चंद्रेश्वर भूतनाथ मंदिर गोवा के प्राचीनतम मंदिरों में से एक है। इस मंदिर ने गोवा की प्राचीन राजधानी को अपना नाम प्रदान किया था, चंद्रपुर, जिसे अब चांदोर कहा जाता है। यह मंदिर गोवा के पारोड़ा नामक स्थान पर स्थित है।
चंद्रेश्वर भूतनाथ की कथा
चंद्रेश्वर का अर्थ है चन्द्रमा का ईश्वर। यह भगवान शिव का ही एक नाम है। यह सर्व विदित है कि भगवान शिव अपने मस्तक पर अर्धचंद्र धारण करते हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार पर सागर मंथन का भित्तिचित्र है जो चन्द्रमा के उद्भव की कथा कहता है। सागर मंथन द्वारा प्राप्त अनेक बहुमूल्य वस्तुओं में चन्द्रमा भी है जो अमृत प्राप्ति से पूर्व प्राप्त हुआ था।
गोवा से चन्द्रमा का एक अन्य सम्बन्ध भी है। ऐसी मान्यता है कि गोमान्तक के पर्वतों पर ही कृष्ण एवं बलराम ने जरासंध से युद्ध किया था। ऐसा माना जाता है कि कृष्ण का शंख भी इसी क्षेत्र से प्राप्त हुआ था। हम सब जानते हैं कि कृष्ण एक चंद्रवंशी हैं।
संयोग से, गोवा के अनेक शासकों का नाम चन्द्र से सम्बंधित है, जैसे चन्द्रगुप्त मौर्य एवं चंद्रादित्य। इस मंदिर का श्रेय भोज सम्राट चंद्रवर्मन को जाता है। इस मंदिर का उल्लेख इस क्षेत्र के ५वीं-६वीं शताब्दी के प्राचीनतम ताम्रपत्रों में मिलता है। इसका अर्थ है कि इस मंदिर का निर्माण ४थी शताब्दी या उससे पूर्व किया गया था।
मुझे ज्ञात हुआ कि स्कन्द पुराण के सह्याद्री खंड में भी इसका उल्लेख है। स्कन्द पुराण के इस खंड का मेरा अध्ययन अभी शेष है।
चंद्रेश्वर भूतनाथ मंदिर
यह मंदिर मडगांव से लगभग २६ किलोमीटर दूर, दक्षिण गोवा के केपें तालुका में स्थित है। मुख्य मार्ग से ही मंदिर का महाद्वार दृष्टिगोचर होता है। यहीं से हमें मंदिर के लिए विमार्ग लेना पड़ता है। महाद्वार को भैरवों, स्कंदों तथा स्वयं भगवान शिव की सुन्दर मूर्तियों से अलंकृत किया गया है। सूर्य अस्त होते ही इस महाद्वार को विद्युत् प्रकाश से जगमगाया किया जाता है जिसके कारण यह दूर से ही दिखाई देने लगता है।
शंख भैरव मंदिर
महाद्वार पार करते ही जिस मंदिर पर आपकी प्रथम दृष्टी पड़ती है, वह है शंख भैरव मंदिर। शंख भैरव का यह मंदिर ठेठ गोवा शैली में निर्मित है। शंख भैरव की लिंग रूप में उपासना की जाती है।
यह मंदिर पूर्णिमा के दिन बंद रहता है। अन्य दिनों में यह केवल प्रातः आरती एवं संध्या आरती के लिए ही खोला जाता है।
यहाँ से पहाड़ी की चोटी तक पहुँचने के लिए सौम्य चढ़ाई आरम्भ हो जाती है।
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सिद्ध भैरव, काल भैरव तथा कमण्डलु तीर्थ
