सप्तमातृका, अर्थात् सात माताएं! आपने अनेक मंदिरों में सप्तमातृकाओं के दर्शन किए होंगे। किन्तु केवल सप्तमातृकाओं को समर्पित मंदिर क्वचित ही देखे होंगे। अधिकतर वे मंदिरों का एक भाग होती हैं। सात माताओं को अधिकांशतः एक साथ, एक ही पटल पर उत्कीर्णित देखा गया है। यदा-कदा गणेश एवं कार्तिकेय भी उनके साथ विराजमान होते हैं। सन् २०११ में, राष्ट्रीय संग्रहालय द्वारा संचालित पाठ्यक्रम ‘भारतीय कला’ के अंतर्गत, मैंने सप्तमातृकाओं के विषय में प्रारम्भिक अध्ययन किया था। तभी से मेरी यह प्रबल इच्छा थी कि मैं इस विषय में एक संस्करण प्रकाशित करूं। अतः मैंने उनके विषय में विस्तृत अध्ययन आरंभ किया।
अनेक पुस्तकों में सप्तमातृकाओं के विषय में अध्ययन करने के उपरांत भी, उनके विषय में लिखने के लिए स्वयं को परिपक्व अनुभव नहीं कर पा रही थी। तब मैंने देवी माहात्मय/दुर्गा सप्तशती पढ़ा जिसमें उनके प्रकट होने की सम्पूर्ण कथा का उल्लेख किया गया है। दुर्गा की सम्पूर्ण कथा में सप्तमातृकाओं के प्रकट होने की प्रासंगिकता को समझा। तदुपरांत ऐसा प्रतीत हुआ कि अब इस विषय में लिखने का समय आ गया है। किन्तु तब भी मैं इस ओर आगे नहीं बढ़ सकी। इस वर्ष के आरंभ में मैंने ओडिशा की यात्रा की थी। वहाँ मैंने सप्तमातृकाओं को समर्पित विशाल व प्राचीन मंदिरों के दर्शन किए। उन मंदिरों में सप्तमातृकाओं के साथ समय व्यतीत किया। अब ऐसा प्रतीत होता है कि अंततः उन्होंने मुझे उनके विषय में लिखने के लिए आशीष व आज्ञा दोनों दे दी है।
सप्तमातृकाएँ कौन हैं?
सप्त अर्थात् सात तथा मातृका का अर्थ है माता। अतः सप्तमातृका का अर्थ है सात माताएं। वे विभिन्न देवताओं की शक्तियाँ हैं जो आवश्यकतानुसार उनके भीतर से उदित होती हैं। बहुधा ऐसे असुरों के संहार हेतु आती हैं जिन्हे नियंत्रित करने में अन्य सभी असफल हो गए हैं।
लोक परंपराओं में सप्तमातृकाओं को शुभकारी एवं अशुभकारी, दोनों रूपों में दर्शाया गया है। उनकी वंदना करने पर वे बहुधा शुभकारी रूप में प्रकट होती हैं। शुभकारी रूप में वे दयालु व कृपालु होती हैं तथा भ्रूण व नवजात शिशुओं की रक्षा करती हैं। पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार, वे भक्तों की प्रार्थना अवश्य सुनती हैं। लोक परंपराओं के अनुसार, अशुभकारी रूप में वे रोगों के रूप में प्रकट होती हैं।
मातृकाओं को देवी माँ भी कहा जाता है, जो भारत एवं विश्व के अनेक भागों में वंदना का प्राचीनतम रूप है।
सामान्यतः इन्हे सप्तमातृकाएँ कहा जाता है, किन्तु यदा-कदा ये आठ अथवा अधिक भी होती हैं।
ये चौंसठ योगिनियों का भाग हैं जो देवी के चारों ओर होती हैं।
तंत्र विद्या में इन्हे देवनागरी लिपि के ५१ अक्षर/वर्ण माना जाता है।
सप्तमातृकाओं की लोककथाएं
