ब्रजवासी का मथुरा पेड़ा- उत्कृष्ट पाककृति की एक झलक

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मथुरा पेड़ा! आपने नाम तो सुना ही होगा। वस्तुतः इसे खाया भी होगा। अतः मथुरा पेड़ा का नाम सुनकर मुँह में पानी आना स्वाभाविक है, है ना? ऐसी ही एक और स्वादिष्ट मिठाई है धारवाड पेड़ा। कुछ वर्ष पूर्व जब मैंने धारवाड का भ्रमण किया था, तब यह धारवाड पेड़ा चखा था, इन्हें बनते देखा था तथा इन पर अपना संस्मरण भी लिखा था। उस समय एक आश्चर्यजनक तथ्य मेरे समक्ष आया था कि धारवाड पेड़ा अन्य कुछ नहीं, अपितु मथुरा पेड़ा ही है जिसने कई वर्षो पूर्व भारत के उत्तरी भाग से दक्षिणी भाग की ओर कूच कर वहां भी अपना श्रेष्ठ स्थान बनाया है । मैंने उसी समय निश्चय कर लिया था कि मैं जब भी मथुरा यात्रा पर जाऊँगी तब वहां इन पेड़ों को बनते देखने का प्रयत्न अवश्य करूंगी।

मथुरा के पेड़े आप मथुरा भ्रमण के लिए जाएँ तथा वहां का विश्वप्रसिद्ध मिठाई मथुरा पेड़ा खाए बिना अथवा खरीदे बिना वापिस लौट जाएँ, यह मथुरा के प्रति अन्याय होगा।

अंततः इस वर्ष होली के समय मुझे मथुरा दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मथुरा की गलियों में भ्रमण करते समय, द्वारकाधीश मंदिर के समीप मुझे ब्रिजवासी मिष्टान्न की एक इकाई दृष्टिगोचर हुई। यहाँ वे अपनी दुकान के लिए सभी मिठाइयां बना रहे थे । मेरी प्रसन्नता चरम सीमा पर थी। आप सोच रहे होंगे कि मैं इतनी प्रसन्न क्यों हो गयी। वह इस लिए कि मथुरा का सर्वाधिक स्वादिष्ट पेड़ा इस ब्रजवासी मिष्टान में ही उपलब्ध है। वही ब्रजवासी पेड़ा मेरे समक्ष उपस्थित हो जाये तो प्रसन्न होना स्वाभाविक ही है।

ब्रिजवासी दूध के डिब्बे
ब्रिजवासी दूध के डिब्बे

मैं यहाँ प्रातःशीघ्र ही यहाँ आ गयी थी। मैंने देखा कई छोटे बड़े दूध विक्रेता इस इकाई को दूध उपलब्ध करा रहे थे। कई दूध के कनस्तरों पर ‘ब्रजवासी’ भी मुद्रित था।

मथुरा पेड़ा कैसे बनता है? – विडियो

ब्रज भूमि की प्रसिद्ध मिष्टान्न, मथुरा पेड़ा बनाने का विडियो देखिये।

ब्रजवासी मथुरा पेड़ा

एक बड़े से कक्ष में कई स्त्री-पुरुष कारीगर विभिन्न प्रकार के मिष्टान्न बनाने में व्यस्त थे। सोन पापड़ी, माल पुआ, गुझिया , बालू शाही, रसगुल्ला, मोतीचूर के लड्डू, पिन्नी, मगज के लड्डू! जो नाम लीजिये, वह यहाँ बन रहा था। उन सभी मिष्ठान्न को देख मेरे मुँह में पानी आ गया था। जिव्हा चंचल हो चली थी। लालायित नेत्रों से मैं सभी मिठाईयों को बनते देख रही थी। स्वच्छ कक्ष में बनते इन मिठाईयों को देख ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो ये मिठाईयाँ घर पर बन रही हों।

