आधुनिक कर्नाटक में ११वी. से १३ वीं. सदी के मध्य होयसल राजवंश का साम्राज्य था। कला, साहित्य एवं धर्म के क्षेत्र में होयसल वंश की सदैव रुचि रही तथा उन्होंने सदा इनका संरक्षण किया। होयसल राज आज भी अप्रतिम मंदिर वास्तु के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है। बेलूर, हैलेबिडु तथा सोमनाथपुरा ऐसे महत्वपूर्ण स्थान हैं जहां अनुकरणीय उत्कृष्टता से युक्त होयसल मंदिर निर्मित किए गए थे।
बेलूर के चेन्नाकेशव मंदिर के दर्शन करने के पश्चात मैं इतनी प्रसन्न हुई कि मैंने होयसल राज में निर्मित अन्य सभी महत्वपूर्ण मंदिरों के दर्शन करने की ठान ली। कर्नाटक में लगभग ९२ होयसल मंदिर हैं। इनमें से अधिकतर हासन, मैसूर तथा मंड्या जिले में स्थित हैं। हमने हासन को अपना केंद्र बिन्दु नियुक्त किया तथा इन मंदिरों के दर्शन के लिए आगे कूच किया।
होयसल मंदिर – बेंगलुरू से एक दिवसीय दर्शन
प्रमुख होयसल मंदिर जो अविस्मरणीय होते हुए भी अधिक प्रसिद्ध नहीं है:
- नग्गेहल्ली का लक्ष्मी नरसिंह मंदिर
- नग्गेहल्ली का सदाशिव मंदिर
- अरसिकेरे का ईश्वर मंदिर
- बेलवाडी का वीर नारायण मंदिर
- किक्केरी का ब्रह्मेश्वर मंदिर
- गोविंदनहल्ली का पंचलिंगेश्वर मंदिर
- डोड्डगड्डवल्ली का लक्ष्मी देवी मंदिर
- जवगल का लक्ष्मी नरसिंह मंदिर
- शांतिग्राम का भोग नरसिंह मंदिर
- अनेकेरे का चेन्नाकेशव मंदिर
- होसहोललु का लक्ष्मीनारायण मंदिर
आइये इन अप्रतिम मंदिरों के दर्शन करते हैं।
नग्गेहल्ली का लक्ष्मी नरसिंह मंदिर
कर्नाटक के हासन जिले में चन्नारायपटना तालुका में एक छोटा सा गाँव है, नग्गेहल्ली। यहाँ दो महत्वपूर्ण होयसल मंदिर हैं।
लक्ष्मी नरसिंह मंदिर का निर्माण बोम्मन्ना दंडनायक ने करवाया था जो १२४६ ई. में होयसल सम्राट वीर सोमेश्वर के सेनाध्यक्ष थे। यह एक त्रिकुटा मंदिर है जिसके तीन शिखर हैं। यह एक ऊंचे समतल धरती अर्थात जगती पर स्थित है जो होयसल वास्तुकला की विशेषता है। इस मंदिर में तीन गर्भगृह हैं। पश्चिमी गर्भगृह में चेन्नाकेशव, दक्षिणी गर्भगृह में वेणुमाधव तथा उत्तरी गर्भगृह में लक्ष्मी नरसिहं की प्रतिमाएँ हैं। तीनों गर्भगृह के द्वार एक ही नवरंग मंडप में खुलते हैं। एक ओर जहां चेन्नाकेशव मंदिर में एक सुकनासी है, वहीं अन्य दो सीधे नवरंग मंडम में खुलते हैं। सुकनासी एक प्रकार का बाहरी अलंकरण है जो गर्भगृह के समक्ष स्थित होता है। नवरंग मंडप के मध्य में एक उठा हुआ गोलाकार मंच है जो चार स्तंभों पर टिका हुआ है।
मंदिर के सभी नौ छतें सुंदरता से उत्कीर्णित हैं। नवरंग मंडप मुख मंडप से जुड़ा हुआ है जिसके भीतर अनेक स्तंभ हैं। इसके भीतर दुर्गा तथा सरस्वती की प्रतिमाएं हैं तथा बाईं ओर हरिहर की मूर्ति है।
एक महाद्वार से हम मंदिर में प्रवेश करते हैं। मुख मंडप तथा महाद्वार अपेक्षाकृत नवीन संरचनाएं हैं जिन्हे कालांतर में विजयनगर सम्राटों द्वारा निर्मित गया था। मंदिर की बाहरी भित्तियों को देवी-देवताओं, रामायण व महाभारत की कथाओं तथा भागवत की कथाओं पर आधारित शिल्प द्वारा अलंकृत किया गया है। कई भित्ति-खंडों पर ११ वी. तथा १२ वीं. सदी में प्रचलित सामाजिक ताने-बाने को दर्शाती भी कई छवियाँ उत्कीर्णित हैं। मंदिर की निर्मिती यहीं उपलब्ध शैलखटी द्वारा की गई है।
