जागेश्वर धाम – कुमाऊं घाटी में बसे शिवालय

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जागेश्वर मंदिर परिसर
जागेश्वर मंदिर परिसर

उत्तरांचल के जंगलों से भरपूर पहाड़ी पर जागेश्वर अथवा नागेश के रूप में शिवालय है जागेश्वर धाम। मैंने इससे पूर्व उत्तरांचल के कुमाऊं क्षेत्र में पत्थरों से निर्मित मंदिरों की तस्वीरें देखीं थीं। उनके प्रत्यक्ष दर्शन करने की तीव्र अभिलाषा हमेशा से थी। परन्तु इसके दर्शन के पूर्व मुझे यह कल्पना नहीं थी कि यह सम्पूर्ण मंदिरों की नगरी है और इस तरह शिव मंदिरों को समर्पित है। ऊंचे चीड़ के वृक्षों के बीच से जाते हुए हम अल्मोड़ा से ३५ की.मी. दूर जागेश्वर पहुंचे। हम जैसे जैसे जागेश्वर नगर के समीप पहुँच रहे थे, देवदार के वृक्ष चीड़ के वृक्षों का स्थान ले रहे थे और घाटी का रंग गहरा हरा हो रहा था।

जागेश्वर से कुछ किलोमीटर पूर्व हमें यहाँ के पत्थरों के मंदिरों की झलक प्राप्त होने लगी थी। पहाड़ व रास्ते के बीच बहती एक छोटी नदी के उस पार, पहाड़ों की तरफ, मंदिरों का एक छोटा समूह खड़ा था। करीब एक किलोमीटर की दूरी और तय करते ही हम एक घाटी में पहुंचे जहां ऊंचे और गहरे हरे रंग के देवदार वृक्षों के घने जंगल थे और हमने स्वयं को ऊँचे घने पेड़ों से घिरे पाया। रास्ते के एक तरफ कुमाऊं मंडल विकास निगम का यात्री निवास था व दूसरी तरफ जागेश्वर मंदिर समूह। और मध्य में एक खूबसूरत चौखट युक्त द्वार की छोटी इमारत थी। यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का स्थानीय संग्रहालय था। एक खजाना जिसकी खोज मैं जल्द ही करने वाली थी।

जागेश्वर मंदिर समूह, नदी किनारे ऊंचे मोटे देवदार वृक्षों के बीच एक छोटे घोंसले की तरह लग रहा था।

जागेश्वर मंदिर परिसर की ओर मुख रखे कुछ घर पहाड़ी पर बिखरे हुए थे। हर घर के द्वार व खिड़कियों की चौखट पर बारीक नक्काशियां कीं हुईं थीं। मंदिर के सम्मुख स्थित गली में एक छोटा बाज़ार था। इनके अलावा वहां और कुछ नहीं था। एक संकरी घाटी में ही आपको सम्पूर्ण नगर के दर्शन हो जाते हैं- कुछ १३० मंदिर, एक गाँव, उसका बाज़ार , एक नदी और एक सुन्दर सा जंगल। सब एक चित्र की चौखट में समाये से नजर आते हैं। इन्हें देख हम सोच में पड़ जाते हैं कि यहाँ रहने का अनुभव कैसा होगा! उन यात्रियों की तरह जो घर से दूर कुछ समय यहाँ मंदिरों के बीच आ कर रहतें हैं या उन रखवालों की तरह जो इन प्राचीन मंदिरों की देखभाल करतें है क्योंकि यहाँ जीवन इन मंदिरों के आसपास ही केन्द्रित है। मन ही मन उस नज़ारे की कल्पना करने लगी जो बर्फ की एक परत में ढंकने के पश्चात यहाँ दिखाई पड़ती होगी। मेरा मन उच्छंद कल्पनाओ की दुनिया में खोने लगा था।

खैर! वास्तविकता में लौटते हुए, आईये में आपको उत्तर भारत की प्राचीनतम जीवित मंदिरों के प्रत्यक्ष दर्शन कराती हूँ।

