“भारत में नदियों को मातृतुल्य मानकर उनकी पूजा की जाती है, मातृ उपासना। नदियों का आदर जल का आदर है क्योंकि जल के बिना जीवन नहीं है।“ – प्राची परिक्रमा के संबंध में परम पूज्य गुरु परमहंस प्रज्ञानानन्द जी महाराज के वक्तव्य।
प्राची नदी की कथा
पद्म पुराण के उत्तरखंड के अंतर्गत प्राची माहात्म्य में प्राची नदी का गुणगान किया गया है। प्राची नदी का पौराणिक मूल उद्गम कपिल मुनि का आश्रम माना जाता है।
प्राची माहात्म्य के अनुसार समुद्र के भीतर स्थित चट्टानों से एक बड़वाग्नि अर्थात समुद्र के भीतर महा अग्नि उत्पन्न हुई जिसमें तीनों लोकों का विनाश करने की क्षमता थी। मानव, असुर एवं देवतागण ब्रह्मा के पास गए तथा उनसे तीनों लोकों की रक्षा करने का अनुरोध किया।
ब्रह्मा ने उन सब से कहा कि वे सब एकजुट होकर समुद्र देव की आराधना करें। समुद्र देव ने इस विषय में उनकी सहायता करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। तब उन सब ने महान नदियाँ गंगा, यमुना एवं रेवा से याचना की। उन नदियों ने भी इस विषय में अपनी असमर्थता व्यक्त की। अंततः उन्होंने सरस्वती नदी से याचना की। माँ सरस्वती ने कहा, “इस बड़वाग्नि को समाप्त करते करते मैं नष्ट हो जाऊँगी। किन्तु सृष्टि के कल्याण के लिए मैं यह त्याग करने के लिए तत्पर हूँ।”
देवताओं ने देवी सरस्वती से प्रार्थना की कि वे भूमिगत हो जाएँ तथा कहा कि वे बड़वानल अथवा बड़वाग्नि में पूर्णतः नष्ट होने से उसका रक्षण करेंगे। सरस्वती नदी भूमिगत हो गयी तथा कपिल मुनि के आश्रम में पुनः प्रकट हो गयी। उस समय कपिल मुनि उस बड़वानल से मानवों, असुरों व देवताओं का रक्षण करने के लिए यज्ञ कर रहे थे।
आश्रम में कपिल मुनि द्वारा किये जा रहे अनुष्ठान के यज्ञ कुंड में देवी सरस्वती पुनः प्रकट हुई। यद्यपि मूल रूप से सरस्वती पश्चिम दिशा की ओर बह रही थी, तथापि उन्होंने अपनी दिशा परिवर्तित की तथा पूर्व की ओर बहने लगी। चूंकि पूर्व दिशा को प्राची भी कहते हैं, इसलिए उस काल से यह पावन नदी प्राची सरस्वती के नाम से विदित हो गयी। अपने वचन का पालन करते हुए देवतागण इसके तट पर निवास करने लगे।
प्राची परिक्रमा
हमारे शास्त्रों में भारत की केवल दो पावन नदियों का उल्लेख है जिनकी परिक्रमा की जाती है। यह परिक्रमा पथ नदियों के उद्गम स्थान से आरंभ होकर, नदियों के साथ साथ आगे बढ़ते हुए समुद्र तक जाता है तथा वहाँ से परिक्रमा करता हुआ पुनः उद्गम स्थल पर आकार समाप्त होता है। शास्त्रों के अनुसार जिन दो नदियों की परिक्रमा की जाती है, वे हैं नर्मदा नदी तथा यह प्राची नदी।
०४ चतुर्थी, चैत्र मास, कृष्ण पक्ष, २०६९, विश्वावसु, विक्रम संवत, (११-०३-२०१२), यही वह पावन दिवस था जब परम पूज्य गुरु परमहंस प्रज्ञानानन्द जी महाराज के मार्गदर्शन में सर्वप्रथम प्राची नदी की परिक्रमा आरंभ की गयी थी। गुरुजी इस परिक्रमा में भक्तों एवं तीर्थयात्रियों का नेतृत्व स्वयं करते हैं। ‘प्राची परिक्रमा धर्मार्थ न्यास’ के सहयोगदान से उन्होंने इस पावन प्रकल्प का शुभारंभ किया था।
प्राची परिक्रमा धर्मार्थ न्यास के अध्यक्ष व प्रबंध न्यासी, स्वामी शुद्धानंद गिरी के अनुसार “प्राची नदी की पावन परिक्रमा अंधकपिलेश्वर मंदिर से आरंभ होती है। हमारे इतिहास पुराणों के अनुसार प्राची नदी के उद्गम स्थल के दो आयाम हैं, एक भौगोलिक तथा दूसरा आध्यात्मिक।
वर्तमान में प्राची नदी, जो महानदी की सहायक नदी है, वह नराज के निकट फूलनखरा या दकम्बा से बहती है। यह इस नदी का भौगोलिक उद्गम स्थल है। किन्तु नदियों के मार्ग एवं उनके भूगोल सतत परिवर्तित होते रहते हैं। अनवरत रहता है उनका तत्व। अनवरत रहता है उनका पौराणिक उद्गम स्थल। प्राचीन ग्रंथ प्राची माहात्म्य के अनुसार प्राची नदी का उद्गम स्थल कटक के नियाली में स्थित अंधकपिलेश्वर मंदिर है।
ग्रीष्म ऋतु में अन्य क्षेत्रों में सूखा पड़ जाता है किन्तु मंदिर के भीतर स्थित जलमग्न शिवलिंग सदा जल के भीतर ही रहता है। यह प्राची नदी का मूल उद्गम स्थान है।”
प्राची परिक्रमा कब की जाती है?