इस मंदिर का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उत्सव रथोत्सव है जो अप्रैल मास में आयोजित किया जाता है।
नग्गेहल्ली का सदाशिव मंदिर
सदाशिव मंदिर होयसल साम्राज्य का एक अन्य, अत्यंत विशिष्ट वास्तुकला का नमूना है। एक महाद्वार, जिसके दोनों ओर दो द्वारपाल हैं, उसके नीचे से होते हुए हम एक स्तंभों से भरे कक्ष में पहुंचते हैं। ऊंचे जगती तक कुछ सीढ़ियाँ जाती हैं जिसके दोनों ओर दो अत्यंत सुंदर गज के शिल्प हैं। यह एक एककुटा मंदिर है जिसमें एक ही शिखर अर्थात विमान है। गर्भगृह के भीतर एक बड़ा शिवलिंग है। गर्भगृह एक बार फिर सुकनासी तथा नवरंग मंडप से जुड़ा हुआ है। नवरंग मंडप के मध्य में उठा हुआ गोलाकार मंच है जिसे दर्शन मंडप कहा जाता है। नंदी मंडप एक बंद कक्ष है जिसके भीतर आदिशेष की एक मनमोहक प्रतिमा है।
मंडप में महिषासुरमर्दिनी, गणेश, सुब्रमण्य तथा सूर्यनारायण के विग्रह हैं। द्वार के तोरण पर नंदी पर विराजमान शिव-पार्वती हैं। सभी लेथ स्तंभ गोलाकार हैं जो होयसल शैली में चक्रयन्त्र अर्थात खराद यंत्र द्वारा निर्मित हैं। मुख्य कक्ष में खड़ी हुई पार्वती की एक आदमकद प्रतिमा है। महाद्वार तथा बाहरी कक्ष कालांतर में विजयनगर साम्राज्य द्वारा जोड़ा गया है।
मंदिर के शिखर को ज्यामितीय आकृतियों एवं रेखाओं द्वारा सुंदरता से उकेरा गया है। इसके शीर्ष पर एक कलश है। शिखर के ऊपर चारों दिशाओं में नंदी की मनमोहक प्रतिमाएँ हैं। साथ ही होयसल राजवंश का राज चिन्ह, बाघ का वध करते सल, की भी शिल्पकारी की गई है।
इस मंदिर का निर्माण भी बोम्मन्ना दंडनायक ने करवाया था। नग्गेहल्ली एक समृद्धशाली अग्रहार था। विजय सोमनाथपुरा के नाम से भी प्रचलित यह नगर शिक्षा का केंद्र था।
नग्गेहल्ली हासन से ६३ किलोमीटर तथा बंगलुरु से १६३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
अरसिकेरे का ईश्वर मंदिर
अरसिकेरे कर्नाटक के हासन जिले में स्थित एक लघु नगरी है। यह होयसल काल के ईश्वर मंदिर के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है। कन्नड भाषा में अरसिकेरे का शब्दशः अर्थ है रानी का कुंड। अरसी का अर्थ है रानी अथवा राजकुमारी तथा केरे का अर्थ है झील।
भगवान शिव को समर्पित ईश्वर मंदिर एककुटा मंदिर है। इसमें एक शिखर तथा दो मंडप हैं जिनमें एक मंडप खुला तथा दूसरा घिरा हुआ है। मंदिर की भीतरी संरचना में गर्भगृह, सुकनासी, दर्शन मंडप तथा एक नाट्य मंडप सम्मिलित हैं। गोलाकार नाट्य मंडप एक संवृत अथवा बंद संरचना है जो २१ लेथ स्तंभों तथा तारे के आकार के एक अनियमित गुंबद द्वारा मंडित है। मंदिर की भीतरी छत को उलटे कमल के आकार में सूक्ष्मता से उकेरा गया है। बैठने के लिए एक मंच है जिसको आधार देते कई छोटे गजों की आकृतियाँ हैं।
नाट्य मंडप
नाट्य मंडप तथा दर्शन मंडप आपस में एक बाड़ द्वारा जुड़े हुए हैं। दर्शन मंडप में अनेक लघु-मंदिर हैं जो वीरभद्र, गणपती, ब्रह्मा, विष्णु तथा अष्ट दिग्पालों को समर्पित हैं। यह एक झरोखा विहीन चौकोन कक्ष है जिस में छः स्तंभ तथा नौ छतें हैं। छतों पर पुष्पों एवं जालीदार आकृतियों को सूक्ष्मता से उकेरा गया है। मंदिर के दाहिनी ओर स्थित एक अन्य कक्ष में २४ स्तंभ हैं। इस कक्ष में वीरेश्वर, बाकेश्वर तथा चामुंडेश्वर को समर्पित तीन छोटे मंदिर हैं।