जागेश्वर धाम

मुख्य मंदिर परिसर एक ऊंची, पत्थर की दीवार से चारों ओर से घिरा हुआ है। यह जागेश्वर धाम कहलाता है। इसकी सीमा के भीतर १२४ छोटे बड़े मंदिर स्थित हैं। दूर से ही मंदिरों के शिखर दिखाई पड़ रहे थे। वे मुझे अपनी ओर कुछ इस तरह आकर्षित कर रहे थे, कि जितना समय मैंने जागेश्वर में बिताया, मेरी नज़रें इन मंदिरों से नहीं हट रहीं थी।

जागेश्वर के शिव मंदिर

जागेश्वर मंदिरों के शिखर
जागेश्वर मंदिरों के शिखर

जैसा कि मैंने पहले बताया, जागेश्वर धाम मंदिर परिसर में १२४ मंदिर हैं जो भगवान् शिव को उनके लिंग रूप में समर्पित हैं। हालांकि प्रत्येक मन्दिर के भिन्न भिन्न नाम हैं। कुछ शिव के विभिन्न रूपों पर आधारित और कुछ समर्पित हैं नवग्रह जैसे ब्रह्मांडीय पिंडों पर। एक मंदिर शक्ति को समर्पित है जिसके भीतर देवी की सुन्दर मूर्ति है। एक मंदिर दक्षिणमुखी हनुमान तो एक मंदिर नवदुर्गा को भी समर्पित है।

अधिकतर मंदिरों के भीतर शिवलिंग स्थापित हैं। मंदिरों के नामों पर आधारित शिलाखंड पट्टिकाएं मंदिरों के प्रवेशद्वारों पर लगाए गए है। जैसे कुबेर मंदिर के ऊपर कुबेर पट्टिका, लाकुलिश मंदिर के ऊपर लाकुलिश पट्टिका। इसी तरह तान्डेश्वर मन्दिर के प्रवेशद्वार के ऊपर लगी पट्टिका पर नृत्य करते शिव का शिल्प है।

जागेश्वर मंदिर परिसर के अधिकाँश मंदिर उत्तर भारतीय नागर शैली में निर्मित हैं जिस में मंदिर संरचना में उसके ऊंचे शिखर को प्रधानता दी जाती है। इसके अलावा बड़े मंदिरों में शिखर के ऊपर लकड़ी की छत भी अलग से लगाई जाती है। यह यहाँ की विशेषता दिखाई पड़ती है। स्थानीय भाषा में इसे बिजौरा कहा जाता है। यह मंदिरों पर नेपाली अथवा तिब्बती प्रभाव प्रतीत होता है। कुछ मंदिर दक्षिण भारतीय शैली में भी बनें हैं। हम सोचने पर मजबूर हो जातें हैं कि परिवहन साधन की क्रांति से पूर्व देश के एक छोर से दूसरे छोर तक कला का मिश्रण किस तरह संभव हुआ होगा!

कहा जाता है कि जागेश्वर मंदिर कैलाश मानसरोवर यात्रा के प्राचीन मार्ग पर पड़ता है। जागेश्वर का जिक्र चीनी यात्री हुआन त्सांग ने भी अपनी यात्रा संस्मरण में किया है।

अधिकाँश मंदिरों का निर्माण कत्युरी राजवंश के शासकों ने करवाया था, जिन्होंने यहाँ ७ वीं.ई. से १४ वीं.ई. तक राज किया। तत्पश्चात इन मदिरों की देखभाल की चन्द्रवंशी शासकों ने जिन्होंने १५वी. से १८वी. शताब्दी तक यहाँ शासन किया। मंदिर के शिलालेखों में मल्ला राजाओं का भी उल्लेख है।

जागेश्वर धाम के उत्सव

जागेश्वर के शिव मंदिर - शिलालेख
जागेश्वर के शिव मंदिर – शिलालेख

जागेश्वर मंदिर में भगवान् शिव से सम्बंधित दो मुख्य उत्सव मनाये जातें हैं। निःसंदेह एक है शिवरात्रि और दूसरा है श्रावण मास जो जुलाई से अगस्त के बीच पड़ता है।