प्राची परिक्रमा पंक उद्धार विजया एकादशी से छः दिवस पूर्व आरंभ की जाती है। इस परिक्रमा का समापन पंक उद्धार एकादशी के दिवस होता है।
पंक का अर्थ है कीचड़। कपिलेश्वर मंदिर का शिवलिंग सदा जलमग्न रहता है। उस पर वर्ष भर में चढ़ाए गए पुष्प एवं पत्ते निकाले नहीं जाते हैं। इसके कारण शिवलिंग सदा इनसे ढंका रहता है तथा दिखाई नहीं देता है। इन चढ़ावों को पंक कहा गया है। विजया एकादशी के दिवस पुष्प तथा अन्य अर्पित वस्तुओं को निकाला जाता है। इससे भक्तगण शिवलिंग का दर्शन कर सकते हैं।
सन् २०२४ में परिक्रमा तिथि १ मार्च से ७ मार्च थी। ७ मार्च के दिन पंक उद्धार एकादशी थी।
प्राची परिक्रमा का महत्व
प्राची परिक्रमा के दो महत्वपूर्ण आयाम हैं।
प्रथम, प्राची घाटी सभ्यता ने विभिन्न पंथों के उत्कर्ष में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसके तटों पर स्थित असंख्य मंदिर, मठ तथा घाट इसकी पुष्टि करते हैं। किन्तु इनमें से अधिकांश अब खंडित अवस्था में हैं।
माँ प्राची के तटों पर आप सैकड़ों बौद्ध एवं जैन प्रतिमाएं देख सकते हैं जिनके मध्य शंभू, माधव एवं शक्ति की प्रतिमाएं भी स्थित हैं। यह इस तथ्य का द्योतक है कि यहाँ अनेक धर्म एवं पंथ एक साथ विकसित हुए तथा फले-फूले। उनमें आपस में किसी भी प्रकार के धार्मिक अथवा आध्यात्मिक मतभेद नहीं थे।
दूसरा, द्वादश शंभू, द्वादश माधव तथा द्वादश शक्ति पीठों का अस्तित्व। देवतागणों ने प्राची नदी को दिए हुए वचन का पालन किया तथा उसके तट पर निवास करने लगे। इससे अष्ट शंभू, अष्ट माधव, अष्ट शक्तिपीठ, अष्ट मठ, द्वादश तीर्थ, द्वादश शंभू, द्वादश माधव तथा द्वादश शक्तिपीठ आदि का उद्भव हुआ।
कपिल संहिता में प्राची एवं उसकी शुचिता का स्पष्ट प्रमाण मिलता है।
“ एकाम्र कानन पूर्वे यजन्ते महीपते,
नामे प्राची विख्यात सरिदते सरस्वती
प्राच्य देशे महेशय यत्रस्यात
संग्राम गम क्रोश क्रोश तत लिंग
ततः प्राची सरस्वती ”
इसका अर्थ है- एकाम्र कानन के पूर्वी भाग में प्राची सरस्वती पूर्व दिशा की ओर बह रही है। उनके दोनों तटों पर भगवान शिव के लिंग स्वरूप की आराधना की जाती है।
संस्कृत भाषा में तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है, नदी के निकट की उथली भूमि जहाँ संगम हो। उपनिषदों एवं हिन्दू महाकाव्यों में तीर्थ शब्द की अवधारणा आध्यात्मिक ज्ञान की ओर संकेत करती है, ना कि अनुष्ठानों एवं कर्मकांड पर।
प्राची नदी की परिक्रमा करने वाले भक्तगण नदी के पावन जल में स्नान करते हैं तथा उस तीर्थ के अधिष्ठात्र देव की पूजा-अर्चना करते हैं। इन भक्तगणों को असंख्य आशीष प्राप्त होते हैं तथा उन्हे व उनके पूर्वजों को मोक्ष प्राप्त होता है।
गुरुजी के मार्गदर्शन में सम्पूर्ण श्रद्धा एवं भक्ति से पूर्ण की गयी प्राची परिक्रमा तीन साधनाओं के फल प्रदान करती है जो हैं, शरीर, मन एवं आत्मा का उत्थान।
७ दिवसीय प्राची परिक्रमा का पथ
प्राची परिक्रमा पदयात्रा द्वारा पूर्ण की जाती है। यह पदयात्रा इस प्रकार की जाती है कि नदी सदैव पदयात्रियों के दाहिनी ओर रहे। पदयात्रा पथ नदी एवं समुद्र के संगम तक जाती है। वहाँ से परावर्तित होते हुए पुनः आरंभ स्थल की ओर प्रस्थान करती है। परावर्तित मार्ग में भी नदी उनके दाहिनी ओर रहती है।
