हम में से जिन्होने भी हिन्दू धर्मं ग्रन्थ पढ़े हों उनके समक्ष नैमिषारण्य, इस सुन्दर शब्द का उल्लेख कई बार आया होगा। नैमिषारण्य लखनऊ से लगभग ९० की.मी. दूर, सीतापुर जिले में गोमती नदी के बाएं तट पर स्थित एक प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ है। मार्कण्डेय पुराण में अनेक बार इसका उल्लेख ८८००० ऋषियों की तपोभूमि के रूप में हुआ है। नैमिषारण्य, इसके नाम में ही अरण्य है। अर्थात् नैमिषारण्य एक वन था। इस अरण्य में वेद व्यासजी ने वेदों, पुराणों तथा शास्त्रों की रचना की थी तथा ८८००० ऋषियों को इसका गूढ़ ज्ञान दिया था।
इस वन में अनेक ऋषिगण निवास करते थे तथा ध्यान व साधना करते थे। अतः इसे तपो भूमि कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस श्रेष्ठ अरण्य में अनेक ऋषियों की तपस्या का पुण्य संगठित है| अतः नैमिषारण्य को भारत के सर्व तीर्थस्थलों में से सर्वाधिक पवित्र स्थान माना जाता है। नैमिषारण्य को नेमिशरण, नैमिसारण्य, नीमसर, नैमिष, निमखर, निमसर अथवा नैमिसरन्य भी कहा जाता है।
नैमिषारण्य का इतिहास
ऐसा माना जाता है कि ४ युगों में ४ प्रमुख तीर्थों का अस्तित्व था। प्रथम युग अथवा सतयुग में नैमिषारण्य मुख्य तीर्थ था, त्रेता युग में पुष्कर एवं द्वापर युग में कुरुक्षेत्र को तीर्थस्थल माना जाता है। अंत में कलयुग में गंगा को प्रमुख तीर्थ का मान प्राप्त है। अतः नैमिषारण्य की यात्रा पूर्वकाल के सतयुग की यात्रा के समान है।
इसे आप एक हास्यास्पद विरोधाभास ही कहेंगे की नैमिषारण्य में वर्तमान में अरण्य कहीं नहीं है। तीर्थस्थलों के नाम पर वृक्षों के आसपास बेतरतीब ढंग से निर्मित मंदिर हैं। हालांकि एक अच्छी सड़क इन तीर्थस्थलों तक जाती हैं। ये मंदिर निश्चित ही अत्यंत प्राचीन हैं| ऐसा प्रतीत होता है कि इन मंदिरों व वृक्षों ने ऋषियों के मुख से सम्बंधित दंतकथाएं अवश्य सुनी होंगी। अतः आप यह मान सकते हैं कि नैमिषारण्य उन प्राचीनतम स्थानों में से एक है जिसके विषय में कुछ अभिलेख उपलब्ध हैं।
ऐसा माना जाता है कि जब ब्रम्हाजी धरती पर मानव जीवन की सृष्टि करना चाहते थे, तब उन्होंने यह उत्तरदायित्व इस धरती की प्रथम युगल जोड़ी – मनु व सतरूपा को दिया। तदनंतर मनु व सतरूपा ने नैमिषारण्य में ही २३००० वर्षों तक साधना की। इसी कारण उन्हें ही हमारे वास्तविक अभिभावक होने का मान प्राप्त है। मुझे स्मरण है, नैमिषारण्य में मनु-सतरूपा मंदिर के महंतजी ने कहा था- यह मेरे बाप का घर है, ऐसा हम सब कह सकते हैं। उनके ये भावुक उदगार हम सब को एक अभिभावक की छत्रछाया में लाने हेतु व्यक्त किये गए थे।
