भारतीय वास्तुकला Archives - Inditales श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Mon, 12 Jun 2023 05:32:51 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 सप्तमातृका – दंत कथाएं, इतिहास एवं प्रतिमा विज्ञान https://inditales.com/hindi/saptamatrika-katha-itihasa-vaastu-mandir/ https://inditales.com/hindi/saptamatrika-katha-itihasa-vaastu-mandir/#comments Wed, 08 Sep 2021 02:30:14 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2410

सप्तमातृका, अर्थात् सात माताएं! आपने अनेक मंदिरों में सप्तमातृकाओं के दर्शन किए होंगे। किन्तु केवल सप्तमातृकाओं को समर्पित मंदिर क्वचित ही देखे होंगे। अधिकतर वे मंदिरों का एक भाग होती हैं। सात माताओं को अधिकांशतः एक साथ, एक ही पटल पर उत्कीर्णित देखा गया है। यदा-कदा गणेश एवं कार्तिकेय भी उनके साथ विराजमान होते हैं। […]

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सप्तमातृका, अर्थात् सात माताएं! आपने अनेक मंदिरों में सप्तमातृकाओं के दर्शन किए होंगे। किन्तु केवल सप्तमातृकाओं को समर्पित मंदिर क्वचित ही देखे होंगे। अधिकतर वे मंदिरों का एक भाग होती हैं। सात माताओं को अधिकांशतः एक साथ, एक ही पटल पर उत्कीर्णित देखा गया है। यदा-कदा गणेश एवं कार्तिकेय भी उनके साथ विराजमान होते हैं। सन् २०११ में, राष्ट्रीय संग्रहालय द्वारा संचालित पाठ्यक्रम ‘भारतीय कला’ के अंतर्गत, मैंने सप्तमातृकाओं के विषय में प्रारम्भिक अध्ययन किया था। तभी से मेरी यह प्रबल इच्छा थी कि मैं इस विषय में एक संस्करण प्रकाशित करूं। अतः मैंने उनके विषय में विस्तृत अध्ययन आरंभ किया।

सप्तमातृका - पहाड़ी शैली का लघुचित्र
सप्तमातृका – पहाड़ी शैली का लघुचित्र

अनेक पुस्तकों में सप्तमातृकाओं के विषय में अध्ययन करने के उपरांत भी, उनके विषय में लिखने के लिए स्वयं को परिपक्व अनुभव नहीं कर पा रही थी। तब मैंने देवी माहात्मय/दुर्गा सप्तशती पढ़ा जिसमें उनके प्रकट होने की सम्पूर्ण कथा का उल्लेख किया गया है। दुर्गा की सम्पूर्ण कथा में सप्तमातृकाओं के प्रकट होने की प्रासंगिकता को समझा। तदुपरांत ऐसा प्रतीत हुआ कि अब इस  विषय में लिखने का समय आ गया है। किन्तु तब भी मैं इस ओर आगे नहीं बढ़ सकी। इस वर्ष के आरंभ में मैंने ओडिशा की यात्रा की थी। वहाँ मैंने सप्तमातृकाओं को समर्पित विशाल व प्राचीन मंदिरों के दर्शन किए। उन मंदिरों में सप्तमातृकाओं के साथ समय व्यतीत किया। अब ऐसा प्रतीत होता है कि अंततः उन्होंने मुझे उनके विषय में लिखने के लिए आशीष व आज्ञा दोनों दे दी है।

सप्तमातृकाएँ कौन हैं?

सप्त अर्थात् सात तथा मातृका का अर्थ है माता। अतः सप्तमातृका का अर्थ है सात माताएं। वे विभिन्न देवताओं की शक्तियाँ हैं जो आवश्यकतानुसार उनके भीतर से उदित होती हैं। बहुधा ऐसे असुरों के संहार हेतु आती हैं जिन्हे नियंत्रित करने में अन्य सभी असफल हो गए हैं।

कांची कैलाशनाथ मंदिर में सप्तमातृकाएँ
कांची कैलाशनाथ मंदिर में सप्तमातृकाएँ

लोक परंपराओं में सप्तमातृकाओं को शुभकारी एवं अशुभकारी, दोनों रूपों में दर्शाया गया है। उनकी वंदना करने पर वे बहुधा शुभकारी रूप में प्रकट होती हैं। शुभकारी रूप में वे दयालु व कृपालु होती हैं तथा भ्रूण व नवजात शिशुओं की रक्षा करती हैं। पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार, वे भक्तों की प्रार्थना अवश्य सुनती हैं। लोक परंपराओं के अनुसार, अशुभकारी रूप में वे रोगों के रूप में प्रकट होती हैं।

मातृकाओं को देवी माँ भी कहा जाता है, जो भारत एवं विश्व के अनेक भागों में वंदना का प्राचीनतम रूप है।

सामान्यतः इन्हे सप्तमातृकाएँ कहा जाता है, किन्तु यदा-कदा ये आठ अथवा अधिक भी होती हैं।

ये चौंसठ योगिनियों का भाग हैं जो देवी के चारों ओर होती हैं।

तंत्र विद्या में इन्हे देवनागरी लिपि के ५१ अक्षर/वर्ण माना जाता है।

सप्तमातृकाओं की लोककथाएं

अष्टमातृकाएँ
अष्टमातृकाएँ

देवी महात्मय, मार्कन्डेय पुराण का भाग है। मार्कन्डेय पुराण के ८वें अध्याय में, शुंभ-निशुंभ असुरों से हुए युद्ध के समय, देवी एवं रक्तबीज नामक असुर सेनापति के मध्य हुए युद्ध का उल्लेख है। रक्तबीज को यह वरदान प्राप्त था कि उसके रक्त की प्रत्येक बूंद धरती का स्पर्श पाकर उसी के समान शक्तिशाली असुर को जन्म देगी। देवी से युद्ध के समय, जैसे जैसे रक्तबीज का रक्त धरती पर गिर रहा था, वहाँ लाखों रक्तबीज उत्पन्न हो रहे थे। देवी की सहायता करने के लिए ब्रह्म, विष्णु, शिव, कार्तिकेय एवं इन्द्र ने अपनी अपनी स्त्री शक्तियों को अपने अपने रूप, वाहनों एवं आयुधों सहित वहाँ भेजा। इन स्त्री शक्तियों ने रक्तबीज एवं अन्य असुरों का वध करने में देवी की सहायता की। तत्पश्चात वे अपने मूल रूपों से एकाकार हो गयीं।

शिशु धारण किये हुए सप्तमातृका पट्ट
शिशु धारण किये हुए सप्तमातृका पट्ट

महाभारत एवं अन्य कुछ पुराणों में अंधकासुर नामक एक असुर के वध की कथा है जो रक्तबीज की कथा के समान है। उसे भी रक्तबीज के समान वरदान प्राप्त था। इस कथा में भगवान शिव अंधकासुर से युद्ध कर रहे थे। अंधकासुर के रक्त की बूंदें धरती का स्पर्श पाते ही अनेक अंधकासुरों को जन्म दे रही थी। तब भगवान शिव ने अपने मुख की अग्नि से योगेश्वरी को उत्पन्न किया तथा उन्हे अंधकासुर के रक्त को धरती पर गिरने से पूर्व ग्रहण करने के लिए कहा। यहाँ भी योगेश्वरी की सहायता करने के लिए सप्तमातृकाएँ प्रकट हुई थीं। कुछ प्रतिमाओं में योगेश्वरी को भी सात माताओं के साथ दर्शाया गया है। कदाचित वे प्रतिमाएं इसी प्रसंग की ओर संकेत करती हैं।

सुप्रभेदगम में यह उल्लेख है कि ब्रह्म ने नृत्ती को पराजय करने के लिए मातृकाओं का सृजन किया था।

सप्तमातृकाओं का अखिल भारतीय अस्तित्व

सप्तमातृकाओं की पाषण पट्टिका आप सम्पूर्ण भारत के विभिन्न मंदिरों में देख सकते हैं। प्राचीनतम महत्वपूर्ण तात्विक साक्ष्य हमें सिंधु सरस्वती सभ्यता तक पीछे ले जाते हैं। उस काल की एक मुद्रा में सात मातृकाओं को एक वृक्ष के साथ दर्शाया गया है।

सिन्धु सरस्वती सभ्यता की मुद्रा पर अंकित सप्तमातृका
सिन्धु सरस्वती सभ्यता की मुद्रा पर अंकित सप्तमातृका

यदि शैल शिल्पों की चर्चा की जाए तो कुषाण काल का एक प्राचीनतम शिल्प मथुरा संग्रहालय में देखा जा सकता है। भारतीय पुरातत्‍व सर्वेक्षण विभाग के जितने भी संग्रहालयों का मैंने अब तक अवलोकन किया है, लगभग उन सभी संग्रहालयों में मैंने सप्तमातृकाओं को समर्पित पट्टिकाएं देखी हैं। शैलीगत रूप से देखा जाए तो वे उस क्षेत्र व काल की ओर संकेत करती हैं जिस क्षेत्र व काल में उन्हे उत्कीर्णित किया गया था। दृष्टांत के लिए, मध्यकालीन युग की पट्टिकाओं में प्रत्येक मातृका की विस्तृत एवं व्यक्तिगत प्रतिमा शैली को सूक्ष्मता से उत्कीर्णित किया है। सप्तमातृकाओं से संबंधित प्रतिमा विज्ञान का सार-संग्रह आप ओडिशा के सप्तमातृका मंदिरों में अनुभव कर सकते हैं।

आधुनिक काल में हम सप्तमातृकाओं की अनेक रचनात्मक अभिव्यक्तियाँ देख सकते हैं।

सप्तमातृका

सात मातृकाएँ सात देवों की शक्तियों से उत्पन्न हुई हैं। उनके वाहन व आयुध भी वही हैं जो उनके स्त्रोत के हैं। इनमें से दो मातृकाएँ शिव के परिवार से उत्पन्न हुई हैं, तीन विष्णु के विभिन्न अवतारों से उत्पन्न हुई हैं तथा ब्रह्मा एवं इन्द्र से एक एक मातृका उत्पन्न हुई है। उनके पुरुष-समकक्षों के सभी लक्षण एवं गुण-विशेष उनमें सन्निहित होते हैं।

बैठी हुई मुद्रा में सप्तमातृका
बैठी हुई मुद्रा में सप्तमातृका

सामान्यतः सप्तमातृकाओं की पट्टिका में, गणेश, कार्तिक, वीरभद्र, वीणाधर, सरस्वती अथवा योगेश्वरी में से एक या दो सहभागी उनके एक अथवा दोनों ओर अवश्य होते हैं।

आईए इन सप्तमातृकाओं के विषय में अधिक जानने का प्रयास करें।

ब्राह्मी

पीतवस्त्र धारिणी ब्राह्मी ब्रह्मा की पीतवर्ण शक्ति हैं। वे हंस पर आरूढ़ रहती हैं जो ब्रह्माजी का भी वाहन है। यदाकदा उन्हे तीनमुखी रूप में भी दर्शाया गया है। यदि उनके पृष्ठभाग में एक अतिरिक्त मुख की कल्पना की जाए तो वे चार मुखी ब्रम्हा का प्रतिनिधित्व करती हैं। वे अपने दो हाथों में अक्षमाला एवं जल का कलश धारण करती हैं। जहां उनके चार हाथ दर्शाये जाते हैं वहाँ उनके अन्य दो हाथ अभय एवं वरद मुद्रा में होते हैं।

माहेश्वरी

माहेश्वरी शिव की शक्ति हैं। उजला वर्ण व देदीप्यमान रूप लिए वे ऋषभ की सवारी करती हैं। शीश पर जटा मुकुट, कलाइयों में सर्प रूपी कंगन, माथे पर चंद्र तथा हाथों में त्रिशूल लिए वे भगवान शिव का प्रतिनिधित्व करती हैं।

कौमारी

कौमारी कार्तिकेय की शक्ति हैं। कार्तिकेय को कुमार के नाम से भी जाना जाता है। कौमारी कार्तिकेय के वाहन, मयूर पर आरूढ़ होती हैं। कुछ शैलियों में उन्हे एकमुखी तो कुछ शैलियों में उन्हे छः मुखों वाली प्रदर्शित किया गया है। उसी प्रकार, कहीं उन्हे द्विभुज तो कहीं चतुर्भुज दर्शाया गया है। वे लाल पुष्पों का हार धारण करती हैं।

ऐन्द्री अथवा इंद्राणी

ऐन्द्री इन्द्र की शक्ति हैं। इन्द्र के समान ही उनका वाहन गज है। उनके हाथ में सदा उनका आयुध वज्र रहता है।  कभी कभी उनके दूसरे हाथ में अंकुश भी दिखाया जाता है। उनके चतुर्भुज रूप में उनके अन्य दो हाथ अभय एवं वरद मुद्रा में रहते हैं। उन्हे लाल व सुनहरे वस्त्र धारण करना भाता है। उन्हे उत्कृष्ट आभूषण धारण करना भी अत्यंत प्रिय हैं। इन्द्र के ही समान उनकी देह पर भी सहस्त्र नेत्र हैं जिनके द्वारा वे चहुंओर दृष्टि रख सकती हैं।

वैष्णवी

विष्णु की शक्ति वैष्णवी श्यामवर्ण हैं जिन्हे कृष्ण के ही समान पीतवस्त्र धारण करना अत्यंत प्रिय है। वैष्णवी के दो ऊर्ध्व करों में चक्र एवं गदा हैं तथा अन्य दो हस्त अभय एवं वरद मुद्रा में होते हैं। यदाकदा उनके हाथों में शंख, शारंग तथा एक तलवार भी होते हैं। उनके व्यक्तित्व का विशेष लक्षण है उनकी वनमाला जो उनकी सम्पूर्ण देह पर प्रेम से लटकती रहती है। उनके संग उनकी पीठिका पर उनका वाहन गरुड़ भी विराजमान रहता है। कभी कभी उन्हे गरुड़ पर आरूढ़ भी दर्शाया जाता है।

वाराही

यज्ञ वराह की शक्ति, वाराही का स्वरूप भी वराह का है। उन्हे सामान्यतः मानवी देह पर वराह शीश के रूप में दर्शाया जाता है। उनका यह विशेष लक्षण उन्हे अन्य सप्तमातृकाओं में से सर्वाधिक अभिज्ञेय बनाता है। वाराही भी श्यामवर्ण हैं। वे अपने शीश पर करण्डमुकुट धारण करती हैं। ओडिशा में उन्हे समर्पित अनेक मंदिर हैं।

नारसिंही

नारसिंही विष्णु के नरसिंह अवतार की शक्ति हैं जिनकी आधी देह मानवी एवं आधी सिंह की है। उनके इस विशेष स्वरूप के कारण उन्हे सप्तमातृकाओं की पट्टिका में पहचानने में कठिनाई नहीं होती।

चामुंडा

कभी कभी सप्तमातृकाओं की पट्टिका में नारसिंही के स्थान पर चामुंडा को दर्शाया जाता है जो यम की शक्ति हैं। उनका स्वरूप अन्य सप्तमातृकाओं से भिन्न है। कंकाल सदृश देह पर लटकते वक्ष, धँसे नेत्र, धंसा उदर, ग्रीवा पर नरमुंड की माला तथा हाथों में नरमुंड का पात्र इत्यादि उनके स्वरूप की विशेषताएं हैं। बाघचर्म धारण किए उनका यह रूप अत्यंत रौद्र एवं उद्दंड प्रतीत होता है।

सप्तमातृका पट्टिका

जैसा कि मैंने पूर्व में उल्लेख किया है, ७ अथवा ८ सप्तमातृकाओं को सदैव एक साथ एक शैल-पट्टिका पर उत्कीर्णित किया गया है। उन सभी को सामान्यतः एक ही मुद्रा में बैठे दर्शाया गया है, जिसे ललितासन कहते हैं। ललितासन मुद्रा में एक चरण धरती पर तथा दूसरा चरण दूसरी जंघा पर रखा जाता है। अनेक पट्टिकाओं में उन्हे खड़ी मुद्रा में तथा यदाकदा नृत्य मुद्रा में भी उत्कीर्णित किया गया है।

अनेक पट्टिकाओं में प्रत्येक मातृका के संग एक शिशु भी दर्शाया गया है जो उनके माँ होने की ओर विशेष संकेत करता है।

ओडिशा के कुछ मंदिरों में मैंने सप्तमातृकाओं की काले रंग की विशाल शैल प्रतिमाएं देखी थीं। वे प्रतिमाएं अत्यंत विशाल थीं। उनकी विशाल व मर्मज्ञ नेत्र उनकी उपस्थिति को अत्यंत प्रभावी बना रहे थे। उन्हे देख श्रद्धा एवं भय दोनों भाव एक साथ उत्पन्न हो रहे थे। किन्तु अधिकतर प्रतिमाएं अपने मूल मंदिरों में नहीं थीं। अतः उनका मूल स्थान कहाँ था, कैसा था तथा मूलतः उनकी आराधना किस प्रकार की जाती थी, इस सब का उत्तर पाना आसान नहीं है।

यदि आप सप्तमातृकाओं के विषय में अधिक जानना चाहते हैं अथवा खोज करना चाहते हैं तो श्री श्रीनिवास राव द्वारा प्रकाशित यह संस्करण अवश्य पढ़ें।

सप्तमातृकाओं के मंदिर

जाजपुर - ओडिशा का सप्तमातृका मंदिर
जाजपुर – ओडिशा का सप्तमातृका मंदिर

सप्तमातृकाओं को समर्पित शैलपट्टिकाएं आप लगभग सभी प्राचीन मंदिरों में देख सकते हैं। इन पट्टिकाओं का आकार विशाल नहीं होता है। अतः इन्हे खोजने के लिए शिल्पों का ध्यानपूर्वक अवलोकन करना आवश्यक है। केवल ओडिशा में ही मैंने उन्हे समर्पित पृथक मंदिर देखे हैं। उन मंदिरों में सप्तमातृकाओं का आकार भी अतिविशाल होता है।

