रामायण यात्रा Archives - Inditales श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Wed, 20 Sep 2023 10:29:21 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 जनकपुर धाम – राम-जानकी का विवाहस्थल https://inditales.com/hindi/janakpur-dham-janaki-mandir-nepal/ https://inditales.com/hindi/janakpur-dham-janaki-mandir-nepal/#respond Wed, 17 Jan 2024 02:30:34 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3364

जनकपुर धाम मिथिला की प्राचीन राजधानी थी। यद्यपि वर्तमान में यह नेपाल की राजनैतिक सीमाओं के भीतर आता है तथापि सांस्कृतिक रूप से यह मिथिलाञ्चल का ही एक भाग है। नेपाल के जिस जिले के अंतर्गत जनकपुर है, उस जिले को धनुष कहा जाता है। इस जिले का यह नाम उस घटना से सम्बद्ध है […]

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जनकपुर धाम मिथिला की प्राचीन राजधानी थी। यद्यपि वर्तमान में यह नेपाल की राजनैतिक सीमाओं के भीतर आता है तथापि सांस्कृतिक रूप से यह मिथिलाञ्चल का ही एक भाग है। नेपाल के जिस जिले के अंतर्गत जनकपुर है, उस जिले को धनुष कहा जाता है। इस जिले का यह नाम उस घटना से सम्बद्ध है जहाँ रामायण काल में भगवान राम ने शिव धनुष तोड़ा था।

रामायण एवं जनकपुर का संबंध

रामायण से संबंधित दो महत्वपूर्ण यात्राएं हैं जो उसके मूल तत्व हैं।। दूसरी यात्रा के विषय में सब जानते हैं। भगवान राम दक्षिण की ओर यात्रा कर श्रीलंका पहुँचे थे तथा लंका के राजा रावण के साथ युद्ध किया था। रामायण को देखने, सुनने अथवा पढ़ने वाले चाहे जिस आयु के हों, यह यात्रा उनमें अधिक लोकप्रिय है। किन्तु प्रथम यात्रा के संबंध में कितने सविस्तार से जानते हैं?

जनकपुर धाम
जनकपुर धाम

भगवान राम ने किशोर अवस्था में प्रथम यात्रा की थी, गुरु विश्वामित्र के साथ। इसके अंतर्गत अनेक राक्षसों का वध करते हुए उन्होंने साधु-संतों एवं जनमानस को सुरक्षित किया था। इस यात्रा का एक महत्वपूर्ण भाग था, जनकपुर की यात्रा। वहाँ एक उद्यान में सीता जी से, जिन्हे जानकी भी कहा जाता है, उनकी प्रथम भेंट हुई थी। इसके पश्चात उन्होंने स्वयंवर में सीता से पाणिग्रहण आर्जित करने के लिए भगवान शिव का धनुष तोड़ा था। तत्पश्चात राम का सीता से विवाह हुआ था। साथ ही राम के तीन अनुज भ्राताओं का विवाह सीता की भगिनियों के साथ संपन्न हुआ था।

रामचरितमानस में उसके रचयिता गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री राम एवं जानकी के विवाहोत्सव का विस्तार पूर्वक उल्लेख किया है। उनका विवाह जिस दिवस संपन्न हुआ था, उसे विवाह पंचमी कहा जाता है। जनकपुर में, साथ ही अयोध्या में यह दिवस हर्षोल्हास से मनाया जाता है।

माँ सीता की कथा

सीता मिथिला के राजा जनक को उनके खेतों से तब प्राप्त हुई थी जब वे हलेश्वर महादेव की पूजा-अर्चना करने के पश्चात खेतों में हल चलाने लगे थे। उस स्थान को सीतामढ़ी के नाम से जाना जाता है। सीता का लालन-पालन राजा जनक के राजमहल में हुआ।

राम जानकी विवाह और मिथिला का जनजीवन
राम जानकी विवाह और मिथिला का जनजीवन

जब सीता विवाह योग्य हुई तब राजा जनक ने घोषणा की कि जो वीर भगवान शिव के धनुष को तोड़ेगा, वह सीता से विवाह करने का मान अर्जित करेगा। इस स्वयंवर से एक दिवस पूर्व एक उद्यान में अकस्मात ही श्री राम एवं सीताजी की भेंट हो गयी। उन्होंने एक दूसरे से एक शब्द भी नहीं कहा किन्तु उन्हे यह अंतर्ज्ञान हो गया था कि वे एक दूसरे के लिए बने हैं।

सीता ने मन ही मन देवी पार्वती से प्रार्थना की तथा राम के संग विवाह करने की इच्छा प्रकट ही। उनके सौभाग्य से श्री राम ने धनुष को तोड़ दिया तथा घोषणा के अनुसार सीता से उनका विवाह संपन्न हुआ। राम के तीन अनुज भ्राता, भरत, लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न का विवाह भी सीता की भगिनियाँ क्रमशः मांडवी, उर्मिला एवं श्रुतिकीर्ति से संपन्न हुआ।

एक ओर मैथिली विवाहोत्सव का विस्तृत अनुष्ठान रामायण कथा का महत्वपूर्ण भाग है, वहीं राजा जनक के आतिथ्य-सत्कार का रामायण में कम महत्व नहीं है। मिथिला की स्त्रियों को अभिमान है कि भगवान राम उनके जामाता हैं तथा इस नाते उन्हे श्री राम से ठिठोली करने का अधिकार प्राप्त है। मिथिला के अनेक लोकगीतों में इस नाते का उत्सव मनाया जाता है।

जनकपुर धाम

मैंने जब से अयोध्या की यात्रा की थी तथा अयोध्या माहात्म्य का अनुवाद किया था, मुझ में जनकपुर धाम की यात्रा करने की तीव्र अभिलाषा उत्पन्न हो गयी थी। मैंने रामायण से संबंधित अधिकांश स्थलों की यात्रा की है। उनमें श्री लंका के भी अधिकांश रामायण संबंधी स्थल सम्मिलित हैं। किन्तु मिथिला यात्रा मुझसे एक लंबे काल तक टालमटोली करती रही।

जनकपुर धाम जानकी मंदिर
जनकपुर धाम जानकी मंदिर

मैंने जनकपुर के विशाल जानकी मंदिर की छवि देखी थी। जानकी के लिए ऐसा ही भव्य मंदिर अब अयोध्या में भी बन रहा है। हृदय में इच्छा उत्पन्न हुई कि अयोध्या के इस जानकी मंदिर के दर्शन से पूर्व, क्यों ना उनके मायके में स्थित उसके मंदिर का दर्शन किया जाए!

जनकपुर में स्थित जानकी मंदिर अत्यंत विशाल है। उसे देख मुझे नाथद्वारा में स्थित श्रीनाथ जी की हवेली का स्मरण हो आया। जनकपुर के जानकी मंदिर में राजस्थानी स्थापत्य शैली स्पष्ट झलकती है। इस मंदिर का राजस्थान से क्या संबंध हो सकता है? मैंने कई आयामों पर दोनों के बीच संबंध ढूँढने का प्रयास किया किन्तु असफल रही। किन्तु पुरोहित जी से चर्चा करने के पश्चात ही मुझे ज्ञात हो पाया कि इस मंदिर की संरचना जयपुर स्थित गलाता जी मंदिर के संतों ने करवाया था।

जानकी मंदिर में राम -जानकी, लक्ष्मण उर्मिला, भरत मांडोवी, शत्रुघन श्रुतिकीर्ति
जानकी मंदिर में राम -जानकी, लक्ष्मण उर्मिला, भरत मांडोवी, शत्रुघन श्रुतिकीर्ति

इस मंदिर को नौलखा मंदिर भी कहते हैं। टीकमगढ़ की रानी वृषभानु कुमारी ने सन् १९१० में इस मंदिर के निर्माण के लिए नौ लाख स्वर्ण मुद्राओं का योगदान दिया था। यह मंदिर उसी स्थान पर निर्मित है जहाँ १७ वीं. शताब्दी में माँ सीता की स्वर्ण प्रतिमा प्राप्त हुई थी। यूनेस्को के वेबस्थल के अनुसार इस मंदिर के प्राचीनतम अवयव ११ वी. से १२ वीं सदी के मध्यकाल के हैं।

मंदिर के मुख्य द्वार के समक्ष स्थित प्रांगण अत्यंत विस्तृत है जिसकी भूमि पर संगमरमर लगा हुआ है। जब मैं वहाँ पहुँची थी, सम्पूर्ण प्रांगण भक्तगणों एवं दर्शनार्थियों से भरा हुआ था। उनमें कई नवविवाहित युगल भी थे जो पूर्ण रूप से अलंकृत होकर माता के दर्शन करने आए थे।

जनकपुर धाम का अभ्यंतर

जनकपुर धाम के भीतर प्रवेश करते ही आप परिसर के मध्य में एक सुंदर मंदिर देखेंगे। इसके चारों ओर वैसा ही गलियारा है जैसे शेखावटी हवेली में देखा था।

यह मूलतः एक श्वेत रंग का मंदिर है जिस पर चटक उजले रंगों द्वारा अलंकरण किया गया है। मंदिर के कुछ सोपान चढ़ते ही राम दरबार अपनी पूर्ण वैभवता के साथ हमारे समक्ष प्रकट हो जाता है। आपको अयोध्या के चारों भ्राताओं एवं मिथिला की उनकी भार्याओं के भव्य दर्शन होंगे। मैं जिस दिन यहाँ उपस्थित थी, वह स्वर्ण अलंकरण का दिवस था। आप सोच सकते हैं कि भव्य स्वर्ण अलंकरण के साथ अपनी पत्नी सहित चारों भ्राताओं की आभा कितनी अविस्मरणीय होगी!

सांस्कृतिक संग्रहालय

मंदिर के प्रथम तल के गलियारे में एक संग्रहालय है जिसमें सीता की कथा प्रदर्शित की गयी है। सीता माँ की जीवनी को डिजिटल चित्रावलियों के माध्यम् से प्रदर्शित किया गया है। जैसे ही सीता माँ के जन्म का दृश्य प्रदर्शित होता है, बधाई गीत बजने लगता है। सब दर्शकों का सर्वाधिक लोकप्रिय दृश्य वह है जहाँ श्री राम धनुष तोड़ते हैं। मुझे यह चित्रावली देख अत्यंत आनंद आया।

जनकपुर डोला परिक्रमा
जनकपुर डोला परिक्रमा

संग्रहालय में सीता माँ के वस्त्र एवं उनके आभूषण भी प्रदर्शित किये गए हैं।

मंदिर के चारों ओर की भित्तियों पर मिथिला चित्रकारी की गयी है जो मधुबनी चित्रकला के नाम से अधिक लोकप्रिय है। इन चित्रों में मुख्यतः श्री राम-जानकी विवाह के विविध अनुष्ठानों के दृश्य चित्रित किये जाते हैं। मिथिला परिक्रमा डोला एक अत्यंत रोचक चित्र है जिसमें परिक्रमा पथ दर्शाया गया है जो सम्पूर्ण नगर का भ्रमण करता है। अन्य अनेक ऐसे चित्र हैं जिनमें सामान्य जनमानस की जीवनशैली दर्शाई गयी है, जैसे लोहार आदि।

धनुष महायज्ञ
धनुष महायज्ञ

संग्रहालय से बाहर आते हुए आप मंदिर की छत पर पहुँच जाते हैं। यहाँ से मंदिर का विहंगम दृश्य दिखाई पड़ता है। छायाचित्रीकरण के लिए यह सबका लोकप्रिय स्थान है।

शालिग्राम मंदिर

हम सब जानते हैं कि शालिग्राम पत्थर नेपाल स्थित गण्डकी नदी के तल पर पाये जाते हैं। वस्तुतः अयोध्या में निर्माणाधीन राम मंदिर में स्थापित होने वाली भगवान राम की प्रतिमा के लिए पावन शिला जनकपुर से भेजी गयी है। ऐसी ही एक विशाल शिला इस मंदिर के परिसर में भी रखी गयी है।