मंदिर की बाहरी भित्तियाँ देवी-देवता, पुराण तथा महाभारत व रामायण जैसे महाकाव्यों की कथाओं पर आधारित शिल्पों द्वारा अलंकृत हैं। सुकनासी के ऊपर होयसल राजवंश की राजमुद्रा के स्थान पर नंदी बैल की प्रतिमा है। तारे का अनियमित आकार लिए इस मंदिर की संरचना आपको अत्यंत विशेष प्रतीत होगी।
राजा वीर बल्लाल के काल में निर्मित यह मंदिर शैलखटी अथवा सिलखड़ी शिला में है।
इस मंदिर में दो प्रमुख उत्सव आयोजित किए जाते हैं, शिवरात्रि तथा कार्तिक अमावस्या।
अरसिकेरे हासन से ४१ किलोमीटर तथा बैंगलुरु से २०० किलोमीटर दूर स्थित है।
बेलवाडी का वीर नारायण मंदिर
बेलवाडी कर्नाटक के चिकमंगलूर जिले में हालेबिडु के समीप स्थित है। इस स्थान का उल्लेख महाभारत में भी किया गया है। वहाँ इस स्थान को एकचक्रनगर के नाम से दर्शाया गया है। ऐसा माना जाता है कि यहाँ पांडव राजकुमार भीम ने बकासुर का वध किया था। यह स्थान एक होयसल मंदिर, वीर नारायण स्वामी मंदिर के लिए भी प्रसिद्ध है।
यह एक त्रिकुटा मंदिर है। मध्य में स्थित मंदिर वीर नारायण स्वामी को समर्पित है। इसके बाईं ओर वेणुगोपाल तथा दायीं ओर योगनरसिंह के मंदिर हैं। प्रवेश द्वार के दोनों ओर दो हाथियों के शिल्प हैं। चतुर्भुज वीर नारायण स्वामी की शालिग्राम पर उकेरी हुई ८ फीट ऊंची मूर्ति है जो एक खुले कमल के पुष्प पर खड़ी है। इसके दोनों ओर श्रीदेवी एवं भूदेवी की प्रतिमाएं हैं। ऊपर विष्णु के दस अवतार उत्कीर्णित हैं।
इस मंदिर में होयसल मंदिरों की सभी विशेषताएं उपस्थित हैं, जैसे गर्भगृह, सुकनासी, मंडप तथा लेथ मशीन पर निर्मित व आईने के समान चमक लिए गोलाकार स्तंभ।
कल्पवृक्ष के नीचे, बाँसुरी हाथों में लिए वेणुगोपाल की ८ फीट ऊंची अत्यंत मनमोहक विग्रह है। उनके आसपास सनक, सनन्दन, सनातन, संत कुमार, गोपिका, रुक्मिणी तथा सत्यभामा की प्रतिमाएं हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने स्वयं इस मूर्ति को भारत की सर्वाधिक मनमोहक कृष्ण मूर्ति के रूप में सत्यापित किया है। इस मूर्ति पर अत्यंत सूक्ष्मता से की गई नक्काशी हमें उनके दिव्य रूप का आभास कराती हैं।
हाथों में शंख व चक्र धारण किए योगनरसिंह की सात फीट ऊंची, बैठी मुद्रा में एक सुंदर प्रतिमा है जिनके दोनों ओर श्रीदेवी तथा भूदेवी की प्रतिमाएं हैं। ऐसा कहा जाता है कि हिरण्यकश्यप का वध करने के पश्चात क्रोधित नरसिंह अपना क्रोध शांत करने के लिए योग मुद्रा में विराजमान हुए थे।
ये तीनों मूर्तियाँ एकशिला शालिग्राम द्वारा निर्मित की गई हैं।
मंदिर की बाहरी भित्तियाँ ठेठ होयसल वास्तु शैली में उत्कीर्णित हैं। इस मंदिर की अद्वितीय विशेषताएँ हैं इसका त्रिकुटा विमान तथा इसके आश्चर्यचकित कर देने वाली अत्यंत मनभावन मूर्तियाँ। मंदिर एवं मूर्तियों के भीतरी सौन्दर्य को प्राधान्यता दी गई है।