उनमें से कुछ मंदिर हैं-

  • ओडिशा में वैतरणी नदी के तट पर स्थित जाजपुर का मंदिर
  • पुरी में मार्कण्डेश्वर सरोवर के निकट स्थित मंदिर

प्रदीप चक्रवर्ती ने मुझे जानकारी दी कि सप्तमातृका मंदिर चेन्नई के प्राचीनतम जीवंत क्षेत्रों में से एक है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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गोवा कानकोण के मल्लिकार्जुन मंदिर का अनोखा शीर्षा रान्नी उत्सव https://inditales.com/hindi/mallikarjuna-mandir-cancona-goa/ https://inditales.com/hindi/mallikarjuna-mandir-cancona-goa/#respond Wed, 15 Jan 2020 02:30:30 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1524

गोवा का मल्लिकार्जुन मंदिर, गोवा राज्य के दक्षिणतम जिले, कानकोण में स्थित है। यह लगभग गोवा एवं कर्नाटक की सीमा पर स्थित है। गोवा के अन्य मंदिरों के समान यह मंदिर भी अपने आप में एक अनूठा मंदिर है। इसका इतिहास भी रोचक कथाओं से परिपूर्ण है। शीर्षा रान्नी, इस अनुष्ठान के विषय में सर्वप्रथम […]

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गोवा का मल्लिकार्जुन मंदिर, गोवा राज्य के दक्षिणतम जिले, कानकोण में स्थित है। यह लगभग गोवा एवं कर्नाटक की सीमा पर स्थित है। गोवा के अन्य मंदिरों के समान यह मंदिर भी अपने आप में एक अनूठा मंदिर है। इसका इतिहास भी रोचक कथाओं से परिपूर्ण है। शीर्षा रान्नी, इस अनुष्ठान के विषय में सर्वप्रथम जब मैंने सुना, मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। यह ऐसा अनुष्ठान है जिस पर आप सहसा विश्वास ही नहीं कर सकते। इसलिए इस अनुष्ठान को मैं स्वयं अपनी आँखों से देखना चाहती थी।

मल्लिकार्जुन मंदिर श्रीस्थल का प्रथम द्वार
मल्लिकार्जुन मंदिर श्रीस्थल का प्रथम द्वार

इसका सुअवसर मुझे शीघ्र प्राप्त हुआ। होली के पर्व से कुछ दिवस पश्चात, गोवा के विभिन्न गाँवों में रंगबिरंगा पर्व शिगमोत्सव मनाया जाता है। इस उपलक्ष में कानकोण के मल्लिकार्जुन मंदिर में शीर्षा रान्नी उत्सव आयोजित किया जाता है। समाचार प्राप्त होते ही मैंने इसे देखने दक्षिण गोवा की ओर निकलने का निश्चय कर लिया।

एक छोटे से द्वार समान संरचना तथा उसके समक्ष स्थित एक श्वेत रंग के प्रदर्शन मंच ने श्रीस्थल में हमारा स्वागत किया। इस स्थान पर अपने जूते-चप्पल उतारकर हमें आगे का पथ नंगे पाँव पार करना पड़ा। ये तो अच्छा था कि आगे पथ पर दरी बिछी बिछाई हुई थी। किन्तु तपती धूप में दरी भी इतनी गर्म हो गयी थी कि इस पर चलने के कारण मेरे पाँव में फफोले हो गए थे।

मल्लिकार्जुन मंदिर का मुख्य प्रवेश द्वार
मल्लिकार्जुन मंदिर का मुख्य प्रवेश द्वार

यहाँ से आगे लगभग २०० मीटर तक चलने के पश्चात हम श्रीस्थल के मल्लिकार्जुन मंदिर पहुंचे। वह उत्सव का दिवस था। अतः सम्पूर्ण मार्ग पर कई विक्रेता भिन्न भिन्न वस्तुओं की बिक्री कर रहे थे। न्यूनतम वस्त्र धारण किये कई आदिवासी पुरुष रस बिक्री करने के लिए गन्नों की रेढियाँ लगा रहे थे। वहां पहुंचते ही एक लाल किनारी वाले श्वेत तोरण ने मंदिर परिसर में हमारा स्वागत किया। यह वृत्तखंड सामान्य होते हुए भी अत्यंत आकर्षक था।

कानकोण के मल्लिकार्जुन मंदिर का इतिहास

मल्लिकार्जुन, इस नाम की व्युत्पत्ति महाभारत की एक कथा से हुई है। मल्ल नामक एक असुर पाँडव पुत्र अर्जुन से युद्ध कर रहा था। भगवान् शिव ने एक व्याध का रूप धरकर मल्ल को मारने में अर्जुन की सहायता की। इसलिए शिव को मल्लिकार्जुन भी पुकारा जाता है।

लिंग स्वरुप मल्लिकार्जुन
लिंग स्वरुप मल्लिकार्जुन

एक अन्य किवदंती के अनुसार मल्लिका एवं अर्जुन, पार्वती एवं शिव के ही नाम हैं। एक दीर्घ वियोग के पश्चात यहीं उनका मिलन हुआ था। इसलिए इसे मल्लिकार्जुन कहा जाता है। इस मंदिर को गोवा के प्राचीनतम मंदिरों में से एक माना जाता है।

मल्लिकार्जुन मंदिर एक सुन्दर स्थान पर स्थित है जिसका नाम भी अत्यंत सुन्दर है – श्रीस्थल, अर्थात् श्री का स्थल अथवा लक्ष्मी का स्थान। चारों ओर पहाड़ियों से घिरी हरीभरी सुन्दर घाटी अत्यंत मनोहारी है। वैसे भी हरियाली गोवा के परिक्षेत्र का एक अभिन्न अंग है।

स्थानीय निवासी यहाँ के देव को अदवत सिंहासनधीश्वर महापति कहते हैं। इसका अर्थ है, सिंह पर विराजमान, अर्थात् देवी। महापति का अर्थ उनके सहचरी अर्थात पति हो सकता है। चूंकि इस स्थान को श्रीस्थल कहा जाता है, इन तथ्यों में सत्यता हो सकती है। किन्तु विशेषज्ञों द्वारा प्रमाणित करने की आवश्यकता है।

मंदिर की वर्तमान संरचना १८वी. शताब्दी के अंतिम चरण की है। अतः आप इसकी एवं गोवा के अन्य मंदिरों की वास्तु-संरचना में समानता देख सकते हैं। मूल मंदिर इससे प्राचीन है। कुछ का मानना है कि मूल संरचना १६वी. शताब्दी की है। वहीं कुछ इसे उस से भी अधिक प्राचीन मानते हैं। मैं केवल इतना कह सकती हूँ कि जीवंत मंदिर सतत निर्माण की स्थिति में रहते हैं।

मल्लिकार्जुन मंदिर का लिंग

निराकार रूप में पूजा जाने वाला शिवलिंग लकड़ी का है। मुख्य मंदिर के समीप इसका एक छोटा पृथक मंदिर है। यह लिंग ऊंचा है तथा इस पर सुन्दर नक्काशी की गयी है। इसके चारों ओर एक छोटी संगमरमर की भित्त है। इसके समक्ष एक दीप प्रज्वलित किया गया था। यह ऐसा स्थान है जहां भक्तगण लिंग के समीप बैठकर पूजा अर्चना कर सकते हैं।

निराकार लिंग - काष्ठ में बना
निराकार लिंग – काष्ठ में बना

मुख्य मंदिर के भीतर स्थापित पत्थर के शिवलिंग के विषय में कहा जाता है कि कुनबी समुदाय के एक सदस्य को यह इसी रूप में वन में प्राप्त हुआ था। इसलिए इस लिंग को स्वयंभू कहा जाता है। इसे चांदी के मुकुट से ढंका गया है। दर्शन करते समय हम इसी चांदी के मुकुट के दर्शन करते हैं।

श्रीसैलम की पहाड़ियों में स्थित मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग से भी इसका सम्बन्ध माना जाता है। इतिहासकार गोवा की कुनबी जनजाती एवं आन्ध्र की चेंचू जनजाती के मध्य समांतरता मानते हैं। एक अन्य मान्यता के अनुसार इसका सम्बन्ध हब्बू ब्राम्हणों से बताया जाता है जो उत्तर कन्नड़ अथवा कानकोण में जा कर बस गए थे जिसके कारण मूल कुनबी समुदाय पीछे परिक्षेत्र में ढकेल दिए गए थे।

श्रीस्थल का मल्लिकार्जुन मंदिर

श्री मल्लिकार्जुन मंदिर कानकोण गोवा
श्री मल्लिकार्जुन मंदिर कानकोण गोवा

मल्लिकार्जुन मंदिर एक अत्यंत आकर्षक एवं मनमोहक संरचना है। कदाचित यह गोवा का सर्वाधिक सलोना मंदिर है। यह गोवा का एकमेव जीवंत मंदिर है जहां मैंने शिलाओं पर शिल्पकारियाँ देखी। भीतरी भित्तियों को उत्तम उत्कीर्णित लकड़ी के फलकों द्वारा मढ़ा गया है। मंदिर के भीतर प्रवेश से पूर्व आप दोनों ओर अश्वारोहक योद्धाओं की प्रतिमाओं को देखेंगे। भीतर प्रवेश करते ही पत्थर से बनी दो सुन्दर द्वारपालों की प्रतिमाएं द्वार के दोनों ओर दृष्टिगोचर होंगी।

पाषण अश्व पे सवार योद्धा
पाषण अश्व पे सवार योद्धा

मंदिर का मंडप छः विशाल स्तंभों पर टिका हुआ है जिस पर उत्तम नक्काशी की गयी है। हमें ज्ञात हुआ कि इनमें से एक स्तंभ का प्रयोग कुछ अनुष्ठानों में देववाणी के रूप में भी किया जाता है। किन्तु कौन से अनुष्ठानों में एवं कैसे प्रयोग किया जाता है, यह मैं नहीं जान पायी।

काष्ठ में उत्कीर्णित द्वारपाल
काष्ठ में उत्कीर्णित द्वारपाल

मंदिर की भीतरी भित्तियों पर लगे फलकों पर चित्रमालिका द्वारा शिवपुराण उत्कीर्णित किया गया है। दर्शन के उपरांत दक्षिणावर्त आगे बढ़ने पर आप इन फलकों पर शिवपुराण में उल्लेखित विभिन्न घटनाओं को देख सकते हैं। मैंने यहाँ ब्रम्हांड के कई ज्यामितीय निरूपण देखे किन्तु सामान्य दृष्टी से किंचित दूर होने के कारण इन्हें समझ कर इनका विश्लेषण करना संभव नहीं हो पाया।

इन फलकों के अंतिम भाग पर, शिव पुराण की कथाएं समाप्त होते ही, शीर्षा रान्नी उत्सव का चित्रण किया गया था। इस अनुष्ठान को भलीभांति समझने हेतु मुझे यह चित्र सर्वोत्तम प्रतीत हुआ।

मल्लिकार्जुन मंदिर का मंडप
मल्लिकार्जुन मंदिर का मंडप

गर्भगृह की बाहरी भित्तियों पर लगे लकड़ी के फलकों पर विष्णु की गाथाएँ उत्कीर्णित हैं। मुझे बताया गया कि इनमें से अधिकतर शिल्पकारी कर्नाटक स्थित कुमटा के कारीगरों ने किया है।

भीतर प्रवेश करते ही आपके बाईं ओर बगिलपाइक की प्रतिमा है जिन्हें संरक्षक देव कहा जाता है।

परिसर के अन्य मंदिर

काशी पुरुष मंदिर

कशी पुरुष मंदिर की छत
कशी पुरुष मंदिर की छत

मुख्य मंदिर के समक्ष स्थित यह एक छोटा सा मंदिर है जो उस योद्धा को समर्पित है जिसने सभी हब्बू पुरुषों का वध किया था। स्तंभों एवं छत पर की गयी नक्काशी अत्यंत सराहनीय है।

उत्कर्ष काष्ठ कला लिए कशी पुरुष मंदिर के स्तम्भ
उत्कर्ष काष्ठ कला लिए कशी पुरुष मंदिर के स्तम्भ

चूंकि मुख्य मंदिर के भीतर छायाचित्रण की अनुमति नहीं थी, मैंने इस मंदिर की लकड़ी पर की गयी उत्कीर्णन के कुछ छायाचित्र लिए। स्तंभों के मध्य में मंगल चिन्हों के अतिरिक्त मुझे राम एवं कृष्ण की कई गाथाएँ उत्कीर्णित दृष्टिगोचर हुए।

परशुराम मंदिर

कोंकण तट को परशुराम की भूमि माना जाता है। परशुराम भगवान् विष्णु के अवतार हैं जिन्होंने सारस्वत ब्राम्हणों को बसाने के लिए इस धरती को समुद्र से बाहर निकाला था। इस परिसर में उन्हें समर्पित मंदिर देख अन्यंत आनंद आया।

मल्लिकार्जुन मंदिर में भगवन परशुराम की प्रतिमा
मल्लिकार्जुन मंदिर में भगवन परशुराम की प्रतिमा

यह अत्यंत सादा मंदिर है। या यूँ कहें कि सादगी की पराकाष्ठा है। इसके भीतर परशुराम की शिला में बनी केवल एक प्रतिमा है। इस प्रतिमा का अनोखा तत्व यह है कि यह लिंग की भान्ति योनी पर स्थापित है।

देवी मंदिर

छोटी पहाड़ी पर स्थित देवी मंदिर
छोटी पहाड़ी पर स्थित देवी मंदिर

कुछ दूरी पर, एक छोटी पहाड़ी के ऊपर एक देवी मंदिर स्थित है। पहाड़ी के शीर्ष तक पहुँचने के लिए व्यवस्थित सीड़ियाँ हैं। मंदिर में देवी की पत्थर में बनी एक प्रतिमा है। मंदिर पर देवी के नाम का कहीं उल्लेख नहीं है। आसपास पूछने पर लोग इन्हें पार्वती देवी कह रहे थे। इसका कारण कदाचित इसका शिव मंदिर प्रांगन में स्थित होना हो सकता है।

येलम्मा देवी
येलम्मा देवी

जात्रा में मैंने कई येल्लम्मा प्रतिमाएं देखीं। सुन्दर साड़ियों एवं भव्य आभूषणों द्वारा अलंकृत येल्लम्मा की उजली तथा चमकदार प्रतिमाओं को कई पुरुष सम्पूर्ण उत्सव में उठाकर यहाँ वहां घूम रहे थे। जो भक्तगण इनके समक्ष आते, वे उन्हें प्रणाम कर उन्हें कुछ अर्पण करते।

छोटे शिव मंदिर

मल्लिकार्जुन मंदिर परिसर के छोटे बड़े शिव मंदिर
मल्लिकार्जुन मंदिर परिसर के छोटे बड़े शिव मंदिर

परिसर में कई छोटे मंदिर थे जिनके भीतर एकल अथवा बहुल शिवलिंग स्थापित हैं। सर्व शिवलिंगों पर उनकी आराधना किये जाने के चिन्ह थे किन्तु उनके विषय में कोई मुझे जानकारी नहीं दे पा रहा था।

मंदिर का जलकुंड

मल्लिकार्जुन मंदिर पुष्कर्णी
मल्लिकार्जुन मंदिर पुष्कर्णी

परिसर में एक चौकोर जलकुंड है जो मुझे कुछ कुछ राजस्थान अथवा हम्पी के विस्तृत बावड़ियों के सामान प्रतीत हो रहा था। सम्पूर्ण परिसर का केवल यही भाग मुझे उपेक्षित पड़ा हुआ प्रतीत हुआ। अब तक मेरा यह मानना था कि इन जलकुंडों का मन्दिर के अनुष्ठानों में महत्वपूर्ण स्थान है किन्तु यहाँ मंदिर के एक ओर स्थित नलकूप, जल की सभी आवश्यकताओं को पूर्ण कर रहा था।

श्रीस्थल के मल्लिकार्जुन मंदिर के उत्सव

महाशिवरात्रि, शिग्मो तथा रथसप्तमी जैसे कई उत्सवों का यहाँ आयोजन किया जाता है। तथापि मैं आज यहाँ गोवा के एक अनोखे उत्सव की चर्चा करने वाली हूँ।

शीर्षा रान्नी अनुष्ठान

शीर्षा रन्नी का चित्र
शीर्षा रन्नी का चित्र

इस मंदिर का सर्वाधिक अनूठा उत्सव है वार्षिक जात्रा जहां शीर्षा रान्नी अनुष्ठान किया जाता है। हिन्दू पञ्चांग के अनुसार, यह उत्सव फाल्गुन मास की कृष्ण षष्ठी के दिवस पर आयोजित किया जाता है। आप जानते ही हैं कि एक दिवस पूर्व देश के विभिन्न भागों में रंग पंचमी भी मनाई जाती है तथा इसके ५ दिवस पूर्व होली का पर्व मनाया जाता है।

इस दिन यहाँ किसी काल में घटी किसी घटना का नाट्य रूपांतरण किया जाता है। ३ पुरुष जिन पर दैवी शक्ति का आगमन हुआ है, भूमि पर शयनावस्था में आकर अपने शीर्ष एक दूसरे से सटा कर त्रिकोण बनाते हैं। त्रिकोण के मध्य अग्नि प्रज्वलित की जाती है। अग्नि के संग शीर्ष का त्रिकोण चूल्हे का रूप ले लेता है। इस चूल्हे पर, मिट्टी की हांड़ी में चावल पकाया जाता है।

क्षत्रिय उत्सव में तलवार
क्षत्रिय उत्सव में तलवार

मंदिर के समीप का क्षेत्र सामान्य दर्शकों हेतु प्रतिबंधित किया जाता है। केवल अनुष्ठान में भाग लेते भक्त ही इस क्षेत्र में आ सकते हैं। इसके समीप स्थित सीड़ियों के ऊपर अस्थायी छत बनायी जाती है जहां बैठकर सभी दर्शक इस उत्सव का अवलोकन करते हैं।