परिक्रमा का आरंभ व समापन दोनों अंधकपिलेश्वर मंदिर में होता है। सम्पूर्ण पदयात्रा की लंबाई १०८ किलोमीटर है। इसे ७ दिवसों में पूर्ण करना श्रेष्ठ माना जाता है जिसके लिए औसतन २० किलोमीटर प्रतिदिन चलना पड़ता है।
दिवस १
कटक जिले के नियाली तहसील के अंतर्गत कपिलेश्वर में स्थित अंधकपिलेश्वर मंदिर से प्राची परिक्रमा आरंभ होती है। यह कटक से ५१ किलोमीटर दक्षिण की ओर स्थित है।
यहाँ का शिवलिंग प्राची घाटी में स्थित द्वादश शंभू का भाग है। यहाँ का लिंग सदा जलमग्न रहता है। पंक उद्धार एकादशी के दिवस अर्थात महाशिवरात्रि उत्सव से तीन दिवस पूर्व, यहाँ के सम्पूर्ण जल का निकास किया जाता है। इसके पश्चात यहाँ का शिवलिंग दृश्यमान हो जाता है जिसके दर्शन करने के लिए यहाँ भक्तगणों का ताँता लग जाता है।
यहाँ से आगे बढ़ते हुए परिक्रमावासी गोकर्णेश्वर पहुँचते हैं जो कपिल मुनि आश्रम से लगभग १ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसे द्वादश शंभू के अंतर्गत द्वितीय शंभू माना जाता है।
प्रथम दिवस का अंतिम गंतव्य राधाकांत मठ है। प्राची नदी के बाएं तट पर स्थित राधाकांत मठ नियाली तहसील के नुआगांव में स्थित है। यह नियाली के शोभनेश्वर मंदिर से उत्तर-पश्चिमी दिशा में लगभग १ किलोमीटर की दूरी पर है।
सन् १८८६ में स्थापित राधाकांत मठ का स्वयं का भूभाग है। जमींदारी मठ होने के नाते यह मठ स्व-वित्त पोषित है। लोक मान्यताओं के अनुसार पुरी की यात्रा करते हुए चैतन्य महाप्रभु ने कुछ काल इस मठ में निवास किया था। नवकलेवर अथवा नबकलेबारा के समय राधाकांत मठ के वैष्णव जन संकीर्तन में भाग लेते हैं।
शोभायात्रा निकाली जाती है जिसमें वे जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा की प्रतिमाओं के लिए नीम की लकड़ियाँ ले जाते हैं जिन्हे स्थानीय भाषा में दारू कहा जाता है। उन्हे यह अधिकार महाराज प्रताप रुद्र देव के शासन काल से प्राप्त है। नवकलेवर अथवा नबकलेबारा का अर्थ है देवों का नवीन शरीर। नवीन काष्ठ से जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा की प्रतिमाओं की पुनः नवीन रचना की जाती है।
वृक्षराज तमाल
राधकांत मठ के प्रांगण में एक वृक्ष है। ऐसी मान्यता है कि चैतन्य महाप्रभु जिस दातून से अपने दांत स्वच्छ करते थे, उसके शेष भाग को उन्होंने वहीं भूमि में गाड़ दिया था। कुछ काल पश्चात उस लकड़ी की टहनी पर कोंपलें फूटने लगीं जो कालांतर में एक वृक्ष में परिवर्तित हो गया। इसे वृक्षराज तमाल अथवा बृक्षराज तमाल कहा जाने लगा।
इस वृक्ष का एक रोचक आयाम यह है कि मठ के उत्थान एवं पतन के साथ यह वृक्ष भी प्रसुप्त अथवा खिलने लगता है। सन् १९६९ -८५ तक यह मठ जीर्ण अवस्था में था। इस मठ में कोई भी महंत गुरु नियुक्त नहीं थे। उस कालावधी में वृक्षराज तमाल के सभी पत्ते झड़ गए थे तथा यह वृक्ष लगभग सुप्त अवस्था में पहुँच गया था।
इस पतन काल के अंत में इस पर नवीन कोंपलें फूटने लगीं तथा शनैः शनैः नवीन शाखाएं प्रकट होने लगीं। यह इस मठ के उत्थान का संकेत था। इसी समय मठ में नवीन गुरु महंत मदन मोहन दास बाबा का आगमन हुआ। २५ वर्षों के उनके आजीवन संघर्ष के पश्चात मठ की स्थिति में अमूलाग्र सुधार होने लगा। उस काल से वृक्षराज तमाल अपने भव्य रूप में विराजमान है।
दिवस २
राधकांत मठ से परिक्रमावासी मूसीबाबा मठ की ओर कूच करते हैं। नियाली चारीछका मार्ग से २०० मीटर के विमार्ग पर जल्लारपुर के निकट स्थित सहनाजपूर गाँव में यह मूसीबाबा मठ स्थित है। इसे आर्ततरान गड़ी भी कहते हैं। प्रत्येक संध्या को इस मठ में भागवत का पाठ किया जाता है।