इस मंदिर की एक अत्यंत महत्वपूर्ण विशेषता है इसके निर्माता का अभियांत्रिकी कौशल। ठीक विषुव अर्थात २३ मार्च के दिन सूर्य की प्रथम किरण मंदिर के सात द्वारों को पार कर वीरनारायण की मूर्ति पर पड़ती है। इसे एक अत्यंत महत्वपूर्ण दिवस माना जाता है। इस दिन यहाँ भक्तों की अपार भीड़ उपस्थित रहती है। यहाँ के प्रमुख उत्सवों में चैत्र पूर्णिमा, जन्माष्टमी, रथसप्तमी तथा नरसिंह जयंती सम्मिलित हैं। चैत्र पूर्णिमा के दिन विष्णु, श्रीदेवी तथा भूदेवी की उत्सव मूर्तियों की शोभायात्रा निकाली जाती है।
मंदिर परिसर के भीतर, विशेषतः गर्भगृह एवं मूर्तियों के छायाचित्रिकरण पर पाबंदी है।
जवगल चिकमंगलूर महामार्ग पर स्थित बेलवाडी हालेबिडु से १२ किलोमीटर दूर है।
किक्केरी का ब्रह्मेश्वर मंदिर
एक मनमोहक विशाल झील के तीर स्थित ब्रह्मेश्वर मंदिर भी होयसल वास्तुशिल्प की एक अति विशिष्ट कृति है। भगवान शिव को समर्पित यह एककुटा मंदिर इस समय जीर्ण स्थिति में है क्योंकि इसका रखरखाव भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अंतर्गत नहीं आता है। तथापि नवीनीकरण का कुछ कार्य कार्यान्वित होते हमने अवश्य देखा। यहाँ नियमित पूजा अर्चना की जाती है। चूंकि यहाँ भक्तगण अधिक संख्या में नहीं आते, इस मंदिर के पट अधिकतर बंद रहते हैं। स्थानीय निवासियों की सहायता से आप पुजारीजी को बुलावा भेज सकते हैं। हमें पुजारीजी अत्यंत सज्जन तथा भद्र पुरुष प्रतीत हुए। उन्होंने अत्यंत प्रसन्नता से हमें सम्पूर्ण मंदिर का दर्शन कराया।
यह मंदिर धरती के समतल पर स्थापित है जो ऊंचे मंच अर्थात जगती पर स्थापित अन्य होयसल मंदिरों के विपरीत है। गर्भगृह के तोरण पर ब्रह्मा की छवि विराजमान है। ऐसा कहा जाता है कि हम ब्रह्मा की प्रत्यक्ष रूप में आराधना नहीं कर सकते। उनकी आराधना भगवान शिव के माध्यम से ही की जाती है। इस मंदिर में जब हम भगवान शिव की पूजा करते हैं तब हम अपरोक्ष रूप से ब्रह्मा की पूजा अर्चना करते हैं। इसीलिए इस मंदिर को ब्रह्मेश्वर मंदिर कहा जाता है। मंदिर की बाहरी भित्तियों पर देवी-देवताओं, पुराणों व महाकाव्यों की कथाओं पर आधारित छवियाँ उत्कीर्णित हैं। इनमें सर्वाधिक विलक्षण छवियाँ विष्णु के वराह अवतार एवं विघ्नेश्वर की हैं।
इस मंदिर में भी गर्भगृह, सुकनासी तथा नवरंग मंडप हैं। बाहरी घेरदार संरचना के भीतर एक विशाल एवं अलंकृत नंदी की बैठी मुद्रा में प्रतिमा है। नंदी की प्रतिमा के ऊपर की गई नक्काशी देख आपकी आंखे फटी की फटी रह जायेंगी। भीतरी गर्भगृह की ओर मुख कर खड़े सूर्यनारायण की प्रतिमा नंदी के पृष्ठभाग में है।
एक गोलाकार मंच लेथ-रचित चार स्तंभों पर रखे हैं जिन पर रामायण के दृश्य चित्रित हैं। प्रत्येक स्तंभ के कोष्ठक वास्तव में सुंदर मदानिकाओं की उत्कृष्ट प्रतिमाएँ हैं। इनमें से अधिकतर प्रतिमाओं को मंदिर से चुरा लिया गया है। आप इनमें से कुछ ही यहाँ देख सकते हैं। विगृह की ओर मुख किए हुए एक छोटे नंदी नाट्य मंडप में विराजमान हैं। भीतरी गर्भगृह के दोनों ओर महिषासुरमर्दिनी तथा गणेश के दो छोटे मंदिर हैं।