रंग-बिरंगी साड़ियाँ पहनी स्त्रियाँ इस स्थान को अत्यंत जीवंत बना रही थीं। सम्पूर्ण उत्सव में पूर्ण समय वीर रस से ओत-प्रोत संगीत बजाया जा रहा था।

तरंग

तरंग - शीर्षा रन्नी उत्सव की साक्षी
तरंग – शीर्षा रन्नी उत्सव की साक्षी

अनेक साड़ियों को चुन्नटों में एकत्र कर छत्री बनायी जाती है। ऐसी कई रंग-बिरंगी छत्रियां हाथों में उठाये, लोग गाजे-बाजे के साथ, धूमधाम से मंदिर से गाँव तक की फेरी लगाकर वापिस मंदिर आते हैं। इन्हें तरंग कहते हैं।

गोवा के अन्य मंदिरों के सामान इस मंदिर में भी इन तरंगों का महत्वपूर्ण स्थान है। फेरी लगाकर जब ये तरंगें नृत्य एवं संगीत के साथ मंदिर वापिस लौटते हैं, तब हाथों में तलवार लिए कुछ युवक इसके समक्ष युद्धविद्या प्रस्तुत करते हैं। वहीं तरंगे हाथों में उठाये भक्तगण संगीत के सुर पर नृत्य करते रहते हैं। सम्पूर्ण दृश्य अद्भुत व दर्शनीय हो जाता है।

तरंग के शीष पर विराजित देवता
तरंग के शीष पर विराजित देवता

संध्या लगभग ४ बजे छः तरंगों को एक पंक्ति में भूमि पर खड़ा किया गया। मैंने इनमें से तीन छत्रियों के ऊपर भगवान् की प्रतिमाएं देखीं। ध्यान से इन प्रतिमाओं को देखने पर मुझे नंदी पर सवार शिव दिखाई दिए। साहित्यों के अनुसार वे कदाचित अवतार पुरुष हैं। तरंगों के लाल खम्बों पर कुछ बूटियाँ रंगी गयी थीं। किन्तु मैं उन्हें समीप से नहीं देख पायी। दूर से मुझे उन खम्बों पर कुछ हाथों के चिन्ह रंगे हुए दिखे। ये तरंगें तीन पुरुषों के शीर्ष पर भात पकाने के अनुष्ठान के साक्षात साक्षी होते हैं।

इन तरंगों के साथ हाथों में तलवार लिए पुरुष खड़े रहते हैं। इस क्षेत्र में स्त्रियों का जाना प्रतिबंधित है। इसलिए हम कुछ दूरी पर बैठ गए।

गड़े

तीन पुरुष जिनके शीर्ष पर चावल पकाया जाता है, उन्हें गड़े कहते हैं। इनके अंगों पर भस्म मलकर इनके शीर्ष पर केले की पत्तियों के एक मोटी परत बांधी जाती है। इनके शीर्ष पर भात पकाकर, एक गड़े का किंचित रक्त इस भात में मिलाया जाता है। तत्पश्चात इस पके हुए भात के दानों को भीड़ पर फेंका जाता है। भात के दानों के नकारात्मक प्रभाव से बचने के लिए लोग इधर उधर भागते हैं।

शीर्षा रन्नी की प्रथा
शीर्षा रन्नी की प्रथा

वर्तमान में यह सम्पूर्ण अनुष्ठान केवल प्रतीकात्मक रूप से मनाया जाता है। किन्तु मैं सोचती हूँ, किसी काल में यह अनुष्ठान, बुरी आत्माओं को समाप्त करने के लिए, अत्यंत विस्तृत रूप में मनाया जाता रहा होगा। साथ ही क्षत्रियों को उनके धर्म का स्मरण कराने हेतु भी यह उत्सव मनाया जाता रहा होगा। यह एक अत्यंत प्रसिद्ध उत्सव है। इसके दर्शन के लिए लोगों की इतनी भीड़ थी कि अनुष्ठान स्थल से कुछ ही मीटर की दूरी पर बैठने के पश्चात भी मैं सही प्रकार से अनुष्ठान देख नहीं पा रही थी।

यह उत्सव दो वर्षों में एक बार आयोजित किया जाता है। मैंने २०१९ में यह अनुष्ठान देखा था। अनुमानतः यह प्रत्येक विषम वर्षों में आयोजित किया जाता है।

मल्लिकार्जुन मंदिर के शीर्षा रान्नी उत्सव का विडियो

वीरमल उत्सव

वीरमल उत्सव फाल्गुन मास की शुक्ल द्वादशी के दिवस आयोजित किया जाता है अर्थात् होली से तीन दिवस पूर्व।

पुरुष सम्पूर्ण दिवस व्रत-उपवास करते हैं। इन्हें भगत कहा जाता है। संगीतज्ञों संग कुल १८ भगतों का एक समूह बनाया जाता है। ऐसे कई समूह बनाए जाते हैं। इन समूहों को गड़े कहते हैं। संध्याकाल के समय, ढोल की ताल पर, गड़े तलवार हाथों में लिए घर-घर दौड़ते हैं। उन घरों के वासी उन्हें पान-सुपारी भेंट चढ़ाते हैं।

मेरे अनुमान से यह युद्ध काल के किसी अनुष्ठान का नाट्य रूपांतरण हो सकता है। अथवा गांववासियों को सुरक्षा की दृष्टी से आश्वस्त करने हेतु युवकों द्वारा किया जाने वाला कोई अनुष्ठान हो। मुझे बताया गया कि इस उत्सव के समय गाँव की बिजली भी बंद कर दी जाती है।

क्षत्रिय समाज का मंदिर

दीपस्तंभ - गोवा के मंदिरों की विशेष शैली मैं
दीपस्तंभ – गोवा के मंदिरों की विशेष शैली मैं

यह क्षत्रिय समाज अर्थात् योद्धा कुलों का मंदिर है। निःसंदेह यह मल्लिकार्जुन के स्वरूप में शिव को समर्पित मंदिर है। ठीक वैसे ही जैसे तेलंगाना में श्रीसैलम की पहाड़ियों पर है। विचित्र तथ्य यह है कि जब जब मैं इसे हिन्दू मंदिर कहती, मुझे ‘यह क्षत्रिय मंदिर है’ कहकर संशोधित किया जाता था।

मैंने कहा भी कि क्षत्रिय भी हिन्दू ही हैं। उन्होंने कहा, सत्य है। किन्तु यह मंदिर सर्व हिन्दुओं का ना होकर केवल क्षत्रियों का है। चलिए, यह भी ठीक है।

गोवा में कुल १३ मल्लिकार्जुन मंदिर हैं जिनमें कानकोण में ही ४ मंदिर हैं।

कानकोण के निकवर्ती दर्शनीय स्थल

कानकोण का मूल नाम कण्व ऋषि पर कण्वपुर था। कण्व ऋषि के विषय में आप जानते ही हैं। कुछ समय पूर्व उत्तराखंड के कण्वाश्रम में मैं भी आप सबको ले गयी थी।

पालोले समुद्रतट – यह पर्यटकों में अत्यंत प्रसिद्ध समुद्रतट है। यह सदैव पर्यटकों से भरा रहता है। शान्ति से बैठकर सूर्यास्त दर्शन करने के लिए यह सर्वोत्तम स्थान है। दो पहाड़ियों के मध्य समुद्र के जल में सूर्य को अस्त होते देखना अत्यंत अद्भुत अनुभव है।

पालोले समुद्रतट पर कई भोजन कुटियाएँ एवं भोजनालय हैं। समुद्र की लहरों का आनंद उठाते हुए आप स्वादिष्ट भोजन का स्वाद ले सकते हैं। हमने यहाँ के सुप्रसिद्ध भोजनालय, द्रोपदी के भोजन का भरपूर आस्वाद लिया।

कोटिगाओ वन्यजीव अभयारण्य – यह एक अत्यंत मनोरम वन्यजीव अभयारण्य है। वर्षा ऋतु में यह कुसके जलप्रपात जैसे कई अनेक आकर्षक जलप्रपातों से भर जाता है। कोटिगाओ वन्यजीव अभयारण्य पर मेरा विस्तृत संस्मरण पढ़ें।

बुडबुडे ताल – बुलबुलों से भरा गोवा का यह जलाशय नेत्रवती क्षेत्र में है। यहाँ एक सुन्दर स्पाइस गार्डन अर्थात् मसालों के वृक्षों का वन भी है। बुडबुडे ताल के विषय में और पढ़ें।

श्रीस्थल कैसे पहुंचें?

मल्लिकार्जुन मंदिर कानकोण - गोवा

  • श्रीस्थल गोवा की राजधानी पणजी से ७५ की.मी. दक्षिण की ओर स्थित है। यह कानकोण के तालुका मुख्यालय चावडी से ५ की.मी. की दूरी पर स्थित है।
  • मडगाव से नियमित बसें आपको यहाँ पहुंचा सकती हैं।
  • यदि आप चाहें तो टैक्सी द्वारा यहाँ पहुँच सकते हैं। श्रीस्थल पहुँचने का यह श्रेयस्कर साधन है।
  • उत्सव के दिन मंदिर में भक्तगणों, दर्शकों एवं पर्यटकों का तांता लगा रहता है। परिसर में निःशुल्क भोजन की व्यवस्था है। यह और बात है कि मंदिर में भोजन कर आप चाहें तो कुछ दान दक्षिणा अवश्य कर सकते हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कोपेश्वर मंदिर खिद्रापुर – एक अद्भुत वास्तुकला https://inditales.com/hindi/kopeshwar-mandir-khidrapur-kolhapur/ https://inditales.com/hindi/kopeshwar-mandir-khidrapur-kolhapur/#comments Wed, 11 Sep 2019 02:30:24 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1500

महाराष्ट्र में कोल्हापुर के निकट, खिद्रापुर का कोपेश्वर मंदिर चालुक्य देवालय वास्तुकला की उत्कृष्ट कृति है। कोपेश्वर मंदिर, तंजावुर के चोला मंदिरों अथवा खजुराहो के चंदेल मंदिरों की भान्ति प्रसिद्ध नहीं हो पाया है। कदाचित इस क्षेत्र में इस वास्तुकला का एक ही मंदिर होना इसका मुख्य कारण हो सकता है। अथवा इसके प्रसिद्धी प्राप्त […]

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महाराष्ट्र में कोल्हापुर के निकट, खिद्रापुर का कोपेश्वर मंदिर चालुक्य देवालय वास्तुकला की उत्कृष्ट कृति है। कोपेश्वर मंदिर, तंजावुर के चोला मंदिरों अथवा खजुराहो के चंदेल मंदिरों की भान्ति प्रसिद्ध नहीं हो पाया है। कदाचित इस क्षेत्र में इस वास्तुकला का एक ही मंदिर होना इसका मुख्य कारण हो सकता है। अथवा इसके प्रसिद्धी प्राप्त करने का निर्धारित समय कदाचित अब आया हो।

कोपेश्वर महादेव मंदिर का प्रवेश द्वार
कोपेश्वर महादेव मंदिर का प्रवेश द्वार

कोल्हापुर की यात्रा करने का मेरा प्रमुख उद्देश्य ही खिद्रापुर के कोपेश्वर महादेव मंदिर का दर्शन था। अतः कोल्हापुर में अधिक समय व्यतीत ना करते हुए, प्रातः ही हम कोल्हापुर से ७० की.मी. दूर स्थित खिद्रापुर की ओर निकल पड़े। हमारा लक्ष्य था इस गरिमामयी मंदिर के भव्य दर्शन।

खिद्रापुर का कोपेश्वर मंदिर

दोनों ओर अपेक्षाकृत नवीन घरों के मध्य स्थित, इस मंदिर के पाषाणी द्वार तथा उसकी चौखट ने हमारा स्वागत किया। द्वार की प्रथम विशेषता जिसने मेरा ध्यान आकर्षित किया, वह थी उसकी चमक। और कुछ ही क्षणों में मुझे अचंभित करने वाले थे, इससे भी अधिक चमक लिए, चिकनी सतह के स्तंभ एवं प्रतिमाएं! इन्हें देख मेरे मष्तिष्क में बिहार की बराबर गुफओं में देखी चमक की स्मृतियाँ उभर आयी।

स्वर्ग मंडप - कोपेश्वर मंदिर खिद्रापुर महाराष्ट्र
सूर्य की पहली किरणें स्वर्ग मंडप पर

भीतर प्रवेश करते ही मैंने सूर्यदेव की प्रातःकालीन किरणों में चमचमाते मंदिर को देखा। मुझे अपनी ही आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। मेरी आँखों के समक्ष मंदिर का सर्वाधिक अनुपम वास्तुशिल्प, स्वर्ग मंडप खड़ा था। मैंने तत्काल इसके भीतर प्रवेश किया। मैं पत्थर के विशाल गोलाकार मंच पर खड़ी थी जिसके चारों ओर ४८ उत्कीर्णित स्तंभ थे तथा खुला नीला आकाश जिसकी छत थी। आप कितने ही चित्र तथा विडियो देख लें, प्रत्यक्ष इस मंडप के भीतर खड़े होकर इसका अनुभव करना अतुलनीय है।

एक वयोवृद्ध माताजी ने कहा कि मैं सर्वप्रथम कोपेश्वर महादेव के दर्शन कर लूं। कदाचित वे ऐसे पर्यटकों से अभ्यस्त थीं जो मंदिर की शिल्पकारी में खो जाते हैं तथा कुछ क्षण तक भगवान् के दर्शन करना ही भूल जाते हैं। मैंने सभामंडप के भीतर प्रवेश किया। सभामंडप के अप्रतिम सौन्दर्य युक्त द्वार एवं चौखट भी पत्थर के थे। मेरे समक्ष एक और गोलाकार पत्थर का मंच था जिसके चारों ओर भी उसी प्रकार के कई स्तंभ थे। मैं कल्पना करने लगी, इस वास्तु ने कितने ही गीत-संगीत एवं नृत्य के प्रत्यक्ष अनुभव किये होंगे।

मेरी दृष्टी अनेक कहानियां कहती इन गोलाकार स्तंभों पर से उठने के लिए तैयार ही नहीं हो रही थी। कितने ही क्षणों पश्चात मैंने मंदिर की अन्य विशेषताओं पर अपना लक्ष्य केन्द्रित किया। अंतराल अर्थात् अर्ध मंडप की ओर जाते अंतराल द्वार के दायीं ओर द्वारपाल की एक इकलौती प्रतिमा थी। दूसरी ओर का स्थान रिक्त था। वहां की द्वारपाल प्रतिमा निकाल ली गयी थी या द्वारपाल मूर्ति स्थापित होने की प्रतीक्षा में थी, यह मैं नहीं जान पायी। सम्पूर्ण अंतराल मदनिकाओं अथवा सुर सुंदरियों की प्रतिमाओं से भरा हुआ था। सुन्दर आभूषणों से अलंकृत अप्रतिम सौन्दर्यपूर्ण स्त्रियों को मदनिका कहा जाता है तथा उन्हें शुभ व मंगलकारी माना जाता है।

कोपेश्वर मंदिर की उत्कीर्णित भित्तियां
कोपेश्वर मंदिर की उत्कीर्णित भित्तियां

गर्भगृह के भीतर दो लिंग हैं। इससे जुड़ी एक मनोरंजक दंतकथा भी है जो मैं आपको कुछ क्षण पश्चात बताउँगी। गर्भगृह की भित्तियों पर भी मदनिकाओं की शिल्पकारी की गयी है। यह अत्यंत दुर्लभ है। वही वयोवृद्ध माताजी ने बाईं ओर स्थित ध्यान गुफा की ओर हमारा ध्यान खींचा। वह स्थान पूर्णतः अँधेरे में था। बैठकर कर ध्यान करने के लिए वह सर्वोत्तम स्थान था।

अब समय हो चुका था कि मैं मंदिर की बाहरी भित्तियों का अवलोकन करूँ। बाहरी भित्तियों पर उत्कीर्णित ब्रम्हा, विष्णु, शिव तथा देवी की मूर्तियों के साथ विभिन्न मुद्राओं में अनेक मदनिकाओं को देख मैं स्तब्ध रह गयी। केवल कृष्ण की एक अप्रतिम एवं पूर्ण मूर्ति ने मष्तिष्क पर प्रबल छाप छोड़ी थी। वह तो हमारा गाइड शशांक था जिसने एक घंटे से भी अधिक समय हमें दिया तथा मंदिर की एक एक प्रतिमा के विषय में हमें जानकारी दी। इसके पश्चात तो मानो एक एक मूर्ति हमसे अपनी कहानी कहने लगी। हमें कल्याणी चालुक्य राजकाल में ले गयीं।

कोपेश्वर मंदिर का इतिहास

इस मंदिर की निर्माण तिथि के विषय में विभिन्न मत हैं। कुछ स्त्रोतों के अनुसार इसकी स्थापना ७वी. सदी में कदाचित बदामी चालुक्य राजाओं ने की थी। कुछ अन्य स्त्रोतों के अनुसार, इसका निर्माण कल्याणी चालुक्य के राज में ९वी.सदी में किया गया था। एक अन्य स्त्रोत इसे १२वी. सदी में शैलहार राजाओं द्वारा निर्मित दर्शाता है जो एक समय चालुक्य राजाओं के सूबेदार थे।