शालिग्राम मंदिर - जनकपुर धाम
शालिग्राम मंदिर – जनकपुर धाम

मंदिर में एक विशेष कक्ष है जहाँ लाखों की संख्या में शालिग्राम रखे हुए हैं। बहुतलीय पात्रों में रखे इन शालिग्राम को आप एक जाली के इस ओर से देख सकते हैं। घोर श्याम वर्ण के ये शालिग्राम भिन्न भिन्न आकृति एवं आकार के हैं।

उन शालीग्रामों पर नव-पल्लवित पुष्प चढ़ाए हुए थे जिसे देख आप अनुमान लगा सकते हैं कि उनकी दैनिक पूजा-अर्चना की जाती है। कुछ शालिग्राम शिलाओं पर आभूषण एवं वस्त्र भी चढ़ाए हुए थे।

राम सीता धुन

अयोध्या के मंदिरों के अनुरूप ही इस मंदिर में भी, शालिग्राम कक्ष के समीप खुले प्रांगण में अखंडित रूप से राम धुन गायी जाती है।

आप भी उनमें सम्मिलित होकर राम नाम गा सकते हैं। विशेषतः कलियुग में यह आराधना का सबसे सुलभ व सुगम मार्ग है।

राम जानकी विवाह मंडप

मंदिर परिसर के भीतर, मुख्य मंदिर की सीमा के बाह्य भाग में एक ओर विवाह मंडप है। इस संरचना की छत ठेठ नेपाली शैली की है। इसकी तिरछी छत के कारण यह संरचना एक खुला मंडप प्रतीत होता है। मंडप के भीतर राजसी विवाह के दृश्य प्रदर्शित किये गए हैं।

चबूतरे के चारों कोनों में चार लघु मंदिर हैं जो राजपरिवार के उन चार जोड़ों को समर्पित हैं जिनका विवाह यहाँ संपन्न हुआ था। उन पर दर्शाये गए नामों को अनदेखा करें तो आप यह नहीं जान सकते कि कौन सा मंदिर किस जोड़े का है।

जानकी मंडप एवं मंदिर के उद्यान में पदभ्रमण का आनंद उठायें। गौशाला में भी कुछ क्षण अवश्य व्यतीत करें। आप चाहें तो उन गौओं को चारा भी खिला सकते हैं।

एक चबूतरे पर आप कुछ चरण चिन्ह देखेंगे। यहाँ उत्सव मूर्तियाँ रखी जाती हैं जब उन्हे परिक्रमा के लिए बाहर लाया जाता है।

एक छोटा शिव मंदिर भी है जिसमें एकादश लिंग स्थापित है। एकादश लिंग का अर्थ है, ११ विभिन्न लिंगों का एक संयुक्त लिंग।

जनकपुर जानकी मंदिर के विविध उत्सव

जनकपुर के जानकी मंदिर का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उत्सव है विवाह पंचमी, जो मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी के दिन मनाया जाता है। इसमें कोई शंका नहीं है क्योंकि इसी स्थान पर श्री राम का जानकी से विवाह सम्पन्न हुआ था।

इस मंदिर में राम नवमी भी धूमधाम से मनाई जाती है। इस दिवस श्री राम का जन्म हुआ था। राम नवमी चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन आयोजित की जाती है। मैंने राम नवमी के कुछ दिवस पूर्व इस मंदिर के दर्शन किये थे। उस समय इस मंदिर को राम नवमी उत्सव के लिए सज्ज किया जा रहा था।

दसैं अथवा दशहरा नेपाल का प्रमुख पर्व है।

नेपाल के दशहरा उत्सव के विषय में हमारी इस पुस्तक में पढ़ें – Navaratri – When Devi Comes Home

जनकपुर के अन्य मंदिर

अयोध्या के अनुरूप जनकपुर में भी अनेक मंदिर एवं जलकुंड हैं। इस क्षेत्र में ७० से भी अधिक जलाशय अथवा जलकुंड हैं। यहाँ के कुछ अन्य दर्शनीय मंदिर इस प्रकार हैं-

राम मंदिर

काष्ठ का बना राम मंदिर
काष्ठ का बना राम मंदिर

जानकी मंदिर के समीप स्थित यह अपेक्षाकृत एक छोटा मंदिर है जिसके समक्ष धनुष सागर जलकुंड है। अमर सिंग थापा द्वारा निर्मित यह एक आकर्षक मंदिर है जिसका निर्माण ठेठ नेपाली वस्तुशैली में किया गया है। इसके काष्ठ फलकों पर अप्रतिम उत्कीर्णन किये गए हैं जिनसे मंत्रमुग्ध हुए बिना आप नहीं रह पाएंगे।

राम मंदिर का राम दरबार
राम मंदिर का राम दरबार

राम मंदिर के चारों ओर अनेक शिवलिंग हैं। इस मंदिर में देवी भी पिंडी के रूप में हैं।

जब मैं इस मंदिर में दर्शन के लिए आयी थी, कुछ स्त्रियाँ भगवान के समक्ष सुंदर भजन प्रस्तुत कर रही थीं।

राज देवी मंदिर

राम मंदिर के समीप स्थित यह मंदिर जनक राजा की कुलदेवी को समर्पित है। इसीलिए इसे राज देवी मंदिर कहते हैं। मंदिर के विस्तृत प्रांगण के एक कोने में यह मंदिर स्थित है। यहाँ एक त्रिकोणीय यज्ञ कुंड है। प्रवेश द्वार से भीतर जाते हुए मार्ग पर विराजमान सिंह दर्शाते हैं कि यह देवी दुर्गा माँ का स्वरूप है।

जनक मंदिर

जानकी मंदिर एवं राम मंदिर के मध्य, मार्ग के मधोमध उजले नारंगी रंग का एक मंदिर है। यह जनकपुर के राजा जनक का मंदिर है। उन्हे राजर्षी अथवा संत राजा कहा जाता था।

लक्ष्मण मंदिर

लक्ष्मण को समर्पित यह मंदिर जानकी मंदिर के प्रवेश द्वार के समीप स्थित है, मानो लक्ष्मण उनका संरक्षण कर रहे हों।

जनकपुर के अन्य मंदिरों में हनुमान को समर्पित संकट मोचन मंदिर, कपिलेश्वर मंदिर तथा भूतनाथ मंदिर भी सम्मिलित हैं।

जनकपुर के जलकुंड अथवा जलाशय

  • गंगासागर – विवाह मंडप के समीप स्थित यह जलकुंड मार्ग के उस पार है। ऐसी मान्यता है कि इस जलकुंड के जल को गंगा नदी से लाया गया है।
  • राम सागर
  • धनुष सागर – राम मंदिर के निकट स्थित है ।
  • रत्न सागर
  • दशरथ कुंड
  • कमल कुंड
  • सीता मैया तलैया
राम मंदिर
राम मंदिर

जलेश्वर महादेव मंदिर – यह एक महत्वपूर्ण शिव मंदिर है जो जनकपुर से लगभग १६ किलोमीटर दूर, सीतामढ़ी के मार्ग पर स्थित है।

धनुष धाम – यह स्थल भगवान शिव के धनुष को समर्पित है जिसे भगवान राम ने तोड़ा था। यह जनकपुर से उत्तर-पूर्वी दिशा में लगभग २४ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। जनकपुर में ठहरकर वहाँ से एक दिवसीय यात्रा के रूप में इसके दर्शन किये जा सकते हैं।

परिक्रमा

भव्य शालिग्राम शिला
भव्य शालिग्राम शिला

जनकपुर धाम के चारों ओर पंच कोसी परिक्रमा की जाती है। यद्यपि यह परिक्रमा किसी भी दिवस की जा सकती है, तथापि नियमित भक्तगण इस परिक्रमा को होलिका दहन के दिन करते हैं।

जनकपुर यात्रा के समय आप गंगासागर सार्वजनिक पुस्तकालय तथा हस्तकला संग्रहालय का भी अवलोकन कर सकते हैं।  अल्प समय के चलते मैं इनके दर्शन नहीं कर पायी थी।

यात्रा सुझाव

जनकपुर दरभंगा से दो घंटे की दूरी पर स्थित है जो जनकपुर के लिए निकटतम विमानतल एवं रेल स्थानक है। नेपाल की ओर जनकपुर में भी विमानतल है जो वायुमार्ग द्वारा काठमांडू से जुड़ा हुआ है।

सड़क मार्ग द्वारा भारत-नेपाल सीमा को पार करने के लिए उपस्थित भीड़ के अनुसार २०-४० मिनटों का समय लग सकता है। आप अपने स्वयं के वाहन अथवा टैक्सी से भी जा सकते हैं।

जनकपुर में भारतीय मुद्रा की अनुमति है।

जनकपुर में भोजन विकल्प सीमित हैं। मिष्टान्न एवं फल पर्याप्त मात्र में उपलब्ध रहते हैं। जनकपुर धाम के भंडारे में प्रतिदिन दोपहर का भोजन भक्तों को प्रसाद के रूप में परोसा जाता है। वे मनःपूर्वक आपका स्वागत करते हैं।

मंदिर से संबंधित जो भी जानकारी इस संस्करण में मैंने दी है, उन सभी के दर्शन करने के लिए २-३ घंटों का समय आवश्यक है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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रामटेक – विदर्भ में रामायण के पदचिन्ह https://inditales.com/hindi/ramtek-gadhmandir-nagpur/ https://inditales.com/hindi/ramtek-gadhmandir-nagpur/#comments Wed, 20 Sep 2023 02:30:50 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3184

रामटेक, महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में नागपुर के निकट स्थित, ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण एक अद्भुत नगर। रामटेक में इतिहास के अनेक कालखंडों ने अपने चिन्ह अंकित किये हैं। रामटेक का रामायण से संबंध रामटेक नाम का संबंध श्री राम के जन्मस्थल अयोध्या से है। टेक का एक अर्थ है, संकल्प अथवा प्रतिज्ञा।  श्री राम […]

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रामटेक, महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में नागपुर के निकट स्थित, ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण एक अद्भुत नगर। रामटेक में इतिहास के अनेक कालखंडों ने अपने चिन्ह अंकित किये हैं।

रामटेक का रामायण से संबंध

रामटेक नाम का संबंध श्री राम के जन्मस्थल अयोध्या से है। टेक का एक अर्थ है, संकल्प अथवा प्रतिज्ञा।  श्री राम ने रामटेक में इस धरती को असुरों से मुक्त करने की प्रतिज्ञा ली थी। टेक का एक अर्थ सहारा अथवा आश्रय भी होता है। इसलिए रामटेक का अर्थ यह भी हो सकता है कि भगवान राम ने अपनी दक्षिणावर्त यात्रा काल में यहाँ कुछ क्षण विश्राम किया था।

रामटेक का अर्थ राम टेकड़ी भी है। यहाँ एक टेकड़ी अथवा छोटी पहाड़ी पर रामचंद्र जी का प्रसिद्ध मंदिर है। आरंभ में इस पहाड़ी को तपोगिरी कहते थे, जिसका शाब्दिक अर्थ है, तप की पहाड़ी। यहाँ अनेक साधू-संन्यासियों ने तप किया है।

अगस्त्य मुनि का आश्रम

आप सोच रहे होंगे कि श्री राम का यहाँ आने का क्या प्रयोजन था! यहाँ ऋषि अगस्त्य का आश्रम था। अपने १४ वर्षों के वनवास काल में श्री राम जी उनसे भेंट करने के लिए यहाँ आये थे।