देवी महात्मय, मार्कन्डेय पुराण का भाग है। मार्कन्डेय पुराण के ८वें अध्याय में, शुंभ-निशुंभ असुरों से हुए युद्ध के समय, देवी एवं रक्तबीज नामक असुर सेनापति के मध्य हुए युद्ध का उल्लेख है। रक्तबीज को यह वरदान प्राप्त था कि उसके रक्त की प्रत्येक बूंद धरती का स्पर्श पाकर उसी के समान शक्तिशाली असुर को जन्म देगी। देवी से युद्ध के समय, जैसे जैसे रक्तबीज का रक्त धरती पर गिर रहा था, वहाँ लाखों रक्तबीज उत्पन्न हो रहे थे। देवी की सहायता करने के लिए ब्रह्म, विष्णु, शिव, कार्तिकेय एवं इन्द्र ने अपनी अपनी स्त्री शक्तियों को अपने अपने रूप, वाहनों एवं आयुधों सहित वहाँ भेजा। इन स्त्री शक्तियों ने रक्तबीज एवं अन्य असुरों का वध करने में देवी की सहायता की। तत्पश्चात वे अपने मूल रूपों से एकाकार हो गयीं।
महाभारत एवं अन्य कुछ पुराणों में अंधकासुर नामक एक असुर के वध की कथा है जो रक्तबीज की कथा के समान है। उसे भी रक्तबीज के समान वरदान प्राप्त था। इस कथा में भगवान शिव अंधकासुर से युद्ध कर रहे थे। अंधकासुर के रक्त की बूंदें धरती का स्पर्श पाते ही अनेक अंधकासुरों को जन्म दे रही थी। तब भगवान शिव ने अपने मुख की अग्नि से योगेश्वरी को उत्पन्न किया तथा उन्हे अंधकासुर के रक्त को धरती पर गिरने से पूर्व ग्रहण करने के लिए कहा। यहाँ भी योगेश्वरी की सहायता करने के लिए सप्तमातृकाएँ प्रकट हुई थीं। कुछ प्रतिमाओं में योगेश्वरी को भी सात माताओं के साथ दर्शाया गया है। कदाचित वे प्रतिमाएं इसी प्रसंग की ओर संकेत करती हैं।
सुप्रभेदगम में यह उल्लेख है कि ब्रह्म ने नृत्ती को पराजय करने के लिए मातृकाओं का सृजन किया था।
सप्तमातृकाओं का अखिल भारतीय अस्तित्व
सप्तमातृकाओं की पाषण पट्टिका आप सम्पूर्ण भारत के विभिन्न मंदिरों में देख सकते हैं। प्राचीनतम महत्वपूर्ण तात्विक साक्ष्य हमें सिंधु सरस्वती सभ्यता तक पीछे ले जाते हैं। उस काल की एक मुद्रा में सात मातृकाओं को एक वृक्ष के साथ दर्शाया गया है।
यदि शैल शिल्पों की चर्चा की जाए तो कुषाण काल का एक प्राचीनतम शिल्प मथुरा संग्रहालय में देखा जा सकता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के जितने भी संग्रहालयों का मैंने अब तक अवलोकन किया है, लगभग उन सभी संग्रहालयों में मैंने सप्तमातृकाओं को समर्पित पट्टिकाएं देखी हैं। शैलीगत रूप से देखा जाए तो वे उस क्षेत्र व काल की ओर संकेत करती हैं जिस क्षेत्र व काल में उन्हे उत्कीर्णित किया गया था। दृष्टांत के लिए, मध्यकालीन युग की पट्टिकाओं में प्रत्येक मातृका की विस्तृत एवं व्यक्तिगत प्रतिमा शैली को सूक्ष्मता से उत्कीर्णित किया है। सप्तमातृकाओं से संबंधित प्रतिमा विज्ञान का सार-संग्रह आप ओडिशा के सप्तमातृका मंदिरों में अनुभव कर सकते हैं।
आधुनिक काल में हम सप्तमातृकाओं की अनेक रचनात्मक अभिव्यक्तियाँ देख सकते हैं।
सप्तमातृका
सात मातृकाएँ सात देवों की शक्तियों से उत्पन्न हुई हैं। उनके वाहन व आयुध भी वही हैं जो उनके स्त्रोत के हैं। इनमें से दो मातृकाएँ शिव के परिवार से उत्पन्न हुई हैं, तीन विष्णु के विभिन्न अवतारों से उत्पन्न हुई हैं तथा ब्रह्मा एवं इन्द्र से एक एक मातृका उत्पन्न हुई है। उनके पुरुष-समकक्षों के सभी लक्षण एवं गुण-विशेष उनमें सन्निहित होते हैं।