कोपेश्वर मंदिर - खिद्रापुर
कोपेश्वर मंदिर – खिद्रापुर

मेरे अनुमान से यह कदाचित ९वी. सदी का मंदिर है जिसमें शैलहार राजाओं ने कालान्तर में वृद्धि की। इस मंदिर के कई स्थानों पर आपको अपूर्ण तत्व भी दृष्टिगोचर होंगे। जैसे उत्तर व दक्षिण-मुख मंडप तथा स्तंभों पर अपूर्ण शिल्पकारी दिखाई पड़ती है। कई स्थानों पर नक्काशी करने के लिए किये गए चिन्ह दिखाई देते हैं। कहा जाता है ना, अपूर्ण संरचना आपको इसकी निर्मिती के विषय में अमूल्य जानकारी प्रदान करती है। मंदिर का शिखर भी शेष संरचना से मेल नहीं खाता। कदाचित कालान्तर में जोड़ा गया है| वैसे भी मंदिर निर्माण साधारणतः एक ही समय पूर्ण नहीं होता| निर्माण प्रक्रिया लम्बे समय तक चलती रहती है|

मंदिर में १२ शिलालेख हैं जिनमें ११ प्राचीन कन्नड़ भाषा में लिखित हैं तथा एक देवनागरी भाषा में है। किन्तु इनमें से एक भी शिलालेख यह जानकारी प्रदान नहीं करता कि इस मंदिर का निर्माण किसने एवं कब करवाया था। १२०४ ई. का एक शिलालेख यह अवश्य कहता है कि देवगिरी के यादव राजाओं ने मंदिर का पुनरुद्धार किया था। इसका तात्पर्य यह है कि यह मंदिर १२वी. सदी से पूर्व भी अस्तित्व में था।

१७०२ ई. में औरन्गजेब ने इस मंदिर पर आक्रमण किया था। इसके चिन्ह मंदिर के खंडित भागों पर चारों ओर दृष्टिगोचर हैं। अधिकतर प्रतिमाओं के मुख एवं हाथ भंगित हैं तथा अस्त्र-शस्त्र भी खंडित हैं। उसी प्रकार मंदिर जिस मंच पर खड़ा है उस मंच को आधार देते कई हाथियों के सूंड भी छिन्न-भिन्न हैं।

कोपेश्वर महादेव की कथा

ऐसा कहा जाता है कि प्रत्येक किवदंती किसी ना किसी प्रकार से देवी सती द्वारा दक्ष के यज्ञकुण्ड में प्राण देने की कथा से आरम्भ होती है। कोपेश्वर महादेव इसी मूल कथा के एक क्षण को स्मरण करता है। सती द्वारा दक्ष के यज्ञ कुण्ड में प्राण देने के पश्चात भगवान् शिव के क्रोध की सीमा नहीं थी। वे सती के पार्थिव देह को उठाये क्रोध में तांडव नृत्य करने लगे थे। चारों ओर हाहाकार मच गया था।

नंदी पे सवार शिव-पार्वती
नंदी पे सवार शिव-पार्वती

तब भगवान् विष्णु को उनका क्रोध शांत करने आना पड़ा था। यह मंदिर इसी क्षण का प्रतीक है। मानो इस मंदिर में वह क्षण सदैव के लिए थम गया हो। क्रोधित अर्थात् कुपित शिव को कोपेश्वर कहा गया है। इसी कारण मंदिर में दो लिंग हैं। एक लिंग भगवान् शिव का तथा दूसरा लिंग उनका क्रोध शांत करते विष्णु का रूप है।

नंदी जो प्रत्येक शिव मंदिर का अभिन्न अंग होता है, इस मंदिर में अनुपस्थित है। यह बिना कारण नहीं है। जिस समय की यह घटना है, नंदी सती के साथ उनके पिता दक्ष के निवास स्थान गए थे। इसीलिए वे यहाँ उपस्थित नहीं थे। ऐसी मान्यता है कि दक्ष का निवास स्थान हरिद्वार के कनखल में था, किन्तु महाराष्ट्र के निवासियों का मानना है कि वह कृष्णा नदी से कुछ की.मी. दूर यदुर गाँव में था। इस गाँव के वीरभद्र मंदिर के भीतर स्थित नंदी इस कोपेश्वर मंदिर की ओर देखते हुए प्रतीत होते हैं। यद्यपि वीरभद्र मंदिर के दर्शन मैंने अब तक नहीं किये हैं, कदाचित इसका अवसर मुझे शीघ्र प्राप्त होगा।

मेरे मष्तिष्क में एक विचार कौंध रहा है, क्या यहाँ अनेक मदनिकाओं की उपस्थिति, विशेषतः गर्भगृह के भीतर, कोपेश्वर महादेव का क्रोध शांत करने हेतु है?

कोपेश्वर मंदिर का वास्तुशिल्प

शिल्प शास्त्र के आधार पर यह मंदिर कदाचित महाराष्ट्र का सर्वाधिक संपन्न मंदिर हो सकता है।

इस मंदिर के निर्माण में प्रयुक्त घनिष्ठ बसाल्ट शिलायें सह्याद्री पर्वत श्रंखला से लाई गयी हैं जिसका यहाँ से निकटतम बिंदु लगभग ६० की.मी. दूर है। अतः यह सर्वविदित है कि इन शिलाओं को पंचगंगा तथा कृष्णा नदियों को पार कर के ही लाया गया होगा। इसके आधार पर हम कह सकते हैं कि एक समय हमारी अधिकतर नदियों पर जल परिवहन के उत्तम साधन उपलब्ध थे।

आईये इस मनमोहक मंदिर की अप्रतिम वास्तुकला का विस्तृत अवलोकन करते हैं।

स्वर्ग मंडप

कोपेश्वर मंदिर खिद्रापुर - स्वर्ग मंडप
कोपेश्वर मंदिर खिद्रापुर स्वर्ग मंडप

गोलाकार खुली छत लिए इस स्वर्ग मंडप की उत्कृष्ट उत्कीर्णित संरचना इस मंदिर की सर्वाधिक अनूठी विशेषता है। सम्पूर्ण भारत में मैंने ऐसा अद्भुत शिल्प नहीं देखा। ना ही विश्व के किसी कोने में ऐसी संरचना उपस्थित होने के विषय में सुना है।

स्वर्ग मंडप मंदिर का प्रथम भाग है जिस पर आपकी दृष्टी मंदिर के भीतर प्रवेश करते से ही पड़ेगी। अत्यंत सूक्ष्म अंतर से यह मुख्य मंदिर से पृथक है। मंडप की गोलाकार संरचना ४८ स्तंभों पर स्थिर है। प्रत्येक स्तंभ सुन्दरता से उत्कीर्णित है। बाहर से देखने पर यह छत से लटके उल्टे कमल सा प्रतीत होता है।

१२ स्तंभों पर विराजमान १२ देवतागण
१२ स्तंभों पर विराजमान १२ देवतागण

छत से १२ आड़े दंड निकले हुए हैं जो संरचना के भीतर एवं बाहर दोनों ओर दृष्टिगोचर हैं।

दंडों के भीतरी सतह पर १२ देवों की प्रतिमाएं उत्कीर्णित हैं। इनमें ८ दिशाओं के ८ आराध्य, जिन्हें दिगपाल भी कहा जाता है, सम्बंधित दिशाओं में स्थित हैं। शेष ४ प्रतिमाएं विष्णु, कार्तिक, सूर्य तथा शिव की हैं। सभी देव अपनी शक्तियों के साथ, अपने अपने वाहनों पर आरूढ़ हैं। केवल कार्तिक की एकल प्रतिमा है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि वे ब्रम्हचारी थे।

स्वर्ग मंडप कोपेश्वर मंदिर के स्तम्भ
स्वर्ग मंडप कोपेश्वर मंदिर के स्तम्भ

इन प्रतिमाओं को गढने से पूर्व जिस प्रकार की कल्पना शिल्पकारों ने की होगी, उसके विषय में विचार कर अचंभित होना स्वाभाविक है। इन प्रतिमाओं को यदि सामने से निहारा जाय तो देव अकेले ही अपने वाहनों पर सवार प्रतीत होते हैं। किन्तु यदि इन्हें एक ओर से निहारा जाय तो ये अपनी देवी समेत वाहन पर सवार दृष्टिगोचर होते हैं। आप भी इन्हें देख शिल्पकारों की कल्पनाशक्ति एवं कला पर मोहित हुए बिना नहीं रह सकते। आप अवश्य इस सोच में पड़ जायेंगे कि ऐसी अद्भुत शिल्पकारी एवं कलाकौशल्य हमने कब, कहाँ व कैसे खो दी!

एक स्तम्भ के शिखर पर विष्णु और लक्ष्मी
एक स्तम्भ के शिखर पर विष्णु और लक्ष्मी

छत पर बने गोलाकार छिद्र के ही माप का नीचे धरती पर गोलाकार पाषाणी पाट है जिसे रंगशिला भी कहा जाता है। इसका व्यास लगभग १४ फीट का है। इसे अखंड शिला से बनाया गया है। एक ही व्यास का पाट तथा उसके ठीक ऊपर उसी व्यास का छिद्र, शिल्पकारों के गणितीय ज्ञान का अद्भुत उदाहरण है।

कोपेश्वर मंदिर पर एक विडियो

स्वर्ग मंडप के खुले भाग के चारों ओर स्थित ४८ स्तंभों पर ज्यामितीय आकृतियाँ उत्कीर्णित हैं। उसकी घातुई चमक का अनुमान देखे बिना नहीं लगाया जा सकता। इनमें से १२ स्तंभ रंगशिला को घेरे हुए हैं। इन स्तंभों के आधार पर भिन्न भिन्न देवालय वास्तुकला से नक्काशी की गयी है। स्तंभ की गोलाई में एक संकरी पट्टी है जिस पर विभिन्न पुष्प उत्कीर्णित हैं।

आपके मष्तिष्क में भी वही प्रश्न उभरा होगा जिसका उत्तर मैं भी जानना चाहती थी! अंततः छत खुली क्यों है? एक तर्कसंगत उत्तर मुझे प्राप्त हुआ कि इस स्थान पर यज्ञ व हवन किये जाते थे। अतः खुली छत की आवश्यकता थी। एक अन्य उत्तर के अनुसार मंदिर के भीतर से आकाश निहारने के लिए छत खुली रखी गयी थी। जैसा कि हम सब जानते हैं, सृष्टि की रचना में जिन पांच तत्वों का प्रयोग हुआ है, इनमें आकाश एक है। स्वर्ग मंडप ने अपने नाम इसी खुली छत के कारण प्राप्त किया है। जी हाँ, ऐसा माना जाता था कि इस खुली छत द्वारा आप स्वर्ग देख सकते हैं।

मुक्त आकाश की वास्तुकला

मेरे तार्किक मष्तिष्क ने एक क्षण यह विचार अवश्य किया था कि छत ना होने का कारण कदाचित अपूर्ण संरचना होगी अथवा किसी काल में छत गिर गयी होगी। मेरी जिज्ञासा जल्दी ही शांत हो गयी जब मेरी दृष्टी एक सुगठित नलिका पर पड़ी जिसके द्वारा मंदिर के भीतर से जल निकासी की जाती थी। अतः योजनाकारों ने मंदिर की खुली छत की ही कल्पना की होगी।

इस स्थान का प्रयोग कदाचित सांस्कृतिक प्रदर्शनों के लिए किया जाता रहा होगा क्योंकि आप यहाँ विभिन्न तलों पर प्राथमिक स्तर की बैठने की व्यवस्था देख सकते हैं। यह एक छोटे रंगभूमि का आभास देते हैं। खुली छत का उपयोग ध्वनी सुधारक के रूप में होता था या नहीं, यह ज्ञात करना शेष है।

स्वर्ग मंडप के रंगशिला के मध्य खड़े होकर, स्वर्ग मंडप की सुन्दरता तथा विलक्षण वास्तुकला में स्वयं को सराबोर करने के पश्चात, मैंने मंदिर की ओर दृष्टी घुमाई। मेरे अचरज की सीमा ना रही जब मैंने सनातन धर्म के त्रिमूर्ति, ब्रम्हा, विष्णु व महेश, तीनों को एक ही चौखट में समाते देखा। मंदिर के भीतर, अधिष्टाता देव के रूप में शिव हैं, मंदिर की बाईं भित्ति पर ब्रम्हा विराजमान हैं तथा दायीं भित्ति पर विष्णु। अचरज की बात यह है कि इस बिंदु से केवल ये तीन देव ही दृष्टिगोचर हैं, दूसरे नहीं!

सभा मंडप

कोपेश्वर मंदिर के सभा मंडप का प्रवेश द्वार
कोपेश्वर मंदिर के सभा मंडप का प्रवेश द्वार

स्वर्ग मंडप से पृथक, यह सभा मंडप मुख्य मंदिर का एक भाग है। इसके आकर्षक चौखट के ऊपर सरस्वती जी की मूर्ति तथा दोनों ओर पूर्ण कलश हैं। द्वार के दोनों पलड़ों के निचले भाग पर १० द्वारपाल हैं। ५ द्वारपाल प्रत्येक द्वार पर। प्रतिमायें पूर्णतः अलंकृत एवं सज्ज हैं। उनकी गदाएँ भंगित होते हुए भी ये प्रतिमाएं अत्यंत मनभावन हैं। द्वार के नीचे पौराणिक पशु व्याल की प्रतिमा है।

चालुक्य वास्तुकला के जालीदार गवाक्ष
चालुक्य वास्तुकला के जालीदार गवाक्ष

जाली युक्त झरोखों के चौराहों पर पुष्पाकृति का शिल्प है जो चालुक्य वास्तु का जीवंत उदाहरण है। द्वार के समक्ष एक अपूर्ण चंद्रशिला उत्कीर्णित है।

सभा मंडप के भीतर स्वर्ग मंडप की ज्यामितीय आकृतियाँ दुहराई गयी हैं। अंतर केवल छत का है। सभा मंडप छत से ढंका हुआ है। यहाँ तीन परिधियों में ६० स्तंभ हैं। अंतिम परिधि भित्त में सन्निहित है। चार कोनों में स्थित स्तंभ शेष स्तंभों से अपेक्षाकृत बड़े हैं।

सभा मंडप के स्तम्भ पर उत्कृष्ट कीर्तिमुख
सभा मंडप के स्तम्भ पर उत्कृष्ट कीर्तिमुख

प्रत्येक स्तंभ पर आप एक कीर्तिमुख देखेंगे। ध्यान से देखने पर आपको ज्ञात होगा कि प्रत्येक कीर्तिमुख भिन्न शैली का है तथा उन पर आकृतियाँ भी भिन्न हैं। आकृतियों में मोर, मगरमच्छ, नर्तक, गरुड़ जैसे वाहन, आराध्य जैसे विष्णुजी व शिवजी , साधू, फल, पुष्प इत्यादि सम्मिलित हैं। काले बसाल्ट पत्थर की चमक किसी आईने से कम नहीं थी।
स्तंभ

मकर, मयूर एवं पूर्ण कुम्भ - कोपेश्वर मंदिर में मंगल चिन्ह
मकर, मयूर एवं पूर्ण कुम्भ – कोपेश्वर मंदिर में मंगल चिन्ह

कुछ स्तंभों पर मैंने सूक्ष्म प्रतिमाएं देखी। इतनी छोटी प्रतिमाओं को भी पूर्ण दक्षता से उत्कीर्णित किया गया है। प्रत्येक प्रतिमा सम्पूर्ण है। विष्णु एवं लक्ष्मी की भी सूक्ष्म प्रतिमा उत्कीर्णित की गयी थी। उन पर सम्पूर्ण आभूषण एवं अन्य अलंकार विस्तृत रूप से उपस्थित हैं। प्रतिमाओं की बारीकियाँ इतनी स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती हैं कि इन्हें हम सरलता से पहचान सकते हैं।

पाषाण में गढ़ी जातक कथाएं - कोपेश्वर मंदिर कोल्हापुर
पाषाण में गढ़ी जातक कथाएं

मैंने स्तंभों पर दो जातक कथाएं भी उत्कीर्णित देखीं। हम भी इन्हें सरलता से पहचान जायेंगे। एक कथा है, मगर एवं बन्दर की तथा दूसरी है, बड़बोले कछुए की। एक स्तंभ पर वसंत ऋतु का चित्रण था। नर्तकों एवं पशुओं के दर्पण प्रतिबिम्ब भी थे। महाकाव्य रामायण के भी कुछ चित्रण थे जिनमें हनुमान को राम एवं लक्ष्मण के साथ दर्शाया गया है। कुछ स्तंभों पर उत्कीर्णित आकृतियाँ अपूर्ण हैं।

सभा मंडप के मध्य में भी एक गोलाकार रंगशिला है। गर्भगृह के भीतर स्थित देव के सम्मान में कदाचित यहाँ कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते थे अथवा पूजा अर्पित करते थे।

एक कोने में एक एकल शिला पर सप्तमात्रिका की प्रतिमा है। एक आले पर स्थित भैरव की प्रतिमा अपेक्षाकृत नवीन प्रतीत होती है।

द्वारपाल

द्वारपाल प्रतिमा - कोपेश्वर मंदिर खिद्रापुर
द्वारपाल की प्रतिमा पर उत्कृष्ट कलाकारी

सभा मंडप की सर्वाधिक उत्कृष्ट कृति है अंतराल के बाहर बनी द्वारपालों की प्रतिमाएं। ये प्रतिमाएं विस्तृत रूप से अलंकृत हैं। आभूषणों की सूक्ष्म शिल्पकारी उन्हें अत्यंत आकर्षक रूप प्रदान कर रही है। आभूषणों की यह शैली हम आज भी कोल्हापुर के बाजारों में देख सकते हैं। शीर्ष पर मुंड-माँला की पंक्ति है।

अंतराल

चौकोर अंतराल में भी सुन्दर आकृतियाँ उत्कीर्णित हैं। मंदिर के द्वार की चौखट यहाँ से आप देख सकते हैं। अंतराल के दाहिने भित्त पर प्राचीन कन्नड़ भाषा में शिलालेख हैं।

