ऐतिहासिक स्थलों से मेरा सदैव ही विशेष लगाव रहा है। ऐसे स्थल वैचारिक मंथन हेतु बाध्य कर देते हैं। हमारी सभ्यता की प्राचीनता, समय के साथ आगे बढ़ती हमारी प्रगति व आधुनिकता साथ ही भविष्य में और प्रगति करने की आवश्यकताओं के जाल में मष्तिष्क गुंथने लगता है। इसी कड़ी के अंतर्गत मैंने एलिफेंटा गुफाएं या घारापुरी गुफाओं में शिव प्रतिमाओं के दर्शन किये थे। यात्रा के उपरांत उन पर संस्मरण लिखना मेरे लिए कदाचित सर्वाधिक कठिन कार्य था। यह इस कारण नहीं कि किसी ऐतिहासिक स्थल पर लिखा गया यह मेरा प्रथम संस्मरण था अपितु इसका प्रमुख कारण था कि आरम्भ से अंत तक यह यात्रा अभूतपूर्व अनुभवों से समृद्ध था। इन अनुभवों को लेखनी में उतारना सरल कार्य नहीं था।
घारापुरी अर्थात् एलिफेंटा गुफाएं – मेरी यात्रा का आरम्भ हुआ नौकायात्रा से जो मैंने मुंबई के प्रसिद्द ताज होटल के सम्मुख स्थित गेटवे ऑफ़ इंडिया से की थी। गेटवे ऑफ़ इंडिया वो भव्य स्मारक है जो मुंबई की अभिन्न पहचान है एवं अपनी समृद्ध धरोहर के लिए जाना जाता है। गेटवे ऑफ़ इंडिया से लगभग १२ की.मी. दूर अरबसागर में स्थित हैं एलिफेंटा गुफाएं। यहाँ तक की नौका यात्रा में मेरा साथ दिया मेरे पिताजी ने एवं कई सामुद्रिक चिड़ियों ने जिन्होंने गंतव्य पहुँचने तक हमारा भरपूर मनोरंजन किया था। द्वीप पहुंचकर, छोटी पटरी की रेल यात्रा के उपरांत हमें कुछ कदम पैदल चलाना पड़ा। और ये लो! हम यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल एलिफेंटा गुफाएं अर्थात् घारापुरी गुफाओं तक पहुंच गये।
यहाँ कुल सात कलात्मक गुफाएं हैं। जहां पहाड़ियों को काटकर, दक्षिण भारतीय मूर्तिकला से प्रेरित, भगवान् शिव की कई मूर्तियाँ उत्कीर्णित हैं। इसका ऐतिहासिक नाम घारापुरी, अर्थात् ‘गुफाओं का नगर’, इसके मूल नाम अग्रहारपुरी से व्युत्पन्न है। भगवान् शिव के विभिन्न अवतार शिव की विभिन्न कथाओं एवं घटनाओं का उल्लेख करतें हैं।
एलिफेंटा गुफाएं
एलिफेंटा गुफाएं अथवा घारापुरी गुफाओं के उत्खनन काल के सन्दर्भ में विवाद है। कुछ पुरातत्ववेत्ता इसे चौथी एवं कुछ छठी ईसवी में उत्खनित मानते हैं। तथापि एक तथ्य पर सर्व सम्मति है कि यह एक प्रेरणादायी अलौकिक उत्खनन है।हालांकि मैं कोई इतिहासकार नहीं हूँ, पर जब मैंने भी इन मंदिरों के प्रथम दर्शन किये, उन भव्य प्रतिमाओं, स्तंभों एवं मंदिरों को देख स्तब्ध रह गयी। इनकी अलौकिकता का अनुमान लगाने हेतु मेरे इतिहासकार होने की कदापि आवश्यकता नहीं!