पवित्र ग्रंथों की पावन स्थली : वेद, पुराण व सत्यनारायण कथा
भारतीय इतिहास में नैमिषारण्य की सर्वाधिक महत्ता यह है कि यहीं हमारे सारे ग्रन्थ लिखे गए हैं।
इनमें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद ये चार वेद सम्मिलित हैं।
वेदों के साथ साथ १८ पुराणों की रचना भी यहीं हुई है, ये १८ पुराण इस प्रकार हैं- स्कन्द पुराण, विष्णु पुराण, ब्रम्हाण्ड पुराण, लिंग पुराण, नारद पुराण, गरुड़ पुराण, ब्रम्ह पुराण, पद्म पुराण, कुर्म पुराण, भागवत पुराण, अग्नि पुराण, मार्कण्डेय पुराण, ब्रम्ह वैवर्तक पुराण, वराह पुराण, भविष्य पुराण, वामन पुराण, मत्स्य पुराण एवं वायु पुराण।
नैमिषारण्य में रचे गए छः शास्त्र हैं, सांख्य, योग, वेदान्त, न्याय, मीमांसा एवं वैशेषिक।
सत्यनारायण कथा
हम सब जानते हैं कि भारत के अधिकतर हिन्दू घरों में सत्यनारायण भगवान् की पूजा की जाती है। इस पूजा के अंत में सत्यनारायण की कथा का श्रवण अत्यावश्यक माना जाता है। कथा की पहली पंक्ति में ही नैमिषारण्य का उल्लेख है। यद्यपि अधिकतर श्रद्धालू यह पूजा बन्धु-बांधवों के संग पूर्णिमा के दिन करते हैं तथापि यह पूजा कसी भी दिन तथा किसी के द्वारा भी की जा सकती है। यही कारण है कि सत्यनारायण पूजा श्रद्धालुओं में अत्यंत लोकप्रिय है। मुझे ज्ञात हुआ कि सर्वप्रथम वेद व्यासजी ने महर्षि सूत को सत्यनारायण की कथा यहीं सुनायी थी। तत्पश्चात यह कथा महर्षि सूत ने ऋषि शौनक एवं अन्य ऋषियों को श्रवण कराई थी।
नाभि गया क्षेत्र
नाभि गया क्षेत्र नैमिषारण्य का ही एक अन्य नाम है। एक दंतकथा के अनुसार महाविष्णु ने गयासुर राक्षस का वध करते हुए उसके देह के तीन टुकड़े किये थे। उसका शीश बद्रीनाथ में गिरा जिसे कपाली गया भी कहते हैं। उसके चरण गया में गिरे जिसे पद गया कहा जाता है। इसी प्रकार उसका धड़ नैमिषारण्य में गिरा जिस कारण इसे नाभि गया कहते हैं।
वराह पुराण में उल्लेखित एक अन्य किवदंती के अनुसार भगवान् महाविष्णु ने एक निमिष मात्र में उन दानवों का संहार कर दिया था जो ऋषियों को सता रहे थे। अतः इस क्षेत्र का नाम नैमिषारण्य पड़ा। निमिष का शब्दशः अर्थ है वो समय जो हमारी पलक को एक बार झपकने में लगता है। वेदों के अनुसार एक निमिष ०.४३ सेकंड के बराबर है।
श्रीलंका में विजय प्राप्त कर जब भगवान् श्रीराम अयोध्या लौटे थे तब उन्होंने नैमिषारण्य में अश्वमेध यज्ञ किया था। यह वही स्थल है जहां देवी सीता अपने पुत्रों को श्रीराम को सौंप कर धरती में समा गयी थी। तो क्या उस समय नैमिषारण्य कौशल राज का ही एक भाग था!
