ताबो, मनमोहक स्पीति घाटी की गोद में विराजमान एक छोटा सा शांतिपूर्ण गाँव। स्पीति नदी के तीर स्थित यह गाँव पूर्व में लियो पार्गिल की चोटी तथा पश्चिम में मणिरंग से घिरा हुआ है। हिमाचल का यह सुन्दर ताबो गाँव, १००० वर्षों से भी अधिक प्राचीन ताबो मठ तथा इसके माटी की संरचनाओं से भरे परिसर में छुपे अप्रतिम विरासत के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है। भित्तिचित्र, थांका चित्र, पांडुलिपियाँ, चूने के शिल्प व मूर्तियाँ तथा अप्रतिम एवं अनूठी वास्तुकला इस मठ की मनमोहक संपत्ति है।
हम दोपहर के भोजन के समय तक ताबो गाँव पहुँच गए थे। हमारी मंशा इस मठ में कुछ समय व्यतीत कर, आगे काजा के लिए प्रस्थान करने की थी। किन्तु, भोजन करते समय जब देवाचेन रिट्रीट के श्री रजिंदर बोध ने हमें यहाँ की गुफाओं एवं शैलशिल्पों के विषय में जानकारी दी, हमने तत्क्षण ताबो गाँव में कुछ घंटे नहीं, अपितु एक सम्पूर्ण दिवस व्यतीत करने का निश्चय किया। हमारे मन में इस गाँव की विरासत के दर्शन की अभिलाषा तीव्र हो चुकी थी। सत्य कहूं तो हमारा यह निश्चय सही मायनों में अनमोल सिद्ध हुआ।
ताबो गाँव समुद्र सतह से ३२८० मीटर अथवा १०,००० फीट की ऊँचाई पर स्थित है। इसकी जनसँख्या लगभग ४०० है।
ताबो मठ अथवा चोस-खोर गोम्पा
ताबो मठ को इसकी भित्तिचित्रों के कारण ‘हिमालय का अजंता’ कहा जाता है। इसका एक अन्य कारण यह भी है कि अजंता एवं ताबो दोनों को बौद्ध आस्था का प्रतीक माना जाता है। इस मठ के पूर्व भिक्षुक, लामा डेचेन ने हमें मठ परिसर का संचालित दौरा कराया। एक बौद्ध भिक्षुक होने के कारण उनका दौरा कलाकृतियों की अप्रतिम अभिव्यक्ति की अपेक्षा, भक्तिभाव से अधिक परिपूर्ण था। किन्तु उसी समय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधिकारीगणों की एक टोली एवं कुछ प्रशिक्षु मठ के अवलोकन हेतु वहां पहुंचे। मेरे सौभाग्य से मुझे एक ऐसे व्यक्ति से चर्चा करने का सुअवसर प्राप्त हो गया जिसे मठ के एक मंदिर एवं उसके भित्तिचित्रों के जीर्णोद्धार व संरक्षण के कार्य का उत्तरदायित्व सौंपा गया था। उन्होंने मुझे वहां की चित्रकारी के विभिन्न तकनीकियों एवं पुरातनता की सूक्ष्म एवं विस्तृत जानकारी प्रदान की।
ताबो मठ – प्राचीनतम किन्तु जीवंत मठ
इस प्राचीनतम व जीवंत मठ में ९ मंदिर एवं कुछ स्तूप हैं जिन्हें कुछ दूरी से निहारा जाए तो ये मिट्टी के घरों से युक्त एक छोटा सा गाँव प्रतीत होते हैं। मठ का मिट्टी में लिपटा अत्यंत सादा बाहरी परिदृश्य अपने भीतर क्या छुपाये हुए है, इसका तनिक भी आभास बाहर से नहीं हो पाता। मठ के बाहर लगे एक साधारण से सूचना फलक पर केवल ताबो मठ का नाम लिखा हुआ है। मठ के भीतर प्रवेश करते ही आप स्वयं को मिट्टी की अनेक संरचनाओं से घिरा पायेंगे जिन पर यदि किसी उजले रंग की छटा है तो वह केवल लामाओं के चटक लाल रंग के वस्त्रों की। यह किसी निराले ही विश्व में प्रवेश करने के सामान है। क्यों ना हो? इससे पूर्व मैंने व कदाचित आपने भी, कभी इस प्रकार के सम्पूर्ण रूप से माटी द्वारा निर्मित संरचनाओं के मध्य स्वयं को नहीं पाया होगा।