यद्यपि हलवाईयों ने उस दिन के लिए पेड़ा बनाना अभी तक आरंभ नहीं किया था।

कढ़े दूध में शक्कर मिलाते हुए
कढ़े दूध में शक्कर मिलाते हुए

मैंने इकाई प्रबंधक से वार्तालाप करने की इच्छा व्यक्त की। मुझे तत्काल ब्रजवासी मिष्टान के स्वामी श्री राजीव अग्रवाल के कक्ष में ले जाया गया। उन्होंने हमें उनके प्रसिद्ध पेड़ों एवं कई अन्य मिठाईयों का स्वाद चखाया तथा चाय भी पिलाई। उन्होंने हमें इस इकाई की दैनिक दिनचर्या के विषय में भी अवगत कराया। मिठाई कारखाने की दिनचर्या दूध आपूर्ति से आरम्भ होती है।

पेडे तेरे कितने रंग
पेडे तेरे कितने रंग

जब मैंने राजीव जी से धारवाड़ पेड़े के विषय में चर्चा की तो उन्होंने कहा, ”ये कहाँ पड़ता है?” तब मैंने उन्हें धारवाड़ पर लिखा अपना संस्मरण दिखाया। उन्होंने गहरी रूचि के साथ उसे पढ़ा। धारवाड़ पेड़े के चित्रों को देख उन्होंने संशय व्यक्त किया कि उनमें कृत्रिम रंग मिलाये गए हैं। मुझे उन्हें विश्वास दिलाने की चेष्टा करनी पड़ी कि जिस प्रकार ब्रजवासी पेड़ा उत्तर भारत में सुप्रसिद्ध है, उसी प्रकार धारवाड़ पेड़ा दक्षिण भारत में अत्यंत प्रसिद्ध है। अतः वे कृत्रिम रंग मिलाने जैसे घृणित कार्य में लिप्त नहीं हो सकते। मैंने उनका कारखान भी देखा है। मेरे तर्कों से वे प्रभावित होते प्रतीत हुए। उस दिन कदाचित मैंने उन्हें कर्नाटक भ्रमण का कारण दे दिया था।

कौन सा पेड़ा अधिक उत्तम है?

राजीवजी ने मुझे पेढ़ा चखाया तथा पूछा कि मथुरा पेढ़ा एवं धारवाड़ पेढ़े के मध्य अधिक उत्तम पेढ़ा कौन सा है? उन्होंने मुझे धर्म संकट में डाल दिया था। इससे बाहर निकलने के लिए मैंने उन्हें नम्रतापूर्वक उत्तर दिया कि ये पेढ़ा मेरे मायके से है तथा वो पेढ़ा मेरी ससुराल से है। अब आप समझ सकते हैं कि मुझे कौन सा पेढ़ा अधिक भाता है। यदि आप मुझसे पूछें कि मेरा सर्वाधिक मनभावन मिष्टान्न क्या है तो किसी भी दिन अथवा किसी भी समय मेरा उत्तर एक ही होगा, जलेबी या इमरती!

ब्रिजवासी का मथुरा पेडा
ब्रिजवासी का मथुरा पेडा

धारवाड़ में बाबू सिंह एवं उनके परिवारजनों ने पेढ़ा बनाने की कृति एवं सामग्री की जानकारी निजी संपत्ति के सामान गुप्त रखी है। मैंने राजीव जी से भी पूछा कि क्या उनके ब्रजवासी पेड़े की कृति एवं सामग्री की जानकारी भी गुप्त है? अट्टहास लगाते हुए उन्होंने कटाक्ष किया कि यह गुप्त जानकारी उनके सारे हलवाईयों को ज्ञात है।

प्रबंधन की अनूठी शैली

राजीव जी के कक्ष में मैंने एक निराली सूची लटकी हुई देखी। उस पर दूध विक्रेता को वितरण के समय के आधार पर भुगतान दर लिखा हुआ था। अर्थात्, यदि दूध वितरक प्रातः ७ बजे दूध पहुंचाता है तो उसका भुगतान दर प्रातः ९ बजे दूध पहुंचाने वाले वितरक से अपेक्षाकृत १-२ रुपये प्रति लीटर अधिक होगा। अच्छे प्रदर्शन एवं समय पर वितरण को प्रोत्साहन देने के लिए है ना यह एक असाधारण प्रयोग!