मुझे बताया गया कि इन दोनों उत्सवों में यहाँ भक्तगणों की भीड़ उमड़ती है।

जगेश्वरी मंदिर के इतिहास व दंतकथाएं

मंदिर की एक पुस्तिका में मैंने पढ़ा कि स्कन्द पुराण के मानस खण्ड में जागेश्वर ज्योतिर्लिंग की व्याख्या की गयी है। इस पुस्तिका के अनुसार ८वां. ज्योतिर्लिंग, नागेश, दरुक वन में स्थित है। यह नाम देवदार वृक्ष पर आधारित है जो इस मंदिर के चारों ओर फैले हुए हैं। इस मंदिर के आसपास से एक छोटी नदी बहती है – जटा गंगा अर्थात् शिव की जटाओं से निकलती गंगा।

जागेश्वर के अन्य पर्यायी नाम हैं जोगेश्वर, हटकेश्वर और नागेश्वर।

दंतकथाएं कहतीं हैं अपने श्वसुर दक्ष प्रजापति का वध करने के पश्चात, भगवान् शिव ने अपने शरीर पर पत्नी सती के भस्म से अलंकरण किया व यहाँ ध्यान हेतु समाधिस्थ हुए। कहानियों के अनुसार यहाँ निवास करने वाले ऋषियों की पत्नियां शिव के रूप पर मोहित हो गयीं थीं। इससे ऋषिगण बेहद क्रोधित हो गए थे और भगवान् शिव को लिंग विच्छेद का श्राप दिया था। इस कारण धरती पर अन्धकार छा गया था। इस समस्या के समाधान हेतु ऋषियों ने शिव सदृश लिंग की स्थापना की व उसकी आराधना की। उस समय से लिंग पूजन की परंपरा आरम्भ हुई। यह भी कहा जाता है कि भूल ना होते हुए भी श्राप देने के जुर्म में शिव ने उन सात ऋषियों को आकाश में स्थानांतरित होने का दण्ड दिया।

एक दंतकथा के अनुसार, भगवान् राम के पुत्र लव और कुश ने यहाँ यज्ञ आयोजित किया था जिसके लिए उन्होंने देवताओं को आमंत्रित किया था। कहा जाता है कि उन्होंने ही सर्वप्रथम इन मंदिरों की स्थापना की थी।

जागेश्वर धाम के मुख्य मंदिर

जागेश्वर मंदिर – ८वां. ज्योतिर्लिंग अथवा नागेश ज्योतिर्लिंग

नंदी एवं स्कंदी - नागेश ज्योतिर्लिंग के द्वारपाल
नंदी एवं स्कंदी – नागेश ज्योतिर्लिंग के द्वारपाल

भारत में भगवान् शिव के पवित्र १२ ज्योतिर्लिंग हैं। आदि शंकराचार्य द्वारा रचित यह संस्कृत श्लोक गद्य में उन १२ ज्योतिर्लिंगों की व्याख्या करता है-

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम् । उज्जयिन्यां महाकालमोकांरममलेश्वरम् ।
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशंकरम् । सेतुबंधे तु रामेशं नागेशं दारूकावने ।
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्रयंम्बकं गौतमीतटे । हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये ।
ऐतानि ज्योतिर्लिंगानि सायं प्रातः पठेन्नरः ।सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति ।

हिन्दू धर्म को मानने वाले अपने जीवनकाल में इन ज्योतिर्लिंगों के दर्शन की अभिलाषा रखतें हैं। भौगोलिक दृष्टीकोण से देखा जाय तो इन १२ ज्योतिर्लिंगों के दर्शन आपको भारत के चारों कोनों के भ्रमण करा देते हैं। यह १२ ज्योतिर्लिंग देश के विभिन्न क्षेत्रों व विभिन्न परिदृश्यों में स्थित हैं।

ज्योतिर्लिंग

गणेश एवं पार्वती की मूर्तियाँ
गणेश एवं पार्वती की मूर्तियाँ

जागेश्वर स्थित ज्योतिर्लिंग नागेश अर्थात् नागों के राजा के रूप में हैं। निश्चित रूप से शिवलिंग यहाँ नाग से अलंकृत है।