गर्भगृह

गर्भगृह के भीतर प्रवेश करने के लिए हमने एक उत्कीर्णित चंद्रशिला को पार किया। चंद्रशिला पर शंखों एवं मगरमच्छों की उत्कृष्ट शिल्पकारी की गयी थी। चौखट के ऊपर लक्ष्मी की प्रतिमा थी। द्वार के चारों ओर की नक्काशी पर जीवनचक्र का चित्रण था। इनके साथ पूर्ण कुंभ, मकर, घड़े, मगर एवं मोर जैसे पवित्र चिन्ह भी उत्कीर्णित थे।

चंद्रशिला - कोपेह्स्वर महादेव मंदिर गर्भगृह
चंद्रशिला – कोपेह्स्वर महादेव मंदिर गर्भगृह

गर्भगृह की अनोखी विशेषता है उसके भित्तियों पर उत्कीर्णित मदनिकाओं की प्रतिमाएं। आप इस गर्भगृह के भीतर इसकी भित्तियों पर अनेक मदनिकाएं देखेंगे। दुर्भाग्यवश अधिकतर प्रतिमाएं खंडित हैं।

जिन दो लिंगों के विषय में मैंने पूर्व में लिखा है, वे शिव एवं विष्णु के लिंग मंदिर के आधार तल पर स्थापित हैं। एक पुजारी नियमित इनकी पूजा अर्चना करता है। इन्हें कोपेश्वर एवं धोपेश्वर लिंग कहा जाता है।

कोपेश्वर एवं धोपेश्वर लिंग

जैसा कि मैंने पूर्व में कहा है, गर्भगृह के भीतर दो लिंग हैं, प्रथम लिंग शिवजी का स्वरूप कोपेश्वर है तथा दूसरा लिंग विष्णुजी का रूप धोपेश्वर है। विष्णु लिंग धोपेश्वर यहाँ शिव के कोप नाशक एवं शान्ति प्रदायक के रूप में है। यह मंदिर उस क्षण का आनंदोत्सव मनाता है जिस क्षण विष्णुजी ने शिवजी के क्रोध को शांत किया था। इसीलिए शिव एवं विष्णु दोनों यहाँ लिंग स्वरूप विराजमान हैं।

तारक कुंड - कोपेश्वर महादेव मंदिर
अनूठा तारक कुंड

हमने यहाँ कोपेश्वर शिवलिंग का एक अनोखा श्रृंगार देखा। दही-भात! जी हाँ दही-भात से उनका अभिषेक किया गया था। इसका कारण भी आप समझ गए होंगे। दही-भात शीतलता प्रदान करता है। ग्रीष्म ऋतू में महाशिवरात्री से आषाढ़ शुक्ल पंचमी तक प्रतिदिन कोपेश्वर लिंग का दही-भात द्वारा अभिषेक किया जाता है। इसे कन्नड़ भाषा में भुक्ति अभिषेक तथा मराठी भाषा में दही-भात अभिषेक कहते हैं।

मैंने इससे पूर्व किसी भी मंदिर में इतना मधुर अभिषेक नहीं देखा था। प्रातःकाल, पुजारीजी ४ घंटे व्यतीत कर दही-भात से लिंग के ऊपर शिव की प्रतिमा गड़ते हैं तथा उनके आसपास गणेश एवं नंदी की प्रतिमाएं बनाते हैं। इन दो मासों में प्रतिदिन यह परंपरा निभाई जाती है। यदि आप कोपेश्वर लिंग के सम्पूर्ण श्रृंगार का अवलोकन करना चाहते हैं तो आप इन दो मासकाल के भीतर आईये तथा दोपहर से पूर्व लिंग के दर्शन करिये।

आसपास के विद्यालयों में पढ़ने वाले बालक-बालिकाएं, अपने श्वेत व गुलाबी चारखानों की वर्दी धारण कर, प्रातः विद्यालय की ओर प्रस्थान करने से पूर्व मंदिर में देव के दर्शन करने आ रहे थे। उनकी यह दिनचर्या देख मन अत्यंत प्रसन्न हो उठा।
यद्यपि कोपेश्वर महादेव मंदिर का सर्वाधित महत्वपूर्ण एवं बड़ा उत्सव है महाशिवरात्रि। तथापि प्रत्येक सोमवार के दिन भी मंदिर में शिव की उत्सव मूर्ति की शोभायात्रा निकाली जाती है।

मंदिर की बाहरी भित्तियाँ

मंदिर की बाहरी भित्तियाँ मंदिर के सामान ही उत्कृष्ट एवं मनोहारी हैं।

गज पट्ट पर स्वर देवी देवता
गज पट्ट पर स्वर देवी देवता

हमारी दृष्टीस्तर पर, मंदिर की भित्तियों पर एक पट्टिका है जिस पर ९२ गज प्रतिमाएं हैं जो मंदिर को चारों ओर से घेरे हुए हैं। इन्हें देख ऐसा प्रतीत होता है मानो ये ९२ गज सम्पूर्ण मंदिर को अपनी पीठ पर उठाये हुए हैं। ये इस मंदिर को विशेष आयाम प्रदान करते हैं। प्रत्येक गज की प्रतिमा भिन्न है। उनके आभूषण भिन्न हैं। उन पर सवार देव-देवता भी भिन्न हैं।

यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि आक्रमणकारियों ने अधिकतर गजों की सूंडे भंगित कर दी है। कुछ प्रतिमाएं, जिनकी सूंड अब तक अखंडित है, उन्हें देख आप अनुमान लगा सकते हैं कि किसी काल में, आम एवं गन्ने उठाये ये गज कितने मनमोहक दिखाई दिए होंगे। ऐसी ही गज पट्टिका आप दिल्ली के अक्षरधाम मंदिर में भी देख सकते हैं।

मरीचिका, बंसीधर कृष्ण एवं भुजंग त्रसित मंदिका
मरीचिका, बंसीधर कृष्ण एवं भुजंग त्रसित मंदिका

मंदिर की तीन भित्तियों पर शिव पार्वती की प्रतिमाएं है जिनके दोनों ओर ब्रम्हा एवं विष्णु की प्रतिमाएं हैं। आपको देखकर अचरज होगा कि प्रत्येक प्रतिमा की शैली भिन्न है। कहीं कोई समानता आपको नहीं दिखाई देगी। मगरमच्छ के आकार का व्यालमुख अत्यंत सुन्दर है। इससे गिरता जल एक अनोखे सितारे के आकार के कुण्ड में एकत्र होता है।

बाहरी भित्तियों पर उत्कीर्णित देवी-देवताओं की प्रतिमाएं

सभा मंडप के चारों कोनों पर प्रमुख देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उत्कीर्णित हैं। आप ब्रम्हा, विष्णु, गणपति, मुरलीधर रूपी कृष्ण, शिव, देवी, भैरव, बाली, वामन, चन्द्र, सूर्य, अर्धनारीश्वर, मदन, रति, सरस्वती, गंगा, महिषासुरमर्दिनी, नटराज इत्यादि को विभिन्न मुद्राओं में देख सकते हैं।

रामायण एवं महाभारत के भी कई दृश्य दर्शाए गए हैं, जैसे हनुमान के संग राम, अंगूठी पकड़ी हुई सीता, भीम, द्रौपदी इत्यादि। अधिकतर देवी देवताओं को गजारूढ़ दर्शाया गया है, केवल शिव व पार्वती सदैव अपने वाहन नंदी पर आरूढ़ हैं।

सभा मंडप के प्रत्येक द्वार के दोनों ओर ५-५ द्वारपाल हैं। दक्षिणी द्वार पर स्थित द्वितीय द्वारपाल की मूर्ति भंगित है। यहाँ १० द्वारपालों में से ७ द्वारपाल स्त्रियाँ हैं।

द्वार के समीप देवनागरी लिपि में संस्कृत के शिलालेख हैं जो बताते हैं कि यादव वंश के सघन देव ने १२१४ ई. में इस मंदिर का पुनरुद्धार किया था। इस शिलालेख के ऊपर सूर्य एवं चन्द्र की आकृतियाँ उत्कीर्णित हैं। शिलालेख के नीचे दर्शाए दृश्य में एक पुरोहत एक शिवलिंग का अभिषेक कर रहे हैं। साथ में गौमाता एवं तलवार भी हैं। बाईं ओर एक शंख है जो यादवों का राजचिंह है। जैसा कि आप जानते हैं, यादव, विष्णु अवतार, कृष्ण के वंशज हैं।

सभा मंडप के उत्तरी एवं दक्षिणी, दोनों द्वारों पर आप अपूर्ण संरचना देखेंगे। उन्हें देख ऐसा प्रतीत होता है कि इनकी योजना बनायी गयी थी किन्तु इन्हें कभी पूर्ण नहीं किया गया। क्या इन्हें हम अब अर्थात् २१वी. सदी में पूर्ण कर सकते हैं? अवश्य। आवश्यक है अद्भुत शिल्पकला में निपुण उस जैसे हाथों की जिन्होंने इन शिलाओं को सुन्दरता से तराशा है।

मदनिकाएं

विषकन्या, मृदंग वादिनी एवं पत्रलेखा मदनिकाएं
विषकन्या, मृदंग वादिनी एवं पत्रलेखा मदनिकाएं

खिद्रापुर के कोपेश्वर महादेव मंदिर की अति सुन्दर रचना है ये मदनिकाएं।

कुछ मदनिकाएं जो मेरे ध्यान में अब भी हैं, वह इस प्रकार हैं:
• मृदंगवादिनी – मृदंग बजाती मदनिका, जिन्हें मर्दला भी कहते हैं।
• विषकन्या – हाथों एवं पैरों पर सर्प धारण की हुई मदनिका।
• शुक सारिका – तोते के साथ मदनिका।
• पत्रलेखा – पत्र लिखती हुई मदनिका। इस मंदिर में इस प्रकार की तीन मदनिकाएं उत्कीर्णित हैं जो क्रमशः पत्र का आरम्भ, मध्य भाग एवं अंतिम भाग लिख रही हैं।
• मरीचिका – हाथों में धनुष धारण किये हुए मदनिका।
• मदनिका जिसके वस्त्र एक वानर खींच रहा है।
• चामरवाहिनी – हाथों में चामर पकड़ी मदनिका।
• नर्तकी – विभिन्न नृत्य मुद्राओं में मदनिकाएं।
• वीणावाहिनी – वीणा पकड़ी हुई मदनिका।
• शालभंजिका – वृक्ष की शाखा पकड़ी हुई मदनिका।
• भुजंग त्रासिता – सर्प से भयभीत मदनिका।
• कंदुक क्रीड़ा मगन – कंदुक खेलने में मग्न मदनिकाएं।
• पिचकारी से होली खेलती मदनिकाएं।

यदि आप ध्यानपूर्वक इन मदनिकाओं को देखेंगे तो आपको प्रत्येक काल के वस्त्रालंकार एवं आभूषण शैली दृष्टिगोचर होंगी। कुछ घुंघराले व कुछ सीधे केश, विभिन्न केश सज्जा शैली,नख कला, नीची व ऊंची एड़ी के चप्पल, श्रृंगार सामग्री, आभूषण, कमरबंद, वस्त्रों पर शीशे का कार्य, नाना प्रकार के अलंकार इत्यादि आप इन मदनिकाओं की प्रतिमाओं पर देख सकते हैं।

मंदिर की भीतरी भित्तियों पर जहां सूर्य व वर्षा का दुष्प्रभाव नहीं पड़ा है, वहां की मूर्तियों की सतह इतनी चमकदार है मानो इन्हें कल ही चमकाया गया हो। आप कल्पना कर सकते हैं, जब यह मंदिर नवीन था तब सब प्रतिमाओं की चमक कितनी अद्भुत रही होगी।

मदनिकाओं की प्रतिमाओं के मध्य अचानक आप कुछ विदेशी जोड़ों की प्रतिमा देखेंगे। उनकी निराली दाड़ी से वे अरबी तथा चीनी प्रतीत होते हैं। कदाचित ये प्रतिमाएं पूर्वी तथा पश्चिमी देशों से हमारे व्यापार सम्बन्ध दर्शाते हुए हमारे शिल्पों में सदा से ही बसे हुए हैं।

शिखर

जब आप मंदिर के एक ओर खड़े होकर सम्पूर्ण मंदिर पर दृष्टी डालेंगे तब मंदिर एवं उसके शिखर की शिल्प शैली में विशाल अंतर आपके ध्यान में अवश्य आएगा। कदाचित मंदिर का शिखर बाद में जोड़ा गया है। कदाचित मंदिर सम्पूर्ण करने की शीघ्रता में वास्तु शैली की भिन्नता पर ध्यान नहीं दिया गया हो।

कई बार मंदिर के भीतर-बाहर आते-जाते मैंने सम्पूर्ण मंदिर को अपने कैमरे में लेने का अथक प्रयास किया। एक एक बारीकियों पर कई छायाचित्र एवं चलचित्र लिए। अब यहाँ से विदा होने का समय हो चला था। किन्तु यहाँ से जाने से पूर्व मैंने इस मंदिर को भारत के अत्यंत दर्शनीय मंदिरों की सूची में अवश्य सम्मिलित कर लिया था।

खिद्रापुर के जैन मंदिर

कोपेश्वर महादेव मन्दिर से २०० मीटर दूर एक छोटा जैन मंदिर है। इसकी वास्तु शैली भी कोपेश्वर मंदिर के सामान है, किन्तु आकार में यह अत्यंत छोटा है। यह मंदिर जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर, आदिनाथ को समर्पित है।

इस मंदिर के शिखर पर रंग-रोगन किया हुआ है तथा उस पर जैन मूर्तियाँ हैं। किन्तु मुख्य मंदिर पत्थर से निर्मित है तथा उस पर भी सुन्दर मदनिकाएं उत्कीर्णित हैं।

मंदिर के समक्ष एक ऊंचा नंदी दीप है।

कोपेश्वर मंदिर कैसे पहुंचे?

कोपेश्वर मंदिर खिद्रापुरखिद्रापुर अपने निकटतम नगर कोल्हापुर से लगभग ७० की.मी. की दूरी पर है। आप यहाँ कर्नाटक के बेलगावी नगर से भी आ सकते हैं।

कोल्हापुर से सड़क मार्ग द्वारा आप २ घंटे में पहुँच सकते हैं। हम प्रातः शीघ्र ही खिद्रापुर के लिए निकले थे। अतः हमें केवल ९० मिनटों का समय लगा।

कोपेश्वर मंदिर के दर्शन के साथ आप पंच गंगा एवं कृष्णा नदी के संगम पर स्थित नरसिंहवाडी एवं जयसिंगपुर के नवीन गणेश मंदिर के भी दर्शन कर सकते हैं। समीप स्थित जैन मंदिर भी अवश्य देखिये।

मैंने कोपेश्वर मंदिर में ६-७ घंटे का समय व्यतीत किया था क्योंकि मैं इस पर मुग्ध हो गयी थी तथा इसका ध्यानपूर्वक अवलोकन करना चाहती थी। साधारणतः आपको इस मंदिर के दर्शन के लिए २ घंटे पर्याप्त होंगे।

मेरी सलाह है कि आप कोपेश्वर मंदिर दर्शन के लिए महाराष्ट्र पर्यटन विकास निगम MTDC अनुमोदित गाइड श्री. शशांक छोटे की सहायता अवश्य लें। आप shashank5889@gmail.com अथवा 88880 05889 पर उनसे संपर्क कर सकते हैं।

यूँ तो मंदिर सूर्योदय से सूर्यास्त तक खुला रहता है। चूंकि यह एक खुला मंदिर है। आप किसी भी समय इसके दर्शन कर सकते हैं।

स्वर्ग मंदिर के भीतर छायाचित्रण की अनुमति है। मंदिर के बाहर सभी स्थान पर आप छायाचित्रण कर सकते हैं। मंदिर के भीतर चित्र खींचने के लिए आप मंदिर के पुजारी अथवा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग से पूर्व-अनुमति प्राप्त कर लें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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चाँद बावड़ी – आभानेरी की मनमोहक कहानी https://inditales.com/hindi/abhaneri-chand-baori-rajasthan/ https://inditales.com/hindi/abhaneri-chand-baori-rajasthan/#comments Wed, 16 May 2018 02:30:12 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=763

जयपुर, राजस्थान के समीप आभानेरी गाँव में स्थित चाँद बावड़ी भारत की सबसे सुन्दर बावड़ी है। मैं तो इसे सर्वाधिक चित्रीकरण योग्य बावड़ी भी मानती हूँ। यह १३ तल गहरी बावड़ी है। बावड़ी के भीतर, जल सतह तक पहुँचती सीड़ियों की सममितीय त्रिकोणीय संरचना देख आप दांतों तले उंगली दबा लेंगे। राजस्थान एक सूखा रेगिस्तानी […]

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जयपुर, राजस्थान के समीप आभानेरी गाँव में स्थित चाँद बावड़ी भारत की सबसे सुन्दर बावड़ी है। मैं तो इसे सर्वाधिक चित्रीकरण योग्य बावड़ी भी मानती हूँ।

चाँद बावड़ी - आभानेरी - राजस्थान
चाँद बावड़ी – आभानेरी – राजस्थान

यह १३ तल गहरी बावड़ी है। बावड़ी के भीतर, जल सतह तक पहुँचती सीड़ियों की सममितीय त्रिकोणीय संरचना देख आप दांतों तले उंगली दबा लेंगे। राजस्थान एक सूखा रेगिस्तानी प्रदेश होने के कारण यहाँ बावड़ियों का निर्माण सामान्य है। उत्क्रुष्ट जल प्रबंधन प्रणाली होने के साथ साथ ये बावड़ियाँ ग्रीष्म ऋतू में वातावरण में शीतलता भी प्रदान करती हैं। शोचनीय तथ्य यह है कि एक जल प्रबंधन प्रणाली को वास्तुशिल्पीय दृष्टी से इतना मनमोहक निर्मित करने के पीछे क्या हेतु था? कहीं ऐसा तो नहीं कि ९वी शताब्दी की सर्व सार्वजनिक संरचनाएं इतनी ही मनोहारी हुआ करती थीं और हमारी धरोहर स्वरुप कुछ ही शेष है? यदि यह सत्य है तो उस युग के भारत को विश्व का चमकता हीरा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।