दूध का लेखा जोखा रखते बही खाते
दूध का लेखा जोखा रखते बही खाते

कांच के उस पार बही खातों के ढेर लगे हुए थे। बनिये जिस प्रकार के बही खाते रखते हैं ठीक उसी प्रकार के, किंचित छोटे बही खाते थे। इनमें दूध वितरण का लेखा-जोखा रखा जाता है।

मुझे बताया गया कि साधारणतः दोपहर के समय पेड़े बनाने का कार्य आरम्भ किया जाता है। उसके लिए अभी कुछ समय शेष था। मैंने विचार किया कि समय का सदुपयोग करते हुए क्यों न यमुना के घाटों के दर्शन कर लिए जाएँ जो यहाँ से समीप ही थे। सो मैं यमुना के दर्शन करने के लिए बाहर आ गयी। दोपहर के आसपास मैं प्रसिद्ध ब्रजवासी पेड़े बनते देखने के लिए वापिस राजीवजी की निर्माण इकाई में आ गयी।

मथुरा पेढ़े कैसे बनाए जाते हैं?

कड़ाहों में उबलता दूध
कड़ाहों में उबलता दूध

आप जानते ही होंगे कि पेड़े बनाने के लिए मुख्य रूप से दो सामग्री का प्रयोग किया जाता है- दुग्ध व शर्करा। दूध को धीमी आंच पर उबाल कर पकाया जाता है। निरंतर घोटते हुए उसे तब तक पकाया जाता है जब तक वह गाढ़ा होकर जमने लगे। तत्पश्चात थोड़ा ठंडा कर उसमें पिसी शक्कर अथवा बूरा शक्कर मिलाई जाती है। पूर्णतः ठंडा होने पर उसे हाथों द्वारा आकार दिया जाता है।

ब्रजवासी मिष्टान्न की निर्माण इकाई में मैंने दो पंक्तियों में कई बड़े बड़े कड़ाहे देखे जिन में दूध पकाया जा रहा था। आधुनिक तकनीक शनैः शनैः यहाँ भी प्रभाव डालना आरम्भ कर रही थीं। दूध उबालने के लिए कुछ बायलर लगे थे। गैस के चूल्हों ने पारंपरिक लकड़ी के चूल्हों का स्थान ले लिया था। इसके पश्चात भी अधिकतर कार्य हाथों द्वारा किये जा रहे थे।

होली के लिए तैयार गुझिया
होली के लिए तैयार गुझिया

अतः मैं यह कह सकती हूँ कि यहाँ जो भी मिठाई आप खायेंगे, प्रत्येक मिठाई एक एक कर हाथों द्वारा बनायी जाती है। प्रत्येक रसगुल्ले में इलायची द्वारा सुगन्धित भरावन, उनके शब्दों में ‘माल’, हाथों द्वारा भरा जाता है। कारीगर स्त्रियाँ प्रत्येक गुजिया का आवरण हाथों से बेलती हैं। तैयार हो जाने पर मिठाईयों को एक एक कर प्रेम से एल्युमीनियम के थालों में सजाया जाता है।

हाथों द्वारा बनायी गयी मिठाईयाँ

सब कारीगर धैर्यपूर्वक इन मिठाईयों को बनाते हैं जिनका आस्वाद अनेक सुअवसरों पर किया जाता है, नगर के पुण्य स्थानों में, देवी-देवताओं को भोग के रूप में चढ़ाया जाता है। इन कारीगरों को मन लगाकर परिश्रम करते देख आप कभी नहीं चाहेंगे कि मशीनीकरण इनका स्थान हथिया ले। कहते हैं ना, हाथों में जो स्वाद होता है वो मशीनों द्वारा बने पक्वानों में कहाँ!

गर्मागर्म माल पुए
गर्मागर्म माल पुए

मैंने निर्माण कक्ष में घूम घूम कर सम्पूर्ण प्रक्रिया के अनेक छायाचित्र लिए तथा कई विडियो बनाए। सब कारीगर भी मुस्कुराकर अपने चित्र खिंचवा रहे थे। उन्हें प्रतीत हो रहा था कि उनके चित्र दूरदर्शन पर दिखाए जायेंगे। जैसे जैसे माल एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा रहा था, वैसे वैसे कारीगरों के सधे हुए हाथ उसे अंतिम रूप तक लाने में किसी कलाकार के सामान चल रहे थे। ना तो कहीं हड़बड़ी थी, ना ही कहीं किसी कारीगर के हाथ थम रहे थे। मुझसे वार्तालाप करते हुए अथवा मुझे प्रक्रिया समझाते हुए भी नहीं।