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गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना यहीं की थी।
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आदि शंकराचार्य ने सम्पूर्ण भारतवर्ष के देशाटन के समय नैमिषारण्य की भी यात्रा की थी। संत कवी सूरदास ने भी यहाँ निवास किया था। तामिल देश के वैष्णव संतों के ग्रंथों में भी नैमिषारण्य का उल्लेख मिलता है। ऋषि शौनक के प्रतिनिधित्व में संतों की धर्म सभा में महाभारत भी यहीं सुनायी गयी थी।
अमावस्या के दिन यहाँ पवित्र स्नान करना अत्यंत पावन माना जाता है। हिन्दू पञ्चांग के फाल्गुन मास में अमावस से पूर्णिमा तक नैमिषारण्य की ८४ कोस की परिक्रमा आयोजित की जाती है।
नैमिषारण्य में दर्शनीय स्थल
नैमिषारण्य के प्रमुख दर्शनीय स्थल इस प्रकार हैं:
- चक्रतीर्थ एवं इसके चारों ओर स्थित मंदिर
- श्री ललिता देवी मंदिर
- आदि गंगा अर्थात् गोमती नदी के निकट स्थित व्यास गद्दी
- हनुमान गढ़ी एवं पांडव किला
- दधीचि कुंड
ये सब स्थल एक दूसरे से कुछ दूरी पर हैं। प्रत्येक स्थान के अवलोकन के लिए कुछ समय भी आवश्यक है।
मैंने जब नैमिषारण्य की यात्रा की थी तब पूर्वजों को समर्पित पितृपक्ष काल आरम्भ हो चुका था। मैंने यहाँ कई परिवारों को, विशेषतः जोड़ों को अपने पूर्वजों के सम्मान में पिंडदान करते देखा।
चक्रतीर्थ
चक्रतीर्थ नैमिषारण्य का मूल तीर्थ है। यह एक गोलाकार कुंड है। ऐसा माना जाता है कि यह महाविष्णु के चक्र द्वारा निर्मित है। इस कुंड से बह कर आते जल का भक्तगण पवित्र स्नान के लिए प्रयोग करते हैं। ऐसी मान्यता है कि सम्पूर्ण भारतवर्ष के सब पावन स्थलों का जल यहाँ चक्रतीर्थ में उपस्थित है।
चक्रतीर्थ की कथा
एक समय कुछ असुर ऋषियों की साधना भंग करने के उद्येश्य से उन्हें कष्ट दे रहे थे। उन सब ऋषियों ने ब्रम्हाजी के समक्ष जाकर अपनी समस्या व्यक्त की। तब ब्रम्हाजी ने सूर्य की किरणों से एक चक्र की रचना की तथा उन ऋषियों से इस चक्र का पीछा करने को कहा। उन्होंने कहा कि जहां भी यह चक्र रुक जाये वहां वे शान्ति से रह सकते हैं। जी हाँ! आपने सही पहचाना। ब्रम्हा का चक्र नैमिषारण्य में आकर रुक गया। नेमी का एक और अर्थ है किनारा। यहाँ इसका अर्थ है कुंड का किनारा। ऐसी मान्यता है कि कुंड का जल पाताल लोक से आता है।
इस चक्र को मनोमय चक्र भी कहते हैं। चक्रतीर्थ को ब्रम्हांड का केंद्र बिंदु माना जाता है।
आईये वर्तमान में आते हुए मैं आपको इस चक्रतीर्थ के विषय में बताऊँ। यह गोलाकार कुंड चारों ओर से कई छोटे मंदिरों एवं कुछ छोटे कुण्डों से घिरा हुआ है। हमने जैसे ही इसके गोलाकार सीमा के भीतर प्रवेश किया, सर्वप्रथम हमने एक कृष्ण मंदिर देखा। इसके पश्चात एक कक्ष देखा जहां कई मंच बने हुए थे। इन्ही मंचों पर बैठकर लोग अपने पूर्वजों के लिए धार्मिक संस्कार करवाते हैं। यहाँ से दक्षिणावर्त जाते हुए हम भूतेश्वर महादेव नामक शिव मंदिर पर रुके।
भूतेश्वर महादेव मंदिर
