तनोट माता मंदिर एवं काले डूंगर मंदिर – जैसलमेर के देवी मंदिर

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भौतिक रूप से जैसलमेर अपने सुनहरे दुर्ग, भुतहा गाँवों तथा बालू के टीलों के लिए जाना जाता है। किन्तु यदि इस क्षेत्र के आध्यात्मिक आधार की चर्चा की जाये तो वह जैसलमेर के देवी मंदिर हैं।

समूचे विश्व में शक्ति ने स्वयं को अनेक आकृतियों, मुद्राओं एवं स्वरूपों में प्रकट किया है। हम मानवों को उनके स्वरूप की गहराई की थाह ना होते हुए भी हम उन्हें पहचान जाते हैं। उनकी महिमा, लालित्य, लावण्य एवं अनुग्रह में आनंद पाते हैं। भारत का सम्पूर्ण भूभाग शक्ति उपासनाओं से परिपूर्ण रहा है जिसमें सभी पृष्ठभूमि के लोग भाग लेते आये हैं। “५० भारतीय नगरों ने नाम – देवी के नामों पर आधारित” इस संस्करण में आप देवी के नामों पर आधारित ५० नगरों के विषय में जान सकते हैं। इनमें शक्ति पीठ एवं ग्राम देवियाँ भी सम्मिलित हैं।

जैसलमेर के देवी मंदिर

बहुचर्चित पर्यटन स्थल जैसलमेर में दो ऐसे मंदिर, जो अपनी विशिष्ट पहचान के लिए जाने जाते हैं, वह हैं – तनोट राय अथवा तनोट माता मंदिर व काले डूंगर माता मंदिर।

स्वर्णिम नगरी जैसलमेर की बाह्य सीमा पर स्थित ये दोनों मंदिर दो भिन्न दिशाओं में हैं तथा स्वयं में अत्यंत विशेष हैं।

काले डूंगर देवी मंदिर

जैसलमेर से लगभग ४०-४५ किलोमीटर दूर स्थित इस मंदिर तक पहुँचने में लगभग एक घंटे का समय लगता है। आप किसी स्थानीय टैक्सी द्वारा यहाँ पहुँच सकते हैं। अपने विशेष नाम तथा लोकप्रियता के कारण इस जैसलमेर के देवी मंदिर के विषय में यहाँ लगभग सभी जानते हैं।

काले डूंगर राय मंदिर - जैसलमेर
काले डूंगर राय मंदिर – जैसलमेर

वर्षों पूर्व, यहाँ तक पहुँचने वाली सड़क अत्यंत ऊबड़-खाबड़ थी। मार्ग के दोनों ओर के परिदृश्य शुष्क, धूलभरे तथा रेतीले थे। किन्तु अब यहाँ उत्तम सड़कें हैं। २००६ में आए बाढ़ के पश्चात यहाँ के परिदृश्यों में आमूलाग्र परिवर्तन हो गया है। अब आप यहाँ चारों ओर हरे-भरे खेत, वृक्ष तथा जलाशय देख सकते हैं। मैंने इस परिदृश्य के दोनों रूप देखे हैं।

आधा मार्ग पार करने के पश्चात अचानक भूमि पर काले रंग के कंकड़ व पत्थर दृष्टिगोचर होने लगते हैं। काले डूंगर मंदिर का नाम इन्ही काले रंग के कंकड़ व पत्थरों के कारण पड़ा है। इसी कारण देवी का नाम भी काले डूंगर देवी पड़ा।

पहाड़ी की चोटी पर स्थित मंदिर

आप जैसे जैसे पहाड़ी के निकट पहुंचते हैं, आप पहाड़ी की चोटी पर मंदिर देख सकते हैं। आपने ध्यान दिया होगा, देवी के अधिकतर मंदिर पहाड़ियों व पर्वतों की चोटी पर अथवा वनों के भीतर होते हैं। पहाड़ी की तलहटी पर पहुँचने के पश्चात गाड़ी से उतरकर पहाड़ी चढ़नी पड़ती है।

काले डूंगर मंदिर
काले डूंगर मंदिर

अधिकांशतः इस स्थान पर भीड़ नहीं होती। मंदिर के दैनन्दिनी क्रियाकलापों को पूर्ण करने के लिए बहुत कम लोग यहाँ होते हैं। वैसे भी यह मंदिर अधिक विशाल नहीं है। मंदिर के पुजारी एवं अभीक्षक समीप के गाँव से आते हैं।