रामटेक गढ़ मंदिर का प्रवेश द्वार
रामटेक गढ़ मंदिर का प्रवेश द्वार

आपने रामायण में पढ़ा होगा कि भारत के सघन वनों के भीतर विचरण करते हुए श्री राम ने अनेक असुरों का वध किया था। उन्होंने घने वनों के भीतर अपने आश्रम में साधना करते अनेक साधू-संतों को अभय व सुरक्षा का आश्वासन दिया था। दण्डकरण्य ऐसा ही एक सघन वन था। रामटेक इसका एक भाग था। इस क्षेत्र में विचरण करते असुर ऋषियों एवं साधकों को शांति से साधना नहीं करने देते थे।

ऋषि अगस्त्य से भेंट करने आये श्री रामचन्द्र जी को ऋषियों की यह दयनीय स्थिति ज्ञात हुई। तब उन्होंने धरती को उन असुरों से मुक्त करने की प्रतिज्ञा ली जिन्होंने अनेक ऋषियों का वध किया था। साथ ही उन्होंने असुरों द्वारा मारे गए ऋषियों के लिए यहाँ तर्पण भी किया था। इसके लिए उन्होंने भारत के सभी तीर्थों को अम्बाकुंड भोगवती में आमंत्रित किया था। वर्तमान में यह अम्बाला तालाब के नाम से जाना जाता है।

अगस्त्य मुनि की पत्नी लोपामुद्रा विदर्भ राजा की कन्या थी। विदर्भ क्षेत्र रामटेक के समीप स्थित है।

अगस्त्य मुनि ने श्री राम, देवी सीता एवं लक्ष्मण से प्रार्थना की थी कि वे तपोगिरी पर्वत पर ज्योति के रूप में विराजमान हो जाएँ। ऐसा माना जाता है कि अगस्त्य मुनि के आश्रम में जो ज्योत प्रज्ज्वलित है, वह वास्तव में त्रेता युग से विराजमान श्री राम, देवी सीता एवं लक्ष्मण का प्रतिरूप है।

श्री राम की दूसरी भेंट

अयोध्या के राजा का पदभार स्वीकार करने के पश्चात भगवान राम पुनः रामटेक आये थे। पौराणिक कथाओं के अनुसार अयोध्या के रामराज्य में किसी भी व्यक्ति की मृत्यु अपने परिवार के ज्येष्ठ सदस्यों की मृत्यु से पूर्व नहीं होती थी। किन्तु एक दिवस श्री राम जी की आमसभा में एक व्यक्ति उपस्थित हुआ जिसके हाथों में उसके पुत्र का मृतदेह था। उसका आक्षेप था कि राज्य में कहीं अधर्म हो रहा है जिसके कारण उससे पूर्व उसके पुत्र का देहांत हो गया है। रामटेक के समीप शम्बूक नामक साधक सदेह स्वर्ग गमन हेतु तपस्या कर रहा था। उसे इस तप का अधिकार नहीं था। श्री राम ने रामटेक आकर शम्बूक को इस जीवन से मुक्त किया जिससे ब्राह्मण पुत्र पुनः जीवित हो उठा।

शम्बूक ने राम जी से प्रार्थना की कि वे सीता एवं लक्ष्मण समेत अपने राजावतार में उस पहाड़ी पर स्थाई हो जाएँ। श्री राम ने उसकी प्रार्थना स्वीकार की।

इस यात्रा में श्री राम के साथ हनुमान जी भी आये थे। शम्बूक का वध करते समय हनुमान ने राम का धनुष धारण किया था तथा राम ने केवल तीर से शम्बूक का वध किया था। यहाँ हनुमान जी का एक मंदिर है जहाँ हनुमान जी को भगवान राम का धनुष धारण करते हुए दर्शाया गया है। कदाचित यही एक ऐसा मंदिर है जहाँ हनुमान की ऐसी प्रतिमा स्थापित है।

रामटेक पहाड़ी के मंदिर

रामटेक मंदिर रामटेक पहाड़ी पर स्थित है। यह गढ़ मंदिर के नाम से भी लोकप्रिय है क्योंकि इसकी संरचना एक गढ़ के समान है। यहाँ से चारों ओर के परिदृश्यों को निहारा जा सकता है। पहाड़ी पर चढ़कर जिस प्रवेश द्वार के द्वारा हम मंदिर में प्रवेश करते हैं, वह प्रवेश द्वार भी किसी राज गढ़ के प्रवेश द्वार सा प्रतीत होता है। कदाचित उन्होंने अयोध्या का प्रतिरूप बनाने की चेष्टा की होगी।

रामटेक का इतिहास

मुझे बताया गया कि ऐतिहासिक दृष्टि से भगवान राम एवं अगस्त्य आश्रम की उपस्थिति दर्शाने के लिए यहाँ केवल राम पादुकाएं ही थीं। १२-१४ ई. में सर्वप्रथम यादव शासकों ने यहाँ एक मंदिर का निर्माण कराया था। वर्तमान में जो मंदिर यहाँ उपस्थित है, उसका निर्माण १८वीं ई. में नागपुर के रघुजी भोंसले ने करवाया था। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार रघुजी भोंसले ने प्रतिज्ञा की थी कि देवगढ़ के युद्ध में विजय प्राप्त करने के पश्चात वे यहाँ एक मंदिर का निर्माण करवाएंगे।

गढ़ मंदिर का गोकुल द्वार
गढ़ मंदिर का गोकुल द्वार

मंदिर में भगवान राम, सीता एवं लक्ष्मण की प्राणप्रतिष्ठा करवाने के लिए रघुजी भोंसले ने जयपुर से उनकी प्रतिमाएं गढवा कर बुलवाई थीं। किन्तु उन्होंने अपने स्वप्न में देखा कि यहाँ स्थित तीनों की प्राचीन मूर्तियाँ सुर नदी के तल पर पड़ी हैं। शोध करने पर नदी के तल से तीन प्राचीन प्रतिमाएं प्राप्त भी हुईं। मंदिर के भीतर उन्ही तीन प्रतिमाओं को स्थापित कर उनकी प्राण प्रतिष्ठा की गई थी। जयपुर से बुलवाई गयी मूर्तियों को मंदिर की संपत्ति के रूप में संग्रहीत कर रखा गया है।

रघुजी भोंसले ने गढ़ के अनुरूप इस मंदिर के चारों ओर भी प्राचीर की संरचना करवाई थी। यह वही काल था जब मंदिरों पर आक्रान्ताओं का आक्रमण एक सामान्य घटना थी। कदाचित इसी तथ्य को ध्यान में रखकर मंदिर के चारों ओर भित्तियाँ बनवाई गई थीं।

इस मंदिर का निर्माण शिलाखंडों द्वारा हेमादपंती स्थापत्य शैली में किया गया है। इस शैली की विशेषता है, इसका उंचा शिखर एवं स्तंभों द्वारा अलंकृत मंडप।

गढ़ मंदिर

पहाड़ी के शिखर पर स्थित मुख्य मंदिर परिसर के भीतर अनेक छोटे-बड़े मंदिर हैं।

अगस्त्य मुनि प्रतिमा
अगस्त्य मुनि प्रतिमा

हम गोकुल द्वार से मंदिर के भीतर प्रवेश करते हैं। गोकुल द्वार को विपुलता से उत्कीर्णित किया गया है। उस पर एक विशाल घंटा लटका हुआ है। इसके दोनों ओर अलंकृत शैल स्तम्भ हैं। मंदिर परिसर के भीतर प्रवेश करते ही प्रथम दृष्टि अगस्त्य आश्रम पर पड़ती है। एक श्वेत भित्ति पर लाल अक्षरों में इस स्थान से संबंधित पौराणिक कथा का अभिलेखन किया गया है।

गढ़ मंदिर राम मंदिर रामटेक
गढ़ मंदिर राम मंदिर रामटेक

आश्रम के भीतर एक अखंड ज्योत है जो इस स्थान का सर्वाधिक परम तत्व है। ऐसी मान्यता है कि यह ज्योत उस काल से अनवरत प्रज्ज्वलित है जब श्री राम रामटेक पधारे थे। यहाँ राधा-कृष्ण का भी एक मंदिर है। अनुमानतः, यह मंदिर कालांतर में निर्मित किया गया है।

लक्ष्मण मंदिर
लक्ष्मण मंदिर

आश्रम के पश्चात आपकी दृष्टि लक्ष्मण मंदिर पर पड़ेगी। साधारणतः लक्ष्मण को श्री राम एवं सीता माता के संग देखा जाता है। किन्तु यहाँ लक्ष्मण का मंदिर श्री राम एवं सीता माता के मंदिर के समक्ष स्थित है। ऐसा प्रतीत होता है मानो वे अब भी दंडकारण्य में उनका रक्षण कर रहे हैं।

गढ़ मंदिर की संरचना
गढ़ मंदिर की संरचना

लक्ष्मण मंदिर के पृष्ठभाग में मुख्य मंदिर स्थित है। राम-सीता का यह मंदिर छोटा अवश्य है किन्तु यह एक अत्यंत आकर्षक मंदिर है। इसका वृत्ताकार मंडप हमें गर्भगृह की ओर ले जाता है।

राम-सीता मंदिर के समक्ष एक हनुमान मंदिर एवं एक लघु गरुड़ मंदिर भी हैं।

पुष्कर के पश्चात, यह दूसरा स्थान है जहाँ मुझे एकादशी माता का मंदिर दृष्टिगोचर हुआ।

त्रिविक्रम मंदिर

यह एक प्राचीन मंदिर है जो पहाड़ी के वाहन स्थल के समीप स्थित है। यहाँ तक पहुँचने के लिए हमें पहाड़ी पर स्थित कच्ची पगडंडी पर कुछ दूर रोहण करना पड़ता है। यह एक मुक्ताकाश मंडप है। कुछ सोपान चढ़कर हम वहाँ तक पहुँचते हैं।

प्राचीन त्रिविक्रम मंदिर
प्राचीन त्रिविक्रम मंदिर

एक मुक्ताकाश चबूतरे पर त्रिविक्रम रूप में भगवान विष्णु की एक प्राचीन प्रतिमा स्थापित है। प्रतिमा खंडित होने के पश्चात भी आप देख सकते हैं कि विग्रह का दायाँ पैर उठा हुआ है। प्रथम दर्शनी यह प्रतिमा पकी मिट्टी (टेराकोटा) द्वारा संरचित प्रतीत होती है। किन्तु ध्यान से अवलोकन करते पर ज्ञात होता है कि इस प्रतिमा की रचना में लाल रंग के बलुआ शिला का प्रयोग किया गया है। यह एक स्थानीय शिलाखंड है। मैंने ऐसी शिलाएं नागपुर एवं उसके आसपास के अनेक मंदिरों में देखा है।

इन मंदिरों की निर्माण अवधि ५वीं शताब्दी के आरम्भ काल की आंकी गयी है। इसका अर्थ है कि ये मंदिर भारत के प्राचीनतम मंदिरों की सूची में सम्मिलित हैं।

सिन्दूर बावड़ी

यह एक विशाल बावड़ी है जिसके भीतर सोपान निर्मित हैं। यह उस स्थान पर स्थित है जहाँ आप अपने वाहन खड़ा करते हैं। इसका नाम सिन्दूर बावड़ी है। इस बावड़ी के एक ओर स्तंभ युक्त मंडप है।

इस बावड़ी का नाम सिन्दूर बावड़ी कदाचित इसलिए रखा गया है क्योंकि इसके आसपास पाए जाने वाले शिलाखंडों का रंग सिंदूरी है। मुझे यह भी बताया गया कि इस पहाड़ी का एक नाम सिन्दूर गिरी भी है। कदाचित बावड़ी के नाम की व्युत्पत्ति यहीं से हुई हो।