यह एक प्राचीन शिव मंदिर है। इनकी भित्तियों पर हिन्दू धर्म के सभी पंथों से सम्बंधित प्रतिमाएं हैं। मुखलिंग के पृष्ठभाग पर स्थित प्रमुख भित्ती पर महाविष्णु की विशाल मूर्ति है। साथ ही गणेश, कार्तिकेय, सूर्य, माँ काली, महिषासुरमर्दिनी रुपी दुर्गा, ऋषि दधीचि एवं ब्रम्हा की प्रतिमाएं हैं।
जिस समय हम यहाँ पहुंचे थे तब वहां प्रातःकालीन आरती का समय हो रहा था। हमें प्रातःकालीन श्रृंगार एवं आरती के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जहां अधिकतर श्रद्धालु मंदिर के बाहर से आरती देख रहे थे, वहीं पुजारीजी ने हम पर अतिरिक्त कृपा बरसाई तथा आरती के समय हमें मंदिर के भीतर खड़े रहने दिया। मैं इसे भगवान् का आशीर्वाद मानती हूँ।
पुजारीजी ने मुझे बताया कि इस मंदिर में भूतेश्वर महादेव एक साकार लिंग के रूप में उपस्थित हैं। सम्पूर्ण दिवस में उन्हें तीन भिन्न भिन्न प्रकार से पूजा जाता है। प्रातःकाल उन्हें भोलेनाथ अथवा शिशु-सदृश शिव माना जाता है, वहीं दोपहर में शिव के रौद्र रूप अर्थात् रूद्र की तथा संध्याकाल करुणा रुपी दयालु शिव की आराधना की जाती है।
इसके पश्चात हमने एक हनुमान मंदिर के दर्शन किये।
श्रृंगी ऋषि मंदिर
यह श्रृंगी ऋषि को समर्पित एक छोटा सा मंदिर है| यहां उन्होंने साधना की थी। इस मंदिर में ऋषि श्रृंगी की एक अनोखी प्रतिमा है। इस प्रतिमा में मुख्यतः उनका शीश है जिसके दोनों ओर दो बड़े बड़े सींग हैं। इसके साथ वहां श्रृंगी ऋषि एवं माँ शांता की संगमरमर में नवीन प्रतिमाएं भी हैं।
गोकर्ण नाथ मंदिर
यह भी एक लघु एवं प्राचीन शिव मंदिर है। इस मंदिर का शिवलिंग एक गड्ढे के भीतर है। कदाचित समय के साथ शिवलिंग के आसपास की भूमि ऊपर उठ गयी है। भूतेश्वर महादेव मंदिर के सामान इस मंदिर में भी दुर्गा, गणेश, सूर्य जैसे अनेक देवी-देवताओं की प्रतिमाएं हैं।
सिद्धि विनायक मंदिर गणेशजी को समर्पित एक छोटा सा मंदिर है जिसके भीतर गणेशजी की इकलौती मूर्ति है। साथ ही सरस्वती देवी को समर्पित भी एक मंदिर है।
इसके पश्चात हमें दो छोटे कुंड दिखाई दिये। एक कुंड पर कमल के पुष्प पर विराजमान लक्ष्मी की आकृति है तथा दूसरे में ब्रम्हा की आकृति है। जल की ओर जाती सीड़ियों की भित्त पर कुछ पुरानी मूर्तियाँ जड़ी हुई हैं। मैं कुछ मूर्तियों को पहचानने में सफल हुई किन्तु बाकी मूर्तियों को पहचानने में असमर्थ थी। इन मूर्तियों पर लगे कुमकुम को देख अनुमान लगाया जा सकता है कि अब भी यह मूर्तियाँ पूजी जाती हैं।
वापिस घुमते हुए हम एक चटक पीले रंग में रंगे मंदिर तक पहुंचे जिसमें एक स्तंभ युक्त गलियारा था। समाचारपत्र पढ़ते एक भलामानुस वहां बैठे था। उनके पास रखा एक फलक ज्योतिषी के रूप में उसकी पहचान बता रहा था। ज्योतिषियों से बात करना मुझे सदैव से बड़े रोचक लगता है। उनके पास ऐसी ऐसी कहानियां होती हैं जो मनोवैज्ञानिकों, डॉक्टरों अथवा वकीलों की कहानियों को चुनौती देती हैं। अपने रोचक अंदाज में जिस प्रकार वे आपसे बात करते हैं तथा आपको यह मानने को बाध्य कर देते हैं कि उनके पास आपके प्रत्येक प्रश्न का उत्तर है, सब अत्यंत रोमांचक होता है। कुछ क्षण उनसे बतियाकर हम आगे बढ़े।