जयपुर आभानेरी की चाँद बावड़ी

आभानेरी चाँद बावड़ी का इतिहास

चाँद बावड़ी के सोपान
चाँद बावड़ी के सोपान

चाँद बावड़ी राजस्थान की तथा कदाचित सम्पूर्ण भारत की प्राचीनतम बावड़ी है जो अब भी सजीव है। भारत की इस सर्वाधिक गहरी बावड़ी का निर्माण निकुम्भ वंश के राजा चंदा या चंद्रा ने ८वी से ९वी शताब्दी में करवाया था। १२०० से १३०० वर्ष प्राचीन यह संरचना ताजमहल, खजुराहो के मंदिर तथा चोल मंदिरों से भी प्राचीन हैं किन्तु अजंता एवं एलोरा गुफाओं के शिल्पों से अपेक्षाकृत नवीन हैं।

आभा नगरी अर्थात् चमकने वाला नगर, जयपुर-आगरा मार्ग पर स्थित एक छोटा क़स्बा है जिसे राजा चाँद ने बसाया था। रोमांचक बावड़ियों एवं माता मंदिर हेतु प्रसिद्ध इस कस्बे का नाम कालान्तर में आभानेरी में परिवर्तित हो गया।

आईये ९वीं शताब्दी में निर्मित इस बावड़ी अर्थात् वाव या पुष्कर्णी के २१वी. शताब्दी के रूप से आपका परिचय कराती हूँ-

चाँद बावड़ी के दर्शन

त्रिकोण सोपान - चाँद बावड़ी - आभानेरी
त्रिकोण सोपान – चाँद बावड़ी – आभानेरी

इस आकर्षक बावड़ी के कई चित्र देखने के पश्चात मैं पहले ही इस पर मंत्रमुग्ध थी। इस अद्भुत बावड़ी के प्रत्यक्ष दर्शन करने के विचार से मन रोमांचित हो उठा था। एक ऊंचे मंडप से होकर इस बावड़ी के परिसर पर पहुँची। वहां कुछ स्त्रियाँ एक शिवलिंग की पूजा कर रही थीं। कुछ पग आगे चल कर जो दृश्य देखा मेरे रोंगटे खड़े हो गए। चित्रों में जिस आकर्षक बावड़ी को देखा था, प्रत्यक्ष में यह बावड़ी उससे कहीं अधिक भव्य एवं प्रभावशाली प्रतीत हुई। कुछ क्षण मंत्रमुग्ध होकर मैं उस बावड़ी को ताकती रही। सचेत होने पर बावड़ी का सूक्ष्मता से निरिक्षण आरम्भ किया।

चाँद बावड़ी का वास्तु शिल्प

चाँद बावड़ी के प्रथम दर्शन
चाँद बावड़ी के प्रथम दर्शन

१९.५ मीटर गहरी इस बावड़ी की तीन भित्तियों पर ज्यामितीय आकार प्रदान करते सोपान निर्मित हैं। आप इन सोपानों पर सीधे न चढ़ते हुए, एक तरफ से चढ़ते हैं। यह ज्ञात नहीं हो पाया कि इस प्रकार की त्रिकोणीय संरचना केवल सौंदर्य एवं कलात्मकता की दृष्टी से की गयी थी अथवा इसका अन्य हेतु था। मेरे अनुमान से ऊंचे सोपानों पर एक तरफ से चढ़ना कदाचित सुरक्षा की दृष्टी से श्रेयस्कर हो। भूलभुलैय्या के रूप में बने इन सोपानों को देख ऐसा प्रतीत होता है जैसे जिन सीड़ियों से हम नीचे उतरें, वापिस उन्ही सीड़ियों से चाह कर भी ऊपर नहीं आ पायेंगे।

चाँद बावड़ी पे बैठने के गलियारे
चाँद बावड़ी पे बैठने के गलियारे

चौथी भित्ति पर कई तलो में स्तंभ युक्त गलियारे निर्मित हैं। दो आलिन्द अर्थात् आगे की ओर निकली बुर्ज सदृश संरचनाएं हैं जो बावड़ी की ओर मुख किये हुए हैं। बावड़ी की निचली तल पर गणेश एवं महिषासुरमर्दिनी की भव्य प्रतिमाएं बावड़ी की सुन्दरता को चार चाँद लगा रहे थे। सामान्यतः किसी भी बावड़ी के भीतर कहीं न कहीं शेषशायी विष्णु की प्रतिकृति अवश्य होती है। छानबीन करने पर मुझे यह जानकारी प्राप्त हुई कि चाँद बावड़ी के एक निचले गलियारे के भीतर विष्णु की प्रतिकृति है। चूंकि पर्यटकों को बावड़ी के भीतर जाने की अनुमति नहीं है, मैं उसके दर्शन नहीं कर पायी। वास्तव में बावड़ी अथवा कोई भी जल स्त्रोत क्षीरसागर का स्वरूप माना जाता है। दुग्ध का वह सागर जहां भगवान् विष्णु निवास करते हैं।

ध्यान से देखने पर आपको जल ऊपर खींचने का यंत्र-स्तंभ दृष्टिगोचर होगा। इसकी निर्मिती इतनी सूझबूझ से की गयी है कि यह बावड़ी की संरचना में विलीन प्रतीत होती है।

चाँद बावड़ी के कलात्मक सोपान

चाँद बावड़ी की सीढियां
चाँद बावड़ी की सीढियां

चाँद बावड़ी अन्य बावड़ियों की तरह जैसे जैसे नीचे जाती है, संकरी होती जाती है। बावड़ी के तह तक १३ तलो में ३५०० सीड़ियाँ बनायी गयी हैं जो अद्भुत कला का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं।

मैं बावड़ी के आसपास विचरण कर प्रत्येक कोण से उसका निरिक्षण करने लगी। स्तंभयुक्त गलियारों से घिरी यह बावड़ी चारों ओर से वर्गाकार है जिस पर आकर्षक एवं कलात्मक विधि से सोपान बनाए गए हैं। बावड़ी के जल का रंग चटक हरा हो चुका था जो दृश्य को और चमकीला एवं रंगीन बना रहा था। यद्यपि सीड़ियाँ उतरने की अनुमति नहीं है, तथापि मेरा चित्त कल्पना जगत में विचरण करने लगा। राजस्थान की कड़क उष्णता में इन गलियारों में बैठ शीतलता का आनंद लेने का अनुभव कितना सुखद होगा। उस पर चारों ओर छाई कलात्मकता की छटा सोने पर सुहागा होगी। काश हमारी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी भी इस सुखद आनंद का अनुभव प्राप्त कर सकती।

चाँद बावड़ी को घेरे हुए गलियारा
चाँद बावड़ी को घेरे हुए गलियारा

मैंने अपने कैमरे के लेंस से इस कलात्मकता को समीप से देखने का प्रयत्न किया। मुझे कुछ अत्यंत आकर्षक द्वार चौखट दृष्टिगोचर हुए। गलियारों पर बने वृत्तखंड निश्चय ही पुनरुद्धार के समय निर्मित किये गए होंगे क्योंकि ८-९वीं सदी में वृत्तखंडों की कल्पना उपलब्ध नहीं थी।

मन भर कर बावड़ी को निहारने एवं पर्याप्त छायाचित्र लेने के उपरांत मैंने चारों ओर दृष्टी दौड़ाई। चाँद बावड़ी एक ऊंची चारदीवारी से घिरी हुई है तथा एक गलियारा इसके समान्तर निर्मित है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने मुझे जानकारी दी कि यह चारदीवारी तथा प्रवेशद्वार मूल योजना के भाग नहीं थे। इन्हें बाद में बनाया गया था।

उत्कृष्ट शिल्पकला के उदहारण - पाषाण काव्य
उत्कृष्ट शिल्पकला के उदहारण – पाषाण काव्य

इस गलियारे में कई उत्खनित कलाकृतियाँ रखी हुई हैं। भिन्न भिन्न कलाकृतियों में जिन्हें मैं पहचान सकी वह हैं-
• लाल पत्थर में बना शिव का शीष, ध्यानमग्न शिव तथा शिव-पार्वती
• कल्की अवतार में विष्णु तथा परशुराम
• कार्तिकेय
• महीन नक्काशी की गयी महिषासुरमर्दिनी
• ब्रम्हा, विष्णु एवं महेश के फलक
• हर्षत अथवा हरसिद्धि माता
• लक्ष्मी
• जैन मूर्तियाँ
• यक्ष की प्रतिमाएं
• आकर्षक उत्कीर्णित स्तंभखंड

आभानेरी महोत्सव

आभानेरी में प्रत्येक शरद नवरात्री के समय ३ दिवसीय वार्षिक आभानेरी महोत्सव आयोजित किया जाता है। दशहरा से १० दिवस पूर्व अथवा दीपावली से ३० दिवस पूर्व प्रत्येक वर्ष आयोजित किये जाने वाले इस महोत्सव के अवसर पर यह चाँद बावड़ी पर्यटकों के लिए ३ दिवस खुली रहती है। गाँव के युवाओं हेतु बावड़ी के भीतर छलांग लगाने की प्रतियोगिता भी आयोजित की जाती है।

बावड़ी के समीप हर्षत माता का एक मंदिर है। अतः नवरात्री के अवसर पर शक्ति पूजन यहाँ इस प्रकार की जाती है।

चाँद बावड़ी देखने यहाँ अनेक पर्यटक आते है। वास्तव में यह भारत के उन चुनिन्दा पर्यटन स्थलों में से एक है जहां देशी पर्यटकों की अपेक्षा विदेशी पर्यटक अधिक संख्या में आते हैं।

हर्षत माता का मंदिर

हरषत माता मंदिर - आभानेरी, राजस्थान
हरषत माता मंदिर – आभानेरी, राजस्थान

चाँद बावड़ी के पश्चिमी ओर दृष्टी दौड़ाएं तो आप लगभग १०० मीटर की दूरी पर एक मंदिर देखेंगे। गुम्बद युक्त यह मंदिर हर्षत माता को समर्पित है। कुछ अभिलेखों में हर्षत माता को हरसिद्धि माता भी कहा गया है। उन्हें हर्ष एवं उल्हास की देवी माना जाता है। यह ज्ञात होने पर कौन होगा जो इस मंदिर के दर्शन के बिना लौटेगा!

हर्षत माता मंदिर तथा चाँद बावड़ी समकालीन संरचनाएं हैं। इनकी निर्मिती एक ही राजा ने एक ही काल में करवाई थी। यदि इतिहास में झांके तो आप प्रत्येक महत्वपूर्ण मंदिर के समीप एक प्राचीन बावड़ी अवश्य पायेंगे। मेरे ध्यान में केवल एक ही अपवाद है, पाटन स्थित रानी की वाव

पत्थर पे सुर्यमुखी फूल - हरषत माता मंदिर
पत्थर पे सुर्यमुखी फूल – हरषत माता मंदिर

हर्षत माता का मंदिर एक छोटा सा मंदिर है जो एक ऊंचे मंच पर स्थापित है। यहाँ पहुँचने हेतु कुछ सीड़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। मैंने जब इस मंच के चारों ओर परिक्रमा की, मेरी दृष्टी पाषाणी भित्तियों पर सूर्यमुखी पुष्पों की नक्काशी पर पड़ी। यूँ तो आभानेरी की राह के दोनों ओर सूर्यमुखी के लहलहाते खेत देख मैं प्रसन्न हो उठी थी। उन्ही सूर्यमुखी के पुष्पों को नक्काशीदार फलकों पर देख मन प्रफुल्लित हो उठा। ये पुष्प भित्तियों पर बनी प्रतिमाओं की शोभा में वृद्धि कर रहे थे। इन पुष्पों की नक्काशी इस तथ्य का द्योतक है कि इस मंदिर एवं बावड़ी की निर्मिती से पूर्व भी लोग सूर्यमुखी पुष्प के विषय में जानकारी रखते थे। अन्यथा भारत तथा अधिकतर आशियाई देशों के मंदिरों में सूर्यमुखी पुष्प की नक्काशी दुर्लभ है। अधिकतर मंदिरों में कमल एवं जवाकुसुम पुष्पों की नक्काशी की गयी है।

अमलाका

हरषत माता मंदिर की कलात्मक दीवारें
हरषत माता मंदिर की कलात्मक दीवारें

पूर्व मुखी हर्षत मंदिर का मूल शिखर उत्तर भारतीय नागर पद्धति में निर्मित है। इसे महामेरु शिखर भी कहा जाता है। नागर पद्धति का शिखर ऊंचा बेलनाकार होता है जो उत्तर भारत में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। इस शिखर के ऊपर किसी काल में गोल पाषाणी चकती हुआ करती थी जिसे अमलाका कहा जाता है। वर्तमान में उस अमलाका के भंगित अवशेष मंदिर के चारों ओर बिखरे पड़े हैं। अमलाका शब्द आंवला नामक फल से व्युत्पन्न है। गुम्बद का मध्यकालीन युग में परिवर्तन किया गया था। वर्तमान में यहाँ नागर पद्धति के भीतर पंचरथ पद्धति का मंदिर है।

मंदिर के चारों ओर ऊपरी आलों पर देवी देवताओं की प्रतिमाएं उत्कीर्णित हैं। निचले आलों पर युग्मों तथा सुर सुंदरियों की मंगल प्रतिमाएं हैं। मंदिर के कुछ भागों पर विस्तृत परन्तु महीन नक्काशी की गयी है।

मंदिर के जमीन पर सारिपाट (शतरंग) सदृश खेलों के मंच बने हुए हैं जो यह दर्शाते हैं कि पूजा स्थल होने के साथ साथ यह एक सार्वजनिक भेंट स्थल भी था।

मंदिर के भीतर प्रवेश करते ही भीतर स्थापित मूर्ति के अपेक्षाकृत नवीन होने का आभास हुआ। मेरे परिदर्शक ने बताया कि यह मंदिर मूलतः विष्णु मंदिर था। किन्तु इसके प्रमाण स्वरुप मुझे कोई संकेत यहाँ प्राप्त नहीं हुआ।

यह स्थल राजस्थान के यशस्वी एवं गौरवशाली अतीत का जीता जागता उदाहरण था।

आभानेरी चाँद बावड़ी के दर्शन हेतु कुछ आवश्यक सुझाव-

• आभानेरी, राजस्थान के दौसा जिले में है जो जयपुर से ९० की.मी. पर स्थित है। इसके दर्शन हेतु यहाँ रुकने की अपेक्षा, जयपुर में ही ठहर कर दिन के समय दर्शन करना उपयुक्त होगा।
• चाँद बावड़ी जाते समय, मध्य स्थित भानगढ़ दुर्ग के दर्शन अवश्य करिए। यह भारत का सर्वाधिक भुतहा स्थल है।
• आभानेरी के दर्शन हेतु ३०-६० मिनट का समय पर्याप्त है। हालांकि मैंने यहाँ २ घंटे बिताये थे क्योंकि मैंने प्रत्येक शिल्पकला का बारीकी ने निरिक्षण किया था।
• दर्शन एवं जानकारी प्रदान करने हेतु परिदर्शक उपलब्ध हैं। यदि आपने यह संस्मरण पढ़ा है तो आपको परिदर्शक की आवश्यकता नहीं रहेगी।

जयपुर के अन्य पर्यटन स्थलों पर मेरे संस्मरण-
1. जयपुर का जंतर मंतर – सवाई जयसिंह की वेधशाला
2. भानगढ़ दुर्ग – भारत का सर्वाधिक भुतहा स्थल
3. जयपुर में खरीददारी – जयपुर की १५ सर्वोत्तम स्मारिकाएं

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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मोढेरा सूर्य मंदिर – अद्वितीय वास्तुशिल्प का उदाहरण https://inditales.com/hindi/sun-temple-modhera-gujarat-architecture/ https://inditales.com/hindi/sun-temple-modhera-gujarat-architecture/#comments Wed, 13 Dec 2017 02:30:29 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=564

जी हाँ! भारत में दो विश्व प्रसिद्ध सूर्य मंदिर हैं। एक है देश के पूर्वी छोर पर उड़ीसा राज्य में स्थित प्रसिद्ध कोणार्क सूर्य मंदिर। और दूसरा है देश के पश्चिमी छोर पर गुजरात राज्य में, पाटन से ३० की.मी. दक्षिण में स्थित, मोढेरा सूर्य मंदिर। कोणार्क सूर्य मंदिर के सम्बन्ध में आपने बहुत कुछ […]

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मोढेरा का सूर्य मंदिर
मोढेरा का सूर्य मंदिर

जी हाँ! भारत में दो विश्व प्रसिद्ध सूर्य मंदिर हैं। एक है देश के पूर्वी छोर पर उड़ीसा राज्य में स्थित प्रसिद्ध कोणार्क सूर्य मंदिर। और दूसरा है देश के पश्चिमी छोर पर गुजरात राज्य में, पाटन से ३० की.मी. दक्षिण में स्थित, मोढेरा सूर्य मंदिर। कोणार्क सूर्य मंदिर के सम्बन्ध में आपने बहुत कुछ देखा व पढ़ा होगा। इस संस्मरण द्वारा मैं आपको मेहसाना जिले में पुष्पावती नदी के किनारे स्थित इस मोढेरा सूर्य मंदिर के उत्कृष्ट एवं विश्वप्रसिद्ध वास्तुशिल्प की बारीकियों से अवगत कराना चाहती हूँ।

