बागमती नदी के किनारे बसे बिहार के पुराने शहरों में से एक दरभंगा आज बिहार का प्रमंडलीय मुख्यालय है। इस शहर का सर्वप्रथम जिक्र 12वीं शताब्दी के आसपास के दस्तावेजों में मिलता है। वैसे तिरहुत (मिथिला) की राजधानी बनने का गौरव इसे 1762 में प्राप्त हुआ।
दरभंगा जितना ऐतिहासिक है, उतना ही उपेक्षित भी। इसके बावजूद पुराने और महत्वपूर्ण शहर होने के नाते यहां पहुंचना बेहद सुगम है। 1938 से ही यहां एयरपोर्ट तैयार है (जो 1963 तक सेवरत्त था और तत्पश्चात वायुसेना के अधीन। आम जनों के लिए सेवा पुनः शुरु होनेवाली है जिसपर आधा से ज्यादा कार्य हो चुका है)। ध्यातव्य है कि 1874 से ही यह शहर रेलमार्ग से जुडा हुआ है। राजधानी दिल्ली समेत सभी महत्वपूर्ण जगहों के लिए यहां से सीधी ट्रेनें है। राजधानी पटना से करीब तीन घंटे का सफर तय कर ईस्ट वेस्ट कोरिडोर (एनएच 57) के रास्ते आप दरभंगा तक पहुंच सकते है।
शहर के मुहाने पर ही आपको एहसास हो जायेगा कि आप एक ऐसे शहर के अंदर जा रहे हैं, जो ठहरा हुआ है। अपने अतीत को ढोता हुआ किसी तरह जिंदा है। महलों और मंदिरों के खंडहरों के बीच से आ रही आवाज आपको उस परिसर की ओर ले जायेगी, जहां मृत्यु एक सत्य है। भारत धर्म महामंडल के अध्यक्ष रहे महाराजा रमेश्वर सिंह की करीब 22 फुट ऊंची इटेलियन मार्बल की विशाल प्रतिमा के सामने से गुजरते हुए जब आप उस परिसर में दाखिल होंगे तो धर्म, दर्शन और आध्यात्म की एक अलग ही दुनिया से आपका परिचय होगा। आप एक ऐसे शमसान की ओर बढ़ते जायेंगे जहां का महौल गम भरा नहीं, बल्कि उत्सवी दिखेगा। इस श्मशान स्थल के कण-कण में जीवन का दर्शन छुपा है।
करीब 51 एकड़ में फैले इस परिसर में तिरहुत के अंतिम राजवंश के कई सदस्यों की चिताओं पर भव्य मंदिर का निर्माण किया गया है। राजपरिवार के इस श्मसान परिसर का निर्माण राजा राममोहन रॉय के प्रेरणा स्रोत रहे खंडवाला राजवंश के महान समाजसुधारक महाराजा माधव सिंह ने 1806 में करवाया था। यहाँ वर्णित किया जाता है कि खंडवाला राजवंश (मध्यप्रदेश के खंडवा में रहते हुए 1557 में महेश ठाकुर को तिरहुत का राज मिला था।) ने करीब 400 साल तक तिरहुत पर राज किया।
परिसर के मुख्य दरवाजे से सटा उजले रंग के गोल आकार का मंदिर इस परिसर का सबसे पुराना मंदिर है। भौडागढी से तिरहुत की राजधानी दरभंगा लाने के बाद महाराजा माधव सिंह ने शिव और शिवा दोनों को यहां स्थापित किया था। इस कारण ही इस महादेव को माधवेश्वर महादेव और परिसर को माधवेश्वर नाम से पुकारा जाता है। हालांकि कालांतर में परिसर की पहचान इसमे स्थित श्यामा मंदिर से भी बढ़ी है, सो लोग पूरे स्थल को ‘श्यामा माई मंदिर’ नाम से भी पुकारने लगे हैं।
माधवेश्वर महादेव मंदिर के पुजारी हेमचंद्र झा कहते हैं कि माधेश्वर शिव मंदिर ही इस परिसर में एकमात्र मंदिर है, जो किसी की चिता पर नहीं है। माधेश्वर नाथ महादेव को छोड़कर इस परिसर में बने अन्य मंदिरों में देवियों की प्रतिमाएं हैं, जिनका चयन साधकों की इष्ट (तंत्र में काली के कई रूप हैं, साधक किसी एक रूप का बीजमंत्र ग्रहण करता है उस रूप को साधक का इष्ट कहा जाता है) के आधार पर किया गया है।