हमने अपना अवलोकन मुख्य मंदिर से आरम्भ किया जिसे त्सुग्लान्ग्खंग अथवा सभा कक्ष कहते हैं। मठ के इस प्राचीनतम संरचना के भीतर जिस शिल्प पर हमारी प्रथम दृष्टी पड़ी, वह थी गणेश की प्रतिमा जो दो धर्मों के संगम का प्रतीक प्रतीत हो रही थी। इस कक्ष में उपस्थित चित्र १७वीं शताब्दी के हैं। इस मठ के संस्थापक के दो पुत्रों, नागराज एवं देवराज, की प्रतिमाएं सभा कक्ष के द्वार पर खड़ी हैं।
मठ का सभाकक्ष
ताबो मठ के मुख्य मंदिर का सभा कक्ष एक अत्यंत उत्कृष्ट कृति है जिसे निहारने के लिए यहाँ पर्याप्त समय व्यतीत करने की आवश्यकता है। इसकी चारों भित्तियों पर बोधिसत्वों के चूने द्वारा निर्मित ३३ उभरे हुए उत्कृष्ट शिल्प हैं। उनमें प्रत्येक प्रतिमा के विशेष नाम हैं जिनका आरम्भ वज्र शब्द से होता है, जैसे वज्र लास्य अथवा वज्र रत्न। उन्हें उत्कृष्ट रूप से चित्रित भीत्तियों के ऊपर जड़ा गया है। प्रथम दर्शनी वे अजंता का स्मरण कराते हैं। किन्तु उनकी चित्रण शैली समान नहीं है। दाहिनी ओर की भित्ति पर बुद्ध की जीवनी का चित्रण किया गया है जिन्हें स्थानिक शाक्यमुनि बुद्ध कहते हैं। कक्ष के अन्य भित्तियों पर बोधिसत्वों की जीवनी की प्राधान्यता है। इनमें कुछ चित्र ९९६ ई. से १०४२ ई. के तथा कुछ १७वीं ई. से १९वीं ई. तक के भी माने जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो इस मठ द्वारा अनुभवित गत सहस्त्र वर्षों से भी अधिक जीवन काल के विभिन्न समयावधियों को परतों में प्रदर्शित किया गया हो।
इस कक्ष के भीतर उजाले का एकमात्र स्त्रोत था कक्ष की छत पर स्थित एक छिद्र जिसे कांच द्वारा ढंके एक उभरे झरोखे के समान निर्मित किया गया था। जुनिपर अथवा हपुषा की सुगन्धित लकड़ी द्वारा निर्मित स्तम्भ छत को आधार दे रहे थे। इस संरचना की एक विशेषता थी कि ये भूमि पर खोखले आधार पर खड़े थे जो इससे पूर्व मैंने कहीं नहीं देखा था।
ताबो गोम्पा
ताबो गोम्पा एक मंडल के रूप में मुख्य मंदिर के सभा कक्ष के मध्य भाग पर निर्मित है। सभा कक्ष ‘वज्रधातु मंडल’ का प्रतीक है जिसमें धर्म चक्र प्रवर्तन मुद्रा में चार गुने वैरोचन हैं। इनके समीप भित्तियों पर ३३ वज्रयान देवताओं की छवि हैं। गर्भगृह के भीतर एक सिंह पर सवार अमिताभ की प्रतिमा है। इसके दाहिनी ओर रामपानी तथा बाईं ओर महास्थानप्रता हैं। यूँ तो अमिताभ का वाहन मोर है, किन्तु यहाँ उन्हें सिंह पर सवार दर्शाया गया है। हमारे गाइड के अनुसार इस स्थान पर किसी काल में कदाचित बुद्ध की प्रतिमा थी जिसे नवीनीकरण के समय अमिताभ की प्रतिमा से प्रतिस्थापित किया गया हो तथा उनके वाहन को अविचलित ऐसे ही रखा हो।