उत्तरी तथा दक्षिणी दिशा में दो मंदिर हैं जिनमें एक मंदिर ईश्वर रूप में भगवान शिव तथा दूसरा केशव रूप में भगवान विष्णु को समर्पित है। गणेश के विग्रह के समीप सप्त मातृका का पटल तथा केशव के समीप कालभैरव का विग्रह है। कालभैरव की यह मूर्ति मंदिर के समीप स्थित जलकुंड के भीतर से प्राप्त हुई थी। छत पर अष्टदिग्पालों तथा नवग्रहों की छवियाँ हैं।
प्रांगण में अन्य कई छोटी मंदिर संरचनाएं हैं किन्तु उनमें अधिकतर जीर्ण अवस्था में हैं। केवल पार्वतीअम्मा को समर्पित एक छोटे मंदिर का ही अब तक जीर्णोद्धार किया गया है। यहाँ दैनिक पूजा अर्चना भी की जाती है।
किक्केरी श्रीरंगपटना- चनरायपटना महामार्ग पर स्थित है तथा के आर पेटे से ११ किलोमीटर दूर है।
गोविंदनहल्ली का पंचलिंगेश्वर होयसल मंदिर
पंचलिंगेश्वर एक पंचकुटा मंदिर है जिस पर उत्तर-दक्षिण अक्षांश पर पाँच विमान हैं। ये विमान पूर्व दिशा की ओर एक स्तंभ युक्त बड़े कक्ष में खुलते हैं। प्रत्येक मंदिर के भीतर एक गर्भगृह तथा सुकनासी है जो स्तंभ युक्त कक्ष की ओर मुख किए हुए हैं। सुदृढ़ता से गड़ा एक नंदी भी है जो मंदिर की ओर मुख किए ड्योढ़ी पर बैठा है। आप देखेंगे कि पाँच मंदिरों में से प्रत्येक मंदिर के बाईं ओर एक छोटा गणेश मंदिर तथा दाईं ओर चामुंडेश्वरी को समर्पित एक छोटा मंदिर है।
इस मंदिर में ध्यान देने योग्य वैशिष्टताएँ हैं, सुब्रमण्य, आदिशेष, सप्त मातृका, शिव तथा पार्वती। पाँच शिवलिंगों के नाम हैं, इशानेश्वर, तत्पुरुशेश्वर, अघोरेश्वर, वामदेवेश्वर तथा सदज्योतेश्वर। प्रत्येक मंदिर के गर्भगृह के बाह्य क्षेत्र में द्वारपाल, नंदी तथा वृन्गी हैं। गर्भगृह के तोरण पर गजलक्ष्मी की छवि है। लेथ द्वारा निर्मित स्तंभों की चमक एवं नक्काशी विलक्षण है। उन पर थपथपाने से गूँजता हुआ धातुई स्वर सुनाई देता है। मंदिर की बाहरी भित्तियों पर उकेरे विष्णु के दस अवतार, देवी-देवताओं तथा अन्य शिल्प होयसल शैली में हैं।
मंदिर की संरचना ऊंचे मंच अथवा जगती पर नहीं, अपितु पर धरातल पर की गई है।
इसकी स्थापना लगभग १२३७-३८ ई. के आसपास, प्रसिद्ध होयसल शिल्पकार मल्लितम्मा द्वारा किया गया है। मंदिर के बाहरी भित्तियों पर उत्कीर्णित कुछ शिल्पों पर उनका नाम भी उकेरा हुआ है। यह मंदिर किक्केरी से लगभग ५ किलोमीटर दूर, श्रीरंगपटना- चनरायपटना महामार्ग पर स्थित है।
डोड्डगड्डवल्ली का लक्ष्मी देवी मंदिर
लक्ष्मी देवी को समर्पित यह अत्यंत आकर्षक मंदिर डोड्डगड्डवल्ली गाँव में स्थित है जो हासन-हालेबिडु महामार्ग से २ किलोमीटर की दूरी पर है। झील के किनारे स्थित यह शांत एवं निर्मल मंदिर एक चतुष्कुटा मंदिर है जिस के चार दिशाओं में चार शिखर हैं। यह होयसल वंश के प्राचीनतम जीवित मंदिरों में से एक है। इसका प्रवेश द्वार पूर्व दिशा में है। वायु एवं प्रकाश के आवागमन के लिए इसकी भित्तियाँ जालीदार बनाई गई हैं। इस मंदिर परिसर में काली, लक्ष्मी, शिव एवं विष्णु को समर्पित चार मंदिर चार दिशाओं में स्थित हैं।
काली मंदिर
इस मंदिर की अद्वितीय विशेषताएँ यह हैं कि यह मंदिर शांतस्वरूप काली को समर्पित है तथा इसके दोनों ओर शाकिनी एवं डाकिनी हैं। यह अन्य होयसल मंदिरों से भिन्न हैं जो अधिकतर विष्णु अथवा शिव को समर्पित हैं। यहाँ उपस्थित नागकन्या, विषकन्या तथा वेताल के शिल्प भी इसे अन्य होयसल मंदिरों से भिन्न बनाते हैं।