पहाड़ी पर आधी दूरी तक चढ़ने के उपरान्त आप एक बड़ी इमारत के समीप पहुंचेंगे जहां वाहन खड़ी करने के लिए नियत स्थान हैं। यह चंद्रेश्वर भूतनाथ मंदिर संकुल का एक भाग है। भक्तगण यहाँ विश्राम तथा जलपान आदि कर सकते हैं। दो प्राचीन लघु मंदिर हैं जिनके समीप आप एक प्राचीन तीर्थ अथवा जलकुंड देखेंगे। दोनों भैरव मंदिर हैं जिनमें एक काल भैरव मंदिर है तथा दूसरा सिद्ध भैरव। जलकुंड को कमण्डलु तीर्थ कहा जाता है। इस तीर्थ के जल से चन्द्रनाथ का अभिषेक किया जाता है।
कमण्डलु तीर्थ के अतिरिक्त मंदिर के दो अन्य तीर्थ भी हैं जिनके नाम हैं, कपिल तीर्थ तथा गणेश तीर्थ। पुरोहित जी ने मुझे बताया कि दोनों तीर्थ घने वन के भीतर स्थित हैं तथा उन तक पहुंचना सुगम्य नहीं है।
मुख्य मंदिर तक पहुँचने के लिए बनी सीढ़ियों का आरम्भ इसी स्थान से होता है। सीढ़ियाँ अत्यंत सुगम हैं। इसके दोनों ओर सहारे एवं सुरक्षा के लिए बाड़ भी हैं। इसके अतिरिक्त पक्की सड़क भी है जहां से आप वाहन द्वारा अगले बिंदु तक पहुँच सकते हैं। यहां भी एक भैरव मंदिर है। यहाँ बंदरों से सावधान रहें तथा खाने-पीने की वस्तुओं को सुरक्षित रखें।
सीढ़ियों के आरम्भ में कुछ प्राचीन शैल शिल्प हैं। यद्यपि मैं उनमें से अधिकतर शिल्पों की पहचान करने में असमर्थ थी तथापि वे एक प्राचीन मंदिर की ओर संकेत करते हैं।
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भैरव मंदिर एवं चाय की दुकान
सीढ़ियाँ चढ़ते हुए लगभग आधी दूरी पार करते ही आप पुनः एक लघु भैरव मंदिर देखेंगे जिसमें लिंग के रूप में एक शिला स्थापित है। यह एक खुला मंदिर है जिसमें लिंग के ऊपर केवल एक मंडप है। लिंग के ऊपर अर्पित किये ताजे पुष्प, प्रज्ज्वलित दीप एवं धूपबत्ती से निकलती सुगंध यह दर्शा रही थी कि यहाँ नियमित रूप से पूजा अर्चना की जाती है।
मंदिर के समक्ष एक पम्प हाउस है।
मंदिर के समीप एक चाय की दुकान है जो थकावट दूर करने के लिए एक लोकप्रिय स्थान है। महामारी के चलते भक्तों की घटती संख्या के कारण यह दुकान बंद थी।
इस बिंदु पर भी आपके समक्ष विकल्प है कि आप वाहन से ही अगले पड़ाव तक जाएँ अथवा सीढ़ियाँ चढ़ें।
मुख्य मंदिर
आप एक उच्चतम बिंदु तक ही वाहन ले जा सकते हैं। यहाँ से आपको भी लगभग १०० सीढ़ियाँ चढ़नी ही पड़ेंगी। यूँ तो सीढ़ियाँ अत्यंत सुगम हैं, आपको इसकी पूर्व जानकारी हो तो आप मानसिक रूप से सज्ज रहेंगे।
सीढ़ियाँ समाप्त होते ही आप चटक पीले रंग के तोरण से युक्त द्वार पर पहुंचेंगे। इस तोरण द्वार के आधार को देखना ना भूलें। यह एक प्राचीन शैल द्वार का आधार है। भीतर प्रवेश करते ही दाहिनी ओर आप ठेठ गोवा शैली का एक मंदिर देखेंगे।
बाईं ओर दो विशाल टिन शेड हैं। मुझे बताया गया कि मंदिर के रथों को यहाँ रखा जाता है। यह मंदिर अश्वों एवं हाथियों की प्रतिकृतियों से युक्त रथों के लिए लोकप्रिय है जिनमें एक अश्व चाँदी का है। मंदिर के एक ओर एक प्राचीन बरगद का वृक्ष है जिसके समीप एक दीपस्तंभ है। मंदिर के निकट कुछ शैल प्रतिमाएं थीं जो नवीन प्रतीत हो रही थीं। कदाचित ये प्रतिमाएं किसी नवीन प्रकल्प के लिए सज्ज हो रही थीं। समीप ही एक यज्ञशाला है जिसके द्वार उस समय बंद थे जब हम वहां दर्शन के लिए पहुंचे थे।