साधारणतः, मठ के भीतर गोन खंग नामक एक लघु कक्ष होता है जिसके भीतर केवल वृत्तिशील भिक्षुओं को ही ध्यान हेतु जाने की अनुमति होती है। यहाँ यह सभा कक्ष के सम्मुख है। इन्हें महाकाल वज्र भैरव मंदिर भी कहा जाता है। मुझे बताया गया कि इनके भीतर महाकाल एवं श्रीदेवी की प्रतिमाएं होती हैं।
पीटर वैन हैम के संस्करण के अनुसार, चोखोर के त्सुग लाखंग के भीतर निम्न शिलालेख है-
उनके लिए जो लम्बी यात्रा के पश्चात थक चुके हैं,
तथा उन प्राणियों के लिए जो दुःख के साक्षी हैं,
मित्रों व सगे-सम्बन्धियों ने जिन्हें त्याग दिया है,
यह सुन्दर मंदिर उन्ही को समर्पित है।
-चोखोर के त्सुग लाखंग के भीतर आलेखित
स्त्रोत – पीटर वैन हैम का ब्लॉग
ताबो मठ के भित्तिचित्र
ताबो मठ के भित्तिचित्र उसी प्रकार के टेम्परा चित्र शैली के हैं जैसे अजंता की गुफाओं में हैं। इनमें किसी संश्लेषयुक्त पदार्थ के साथ जलीय रंगों का प्रयोग किया जाता है। इसी कारण ताबो मठ की भित्तियों के इन भित्तिचित्रों पर भीषण संकट मंडरा रहा है क्योंकि जल रिसाव के कारण भित्तियों की परतें उतर रही हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधिकारी इस समस्या की जांच कर रहे हैं। आशा है कि वे विशेषज्ञों की सहायता से इस समस्या का हल शीघ्र निकाल लेंगे तथा इस विरासत का संरक्षण कर सकेंगे।
अजंता के ही समरूप यहाँ के भित्तिचित्र भी बुद्ध एवं बोधिसत्व की कथाएं कहती हैं। छतों पर ज्यामितीय आकृतियाँ चित्रित हैं।
कुछ स्थानों पर अपूर्ण चित्रों की रूपरेखाएँ दृष्टिगोचर होती हैं जो चित्रकारी की प्रक्रिया प्रदर्शित करते हैं अथवा कदाचित वहां के रंग समय के साथ फीके पड़ गए हैं।
अनेक स्थानों पर भित्ति के अभिलेखन चित्रकारी की तिथि तथा चित्रित कथा के विषयवस्तु की जानकारी देते हैं। साथ ही इन चित्रों के प्रायोजकों के नाम भी हैं। सभी अभिलेखन बोटी लिपि में हैं।
गुगे साम्राज्य
गुगे साम्राज्य के राजाओं ने रिनचेन जंगपो के निर्देशन में इस मठ का निर्माण करवाया था। रिनचेन जंगपो एक महान अनुवादक थे जिन्होंने बौद्ध पांडुलिपियों का संस्कृत से तिब्बती भाषा में अनुवाद किया था। रिनचेन जंगपो नालंदा विश्वविद्यालय के विद्यार्थी थे। इस मठ का निर्माण करते समय वे भित्तियों पर चित्रकारी करने के लिए कश्मीरी कारीगरों को यहाँ लेकर आये थे। मठ के भित्तिचित्रों में उनका प्रभाव स्पष्ट झलकता है।