यह निर्माण इकाई प्रातःकाल से दोपहर तक कार्यरत रहती है। तब जाकर सम्पूर्ण ब्रज भूमि के ७ ब्रजवासी पेड़ों की दुकानों में इन मिठाईयों का वितरण किया जाता है। अधिकतर मिठाईयां नर्म गत्ते के डिब्बों में भरकर बिक्री की जाती हैं।

अग्रवालजी ने मुझे विदेशों में भेजे जाने वाले डिब्बे भी दिखाए। जी, नहीं! ब्रजवासी मिष्टान विदेशों में मिठाईयों का निर्यात नहीं करते। न स्वयं, ना ही किसी वितरक के द्वारा। ये तो उनके नियमित विदेशी ग्राहक हैं जो जब भी मथुरा आते हैं यहाँ से मिठाईयां अवश्य ले जाते हैं। अथवा जब उनके परिवारजन उनसे भेंट करने विदेश जाते हैं तब वे ये मिठाईयां ले जाते हैं।

मिठाईयों की ऑनलाइन बिक्री

कुछ लोगों ने मुझसे कहा था कि ब्रजवासी ऑनलाइन मिठाईयां बिक्री नहीं करते। किन्तु मैंने देखा कि उनके वेबस्थल पर मिठाईयाँ बिक्री करने का भी प्रावधान है।

मथुरा के  पेडेब्रजवासी मिष्टान्न मथुरा के ब्रजवासी समूह का है जिनके अब मथुरा में कई अतिथिगृह भी हैं। इस बार मैं उनके ऐसे ही एक अतिथिगृह में ठहरी थी। एक समय यह नगरी यहाँ के धनी व्यापारियों के लिए प्रसिद्ध थी, जिन्हें सेठ भी कहा जाता है। मथुरा एवं वृन्दावन के कई मंदिरों का निर्माण भी इन्ही सेठों ने करवाया है। ब्रजवासी समूह के अग्रवाल परिवार ऐसा ही एक परिवार है जिनका नाम मथुरा से सदैव के लिए जुड़ गया है। अग्रवाल एवं मथुरा, दोनों नाम सदा के लिए लगभग अभिन्न हो गए हैं।

अधरों पर तृप्त मन की मुस्कराहट ले कर मैं ब्रजवासी की विनिर्माण इकाई से बाहर निकली।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

4 COMMENTS

  1. मथुरा का पेड़ा ????
    वाकई इस मिठाई का जवाब नहीं ऐसे पेड़े का स्वाद कहीं पर भी नही मिलता है मैंने तो बहुत बार खाए है क्योंकि अच्छी मिठाई मेरी कमजोरीयो में से एक है, लेकिन भिंड के पेड़े भी बहुत स्वादिष्ट होते है अगर मैं अपने स्वाद के हिसाब से बताऊ तो भिंड के पेड़े इसी के टक्कर के है, लेकिन आपके इस लेख को पढ़ कर फिर मुंह मे पानी आ गया ???? धन्यवाद।

    • संजय जी, अभी कुछ दिन पहले शिवपुरी के पेडों को खाने का अवसर मिला और मेरी जिह्वा पर अब उनका प्रथम स्थान है 🙂

  2. महाराष्ट्र के मराठवाड़ा विभाग (ये अब शिर्डी में भी उपलब्ध है) में एक स्वादिष्ट पेड़ा बनाया जाता है। .जिसे कंदी पेड़ा कहते है है, शायद ये धारवाड पेढ़े का ही प्रकार है.मथुरा पेड़ा लाजवाब इसमें कोई दो राय नहीं

  3. स्वाद और परंपरा से इतर, यह भी ध्यान देने वाली बात है कि जहाँ ‘पेड़ों’ का खयाल आते ही किसी चपटे मिष्ठान की कल्पना करते हैं, वहीं मथुरा के पेड़े लड्डूनूमा होकर अपना अलग ही स्थान रखते हैं।

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