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समय के साथ इस मंदिर का पुनर्निर्माण कर नवीन रूप दिया जाता रहा है। इसके पश्चात भी यह मंदिर अधिक विशाल नहीं है तथा विस्तृत क्षेत्र में पसरा हुआ भी नहीं है। इसके नवीनीकरण में स्थानीय जैसलमेर की जगप्रसिद्ध पीली शिलाओं का प्रयोग किया गया है। वस्तुतः, कुछ वर्षों पूर्व अवस्थित एक लघु व संक्षिप्त मंदिर के अपेक्षाकृत अब यह  कुछ विशाल प्रतीत होता है।

मंदिर के बाहर विस्तृत खुला क्षेत्र है। पहाड़ी के ऊपर चारों ओर शीतल वायु बहती रहती है। वहां से चारों ओर के मरुभूमि का परिदृश्य दृष्टिगोचर होता है। हम जिस मार्ग  से यहाँ तक पहुंचे, वह मार्ग भी यहाँ से दिखाई देता है।

गर्भगृह

काले डूंगर मंदिर का गर्भगृह
काले डूंगर मंदिर का गर्भगृह

गर्भगृह में प्रवेश करते ही आपको देवी के दर्शन प्राप्त हो जायेंगे। अपने पर्वतीय क्षेत्र में केवल देवी ही निवास करती हैं। मंदिर के भीतर किसी अन्य देवी- देवता की प्रतिमा नहीं है। इस मंदिर में देवी की प्रतिमा एक फलक पर है जहां ८ प्रतिमाएं उत्कीर्णित हैं। उनमें ७ प्रतिमाएं स्त्री रूप में हैं तथा १ पुरुष रूप में। ७ स्त्रियाँ देवी के शक्ति रूप के ७ स्वरूप हैं। ये सप्त मातृकाएं हैं जिन्होंने शुम्भ व निशुम्भ के साथ युद्ध करते समय देवी की सहायता की थी। पुरुष स्वरूप भैरव का है। स्थानीय कथाओं के अनुसार ये ७ भगिनियां एवं १ भ्राता हैं। किन्तु, यदि पुरुष भैरव है तो वैदिक मान्यताओं के अनुसार सप्त मातृकाओं के रूप में ये ७ स्त्रियों का भैरव की भगिनियां होना संभव नहीं है।

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कथाएं

स्थानीय कथाओं के अनुसार मूर्तियों का यह फलक समीप स्थित जलाशय से प्राप्त हुआ था। कालान्तर में उनके सम्मान में यहाँ एक मंदिर का निर्माण किया गया। प्रतिमाओं का यह फलक किसे व कब प्राप्त हुआ इसकी जानकारी मुझे नहीं मिल पायी।

कहा जाता है कि देवी की आज्ञा के अनुसार कोई भी यहाँ से प्रसाद अथवा कंकड़/पत्थर अपने साथ नहीं ले जा सकता। पहले मुझे इस पर विश्वास नहीं हुआ। किन्तु मेरा सामना कुछ सम्बन्धियों एवं स्थानीय लोगों द्वारा उल्लेखित ठोस कथाओं से हुआ जिन्होंने अत्यंत विश्वासपूर्ण स्वरों में मुझे अपने अनुभव बताये। उनके अनुसार, उन्हें कुछ ना कुछ संकटों का सामना करना पडा जब वे प्रसाद अथवा मंदिर के भीतर या आसपास से एक भी कक्कड़/पत्थर अपने साथ ले गये।

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देवी की इस कथा को सुनकर ऐसा कदापि ना समझें कि देवी अपनी वस्तुओं के सम्बन्ध में स्वामित्व प्रदर्शित करती हैं। मेरे अनुमान से वे हमें यह सिखाने का प्रयत्न कर रही हैं कि हम वर्त्तमान में जियें, हमें जो प्रदान किया गया है उसमें आनंद प्राप्त करें, त्याग व छोड़ने की भावना को विकसित करें तथा अधिकारात्मकता से मुक्त हों। वे हमें किसी भी स्थान की जैव-विविधता को अस्त-व्यस्त ना करते हुए उसको सम्मान देना सिखा रही हैं।

श्री मातेश्वरी तनोट राय मंदिर – जैसलमेर के देवी मंदिर

यह मंदिर जैसलमेर से १०० किलोमीटर से भी अधिक दूरी पर स्थित है। यह मंदिर लोंगेवाला के निकट, लगभग भारत-पाकिस्तान सीमा के समीप स्थित है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि इसका निर्माण भारतीय सेना के जवानों ने किया था तथा इसकी देखरेख भी वे ही करते हैं।