गर्भगृह की बाहरी भित्तियों पर स्थित तोरण पर छः वेताल नागकन्याओं एवं विषकन्याओं संग नृत्य करते दर्शाये गए हैं। यह तोरण मंडप की ओर खुलता है। इसके दोनों ओर कालिका अंगरक्षकों की दो विशाल शिल्प हैं। इन्हे देख मंदिर की संरचना में तांत्रिक उपासना के प्रभाव का आभास होता है।
महालक्ष्मी
पश्चिमी दिशा में स्थित महालक्ष्मी मंदिर में एक गर्भगृह है जिसकी सुकनासी नवरंग मंडप में खुलती है। इस मंदिर के गर्भगृह में एक लिंग है जिसके समक्ष शिव का लघु मंदिर तथा दक्षिण में विष्णु का लघु मंदिर है। विष्णु की मूल प्रतिमा नष्ट हो गई है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने नवीन प्रतिमा स्थापित की है जिनकी अब केशव रूप में आराधना की जाती है।
इसकी छत पर सघन उत्कीर्णन है जिस पर भगवान शिव को रुद्र तांडव करते एवं रुद्र वीणा बजाते दर्शाया गया है। अन्य छवियों में संबंधित वाहनों की सवारी करते अग्नि, वरुण, निरुत्त व यम तथा ऐरावत की सवारी करते इन्द्र संमिलित हैं। छत के मध्य में भुवनेश्वरी की छवि थी किन्तु अब वह स्पष्ट दृष्टिगोचर नहीं है।
प्रांगण में एक शिला पर कन्नड भाषा में लिखे कुछ अभिलेख हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इस मंदिर तथा इसके बाग-बगीचे का रखरखाव अत्यंत कुशलता से किया है। इसका निर्माण सहजा देवी ने करवाया था जो कलहन राहुता की पत्नी थीं। राहुता ११ वीं. सदी में होयसल सम्राट विष्णुवर्धन के दरबार में मंत्री थे।
जवगल का लक्ष्मी नरसिंह मंदिर
यह एक त्रिकुटाचल मंदिर है। इसका प्रवेश द्वार विजयनगर काल का महाद्वार है जिसके दोनों ओर हाथियों के शिल्प हैं। इसके तीन लघु मंदिर एक छोटे नाट्य मंडप द्वारा जुड़े हुए हैं। गरुडस्तंभ पर नतमस्तक होने के पश्चात तथा जय व विजय नामक दो द्वारपालों से भेंट करने के पश्चात आप एक अन्य मंडप से होते हुए इस मंदिर के भीतर पहुंचेंगे।
कालांतर में विजयनगर सम्राटों ने इस मंदिर परिसर में दीपस्तंभ, लक्ष्मी मंदिर तथा स्तंभयुक्त कक्ष की संरचनाएँ जोड़ी थीं। पृष्ठभाग में, एक कोने में स्तंभों से भरा एक अन्य कक्ष है जो अब जीर्ण अवस्था में है। राज्य पुरातत्व विभाग ने अब इस मंदिर के रखरखाव का उत्तरदायित्व उठाया है।
इस मंदिर के अधिष्ठात्र देव श्रीधर रूप में वीर नारायण स्वामी हैं। बाईं ओर वेणुगोपाल तथा दाईं ओर पत्नी लक्ष्मी समेत लक्ष्मीनरसिंह विराजमान हैं। देवी-देवताओं को ठीक उसी प्रकार स्थापित किया गया है जैसा आपने बेलवाडी मंदिर में देखा होगा। यहाँ वेणुगोपाल बाल्य अवस्था के कृष्ण हैं। इसीलिए उन पर मुकुट नहीं है। बेलवाडी में कृष्ण किशोर अवस्था में उपस्थित हैं। इस मंदिर में भी आप दशावतार, गोपिकाएं, गौमाताएं, सत्यभामा तथा रुक्मिणी की छवियाँ देख सकते हैं। तोरण पर कालिया मर्दन अर्थात कालिया संहार का दृश्य अंकित है जिसमें कृष्ण को कालिया नाग का वध करते प्रदर्शित किया है।
सभी प्रतिमाएं शालिग्राम शिला में निर्मित हैं।
यहाँ दो-लघु मंदिर हैं, बाईं ओर महागणपती तथा दाईं ओर चामुंडेश्वरी। महागणपति लघु-मंदिर की छत पर गणपति की १०८ छवियाँ उत्कीर्णित हैं। मंदिर की छत पर अष्ट दिग्पाल उत्कीर्णित हैं।