श्री झा कहते हैं कि यह संयोग ही कहा जाये कि महाराजा माधव सिंह का निधन दरभंगा में नहीं हुआ, इसलिए उनकी चिता भूमि इस परिसर में नहीं है, लेकिन महाराजा माधव सिंह का अस्थि कलश महादेव मंदिर के आगे रखा हुआ है। राज परिवार के पार्थिव शरीर को अंतिम संस्कार से पूर्व इस कलश के पास रखने की परंपरा है। परिसर में सबसे पुरानी चिता के संदर्भ में श्री झा कहते हैं कि माधव सिंह के पुत्र महाराजा छत्र सिंह का निधन भी काशी में हुआ, इसलिए उनकी चिता भी यहां नहीं सजी। परिसर में चिता भूमि पर बने सबसे पुराने मंदिर रुद्रेश्वरी काली की है, जो महाराजा माधव सिंह के पोते महाराजा रुद्र सिंह की चिता भूमि पर है।
माधवेश्वर महादेव मंदिर के आगे बने बड़े तालाब से दक्षिण उजले रंग का विशाल मंदिर है जिसका मुख चिता भूमि पर होने के कारण उत्तर दिशा की ओर है। इस मंदिर में पूजा दक्षिण दिशा की ओर होती है। कहा जाता है कि चिताभूमि पर पूजा किसी भी दिशा में की जा सकती है। महाराजा रुद्र सिंह की इष्ट देवी (तांत्रिकों की मूल देवी को इष्ट कहा जाता है) मां दक्षिणेश्वरी काली थी, इसलिए इनकी चिता पर रुद्रेश्वरी काली की स्थापना की गयी है।
इसी मंदिर के पुजारी श्यामनंदन मिश्र कहते हैं कि शाक्त संप्रदाय के अंदर श्मसान स्थल पर अवस्थित मंदिरों की अपनी महत्ता है। चिता पर स्थापित प्रतिमाओं में अद्भुत शक्ति होती है। आमतौर पर ऐसे मंदिरों में तंत्र साधना ही होती है, लेकिन दरभंगा के माधेश्वर राज श्मसान में अवस्थित मंदिरों में तंत्र साधना के अलावा शादी-ब्याह से लेकर सभी मांगलिक कार्य होते हैं और मान्यता है कि यहाँ होने वाले सभी मांगलिक कार्य अतिशुभ होते हैं।
तालाब के पूर्वी हिस्से पर पीले और उजले रंग का भव्य मंदिर लक्ष्मीश्वरी तारा का है।
काली का तारा रूप बौद्ध रूपी है और महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह की इष्ट होने के कारण उनकी चिता भूमि पर माता तारा की प्रतिमा स्थापित की गयी है।
इस मंदिर की स्थापना 1899 में हुई। इसी मंदिर से सटा महारानी लक्ष्मीवती की चिताभूमि पर भी एक छोटा सा मंदिर बना हुआ है। रुद्रेश्वरी काली की तरह ही इन मंदिरों का मुख भी उत्तर दिशा की ओर है और पूजा दक्षिण मुखी होती है।
लक्ष्मीश्वरी तारा से सटा हुआ तालाब के उत्तर परिसर का सबसे भव्य मंदिर है मां रमेश्वरी श्यामा का। काली का एक अन्य रूप है श्यामा। विश्व में श्यामा की सबसे बडी प्रतिमा इसी परिसर में महान तंत्र साधक महाराजा रमेश्वर सिंह की चिता भूमि पर अवस्थित है।
वैसे कहा जाता है कि इतनी ही बड़ी श्यामा की प्रतिमा खुद महराजा रामेश्वर सिंह राजनगर में स्थापित किया था जहाँ दोनों प्रतिमाओं का आकार तो समान है परंतु राजनगर में माता जहां वात्सल्य रूपी है, वही माधेश्वर स्थित रमेश्वरी श्यामा का रूप रौद्र है।