हमारे देश के प्राचीन मंदिरों से मेरा विशेष लगाव रहा है। मेरे वश में होता तो मैं अवश्य ११वी. शताब्दी के हिन्दुस्तान में स्थानांतरित हो जाती। यह हिन्दुस्तान का वो स्वर्णिम युग था जब यह उत्कृष्ट मंदिरों का देश हुआ करता था। वर्तमान में स्थित मंदिरों के प्राचीन अवशेष कभी रंगीन भित्तियों के भीतर स्थित अप्रतिम देवस्थान थे। वर्षों तक शिल्पकारी कर असंख्य निपुण कारीगरों ने देश में कई उत्तम कृतियाँ तैयार की थीं। इन चित्ताकर्षक प्राचीन मंदिरों को देख मन इनके अतीत की कल्पना में विचरण करने लगता है। मोढेरा सूर्य मंदिर भी अपने समृद्ध काल में पूजा अर्चना, नृत्य एवं संगीत से भरपूर जागृत मंदिर था। पाटन, गुजरात के सोलंकी शासक सूर्यवंशी थे एवं सूर्यदेव को कुलदेवता के रूप में पूजते थे। इसलिए सोलंकी राजा भीमदेव ने सन १०२६ ई. में इस सूर्य मंदिर की स्थापना करवाई थी। यह दक्षिण के चोल मंदिर एवं उत्तर के चंदेल मंदिर का समकालीन वास्तुशिल्प है। महमूद गजनी और अलाउद्दीन खिलजी ने आक्रमण कर यहाँ बहुत लूटपाट मचाई थी। तत्पश्चात जो शेष बचा है, आईये उससे ही इसकी संरचना, वास्तुशिल्प एवं भव्यता की बारीकियों का विश्लेषण करते हैं।

मोढेरा सूर्य मंदिर का वास्तुशिल्प

सूर्य कुंड, सभा मंडप एवं सूर्य मंदिर - मोढेरा
सूर्य कुंड, सभा मंडप एवं सूर्य मंदिर – मोढेरा

आइये मैं आपको मोढेरा के सूर्य मंदिर का वास्तुशिल्प समझती हूँ।

इस मंदिर के तीन मुख्य भाग हैं – गर्भ गृह एवं गूढ़ मंडप लिए मुख्य मंदिर, सभामंड़प एवं सूर्य कुंड या बावड़ी।

प्रथम भाग है, गर्भगृह तथा एक मंडप से सुसज्जित मुख्य मंदिर जिसे गूढ़ मंडप भी कहा जाता है। अन्य दो भाग हैं, एक प्रथक सभामंड़प तथा एक बावड़ी। जब मंदिर का प्रतिबिम्ब इस बावड़ी के जल पर पड़ता है तब वह दृश्य सम्मोहित सा कर देता है। इस मंदिर के प्रमुख देवता सूर्य भगवान् हैं। सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय सूर्य की जादुई किरणें इस मंदिर एवं जल पर पड़ते इस प्रतिबिम्ब की सुन्दरता को चार चाँद लगा देते हैं।

मंदिर के पृष्ठ भाग से होकर बहती पुष्पावती नदी मंदिर के परिप्रेक्ष्य को और अधिक आकर्षक बना देती है। मंदिर के एक भाग में आपको कुछ कीर्ति तोरण भी दृष्टिगोचर होंगे जो अवश्य किसी रण विजय का प्रतिक हैं। वर्तमान में इस मंदिर के भीतर किसी भी देवी अथवा देवता की प्रतिमा उपस्थित नहीं है। अतः यह जागृत मंदिर नहीं है।

इस मंदिर के निर्माण में मूल खण्डों को आपस में गूंथ कर संरचना खड़ी की गयी है। कहा जाता है कि इस पद्धति के कारण यह भूकंप के झटकों को भी आसानी से सहन कर सकती है। भूकंप की स्थिति में इसकी संरचना भले ही थरथरा जाए, किन्तु यह गिरेगी नहीं। यह मंदिर भारत को चीरती कर्क रेखा के ऊपर स्थापित है। अपनी उत्कृष्ट वास्तुशिल्प के साथ साथ यह मंदिर अपनी अप्रतिम सुन्दरता हेतु भी जाना जाता है। इस पर पड़ी आपकी प्रथम दृष्टी आपको दांतों तले उंगली दबाने को बाध्य कर देगी।

सम्मोहित हो मैंने इस मंदिर की कुछ परिक्रमायें की। तत्पश्चात इसके विषय में अधिक जानकारी प्राप्त करने की अभिलाषा ने मन को घेर लिया। अपनी ज्ञान पिपासा शांत करने हेतु मैंने एक परिदर्शक की सेवायें प्राप्त करने का निश्चय किया। उस परिदर्शक ने धैर्य पूर्वक मंदिर की सर्व सूक्ष्मताओं एवं विशेषताओं से मुझे अवगत कराया।

सूर्यकुंड

सूर्य कुंड और उसके इर्द गिर्द अनेक छोटे बड़े मंदिर - मोढेरा
सूर्य कुंड और उसके इर्द गिर्द अनेक छोटे बड़े मंदिर – मोढेरा

मोढेरा के सूर्य मंदिर परिसर के पूर्वी छोर पर, सभा मंडप के समक्ष सूर्यकुंड अर्थात् बावड़ी की संरचना की गयी है। बावड़ी का भीतरी भाग सीड़ियों द्वारा शुण्डाकार में बनाया गया है। सीड़ियाँ अनोखे ज्यामितीय आकार में बनायी गयी हैं। यह बावड़ी, अन्य मंदिरों के बावडियों से किंचित भिन्न है, क्योंकि इसकी सीड़ियों पर कई छोटे बड़े मंदिरों की स्थापना की गयी है। इनमें कई मंदिर भगवान् गणेश एवं भगवान् शिव को समर्पित हैं। सूर्य मंदिर के ठीक सामने की सीड़ियों पर शेषशैय्या पर विराजमान भगवान् विष्णु का मंदिर है। एक मंदिर चेचक की देवी शीतला माता की भी है। एक हस्त में झाड़ू एवं एक हस्त में नीम की पत्तियां धारण किये शीतला माता का वाहन गर्दभ है। अन्य मंदिर भंगित अवस्था में होते हुए भी अब भी बहुत सुन्दर हैं।

सूर्य कुंड - सूर्य मंदिर मोढेरा
सूर्य कुंड – सूर्य मंदिर मोढेरा

कहा जाता है कि इन सीड़ियों पर मूलतः १०८ मंदिर स्थापित थे। भंगित अवस्था में होने के कारण कई मंदिरों की गिनती स्पष्ट रूप से नहीं की जा सकती। इन सब के बावजूद, ये मंदिर बहुत सुन्दर प्रतीत होते हैं। इनका ज्यामितीय परिप्रेक्ष्य अत्यंत लुभावना है।

साहित्यों के अनुसार सूर्यकुंड की सीड़ियों की शैली मंदिर के शिखर के सामान है। परन्तु मंदिर के शिखर की अनुपस्थिति में इसकी पुष्टि संभव नहीं है।

सूर्यकुंड को भगवान् राम के नाम पर रामकुंड भी कहा जाता है। कुंड के जल में अब भी अनेक कछुए निवास करते हैं।

सूर्य मंदिर सभामंडप

सूर्य मंदिर मोढेरा का अष्ट कोण वाला सभामंड़प
सूर्य मंदिर मोढेरा का अष्ट कोण वाला सभामंड़प

मोढेरा सूर्य मंदिर का सभामंडप एक अष्टभुजीय कक्ष है जो बाहरी परिप्रेक्ष्य से अपेक्षाकृत विकर्ण दिशा में संरचित है। सभामंडप के भीतर लगे तोरण भक्तों का स्वागत करते प्रतीत होते हैं। सभामंडप की जो शिल्पकला सबसे मनमोहक है, वह है, उत्तम नक्काशी किये गए स्तंभ। इन्ही स्तंभों के बीच लगे वृत्तखण्डों पर तोरण की शिल्पकारी की गयी है। यह वृत्तखण्ड अर्धवृत्ताकार एवं त्रिकोणीय आकार में बारी बारी से बनाए गए हैं। इस सभामंडप में ५२ स्तंभ हैं। साहित्यों के अनुसार यह, एक सौर वर्ष के ५२ सप्ताहों को दर्शाते हैं।

सभामंड़प के तोरण - सूर्य मंदिर मोढेरा
सभामंड़प के तोरण – सूर्य मंदिर मोढेरा

स्तंभों पर की गयी महीन उत्कीर्णनों में रामायण, महाभारत एवं कृष्ण लीला के दृश्य स्पष्ट देखे जा सकते हैं। जो दृश्य मेरी स्मृतिपटल पर अब भी खुदे हुए हैं, उनमें से कुछ हैं, श्रीलंका के अशोक वाटिका में बैठी देवी सीता, हाथों में शिलाखंड लिए रामसेतु की रचना में रत वानर सेना, अपनी उंगली पर गोवर्धन पर्वत उठाये कृष्ण, द्रौपदी के स्वयंवर में धनुष धारण किये अर्जुन, साजश्रंगार करती विषकन्याएं इत्यादि।

मुझे बताया गया कि प्राचीनकाल में इस सभामंडप का इस्तेमाल आमसभा हेतु किया जाता था। यहाँ धार्मिक कृत्यों के साथ साथ, राजदरबार की गतिविधियाँ एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते हैं।

मुख्य सूर्य मंदिर

मुख्य सूर्य मंदिर - मोढेरा, गुजरात
मुख्य सूर्य मंदिर – मोढेरा, गुजरात

सूर्य मंदिर की संरचना ऐसी की गयी है कि विषवों के समय, अर्थात् २१ मार्च एवं २१ सितम्बर के दिन सूर्य की प्रथम किरणें गर्भगृह के भीतर स्थित मूर्ति के ऊपर पड़ती हैं। इसका स्पष्ट अर्थ है कि हमारे पूर्वजों को प्राचीन काल में विज्ञान, तकनीक एवं खगोलशास्त्र का सम्पूर्ण ज्ञान था। इस मंदिर का न्याधार उलटे कमल पुष्प के सामान है। आप सब जानते हैं कि कमल का पुष्प सूर्योदय से सूर्यास्त तक ही खिला रहता है। अर्थात् कमल का पुष्प सूर्य की किरणों पर पूर्णतः आधारित रहता है।

उलटे कमल रुपी आधार के ऊपर लगे फलकों पर सर्वप्रथम असंख्य हाथियों की मूर्तियाँ बनायी गयी हैं। इसे गज पेटिका कहा जाता है। इन्हें देख ऐसा प्रतीत होता है मानो असंख्य हाथी अपनी पीठ पर सूर्य मंदिर को धारण किये हुए हैं। गज पेटिका के ऊपर लगे फलक पर मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन चक्र को दर्शाती नक्काशियाँ हैं। सम्भोग द्वारा गर्भधारण से लेकर मृत्यु पश्चात अंतिम क्रिया तक दृश्य यहाँ दर्शाये गए हैं। इनके अतिरिक्त मंदिर की बाहरी भित्तियों पर कुछ रतिक्रीडारत मूर्तियाँ भी उत्कीर्णित हैं। जीवन चक्र की मूर्तियों के ऊपर कई संगीत वाद्य बजाते लोगों के शिल्प बनाए गए हैं।

मोढेरा सूर्य मंदिर के दीवारें
मोढेरा सूर्य मंदिर के दीवारें

संगीत वाद्य बजाते मूर्तियों के ऊपर देवी देवताओं की मूर्तियाँ गढ़ी हुई हैं। द्वादश गौरी अर्थात् पार्वती के १२ अवतार एवं सर्वव्यापी सूर्य की १२ प्रतिमाएं इनमें मुख्य हैं। कुछ सूर्य की प्रतिमाओं को ऊंचे जूते एवं लम्बी टोपियाँ पहना कर ईरानी पद्धति का रूप दिया गया है। मेरे परिदर्शक के अनुसार सूर्य आराधना सर्वप्रथम ईरान में आरम्भ हुई थी। यह मूर्तियाँ इसी तथ्य की ओर संकेत करती हैं।

८ दिशाओं के देवी देवता – अष्ट दिगपाल

इसके अतिरिक्त मंदिर के ८ दिशाओं में इन दिशाओं के देवों की प्रतिमाएं उत्कीर्णित हैं। यह हैं-
• उत्तर – धन के देव कुबेर
• ईशान कोण – रूद्र, शिव का रूप (उत्तर-पूर्व)
• पूर्व – वर्षा के देव इंद्र
• आग्नेय कोण – अग्नि देव (दक्षिण-पूर्व)
• दक्षिण – मृत्यु देव यम
• नैत्रुत्य – नैरिती, शिव का रूप (दक्षिण-पश्चिम)
• पश्चिम – वरुण देव
• वायव्य कोण – वायु देव (उत्तर-पश्चिम)

सूर्य मंदिर में लूटपाट

गज पेटिका - उलटे कमल के फूल पर - मोढेरा सूर्य मंदिर - मोढेरा
गज पेटिका – उलटे कमल के फूल पर – मोढेरा सूर्य मंदिर – मोढेरा

कहा जाता है कि इस मंदिर की मुख्य प्रतिमा शुद्ध स्वर्ण में बनायी गयी थी। सात विशाल घोड़ों एवं सारथी अरुण द्वारा हांके जाते एक भव्य रथ के भीतर सूर्य देव की प्रतिमा! यह प्रतिमा एक विशाल एवं गहरे आधार के ऊपर बनायी गयी थी जो स्वर्ण सिक्कों से भरा हुआ था। वर्तमान में गर्भग्रह में केवल एक गहरा गड्ढा ही शेष है जो इस मंदिर पर किये गए आक्रमण एवं लूटपाट की कहानी स्पष्ट कहता है। कहा जाता है कि प्रतिमा पर लगे हीरे सूर्य की किरणों में चमक कर सम्पूर्ण मंदिर को प्रकाशित करते थे। यह कथाएं मौखिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाई जा रही हैं। मूल प्रतिमा कहाँ है यह कोई नहीं जानता। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि आक्रमण के समय कुछ ब्राम्हण परिवार प्रतिमा को अपने साथ लेकर छुप गए थे। परन्तु अब तक उस प्रतिमा के सम्बन्ध में कोई जानकारी कहीं भी उपलब्ध नहीं है। इस मंदिर के नीचे एक बंद सुरंग है जो संभवतः मंदिर को सोलंकी राजधानी पाटन से जोड़ती है।

मंदिर के गर्भगृह के चारों ओर परिक्रमा पथ है जो गूढ़ मंडप से जुडी हुई है। गूढ़ मंडप के आले, आदित्य की १२ अवस्थाओं को दर्शाती १२ प्रतिमाओं से अलंकृत है। संभवतः यह सौरवर्ष के १२ मासों की ओर संकेत करती है।

इस मंदिर का शिखर वर्तमान में अनुपस्थित है। इस कारण इस मंदिर का शीर्ष समतल है।

मोढेरा सूर्य मंदिर से जुड़ी किवदंतियां

सूर्य मंदिर मोढेरा की छत
सूर्य मंदिर मोढेरा की छत

स्कन्द पुराण एवं ब्रम्ह पुराण में कहा गया है कि जब रावण वध कर भगवान् राम श्रीलंका से वापिस अयोध्या लौट रहे थे, तब ब्राम्हण वध के पाप से मुक्ति पाने हेतु उन्होंने वशिष्ठ मुनि से सलाह मांगी। उन्होंने भगवान् राम को धर्मरण्य, अर्थात् धर्म के अरण्य में जाकर आत्मशुद्धी यज्ञ करने की सलाह दी। राम ने धर्मरण्य में यज्ञ किया एवं वहां सीतापुर नामक ग्राम की स्थापना की। कालान्तर में इसी ग्राम का नाम मोढेरा पड़ा। मोढेरा, अर्थात् मृत का ढेर। संभवतः अनेक सभ्यताओं की परतों से सम्बन्ध रखते हुए इसे मोढेरा कहा गया। एक किवदंती के अनुसार मोढेरा ग्राम, ब्राम्हणों के मोढ जाति से सम्बंधित है, जिन्होंने भगवान् राम को उनके आत्मशुद्धी यज्ञ में मदद की थी।

मोढेरा का सूर्य मंदिर उन कुछ पुरातात्विक स्थलों में से एक है जिसका रखरखाव भारतीय पुरातात्विक विभाग सर्वोत्तम रूप से कर रहा है। अपनी गुजरात यात्रा में आप मोढेरा अवश्य जाएँ। आशा है मेरे इस संस्मरण द्वारा आपको मोढेरा के सूर्य मंदिर की विशेषताओं के बारे में वांछित जानकारी अवश्य मिली होगी।

गुजरात राज्य के अन्य पर्यटन स्थलों के संस्मरण
• ऐतिहासिक पावगढ़ पहाड़ी, गुजरात
रानी की वाव – एक रानी की विरासत
• अहमदाबाद के ६ देखने लायक संग्रहालय
• चंपानेर की मध्यकालीन वास्तुकला
• दाभोई के उत्कीर्णित द्वार

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

 

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वारंगल दुर्ग – काकतीय वंश की विरासत https://inditales.com/hindi/warangal-fort-kakatiya-capital-telangana/ https://inditales.com/hindi/warangal-fort-kakatiya-capital-telangana/#comments Wed, 26 Jul 2017 02:30:02 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=326

हैदराबाद शहर से 150 कि.मि. की दूरी पर बसा हुआ वारंगल दुर्ग, तेलंगाना का एक सुन्दर दर्शनीय स्थल है। यहां के मनोरम वातावरण से लगता है जैसे कि यहां पर हर समय लोगों की चहल-पहल रहती होगी, लेकिन वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है। वारंगल किले के बारे में ज्यादा लोग नहीं जानते । यहां […]

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वारंगल दुर्ग तेलंगाना
वारंगल दुर्ग तेलंगाना