आगे हमने पीले रंग में रंगा छोटा सा सूर्य नारायण मंदिर देखा। इस सूर्य नारायण मंदिर के भीतर संगमरमर का एक शिवलिंग है। शिवलिंग के पीछे उकेरा हुआ श्री चक्र मुझे अत्यंत रोचक लगा।
चक्र नारायण मंदिर
मेरे अनुमान से नैमिषारण्य अथवा चक्रतीर्थ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंदिर यही चक्र नारायण मंदिर है। यहाँ विष्णु चक्र रूप में विराजमान हैं। चक्र के भीतर कमल के पुष्प पर विराजमान विष्णु हैं। यह भित्त पर उकेरी गयी अत्यंत मनमोहक छवि है जो मेरे अनुमान से काले पत्थर की है। मंदिर को अत्यंत मनमोहक प्रकार से सुसज्जित किया गया है। इसके आजूबाजू कुछ नवीन मूर्तियाँ भी हैं।
इसके पश्चात हमने बद्री नारायण मंदिर के दर्शन किये। जिस दिन हमने इसके दर्शन किये थे, उस दिन यहाँ कई जोड़े अपने पूर्वजों के लिए धार्मिक कार्य कर रहे थे। दबे पाँव आगे बढ़कर हमने बद्री नारायण के दर्शन किये एवं वापिस आकर उसी स्थान पर पहुँच गए जहां से नैमिषारण्य के चक्रतीर्थ की परिक्रमा आरम्भ की थी।
इस स्थान के विषय में अधिक लोगों को जानकारी नहीं है। अतः यहाँ बैठकर कुछ समय बिताना ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो हमारे इतिहास एवं ग्रंथों के इस भाग को जानने का सर्वप्रथम अवसर हमें प्राप्त हो रहा हो।
श्री ललिता देवी मंदिर
ललिता सहस्त्रनाम का जप मैं बहुत समय से कर रही हूँ। मैंने अब तक कांची कामाक्षी, कोल्हापुर की महालक्ष्मी, कामरूप कामाख्या जैसे कई देवी के मंदिरों के दर्शन किये हैं। किन्तु साक्षात् ललिता को ही समर्पित मंदिर के विषय में मुझे ज्ञात नहीं था। मुझे स्मरण नहीं कि कभी मैंने उनकी प्रतिमा भी देखी थी। यहाँ तक कि जब मैं नैमिषारण्य आ रही थी, तब मुझे देवी के मंदिर के विषय में जानकारी दी गयी थी किन्तु किसी ने ललिता मंदिर के नाम से उसका उल्लेख नहीं किया था। अतः जब मैं यहाँ पहुँची तथा श्री ललिता मंदिर का नाम पढ़ा, रोमांच से मेरे रोंगटे खड़े हो गए।
एक ही परिसर के भीतर श्री ललिता को समर्पित दो मंदिर हैं। एक अपेक्षाकृत नवीन मंदिर है जिसके भीतर ऊंची पीठिका पर एक नवीन प्रतिमा स्थापित है। इस मंदिर के दर्शन हमें पहले प्राप्त होते हैं। यहाँ से बाहर आकर आप जब चारों ओर घूमेंगे तब आप एक त्रिकोणीय यज्ञकुंड एवं उसके पश्चात एक छोटा मंदिर देखेंगे। इस पुराने मंदिर में ललिता की पुरानी मूर्ति है। देवी का यह रूप ललिता सहस्त्रनाम में बखान किये गए ललिता के रूप से साम्य रखता है। मैं अत्यंत आनंदित थी कि अंततः मैंने देवी के इस रूप को खोज निकाला या यूँ कहिये की मेरी ललिता भक्ति मुझे यहाँ खींच लायी। उत्तरप्रदेश की मेरी इस यात्रा के समय मेरी यात्रा योजना सूची में नैमिषारण्य का नाम दूर दूर तक नहीं था। किन्तु मैं यहाँ आयी भी तथा ललिता देवी के दर्शन भी हुए।
शक्ति पीठ
नैमिषारण्य का श्री ललिता देवी मन्दिर एक शक्ति पीठ है। ऐसा कहा जाता है कि दक्ष यज्ञ के अग्नि कुंड में जब अपमानित सती ने प्राण त्याग दिए तब क्रोधित शिव ने उनका मृत देह उठाकर तांडव किया था। मान्यता है कि नैमिषारण्य में यहीं देवी सती के पार्थिव शरीर का ह्रदय गिरा था। यहाँ देवी ललिता को लिंग-धारिणी शक्ति भी कहा जाता है। श्री ललिता देवी नैमिषारण्य की पीठासीन देवी है। अतः इनके दर्शन के बिना आपकी नैमिषारण्य की यात्रा अधूरी है।