उग्र नरसिंह मंदिर

उग्र नरसिंह मूर्ति
उग्र नरसिंह मूर्ति

यह भी एक छोटा मंदिर है जिसे लाल बलुआ शिलाखंडों द्वारा निर्मित किया गया है। इसके भीतर अनेक शैल स्तंभ हैं। गर्भगृह के भीतर स्थापित उग्र नरसिंह की प्रतिमा इतनी विशाल है कि उसने गर्भगृह का लगभग सम्पूर्ण अंतराल ग्रहण कर लिया है। मंदिर के समक्ष एक लघु मंडप भी है।

मुख्य प्रतिमा के दोनों पार्श्वभागों में अन्य प्रतिमाएं रही होंगीं किन्तु उनके विषय में मुझे जानकारी प्राप्त नहीं हुई।

केवल नरसिंह मंदिर

यह एक छोटा सा मंदिर है जिसकी बाह्य भित्तियों पर आकर्षक शिल्पकारी की गयी है। प्रवेश द्वार के चौखट पर भगवान विष्णु के विभिन्न अवतारों को उकेरा गया है। एक ऊँचे चबूतरे पर स्थित इस मंदिर में नरसिंह की लगभग दो मीटर ऊंची विशाल प्रतिमा है। इसके समक्ष स्थित मंडप में चार उत्कीर्णित शैल स्तंभ हैं।

प्राचीन केवल नरसिंह मंदिर
प्राचीन केवल नरसिंह मंदिर

इस मंदिर के समीप मुक्ताकाश के नीचे एक नाग मंदिर है जिसके समीप एक विशाल त्रिशूल रखा हुआ है।

समीप ही एक अन्य लघु मंदिर है जो एक ठेठ वाहन मंदिर है। इसके भीतर भी नरसिंह की वैसी ही प्रतिमा स्थापित है। इस प्रतिमा पर सिन्दूर का लेप है जिसके कारण लोग इसे हनुमान की मूर्ति समझ लेते हैं।

वराह मंदिर

वराह मंदिर
वराह मंदिर

गढ़ मंदिर जाते हुए आधी दूरी पार करते ही आप एक विस्तृत परिसर में विराजमान एक लघु मंदिर पर पहुँचेंगे। चार स्तंभों से युक्त चबूतरे पर वराह की एक विशाल प्रतिमा स्थापित है।

एक प्रचलित मान्यता के अनुसार केवल सदाचारी धर्मभीरु व्यक्ति ही वराह के उदर के नीचे से उस पार जा सकता है।

रामटेक गढ़ मंदिर के उत्सव

यह अत्यंत स्वाभाविक ही है कि राम नवमी इस मंदिर का एक विशेष व महत्वपूर्ण उत्सव है।

राम नवमी के अतिरिक्त एक अन्य महत्वपूर्ण उत्सव कार्तिक चतुर्दशी के दिवस आयोजित जाता है। अर्थात् कार्तिक पूर्णिमा से एक दिवस पूर्व, जब मंदिर में कार्तिक उत्सव आयोजित किया जा रहा है। इस दिन भगवान शिव को तुलसी एवं भगवान विष्णु को बिल्व पत्र अर्पित किये जाते हैं। यह अनूठी अदला-बदली यह दर्शाती है कि शिव एवं विष्णु वास्तव में समरूप ही है।

कालिदास व रामटेक का संबंध

उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य ने अपने दरबार के राजकवि कालिदास को रामटेक भेजा था क्योंकि उनकी पुत्री का विवाह विदर्भ में हुआ था। रामटेक पहाड़ी पर उन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना, दूतकाव्य की रचना की थी। इस काव्य का नाम था, मेघदूत। इस काव्य रचना के आरम्भ में ही रामटेक पहाड़ी का उल्लेख किया गया है।

रामटेक स्थित कालिदास स्मारक
रामटेक स्थित कालिदास स्मारक

पहाड़ी पर नवनिर्मित कालिदास स्मारक उसी लोकप्रिय कवि कालिदास एवं उनकी प्रसिद्ध काव्य रचना मेघदूत का उत्सव मनाता है। ॐ के आकार में निर्मित इस स्मारक के कक्ष में अनेक चित्र प्रदर्शित है जो कालिदास की विभिन्न रचनाओं का चित्रण करते हैं। यहाँ एक मुक्ताकाश रंगशाला भी है। रंगशाला के चारों ओर की भित्तियों पर मेघदूत के विभिन्न दृश्यों को चित्रित किया गया है। बाह्य भित्तियों पर मेघदूत के सभी छंदों को उकेरा गया है।

यदि स्मारक स्थल की स्वच्छता एवं रखरखाव पर अधिक ध्यान दिया गया होता तथा इस स्मारक को जीवंत बनाने के अधिक प्रयास किये गए होते तो ये उस महान कवि के प्रति महान श्रद्धांजलि होती। यह मेरे द्वारा देखे गए सर्वाधिक अस्वच्छ स्थलों में से एक था। इस स्मारक के चारों ओर झाड़ियाँ उगी हुई थीं तथा सर्वत्र कूड़ा-करकट फैला हुआ था।

कालिदास जैसे महान कवि के लिए सुन्दर शैल स्मारक निर्माण करने का क्या प्रयोजन यदि उनकी रचनाएँ ना किसी पुस्तक की दुकान में दृष्टिगोचर होती हैं, ना ही किसी कथानक, नाटक अथवा चलचित्र में उनका चित्रण किया जाता है! आशा है कि महाराष्ट्र पर्यटन इसका संज्ञान ले तथा इस स्मारक की स्वच्छता एवं रखरखाव पर लक्ष केन्द्रित करे ताकि इसे एक लोकप्रिय व जीवंत स्मारक बनाया जा सके।

रामटेक एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। यहाँ पर्याप्त संख्या में पर्यटक आते हैं। यदि यहाँ के परिदृश्यों को अधिक आकर्षक बनाया जाए, कुछ जलपान गृह खोले जाएँ तथा कुछ विशेष शिक्षण गतिविधियों को इसमें जोड़ा जाए तो रामटेक भ्रमण एक अद्वितीय अनुभव सिद्ध हो सकता है।

कपूर बावड़ी

रामटेक पहाड़ी की तलहटी पर स्थित कपूर बावड़ी अथवा कर्पूर बावड़ी एक प्राचीन बावड़ी है। इसके निकट एक मंदिर भी है जो इस समय जर्जर अवस्था में है। मुझे यह देख अत्यंत वेदना हुई कि पर्यटक इस मंदिर की जर्जर अवस्था से नितांत अन्यमनस्क हैं। मैंने अनेक लोगों को मंदिर के शिखर पर जूते-चप्पलों के साथ भी चढ़ते देखा। मुझे ये देख अत्यंत पीड़ा हुई।

कपूर बावड़ी रामटेक
कपूर बावड़ी रामटेक

बावड़ी में जल का स्तर अत्यधिक होने के कारण मैं मंदिर के दर्शन नहीं कर पायी थी। बावड़ी कमल के पुष्पों से सुशोभित थी। इस क्षेत्र में छोटे छोटे जलाशयों में सिंघाड़े की खेती सामान्य है। सिंघाड़े की खेती के साथ साथ कमल के पुष्पों की भी खेती की जाती है। यहाँ के मंदिरों में अर्पित करने के लिए ये कमल के पुष्प सर्वत्र उपलब्ध होते हैं।

एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि यह मंदिर भगवान शिव का है जो यहाँ कर्पुरेश्वर के रूप में स्थानस्थ हैं। वहीं एक अन्य व्यक्ति ने इसे सप्तमातृका मंदिर बताया। मुझे अचरज नहीं होगा यदि ये सभी यहाँ स्थानस्थ होंगे क्योंकि मैं इस भंगित संरचना में भी तीन मंदिर शिखर स्पष्ट रूप से देख पा रही थी। इसका अर्थ है कि यहाँ तीन मंदिर हैं।

बावड़ी के तीन पार्श्वभागों में तीन गलियारे हैं। कदाचित उन गलियारों के ऊपर भी मंदिर स्थित रहे होंगे। शिखर के शीर्ष पर बिठाए जाने वाला अमलका, कुछ खंडित मूर्तियाँ आदि यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं।

आशा है कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग शीघ्र ही पहल करे तथा इस मंदिर एवं बावड़ी के संरक्षण की दिशा में त्वरित कार्य करे। यह एक सुन्दर बावड़ी है। यदि इसका रखरखाव सुनिश्चित किया जाए तो यह अनेक पर्यटकों एवं भक्तों को आकर्षित कर सकता है।

कर्पूर बावड़ी के निकट एक प्राचीन शांतिनाथ जैन मंदिर भी है किन्तु मैं उसके दर्शन नहीं कर पायी थी।

रामसागर के अप्रवाही जल में कयाकिंग जैसी विभिन्न जलक्रीडाएं आयोजित की जाती हैं। आप उनका भी आनंद ले सकते हैं।

यात्रा सुझाव

रामटेक नागपुर से लगभग ५० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। अतः यह देश के विभिन्न भागों से वायुमार्ग, रेलमार्ग अथवा सड़कमार्ग द्वारा सुव्यवस्थित रूप से जुड़ा हुआ है।

इस पर्यटन स्थल का अवलोकन करने के लिए २-३ घंटों का समय आवश्यक है। जिन्हें इतिहास में रूचि हो, वे यहाँ एक से दो दिवस आसानी से व्यतीत कर सकते हैं। उनकी जिज्ञासु रूचि के लिए यह स्थान अनेक प्राचीन धरोहर स्थलों से संपन्न है।

पहाड़ी पर सीधे रोहण करने के लिए लगभग ७०० सोपान हैं। अन्यथा आप वाहन द्वारा पहाड़ी की तलहटी तक जा सकते हैं। वाहन स्थल से पहाड़ी के शीर्ष तक आपको लगभग १५० सोपान चढ़ने पड़ेंगे।

वाहन स्थल से मंदिर के प्रवेश द्वार तक, सम्पूर्ण मार्ग में अनेक दुकानें हैं जहाँ जलपान, स्मृति चिन्ह, पुष्प तथा अन्य पूजा सामग्री उपलब्ध हैं।

मुख्य मंदिर के बाह्य भागों में छायाचित्रीकरण की अनुमति है किन्तु मंदिर के भीतर छायाचित्रीकरण निषिद्ध है।

पहाड़ी पर वानरों का भी वास है। अतः साथ में खाने पीने की सामग्री हो तो सावधानी रखें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस पठन के ५ मुख्य उद्देश्य https://inditales.com/hindi/tulsidas-ramcharitmanas-kyun-padhen/ https://inditales.com/hindi/tulsidas-ramcharitmanas-kyun-padhen/#comments Wed, 02 Nov 2022 02:30:08 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2850

मेरा ध्येय है कि मैं सदा मूल भारतीय ग्रंथों का ही पठन करूँ। इसी कड़ी में मैंने गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के पठन का निश्चय किया। हम सब जानते हैं कि भारत के दो प्रमुख महाकाव्य, रामायण एवं महाभारत पर असंख्य व्याख्याएं, टिप्पणियाँ तथा व्युत्पन्न रचनाएँ प्रकाशित की गयी हैं। इसी कारण मैंने सर्वप्रथम […]

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मेरा ध्येय है कि मैं सदा मूल भारतीय ग्रंथों का ही पठन करूँ। इसी कड़ी में मैंने गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के पठन का निश्चय किया। हम सब जानते हैं कि भारत के दो प्रमुख महाकाव्य, रामायण एवं महाभारत पर असंख्य व्याख्याएं, टिप्पणियाँ तथा व्युत्पन्न रचनाएँ प्रकाशित की गयी हैं। इसी कारण मैंने सर्वप्रथम कालिदास की रघुवंशम् से मेरा पठन आरम्भ किया। इसके पश्चात मैंने गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के पठन का निश्चय किया। इसका मुख्य कारण था कि भले ही यह अत्यंत विस्तृत ग्रन्थ है, मैंने अनुमान लगाया कि इसका पठन अपेक्षाकृत सरल होगा।