प्रातःकालीन आरती के पश्चात परिक्रमावासी अपने दूसरे दिवस की पदयात्रा का आरंभ करते हैं। मूसीबाबा मठ से पदयात्रा करते हुए वे प्राचीन शिव मंदिर शोभनेश्वर मंदिर पहुँचते हैं जो बंगालीसाही नामक गाँव में स्थित है। यह भुवनेश्वर से लगभग ४५ किलोमीटर की दूरी पर है। यह मंदिर नियाली-माधव मार्ग से ३०० मीटर के विमार्ग पर स्थित है।
यह मंदिर प्राची नदी के बाईं तट पर, गाँव के प्रवेश स्थल पर विराजमान है। इस मंदिर में एक नौकोनिया पत्थर है जिसमें नौ कोने हैं। इस पत्थर को अत्यंत पवित्र माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि जो भी यह झूठ कहे कि उसने इस पावन पत्थर का स्पर्श किया है, उसे यह पत्थर दंड देता है। लोगों की ऐसी मान्यता है कि वह झूठा कुछ ही दिवसों में मृत्यु को प्राप्त होता है।
रामायणकालीन मंदिर
प्रातःकाल के जलपान के पश्चात पदयात्री टोलागोपीनाथपुर की ओर प्रस्थान करते हैं। नियाली तहसील के जल्लारपुर गाँव से २ किलोमीटर पूर्वी दिशा में टोलागोपीनाथपुर है जहाँ प्राची नदी के तट के निकट रामेश्वर मंदिर है। भक्तगण रामेश्वर मंदिर में भगवान के दर्शन करते हैं।
इस मंदिर को रामायण काल का मंदिर माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि श्री रामचन्द्र ने स्वयं इस मंदिर में शिवलिंग की स्थापना की थी। उन्होंने यहाँ भगवान शिव की आराधना की थी तथा उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया था। इसके पश्चात उन्होंने श्रीलंका के लिए प्रस्थान किया तथा वहाँ रावण का वध किया। इसलिए यहाँ के देव रामेश्वर नाम से लोकप्रिय हो गए।
अगला पड़ाव सोमनाथ मंदिर है। रामेश्वर से सोमनाथ मंदिर की पदयात्रा अधिक नहीं है। सोमनाथ मंदिर की स्थापना के विषय में अधिकृत जानकारी प्राप्त नहीं है। मंदिर के पुरोहित इसे लगभग १०० वर्ष प्राचीन बताते हैं।
सोमनाथ मंदिर के पश्चात परिक्रमावासी माधवनंद मंदिर पहुँचते हैं। नियाली से ६ किलोमीटर दूर, नियाली-माधव मार्ग पर स्थित पनिमल चौक से दक्षिण-पूर्वी दिशा में १.५ किलोमीटर की दूरी पर माधवनंद मंदिर स्थित है। प्राची घाटी में श्री विष्णु के २४ स्वरूपों में से एक, माधव की आराधना अत्यंत लोकप्रिय है। प्राची घाटी वासियों की मान्यताओं में माधव आराधना का अत्यधिक प्रभाव है।
इस मंदिर को दुर्गा माधव भी कहते हैं क्योंकि मंदिर के गर्भगृह में माधव की प्रतिमा के साथ दुर्गा की भी प्रतिमा स्थापित है। दुर्गा एवं माधव की एक साथ आराधना ओडिशा के वैष्णवपंथियों की एक अतरंगी विशेषता है। यह ओडिशा के विभिन्न मान्यताओं के अद्भुत सम्मिश्रण का एक महत्वपूर्ण साक्ष्य है।
इस मंदिर को पुरी के श्री जगन्नाथ का मामूघर अथवा मामा का घर भी कहते हैं। इसलिए माधव मंदिर के कई अनुष्ठान जगन्नाथ मंदिर के अनुष्ठानों से साम्य रखते हैं।
दिवस ३
आगे की पदयात्रा कथाकुहा हनुमान मंदिर तक जाती है। इस मंदिर के विषय में अधिकृत जानकारी उपलब्ध नहीं है। इसे इस क्षेत्र का प्राचीनतम मंदिर माना जाता है। पुरी के जगन्नाथ मंदिर के अनुरूप यह भी एक दक्षिण मुखी मंदिर है। इस मंदिर के प्रत्येक दर्शनार्थी को कथाकुहा अथवा बोलने वाले महावीर से सीधा संवाद साधने का अनुभव प्राप्त होता है। इसीलिए इस मंदिर का नाम कथाकुहा मंदिर पड़ा।