अन्य ८ मंदिरों के अवलोकन करने के लिए आपको लामाओं से उनके द्वार खोलने का निवेदन करना पड़ेगा। एक मंदिर के भीतर मुझे एक विलक्षण चित्र का स्मरण है जिसमें हरित तारा तथा ३ मुख व ८ हस्तों से युक्त उश्निश्विजय को दर्शाया गया है। मैत्रेय मंदिर में मैत्रेय बुद्ध की विशाल प्रतिमा है। मंदिर के द्वार पर अप्रतिम चौखट है जो मुझे पश्चिमी चालुक्य मंदिरों का स्मरण कराता है।
मठ परिसर में २३ स्तूप हैं जिनमें कुछ के भीतर भित्तिचित्र हैं। उत्तम प्रदर्शन सुविधाओं की अनुपस्थिति में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इनके अवलोकन की अनुमति प्रदान नहीं की है। कुछ स्तूपों पर नक्काशी अवश्य देखी जा सकती है।
ताबो गाँव को भारतीय एवं तिब्बती संस्कृतियों का प्राचीन संगम स्थल माना जाता है जहां तिब्बती विद्यार्थी भारतीय बौद्ध विद्वानों से शिक्षण ग्रहण करने यहाँ आते थे।
यहाँ का जीवन मठ तथा इसके द्वारा लघु स्तर पर उत्पन्न पर्यटन अर्थव्यवस्था के चारों ओर ही केन्द्रित रहता है।
मंदिर के भीतर छायाचित्रीकरण की अनुमति नहीं है किन्तु मंदिर के भीतर के भित्तिचित्रों के चित्र आप क्रय कर स्मारिका के रूप में ले जा सकते हैं।
यहाँ एक नवीन मठ का भी निर्माण किया गया है जहां मठ के सहस्त्र वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में दलाई लामा ने स्वयं १९९६ में कालचक्र दीक्षा कराई थी।
ताबो गुफाएं
यदि आपने सहस्त्र वर्षों पूर्व इस स्थान की यात्रा की होती तो आप कदाचित इन गुफाओं में रह रहे होते जिन्हें आज आप ताबो गाँव से सटी पहाड़ी पर बिखरी हुई देख सकते हैं। वर्त्तमान में ये गुफाएं अत्यंत जीर्ण अवस्था में हैं तथा इन तक पहुँचना अत्यंत कठिन है। तथापि ये गुफाएं ताबो मठ के अंतर्गत आते एक गुफा मंदिर के इतने समीप स्थित है कि आप वहां से इन गुफाओं को स्पष्ट देख सकते हैं। कुछ गुफाएं दो तलों की हैं तो कुछ ऐसी प्रतीत होती हैं मानो उन्हें चट्टानों को कुरेद कर बनाया गया हो। मुझे बताया गया कि इन गुफाओं के भीतर धुंए के चिन्ह हैं जो यह दर्शाते हैं कि किसी काल में इन गुफाओं में वास था। यूँ तो उनकी तिथि ज्ञात नहीं है, किन्तु ऐसा अनुमान है कि ये लगभग उस काल में अस्तित्व में आये होंगे जब ९९६ ई. में इस मठ की स्थापना की जा रही थी। तब तक ताबो गाँव अस्तित्व में नहीं था तथा यात्री भिक्षुक अनुमानतः इन गुफाओं में ही ठहराते थे।
गुफा मंदिर ताबो मठ के अंतर्गत एक सादी गुफा संरचना है जो इस प्रकार मिट्टी से ढंकी हुई है कि यदि आपके वस्त्र इनकी सतह को छूकर निकले तो मुट्ठी भर मिट्टी भी साथ ले ले। इसके संरक्षण का उत्तरदायित्व भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग पर है। सीमेंट-कंक्रीट द्वारा निर्मित एक पक्की सीढ़ी आपको गुफा तक ले जायेगी जिसमें एक मंदिर, एक पाकगृह तथा एक सभाकक्ष हैं।