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एक किवदंती के अनुसार जब ऋषिगण विष्णु का चक्र लिए नैमिषारण्य आये थे तब चक्र धरती के भीतर चला गया एवं वहां से जल का अनियंत्रित भण्डार उमड़ कर बाहर आने लगा। तब देवी ललिता ने जल का नियंत्रण किया ताकि ऋषिगण शान्ति से साधना कर सकें।
नैमिषारण्य में व्यास गद्दी
आप सब जानते होंगे कि एक विशाल वट वृक्ष के नीचे बैठकर वेद व्यासजी ने धार्मिक ग्रंथों का आख्यान किया था जिन्हें आज हम वेदों, पुराणों एवं शास्त्रों इत्यादि के नाम से जानते हैं। यहाँ स्थित विशाल प्राचीन वट वृक्षों में से एक वृक्ष ५००० वर्ष पुराना माना जाता है। अर्थात यह वृक्ष महाभारत काल अथवा वेद व्यास के जीवनकाल का है, ऐसी मान्यता है। यही वह वृक्ष है जिसे वास्तविक व्यास गद्दी कहा जाता है। वर्तमान में यह वृक्ष नवीन मंदिरों से घिरा हुआ है जिनमें से एक के भीतर गद्दी स्थित है।
व्यास गद्दी, वेद व्यास को समर्पित एक छोटा सा मंदिर है। मंदिर के भीतर त्रिकोण के आकार में वस्त्रों का ढेर रखा है जिसे वेद व्यास सदृश माना जाता है। यहाँ कई सूचना पट्टिकाएं हैं जो यह कहती हैं कि ग्रंथों की रचना इसी स्थान पर की गयी थी।
यहाँ स्थित तारे के आकार के एक प्राचीन यज्ञ कुंड का उल्लेख करना चाहूंगी। सिरेमिक टाइल से नवीनीकरण किया गया यह कुंड देखने योग्य है। यहाँ यजमान के बैठने का विशेष स्थान है जो देवताओं एवं योगिनियों के बैठकों से घिरा हुआ है। एक आले पर ग्रंथों की कतार रखी हुई है। आप अपने पुस्तकालय के लिए यहाँ से इन्हें ले सकते हैं, विशेषतः भागवत पुराण।
व्याद गद्दी के समीप ही सत्यनारायण स्वामी को समर्पित एक मंदिर है।
नैमिषारण्य में आदि गंगा अर्थात् गोमती नदी
गोमती नदी जिसे आदि गंगा भी कहा जाता है, पास से ही बहती है। मैं जब अक्टूबर मास के आरम्भ में यहाँ आयी थी, मुझे नदी तक पहुँचने के लिए कुछ दूर चलना पड़ा था। अनुमानतः समय के साथ नदी ने भी अपनी दिशा परिवर्तित की होगी। यहाँ काली, भैरव एवं कुछ संतों की विशाल प्रतिमाएं हैं। नदी के किनारे एक पुराना वट वृक्ष है। कल्पना कीजिये कि इस वृक्ष की छाँव में बैठकर कभी संतों ने ग्रंथों पर चर्चायें की होगी।
नदी के बीचोंबीच एक छोटा सा टापू है। वहां बैठे एक भलेमानस ने मुझे बताया कि उस टापू पर किसी समय एक मंदिर था। कुछ वर्षों पूर्व वह मंदिर बाढ़ के जल में बह गया। ध्यान से देखने पर भी मुझे उस मंदिर के कोई अवशेष वहां दिखाई नहीं दिए। किन्तु नदी की शक्ति का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। सृष्टि एवं विनाश में नदियों की भागीदारी पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगा सकते।
मनु-सतरूपा मंदिर
हिन्दू मान्यताओं के अनुसार मनु एवं सतरूपा मानव संस्कृति का प्रथम जोड़ा था। नैमिषारण्य में उन्होंने २३००० वर्षों तक तपस्या की थी जिसके पश्चात ब्रम्हा ने उन्हें संतान सुख का वरदान प्रदान किया था।