हनुमान मंदिर के पश्चात पदयात्री अंगेश्वर महादेव मंदिर पहुँचते हैं। यह मंदिर अंगेश्वर पाड़ा में स्थित है। प्राची नदी के बाएं तट पर स्थित इस मंदिर में चौकोर योनिपीठ पर काले पत्थर का शिवलिंग स्थापित है। यह प्राची घाटी के अष्ट-शंभू में से एक है। शक्ति, शैव एवं वैष्णव पंथों का अद्भुत सम्मिश्रण, जो प्राची घाटी सभ्यता की विशेषता है, इस मंदिर में स्पष्ट परिलक्षित होता है।
जलपान के पश्चात पदयात्री निभारण गाँव पहुँचते हैं तथा ग्रामेश्वर महादेव के दर्शन करते हैं। ग्रामेश्वर महादेव मंदिर का कुछ काल पूर्व ही नवीनीकरण किया गया है। मंदिर के पुरोहित के अनुसार मूल मंदिर का निर्माण पुरी के जगन्नाथ मंदिर से भी पूर्व किया गया था। यह ओडिशा राज्य पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित मंदिर है। मंदिर के दैनंदिनी क्रियाकलापों का प्रबंधन ग्राम समिति करती है। यह मंदिर प्राची घाटी के द्वादश-शंभू में से एक है।
माँ मंगला मंदिर, काकटपुर
प्राची परिक्रमा कर रहे पदयात्री देउली मठ जाते हुए मार्ग में माँ मंगला के मंदिर जाते हैं। माँ मंगला मंदिर पुरी जिले के काकटपुर नगर में स्थित है। माँ मंगला के दर्शनोपरांत भक्तगण मंदिर के चारों ओर स्थित प्रांगण में देवी माँ की परिक्रमा करते हैं। काली शिला में बनी देवी माँ की सुंदर प्रतिमा को बहुरंगी वस्त्रों एवं आभूषणों से अलंकृत किया गया है। माँ के नेत्र सुंदर एवं प्रभावशाली प्रतीत होते हैं।
ओडिशा के आठ प्रमुख शक्तिपीठों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण शक्तिपीठ काकटपुर मंगला मंदिर है जो प्राची नदी के पूर्वी तट पर स्थित है। सदियों से यहाँ उनकी परम वैष्णवी के रूप में आराधना की जा रही है। इस मंदिर का निर्माण स्थानीय जमींदार पंचानन मित्रा रॉयचूड़ामनी ने सन् १५४८ में करवाया था।
नवकलेवर के अवसर पर पुरी के पुजारीजी काकटपुर मंगला आते हैं तथा देवी माँ से उस स्थान की जानकारी प्रदान करने का अनुरोध करते हैं जहाँ उन्हे वह पवित्र वृक्ष प्राप्त होगा जिसकी शाखाओं से प्राप्त काष्ठ से जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा की प्रतिमाओं की रचना की जाएगी। बनजागा जात्रा या यात्रा के आचार्य, पति महापात्रा तथा ब्राह्मण पुजारी देवी के समक्ष नतमस्तक होकर उनसे दिव्य मार्गदर्शन की याचना करते हैं। देवी उनके स्वप्न में प्रकट होकर उनका मार्गदर्शन करती हैं। वे उन्हे उस स्थान का पता बताती हैं जहाँ वे वृक्ष स्थित हैं। प्रतिमाएं गढ़ने के लिए आवश्यक दारू अथवा लकड़ियाँ सात दिवसों के भीतर ढूँढी जाती हैं।
देउली मठ
दोपहर तक प्राची परिक्रमा की पावन पदयात्रा देउली मठ पहुँचती है। भक्तगण दोपहर की आरती करते हैं, दोपहर का महाप्रसाद ग्रहण करते हैं, संध्या सत्संग करते हैं तथा रात्री का प्रसाद ग्रहण कर विश्राम करते हैं। देउली मठ पुरी जिले के बाजपुर ग्राम में प्राची नदी के दाहिने तट पर स्थित है। भगवान जगन्नाथ के नवकलेवर अनुष्ठान से इस मठ का सीधा संबंध है। पुरी से दारू के शोध में जो आचार्य, पति महापात्रा तथा ब्राह्मण पुजारी आते हैं वे इसी मठ में ठहरते हैं।