जागेश्वर मंदिर इस परिसर के एक छोर पर पश्चिम मुखी रूप में स्थित है। प्रवेशद्वार के दोनों तरफ द्वारपाल की आदमकद मूर्ति स्थापित है। इन्हें नंदी व स्कंदी कहा जाता है। मंदिर के भीतर, एक मंडप से होते हुए आप गर्भगृह पहुंचते हैं। मार्ग में गणेश, पार्वती जैसे शिव परिवार के सदस्यों की कई मूर्तियाँ स्थापित हैं। प्रत्येक मूर्ति के ऊपर दैनन्दिनी पूजार्चना के संकेत दिखाई पड़ते हैं। भूमि पर एक बड़ा शिवलिंग देखा जा सकता है। मंदिर के पुजारी से आप असली शिवलिंग के दर्शन कराने का अनुरोध कर सकतें हैं। असली शिवलिंग दो पत्थरों की जोड़ी है, एक शिव व दूसरा शक्ति का रूप।

कहा जाता है कि यहाँ का शिवलिंग स्वयंभू अर्थात् धरती के गर्भ से स्वयं प्रकट हुआ है। इस शिवलिंग के नीचे शायद पानी का कोई जीवित स्त्रोत मौजूद है क्योंकि यहाँ से पानी के बुलबुले निकलते दिखाई पड़ते हैं।

जागेश्वर मंदिर की आरती

सूर्यास्त के समय आप यहाँ होती आरती में भाग ले सकतें हैं। ४५ मिनट की इस आरती के दौरान यह पाषाणी मंदिर संगीत व श्लोकोच्चारण से जीवंत हो उठता है। भीड़ ना होने के कारण आप शिवलिंग के चारों ओर बैठ, पुजारी द्वारा किया गया शिवलिंग का स्नानाभिषेक व अलंकरण का आनंद ले सकते हैं। आप स्वयं यहाँ आरती भी कर सकते हैं। यह सब के लिए उपलब्ध दैनन्दिनी आरती है। इसके अलावा आप रुद्राभिषेक की तरह विशेष पूजा अर्चना भी करा सकते हैं। शिवलिंग के पृष्ट भाग पर दो चन्द्रवंशीय शासकों, दीपचंद व त्रिपालचंद, की धातु में बनी प्रतिकृति लगी हुई है। दीपचंद हाथों में दीप धारण किये हुए हैं। इस दिये की लौ कभी ना बुझने वाली शाश्वत लौ है। निरंतर जलते रहने हेतु प्रतिदिन १.२५ किलोग्राम देसी घी का इस्तेमाल होता है जो भक्तगण चढ़ावे के रूप में मंदिर को अर्पित करतें हैं। भारत के शिवमंदिरों की यह प्राचीन परंपरा प्रतीत होती है। मुझे स्मरण है कि मैंने तमिलनाडु के शिवमंदिरों में भी पाली जाने वाली इस प्रकार की परंपरा के विषय में अध्ययन किया था।

महामृत्युंजय महादेव मंदिर

महामृत्युंजय महादेव मंदिर - जागेश्वर
महामृत्युंजय महादेव मंदिर – जागेश्वर

जागेश्वर मंदिर परिसर का सबसे प्राचीन व विशालतम मंदिर है महामृत्युंजय महादेव मंदिर। यह परिसर के बीचोंबीच स्थित है। परिसर में प्रवेश के तुरंत बाद आप इस मंदिर को अपने दायीं तरफ देख सकते हैं।

कहा जाता है कि यह प्रथम मंदिर है जहां लिंग के रूप में शिवपूजन की परंपरा सर्वप्रथम आरम्भ हुई थी। यहाँ के पुजारी जी आपको पाषाणी लिंग के ऊपर खुदी शिव की तीसरी आँख अवश्य दिखाएँगे। इस महामृत्युंजय महादेव मंदिर का शिवलिंग अति विशाल है और इसकी दीवारों पर महामृत्युंजय मन्त्र बड़े बड़े अक्षरों में लिखा हुआ है। पुरातत्ववेत्ताओं ने दीवारों पर २५ अभिलेखों की खोज की जो ७ वीं. से १० वी. ई. की बतायी जाती है। अभिलेख संस्कृत व ब्राह्मी भाषा में लिखे गए हैं। मंदिर के शिखर पर लगी पाषाणी पट्टिका पर एक राजसी दम्पति द्वारा लाकुलीश की पूजा अर्चना प्रदर्शित है। इसके ऊपर भगवान् शिव के तीन मुखाकृतियों की शिल्पकारी की गयी है।