शैलशिल्प
मुझे यहाँ के शैलशिल्पों की पूर्व जानकारी नहीं थी। उनके विषय में मुझे यहाँ आकर ही ज्ञात हुआ। अकस्मात् ही हमारे गाइड के मुख से उनके विषय में कुछ उद्गार व्यक्त हो गए जिसने हमारी जिज्ञासा को जन्म दे दिया। आरम्भ में उसने हमें वहां जाने के लिए यह कह कर हतोत्साहित किया कि वहां पहुँचने के लिए कष्टकर पदयात्रा की आवश्यकता होगी। किन्तु मैं अपने निश्चय पर अडिग रही। अंततः उसने हमें गाँव की शाला के पृष्ठभाग में स्थित एक सरकारी परिसर के भीतर कुछ अप्रतिम शैलतक्षण के दर्शन कराये। यूँ तो शिलाओं पर किये गए तक्षण उत्कृष्ट रूप से संरक्षित थे किन्तु ये शिलाएं झाड़ियों में तितर-बितर रूप से बिखरे हुए थे। मुझे कुछ कष्ट उठाकर उन तक पहुँचना पड़ा किन्तु मेरी मेहनत अत्यंत फलदायी सिद्ध हुई।
प्राचीन तक्षकला
मैंने गहरे भूरे रंग की शिलाएं देखीं जिन पर हल्के भूरे रंग द्वारा तक्षण किया गया था। अन्य प्राचीन शैलशिल्प स्थलों के समान इन शिलाओं पर भी पशुओं एवं शिकार के दृश्य उत्कीर्णित थे। वहां एक दृश्य ने मुझे सर्वाधिक अचंभित किया। लगभग सभी तक्षित शिलाओं पर स्वस्तिक के अनेक चिन्ह उत्कीर्णित थे। कुछ स्थानों पर मुझे ॐ के भी चिन्ह दृष्टिगोचर हुए।
इस स्थान का दुर्भाग्य है कि समीप कहीं भी उनके विषय में जानकारी प्रदान करते सूचना फलक नहीं थे। मुझे जानकारी दी गयी कि किसी व्यक्ति ने स्वतन्त्र रूप से इन शैलशिल्पों का अध्ययन किया एवं उन पर किये गए शोध पर एक पुस्तक भी प्रकाशित की। किन्तु मुझे ना तो वह पुस्तक मिली, ना ही उसका नाम।
अगले दिन हम सेतु पार कर धनकर व काजा की ओर जाते मार्ग पर पहुंचे। मैं ताबो की विरासत को सदा के लिए अपने मन मस्तिष्क में समेटे वहां से जा रही थी। मुझे यह विश्वास हो गया था कि मैं इस स्थान के विषय में आयुष्य भर चर्चा करूंगी।
अनुराधा जी, मीता जी,
हिमाचल के सुदुर क्षेत्र में स्थित सदियों प्राचीन ताबो मठ के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान करता सुंदर आलेख ।यह आश्चर्यजनक ही है कि आज भी माटी की संरचनाओं से घिरे इस मठ के भित्तिचित्र, पांडुलिपियाँ,चूने के शिल्प ,मूर्तियाँ अभी भी जस की तस है और वास्तव में ये ही इस प्राचीन धरोहर की विरासत है ।यह सही है कि ताबो मठ और अजंता के भित्तिचित्रों की चित्र शैली तथा प्रयुक्त किये गये संश्लेषित जलीय रंग लगभग एक समान होने से दोनों में समरूपता प्रतीत होती है ।आलेख में ताबो गुफाओं तथा गुगे साम्राज्य के बारे में भी सुंदर जानकारी प्रदान की गई है ।
ज्ञानवर्धक आलेख हेतु धन्यवाद ।
प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद्