पोरबंदर – यह शब्द मेरे कानों में सर्वप्रथम तब पड़ा जब प्राथमिक शाला में हमें महात्मा गांधी पर निबंध लिखने कहा गया था। पोरबंदर की तो छोड़िये, चंडीगड़ में पढ़ रही मुझ जैसी नन्ही बालिका के लिए गुजरात भी एक सुदूर स्थान था। बड़े होते होते मेरे भूगोल की सीमाएं भी बढ़ने लगीं। फिर आया इन्टरनेट अर्थात् संगणक जाल का युग। मेरे कुछ भ्रमणप्रिय साथियों ने पोरबंदर के दर्शन किये तथा इन्टरनेट द्वारा मुझे गांधीजी के उस घर के चित्र भेजे जहां उनका जन्म हुआ था। उस घर के चटक हरे चौखटों ने मेरे मानसपटल पर अमिट छाप छोड़ दी थी और तभी मैंने ठान लिया था कि भविष्य में कभी ना कभी उस घर के दर्शन अवश्य करूंगी।
हाल ही में जब मैंने द्वारका की यात्रा की थी, मुझे पोरबंदर होकर जाना पड़ा था। तभी मैंने निश्चय किया था कि इसी यात्रा में, विश्व को दो महान सुपुत्र प्रदान करने वाले पोरबंदर को जितना हो जानने का प्रयत्न करुँ। मोहनदास करमचंद गांधी तथा सुदामा के कारण प्रसिद्धी को प्राप्त पोरबंदर एक छोटा सा नगर होगा, ऐसा मेरा अनुमान था। किन्तु जब मेरा विमान पोरबंदर विमानतल पर उतरने हेतु नीचे आया, समक्ष बहुमंजिली इमारतों तथा हवाई पुलों से भरे एक विशाल नगर को देख मेरी आँखें फटी की फटी रह गयीं।
द्वारका की ओर जाते जाते मैंने एक विमार्ग लेते हुए पोरबंदर की ओर प्रस्थान किया। वहां पहुंचकर मैंने सर्वप्रथम महात्मा गाँधी के जन्म स्थल को देखने का निश्चय किया। कीर्ति मंदिर के नाम से पहचाने जाने वाला यह स्थल पोरबंदर का सर्वाधिक प्रसिद्द तथा सर्वाधिक प्रदर्शित स्थल है। बाजार के समीप हमने अपनी गाड़ी खड़ी की तथा चारों ओर अपनी दृष्टी दौड़ाई। अधिकांशतः दुकानों में मसालों की विक्री हो रही थी। बाजार के चारों ओर विशाल तथा अलंकृत इमारतें थीं। इन्हें देखकर पोरबंदर एक अति समृद्ध तथा संपन्न नगर प्रतीत हुआ।
पोरबंदर का कीर्ति मंदिर
गांधीजी के जन्मस्थान के दर्शन से पूर्व क्यों ना हम उनसे सम्बंधित ऐतिहासिक तथ्यों को पुनः स्मरण करें!