प्रसिद्ध तांत्रिक व शक्ति के प्रबल उपासक महाराज रामेश्वर सिंह की चिता पर 1933 में स्थापित मां श्यामा की यह आदमकद प्रतिमा भगवान शिव की छाती पर अवस्थित है। बगल में गणेश, वटुक भैरव व काल भैरव की प्रतिमाएं हैं।
रमेश्वरी श्यामा के पूजारी शरदचंद्र झा कहते हैं कि मंदिर में तांत्रिक और वैदिक दोनों रीतियों से पूजा होती है, जबकि अन्य मदिरों में पूजा पद्धति तांत्रिक विधि पर आधारित है। यही कारण है कि यहां के हर मंदिर में बलि वेदी है, लेकिन यज्ञ मंडप केवल रमेश्वरी श्यामा मंदिर में ही बनाया गया है। इसलिए तांत्रिक और वैदिक दोनों संप्रदाय के लोगों की आस्था व विश्वास का यह मुख्य केंद्र हैं। यहाँ प्रतिवर्ष लाखों भक्त पूजा-अर्चंना के लिए आते हैं।
श्यामा मंदिर के प्रबंधक चौधरी हेमकांत राय ने बताया कि यहाँ की आरती अन्य जगहों से अगल होती है। यहाँ षोडशोपचार (यह आरती जल, अक्षत, पुष्प, चानन (चन्दन) और नेवैद्य समेत 16 प्रकार की वस्तु से माँ की पूजा के उपरांत की जाती है) और पंचोपचार (यह आरती जल, अक्षत, पुष्प, चानन और नेवैद्य से पूजन के उपरांत की जाती है) विधि से आरती होने की परंपरा है। तारापीठ और कोलकाता के बेलूर मठ में भी षोडशोपचार आरती होती है। सुबह 11 बजे व रात को 10 बजे आरती षोडशोपचार होती है। इस दौरान मंदिर के आगे लगे महाघंटा को बजाया जाता है जिसकी आवाज पूरे राज प्रासाद तक पहुंचती है (मंदिर के इर्द-गिर्द कई राजमहल व पुराने राजसी आवास है)। इस दौरान माता का आशीर्वाद पाने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु उमड़ पड़ते हैं।
तालाब के दक्षिण-पश्चिम कोण पर परिसर का सबसे नया और आकार में सबसे छोटा पीले रंग का कामेश्वरी श्यामा मंदिर है। श्यामा की यह प्रतिमा तिरहुत के आखिरी महाराजा कामेश्वर सिंह की चिता भूमि पर है। इस मंदिर का निर्माण महाराजा कामेश्वर सिंह की पहली पत्नी महारानी राजलक्ष्मी ने अपने सुहाग के गहने बेच कर कराया था, इसलिए इसके आकार और भव्यता अन्य मंदिरों की अपेक्षा कम है, लेकिन मान्यता में कोई कमी नहीं है। इसी मंदिर के बगल में महारानी राजलक्ष्मी की भी चिताभूमि है, जिसपर अब तक मंदिर का निर्माण नहीं हो पाया है।
लाल पत्थर से बना अन्नपूर्णा मंदिर परिसर के उत्तरी दरवाजे पर है जो तिरहुत की अंतिम राजमाता रामेश्वरी की चिता पर अवस्थित है। वहीं रामेश्वरी श्यामा और बड़ी राजमाता (अन्नपूर्णा मंदिर) के बीच भी एक और निर्माणाधीन मंदिर है जो छोटी महारानी के चिता पर है। मिथिला की देवी प्रतिमाओं पर शोध करनेवाले सुशांत भाष्कर कहते हैं कि परिसर में तो पग-पग पर चिता भूमि है लेकिन कुल मिलाकर इस परिसर में कुल सात चिंताओं पर ही मंदिर हैं, जबकि एक चिता पर मंदिर निर्माणाधीन है। आखिरी युवराज समेत कई चिताओं पर बरगद और पीपल के पेड़ हैं, जिनकी पूजा भी लोग मौके बे मौके करते रहते हैं। वट सावित्री के दिन युवराज की चिता पर लगे बरगद के पेड की पूजा कर महिलाएं अपने पति की लंबी आयु की कामना करती हैं।