पांडव किला एवं हनुमान गढ़ी
उत्तर प्रदेश के इस क्षेत्र में हनुमान मंदिरों को हनुमान गढ़ी कहा जाता है। अयोध्या में भी हनुमान मंदिरों को हनुमान गढ़ी कहा जाता है। नैमिषारण्य में हनुमान की एक अतिविशाल प्रतिमा है। ऐसा माना जाता है कि यह स्वयंभू मूर्ति है। यदि आप ध्यानपूर्वक देखें तो आपको हनुमान के कन्धों पर राम एवं लक्ष्मण की छोटी छोटी प्रतिमाएं दिखाई पड़ेंगी।
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किवदंतियों के अनुसार राम-रावण युद्ध के समय जब अहिरावण राम व लक्ष्मण का अपहरण कर पाताल लोक ले गया था तब हनुमान ही उन्हें छुडाकर वापिस लाये थे। ऐसी मान्यता है कि हनुमान पाताल लोक से उन्हें लेकर इसी स्थान से बाहर निकले थे। हालांकि मैंने यही कथा बेट द्वारका में स्थित हनुमान मंदिर के सम्बन्ध में भी सुनी थी। बेट द्वारका में भी हनुमान एवं उनके पुत्र मकरध्वज को समर्पित एक मंदिर है जिसे दांडी हनुमान भी कहा जाता है।
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नैमिषारण्य के इस हनुमान मंदिर में आप हनुमान की प्रतिमा की प्राचीनता का अनुमान लगा सकते हैं। आप जान सकते हैं कि प्राचीन काल से इस मूर्ति की पूजा की जा रही है। मंदिर के अन्य भाग अपेक्षाकृत नवीन संरचनायें हैं।
हनुमान गढ़ी के समीप ही एक छोटा सा मंदिर है जिसके भीतर पांडवों एवं कृष्ण की विशाल छवियाँ हैं। इसे पांडव किला कहते हैं। यह मुझे किसी भी दिशा से किला प्रतीत नहीं हुआ। यह एक सामान्य सा कक्ष है तथा इनमें सब चित्र भी अत्यंत सामान्य हैं।
हनुमान गढ़ी के समीप दक्षिण भारतीय पद्धति से बना एक मंदिर है। इसमें एक सुनहरा स्तंभ है। इस स्तंभ पर विष्णु के वाहन गरुड़ के साथ साथ शंख व चक्र जैसे विष्णु के अन्य चिन्ह उत्कीर्णित हैं।
दधीचि कुंड
यह कुंड किसी भी मंदिर के प्रांगण में स्थित एक सामान्य लेकिन अपेक्षाकृत बड़ा कुंड है। इसके चारों ओर कई मंदिर निर्मित हैं। इनमें प्रमुख मंदिर ऋषि दधीचि को समर्पित है।
दधीचि कुंड को मिश्रिख तीर्थ भी कहा जाता है।
महर्षी दधीचि की कथा सर्वोच्च बलिदान की कथा है। एक समय की बात है। असुर वृत्र इंद्र को अनेक कष्ट दे रहा था। वृत्रासुर को वरदान प्राप्त था कि उसे लकड़ी या धातु से बने किसी भी अस्त्र-शास्त्र से मारा नहीं जा सकता। अतः इंद्र के लिए उसका वध करना असंभव था। तब इंद्र विष्णु की शरण में गया। विष्णु ने इंद्र को सलाह दी कि वह महर्षि दधीचि के पास जाकर उनसे उनकी अस्थियों की मांग करे एवं उन अस्थियों से एक हथियार बनाए।
इंद्र ने महर्षी दधीचि से नैमिषारण्य में ही भेंट की थी। ऋषि दधीचि ने इंद्र की मांग स्वीकार की। किन्तु मृत्यु से पूर्व महर्षि दधीचि सम्पूर्ण भारतवर्ष के पवित्र जल से स्नान करना चाहते थे। चूंकि समय की कमी थी, इंद्र स्वयं ही सर्व पवित्र तीर्थों का जल लेकर नैमिषारण्य आया। उसमें स्नान के पश्चात दधीचि ने प्राण त्याग दिए। तत्पश्चात उनकी अस्थियों से इंद्र ने वज्र का निर्माण किया एवं वृत्रासुर का वध किया।