गांधीजी का इतिहास
पोरबंदर के जिस घर में गांधीजी का जन्म हुआ था, उसे उनके परदादा श्री हरजीवनजी रहिदासजी गाँधी ने खरीदा था। एक स्थानीय कुलीन स्त्री मनबा जी से खरीदा गया यह घर उस समय एक-मंजिला घर था। गांधीजी के जन्म दिवस, २ अक्टोबर १८६९ तक यह छोटा सा घर एक तिमंजिली इमारत में परिवर्तित हो गया था। यहाँ लगे एक सूचना पटल पर दी गयी जानकारी अनुसार इस इमारत के भीतर सर्व कक्ष तथा गलियारे मिलाकर कुल २२ कक्ष हैं।
गांधीजी के पिता व दादा पोरबंदर के राजदरबार में (राजाओं के) दीवान थे। यह एक प्रतिष्ठित पदवी थी। उनकी यह भव्य हवेली इसका जीता जागता उदाहरण है।
गांधीजी के विषय में और अधिक जानना चाहें तो गाँधी विरासती सूचना पटल पर पा सकते हैं।
कीर्ति मंदिर – पोरबंदर का गाँधी निवास
गांधीजी का मूल निवास स्थान इस विशाल व अलंकृत कीर्ति मंदिर के बाईं ओर स्थित है। समक्ष ही नवीन से प्रतीत होते हुए एक सादे भित्त पर लिखा था – महात्मा गाँधी का जन्म स्थान। इसके भीतर प्रवेश करते ही आप स्वयं को हरे रंग के किनार वाली ऊंची भित्तियों से घिरे प्रांगण में पायेंगे। निवास स्थान का मुख्य प्रवेश-द्वार दाहिनी ओर है। गृह के अग्र भाग पर स्थित गलियारे में हरे रंग के कई स्तंभ तथा नक्काशीयुक्त लकड़ी के चौखट हैं।
मुख्य द्वार के ऊपर ही गांधीजी तथा कस्तूरबा का एक श्वेत-श्याम चित्र लटका हुआ है। द्वार के चौखट पर महीन नक्काशी की गयी है। बारीकी के निरिक्षण करने पर मुझे लाल रंग में गणेश जी दिखाई दिए। कोष्ठक के रूप में दोनों ओर लकड़ी के तोते लटके हुए हैं। कक्ष के भीतर प्रवेश करते ही आप गांधीजी के जन्म का सटीक स्थान देख सकते हैं। यह स्थान स्वास्तिक द्वारा इंगित किया गया है। समीप ही भित्ति के ऊपर उनका एक विशाल चित्र भी लटका हुआ है। मुझे किंचित आश्चर्य हुआ कि कक्ष के भीतर ही सही, किन्तु द्वार के इतने समीप गांधीजी की माता ने उन्हें जन्म दिया होगा! जाने दीजिये, मुझे इसकी जानकारी नहीं। अतः अनावश्यक टिप्पणी करना उचित नहीं।
मैंने घर को सूक्ष्मता से निहारना आरम्भ किया। मुझे कुछ झरोखे दृष्टिगोचर हुए जो भले ही छोटे थे किन्तु बारीकी से तराशे हुए थे। छोटी छोटी कई अलमारियां थीं जिन पर हरे रंग के द्वार थे तथा उनके चारों ओर की दीवारें लाल रंग की थीं। दीवारों पर कई आले भी थे जो रंग बिरंगे चित्रों द्वारा अलंकृत थे। इन सर्व चित्रों मैं तोतों के प्रति चित्रकार के विशेष लगाव ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। तोता यहाँ के कारीगरों व चित्रकारों का प्रिय विषय प्रतीत हुआ।
गृह के भीतर ऊपरी मंजिल तक जाने-आने हेतु लकड़ी की लगभग खड़ी सीड़ियाँ बनी हुई हैं जो मुझे अत्यंत डरावनी सी प्रतीत हुईं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने मोटी रस्सी बाँधी हुई है जिसके सहारे सीड़ियाँ चढ़ी जा सकती हैं। इन सीड़ियों को देख मैं सोच में पड़ गयी कि बिजली की अनुपस्थिति में इन खड़ी सीड़ियों पर चढ़ना कितना दुर्गम रहा होगा।
महात्मा गाँधी के अन्य निवास स्थान
• अहमदाबाद का सत्याग्रह आश्रम
• अहमदाबाद का साबरमती आश्रम
• मुंबई का मणि भवन
• पुणे का आगा खान महल
पोरबंदर का कस्तूरबा गृह
कीर्ति महल का एक गलियारा महल के पिछवाड़े स्थित पोरबंदर की गलियों तक पहुंचाता है। ऐसी ही एक गली के कोने में कस्तूरबा का पैतृक निवासस्थान है। मायके में वे कस्तूरबा कपाडिया कहलाती थीं। १९वी. सदी में बनी यह हवेली भी गाँधी निवास के सामान विशाल है। मैंने इस हवेली में घूमकर इसका निरिक्षण आरम्भ किया।
सर्वप्रथम हवेली के एक कक्ष में मुझे एक छोटा सा कार्यालय दिखाई दिया। भीतर मुझे कई रसोईघर भी दिखे जिसने मुझे असमंजस में डाल दिया था। इतने सारे रसोईघर क्यों? वहां उपस्थित एक अधिकारी ने मुझे बताया कि कस्तूरबा के इस निवासस्थान में कई भाईयों का हिस्सा था। कदाचित भाईयों के परिवार साथ रहकर भी अपनी स्वायत्तता बनाए हुए थे। व्यवहारिक सोच!
पोरबंदर के इस कस्तूरबा निवास में सर्व तलों को जोड़ती लकड़ी की सीड़ियाँ भी गाँधी निवास के ही सामान तीव्र ढलान वाली हैं। कस्तूरबा निवास में जिसने मुझे विशेषतः प्रभावित किया वह है यहाँ की शीत प्रणाली। दीवारों के भीतर कई जल नलिकाएं गड़ी हुई हैं जिनके द्वारा बहता जल कक्ष को शीतलता प्रदान करता है।
दोनों निवास स्थानों के मध्य खड़े मैं सोचने लगी कि क्या कभी मोहनदास व कस्तूरबा अपने बालपन में इन्ही गलियों में खेलते रहे होंगे!
कीर्ति मंदिर
कीर्ति मंदिर महात्मा गाँधी तथा कस्तूरबा गाँधी की स्मृति में बनाया गया एक स्मारक है। इस स्मारक में गांधीजी का निवास स्थान भी सम्मिलित है। कीर्ति मंदिर के विषय में एक रोचक जानकारी मेरे ध्यान में आई कि इसका निर्माण १९४७ में आरम्भ हो चुका था। अर्थात् गांधीजी को इस निर्माण कार्य के विषय में जानकारी थी। कहा जाता है कि उन्होंने स्वयं अपने घर का लेखापत्र कीर्ति मंदिर निर्मिती संस्था को सौंपा था। दुर्भाग्य से वे कीर्ति मंदिर को सम्पूर्ण होते नहीं देख पाए।
पोरबंदर के ही एक निवासी, सेठ नानजीभाई कालीदास मेहता ने गांधीजी का यह स्मारक बनवाया था। इमारत के साथ साथ उस भूमि का खर्च भी उन्होंने ही उठाया था। यह वही सेठ नानजीभाई कालीदास मेहता हैं जिनके प्रसिद्ध पुत्र जय मेहता को तो आप सब जानते ही हैं। जी हाँ! जय मेहता जो एक उद्योगपति होने के साथ साथ आईपीएल के कोलकाता दल के सह-स्वामी भी हैं।
कीर्ति मंदिर के बीचोंबीच महात्मा गांधी तथा कस्तूरबा गांधी की आदमकद प्रतिमाएं हैं। एक ओर स्मारिका विक्री दुकान तथा एक छोटी चित्र दीर्घा दिखाई दिए। किन्तु स्मारिका दुकान में खरीदने लायक कुछ विशेष प्राप्त नहीं हो सका। काश यहाँ गांधीजी तथा उनके विरासत सम्बन्धी कुछ विशेष वस्तुएं यहाँ उपलब्ध हो सकते। कैसी विडम्बना है कि कुछ घंटो पूर्व मैं मुंबई विमानतल पर स्थित एक विशिष्ट दुकान में थी जो गांधीजी से सम्बंधित स्मारिकाओं से भरी हुई थी। रही बात चित्र दीर्घा की तो यहाँ गाँधी परिवार के कई चित्र प्रदर्शित थे। गाँधी परिवार के वंश वृक्ष का भी रेखाचित्र अंकित था।
कीर्ति मंदिर के प्रथम तल पर मुझे गांधीजी की जीवनी को सुन्दर दर्शन प्रदान कराती विस्तृत चित्र दीर्घा देखने को मिली। कहीं उच्च कोटि के वस्त्र धारण किये बाल मोहनदास तो कहीं अंग्रेजो की तरह वस्त्र धारण किये अफ्रीका में वकालत करते गांधीजी। और कहीं धोती पहने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेते राष्ट्रपिता गांधीजी। अर्थात् इस चित्र दीर्घा में गांधीजी की १९वीं. शताब्दी के अंत से २०वीं. शताब्दी के आरम्भ तक की जीवनी का सजीव चित्रण देखने मिला।