गोस्वामी तुलसीदास रामचरितमानस पठन के ५ मुख्य उद्देश्य
गोस्वामी तुलसीदास रामचरितमानस पठन के ५ मुख्य उद्देश्य

रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने अवधी भाषा का प्रयोग किया है। अवधी भाषा से स्वयं को अभ्यस्त करने में मुझे कुछ समय लगा। ११०० पृष्ठों के रामचरितमानस के पठन के आरंभिक चरण में मेरी पठन की गति अत्यंत धीमी थी। जैसे आरम्भ में मैं एक दिवस में केवल एक अथवा दो पृष्ठ ही पठन कर पाती थी। किन्तु मैंने रामचरितमानस पठन में विराम लगने नहीं दिया। शनैः शनैः मैं अवधी भाषा से अभ्यस्त होने लगी तथा मेरी पठन गति में भी वृद्धि होने लगी। कुछ दिवसों पश्चात् मैं औसतन १० पृष्ठ प्रतिदिन पठन करने लगी थी। एक यात्रा संस्करण लेखिका होने के कारण यात्राओं एवं संस्करण लेखन के लिए भी मुझे समय निर्दिष्ट करना पड़ता है। अन्य सामाजिक गतिविधियों में भी योगदान देने का मेरा सतत प्रयास रहता है। अतः, प्रायः अपनी सभी गतिविधियों को यथावत रखते हुए मुझे ११०० पृष्ठों के रामचरितमानस के पठन में लगभग ६ मास का समय लगा।

मूल रामचरितमानस ग्रन्थ के पठन के पश्चात मैंने जो अनुभव प्राप्त किया, वह आपसे साझा कर रही हूँ।

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित मूल रामचरितमानस पठन

यदि मेरे लिए संभव है तो आपके लिए भी संभव है।

मेरे पास गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित रामचरितमानस ग्रन्थ है जिसमें ११०० पृष्ठ हैं। इसमें अवधी भाषा का प्रयोग किया गया है। साथ ही कुछ स्थानों पर संस्कृत भाषा में श्लोक इत्यादि हैं। उन सभी का क्रमशः हिन्दी में अनुवाद किया गया है। आरम्भ में मुझे यह एक कठिन कार्य प्रतीत हुआ।

ग्रन्थ आरम्भ करने से पूर्व मैंने इसे पूर्ण करने के लिए ३ वर्षों से अधिक समय का अनुमान लगाया था। किन्तु जैसे ही अवधी भाषा में मेरी प्रवीणता में वृद्धि होने लगी, उसका पठन शनैः शनैः सरल प्रतीत होने लगा। पठन गति में वृद्धि होने लगी। मैं प्रतिदिन प्रातः शीघ्र उठती, स्नानादि के पश्चात पृष्ठों की नियत संख्या का पठन करती, उसके पश्चात ही अपने दैनिक व्यवसायिक कार्यों का आरम्भ करती थी।

जो पाठक हिन्दी भाषा में धाराप्रवाह पठन करते हैं, उन्हें अवधी कदापि कठिन प्रतीत नहीं होगी। अवधी भाषा में कुछ शब्दों के अर्थ समझ में आ जाएँ तथा उनके समान्तर शब्दों का प्रयोग भी जान जाएँ तो आपको पुनः पुनः शब्दकोष के पृष्ठ पलटने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

अपने अनेक व्यवसायिक क्रियाकलापों के साथ यदि मैं इसका पठन कर सकती हूँ तो आप भी कर सकते हैं। यदि आपकी इच्छाशक्ति दृढ़ है तो आप इसके लिए समय अवश्य निकाल सकते हैं।

और पढ़ें: मीनाक्षी जैन द्वारा लिखित राम एवं अयोध्या

यह केवल श्रीराम की एक कथा नहीं है

यद्यपि रामचरितमानस में श्री राम की कथा का प्रमुखता से उल्लेख किया गया है, तथापि यह ग्रन्थ कथा के विभिन्न आयामों को विस्तार से दर्शाता है। भगवान राम के जन्म से पूर्व भगवान शिव एवं माता पार्वती के विवाह का विस्तृत वर्णन किया गया है। ऐसी अनेक घटनाओं  का उल्लेख है जिनका श्रीराम की कथा से सीधा सम्बन्ध नहीं है। जैसे भगवान विष्णु द्वारा अयोध्या में भगवान राम के रूप में जन्म लेने की पृष्ठभूमि में स्थित विभिन्न कारण।

राम-जानकी विवाह की कथा में राम एवं लक्ष्मण के संबंधों पर प्रमुखता से ध्यान केन्द्रित किया गया है। राम-भरत मिलाप की कथा भरत के चरित्र को उजागर करती है तथा उसी पर ध्यान केन्द्रित करती है। सुन्दर काण्ड में गोस्वामीजी ने हनुमान जी एवं भगवान राम के प्रति उनके प्रेम से हमें अवगत कराया है। लंका नरेश रावण की स्वर्ण नगरी की भव्यता का विस्तृत रूप से उल्लेख किया है।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के विभिन्न पात्रों के चरित्र को इतनी विलक्षणता से चित्रित किया है कि हम सहज रूप से उनके संबंध हमारे आसपास के व्यक्तिमत्वों से जोड़ने लगते हैं।

जब भगवान राम लंका पर विजय प्राप्त कर सीता माता के साथ अयोध्या वापिस आते हैं तथा राम राज्य की स्थापना करते हैं, वहीं रामचरितमानस की कथा समाप्त होती है। मेरे लिए सम्पूर्ण रामचरितमानस का सर्वाधिक मनमोहक भाग है, राम राज्य का उल्लेख। यह उस आदर्श राज्य की कल्पना है जब सृष्टि के प्रत्येक तत्व का अन्य तत्वों से पूर्ण सामंजस्य होता है। अपने सुन्दर दोहों व छंदों द्वारा उन्होंने राम राज्य की अप्रतिम संकल्पना दी जिसके अनुसार – यदि प्रत्येक मनुष्य अपने धर्म एवं वर्ण के अनुसार कृति करे तब यह सम्पूर्ण विश्व भय, रोगों एवं दुखों से मुक्त हो जाएगा। मेरे अनुमान से राम राज्य की संकल्पना पर एक स्वतन्त्र एवं विस्तृत संस्करण लिखा जाना चाहिए।

और पढ़ें: अयोध्या की तस्वीरें – शारदा दुबे

रामचरितमानस में मिथकों का खंडन

हमने अनेक सूत्रों द्वारा रामायण की कथाओं को सुना तथा देखा है। जिसे रामायण के पात्रों का जैसा चरित्र उचित जान पडा, उसने उसका वैसा वर्णन किया है। इसके कारण पाठकों एवं दर्शकों के मन-मस्तिष्क में अनेक मिथकों ने जन्म लिया है। मैं भी उनसे अछूती नहीं थी। किन्तु जब मैंने रामचरितमानस का मूल ग्रन्थ पढ़ा, मेरे मस्तिष्क में घर कर बैठे अनेक मिथकों का खंडन हो गया। जैसे रामचरितमानस के अरण्य काण्ड में, जहां से सीता माता का अपहरण किया गया था, वहाँ लक्ष्मण रेखा का कोई उल्लेख नहीं किया गया है। लक्ष्मण केवल आसपास के वृक्षों से निवेदन करते हैं कि वे उनकी अनुपस्थिति में सीता माता का ध्यान रखें।

लक्षमण रेखा के विषय में लंका काण्ड में मंदोदरी ने केवल सरसरी रूप से उल्लेख किया है जब वे रावण को उलाहना देते हुए कहती हैं कि आपने लक्षमण द्वारा खींची गयी रेखा का उल्लंघन किया है तो अब राम का सामना कैसे करोगे? लक्ष्मण रेखा शत्रुओं अथवा अवांछित तत्वों द्वारा ना लांघने के लिए खींची गयी थी, ना कि सीता के लिए।

रामचरित मानस के इस संस्करण में सीता माता के अयोध्या से निष्कासन की कोई कथा नहीं है। यहाँ तक कि लव व कुश के जन्म का उल्लेख भी एक-चौथाई दोहे में कर दिया गया है। राम द्वारा सरयू नदी में समाधि लेने का भी कहीं उल्लेख नहीं है।

जब राजा दशरथ की तीनों रानियाँ राम से भेंट करने वन में जाती हैं तब उन्हें देखकर राम को यह कदापि ज्ञात नहीं होता है कि पिता राजा दशरथ का निधन हो गया है। विधवा, इस शब्द का कहीं उल्लेख नहीं है। उन्हें सदा रानी अथवा माता से संबोधित किया गया है।

और पढ़ें: बिठूर – गंगा किनारे ब्रह्मा एवं वाल्मीकि की भूमि

संवादों द्वारा कथाकथन

भारतीय ग्रंथों को संवादों तथा वार्तालाप के रूप में लिखा गया है। रामचरितमानस में भी श्री राम की कथा शिव एवं पार्वती के मध्य तथा काक भुशुण्डी एवं गरुड़ के मध्य संवादों के रूप में रचित है। गोस्वामी तुलसीदास स्वयं भी यदा-कदा अपनी उपस्थिति दर्शा देते हैं। इनके अतिरिक्त विभिन्न आश्रमों में ऋषियों एवं उनके शिष्यों के मध्य हुए संवाद भी हैं।

राम, लक्ष्मण एवं सीता के पंचवटी आश्रय काल में राम एवं लक्षमण के मध्य दार्शनिक विषयों पर भी संवाद होते थे। जैसे, माया क्या है? जब राम एवं लक्षमण किष्किन्धा में वर्षाऋतू के समाप्त होने की प्रतीक्षा कर रहे थे तब राम को स्वयं से संवाद साधते हुए, ऋतुओं की तुलना शासनकला से करते दर्शाया गया है।

रामचरितमानस के अंतिम चरण में काक भुशुण्डी का एक दीर्घ प्रवचन है जिसमें वे कथा को समाप्त करते हुए पाठकों को शिक्षाप्रद सन्देश देते हैं।

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भारतीय संस्कृति की सूक्ष्मताएँ

रामचरितमानस की भाषा में भारतीय संस्कृति का सत्व समाया हुआ है। उसमें भारतीय संस्कृति की सूक्ष्मताएँ सन्निहित हैं। जैसे, जब नाविक केवट भगवान राम, सीता माता एवं लक्षमण को अपनी नौका में बिठाकर गंगा पार कराते हैं, तब सीता माता केवट को अपनी अंगूठी देकर उसके श्रम का भुगतान करने का प्रयास करती हैं। केवट यह कहकर अंगूठी लेने से मना कर देते हैं, “मैं भी केवट, तुम भी केवट, कैसे लूं तेरी उतराई”।

केवट कहते हैं कि हे राम जिस प्रकार मैं गंगा पार कराता हूँ, आप भवसागर पार कराते हैं। एक केवट दूसरे केवट से भुगतान कैसे ले सकता है? वैसे भी शुल्क गंतव्य पर पहुंचाने का होता है। हमसे सामान्यतः नौका पर चढ़ने से पूर्व ही शुल्क लिया जाया है, भले ही हम वहाँ पहुंचे अथवा नहीं।

और पढ़ें: In search of Sita by Malashri Lal & Namita Gokhale

सदैव मूल रामचरितमानस का ही पठन क्यों करें?