परिसर के संदर्भ में राज परिवार के सदस्य और महाराजा कामेश्वर सिंह के सबसे बड़े पोते कुमार रत्नेश्वर सिंह कहते हैं कि यह पूरा परिसर 1949 में महाराजा कामेश्वर सिंह धार्मिक न्यास के अधीन आ गया। आज इन मंदिरों की देखरेख इसी न्यास के जिम्मे है। सिंह कहते हैं कि वैदिक पूजा (यज्ञ) यहाँ बहुत बाद में 1988 के भूकंप के बाद शुरु हुई। यहाँ के मंदिरों का निर्माण ही तांत्रिक विधि से पूजा को देखते हुए किया गया है। श्यामा की पूजा पश्चिम दिशा की ओर होती है, जबकि तारा और काली की पूजा दक्षिण दिशा की ओर मुख कर के होती है। सभी मंदिरों के अंदर मूर्ति के साथ-साथ तांत्रिक यंत्र बने हुए हैं। नवरात्र के दौरान यहाँ बलि भी चढ़ाई जाती है।
परिसर में आये बदलाव को रेखांकित करते हुए कुमार रत्नेश्वर सिंह कहते हैं कि जंगलों के बीच बने इन मंदिरों में कभी पूरे देश के तंत्र साधक आकर तंत्र साधना करते थे। धीरे-धीरे जंगल गायब हो गये। 1988 के तीव्र भूकंप के बाद यहाँ नौ दिनों का श्यामा नामधुन नवाह कीर्तन का आयोजन शुरु हुआ। इस आयोजन के कारण आम लोगों की आवाजाही इन मंदिरों में बढ़ने लगी और फिर इसके प्रति मान्यताएं भी बदलने लगी। आज यह श्मशान स्थल लोगों की धार्मिक आस्था का केंद्र बन गया है। अब तो यहाँ शहनाइयां भी बजने लगी हैं। मंदिर परिसर में आज विवाह से लेकर हर मांगलिक अनुष्ठान व संस्कार होते हैं। विवाह, मुंडन, उपनयन, होने वाले वर-वधू का पारिवारिक मिलन (विवाह के लिए), सप्तशती सामान्य पाठ, कुमारी भोजन, हवन, विष्णु पूजन और वाहन पूजा आदि कार्य होते हैं। माँ श्यामा नाम धुन नवाह के दौरान लाखों की संख्या में लोग यहाँ आते हैं। यहाँ तक कि नेपाल से भी भक्त आते हैं।
उत्तरी बिहार में अवस्थित इस मंदिर परिसर का अपना ही महत्व है जो इस इलाके को अलग पहचान देता है। परिसर के आस-पास भी कई पुराने तथा भव्य मंदिर है जिनका निर्माण राजपरिवार ने करवाया था जिसमे कंकालिनी मंदिर, मनोकामना मंदिर और प्राचीन राम मंदिर प्रमुख है।
लेख: आशीष झा, दरभंगा के रहनेवाले आशीष झा पिछले करीब 20 वर्षों से पत्रकार हैं। दैनिक जागरण, अमर उजाला समेत करीब आधा दर्जन अखबारों में काम कर चुके झा संप्रति दैनिक प्रभात खबर के संपादकीय विभाग में है। इतिहास और कला के प्रति गहरी रुचि रखनेवाले झा पर्यावरण और धरोहर के लिए चलाये जा रहे विभिन्न आंदोलनों से जुडे हुए हैं।
छायांकन: संतोष कुमार, दरभंगा के रहनेवाले संतोष कुमार पिछले कई वर्षों से धरोहर और इतिहास पर शोध कर रहे हैं। संप्रति ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के आईटी सेल में कार्यरत संतोष कुमार विश्वविद्यालय के सिनेटर हैं। इंटैक के आजीवन सदस्य और इसमाद फाउंडेशन के न्यासी संतोष कुमार बिहार के इकलौते हैरिटेज फोटोग्राफर हैं।