इस मंदिर की निर्मिती १३ वी. सदी में होयसल सम्राट वीर सोमेश्वर के कारवाई थी।
जवगल नगरी हासन से लगभग ५० किलोमीटर की दूरी पर है।
शांतिग्राम का भोग नरसिंह मंदिर
यह एक सादा एवं जीवंत मंदिर है जो श्री लक्ष्मी समेत वरद योग भोग नरसिंह मंदिर के नाम से अत्यंत लोकप्रिय है। एक विशाल, भव्य तथा अनेक रंगों में सजे गोपुरम से होते हुए हम इसके भीतर प्रवेश करते हैं। प्रांगण के भीतर एक छोटा एककुटा मंदिर है जो नरसिंह को समर्पित है। मंदिर के अंत में एक कक्ष है जिसमें अनेक स्तंभ हैं। यह कक्ष तथा एक यज्ञ कुंड कालांतर में जोड़े गए प्रतीत होते हैं।
इस मंदिर को श्वेत रंग में रंगा गया है। इसीलिए इसके स्तंभ तथा बाहरी भित्तियाँ होयसल वास्तुशिल्प प्रतीत नहीं होते। नरसिंह बाईं ओर लक्ष्मी संग बैठे हुए हैं। उनके दायें हाथ में शंख तथा बाएं हाथ में चक्र है। गत १२०० वर्षों से यहाँ अनवरत पूजा अनुष्ठान किए जा रहे हैं जिसकी दिव्य शक्ति से यह मंदिर परिपूर्ण है।
मंदिर के मध्य, छत पर नरसिंह के नौ अवतारों को गोलाकार में उत्कीर्णित किया है। नव नरसिंह के नौ अवतार हैं, उग्र, क्रोध, वीर, विलंब, कोप, योग, अघोर, सुदर्शन तथा लक्ष्मी नरसिंह।
इस मंदिर का निर्माण ११ वीं. सदी में रानी शांतला देवी ने करवाया था जो सम्राट विष्णुवर्धन की पत्नी थीं।
शांतिग्राम हासन से १३ किलोमीटर दूर बंगलुरु हासन महामार्ग पर स्थित है।
अनेकेरे का चेन्नाकेशव मंदिर
श्रीरंगपटना-चनरायपटना महामार्ग पर चनरायपटना तालुका में एक छोटा सा नगर है, अनेकेरे। यहाँ स्थित चेन्नाकेशव मंदिर एक एककुटा मंदिर है जिसके ऊपर एक विशाल कलश है।
सीढ़ियाँ युक्त प्रवेशद्वार से हम इसके भीतर पहुंचते हैं। यह प्रवेशद्वार हमें एक प्रांगण में ले जाता है जिसके मध्य में मंदिर स्थित है। स्तंभों पर आधारित कक्ष सम्पूर्ण प्रांगण के चारों ओर स्थित है। तुलसी का एक अत्यंत प्राचीन वृंदावन है। गर्भगृह के भीतर भूदेवी एवं श्रीदेवी समेत चेन्नाकेशव विराजमान हैं।
तोरण पर गज लक्ष्मी उत्कीर्णित हैं। वहीं भित्तियों पर द्वारपाल जय एवं विजय हैं। छत पर विपुलता से की गई नक्काशी आपको होयसल वास्तुकला के इस विशेष तत्व का स्मरण कराएंगी।
शिखर पर ज्यामितीय आकृतियाँ एवं रचनाएं उकेरी गई हैं। मंदिर की बाईं भित्ति पर कन्नड़ भाषा में कुछ अभिलेख हैं। यह एक छोटा सा अत्यंत आकर्षक मंदिर है जो अत्यंत दर्शनीय है।
यहाँ की उत्सव मूर्ति की शोभायात्रा मार्च-अप्रैल में आने वाले उगादि के उत्सव में निकाली जाती है।
होसहोललु का लक्ष्मीनारायण मंदिर
होसहोललु मंड्या जिले में स्थित एक छोटा सा नगर है। यह नगर १२५० ई. में सम्राट वीर सोमेश्वर द्वारा निर्मित होयसल वास्तुशिल्प की इस अद्भुत कलाकृति के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है।
लक्ष्मीनारायण मंदिर एक त्रिकुटा मंदिर है। पश्चिम दिशा में स्थित इसका मुख्य मंदिर लक्ष्मीनारायण को समर्पित है। इन्हे नम्बीनारायण भी कहा जाता है। इस प्रमुख मंदिर के दोनों ओर दो छोटे मंदिर हैं जो गणेश तथा चामुंडी को समर्पित हैं। उत्तर दिशा में वेणुगोपाल मंदिर तथा दक्षिण दिशा में लक्ष्मीनरसिंह मंदिर हैं।