सामान्यतः सप्तमातृकाओं की पट्टिका में, गणेश, कार्तिक, वीरभद्र, वीणाधर, सरस्वती अथवा योगेश्वरी में से एक या दो सहभागी उनके एक अथवा दोनों ओर अवश्य होते हैं।
आईए इन सप्तमातृकाओं के विषय में अधिक जानने का प्रयास करें।
ब्राह्मी
पीतवस्त्र धारिणी ब्राह्मी ब्रह्मा की पीतवर्ण शक्ति हैं। वे हंस पर आरूढ़ रहती हैं जो ब्रह्माजी का भी वाहन है। यदाकदा उन्हे तीनमुखी रूप में भी दर्शाया गया है। यदि उनके पृष्ठभाग में एक अतिरिक्त मुख की कल्पना की जाए तो वे चार मुखी ब्रम्हा का प्रतिनिधित्व करती हैं। वे अपने दो हाथों में अक्षमाला एवं जल का कलश धारण करती हैं। जहां उनके चार हाथ दर्शाये जाते हैं वहाँ उनके अन्य दो हाथ अभय एवं वरद मुद्रा में होते हैं।
माहेश्वरी
माहेश्वरी शिव की शक्ति हैं। उजला वर्ण व देदीप्यमान रूप लिए वे ऋषभ की सवारी करती हैं। शीश पर जटा मुकुट, कलाइयों में सर्प रूपी कंगन, माथे पर चंद्र तथा हाथों में त्रिशूल लिए वे भगवान शिव का प्रतिनिधित्व करती हैं।
कौमारी
कौमारी कार्तिकेय की शक्ति हैं। कार्तिकेय को कुमार के नाम से भी जाना जाता है। कौमारी कार्तिकेय के वाहन, मयूर पर आरूढ़ होती हैं। कुछ शैलियों में उन्हे एकमुखी तो कुछ शैलियों में उन्हे छः मुखों वाली प्रदर्शित किया गया है। उसी प्रकार, कहीं उन्हे द्विभुज तो कहीं चतुर्भुज दर्शाया गया है। वे लाल पुष्पों का हार धारण करती हैं।
ऐन्द्री अथवा इंद्राणी
ऐन्द्री इन्द्र की शक्ति हैं। इन्द्र के समान ही उनका वाहन गज है। उनके हाथ में सदा उनका आयुध वज्र रहता है। कभी कभी उनके दूसरे हाथ में अंकुश भी दिखाया जाता है। उनके चतुर्भुज रूप में उनके अन्य दो हाथ अभय एवं वरद मुद्रा में रहते हैं। उन्हे लाल व सुनहरे वस्त्र धारण करना भाता है। उन्हे उत्कृष्ट आभूषण धारण करना भी अत्यंत प्रिय हैं। इन्द्र के ही समान उनकी देह पर भी सहस्त्र नेत्र हैं जिनके द्वारा वे चहुंओर दृष्टि रख सकती हैं।
वैष्णवी
विष्णु की शक्ति वैष्णवी श्यामवर्ण हैं जिन्हे कृष्ण के ही समान पीतवस्त्र धारण करना अत्यंत प्रिय है। वैष्णवी के दो ऊर्ध्व करों में चक्र एवं गदा हैं तथा अन्य दो हस्त अभय एवं वरद मुद्रा में होते हैं। यदाकदा उनके हाथों में शंख, शारंग तथा एक तलवार भी होते हैं। उनके व्यक्तित्व का विशेष लक्षण है उनकी वनमाला जो उनकी सम्पूर्ण देह पर प्रेम से लटकती रहती है। उनके संग उनकी पीठिका पर उनका वाहन गरुड़ भी विराजमान रहता है। कभी कभी उन्हे गरुड़ पर आरूढ़ भी दर्शाया जाता है।
वाराही
यज्ञ वराह की शक्ति, वाराही का स्वरूप भी वराह का है। उन्हे सामान्यतः मानवी देह पर वराह शीश के रूप में दर्शाया जाता है। उनका यह विशेष लक्षण उन्हे अन्य सप्तमातृकाओं में से सर्वाधिक अभिज्ञेय बनाता है। वाराही भी श्यामवर्ण हैं। वे अपने शीश पर करण्डमुकुट धारण करती हैं। ओडिशा में उन्हे समर्पित अनेक मंदिर हैं।
नारसिंही