एलिफेंटा की सात गुफाएं एक ही पहाड़ी काटकर बनायी गयी है। यहाँ हिन्दू धर्म के अनेक देवी देवताओं की मूर्तियाँ हैं जिनमें भगवान् शंकर की नौ बड़ी बड़ी मूर्तियाँ हैं जो शंकरजी के विभिन्न रूपों तथा क्रियाकलापों को दिखाती हैं। पहाड़ियों को काटकर उत्कीर्णित शिल्पकारी को देख रचनाकार की तकनीति उत्कृष्टता एवं हाथों की कला को नमन करने की अभिलाषा होती है। किसी काल में यह हिन्दुओं का सक्रिय आराधना स्थल था जहां निरंतर पूजा अर्चना एवं चढ़ावा किया जाता था। किन्तु वर्तमान में यह महज एक पर्यटन स्थल बन कर रह गया है। मात्र महाशिवरात्री के समय सरकार ने यहाँ पूजा अर्चना करने की अनुमति प्रदान की है।
एलिफेंटा गुफाएं और उनके विनाश की कथा
एलिफेंटा गुफाओं के विनाश के सन्दर्भ में कई मत हैं। कुछ इसका कारण जल का जमाव एवं वर्षा को मानते हैं। कुछ लोग पुर्तगालियों को इस विनाश का कारण मानते हैं जो अपने शासनकाल में हिन्दू संस्कृति को नष्ट करने का प्रयत्न कर रहे थे। उनके अनुसार पुर्तगाली सैनिक यहाँ निशानेबाजी का अभ्यास करते थे। उन्होंने त्रिमूर्ति को छोड़ अन्य सब प्रतिमाओं को भंगित किया। इन प्रतिमाओं से सम्बंधित सर्व अभिलेखों को नष्ट कर दिया था। त्रिमूर्ति इस विनाशलीला का शिकार नहीं हुई। लोगों का मानना है कि गंभीर मुखड़े की यह त्रिमूर्ति प्रतिमा प्रेक्षकों के मन को शांति प्रदान करती है। कदाचित इसकी विशालता एवं भव्यता के सम्मुख वे भयभीत हो गए थे। तथापि इन सब अनुमानों का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
वर्तमान में हम केवल प्रसन्न हो सकते हैं कि इस धरोहर को और अधिक हानि नहीं हुई है। हालांकि मन में यह कसक उठती है कि यदि यह विध्वंस नहीं हुआ होता तो इन प्रतिमाओं की सुन्दरता की पराकाष्ठा के दर्शनों का सौभाग्य हमें भी प्राप्त होता।
आइये अब मैं आपको यहाँ की प्रतिमाओं का उल्लेख करते हुए इनसे आपका परिचय कराऊं-
एलिफेंटा गुफाएं – नटराज के रूप में शिव
मैंने जैसे ही गुफा में प्रवेश किया, मेरी दृष्टी इस प्रतिमा पर पड़ी। मेरे पग अनायास ही इसकी ओर बढ़ गए। यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि यह भगवान् शिव के सर्वप्रसिद्ध रूप नटराज की प्रतिकृति है। संस्कृत में इसका अर्थ है ‘नटो के राजा’ अथवा ‘नर्तकों के देव’। भरतनाट्यम का अभ्यास प्राप्त करने के कारण मुझे भगवान् शिव के इस रूप का कला प्रदर्शन के क्षेत्र में महत्त्व की समझ है। नृत्य अभ्यास प्राप्त करने के पूर्व से ही मैंने शिव के इस रूप की आराधना की है।
भगवान् शिव द्वारा किये जाने वाले इस तांडव नृत्य को दो वर्गों में बांटा गया है। आनंद तांडव जिसमें आनंद प्राप्ति हेतु नृत्य किया जाता है। दूसरा है रूद्र तांडव जो अत्यंत उग्र एवं विनाशकारी नृत्य है। कहा जाता है कि शिव द्वारा किये गए आनंद तांडव से सृष्टि अस्तित्व में आती है तथा रूद्र तांडव सृष्टि का विनाश कर सकता है।