माँ मंगला सर्वप्रथम इसी मठ में प्रकट हुई थीं। मठ के भीतर पतितपावन की आराधना की जाती है। पुरी के सेवक देउली मठ पहुँचते ही माँ मंगला मंदिर में इसकी सूचना दी जाती है। इसके पश्चात सभी सेवक हार, महाप्रसाद तथा अन्य पूजा सामग्री लेकर गाजे-बाजे के साथ शोभायात्रा निकलते हुए माँ मंगला के मंदिर पहुँचते हैं। वहाँ वे अनेक अनुष्ठान करते हैं। तत्पश्चात वे देउली मठ वापिस आते हैं। देवों के लिए दारू अथवा पावन लकड़ी की पहचान होते तक वे देउली मठ में ही ठहरते हैं।
देउली मठ का निर्माण १२ वीं. सदी में किया गया था। इसकी पुरातनता पुरी के जगन्नाथ मंदिर के समकक्ष है।
दिवस ४
देउली मठ में प्रातःकालीन पूजा के पश्चात पदयात्री सुदर्शन मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं जो अष्टरंग तहसील के सरिपुर में अप्सरा क्षेत्र में स्थित है। अप्सरा क्षेत्र सुदर्शन मठ में स्थित है।
एक लोककथा के अनुसार किसी काल में हाय बेहेरा नामक एक गड़ेरिया ने मठ के निकट स्थित प्राची नदी में कुछ अप्सराओं को स्नान करते देखा। उसने उनका परिचय पूछा। अप्सराओं ने गड़ेरिये को अपना परिचय दिया। साथ ही यह चेतावनी भी दी कि वो उनके विषय में किसी अन्य से नहीं कहेगा। अन्यथा उन सब की मृत्यु हो जाएगी। किन्तु शनैः शनैः इस घटना की चर्चा सम्पूर्ण गाँव में होने लगी।
प्राची माहात्म्य के अनुसार बैशाख पूर्णिमा के दिवस, जिसे नरसिंह चतुर्दशी भी कहा जाता है, भक्तगण यहाँ आते हैं तथा नदी के पावन जल में अप्सरा बुड़ा अथवा पावन डुबकी लगाते हैं। वे देवी की पूजा-अर्चना भी करते हैं।
भक्तगण चौथे दिवस के अंत में विश्राम के लिए केलूनी मुहाने के चक्रवात आश्रय में आते हैं। यह चक्रवात आश्रय पुरी जिले के अष्टरंग तहसील में केउटाजंगा ग्राम में स्थित है। यहाँ एक जगती पर केलूनी माता का छोटा सा मंदिर है जो रथ के आकार में निर्मित है।
प्रारंभ में स्थानीय मच्छीमार समुदाय जंगली सारू के एक छोटे से उपवन में केलूनी माँ की पूजा-आराधना करते थे। वर्तमान में जो माँ केलूनी का मंदिर है, उसका निर्माण सन् २००५ में किया गया था। यह प्राची घाटी का अंतिम मंदिर है जिसके पश्चात प्राची नदी समुद्र में विलीन हो जाती है।
दिवस ५
केलूनी मुहाने पर प्रातःकालीन प्राची पूजा के उपरांत वापसी की यात्रा का आरंभ किया जाता है। गत कुछ वर्षों में प्राची नदी ने अपना मार्ग परिवर्तित किया है। अब इसने तीन लघु द्वीपों को अपने आँचल में समेट लिया है। इसलिए परिक्रमा के इस भाग में नौकाओं की सहायता लेनी पड़ती है। इसी मुहाने पर दो अन्य नदियाँ भी समुद्र में जा मिलती हैं। इसलिए नौका द्वारा कडुआ नदी को पार कर मुख्य भूमि तक आना पड़ता है।
तंडाघरा में नौका यात्रा समाप्त कर पुनः पदयात्रा आरंभ की जाती है। टेंटुलियागड़ी घरा में जलपान कर परिक्रमावासी आनंद बाजार के जगन्नाथ मंदिर में दर्शन करते हैं। तत्पश्चात वे शंकरेश्वर मंदिर पहुँचते हैं जो पुरी से लगभग ६० किलोमीटर दूर काकटपुर तहसील में कुंधेई हाटा के समीप स्थित है। लगभग २०० वर्षों से भी अधिक पुरातन शंकरेश्वर महादेव मंदिर द्वादश शंभुओं में से एक हैं।
भक्तगण कुंधेई हाटा के राम मंदिर में भी भगवान के दर्शन करते हैं। दोपहर का भोजन एवं कुछ क्षण विश्राम करने के उपरांत लगभग ३ बजे पदयात्रा आगे बढ़ती है। मार्ग में भक्तगण पथिक राम मंदिर में भी दर्शन करते हैं। रामेश्वर प्राची घाट पहुँचकर आरती करते हैं।