सुदामापुरी अर्थात् सुदामा मंदिर
कृष्ण सुदामा की कथा तो आप सबने सुनी ही होगी। किन्तु क्या आप जानते हैं कि सुदामा पोरबंदर के निवासी थे? इस कथा में सुदामा कृष्ण से भेंट करने पोरबंदर से बेट द्वारका पहुंचे थे। वास्तव में कृष्ण तथा सुदामा बाल मित्र थे। उज्जैन के संदीपनी आश्रम में उन दोनों ने साथ अध्ययन किया था।
सुदामा कृष्ण की इसी मैत्री को दर्शाते इस मंदिर में उनके कई भित्ति चित्र थे। एक चित्र में कृष्ण सुदामा के चरण धो रहे हैं तथा रुक्मिणी उन्हें पंखा झल रही हैं। वहीं कुछ चित्रों में कृष्ण तथा रुक्मिणी दोनों को सुदामा के चरण धोते दर्शाया गया था।
मंदिर के समक्ष धरती पर एक भूलभुलैया बनी हुई थी जिसे सुदामा का लख-चौरासी कहा जाता है। कहा जाता है कि मरणोपरांत मनुष्य योनी में फिर जन्म लेने से पूर्व एक आत्मा को ८४ लाख अन्य योनियों में जन्म प्राप्त होता है। भक्तों का मानना है कि इस भूलभुलैया के भीतर चलने से इस पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति प्राप्त होती है।
यहाँ का मुख्य मंदिर मुझे अत्यंत आकर्षक प्रतीत हुआ। मंदिर के अग्रभाग में स्तंभों युक्त एक प्रांगण था। कहा जाता है कि १२वीं. सदी में निर्मित यह मंदिर लगभग १००० वर्ष प्राचीन है। आप मंदिर के भीतर द्वारकाधीश एवं सुदामा दोनों की प्रतिमाएं देखेंगे तथा बाहर सुदामा कुंड नामक एक कुआं। मुख्य मंदिर के पृष्ठभाग में हरसिद्धि देवी समेत कई अन्य देवी-देवताओं को समर्पित छोटे छोटे मंदिर भी देख सकते हैं। मंदिर के चारों ओर सुन्दर बगीचे बनाए हुए हैं जिसमें कृष्ण सुदामा की कथा को दर्शाती कई मूर्तियाँ बनी हुई थीं।
पोरबंदर की गलियों तथा सडकों पर गाड़ी से घूमते समय मुझे अंग्रेजी उपनिवेशीय काल की कई अलंकृत हवेलियाँ दिखाई दीं। आकर्षक झरोखों तथा द्वारों से सज्ज ये हवेलियाँ मन मोह रही थीं।
पोरबंदर स्थित तारा मंडल भारत के प्राचीन तारा मंडलों में से एक तथा यहाँ के मुख्य आकर्षणों में से एक है। अपने पोरबंदर यात्रा के समय इसका भी अवश्य आनंद उठायें।
पोरबंदर सड़क मार्ग, रेल तथा विमान सेवा द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है। मैं जब यहाँ विमान द्वारा पहुंची, विमानतल पर, सड़क किनारे उपस्थित ढाबों के सामान दिखाते एक अनोखे जलपानगृह ने मुझे आकर्षित किया। काश चाय की कीमत भी ढाबों की तरह ही होती!