मंदिर के प्रवेश द्वार के ऊपर सागर मंथन का विशाल शिल्प इस मंदिर का सर्वोत्तम वैशिष्ट्य है। सागर मंथन से निकली प्रत्येक वस्तु को यहाँ चित्रित किया गया है। मंदिर के भीतर प्रवेश करते ही आप एक विशाल सभा मंडप में पहुंचेंगे जहाँ से आगे आप मंदिर के मुख्य मंडप में जा सकते हैं।
चंद्रेश्वर मंदिर
चंद्रेश्वर मंदिर एक अत्यंत आकर्षक मंदिर है। मंडप के चारों ओर लकड़ी पर विभिन्न रंगों में नक्काशी की गयी है। मुख्य मंदिर के भीतर स्थापित स्वयंभू शिवलिंग पर एक आवरण चढ़ाया हुआ है। शिवलिंग के पीछे चंद्रेश्वर की प्रतिमा है। मुख्य मंदिर के चारों ओर नवदुर्गा, गणपति, विष्णु तथा महालक्ष्मी की शैल प्रतिमाएं हैं।
ऐसी मान्यता है कि पूर्णिमा की रात्रि में चन्द्रमा का प्रकाश शिवलिंग पर पड़ता है। मुझे यह भी बताया गया कि लेटराइट के लिंग से जल रिसता है। इस अद्भुत दृश्य के दर्शन करने के लिए मैंने पूर्णिमा की संध्या पर ही मंदिर के दर्शन का नियोजन किया था। किन्तु पुरोजित जी ने मुझे जानकारी दी कि जब से इस मूल लघु मंदिर के ऊपर मंडप स्थापित किया गया है तथा इसके समक्ष सभा मंडप का निर्माण किया गया है, तब से इस अद्भुत दृश्य के दर्शन दुर्लभ हो गए हैं। केवल चैत्र पूर्णिमा की रात्रि को यह दृश्य दिखाई पड़ता है।
मैं सोच में पड़ गयी कि कैसे बिना सोचे समझे किये गए विस्तार से हम हमारी प्राचीन अभियांत्रिकी अचंभों को यूँ ही खो रहे हैं।
भीतर स्थित मूल लघु मंदिर शिलाओं द्वारा निर्मित है। इसके चारों ओर की गयी संरचनाओं के कारण अब इस मूल शैल मंदिर का द्वार चौखट ही दृश्य है।
मंडप के भीतर चाँदी की एक सुन्दर पालकी है जिसे प्रत्येक सोमवार को बाहर निकाला जाता है। मंडप की भित्तियों पर रामायण, विष्णु के अवतारों एवं देवी के महिषासुरमर्दिनी जैसे अवतारों से सम्बंधित दृश्यों के शिल्प हैं। भूमि को श्वेत-श्याम रंगों के चौकोर खण्डों से सज्जित किया गया है जो ऊपर स्थित शिल्पों की रंगबिरंगी छटा के विरुद्ध एक सुन्दर विरोधाभास उत्पन्न करते हैं। षटकोणीय बेलनाकार शिखर के शीर्ष पर एक स्वर्ण कलश स्थापित है। शीर्ष पर एक केसरिया ध्वज भी फहराया गया है। शिखर पर भगवान शिव के मानवी मुख सहित शिवलिंग एवं भूतनाथ के शिल्प उत्कीर्णित हैं।
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भूतनाथ मंदिर