पदयात्रा आगे बढ़ती हुई प्राचीगुरु धर्मक्षेत्र मठ पहुँचती है जो काकटपुर तहसील के अंतर्गत नरसिंहपुर ग्राम में प्राची नदी के दाहिने तट पर स्थित है। यह स्थान पुरी एवं खोर्धा जिलों की सीमा पर है। गुरु मधुसूदन दास भगवान विष्णु के महान भक्त थे। माँ मंगला की आज्ञा पर वे सनातन धर्म का उपदेश देने तथा श्री विष्णु की कथा कहने के लिए यहाँ पधारे थे।
मठ परिसर में विभिन्न देवी-देवताओं को समर्पित १६ मंदिर हैं। प्राची घाटी में इस स्थल का बड़ा महत्व है। सम्पूर्ण वर्ष दूर दूर से आए साधु-संन्यासियों एवं अन्य भक्तगणों का ताँता लगा रहता है. साधुओं के धार्मिक बैठकों एवं सम्मेलनों के लिए यह मठ अत्यंत लोकप्रिय है। भारत का यह एकमात्र मठ है जिसके नाम में पावन नदी का नाम भी जुड़ा हुआ है।
दिवस ६
प्राची परिक्रमा के छठे दिवस का आरंभ ३०० वर्ष पुरातन वासुदेव मंदिर में देवदर्शन से होता है। यह मंदिर नुआहाटा में स्थित है। इस मंदिर में वैसे ही अनुष्ठान किये जाते हैं जैसे पुरी के जगन्नाथ मंदिर में किये जाते हैं।
पदयात्रा का आगामी पड़ाव है खिरागाचा मठ जो पुरी जिले के अमरप्रसादगड़ा ग्राम में स्थित है। इसे पाराशर मुनि मठ भी कहते हैं। बताया जाता है कि यह मठ सहस्त्र वर्षों से भी प्राचीन है। भारत के, विशेषतः ओडिशा के कोने कोने से भक्तगण एवं साधु-संन्यासी वर्ष भर इस मठ की यात्रा करते हैं। प्राचीनकाल में इस मठ का प्रयोग धार्मिक सम्मेलनों के लिए किया जाता था।
पदयात्रा करते हुए परिक्रमावासी अमरेश्वर मंदिर पहुँचते हैं। अमरेश्वर चारीछका-काकटपुर मार्ग पर स्थित है। सारला दास द्वारा लिखित सारला महाभारत के अनुसार भगवान अमरेश्वर प्राची घाटी के द्वादश शंभुओं में से एक हैं। यह ओडिशा राज्य पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित मंदिर है।
पदयात्रियों का अगला पड़ाव है, बानारगड़ा का प्राचीन बुद्धिकेश्वर मंदिर। यहाँ परिक्रमावासियों के लिए दोपहर के महाप्रसाद की व्यवस्था की जाती है। इस क्षेत्र के अष्ट शंभुओं में इस मंदिर को पश्चिम शंभू कहा जाता है। इस मंदिर के भूभाग पर राजपरिवार का आधिपत्य है। यहाँ के राजा ने ही इस मंदिर का निर्माण कराया था। वर्तमान मंदिर लगभग १५० वर्ष प्राचीन है किन्तु इतिहास में इस मंदिर को कोणार्क मंदिर का समकक्ष बताया जाता है।
त्रिवेणी संगम
त्रिवेणी घाट पर जहाँ प्राची नदी, कुशभद्रा की एक शाखा नदी मणिकर्णिका तथा अदृश्य सरस्वती नदी का संगम है, वहाँ एक मठ है जिसका नाम है, अन्तर्वेदी मठ। यह मठ कटक जिले के काँटापाड़ा ससना ग्राम में स्थित है। यह नुआगांव छाक से लगभग ७ किलोमीटर दूर राज्य महामार्ग पर स्थित है। यह मठ खोर्धा जिले के भापुर में स्थित बेलेश्वर एवं त्रिवेणीश्वर मंदिरों से पूर्वी दिशा में १०० मीटर से भी कम दूरी पर स्थित है।
मान्यताओं के अनुसार इस मठ की स्थापना द्वापर युग के अंत तथा कलियुग के आरंभ में की गयी थी। यह एक आदि पीठ है। इसके पश्चात श्री जगन्नाथ मंदिर का निर्माण हुआ था। दूर-सुदूर से साधु-संन्यासी यहाँ आ कर ठहरते थे तथा भगवान की आराधना करते थे।
त्रिवेणी घाट के संगम पर पवित्र स्नान किया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में त्रिवेणी बुड़ा कहते हैं। यह स्नान माघ मास की अमावस को किया जाता है। इस दिन सहस्त्रों की संख्या में भक्तगण पावन स्नान के लिए एकत्र होते हैं। इस अवसर पर एक मेले का आयोजन किया जाता है जो एक सप्ताह से भी अधिक दिनों तक चलता रहता है। पवित्र स्नान के पश्चात भक्तगण अन्तर्वेदी मठ में भेंट करते हैं तथा कृष्ण की आराधना करते हैं। समीप स्थित शिव मंदिर बेलेश्वर मंदिर के नाम से जाना जाता है।