महामृत्युंजय महादेव मंदिर
महामृत्युंजय महादेव मंदिर

अन्य भारतीय प्राचीन मंदिरों की तरह यहाँ की पाषाणी दीवारों पर भी शुभमंगल व समृद्धि के संकेत खुदे हुए हैं। इन्हें देख अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारे पुरातन मंदिरों की रचना कैसे होती थी। स्थानीय पंडित व भक्तगण और पर्यटक यहाँ आ कर मंदिरों के चारों ओर बैठते हैं। वे यहाँ आपस में चर्चा करते हैं, मंदिर में पूजा अर्चना करतें हैं व एक दूसरे की मदद करतें है। यह सर्वसाधारण हेतु सार्वजनिक भेंट स्थल है।

पुष्टि देवी मंदिर

पुष्टि देवी मंदिर - जागेश्वर
पुष्टि देवी मंदिर – जागेश्वर

यह मंदिर परिसर के दाहिनी ओर अंतिम छोर पर, महामृत्युंजय महादेव मंदिर के पीछे स्थित है। यह अपेक्षाकृत छोटा मंदिर है। इसमें एक छोटा गलियारा है जिस पर तिरछी स्लेट की पट्टियों की छत है। यह एक ठेठ हिमालयी छत है। इस मंदिर के भीतर पुष्टि भगवती माँ की मूर्ति स्थापित है।

दक्षिणमुखी हनुमान मंदिर

इस मंदिर में हनुमान की आदमकद मूर्ति है। मुझे यह मूर्ति अपेक्षाकृत नवीन प्रतीत हुई क्योंकि यह मूर्ति बाकि मंदिर परिसर की शिल्पकला से मेल नहीं खाती है।

नवग्रह मंदिर

यह ९ मंदिरों का एक समूह है जो समर्पित है हिन्दू ब्रम्हांड शास्त्र के ९ ग्रहों को। इस मंदिर समूह में सूर्य भगवान्, शनि भगवान् आदि के मंदिर शामिल हैं।

केदारेश्वर मंदिर

केदारेश्वर शिवलिंग
केदारेश्वर शिवलिंग

जैसा कि हम सब जानते हैं, उत्तराखंड में, हिमालय की गोद में स्थित केदारनाथ मंदिर भी एक ज्योतिर्लिंग है। केदारनाथ मंदिर में शिवलिंग एक अनियमित पत्थर के आकार की है। उसी तरह का शिवलिंग जागेश्वर धाम के केदारेश्वर मंदिर में भी है।

लकुलीश मंदिर

लकुलीश - शिव के अवतार
लकुलीश – शिव के अवतार

लकुलीश भगवान् शिव के २८वें अवतार माने जाते हैं। कुछ लोग इन्हें एक स्वतंत्र पंथ भी मानते हैं। उत्तराखंड व गुजरात में भगवान् शिव के लकुलीश अवतार की अराधना की जाती है। इस अवतार में भगवान् शिव के हाथ में एक छड़ी दिखाई देती है। जागेश्वर धाम में भगवान् शिव के इस अवतार को दर्शाती शिलाखंडें कई मंदिरों के दीवारों पर लगीं हैं।

तान्डेश्वर मंदिर

नृत्य मुद्रा में शिव
नृत्य मुद्रा में शिव

लकुलीश मंदिर के बगल में एक और छोटा मंदिर है जिसके भीतर भी शिवलिंग स्थापित है। इसके अग्रभाग के शिलाखंडों पर तांडव नृत्य करते शिव की प्रतिमाएं हैं।

बटुक भैरव मंदिर

बटुक भैरव मंदिर - जागेश्वर
बटुक भैरव मंदिर – जागेश्वर

यह मंदिर परिसर के बांयी ओर स्थित पहला मंदिर है। मंदिर के प्रवेशद्वार से भीतर जाने से पूर्व, जहां आप अपनी चप्पलें उतारतें हैं, ठीक वहीँ यह मंदिर स्थित है। मेरे अनुमान से जो मूर्तियाँ इस मंदिर के भीतर स्थित हैं, वे भैरव का कोई रूप हैं। भक्तगण इस मंदिर के दर्शन सबसे अंत में करतें हैं।