इस प्रतिमा पर पुर्तगाली विनाशलीला के संकेत स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। इस मूर्ति का निचला भाग पूर्णतः भंगित है। चार हाथों में केवल एक ही हाथ सम्पूर्ण है। शिव के नृत्य का दर्शन करते देवी देवताओं की प्रतिमाओं पर भी बर्बरता के संकेत उपस्थित हैं। इन प्रतिमाओं में ब्रम्हा की प्रतिमा को आप उनके तीन शीषों से अवश्य पहचान लेंगे।
चार भुजाधारी नटराज की भुजाओं का महत्त्व-
• डमरूधारी ऊपरी दायाँ हाथ लय व ताल का प्रतीक है।
• अग्निधारी ऊपरी बायाँ हाथ प्रतीक है सृजन एवं विनाश का।
• नागदेवता से लिपटा निचला दायाँ हाथ अभय हस्त कहलाता है। बुराईयों से हमारी रक्षा करता है। नागदेवता निर्भयता का प्रतीक है।
• निचला बायाँ हाथ उनके उठे हुए पाँव की ओर संकेत करता है कि उनके चरणों में ही मोक्ष है। पाँव के नीचे स्थित बौना राक्षस अज्ञानता का प्रतीक है। अर्थात् शिव अज्ञानता का विनाश करते हैं।
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शिव द्वारा अंधकासुर वध
भगवान् शिव को यहाँ भैरव रूप में दर्शाया गया है। भैरव अर्थात् भयावह, इस अवतार में शिव को चन्द्र व नागदेवता शीष पर एवं एक हार गले में धारण कर क्रोध से भरे आक्रामक मुद्रा में आगे कूच करते दिखाया गया है। इस प्रतिमा के साथ भी विकृत तत्वों ने बर्बरता की है। इसके दो हस्त एवं निचले धड़ के अस्तित्व को समाप्त कर दिया गया है। तथापि शेष प्रतिमा अब भी शिव की आक्रामक मनोभावों को दर्शाने में सक्षम है। क्रोध में चढ़ी हुई भृकुटियाँ, अंगारों सी जलती आँखें एवं नुकीले दन्त, इनके द्वारा उनका आक्रोश हम तक पहुँचाने में माध्यम बने कलाकारों एवं कारीगरों की कला अत्यंत प्रशंसनीय है।
भगवान् शिव ने दायें हस्त में तलवार धारण की हुई है। बाएं हस्त में मृतक अन्धक राक्षस की देह लिए हुए है। अन्धक की प्रतिमा किंचित भंगित है। नागदेवता लिपटे, शिव के दूसरे बाएं हस्त में एक पात्र है जिसमें वे अन्धक का रक्त एकत्र करते दर्शाए गए हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, देवी पार्वती पर कुदृष्टि रखते हुए उनका हरण करने का प्रयत्न करने के कारण भगवान् शिव ने उसका वध किया था।
कैलाश पर्वत पर विराजमान शिव पार्वती
इस प्रतिमा में भगवान् शिव एवं देवी पार्वती को कैलाश पर्वत पर बैठे चौपड़ खेलते दर्शाया गया है। शीष पर मुकुट व कंधे पर जनेऊ धारण किये भगवान् शिव ने घुटनों तक वस्त्र धारण किये हुए हैं। सुन्दर वस्त्र एवं आभूषण धारण किये देवी पार्वती के केश कंधे पर लटके हुए हैं। शिव द्वारा चौपड़ के खेल में पराजित किये जाने के उपरांत रुष्ट हो कर उन्होंने मुँह फेर लिया है। उनके अनुसार खेल में शिव ने उन्हें छल से पराजित किया था।
दोनों की प्रतिमाओं के मध्य, शिशु को हाथों में उठाये एक स्त्री की प्रतिमा है। ऐसा मानना है कि यह शिशु शिव-पार्वती पुत्र कार्तिकेय है। भगवान् शिव के चरणों में उनके परम भक्त ऋषि भृंगी का कंकाल है। केवल शिव भक्त होने के कारण, रुष्ट देवी पार्वती द्वारा श्राप प्राप्त कर वह मांसपेशियां व रक्त विहीन हो गया था। यह सम्पूर्ण शिल्प भी अत्यंत भंगित अवस्था में है। इसके मूल स्वरूप का अनुमान एलोरा की गुफा में स्थित ऐसी ही प्रतिमा से लगाया जाता है।