मुख्य मंदिर में गर्भगृह तथा सुकनासी हैं जो नाट्य मंडप में खुलते हैं। नाट्य मंडप के पश्चात एक और कक्ष है। अन्य दोनों मंदिरों के गर्भगृह भी नाट्य मंदिर में ही खुलते हैं। मंदिर की भीतरी संरचना अन्य होयसल मंदिरों के समान विपुलता से उत्कीर्णित है। इसमें भी भव्यता से उत्कीर्णित छत तथा गोलाकार लेथ स्तंभ हैं। स्तंभों पर थपथपाने से धातुई स्वर निकलता है। अन्य होयसल मंदिरों के समान जगती मंच पर स्थापित यह मंदिर भी शैलखटी द्वारा निर्मित है। बाहरी भित्तियाँ सर्वोत्कृष्ट हैं जिनकी छः पट्टिकाओं पर गजों, मकरों, हंसों, मोरों तथा मनमोहक पुष्पाकृतियों की उत्कृष्ट शिल्पकारी की गई है। इन पट्टिकाओं के ऊपर देवी-देवताओं तथा पुराण, रामायण व महाभारत की कथाओं को दर्शाते दृश्यों के शिल्प हैं।
चूंकि इस मंदिर पर आतताईयों ने आक्रमण नहीं किया था, यहाँ प्रतिमाएं एवं मंदिर नष्ट नहीं हुए हैं। पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इस मंदिर तथा इसके बाग-बगीचे का रखरखाव अत्यंत कुशलता से किया है।
इस मंदिर का प्रमुख उत्सव वैकुंठ एकादशी है।
कर्नाटक के होयसल मंदिर दर्शन के लिए यात्रा सुझाव:
- कर्नाटक के होयसल मंदिरों के दर्शन करने हेतु आप बंगलुरु, हासन अथवा मैसूर को अपना पड़ाव केंद्र चुन सकते हैं। यहाँ ठहरने की उत्तम व्यवस्थाएँ हैं तथा ये स्थान मंदिरों से अधिक दूर भी नहीं हैं।
- इन मंदिरों के दर्शन का सर्वोत्तम समय अक्टूबर से मार्च मास के मध्य है।
- इनमें से अधिकतर मंदिर महामार्ग से दूर, गांवों के निर्मल वातावरण में स्थित हैं। वहाँ कदाचित आपको खाने पीने की इष्टित वस्तुएं प्राप्त ना हों। अतः अपने खाने पीने के पदार्थ साथ ले जाएँ।
- स्थानीय निवासी अत्यंत विनम्र एवं भद्र हैं। मार्गदर्शन के लिए आप उनसे अवश्य सहायता ले सकते हैं। यहाँ गूगल नक्शा आपको भ्रमित कर सकता है।
- प्रत्येक मंदिर में परिदर्शक अथवा गाइड कदाचित उपलब्ध ना हो। परंतु जहां भी आपको यह सुविधा मिले, उसका लाभ अवश्य उठायें। कई स्थानीय निवासी भी बिना किसी आशा के आपकी सहायता करने में तत्पर रहेंगे। उन्हे अपनी धरोहर प्रदर्शित करने में अत्यंत गर्व होता है।
- अधिकतर होयसल मंदिरों में भीड़ नहीं रहती है। आप यहाँ शांति से भरपूर समय बिताते हुए इन मंदिरों के वास्तु कौशल का आनंद उठा सकते हैं।
यह यात्रा संस्करण श्रुति मिश्रा द्वारा Inditales Internship Program के अंतर्गत साझा किया गया है।
श्रुति मिश्रा एक व्यावसायिक बँककर्मी हैं। उन्हे भिन्न भिन्न स्थानों की यात्रा कर वहाँ की समृद्ध धरोहरों को जानने व समझने तथा वहाँ के स्थानीय व्यंजनों का आस्वाद लेने में अत्यंत रुचि है। उन्हे किताबें पढ़ने तथा अपने परिवार के लिए भोजन बनाने में भी अत्यंत आनंद आता है। वे बंगलुरु की निवासी हैं। इनकी अभिलाषा है कि वे सम्पूर्ण भारत की समृद्ध धरोहरों के दर्शन करें तथा उन पर एक पुस्तक प्रकाशित करें।
कर्नाटक के होयसल मंदिर बहुत ही सुंदर, नक्काशीदार व मनभावन मंदिरों का सचित्र व सजीव चित्रण आपने किया, जो चित्र में इतने सुंदर मंदिर व प्रतिमाएं है, वे साक्षात दर्शन करेंगे तो कितनी सुंदर होगी। इतनी अच्छी जानकारी के लिए साधुवाद। 🙏🙏