प्रसिद्ध कुमारतुली कोलकाता के दक्ष मूर्तिकार

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बंगाल, विशेषतः कोलकाता के लोकप्रिय दुर्गा पूजा के विषय में आप सब ने सुना ही होगा। बंगाल के दुर्गा पूजा उत्सव का स्मरण होते ही हमारे समक्ष दुर्गा पूजा पंडाल, काली माता की भव्य मूर्ति, उनके भव्य वस्त्र एवं आभूषण, उनके भक्ति में तल्लीन भक्तगण, नौ दिवसों के उत्सव का उल्ल्हास, सिन्दूर खेला एवं अंत में उनकी प्रतिमा का नदी में विसर्जन, ये सभी दृश्य उभर कर आ जाते हैं। हम में से अधिकाँश लोग दुर्गा पूजा के आनंद में रम जाते हैं, नवीन वस्त्र, नवीन आभूषण, स्वादिष्ट व्यंजन तथा अनेक रंगारंग कार्यक्रमों में खो जाते हैं।

दुर्गा मूर्ति कुमारतुली कोलकाता
दुर्गा मूर्ति कुमारतुली कोलकाता

यहाँ तक कि प्रतिमा की जीवंत सुन्दरता भी हमें भावविभो कर देती है। किन्तु हम में से कितने होंगे जो इन प्रतिमाओं को निहारते हुए उन मूर्तिकारों के विषय में सोचते हैं जिन्होंने ये प्रतिमाएं गढ़ी हैं। कितने लोग होंगे जो इन प्रतिमाओं के दर्शन करते समय उन मूर्तिकारों की कला की सराहना करते होंगे!

ये कोलकाता के कुमारटुली (कुम्हार टोली) क्षेत्र के कुशल मूर्तिकार हैं जिनके अनेक मास के परिश्रम के फलस्वरूप ऐसी सजीव प्रतिमाएं अस्तित्व में आती हैं।

कोलकाता कुमारटुली के मूर्तिकार

जब हम पश्चिम बंगाल में बिश्नुपुर भ्रमण पर जा रहे थे, मार्ग में हमने कोलकाता में एक पड़ाव लिया था। भ्रमण करते करते हम कुमारटुली की गलियों में भी पहुँच गए। यह क्षेत्र मूर्ति गढ़न के लिए विश्व विख्यात है, विशेषतः दुर्गा देवी की मूर्तियों के लिए । आप जैसे ही इस क्षेत्र में प्रवेश करेंगे, आपको पुरातन काल का आभास होने लगेगा। मार्ग के दोनों ओर पुष्प व पुष्पहार विक्री करते विक्रेता। धीमी गति से आती-जाती ट्राम रेलगाड़ी जो इतनी धीमी गति से चलती है कि ऐसा आभास होता है मानो हम पैदल चलकर उससे आगे निकल जायेंगे। जहाँ देखें वहाँ प्रतिमा गढ़ने में मग्न मूर्तिकार। उन पुष्पों में मेरा ध्यान गहरे नीले रंग के अपराजिता पुष्पों ने खींचा। ये पुष्प देश के अन्य भागों में क्वचित ही दृष्टिगोचर होते हैं।

गणेश प्रतिमा का निर्माण
गणेश प्रतिमा का निर्माण

आश्चर्यजनक रूप से, यह सम्पूर्ण क्षेत्र सभी प्रकार की आधुनिकता एवं आधुनिक विश्व के सभी प्रकार के चिन्हों से स्पष्ट रूप से मुक्त प्रतीत हुआ। कहीं कोई आधुनिक पेय की बिक्री नहीं, कहीं कोई ऐसी ठेला गाड़ी नहीं जो अपने चमचमाते नाम पटल से ग्राहकों को आकर्षित कर रहा हो। कहीं कोई जगमगाती रोशनाई नहीं। सम्पूर्ण क्षेत्र अपने मूल रंग में ही लिप्त था।

दुकानें अत्यंत संकरी व लम्बी हैं जो दुकान के साथ साथ कार्यशाला की भूमिका भी निभाती हैं। कारीगर वहीं बैठकर मूर्तियाँ गढ़ते हैं। दुकानों की सम्पूर्ण लम्बाई में मूर्तियाँ भरी हुई रहती हैं। मूर्तिकार एक मूर्ति से दूसरी मूर्ति पर जाते हुए उन पर अपने सधे हाथ चलाता है।

इन गलियों में मूर्तियों के अतिरिक्त विवाह समारोहों में उपयोग में आने वाली वस्तुओं की भी दुकानें हैं।