नारसिंही विष्णु के नरसिंह अवतार की शक्ति हैं जिनकी आधी देह मानवी एवं आधी सिंह की है। उनके इस विशेष स्वरूप के कारण उन्हे सप्तमातृकाओं की पट्टिका में पहचानने में कठिनाई नहीं होती।
चामुंडा
कभी कभी सप्तमातृकाओं की पट्टिका में नारसिंही के स्थान पर चामुंडा को दर्शाया जाता है जो यम की शक्ति हैं। उनका स्वरूप अन्य सप्तमातृकाओं से भिन्न है। कंकाल सदृश देह पर लटकते वक्ष, धँसे नेत्र, धंसा उदर, ग्रीवा पर नरमुंड की माला तथा हाथों में नरमुंड का पात्र इत्यादि उनके स्वरूप की विशेषताएं हैं। बाघचर्म धारण किए उनका यह रूप अत्यंत रौद्र एवं उद्दंड प्रतीत होता है।
सप्तमातृका पट्टिका
जैसा कि मैंने पूर्व में उल्लेख किया है, ७ अथवा ८ सप्तमातृकाओं को सदैव एक साथ एक शैल-पट्टिका पर उत्कीर्णित किया गया है। उन सभी को सामान्यतः एक ही मुद्रा में बैठे दर्शाया गया है, जिसे ललितासन कहते हैं। ललितासन मुद्रा में एक चरण धरती पर तथा दूसरा चरण दूसरी जंघा पर रखा जाता है। अनेक पट्टिकाओं में उन्हे खड़ी मुद्रा में तथा यदाकदा नृत्य मुद्रा में भी उत्कीर्णित किया गया है।
अनेक पट्टिकाओं में प्रत्येक मातृका के संग एक शिशु भी दर्शाया गया है जो उनके माँ होने की ओर विशेष संकेत करता है।
ओडिशा के कुछ मंदिरों में मैंने सप्तमातृकाओं की काले रंग की विशाल शैल प्रतिमाएं देखी थीं। वे प्रतिमाएं अत्यंत विशाल थीं। उनकी विशाल व मर्मज्ञ नेत्र उनकी उपस्थिति को अत्यंत प्रभावी बना रहे थे। उन्हे देख श्रद्धा एवं भय दोनों भाव एक साथ उत्पन्न हो रहे थे। किन्तु अधिकतर प्रतिमाएं अपने मूल मंदिरों में नहीं थीं। अतः उनका मूल स्थान कहाँ था, कैसा था तथा मूलतः उनकी आराधना किस प्रकार की जाती थी, इस सब का उत्तर पाना आसान नहीं है।
यदि आप सप्तमातृकाओं के विषय में अधिक जानना चाहते हैं अथवा खोज करना चाहते हैं तो श्री श्रीनिवास राव द्वारा प्रकाशित यह संस्करण अवश्य पढ़ें।
सप्तमातृकाओं के मंदिर
सप्तमातृकाओं को समर्पित शैलपट्टिकाएं आप लगभग सभी प्राचीन मंदिरों में देख सकते हैं। इन पट्टिकाओं का आकार विशाल नहीं होता है। अतः इन्हे खोजने के लिए शिल्पों का ध्यानपूर्वक अवलोकन करना आवश्यक है। केवल ओडिशा में ही मैंने उन्हे समर्पित पृथक मंदिर देखे हैं। उन मंदिरों में सप्तमातृकाओं का आकार भी अतिविशाल होता है।
उनमें से कुछ मंदिर हैं-
- ओडिशा में वैतरणी नदी के तट पर स्थित जाजपुर का मंदिर
- पुरी में मार्कण्डेश्वर सरोवर के निकट स्थित मंदिर
प्रदीप चक्रवर्ती ने मुझे जानकारी दी कि सप्तमातृका मंदिर चेन्नई के प्राचीनतम जीवंत क्षेत्रों में से एक है।
Anuradhaji , Namskar!
Bade harsh ki baat hai ki aap un subjects par likh rahu hai jo abhi tak achchoote hai..ya fir log in par dhyan nahi de rahe hai…
Mai apni yatra k liye kuchh content dekh raha tha to aapka page mila…
धन्यवाद शशि जी आपके प्रोत्साहन के लिए. जुड़े रहिये और यह कथाएं सबसे साँझा करते रहिये…