एक अन्य पटल पर शिव पार्वती के विवाह का दृश्य उत्कीर्णित है। भंगित अवस्था में होने के पश्चात भी देवी पार्वती के मुख पर लज्जा एवं संकोच स्पष्ट देखा जा सकता है।
कैलाश पर्वत उठाये रावण
इस प्रतिमा में कैलाश पर्वत पर विराजमान शिव पार्वती अन्य देवी देवताओं से घिरे हुए हैं। उनके चरणों के समीप संत भृंगी का अस्थिकंकाल है एवं दाहिने कोने में पुत्र गणेश का प्रतिरूप है। किन्तु निचले भाग में स्थित, कैलाश पर्वत उठाने का प्रयत्न करते रावण की प्रतिमा भंगित है।
मान्यता के अनुसार, किसी काल में रावण की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने उसे वर माँगने का अवसर प्रदान किया था। जैसा की दृश्य में दर्शाया गया है, भगवान् शिव ने अन्य देवी देवताओं के द्वारा निषेध के पश्चात भी रावण को शक्तिशाली होने का वरदान दिया। अपनी नवीन शक्ति का परिक्षण करने हेतु रावण ने कैलाश पर्वत उठाने की चेष्टा की। इस प्रतिमा में गरुड़ पर विराजमान भगवान् विष्णु, भगवान् शिव का सम्पूर्ण कुटुंब एवं कई अन्य देवी देवता इस दृश्य का अवलोकन करते दर्शाए गए हैं।
रावण का गर्व चूर करने हेतु भगवान् शिव ने मात्र एक अंगूठे से पर्वत को दबा कर स्थिर कर दिया था। तब पर्वत के नीचे दबे रावण की श्वास बंद होने लगी। उसे ज्ञात हुआ कि उसकी शक्ति शिव के मात्र अंगूठे के समक्ष भी क्षीण है। अपने मंत्रियों के परामर्श पर रावण ने हजार वर्षों तक शिव की स्तुति की। भगवान् शिव ने वरदान स्वरुप उसे एक तलवार दी एवं दबकर चिल्लाने के कारण रावण नामकरण भी किया।
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योगीश्वर शिव
इस दृश्य में भगवान् शिव को हिमालय में पद्मासन मुद्रा में विराजमान दर्शाया गया है। पत्नी सती की मृत्यु के पश्चात उनके वियोग में आँखें बंद कर अगाध ध्यान मुद्रा में बैठे हैं। ऊपर दिव्य आत्माओं एवं नीचे सेवकों से घिरे शिव का आसन, कमल पुष्प, को नागों ने पीठ पर धारण किया है।
जैसे की मान्यता है, पिता राजा दक्ष द्वारा पति भगवान् शिव का अपमान किये जाने पर देवी सती ने यज्ञकुंड की अग्नि में अपने प्राण त्याग दिए थे। पिता के कृत्य से रुष्ट होकर सती ने आदिशक्ति का आव्हान किया था। देह को भस्म कर ऐसे पिता की पुत्री के रूप में जन्म की प्रार्थना की थी जिसका वे सम्मान कर सकें। कालान्तर में देवी पार्वती के रूप में उनका पुनर्जनम हुआ तथा उन्होंने भगवान् शिव से पुनर्विवाह किया।
यज्ञकुंड में सती द्वारा स्वयं की आहूति देने के पश्चात, भगवान् शिव के क्रोध की सीमा नहीं रही। अत्यंत आक्रोश से भरे, देवी सती की झुलसी देह हाथों में उठाये, शिव ने रूद्र तांडव नृत्य आरम्भ किया। रूद्र तांडव द्वारा होते सृष्टि के विनाश को रोकने हेतु भगवान् विष्णु को हस्तक्षेप करना पड़ा। उन्होंने अपने चक्र द्वारा देवी सती की देह के ५२ टुकड़े कर दिए थे। जहां जहां ये टुकड़े गिरे, वहां वहां शक्तिपीठ की स्थापना हुई।
एलिफेंटा गुफा की इस प्रतिमा में शिव के हाथों एवं पाँवों को अत्यंत क्षति पहुंचाई गयी है।