तनोट माता मंदिर - जैसलमेर
तनोट माता मंदिर

इस मंदिर के सम्बन्ध में एक चमत्कारिक कथा है। १९६५ में भारत व पाकिस्तान के मध्य हुए युद्ध के समय शत्रुपक्ष ने इस स्थान पर अनेक बम फेंके थे किन्तु उनमें से एक भी बम फटा नहीं था। ऐसा भी कहा जाता है कि इस युद्ध के समय देवी ने स्वयं इन व्याकुल सैनिकों को स्वप्न में दर्शन दिए तथा उन्हें संरक्षण एवं विजय का आश्वासन दिया था।

दिव्य माता तनोट राय पर आस्था

दिव्य माता पर आस्था रखते हुए हमारे साहसी जवानों ने यह कठिन युद्ध किया। बम के ना फटने से कोई भी सैनिक हताहत नहीं हुआ तथा वे इस युद्ध में विजयी हुए। उन बमों को निष्क्रिय कर उन्हें सेना द्वारा निर्मित एक छोटे से संग्रहालय में रखा है जिसे सेना ने पाकिस्तान के साथ १९६५ व १९७१ में हुए युद्धों में प्राप्त विजय की स्मृति में बनाया था।

तनोट राय मंदिर का विजय स्तम्भ
तनोट राय मंदिर का विजय स्तम्भ

मंदिर में पहुँचने के लिए किसी भी स्थानीय टैक्सी अथवा किराए की गाडी का प्रयोग किया जा सकता है। जैसलमेर से बाहर निकलकर तनोट मंदिर की ओर जाते समय आप विस्तृत मरुभूमि का अनुभव प्राप्त कर सकते हैं। मंदिर तक पहुँचने के लिए लगभग डेढ़ घंटे का समय लग सकता है। मंदिर के बाहर एक विजय स्तंभ है जिसे युद्ध में प्राप्त विजय की स्मृति में बनवाया गया है।

मंदिर की वास्तुकला

मंदिर की संरचना एवं वास्तु शैली सादी है किन्तु अत्यंत सुन्दर है। यह मंदिर भी अधिक विशाल व विस्तृत क्षेत्र में पसरा हुआ नहीं है। मंदिर के भीतर प्रवेश करते ही समक्ष परमानंद की भावना से ओतप्रोत भवानी माँ की प्रतिमा के दर्शन होते हैं। उनके मुखड़े के भाव हमारे मन-मस्तिष्क में परम सुख व शांति की भावना उत्पन्न करते हैं। मंदिर में दिवस भर की सभी आरतियाँ सेना के जवान ही करते हैं।

तनोट माता के सम्बन्ध में एक अन्य कथा के अनुसार, जब युद्ध के समय देवी ने व्याकुल सैनिकों को स्वप्न में दर्शन दिए तथा उन्हें संरक्षण एवं विजय का आश्वासन दिया था, तब उन्होंने सैनिकों से उनके हाथों में मेहंदी लगाने के लिए कहा था ताकि वे उन फेंके गए बमों को हाथों से पकड़ कर उन्हें निष्क्रिय कर सकेंगी। इसी कारण आज भी देवी को मेहंदी अर्पित की जाती है तथा उनके हाथों में नियमित रूप से मेहंदी लगाई भी जाती है।

आप जब भी जैसलमेर यात्रा का नियोजन करें, इन शक्ति स्थलों अर्थात् देवी मंदिरों के दर्शन अवश्य करें ताकि आप भी इस क्षेत्र में फ़ैली उनकी उर्जा को शोषित कर सकें एवं उनकी उपस्थिति को अनुभव कर सकें।

जय भवानी!

यह यात्रा संस्करण IndiTales Internship Program के अंतर्गत कशिश व्यास द्वारा प्रदत्त अतिथि संस्करण है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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  1. अनुराधा जी, जैसलमेर के दो प्रसिद्ध माता मंदिरों के बारे में रोचक जानकारी युक्त सुंदर आलेख। पढ़कर जनवरी २०२० में की गई जैसलमेर यात्रा की स्मृतियाँ बरबस ही जीवंत हो उठी। उस समय प्रसिद्ध तनोट माता मंदिर में माता की अलौकिक एवम् चमत्कारिक मूर्ति के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मूर्ति के दोनों ओर भारत-पाक युद्ध के समय निष्क्रिय किये गये बमों को अभी भी सबके अवलोकनार्थ रखा गया है। मंदिर का सारा प्रबंधन भारतीय सेना द्वारा ही किया जाता है। मंदिर में जाते ही हमारे सैनिकों की वीरता और शहादत पर अनायास ही गर्व की अनुभूति होती हैं।
    आलेख में काले डूंगर मंदिर तथा इससे जुड़ी किंवदंती के बारे में भी सुंदर जानकारी प्राप्त हुई।
    सुंदर पठनीय आलेख हेतु साधुवाद !

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