विश्व में रामायण के अनेक संस्करण हैं तथा असंख्य पुनःकथन किये गए हैं। वस्तुतः, गोस्वामी तुलसीदास का रामचरितमानस भी प्राचीन वाल्मीकि रामायण का १७वी शताब्दी का पुनःकथन है। आशा है कि प्राचीन वाल्मीकि रामायण के पठन का मुहूर्त भी मुझे शीघ्र प्राप्त होगा।

रामायण की कथा की अनेक परतें हैं। राम अवतार की कथा एक मुखावरण है जिसके द्वारा मानव चरित्र के गहन समझ को पाठक तक पहुँचाया गया है। प्रत्येक पाठक इसे अपने दृष्टिकोण से पठन करता है। यही भारतीय ग्रंथों का वैशिष्ठ्य है। आप उन्हें अनेक दृष्टिकोणों से पठन कर सकते हैं तथा समझ सकते हैं। एक दृष्टिकोण ऐसा है जो उस पर कदापि लागू नहीं होता है, वह है ओछापन।

रामायण को जिस प्रकार लिखा गया है अथवा कहा गया है, उसे वैसे ही पठन करना तथा अपने स्वयं के निष्कर्ष निकालना महत्वपूर्ण है। इसीलिए मूल ग्रन्थ का पठन अत्यावश्यक होता है जो बिना किसी पक्षपात एवं निर्णय के घटनाओं को अपने मूल रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत करता है.

आईये गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस का पठन करें।

गोस्वामी तुलसीदास का रामचरितमानस आप Amazon.In से ले सकते हैं अथवा Kindle Book में पढ़ सकते हैं।

यह स्थल Amazon का सहायक है। उपरोक्त संकेत द्वारा आप जो भी पुस्तकें क्रय करेंगे, उसका कुछ प्रतिशत धनार्जन इस स्थल को प्राप्त होने की संभावना है। किन्तु इससे आपके क्रय मूल्य में कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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श्रीलंका का मन्नार द्वीप पर स्थित प्राचीन थिरुकितेश्वर मंदिर https://inditales.com/hindi/thirukeyeshawara-mandir-mannar-sri-lanka/ https://inditales.com/hindi/thirukeyeshawara-mandir-mannar-sri-lanka/#respond Wed, 06 Jul 2022 02:30:50 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2729

मन्नार श्रीलंका के उस छोर पर स्थित है जो भारत से सर्वाधिक निकट है। भारत एवं श्रीलंका के मध्य स्थित सुप्रसिद्ध राम सेतु के भारतीय छोर पर रामेश्वर स्थित है तथा श्रीलंका की ओर मन्नार स्थित है। रामेश्वरम के ही समान मन्नार भी मुख्य भूमि से पृथक द्वीप है जो मुख्य भूमि से सेतु द्वारा […]

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मन्नार श्रीलंका के उस छोर पर स्थित है जो भारत से सर्वाधिक निकट है। भारत एवं श्रीलंका के मध्य स्थित सुप्रसिद्ध राम सेतु के भारतीय छोर पर रामेश्वर स्थित है तथा श्रीलंका की ओर मन्नार स्थित है। रामेश्वरम के ही समान मन्नार भी मुख्य भूमि से पृथक द्वीप है जो मुख्य भूमि से सेतु द्वारा जुड़ा हुआ है। जिस प्रकार राम सेतु के भारतीय छोर पर रामेश्वरम मंदिर स्थित है, उसी प्रकार राम सेतु के लंका की ओर थिरुकितेश्वर मंदिर स्थित है। मध्ययुगीन काल (५वीं शताब्दी से १५ वीं शताब्दी) तक मन्नार चहल-पहल से भरा एक बंदरगाह नगर था, अतः विश्व के अन्य भागों से भिन्न भिन्न परिवहन मार्गों द्वारा जुड़ा हुआ था। वर्तमान में यह एक शांत तटीय नगर है जो पर्यटकों में लोकप्रिय है।

कोलम्बो से सड़क मार्ग द्वारा जब हम मन्नार पहुंचे, संध्या हो चुकी थी। मार्ग में कुछ स्थानों पर जलपान एवं अल्पविश्राम के लिए रुकते हुए हमने लम्बी दूरी की यह यात्रा पूर्ण की थी। मन्नार एक छोटा सा नगर है। मेरा विश्रामगृह भी अल्पतम सुविधाओं से युक्त एक छोटा सा यात्री निवास था। प्रातःकाल मैं थिरुकितेश्वर मंदिर के दर्शन करने के लिए निकली, जिसके दर्शन के लिए मैं अति उत्सुक  थी क्योंकि मैंने मार्ग में इस अद्भुत मंदिर के विषय में एक सम्पूर्ण पुस्तक पढ़ ली थी। अब उसके अवलोकन के लिए मैं अधीर हो रही थी।

मन्नार थिरुकितेश्वर मंदिर

मन्नार थिरुकितेश्वर मंदिर की कथा

थिरुकितेश्वर मंदिर श्री लंका
थिरुकितेश्वर मंदिर श्री लंका

इस मंदिर की कथा इसे प्रसिद्ध सागर मंथन की घटना से जोड़ती है। सागर मंथन से प्राप्त अमृत को जब देवताओं में बांटा जा रहा था तब एक असुर भी रूप परिवर्तित कर देवताओं की पंक्ति में बैठ गया। जैसे ही भगवान विष्णु को इस का आभास हुआ, उन्होंने अपने चक्र द्वारा उस असुर के दो टुकड़े कर दिए। किन्तु तब तक अमृत पान कर वह असुर अमर हो गया था। अतः उसकी देह के दोनों भाग भी अमरत्व प्राप्त कर गए थे। उसका धड़ विहीन मस्तक राहु कहलाया तथा मस्तक विहीन धड़ को केतु कहा गया।

ऐसी मान्यता है कि इस स्थान पर केतु शिव की आराधना करता था। उसी ने इस स्थान पर प्रथम शिवलिंग की स्थापना की थी। इसीलिए इस मंदिर का नाम थिरुकितेश्वर मंदिर कहा गया, अर्थात् केतु के इश्वर का मंदिर।

मन्नार को भगवान् विश्वकर्मा की कर्मभूमि भी कहा जाता है। विश्वकर्मा एक दिव्य स्थापत्यविद अथवा वास्तुविद हैं जिन्होंने अपने पुत्रों के साथ अनेक उत्कृष्ट स्थलों का निर्माण किया है। श्रीलंका भी उनमें से एक है। पारंपरिक स्थापति अथवा वास्तुविद स्वयं को उनके वंशज मानते हैं।

रावण की पटरानी मंदोदरी का भी मन्नार से गूढ़ सम्बन्ध था। वह महर्षि कश्यप के पुत्र तथा राक्षसों के विश्वकर्मा माने जाने वाले मायासुर की दत्तक पुत्री थी।

मन्नार थिरुकितेश्वर मंदिर का इतिहास

ऐसा कहा जाता है कि किसी समय इस मंदिर की भव्यता समुद्र के उस पार स्थित रामेश्वरम मंदिर के स्तर की थी। दक्षिण भारत के चोल वंश जैसे अनेक राजवंशों ने इस मंदिर को संरक्षण प्रदान किया था। कई तमिल भाषी संत-कवियों ने इस मंदिर की स्तुति में अनेक कवितायें लिखी हैं। किन्तु उन्होंने वास्तव में इस मंदिर के दर्शन किये थे अथवा नहीं, यह ज्ञात नहीं है। यहाँ तक कि चीनी यात्री व्हेन त्सांग ने भी अपने यात्रा संस्करणों में इस मंदिर का उल्लेख किया है।

प्राचीन चोल काल का शिवलिंग
प्राचीन चोल काल का शिवलिंग

कालांतर में ऐतिहासिक घटनाक्रम में पुर्तगालियों का आगमन हुआ तथा उन्होने इस मंदिर को पूर्णतः ध्वस्त कर दिया। सम्पूर्ण  क्षेत्र में इस मंदिर के अस्तित्व का कोई भी चिन्ह शेष नहीं बचा था। समय के साथ यह क्षेत्र वन में परिवर्तित हो गया। शनैः शनैः यह मंदिर लोगों की स्मृतियों से भी लुप्त होने लगा। १९वीं शताब्दी में जाफना के अरुमुगम नावलार नाम के एक नवयुवक ने शैव सिद्धांत का अध्ययन किया तथा उसे जनमानस तक पहुँचाने का कार्य आरम्भ किया। उसी काल में संयोग से उन्हें नयनमार सम्पन्द्रार तथा सुन्द्रार द्वारा रचित कवितायें पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जिसमें केतु के इष्ट देव के मंदिर के विषय में सुन्दर चित्रण किया गया था।

उसी क्षण से नवलर ने पूर्ण आवेग से इस मंदिर की खोज आरम्भ कर दी। जहाँ-तहाँ वनों की खुदाई भी की। अंततः उसकी मेहनत रंग लायी। उसने चोल काल के एक विशाल शिवलिंग को खोज निकाला, जिसकी अब भी इस मंदिर में पूजा-अर्चना की जाती है। यह एक प्रकार से इस मंदिर का पुनर्जन्म ही था। लोगों ने आरम्भ में यहाँ एक छोटा एकल-कक्ष मंदिर का निर्माण किया। शनैः शनैः वे अधिक धन एकत्र करते गए तथा मंदिर का विस्तार करते गए। मध्य काल में जनआंदोलनों के चलते अनेक अवसरों पर इसका निर्माण कार्य स्थगित करना पड़ा था। मंदिर के चारों ओर स्थित अनेक मठों को भी हानि पहुंचाई गयी थी किन्तु सौभाग्य से मुख्य मंदिर को कोई भारी क्षति नहीं हुई। आँदोलनों के चलते लोगों को मंदिर में जाने की अनुमति भी नहीं दी जाती थी।

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जब मैं इस मंदिर के दर्शन करने के लिए यहाँ आयी थी तब इसका विस्तार कार्य प्रगति पर था। मुझे यह लिखते हुए गर्व का अनुभव हो रहा है कि इस पुण्य कार्य में भारत सरकार एवं भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने भी सहयोग दिया है।

मन्नार थिरुकितेश्वर मंदिर के दर्शन

चूंकि इस मंदिर के निर्माण एवं विस्तार का विशाल कार्य प्रगति पर है, इस मंदिर को कुछ समय के लिए समीप ही अस्थायी रूप से स्थानांतरित किया गया है। इस अस्थायी स्थान पर भगवान की आराधना अनवरत रूप से की जा रही है। मैंने यहाँ एक विवाह समारोह भी संपन्न होते देखा।

राज गोपुरम पर कथाएं कहते दृश्य
राज गोपुरम पर कथाएं कहते दृश्य

मंदिर के समीप पहुंचते ही मंदिर का ऊंचा राज गोपुरम आपका मंदिर के भीतर स्वागत करता है। इस गोपुरम के एक ओर विशालकाय घंटा है जिसे इंग्लैंड से मंगवाया गया है। यह श्री लंका के मंदिरों की अनोखी विशेषता है। आप यहाँ के मंदिरों में गोपुरम के एक ओर अथवा दोनों ओर एक या दो घंटियाँ अवश्य देखेंगे। हो सकता है यह गिरिजाघरों का प्रभाव हो, विशेषतः जब इन घंटियों को यूरोपीय देशों से मंगवाया जाता था।

चोल काल की प्राचीन नंदी मूर्ति
चोल काल की प्राचीन नंदी मूर्ति

बाहर एक लघु मंदिर सदृश बाड़े के भीतर नंदी की एक प्राचीन मूर्ती है।

गर्भगृह के भीतर नवीन शिवलिंग की स्थापना की गयी है जिसे काशी से रामेश्वरम तक, तदनंतर रामेश्वरम से यहाँ तक लाया गया है। वाराणसी से लाये गए शिवलिंग की यहाँ श्री लंका में की जा रही पूजा-अर्चना देख मैं रोमांचित हो गयी थी। समीप ही एक लघु मंदिर गौरी अम्मा को समर्पित है जिसके गर्भगृह के भीतर उनकी मनमोहक प्रतिमा स्थापित है।