दुर्गा की प्रतिमाएं

कुमारटुली के दक्ष मूर्तिकार, जिन्हें कुमोर कहते हैं, इनके हाथों जो सर्वोत्तम मूर्तियाँ गढ़ी जाती हैं, वो हैं, दुर्गा देवी तथा उनके साथ दुर्गा पूजा पंडाल में विराजमान उनका सम्पूर्ण जत्था। इनके अतिरिक्त वे विश्वकर्मा, गणेश, लक्ष्मी एवं सरस्वती पूजा के लिए भी मूर्तियाँ बनाते हैं।

दुर्गा प्रतिमा - कुमारतुली
दुर्गा प्रतिमा – कुमारतुली

उस समय मैंने भगवान गणेश की अनेक प्रतिमायें देखीं क्योंकि कुछ दिवसों पश्चात गणेश उत्सव मनाया जाने वाला था। कुछ कारीगर जो मुख्य मार्ग पर बैठकर कार्य कर रहे थे, वे मानव आकृतियों पर भी कार्य कर रहे थे। वे पारंपरिक मिट्टी की प्रतिमाओं के साथ साथ फाइबरग्लास की मूर्तियाँ भी बना रहे थे। आप वहाँ की लगभग सभी दुकानों में रविन्द्र नाथ टैगोर की वक्षप्रतिमा सर्वव्यापी रूप से देखेंगे। उनके साथ कुछ अन्य राष्ट्रीय नेताओं की भी प्रतिमाएं हैं, जैसे इंदिरा गांधी एवं उनका परिवार।

प्रतिमाएं कैसे क्रय करें?

हमें बताया गया कि आप यहाँ आपकी रूचि के अनुसार प्रतिमाएं बनवा सकते हैं। आपको जिस व्यक्ति की प्रतिमा बनवानी है, उसका एक स्पष्ट चित्र मात्र उन्हें देना होगा । मुझे यह जानकार अत्यंत सुखद आश्चर्य हुआ कि कई लोग यहाँ से अपने माता-पिता अथवा अपने पूर्वजों की प्रतिमाएं बनवाते हैं। उन मूर्तियों की कीमत भी सामान्य ही होती है। सामान्य से सामान्य आय पाने वाले व्यक्ति भी उनका आसानी से निर्वाह कर सकते हैं। मुझे बताया गया कि यहाँ से अनेक मूर्तियाँ विदेश भी भेजी जाती हैं जिससे उन्हें उत्तम निर्यात मूल्य प्राप्त हो जाता है।

कुमारटुली की गणेश प्रतिमाएं

एक क्षेत्र में भगवान गणेश की एक समान प्रतिमाएं रखी हुई थीं जिन पर कुछ भागों पर ही रंग किया था। अधूरी रंगी हुई प्रतिमाएं भी एक समान थीं। ये प्रतिमाएं मुझे अत्यंत रोचक लगीं। उन्हें देख ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो कारीगर भगवान को किसी उत्सव के लिए वस्त्र व आभूषणों से अलंकृत कर रहे हों। इन प्रतिमाओं पर की गयी कुछ कारीगरी इतनी सूक्ष्म एवं जटिल थीं कि यह विश्वास करना कठिन हो रहा था कि ये हाथों द्वारा मिट्टी से बनाई गयी हैं।

कुमारतुली के मूर्तिकार
कुमारतुली के मूर्तिकार

वहाँ खड़े हो कर कारीगरों के दक्ष हाथों को उन प्रतिमाओं पर चलते, उन्हें आकार देते, उन्हें रंगते व उन पर सजीव भाव उभारते हुए प्रत्यक्ष देखना एक अविस्मरणीय अनुभव था। उनके आभूषण ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो असली आभूषण हों। जो प्रतिमाएं अभी रंगी नहीं गयी थीं उन पर भी मिट्टी से बने पुष्प अलंकरण एवं स्वर्ण अलंकरण में भिन्नता स्पष्ट देखी जा सकती थी। कारीगरों की यह दक्षता अचंभित कर देती है। सम्पूर्ण गली में इसी प्रकार की अर्ध-निर्मित प्रतिमाएं थीं तो आपको ही देखती हुई प्रतीत होती हैं।

इन गलियों में सभी प्रतिमाएं तब अपूर्ण थीं। किसी का शरीर मिट्टी से पूर्णतः निर्मित हो चुका था तो रंगा नहीं गया था, किसी का निचला भाग पूर्ण हो चुका था तो शीष नहीं लगा था, कुछ प्रतिमाएं पूर्ण रूप से निर्मित होकर रंगी जा चुकी थीं तो उनको वस्त्रों से सज्ज करना शेष था, वहीं कुछ प्रतिमाएं लगभग पूर्ण हो चुकी थीं, केवल उन पर आभूषण गढ़ना शेष था। गणेश प्रतिमा के साथ जाने के लिए दहाड़ मारते शेर थे तो नन्हे मूषक भी थे। अनेक अन्य प्राणी भी निर्मित किये गए थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वे कारीगर सम्पूर्ण सृष्टि की निर्मिती कर रहे हों।

