संस्कृतियों और परम्पराओं से सम्पन्न देवभूमि उत्तराखंड की विरासत इतनी विशाल है कि उसे किसी भी लेखनी में समाहित नही किया जा सकता है। यहां पंच केदार , पंच प्रयाग और पंच बदरी अपने नैसर्गिक स्वरूप में विद्यमान हैं। साल भर अनेकों मेले और धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन होता है इसी में सम्मिलित है माँ नंदा देवी की राजजात यात्रा।
नंदा देवी
मान्यता है कि एक बार नंदा अपने मायके आई थीं। लेकिन किन्हीं कारणों से वह 12 वर्ष तक ससुराल नहीं जा सकीं। बाद में उन्हें आदर-सत्कार के साथ ससुराल भेजा गया। मां नंदा को उनकी ससुराल भेजने की यात्रा ही है राजजात यात्रा। मां नंदा को भगवान शिव की पत्नी माना जाता है और कैलाश (हिमालय) भगवान शिव का निवास।
यात्रा पथ
नंदादेवी की यह ऐतिहासिक यात्रा श्री बदरीनाथ चमोली जनपद नन्दा नगर घाट कुरुड़ गांव के दिव्य प्राचीन मंन्दिर से नन्दा देवी की डोली के साथ यात्रा का शुभारंभ होता है। कुरूड़ के मन्दिर से दशोली और बधॉण की डोलियाँ जात का शुभारम्भ करती हैं। इस यात्रा में लगभग २५० किलोमीटर की दूरी, कुरुड़ से होमकुण्ड तक पैदल करनी पड़ती है। इस दौरान घने जंगलों पथरीले मार्गों, दुर्गम चोटियों और बर्फीले पहाड़ों को पार करना पड़ता है।
इसका पहला पड़ाव 10 किलोमीटर पर ईड़ा बधाणी है। उसके बाद दो पड़ाव नौटी में होते हैं। नौटी के बाद सेम, कोटी, भगोती, कुलसारी, चेपड़ियूं, नन्दकेशरी, फल्दिया गांव, मुन्दोली, वाण, गैरोलीपातल, पातरनचौणियां होते हुये यात्रा शिलासमुद्र होते हुये अपने गन्तव्य होमकुण्ड पहुंचती है। इस यात्रा के दौरान लोहाजंग ऐसा पड़ाव है जहां आज भी बड़े पत्थरों और पेड़ों पर लोहे के तीर चुभे हुये हैं। कुछ तीर संग्रहालयों के लिये निकाल लिये गये हैं। इस स्थान पर कभी भयंकर युद्ध होने का अनुमान लगाया जाता है।
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रूपकुंड
राजजात के मार्ग में हिमाच्छादित शिखरों से घिरी रूपकुण्ड झील है जिसके रहस्यों को सुलझाने के लिये भारत ही नहीें बल्कि दुनियां के कई देशों के वैज्ञानिक दशकों से अध्ययन कर रहे हैं। कोई रोक टोक न होने के कारण समुद्रतल से 16200 फुट की उंचाई पर स्थित रूपकुण्ड झील से देश विदेश के वैज्ञानिक बोरों में भर कर अतीत के रहस्यों का खजाना समेटे हुये ये नर कंकाल और अन्य अवशेष उठा कर ले गये हैं। फिर भी मानव बस्तियों से बहुत ऊपर इस झील के किनारे अब भी कई कंकाल पड़े हैं। कुछ कंकालों पर मांस तक पाया गया है। कंकालों के साथ ही आभूषण, राजस्थानी जूते, पान सुपारी, के दाग लगे दांत, शंख, शंख की चूड़ियां आदि सामग्री बिखरी पड़ी है। इन सेकड़ों कंकालों का पता सबसे पहले 1942 में एक वन रेंजर ने लगाया था।
इसके साथ ही इस ऐतिहासिक यात्रा का नेतृत्व करने के लिए चौसिंग्या(चार सिंग ) खाडू भेड की तलाश भी शुरू हो जाता है। यात्रा से पहले इस तरह का विचित्र भेढ चांदपुर और दशोली पट्टियों के गावों में से कहीं भी जन्म लेता रहा है। इस यात्रा में चौसिंग्या खाडू़ (चार सींगों वाला भेड़) का विशेष महत्व है जोकि स्थानीय क्षेत्र में राजजात का समय आने के पूर्व ही पैदा हो जाता है। उसकी पीठ पर रखे गये दोतरफा थैले में श्रद्धालु गहने, श्रंगार-सामग्री व अन्य हल्की भैंट देवी के लिए रखते हैं, जोकि होमकुण्ड में पूजा होने के बाद आगे हिमालय की ओर प्रस्थान कर लेता है। लोगों की मान्यता है कि चौसिंग्या खाडू़ आगे हिमालय की पर्वत सृंखलाओं में जाकर लुप्त हो जाता है व नंदादेवी के क्षेत्र कैलाश में प्रवेश कर जाता है।
विशेष कारीगरी से बनीं रिंगाल की छंतोलियों, डोलियों और निशानों के साथ लगभग 200 स्थानीय देवी देवता इस महायात्रा में शामिल होते हैं। समुद्रतल से 13200 फुट की उंचाई पर स्थित इस यात्रा के गन्तव्य पैदल रहस्यमयी रूपकुंड होकर हेमकुंड तक जाती है।
इस लेख की लेखिका रेखा देवशाली उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जनपद से है। गांव के सरकारी स्कूल से और एक समाज सेविका तक का सफर संघर्षों से भरा हुआ रहा, एक माँ, बेटी, और पत्नी के कर्तव्यों के साथ समाज सेवा और लेखन कार्य भी करती हैं।