मंदोदरी मूर्ति
मंदोदरी मूर्ति

गर्भगृह के समक्ष, १०० स्तंभों के नवनिर्मित सभामंडप में केतु, मंदोदरी, कवि नयनमार सम्पन्द्रार तथा सुन्द्रार तथा चोल राजाओं की प्रतिमाएं हैं। साथ ही अश्वारोहण करते दो योद्धाओं की भी प्रतिमाएं हैं, मानो वे मंदिर का संरक्षण कर रहे हों। अन्य स्तंभों पर शिव तांडव की भिन्न भिन्न मुद्राओं, गणेश, विष्णु तथा देवी के विभिन्न स्वरूपों के शिल्प उत्कीर्णित हैं। इन शिल्पों के मध्य उर्वशी व रम्भा जैसे दिव्य नर्तकियों के भी शिल्प हैं। मंदिर की भीतरी छत पर नवग्रह, सूर्य, १२ राशि चिन्ह, कामधेनु तथा श्री यन्त्र उत्कीर्णित हैं।

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मंदिर के पुरोहितजी ने मुझे बताया कि पालवी यहाँ गंगा का प्रतिनिधित्व करती है। उन्होंने बताया कि प्रत्येक रात्रि भगवान शिव पार्वती के कक्ष में जाते हैं। प्रातः होते ही वे अपने कक्ष में वापिस आते हैं जहां वे गंगा से भेंट करते हैं क्योंकि पालवी के जल से ही उनका अभिषेक किया जाता है। कथाएं जिस प्रकार अनवरत जारी रहती हैं यह अत्यंत रोचक है।

मंदिर का जलकुंड/सरोवर – पलावी तीर्थं

जल कुण्ड के बिना एक मंदिर सम्पूर्ण नहीं होता। इस मंदिर का भी एक विशाल जलकुंड है जिसे पलावी तीर्थम कहा जाता है। यह मंदिर की उत्तरी दिशा में स्थित है। ऐसी मान्यता है कि किसी समय यह एक नदी थी जिसे गंगा जैसा मान प्राप्त था। इस जलकुंड अथवा सरोवर के जल का प्रयोग मंदिर के सभी अनुष्ठानों में होता है। शिवलिंग का अभिषेक भी पलावी जलकुंड के जल से ही होता है। यहाँ तक कि इस जलकुंड के तट पर श्राद्ध जैसे अनुष्ठान भी किये जाते हैं।

पलावी तीर्थम
पलावी तीर्थम

जलकुंड के एक ओर एक मंडप बना हुआ है। मंदिर के भगवान जब शोभायात्रा के लिए बाहर आते हैं तब वे इस मंडप के नीचे विश्राम करते हैं। यहाँ आप अनेक प्रकार के पक्षियों का भी अवलोकन कर सकते हैं।

मंदिर के समक्ष, गौशाला के समीप एक अन्य जलकुंड भी है।

उत्सव मूर्ति

इस मंदिर में कांस्य की प्राचीन मूर्तियों का अप्रतिम संग्रह है जिन्हें सुदर रेशमी वस्त्रों से अलंकृत किया हुआ है। उनमें चोल काल की नटराज एवं सोमस्कन्द की मूर्तियों का मैं यहाँ विशेष उल्लेख करना चाहती हूँ। ६३ नयनमार कवि-संतों की भी प्रतिमाएं हैं जिन्हें आप सामान्यतः सम्पूर्ण तमिल नाडु एवं श्री लंका के शिव मंदिरों देख सकते हैं।

कांस्य की सुसज्जित उत्सव मूर्तियाँ
कांस्य की सुसज्जित उत्सव मूर्तियाँ

इस मंदिर में १० दिवसों का एक वार्षिक उत्सव आयोजित किया जाता है जो साधारणतः वैशाख मास की पूर्णिमा के आसपास पड़ता है। इसके अतिरिक्त शिवरात्रि, नवरात्रि, गणेश चतुर्थी, स्कन्द षष्ठी जैसे अन्य हिन्दू उत्सवों का भी इस मंदिर में धूमधाम से आयोजन किया जाता है।

स्थापति से भेंट

स्थापति सेल्वनाथान अपने बनाये गोपुरम के साथ
स्थापति सेल्वनाथान अपने बनाये गोपुरम के साथ

इस मंदिर के दर्शन के उपरान्त जो सर्वोत्तम उपहार मुझे प्राप्त हुआ, वह है इस मंदिर के स्थापति सेल्वनाथन एवं उनकी पत्नी पोन्नी से भेंट। वे इस मंदिर में हो रहे निर्माण कार्यों की देखरेख कर रहे थे, जैसे विस्तार का वर्तमान चरण, मुख्य मंदिर के चारों ओर अन्य लघु मंदिरों की अनुवृद्धि, गर्भगृह के ऊपर नवीन विमान का निर्माण, जिसे अधिरचना भी कहते हैं, इत्यादि। मैंने उनके साथ मंदिर पर चर्चा करते हुए दो दिवस बिताये जो मेरे लिए एक प्रकार से महत्वपूर्ण अध्ययन था। मंदिर स्थापत्य की पृष्ठभूमि में एक मंदिर के निर्माण में क्या क्या नियोजन करने पड़ते हैं, उन्होंने मुझे उसकी जानकारी दी।

मंदिर वास्तुकला के विषय में मुझे जो जानकारी उनसे प्राप्त हुई, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

मंदिर के निर्माण में प्रयुक्त शिलाओं के प्रकार, स्त्रीलिंग शिलाओं, पुल्लिंग शिलाओं तथा नपुंसकलिंग शिलाओं में भेद। शिलाओं के प्रत्येक प्रकार का विशेष उपयोग है। जैसे, एक शिवलिंग केवल पुल्लिंग शिला पर ही उत्कीर्णित किया जा सकता है।

थिरुकितेश्वर मंदिर निर्माण का विडियो

मंदिर संरक्षण के लिए भिन्न भिन्न प्रकार के नियम हैं। इनमें कुछ नियमित रखरखाव हैं जिन्हें प्रत्येक १२ वर्षों के पश्चात किया जाता है। मंदिर की मूल रूपरेखा का अनुसार इसके विस्तार के कार्य नियोजित रूप से किये जाते हैं। कुछ संरक्षण के नियम ऐसे हैं जिनका प्रयोग विशेष परिस्थितियों में किया जाता है, जैसे उन मंदिरों का उद्धार जो किसी कारणवश अब जीवंत नहीं हैं अथवा उन मंदिरों का शुद्धिकरण जिन्हें किसी षडयंत्र के तले दूषित किया गया हो।

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मैंने मंदिरों में समाहित संगीत के विषय में जाना तथा उनकी कथाओं को समझा।

मैंने देखा वे किस प्रकार शिला पर आकृतियों की रूपरेखाएँ चित्रित करते हैं तथा अवांछित भागों को कुरेद कर निकालते हैं। यहाँ तक कि मुझे भी शिलाओं को उकेरने की प्रेरणा मिली तथा मैंने भी विशेषज्ञ के निरिक्षण में शिला पर कारीगरी करने की चेष्टा की।

मन्नार के अन्य दर्शनीय स्थल

मन्नार दुर्ग

मन्नार दुर्ग
मन्नार दुर्ग

सेतु पार कर जैसे ही हम मन्नार द्वीप-नगरी में प्रवेश करते हैं, हमारी दृष्टी एक छोटे से दुर्ग पर पड़ती है। पुर्तगालियों ने इस दुर्ग का निर्माण कराया था। तत्पश्चात डच निवासियों ने इस का अधिग्रहण किया। अंत में अंग्रेजों ने इस दुर्ग पर अधिपत्य जमाया। इससे आप इस दुर्ग के औपनिवेशिक इतिहास की कल्पना कर सकते हैं।

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आप इस दुर्ग के खंडहरों के मध्य भ्रमण कर सकते हैं तथा इसकी संरचना एवं खंडित कक्षों को देख सकते हैं। यहाँ मैंने कुछ शिलालेख भी देखे किन्तु उनसे मुझे कुछ ज्ञात नहीं हो पाया। दुर्ग के अधिकतर भागों की छतें अब नष्ट हो चुकी हैं।

राम सेतु

श्रीलंका को भारत से जोड़ने वाला प्राचीन सेतु बालू के टीलों के रूप में अब भी दृष्टिगोचर होता है। समीप ही समुद्र के तट पर अनेक जलक्रीड़ाओं का आयोजन किया जाता है, जैसे पैराग्लाइडिंग। यहाँ एक अनोखा तथ्य जो ध्यान में आता है, वह यह कि एक ओर का जल अत्यंत शांत है, वहीं दूसरी ओर का जल अत्यंत आक्रामक।

राम सेतु के तैरते पत्थर
राम सेतु के तैरते पत्थर

यहाँ से देखने पर दूर दूर तक बालू के अनेक टीले दृष्टिगोचर होते हैं जिनके पीछे चमकते हुए समुद्र के जल का किंचित भाग दिखाई देता है। मुझे बताया गया कि जिस दिन वायुमंडल अत्यंत स्वच्छ हो, उस दिन यहाँ से रामेश्वर मंदिर भी आसानी से दृष्टिगोचर होता है।

आप मनार के सभी विश्रामगृहों एवं जलपानगृहों में छिद्रों से भरी खंखरी शिलाएं देख सकते हैं जो डूबने की अपेक्षा, जल सतह पर तैरती हैं।

मन्नार के समीप डोरिक बंगला

डोरिक बंगला
डोरिक बंगला

समुद्र तट पर एक चट्टान के ऊपर एक प्राचीन बंगले का खँडहर है। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार इस स्थान पर सदियों से सीपियों में मोती ढूँढी जाती थी। कालान्तर में यह उद्योग अंग्रेजों के हाथों में चला गया जिन्होंने यहाँ से प्राप्त मोतियों का व्यापार कर अत्यधिक संपत्ति अर्जित की थी। इमारत के बाहर लगे एक सूचना फलक पर उन अमानवीय पद्धतियों का उल्लेख किया गया है जिनका प्रयोग कर वे समुद्र के भीतर से मोती ढूँढते थे। सीपियों को एकत्र करने के लिए वे स्थानिक गोताखोरों का प्रयोग करते थे।

वर्तमान में यह भवन खंडित अवस्था में है। इसके ऊपर चढ़कर आप अप्रतिम वातावरण का अनुभव ले सकते हैं। यद्यपि इसके ऊपर चढ़ना किंचित असुरक्षित सिद्ध हो सकता है क्योंकि किसी भी दुर्घटना की अवस्था में निकट कोई भी सहायता उपलब्ध नहीं है। समीप ही प्रकाशस्तंभ के समान एक संरचना है।

आवर लेडी ऑफ मधु गिरिजाघर

यह एक लोकप्रिय गिरिजाघर है जो मन्नार से किंचित दूरी पर है।

योधा वीवा

यह ५वीं सदी का एक प्राचीन जलकुंड है।

यहाँ स्थित बाओबाब के वृक्ष पर्यटकों में अत्यंत लोकप्रिय हैं। चूंकि बाओबाब वृक्ष मूलतः अफ्रीका में पाए जाते हैं, उनका यहाँ होना अफ्रीका से व्यापारिक संबंधों की ओर संकेत करते हैं।

मन्नार में नमक की खेती
मन्नार में नमक की खेती

मन्नार एवं इसके आसपास के क्षेत्र पक्षी दर्शन के लिए अत्यंत उत्तम हैं। यहाँ स्थित नमक के अनेक खेतों के कारण अप्रतिम दृश्य तो प्राप्त होता ही है, साथ ही यहाँ अनेक प्रजातियों के पक्षी भी एकत्र होते हैं। विदथल्ल्थीवु मछुआरों का ऐसा ही एक नगर है जो पक्षी दर्शन के लिए भी लोकप्रिय है। यहाँ आप नमक के अनेक ढेर देख सकते हैं जो प्राकृतिक रूप से एकत्र होते हैं तथा सूखते हुए रोचक गोलाकार आकृतियाँ बनाते हैं। स्थानिक गांववासी उन्हें टोकरियों में भरकर ले जाते हैं।