यह एक बड़ा एवं सुन्दर कुंड है। इसके चारों ओर घाट बने हुए हैं। मंदिर अत्यंत सादा है। ऋषि दधीचि की जीवनी के कुछ चरित्र यहाँ चित्रित हैं जो ध्यानाकर्षित करते हैं। मेरी तीव्र इच्छा होती है कि ऐसे स्थलों में प्रमाणित पुस्तकें उपलब्ध हों जो इन स्थलों के विषय में विस्तार से वर्णन करते हों तथा जिन्हें हम जैसे जिज्ञासु लोग अपने साथ ले जा सकें।
यहाँ सीता कुंड एवं नारद मंदिर भी हैं जिनके दर्शन मुझसे छूट गए। यहाँ कई मठ भी हैं। यदि आप किसी मठ अथवा मठों से जुड़े हैं तो आप उन्हें भी देख सकते हैं।
नैमिषारण्य यात्रा के लिए कुछ यात्रा सुझाव
- नैमिषारण्य लखनऊ से लगभग ९० की.मी. दूर स्थित है। लखनऊ अथवा सीतापुर में रहते हुए नैमिषारण्य की दिवसीय यात्रा करना उत्तम है।
- नैमिषारण्य में कुछ अतिथिगृह हैं किन्तु मैंने उनका प्रयोग नहीं किया। अतः उनके विषय में कुछ नहीं कह सकती।
- खाने के विकल्प सिमित हैं। यदि आप छोटे ढाबों में खाना नहीं चाहते तो अपना खाना लेकर चलें।
- नैमिषारण्य में पण्डे अत्यंत त्रासदायक हैं। पग पग पर वे आपसे पैसों की मांग करते हैं। मेरी सलाह है कि बिना कुछ कहे आप आगे बढ़ जाईये। उनसे उलझने का रत्ती भर भी प्रयास ना करें। वे अपमानजनक हो सकते हैं।
- नैमिषारण्य घूमने के लिए कम से कम एक सम्पूर्ण दिन आवश्यक है। यदि आप वहां कोई धार्मिक कार्य नहीं करवा रहें हों तब भी!
अनुराधा जी,
नैमिषारण्य के बारे में अभी तक केवल भगवान श्री सत्यनारायण जी की कथा मे ही पढ़ा एवम् सुना था । कभी इस पर ज्यादा गौर नहीं किया ।आलेख पढ़ने पर ही इस स्थल की महत्ता ज्ञात हुई । महर्षी वेद व्यास जी ने यहीं पर समस्त वेदों,पुराणों तथा शास्त्रों की रचना की थी, इसी बात से नैमिषारण्य की महत्ता तथा पवित्रता समझी जा सकती हैं ।
पांच हजार वर्ष पुराना वट वृक्ष भी इसी स्थान पर हैं पढ़ कर आश्चर्य हुआ !
ज्ञानवर्धक जानकारी की प्रस्तुति के धन्यवाद ।
Good Naimisharanya
बहुत ही सुंदर नैमिषारण्य दरसन
नेमिषारण्य का अच्छा वर्णन
Naimisharanya mishrit teerth sitapur.. up mein bahut ji purane samay se sthit mandir evam teerth sthal hai.yah hamare bharat varsha ka sabse purane teerth chhetra hai.
Plz mam pande n trasdayak bolkar brahmano or tirthguru ka apman na karo aapne bahut achhi tarah se naimisharanya dham ka varnan kiya akhir mai aapka ye kehna nirathak ho gya brahman aapse bheekh nahi mangte naa hi chori karte hai pehle ve aapke or aapke parivar ki kalyan ki kamna karte h fir sankalp krwa kr hi daan lete h plz logo m ye jhooth ka drr na bnaye ki naimisharanya m lootere h, aj bhi brahman hi h jo sabka bhala karte h or aap de bhi kitna sakte ho brahman ne toh daan m apna sarir de rakha h apne desh dharm logo ke liye agar meri Baat se aapko kast hua ho toh kshama kare…
Very nicely explain about nemisharanya I am really mesmerized by the way of writing thank you very much