इस दृश्य के अन्य भाग हैं, हंस पर विराजमान ब्रम्हा, वाहन ऐरावत विहीन इंद्र, केले के पत्ते पर गरुड़ की सवारी करते विष्णु, भंगित शीषों वाले सात घोड़ों के रथ की सवारी करते सूर्य देव। इनके अलावा माला जपते एक ऋषि, घुटनों तक वस्त्र धारण किये दो स्त्रियाँ, हाथों में जल का पात्र उठाये चन्द्र, जिनका चेहरा भंगित है, इत्यादि भी दृश्यमान हैं। दो स्त्रियों के बाजू में तीन एकरूप पुरुष एवं शिव को शांत करने आये एक ऋषि का अस्थिकंकाल भी देखा जा सकता है।
गंगाधर रूप में शिव
इस फलक में पवित्र गंगा नदी का शिव की जटाओं से पृथ्वी पर आगमन का दृश्य उत्कीर्णित है। यूँ तो इस तरह की प्रतिमाएं भारतवर्ष में कई स्थानों में आप देख सकते हैं, तथापि इस प्रतिमा की विशेषता यह है कि यहाँ गंगा, यमुना एवं सरस्वती नदियों को तीन शीषों वाली एक स्त्री के रूप में उत्कीर्णित किया गया है। किंचित भंगित होने के पश्चात भी इसकी सुन्दरता आपका मन मोह लेगी।
अर्धनारीश्वर
शिव के इस रूप की प्रतिमा सर्वाधिक सुन्दर एवं यथोचित मानी जाती है। अर्धनारीश्वर अर्थात आधी स्त्री एवं आधा पुरुष। शिव के इस रूप में स्त्री एवं पुरुष को एक सामान माना गया है। दोनों को एक दूसरे का पूरक माना जाता है।
एलिफेंटा गुफा की इस शिल्पकला में अर्धनारीश्वर प्रतिमा का निचला आधा भाग पूर्ण रूप से भंगित है। शेष प्रतिमा में भगवान् शिव अपने दाहिने ओर खड़े नंदी पर हाथ रखे हुए हैं इसका बांया भाग कमनीय पार्वती देवी का है। अपने अपने भागों में शिव और पार्वती की प्रतिमाओं में बारीकी से शिल्पकारी की गयी है। पुरानों की कथाओं द्वारा मुझे यह ज्ञात हुआ कि ब्रम्हा एवं विष्णु अपने अर्धांगिनियों से ज्ञान नहीं बाँटते थे। यद्यपि शिव पार्वती देवी को समान मानते थे एवं उन्हें समान अधिकार प्राप्त थे। यह प्रतिमा इसी तथ्य का प्रतीक है।
शिव के इस रूप से सम्बंधित एक ओर कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि ऋषि भृंगी केवल शिव परिक्रमा करना चाहते थे। इससे रुष्ट देवी पार्वती शिव के अत्यंत निकट आकर बैठ गयी। ऋषि भृंगी भंवरे का रूप धरकर दोनों के मध्य से निकल आये एवं शिव परिक्रमा करने लगे। तब देवी पार्वती ने भगवान् शिव से दोनों के तन को जोड़ने की प्रार्थना की थी। तत्पश्चात शिव ने अर्धनारीश्वर रूप की रचना की थी।
त्रिमूर्ति
भगवान् शंकर की नौ बड़ी बड़ी भव्य प्रतिमाओं में सर्वाधिक आकर्षक प्रतिमा है भगवान् शिव की त्रिमूर्ति प्रतिमा। लगभग २४ फीट लंबी एवं १७ फीट ऊंची इस प्रतिमा में भगवान् शंकर के तीन रूपों का चित्रण किया गया है। यह गुप्त-चालुक्य काल में प्रचलित शिल्पकला की सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं अतिउत्कृष्ट कृति है। इसकी विशालता हमें हमारे अस्तित्व की तुच्छता का आभास कराती है। इस प्रतिमा में भगवान् शिव के मुख के भाव मेरे मन मष्तिष्क में शान्ति एवं निस्तब्धता का वातावरण पैदा कर रहे थे। एलिफेंटा गुफा की यह एकमात्र शिल्प है जिसे किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुंचाई गयी है।
त्रिमूर्ति में शिव के विभिन्न आयाम