कुबेर मंदिर परिसर

कुबेर मंदिर - जागेश्वर
कुबेर मंदिर – जागेश्वर

कुबेर मंदिर परिसर एक पहाड़ी के ऊपर उस नदी के पार स्थित है जो जागेश्वर मंदिर परिसर के चारों ओर बहती है। यहाँ से जागेश्वर मंदिर परिसर का शीर्ष दृश्य दिखाई पड़ता है। अन्य मंदिरों की तरह, कुबेर मंदिर के भीतर भी मुख्य देव के रूप में शिवलिंग स्थापित हैं। मंदिर के प्रवेशद्वार के ऊपर लगे शिलाखण्ड पर कुबेर की प्रतिमा गड़ी हुई है।

कुबेर
कुबेर

कुबेर मंदिर के पास एक छोटा सा चंडिका मंदिर है जिसके भीतर भी मुख्य देवता के रूप में शिवलिंग स्थापित है।

दंडेश्वर मंदिर परिसर

दंडेश्वर मंदिर
दंडेश्वर मंदिर

दंडेश्वर मंदिर परिसर मुख्य जागेश्वर मंदिर परिसर से करीब १ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ एक बड़ा मंदिर व १४ अधीनस्थ मंदिर हैं। वस्तुतः यही बड़ा मंदिर दंडेश्वर मंदिर है और इस क्षेत्र का सबसे ऊंचा और विशालतम मंदिर है। इन मंदिरों में कुछ, दंडेश्वर मंदिर के समीप ही एक चबूतरे पर स्थित हैं व कुछ इसके आसपास बिखरे हुए हैं। इनमें कुछ मंदिरों के भीतर सादे शिवलिंग, योनि पर स्थापित हैं वहीं कुछ मंदिरों के भीतर चतुर्मुखलिंग स्थापित है।

भगवान् शिव यहाँ लिंग रुपी ना होते हुए, शिला के रूप में हैं। पुजारीजी ने हमें इस मंदिर से जुडी दंतकथा के बारे में बताया की भगवान् शिव यहाँ के जंगल में ध्यानमग्न समाधिस्थ थे। उनके रूप व नीले अंग को देख इन जंगलों में रहने वाले ऋषियों की पत्नियां उन पर मोहित हो गयीं। इस पर क्रोधित हो कर ऋषियों ने शिव को शिला में परिवर्तित कर दिया। इसलिए शिव यहाँ शिला रूप में स्थापित हैं। पहले सुनी दंतकथा का यह दूसरा संस्करण पुजारीजी ने हमें बताया।

कहा जाता है मंदिर का नाम दंडेश्वर दण्ड शब्द से लिया गया है। हालांकि इस तथ्य का कोई प्रामाणिक अभिलेख मौजूद नहीं है।

पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के संग्रहालय में रखी गयी पौन राजा की धातु की मूर्ति कभी इन मंदिर का हिस्सा हुआ करती थी।जागेश्वर व दंडेश्वर के मध्य सड़क के दोनों तरफ आप कई छोटे मंदिर देख सकतें हैं।

पुरातात्विक संग्रहालय जागेश्वर

जागेश्वर संग्रहालय
जागेश्वर संग्रहालय

स्थानीय शिल्पकला प्रदर्शित करता यह छोटा परन्तु बेहतर रखरखावयुक्त संग्रहालय है। यहाँ प्रदर्शित अधिकाँश शिल्पकारी जागेश्वर अथवा आसपास के क्षेत्रों से लाई गयी है।

आप यहाँ शिलाओं पर तराशे भित्तिचित्र देख सकतें है जैसे नृत्य करते गणेश, इंद्र या विष्णु के रक्षक देव अष्ट वसु, खड़ी मुद्रा में सूर्य, विभिन्न मुद्राओं में उमा महेश्वर और विष्णु। शक्ति के भित्तिचित्र चामुंडा, कौमारी, कनकदुर्गा, महिषासुरमथिनी, लक्ष्मी, दुर्गा इत्यादि के रूप में हैं। यहाँ कुछ राजसी भित्तिचित्र भी देखने मिले जिन पर राजसी भक्त व राजसी सवारियां भी दिखाई गईं हैं। संग्रहालय के द्वारों के चौखट भी अत्यंत प्रशंसनीय हैं। यह चौखट शिलाओं के बड़े बड़े पट्टिकाओं से बने हैं जिन पर अभिलेख गुदे हुए हैं।

