
तेलंगाना के ऐसे ही प्रागैतिहासिक स्थलों के विषय में आप ऐबीड्स के गन –फाउन्ड्री में स्थित राज्य पुरातात्विक संग्रहालय में देख सकते हैं।
अतिथि संस्करण
यह मेरे एक मित्र, श्रीराम द्वारा प्रदत्त एक अतिथि संस्करण है।
श्रीराम वर्तमान में एक शोधकर्ता हैं जो CRIDP में ‘Research in Infrastructure Development and Practice’ पर कार्यरत हैं। शैक्षणिक दृष्टि से उन्होंने MBA तथा हैदराबाद विश्वविद्यालय से मानव जाती विज्ञान में स्नातक की शिक्षा प्राप्त की है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) हैदराबाद से मानव जाती विज्ञान-समाज, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी (STS) में ‘Burnout: An ethnographic study of Mid-Career Professionals in Hyderabad, India‘ इस विषय पर एम. फिल किया है। उन्होंने व्यावसायिक क्षेत्र में एक दशक तक कार्यरत रहते हुए अनेक भूमिकाएं निभाई हैं। इसके पश्चात उन्होंने शिक्षण के क्षेत्र में पदार्पण किया तथा मानव जाती वैज्ञानिक बने।
इससे पूर्व उन्होंने बैक-पैक करते हुए ११ देशों में भ्रमण किया है। वे Go-UNESCO यात्रा चुनौती २०१२ के द्वितीय विजेता भी रह चुके हैं। इसमें उन्हे ४५ दिनों में २०,००० किलोमीटर बैक-पैक करते हुए भारत के २७ विश्व धरोहर स्थलों में से २४ स्थलों का भ्रमण करना था। वे ‘हैदराबाद रनर’ के लिए धावक भी हैं। उन्होंने गुरु पद्म भूषण डॉक्टर वेम्पति चिन्न सत्यम की सुपुत्री गुरु श्रीमती बाला त्रिपुरसुंदरी से कुचीपुड़ी नृत्य की भी शिक्षा प्राप्त की है। आप उनसे ट्विटर पर @bhsriram अथवा Linkedin पर संपर्क कर सकते हैं।
अनुराधाजी एवं मीताजी
श्रीराम व्दारा लिखित और मीताजी व्दारा अनुवादित हैदराबाद के गच्छीबावली में स्थित महापाषाण स्थल की विस्तृत जानकारी प्राप्त हुई.
यहाँ की सभ्यता 3000 वर्ष इसा पूर्व की मानी जाती है. स्मारक शिला बहुत ही बडी और अचंभित करने वाली है.
समाधिस्थल और उसके दक्षिण में स्थित महापाषाण कालीन नगर की जानकरी विस्मय कारक लगी.वहां के मिट्टी के बर्तन और संग्रहालय उस समय की विकसित सभ्यता को दर्शाते हैं.
उस काल में भी लोग भैंस ,बकरियों को पालते थे तथा ज्वार बाजरा की खेती करते थे जानकर आश्र्चर्य हुआ.
सुंदर माहिती पूर्ण आलेख हेतु बहुत बहुत धन्यवाद.
धन्यवाद चंद्रहास जी