भूतनाथ मंदिर चंद्रेश्वर मंदिर के समीप स्थित एक भिन्न कक्ष के भीतर है। यह मंदिर मूल मंदिर के समीप स्थित है जहां एक त्रिकोणीय शिला को भूतनाथ के रूप में पूजा जाता है। इसके चारों ओर लकड़ी का कटघरा है जिस पर सुन्दर आकृतियाँ उत्कीर्णित की गयी हैं। भूतनाथ भगवान शिव के एक गण हैं। भूतनाथ के समीप एक हुक्का रखा हुआ था। शिला के दोनों ओर सुन्दर नंदादीप प्रज्ज्वलित कर लटकाए हुए थे। शिला के पृष्ठभाग में शिव का त्रिशूल खड़ा था।
प्राचीन काल में भगवान शिव एवं भूतनाथ के मूल मंदिर इस प्रकार निर्मित थे कि वे दोनों एक दूसरे को देख पाते थे।
तुलसी वृन्दावन एवं प्राचीन शैल प्रतिमाएं
मंदिर की परिक्रमा के समय आप इसके पृष्ठ भाग में स्थित एक बड़ा तुलसी वृन्दावन देखेंगे। इसके समीप आप एक प्राचीन शिवलिंग एवं प्राचीन शैल मंदिर के कुछ अवशेष देखेंगे। हनुमान की एक प्राचीन शैल प्रतिमा तुलसी वृन्दावन की भित्ति पर गढ़ी हुई है।
परिसर के कोने में, एक वृक्ष के नीचे नंदी की एक भंगित प्राचीन मूर्ति थी जिसके दो भाग हो चुके थे।
इस मंदिर में शिवरात्रि, नवरात्रि, श्रावण सोमवार तथा दशहरा जैसे उत्सव धूमधाम से मनाये जाते हैं।
चैत्र शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा, इन पांच दिवसों तक रथ उत्सव मनाया जाता है। प्रत्येक दिवस एक नवीन रथ शोभायात्रा के लिए बाहर निकाला जाता है। अंतिम दिवस महारथ की शोभायात्रा निकाली जाती है।
चन्द्रनाथ पर्वत की चोटी से अप्रतिम परिदृश्यों के अद्भुत दृश्य
देवदर्शन एवं मंदिर की आतंरिक सुन्दरता का मन भर के आनंद लेने के पश्चात हम मंदिर से बाहर आये तथा मंदिर के चारों ओर परिक्रमा करने लगे। हमें आभास हुआ कि हम गोवा की सर्वाधिक ऊँचाई पर विचरण कर रहे थे। यहाँ से चारों ओर के परिदृश्यों का अप्रतिम दृश्य दिखाई देता है। गोवा को प्रकृति ने खुले हाथों से जो संपदा प्रदान की है, उसका हमने शांति से मनपूर्वक आनंद उठाया। चन्द्रनाथ पर्वत चारों ओर हरियाली से ओतप्रोत तराई से घिरा हुआ है जिसके उस पार हरी-भरी घाटियों की पंक्तियाँ हैं। उन्हें निहारते आप घंटों बिता सकते हैं। ऊंचाई पर होने के कारण यहाँ सदा वायु बहती रहती है।
चन्द्रनाथ पर्वत अत्यंत विशाल है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में भक्तगण इसकी परिक्रमा करते रहे होंगे। तराई एवं घाटियों पर सघन वन हैं। मुझे बताया गया कि इन वनों में अनेक प्रकार के औषधीय पौधे एवं वृक्ष हैं। गाँव के वरिष्ठ निवासियों को इन औषधीय सम्पदाओं की जानकारी है तथा वे इसका उपयोग भी करते हैं। आशा है नयी पीढी इस धरोहर को सहेज कर रखने में सक्षम एवं सफल हो सके तथा अधिक से अधिक लोगों की इसकी जानकारी मुहैय्या कराये। वनों में वनीय पशु-पक्षी भी अवश्य होंगे किन्तु हमें इधर-उधर कूदते-फांदते वानर ही दृष्टिगोचर हुए।
मुझे जानकारी मिली कि चन्द्रनाथ पर्वत पर रोहण करने के लिए एक प्राचीन मार्ग भी है जहां वाहन नहीं जा सकते। वहां पैदल ही चढ़ना पड़ता है। अच्छे स्वास्थ्य के लोगों अथवा रोहण में प्रशिक्षित यात्रियों के लिए ही वह सुगम्य है।