यहाँ के भित्तिचित्र व शिल्पकला भारत के सर्वोत्तम शिल्पकला में भले ही शामिल ना हो, पर निश्चित रूप से ये सर्वोत्तम रखरखाव वाली शिल्पकारी है। इन पर कभी आक्रमण नहीं हुआ, ना ही इन्हें कभी कोई क्षति पहुंचाई गयी। आप इनके मूल रंग व कुशल कारीगरी बखूबी देख सकतें हैं। हालांकि कुछ शिल्पकारियों पर अर्पित हल्दी और कुमकुम के अवशेष दिखाई पड़ते हैं परन्तु अधिकाँश शिल्पकारी स्वच्छ रखी हुईं है।

इस संग्रहालय की सर्वोत्तम कलाकृति है पौन राजा की आदमकद प्रतिकृति जो अष्टधातु में बनायी गयी है। इसे दंडेश्वर मंदिर से सड़क मार्ग द्वारा लाया गया है। यह कुमांऊ क्षेत्र की एक दुर्लभ प्रतिमा है।

हमें यहाँ छायाचित्र लेने की सख्त मनाही थी इसलिए मैं यहाँ कोई चित्रीकरण नहीं कर पायी। शुक्र है यहाँ से बाहर निकलते वक्त मुझे संग्रहालय की कलाकृतियों पर बनी एक स्मरणिका दी गयी। संग्रहालय के अधिकारियों से चर्चा के दौरान मुझे ज्ञात हुआ कि इन कलाकृतियों की चोरी का खतरा हमेशा बना रहता है। इन पर सुरक्षा के कड़े इंतजाम के तहत छायाचित्रीकरण की सख्त मनाही की गयी है।

जागेश्वर धाम की यात्रा हेतु कुछ सुझाव

देवी प्रतिमा - जागेश्वर मंदिर
देवी प्रतिमा – जागेश्वर मंदिर

• जागेश्वर धाम पहुँचाने हेतु निकटतम बड़ा शहर ३५ किलोमीटर दूर स्थित अल्मोड़ा है। हल्दवानी/काठगोदाम से जागेश्वर १२० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। हवाई व रेल सुविधाओं के अभाव में सड़क मार्ग द्वारा ही यहाँ पहुंचा जा सकता है। तथापि मार्ग अत्यंत सुरम्य व प्राकृतिक है।
• सम्पूर्ण मंदिर परिसर व संग्रहालय के अवलोकन हेतु ३ से ४ घंटों का समय आवश्यक है। परन्तु पूजा अर्चना व संध्या आरती अर्पित करने की इच्छा रखने वाले पर्यटकों के लिए मेरा सुझाव रहेगा कि वे यहाँ एक सम्पूर्ण दिवस बिताने की योजना बनायें।
• मंदिर के विभिन्न अनुष्ठानों व धार्मिक कृत्यों के निर्धारित शुल्क बाहर सूचना पट्टिका पर लिखे हुए हैं।
• पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग संग्रहालय शुक्रवार को छोड़कर हर दिन प्रातः १० बजे से संध्या ५ बजे तक खुला रहता है। प्रवेश निशुल्क है।
• नदी के किनारे टहलते हुए घने देवदार के जंगल का आनंद लिया जा सकता है जो इस मंदिर के चारों ओर फैले हुए हैं।
• जागेश्वर से १४ किलोमीटर दूर वृद्ध जागेश्वर मंदिर के भी आप दर्शन कर सकतें हैं, परन्तु मैं आपको आगाह करा दूं कि इस हेतु आपको थोड़ी पैदल चढ़ाई चढ़नी पड़ेगी।
• मंदिर के समीप ही कुमांऊ मंडल विकास निगम का विश्रामगृह है जहां से मंदिर का सुन्दर दृश्य दिखाई पड़ता है। अन्य होटल व अथितिग्रह थोड़ी दूरी पर स्थित हैं।
• मंदिर के आसपास स्थित दुकानें आपको सादा भोजन उपलब्ध करा सकतें हैं। इनमें से अधिकाँश दुकानें रात ८ बजे ही बंद हो जातीं हैं।

हिंदी अनुवाद : मधुमिता ताम्हणे

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