मूल निवासियों का गाँव

इस क्षेत्र को मूल निवासियों का गाँव भी कहते हैं। यह क्षेत्र कोलकाता के दक्षिण में कालीघाट जाते हुए प्राचीन तीर्थ मार्ग का भाग है। नदी के समीप होने के कारण उन्हें मूर्तियाँ गढ़ने के लिए उत्तम स्तर की मिट्टी आसानी से उपलब्ध हो जाती है। अधिकतर मूर्तिकार ऐसे परिवारों से संबंध रखते हैं जो अनेक पीढ़ियों से मूर्तियाँ बनाते आ रहे हैं। मुझे यह ज्ञात नहीं कि इस कला के लिए उन सब ने पूर्व प्रशिक्षण प्राप्त किया है। मेरा अनुमान है कि वे सब अपने परिवार के अन्य सदस्यों को मूर्तियाँ बनाते देखते होंगे व उनसे ही सीखते होंगे।

गणेश प्रतिमाएं
गणेश प्रतिमाएं

सभी मूर्तियों के मध्य भाग में भूसा भरा जाता है जिसके ऊपर मिट्टी से आकार दिया जाता है। तत्पश्चात मूर्तियों को तपाया जाता है। इसके पश्चात प्रतिमाओं पर गीली मिट्टी द्वारा सूक्ष्म भाव भंगिमाएं प्रदान की जाती हैं। वस्त्र एवं आभूषण उकेरे जाते हैं। तत्पश्चात उन पर रंगाई एवं अन्य साज-सज्जा की जाती है।

सोचा जाए तो इन सभी प्रतिमाओं का निर्मिती एवं विसर्जन का एक वर्षीय चक्र चलता है। वर्ष प्रति वर्ष इन्हें जिस मिट्टी से बनाया जाता है, तत्पश्चात वे उसी मिट्टी में जाकर विलीन हो जाती हैं। वर्तमान समय में जब बंगाल की मिट्टी से बंगाल में बनी देवी की मूर्तियाँ विश्व भर के बंगाली परिवारों को भेजी जाती हैं तथा विश्व भर में विसर्जित की जाती हैं, ऐसा कहा जा सकता है कि बंगाल की मिट्टी विश्व भर में जा रही है।

मुझे बताया गया कि यहाँ से मूर्ति बनवाने के लिए बहुत समय पूर्व ही बताना पड़ता है। बनी बनाई मूर्तियाँ सीधे क्रय करना क्वचित ही संभव हो पाता है।

परम्पराएं

परंपरा के अनुसार पुरातन काल में समृद्ध परिवार इन कारीगरों को अपने निवास पर आमंत्रित करते थे तथा इन कारीगरों से अपनी पारिवारिक परंपरा के अनुसार प्रतिमाएं बनवाते थे। ऐसा कहा जाता है कि प्रतिमा बनाने से पूर्व तथा देवी की प्रतिमा पर तीसरा नेत्र बनाने से पूर्व ध्यान-अनुष्ठान किया जाता था। देवी का तीसरा नेत्र बनना मूर्ति के पूर्णत्व का संकेत होता है। देवी की शक्ति का संकेत होता है।

दुर्गा मूर्ति
दुर्गा मूर्ति

वहीं इस क्षेत्र की सादगी ने मेरा मन मोह लिया था। सभी कारीगर मूर्तियाँ बनाने में व्यस्त थे। विभिन्न चरणों में आगामी कलाकारी की प्रतीक्षा में खड़ी उन प्रतिमाओं के छायाचित्र लेने से किसी ने भी हमें रोका नहीं। इसके फल के रूप में उनकी हमसे कोई आशा भी नहीं दिखाई दे रही थी। हमने जो जो भी जिज्ञासाएं व्यक्त कीं, जो जो भी प्रश्न पूछे, उन्होंने बड़ी ही सादगी से उन सबके उत्तर दिए। हमें कहीं भी ऐसा आभास नहीं हुआ कि हमारे वहाँ रहने से उन्हें किसी भी प्रकार की असुविधा हो रही हो।

कुमारतुली के पुष्प
कुमारतुली के पुष्प

मेरी अभिलाषा है कि अधिक से अधिक लोग इस स्थानीय कला के विषय में जानें, उसे देखें, इन कारीगरों के विषय में जाने व उन्हें प्रोत्साहित करें। विश्व प्रसिद्ध दुर्गा पूजा के पृष्ठभाग में की गयी इन मूर्तिकारों के परिश्रम को देखें व समझें। वहीं, मैं यह भी नहीं चाहती कि यह स्थान पर्यटकों की भीड़ से भरे। इससे इस क्षेत्र का मूल उद्धेश्य भंग हो सकता है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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