पर्वत के समीप से कुशावती नदी बहती है।
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चंद्रेश्वर भूतनाथ मंदिर का भ्रमण – एक विडियो
चंद्रेश्वर भूतनाथ मंदिर में हमारे भ्रमण का विडियो मैंने IndiTales YouTube channel पर प्रेषित किया है। इसे देखकर आप को इस स्थान के विषय में पूर्व जानकारी प्राप्त होगी जिससे आपको अपनी यात्रा नियोजित करने में आसानी होगी।
चामुंडेश्वरी शांतादुर्गा मंदिर
जुडवाँ देवियाँ, चामुंडेश्वरी एवं शांतादुर्गा को समर्पित यह मंदिर चंद्रेश्वर भूतनाथ मंदिर के महाद्वार से लगभग २ किलोमीटर दूर स्थित है। कुशावती नदी के ऊपर स्थित पुल को पार कर हम घुडोआवडे गाँव पहुंचे जहां यह मंदिर स्थित है।
हम बिना पूर्वनियोजन किये अनायास ही इस मंदिर तक पहुँच गए थे। उस समय यहाँ जत्रा अर्थात् मंदिर का वार्षिक उत्सव चल रहा था। यह अपेक्षाकृत एक विशाल मंदिर है जिसके भीतर दोनों देवियाँ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हैं। दोनों मूर्तियाँ अत्यंत सुन्दर हैं जिनके ऊपर से दृष्टी हटाये नहीं हटती हैं।
उसी परिसर में मैंने एक अनोखा मंदिर देखा जिसका नाम था, श्री उद्दंगी प्रसन्न। यहाँ दीमकों का एक बड़ा टीला था जिसके समक्ष एक बड़ी नागा मूर्ति स्थापित थी। मुझे यह जानकारी थी कि शांतादुर्गा अथवा सातेरी का मूल स्थान दीमक का टीला होता है किन्तु यह प्रथम मंदिर है जहां मैंने वास्तव में दीमक के टीले को देवी के रूप में पूजे जाते देखा है।
इस मंदिर का सम्बन्ध चंद्रेश्वर भूतनाथ मंदिर से है क्योंकि वार्षिक उत्सवों के समय दोनों मंदिरों के देव एवं देवियाँ एक दूसरे से भेंट करते हैं।
सातेरी मंदिर
महाद्वार के निकट एक नवीन सातेरी मंदिर निर्माणाधीन है। बंद होने के कारण हमने बाहर से मंदिर के दर्शन किये एवं वापिस घर के लिए निकल पड़े।
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चंद्रेश्वर भूतनाथ मंदिर के दर्शन के लिए कुछ यात्रा सुझाव
- चन्द्रनाथ पर्वत एवं मंदिर के अवलोकन के लिए कम से कम २ घंटों का समय लग सकता है। यदि आप सीढ़ियों से जाना चाहते हैं तो कुछ समक अधिक लगेगा।
- यदि आप मंदिर के देव की शोभायात्रा अर्थात् पालकी के दर्शन करना चाहते हैं तो सोमवार के दिन यहाँ आईये। अन्यथा चैत्र मास में पधारें जो लगभग मार्च/अप्रैल के महीने में पड़ता है।
- सार्वजनिक परिवहन सेवा केवल पर्वत की तलहटी पर स्थित मुख्य मार्ग तक पहुँचाती है। पर्वत शिखर तक पहुँचाने के लिए यह सेवा उपलब्ध नहीं है। मंदिर तक आप पैदल चढ़ सकते हैं अथवा निजी वाहन द्वारा पहुँच सकते हैं।
- खाद्य एवं पेय पदार्थों की सुविधाएँ न्यूनतम हैं। इसका ध्यान रखकर अपनी यात्रा नियोजित करें।