यहाँ पर विवाहोत्सव, सगाई, जनेऊ संस्कार, अस्थि विसर्जन तथा पिंड दान जैसे अनेक सामाजिक अनुष्ठान आयोजित किये जाते हैं। मठ जिस भूमि पर स्थित है उस पर स्वामित्व मठ का ही है। मठ एवं उद्यान का रखरखाव मठ के महंत द्वारा किया जाता है। स्थानीय निवासियों का मानना है कि यहाँ से एक गुप्त धारा निकलती है जो प्राची में जाकर मिलती है।
ऐसी मान्यता है कि वैष्णव भक्त, संत व महाकवि जयदेव ने त्रिवेणी अमावस्या के दिवस इस घाट पर पवित्र स्नान किया था। पद्म पुराण एवं वराह पुराण के अनुसार श्री कृष्ण ने अपना अंतिम श्वास इसी स्थान पर लिया था। जब कृष्ण भगवान पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर विश्राम कर रहे थे तब जरा नामक बहेलिये ने हिरण समझ कर उनके चरणों को तीर से घायल कर दिया था जिसके पश्चात कृष्ण ने इस भौतिक विश्व का त्याग कर दिया था। पांडवों ने उनकी देह का दाहसंस्कार करने का प्रयत्न किया किन्तु वे उसमें असफल हुए। इसके पश्चात पांडवों ने उनकी देह को प्राची नदी में विसर्जित कर दिया था।
दिवस ७
सूर्योदय से पूर्व ही प्राची परिक्रमा के सातवें दिवस का आरंभ हो जाता है। दिवस का प्रथम पड़ाव त्रिवेणीश्वर मंदिर में किया जाता है जो भुवनेश्वर से १३ किलोमीटर दूर अंजीरा ग्राम में स्थित है। इसके पश्चात परिक्रमावासी प्राची घाट पर स्थित अन्तर्वेदी मठ जाते हैं जहाँ सूर्योदय होते ही प्राची पूजा तथा आरती की जाती है।
त्रिवेणीश्वर मंदिर की प्राचीनता की जानकारी काल के साथ लुप्त हो गई है। यह अष्ट शंभुओं में तीसरा शंभू है। वर्तमान मंदिर का पुनरुद्धार ग्रामवासियों ने स्वयं किया है। पुराणों के अनुसार जब भगवान राम ने यहाँ विश्राम किया था तब उन्होंने स्वयं इस मंदिर के लिंग की स्थापना की थी। ऐसी मान्यता है कि जब पांडव प्राची नदी घाटी के वनों में निवास कर रहे थे तब उन्होंने भी यहाँ अपना पड़ाव डाला था।
प्राची नदी की परिक्रमा का आरंभ अंधकपिलेश्वर मंदिर से हुआ था जो प्राची नदी का उद्गम स्थल है। उसी प्रकार परिक्रमा का समापन भी अंधकपिलेश्वर मंदिर में ही होता है। पंकोद्धार एकादशी के दिवस परिक्रमा समाप्ति पर पूर्णाहुति अनुष्ठान किया जाता है।
वर्ष भर की आहुतियों को लिंग पर से हटाने के पश्चात पूर्ण स्थान को स्वच्छ किया जाता है। शिवलिंग चमकने लगता है। सर्वप्रथम गुरुजी, संत एवं ग्रामवासी शिवलिंग के दर्शन करते हैं। इस अवसर पर एक महायज्ञ का आयोजन किया जाता है। पूर्णाहुति से पूर्व सभी परिक्रमावासी प्राची नदी के उद्गम स्थल के दर्शन करते हैं, पूजा आरती आदि सम्पन्न करते हैं। वहाँ से वापिस आकार पूर्णाहुति की जाती है। प्रसाद वितरण किया जाता है।
गुरुजी एवं संतों के पावन सानिध्य में रहना, सात दिवस दिव्य आध्यात्मिक वातावरण में पदभ्रमण करना, भगवान का नाम स्मरण करते हुए प्रकृति का आनंद लेना, ये सब एक महान अनुभूतियाँ हैं जो किसी के भी जीवन काल में अविस्मरणीय अनुभव होता है।
प्राची परिक्रमा के लिए कुछ यात्रा सुझाव
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यह एक अतिथि संस्करण है जिसे डॉ. श्रुति महापात्रा ने लिखा है। संस्करण में प्रयुक्त छायाचित्र भी उन्ही के द्वारा प्रदत्त हैं।