हैदराबाद शहर से 150 कि.मि. की दूरी पर बसा हुआ वारंगल दुर्ग, तेलंगाना का एक सुन्दर दर्शनीय स्थल है। यहां के मनोरम वातावरण से लगता है जैसे कि यहां पर हर समय लोगों की चहल-पहल रहती होगी, लेकिन वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है। वारंगल किले के बारे में ज्यादा लोग नहीं जानते । यहां का सहस्त्र खंबों वाला मंदिर सुप्रसिद्ध है ।

पिछले हफ्ते ही हम इस किले की सैर करने गए थे। यह किला एक समय पर काकतीय वंशजों की राजधानी हुआ करता था। यहाँ पर आज उनके द्वारा पीछे छोड़ी गयी विरासत के सिर्फ अवशेष ही देखे जा सकते हैं। इसके बावजूद आज भी इस किले में देखने लायक बहुत से स्थान हैं। देश के अन्य प्राचीन धरोहर के स्थलों की तरह इसे भी संरक्षण और संवर्धन की सख्त जरूरत है। यह सब देखकर मैं सोचने लगी कि,आंध्रप्रदेश पर्यटन द्वारा वारंगल किले की मरम्मत कर उसे पर्यटन स्थल क्यों नहीं घोषित किया गया है।

वारंगल दुर्ग के रास्ते पे
वारंगल दुर्ग के रास्ते पे

वारंगल जाते समय रास्ते में ही भोनगीर किला मिलता है, जो एक विशालकाय चट्टान पर बसा हुआ है। इस किले की संरक्षक दीवार दूर से ही देखी जा सकती है। यह जगह नियमित रूप से इस किले की चढ़ाई करने वाले समूहों के बीच काफी प्रसिद्ध होगी। यहीं से थोड़ा आगे यादगिरीगुट्टा है। लेकिन समय के बंधन के कारण हमने इन जगहों पर जाना अगली बार के लिए रद्द कर दिया।

यहां पर इन जगहों का उल्लेख करना मैं जरूरी समझती हूँ क्योंकि,यहां के पथरीले भूभाग को पार करते ही, आपको आगे हरियाली ही हरियाली दिखाई देती है। यहां का पूरा परिदृश्य खेतों से,छोटी-छोटी पहाड़ियों से, जल स्रोतों और विविध प्रकार के पेड़-पौधों से भरपूर है।ये सारे सुखमय नज़ारे मिलकर आपकी आगे की यात्रा को और भी सुहाना बनाते हैं।

वारंगक किला – काकतीय वास्तुकला की विशिष्टता

काकतीय शिल्पकला
काकतीय शिल्पकला

वारंगल त्रिशहरों में से एक है – यानी वारंगल-काजीपेट-हनामकोंडा। हनामकोंडा काकतियों की सबसे पहली राजधानी थी,जो बाद में वारंगल में स्थानांतरित की गयी थी। इसी वारंगल शहर में वारंगल दुर्ग स्थित है। 12वी शताब्दी में महाराजा गणपती देव द्वारा बनवाया गया यह विशाल किला 19 कि.मि. की जमीन पर फैला हुआ है। इस किले की तीन पड़ावों वाली किलाबंदी के अंतर्गत लगभग 45 स्तंभ और मीनारें हुआ करती थीं, जिन पर नक्काशी का बारीक और नाज़ुक काम किया गया था। लेकिन आज यहां पर उनमें से कुछ ही स्तंभ और मीनारें खड़े हैं, तथा कुछ ही स्थान ऐसे हैं जो अपने आगंतुकों से अपने गुजरे हुए कल की, अपने बिखरे हुए वैभव की कथाएं कहते हैं।

स्वयंभू मंदिर

वारंगल दुर्ग के अवशेष
वारंगल दुर्ग के अवशेष

वारंगल किले का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है स्वयंभू मंदिर। इस मंदिर को पुरातत्व विभाग द्वारा टूटे हुए मंदिर के उपलब्ध अवशेषों से, तथा उस स्थान के आस-पास मिले अवशेषों से पुनः निर्मित करने का प्रयास किया गया है। यह सच में बहुत अच्छी बात है और इस पर पिछले 10 सालों से संशोधन किया जा रहा है। मंदिर के इस स्थान के चारों ओर बड़े-बड़े मेहराब हैं, जो काकतियों की वास्तुकला के परिचायक हैं। इन मेहराबों की प्रतिकृतियाँ आप इस पूरे शहर में देख सकते हैं।

काकतीय वास्तुकला की विशिष्ट बात है उनके दरवाजों की चौखट, जो बड़ी बारीकी से उत्कीर्णित की गयी होती है। उनकी सूक्ष्मता ही उनकी सुंदरता और आकर्षण का प्रमुख कारण है। काकतियों की और एक विशेषता है उनके स्तंभ जिनकी निर्माण शैली थोड़ी अजीब सी है। 5-6 अलग-अलग भागों को एकत्रित कर एक सम्पूर्ण और बड़े से स्तंभ का निर्माण किया जाता है। लेकिन उन्हें देखने पर नहीं लगता कि उन्हें विविध भागों को जोड़कर बनाया गया है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे यह पूरा स्तंभ एक ही पत्थर से उत्कीर्णित किया गया है।

पत्थरों से बनी विराट संरचनाएं

काकतीय मंदिर स्तम्भ
काकतीय मंदिर स्तम्भ

इन स्तंभों के ऊपर बने गोलाकार ढांचे ने मुझे तात्या टोपे की टोपी की याद दिलाई, जो शायद इन्हीं स्तंभों से प्रभावित होगी। ये विराट पत्थर जो छतों और कोष्टों में उत्कीर्णित किए गए हैं आपको अपने महान आकार से ही विस्मित कर देते हैं। इन पत्थरों पर की गयी खुदाई सच में बहुत बारीक और नाजुक है,जो मनुष्य के शरीर, उसके आकार-प्रकार और उनके आभूषणों को बड़ी सूक्ष्मता से दर्शाती है। इन पत्थरों पर उत्कीर्णित पशुओं की शक्ति और देवी-देवताओं की भावनाओं को गहराई और जीवंतता के साथ चित्रित किया गया है।

यहां पर पत्थरों की एक पंक्ति है जिनपर 9 छेद हैं। इन छेदों या खाली स्थानों पर कभी शिवलिंग स्थापित हुआ करते थे, जिनके नीचे कीमती पत्थर दफनाये गए थे। इन्हीं कीमती पत्थरों को निकालने के लिए इन सारे शिवलिंगों को उद्धवस्थ किया गया था। ये उखाड़े हुए शिवलिंग शायद आज किसी और स्थान पर रखे गए होंगे। यही पर एक सुंदर सा गोलाकार पत्थर है जिस पर नवग्रहों को उत्कीर्णित किया गया है।

वहां पर पेरिणी शिव तांडव, यानी तांडव नृत्य का एक प्रकार जो वास्तव में युद्ध पर जाने से पहले सैनिकों द्वारा किया जाता था, का प्रदर्शन करती स्त्रियों की मूर्तियाँ भी हैं। इनके अतिरिक्त यहां आप खूबसूरत से मकरध्वज भी देख सकते हैं, जो हनुमान के स्वेदजल से जन्मे हुए माने जाते हैं। इस मंदिर में उनकी बहुत सारी उत्कीर्णित मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं।

आज आप इन अवशेषों को देखकर सिर्फ उनकी संपूर्णता की कल्पना कर उनकी खूबसूरती का अंदाज़ा लगा सकते हैं। आप सोच सकते हैं कि अगर ये बिखरे हुए भाग अवशेषों के रूप में इतने अच्छे लग सकते हैं तो अपने संपूर्ण रूप में वे कितने सुंदर दिखते होंगे।

स्वयंभू मंदिर की कथा

पत्थर में घड़ा कमल - वारंगल दुर्ग
पत्थर में घड़ा कमल – वारंगल दुर्ग

स्वयंभू मंदिर की कथा कुछ इस प्रकार है – 12वी शताब्दी के दौरान हनामकोंडा, जो उस समय अनाज का बाज़ार हुआ करता था, में अपनी लगान बेचने जाने वाले किसान इसी स्थान से गुजरते हुए जाते थे। ऐसे ही एक दिन यहां पर किसी किसान की बैलगाड़ी का पहिया कीचड़ में फंस गया। जब लोगों ने उस पहिये को बाहर निकालने की कोशिश की तो उन्हें वहां पर एक शिवलिंग दिखा। और बाद में लोगों ने इसी स्थान पर मंदिर का निर्माण किया। इसी कारण इस मंदिर को स्वयंभू नाम पड़ा। स्वयंभू का शाब्दिक अर्थ है अपने आप जन्मा हुआ, या फिर वह वस्तु जिसकी खोज नहीं हुई हो बल्कि वह स्वयं ही प्रकट हुआ हो।

हमारे गाइड ने हमे बताया कि इस किले में 365 शिव मंदिर हुआ करते थे, साल के प्रत्येक दिन के लिए एक मंदिर। इन प्रत्येक मंदिरों के नाम भी एक-दूसरे से अलग थे जो भगवान शिव के विविध रूपों को दर्शाते थे। लेकिन आज यहां पर इन मंदिरों के बिखरे हुए अवशेष मिलते हैं। इन बिखरे हुए अवशेषों के बीच हमे सिर्फ एक मंदिर दिखा,जिसके आस-पास के वातावरण से वह किसी तांत्रिक मंदिर लगता था।

चारों प्रमुख दिशाओं में चार मेहराबों से घिरी इस व्यापक भूमि पर वारंगल किले से खोदे हुए अवशेषों के हजारों टुकड़े यहां-वहां पड़े हुए नज़र आते हैं। इन्हीं अवशेषों को जोड़कर इस मंदिर को पुनः निर्मित कर उसे अपना मूल रूपाकार देने का प्रयास किया जा चुका है। लेकिन जैसा कि रहीम कहते हैं, “रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय, टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ी जाए”। अर्थात अगर कोई वस्तु एक बार टूट जाए तो उसे जोड़ना बहुत कठिन है,और अगर उसे जोड़ भी लिया जाए तो हम उसके मूल स्वरूप को नहीं पा सकते।

एकशीला – विशाल चट्टान

एक्शिला - वारंगल
एक्शिला – वारंगल

स्वयंभू मंदिर के ठीक सामने है एकशीला, यानी एक विशाल चट्टान। इस चट्टान के शीर्ष पर एक शिव मंदिर स्थित है। अन्य शिव मंदिरों की तरह इस मंदिर में भी एक नंदी मंडप और उत्कीर्णित स्तंभ देखे जा सकते हैं। इस मंदिर के पास एक छोटा सा किला भी है। यहां पर पहुँचने के लिए इस बड़ी सी चट्टान में लगभग 100 छोटी-छोटी सीढ़ियाँ बनवाई गयी हैं, जिन्हें पार करके आप ऊपर तक जा सकते हैं। इस ऊंचाई से आप चट्टान के चारों ओर फैले वारंगल किले का अप्रतिम नज़ारा देख सकते हैं। यहां से आप स्वयंभू मंदिर का शीर्ष दृश्य भी देख सकते हैं, जो अपने जगमगाते हुए अवशेषों द्वारा अपनी उपस्थिती का एहसास दिलाता है। इसके अलावा आप यहां से नीचे स्थित सरोवर का मंत्रमुग्ध करनेवाला नज़ारा देख सकते हैं। यह सरोवर इस एकशीला के पास ही स्थित है। इस सरोवर के बीचोबीच आधुनिक चित्रकारी की एक रोचक सी संरचना बनाई गयी है, जो बहुत ही आकर्षक है। इस चट्टान पर एक कृत्रिम झरना भी बनवाया गया है।

इस चट्टान के पास स्थित वारंगल शहर को उसका नाम भी इसी एकशीला से प्राप्त हुआ है–‘वारंगल’,जिसे स्थानीय भाषा में ‘ओरुगुल्ला’ कहा जाता है।

इस एकशीला और सरोवर के आस-पास बगीचे बनाने का प्रयास किया गया है। इसके अलावा यहां पर कुछ कृत्रिम पूल भी बनाने की कोशिश की गयी है,जिसकी वास्तव में जरूरत तो नहीं है। मुझे तो लगता है कि आंध्रप्रदेश के पर्यटन विभाग को प्रकृति के रंग में कृत्रिमता का भंग डालना कुछ ज्यादा ही पसंद है।

खुश महल

खुश महल - वारंगल दुर्ग
खुश महल – वारंगल दुर्ग

खुश महल अर्थात सिताभ खान महल इस किले में स्थित एक और खूबसूरत सी संरचना है। यह एक बहुत बड़ा मंडप है, जिसमें किले के आस-पास की जगहों से खुदाई के समय मिली मूर्तियाँ रखी गयी हैं। इनमें से अधिकतर मूर्तियों के कोई लिखित प्रमाण नहीं मिलते। इस महल के मेहराबदार प्रवेशद्वार भारत-इस्लाम की प्राचीन वास्तुकला का सुंदर नमूना है। ये मेहराब इस मंडप के आंतरिक दीवारों को भी संभाले हुए हैं। इस मंडप की जमीन पर आयताकार आप्लावन बनवाया गया है जिसके पीछे का उद्देश्य में नहीं समझ सकी। उपाख्यानों के अनुसार यह आप्लावन सिताभ खान द्वारा बनवाया गया था। वे एक हिन्दू थे, और उनका नाम सीतापति था। वे काकतियों के प्रवेशद्वार के रक्षक हुआ करते थे। लेकिन ज़ौना खान के आक्रमण के बाद वे इस्लाम में परिवर्तित हुए और ज़ौना खान की तरफ से यहां से शासन चलाने लगे।

एकशीला और खुश महल के बीच के अंतर पर आपको साड़ियों पर कढ़ाई का काम, ज़्यादातर सलमा-सितारा की कढ़ाई करनेवाले कारीगर दिखेंगे जो मुगल काल की विशिष्टता रही है।

वारंगल किले की दिवारें

वारंगल शिल्पकला
वारंगल शिल्पकला

वारंगल किले की परिधि के अंतर्गत बनी सड़कों पर चलते समय आपको यहां-वहां किले की सुरक्षा दीवारों के टूटे हुए भाग नज़र आते हैं। कहीं पर एक छोटा सा प्रवेश द्वार दिखाई देता है,कहीं दीवारों के टूटे हुए टुकड़े,तो कुछ जगहों पर इन दीवारों के छोटे-छोटे अवशेष मिलते हैं।

वारंगल किले के पास ही एक पर्वत है जिस पर मिट्टी का एक सुंदर किला है। लेकिन समय की कमी के कारण हम वहां पर नहीं जा सके। काकतियों के पहले इस क्षेत्र पर जैनों का शासन हुआ करता था, जिसका कुछ-कुछ प्रभाव आप यहां-वहां देख सकते हैं।

तीन प्रकार के किले

झील के बीच आधुनिक शिल्प कला
झील के बीच आधुनिक शिल्प कला

हमारे गाइड ने हमे वारंगल किले के संदर्भ में कुछ चित्तरंजक सी बाते बताई हैं। उन्होंने बताया कि किले मूल रूप से तीन प्रकार के होते हैं।

• गिरि दुर्ग या वे किले जो किसी पर्वत पर बांधे जाते हैं, ताकि सुरक्षा हेतु दूर तक हो रही हलचल पर किले से ही नज़र रखी जा सके। और उन्हें दुश्मनों के आगमन की खबर समय रहते मिल सके।

• वन दुर्ग यानी वे किले जो घने जंगलों में बनवाए जाते हैं। इसका एक फायदा यह है कि आक्रमण के समय दुश्मनों के विरुद्ध आपको जंगली जानवरों से सुरक्षा मिलती है।

• जल दुर्ग यानी वे किले जो चारों तरफ से पानी से घिरे होते हैं। यह या तो प्रकृतिक जल स्रोतों द्वारा किया जाता है, या फिर खोदे हुए खंदकों में भरे पानी के द्वारा। और जब किसी को किले में आना-जाना होता है तब इन खंदकों के ऊपर लकड़ी का बड़ा सा तख़्ता गिराया जाता है ताकि वे लोग खंदक के पार जा सके।

वारंगल किला – किलाबंदी के 3 चरण

वारंगल दुर्ग की शिल्पकला
वारंगल दुर्ग की शिल्पकला

वारंगल किला सुरक्षा के इन सभी प्रकारों से रहित है। ना ही वह किसी पहाड़ी पर स्थित है, ना ही वह किसी जंगल में बसा हुआ है और ना ही उसके चारों ओर पानी है। इसीलिए यह किला बनानेवालों ने किले की सुरक्षा के लिए किलाबंदी के ये 3 चरण बनवाए। उन्होंने मिट्टी के किले बनवाए जिनके चारों ओर फिर खंदक बनवाए और किले की चारों प्रमुख दिशाओं में चार प्रवेश द्वार बनवाए।

वारंगल किले का विध्वंस

ग्यासुद्दीन तुगलक के बेटे ज़ौना खान, जिन्हें मुहम्मद बिन तुगलक के नाम से भी जाना जाता है,जो तब की दिल्ली सल्तनत के शासक हुआ करते थे, ने 14वी शताब्दी के मध्यकाल में वारंगल किले पर आक्रमण किया था। इस आक्रमण के दौरान उन्होंने यहां के सभी मंदिरों का विध्वंस किया। वे उस समय के काकतीय महाराज को बंदी बनाकर दिल्ली ले गए। लेकिन रास्ते में ही महाराज की मौत हो गयी थी। कुछ लोगों का मानना है कि ज़ौना खान ने ही महाराज का वध किया था, तो कुछ लोग मानते हैं कि महाराज ने आत्महत्या की थी। सच्चाई चाहे कुछ भी हो लेकिन इस घटना के साथ ही काकतीय वंशजों के वैभवपूर्ण काल का अंत हो चुका था।

वारंगल दुर्ग तेलंगाना का एक सांस्कृतिक अवशेष है, जिसे हैदराबाद से आसानी से देखा जा सकता है ।

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