हिन्दू धर्म की मान्यता अनुसार ब्रम्हांड के छः सिद्धांतों के अंतर्गत शिव के छः आयामों में से तीन आयाम इस त्रिमूर्ति में दर्शाए गए हैं। ये हैं:-
• बांया शीष (दर्शकों का दांया) भगवान् शिव का नारी सुलभ रूप है। हाथ में कमल पुष्प, मुख पर हलकी सी मुस्कान, यह शिव का प्रत्येक जीव के प्रति स्नेह एवं करुणा का भाव दर्शाता है। यह ब्रम्हा का प्रतिनिधित्व करता है।
• दांया शीष (दर्शकों का बांया) शिव का रूद्र रूप है। मुख पर मूंछें, हाथ में सर्प, यह शिव का आक्रोश दर्शाता है। ऐसी मान्यता है कि क्रोध से भरे शिव अपनी तीसरी आँख द्वारा विश्व को भस्म कर सकते हैं।
• मध्य शीष में उनका शांत ध्यानमग्न मुख असीम शांति प्रदान करता है। इस मुद्रा में शिव प्रबुद्ध योगी प्रतीत होते हैं जो ब्रम्हांड की उन्नति हेतु विचारमग्न हैं। इस योगेश्वर रूप को विष्णु स्वरुप तत्पुरुष भी कहा जाता है।
और पढ़ें:- ताला में रूद्र शिव
ऐसा माना जाता है कि शिव के छः आयामों में अन्य तीन आयाम त्रिमूर्ति के पार्श्व भाग में हैं। वे हैं:-
• ईशान – आतंरिक आयाम, प्रत्येक विद्यमान से सम्बंधित, जो आकाश का प्रतिनिधित्व करता है।
• अघोर- दक्षिणी आयाम, पुनर्जीवन की अभिव्यक्ति करता, रूद्र से सम्बंधित, अग्नि का प्रनिधित्व करता है।
• तिरुवधनम- षष्ठमुखी कार्तिकेय जिसका सृजन भगवान् शिव ने किया एवं उसे उपरोक्त सर्व आयाम प्रदान किये।
शिव के विभिन्न रूपों से अत्यंत प्रभावित होकर मंत्रमुग्ध सी मैं गुफा से बाहर निकली।
यदि आप उस हाथी के सम्बन्ध में जानना चाहते हैं जिसके कारण इस गुफा का नामकरण किया गया तो आप पढ़ें:- भाऊ दाजी लाड संग्रहालय स्थित एलिफेंटा का हाथी
यह रुचिका पारेख द्वारा लिखित अतिथि संस्मरण है। रुचिका अपने सम्बन्ध में लिखती हैं कि उनका जन्म सपनों की नगरी मुम्बई में हुआ था। हर प्रकार की ललित कला में उनकी अत्यंत रूचि है, चाहे वह प्रदर्शन कला हो या हस्तकला। ललितकला में स्नातक की उपाधि प्राप्त करते समय छायाचित्रिकरण उनका चुनिन्दा विषय था। अतः वे छायाचित्रिकरण के साथ साथ ग्राफिक डिजाईन में रूचि रखते हुए इन्ही विषयों पर कार्य करती आई हैं। छायाचित्रों द्वारा कहानी कहना उनकी वैशिष्ठ्यता है।
अनुराधाजी, अप्रतिम आलेख ! इस विश्व धरोहर का इतनी बारीकी एवम् सुंदरता से परिपूर्ण शब्द-चित्रण पढते हुए इसे प्रत्यक्ष देखने का आभास हुआ. यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि बाहरी शासकों ने हमारी अधिकांश प्राचीन धरोहरों का विनाश किया.
भगवान शिव की भव्य “त्रिमूर्ति” प्रतिमा एवम् अन्य सभी प्रतिमायें वास्तव में प्राचीन शिल्पकला का उत्कृष्ट नमूना है. उन अनाम् शिल्पकारों को नमन्.
सुंदर अनुवादित, पठनीय आलेख की प्रस्तुति हेतू धन्यवाद.
प्रदीप जी – आपके प्रोत्साहन के लिए अनेकानेक धन्यवाद.मुझे ऐसा लगता है की हम अपनी धरोहर को संभल नहीं पाए. ऐसा क्यूँ हुआ की बाहर से मुठ्ठी भर लोग आये और इतना विध्वंस कर गए. प्रयास है जी बचा है उसे ही आने वाली पीढ़ियों को दिखा सकें. अगर यह पढ़ कर चार लोग भी यहाँ जाते हैं तो मुझे लगेगा हम सफल हुए.