यहाँ की सडकों में आप कम ऊंचाई के विशेष गधे खोजने का प्रयास करें। यहाँ इस प्रजाति के अस्तित्व का कारण प्राचीन काल में किये गए दूर-सुदूर प्रदेशों से व्यापार हो सकता है।

यात्रा सुझाव

  • यह एक लघु नगरी है। अतः यहाँ सीमित पर्यटन सुविधाएं उपलब्ध हैं। तलैमन्नार में एक विशाल रिसोर्ट अवश्य है। किन्तु मन्नार के अधिकतर विश्रामगृह अथवा होटल छोटे एवं सीमित सुविधाओं से युक्त हैं।
  • यहाँ के अधिकतर जलपानगृहों में आपको ठेठ दक्षिण भारतीय भोजन उपलब्ध होगा, जैसे इडली, डोसा, वडा इत्यादि। इनके अतिरिक्त नूडल एवं फ्राइड राइस भी यहाँ लोकप्रिय है। कुछ स्थानों पर थाली परंपरा भी है।
  • श्री लंका के किसी अधिकारिक परिवहन केंद्र की गाड़ियों का प्रयोग करें। अन्यथा निजी परिवहन व्यवस्था का नियोजन करें।
  • इस क्षेत्र के अवलोकन के लिए १ से २ घंटों का समय पर्याप्त है।
  • समुद्री सीमा से निकट होने के कारण यह क्षेत्र राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टी से अतिसंवेदनशील है। यहाँ के सुरक्षा अधिकारी आपको अनेक स्थानों पर जांच के लिए रोक सकते हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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श्रीलंका स्थित रामायण सम्बंधित स्थल एक रोमांचक यात्रा कथा https://inditales.com/hindi/ramayana-shiva-temples-sri-lanka/ https://inditales.com/hindi/ramayana-shiva-temples-sri-lanka/#comments Wed, 21 Jun 2017 02:30:07 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=302

एक इंसान अपने जीवनकाल में क्या अर्जित करने का स्वप्न देखता है? ज्ञान, धन, ख़ुशी या प्रेम? परन्तु यह मेरा स्वप्न नहीं था। मेरा स्वप्न था विश्वास, आस्था और श्रद्धा अर्जित करना। कुछ, जो मैंने खो दिया था और उसे फिर पाने हेतु अतिउत्सुक था। इसी उद्देश्य से मैंने महाकाव्य रामायण में दर्शाए गए भगवान् […]

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श्री लंका के रामायण स्थल
श्री लंका के रामायण स्थल

एक इंसान अपने जीवनकाल में क्या अर्जित करने का स्वप्न देखता है? ज्ञान, धन, ख़ुशी या प्रेम? परन्तु यह मेरा स्वप्न नहीं था। मेरा स्वप्न था विश्वास, आस्था और श्रद्धा अर्जित करना। कुछ, जो मैंने खो दिया था और उसे फिर पाने हेतु अतिउत्सुक था। इसी उद्देश्य से मैंने महाकाव्य रामायण में दर्शाए गए भगवान् हनुमान की श्रीलंका की ३०००कि.मी. की अजरामर यात्रा का अनुभव करने का निश्चय किया। इसके अंतर्गत दक्षिण भारत में हम्पी से कन्याकुमारी तक १२००कि.मी. की यात्रा पैदल चल कर पूर्ण की। इसके उपरांत श्रीलंका की परिधी, करीब २०००कि.मी., मोटरसाइकल द्वारा पूर्ण की। और श्रीलंका स्थित रामायण सम्बंधित कई स्थलों के दर्शन किये।

मंदिर, गुफाएं, बगीचे, पर्वत और विरासती स्थल, ऐसे करीब ४० छोटे बड़े रामायण सम्बंधित स्थल हैं जो पूरे श्रीलंका में फैले हुए हैं। इनमें से ज्यादातर स्थलों के दर्शन सुलभ हैं। कुछ स्थल ऐसे भी हैं जिन्हें नक़्शो व विस्तृत दिशानिर्देशों के बावजूद भी ढूँढना व वहां तक पहुँचना अत्यंत कठिन है। श्रीलंका में कई यात्रा संस्थाएं हैं जो रामायण सम्बंधित श्रीलंका के प्रमुख स्थलों के दर्शन करातीं हैं। परन्तु यदि आप श्रीलंका स्थित रामायण सम्बंधित प्रमुख व अप्रचलित, सभी स्थलों के दर्शन करना चाहें तब व्यवस्था आपको स्वयं ही करनी पड़ेगी।

श्रीलंका स्थित रामायण सम्बंधित दर्शनीय स्थल

श्रीलंका के शिव मंदिर

श्रीलंका में पहला वह रामायण सम्बंधित स्थल, जिसके दर्शन का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ, वह था चिलाव के समीप स्थित मुन्नेश्वरम मंदिर। श्रीलंका में रामायण सम्बंधित कुल ३ शिव मंदिर हैं जो एक कथा द्वारा जुड़े हैं। युद्ध जीतने के उपरांत भगवान राम ने अयोध्या वापसी की यात्रा आरम्भ की। पर, रावण वध के उपरांत उन्हें ब्राम्हण हत्या का दोष भी प्राप्त हुआ था। मुन्नेश्वरम में भगवान् राम को अपने इस दोष के कम होने की अनुभूति हुई और उन्होंने इस दोष से मुक्ति हेतु भगवान् शिव की आराधना की। भगवान् शिव ने उन्हें मनावरी, तिरुकोनेश्वरम, तिरुकेतीश्वरम और रामेश्वरम, इन ४ स्थलों में शिवलिंगों की स्थापना कर, दोष निवारण हेतु इनकी आराधना करने का मार्ग सुझाया।

चिलाव का मुन्नेश्वरम मंदिर

मुन्निश्वरम शिव मंदिर - श्री लंका
मुन्निश्वरम शिव मंदिर – श्री लंका

मुन्नेश्वरम मंदिर परिसर में कई छोटे मंदिर स्थित हैं जिनमें मुख्य मंदिर भगवान् शिव को समर्पित है। मेरी यात्रा के दौरान वहां उत्सव का वातावरण था। सम्पूर्ण मंदिर पुष्प द्वारा अलंकृत था व दीयों और रोशनी के प्रकाश में जगमगाता अद्भुत दृश्य प्रस्तुत कर रहा था। पूरा मंदिर दर्शनार्थियों द्वारा खचाखच भरा हुआ था फिर भी कहीं धक्कामुक्की व हडबडाहट नहीं थी। मेरे अस्तव्यस्त भेष के बावजूद लोग मुस्कुराकर मेरा स्वागत कर रहे थे।

मैंने भगवान के चरणों में पूजा अर्चना की। तभी यहाँ के एक अनोखे प्रथा ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। भगवान के चढ़ावे में तरबूज, पपीता, नारंगी, केले, सेब व अन्य कई फल चढ़ाए गए थे। मुझे बताया गया कि सभी मंदिरों में यही प्रथा है।

मनावरी शिवम् कोविल, चिलाव

मनावरी शिवम् कोविल - शिव मंदिर, श्री लंका
मनावरी शिवम् कोविल – शिव मंदिर, श्री लंका

दूसरे दिन सुबह मैंने चिलाव से १०कि.मी. उत्तर में स्थित मनावरी सिवम कोविल के दर्शन किये। तमिल भाषा में मंदिर को कोविल कहा जाता है। मनावरी सिवम कोविल या ईस्वरण कोविल एक छोटा परन्तु धार्मिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण मंदिर है। ब्राम्हण हत्या दोष निवारण हेतु भगवान् राम द्वारा स्थापित यह पहला शिवलिंग है। चूंकि इस शिवलिंग की स्थापना स्वयं भगवान् राम ने की थी, इसे रामलिंगम भी कहा जाता है। जैसा कि माना जाता है, भगवान् राम का जन्म ५११४ ई.पू. में हुआ था। इसका तात्पर्य है कि यह शिवलिंग ७०००वर्षों से भी अधिक प्राचीन है।

रामसेतु

राम सेतु – भारत – श्री लंका
राम सेतु – भारत – श्री लंका

इसके उपरांत मैं तलईमन्नार की तरफ रवाना हो गया जो भौगोलिक रूप से भारत से निकटतम स्थान है और रामसेतु का भारत की तरफ का छोर है। इसे ऐडम सेतु भी कहा जाता है। किवदंतियां कहतीं हैं कि, भगवान हनुमान द्वारा लंका में देवी सीता को खोजने के उपरांत, वानर सेना ने लंका की तरफ कूच किया व समुद्र तट तक पहुँच गए परन्तु लंका तक पहुँचने का कोई साधन नहीं था। उस क्षण लंका पहुँचने हेतु वानर वास्तुकार नल ने समुद्रतट से लंका तक सेतु निर्माण की योजना तैयार की। कहा जाता है कि सेतु निर्माण के दौरान पत्थर समुद्र में डूब रहे थे। तब वानर सेना ने पत्थरों पर भगवान् राम का नाम लिख कर उन पत्थरों द्वारा इस राम सेतु का निर्माण किया। इस सेतु निर्माण में उपयोग में लाये गए कुछ तैरते पत्थर हम रामेश्वरम के पंचमुखी हनुमान मंदिर में देख सकते हैं।

तलैमन्नार में स्थित पुराने प्रकाश स्तम्भ के समीप तट से श्रीलंका नौदल नौकासेवा उपलब्ध कराती है जो इस सेतु के दर्शन हेतु अति उपयुक्त है। जहाँ समुद्र का स्तर उथला है वहां इस सेतु के अवशेष अभी भी देखे जा सकते हैं।

राम सेतु के दर्शन उपरांत मैं रात के भोजन हेतु शहर की तरफ मुडा। मैंने एक छोटे भोजनालय में प्रवेश किया और उसके मालिक से तिरुकेतीश्वरम के मार्ग से सम्बंधित जानकारी हासिल की। जैसे ही उन्हें मेरे भारतीय होने व मेरी इस यात्रा के प्रयोजन के बारे में ज्ञात हुआ, उन्होंने भोजनालय में उपस्थित सभी ग्राहकों को बताया। शीघ्र ही सब मेरी मेज के चारों ओर एकत्र हो गए व क्रिकेट, राजनीति, भ्रष्टाचार व धार्मिक स्थलों पर चर्चा करने लगे। सारे अपरिचित पास आ कर मुझसे हस्तांदोलन करने लगे और मुस्कुराते हुए मेरा अभिनन्दन किया व मेरी यात्रा हेतु मुझे शुभकामनाएं दीं। यह सब कुछ मेरे लिए अद्भुत था। इतने सारे लोग मेरी यात्रा से रोमांचित थे। उन्होंने मुझ पर सलाहों और सहायताओं की बौछार कर दी।

तिरुकेतीश्वरम मंदिर, मन्नार

तिरुकेतीश्वरम मंदिर, मन्नार - श्री लंका
तिरुकेतीश्वरम मंदिर, मन्नार – श्री लंका

अगले दिन सुबह मैं तिरुकेतीश्वर मंदिर की तरफ रवाना हो गया। यह मंदिर मन्नार शहर से करीब १०कि.मी. दूर, मन्नार राजमार्ग पर स्थित है। यह श्रीलंका के तीन शिवलिंगों में से दूसरा शिवलिंग है। किवदंतियां कहतीं हैं कि इस मंदिर का निर्माण रावण के श्वसुर माया अथवा मायासुर ने किया था। वह एक कुशल वास्तुकार थे, जिन्होंने इन्द्रप्रस्थ के मायासभा का भी निर्माण किया था।

पुर्तगालियों द्वारा इसे नष्ट किये जाने के बाद, सन १९०० के शुरुआत में, मूल शिवलिंग की खुदाई के पश्चात, इसे पुनःस्थापित किया गया। नष्ट होने से पूर्व, इसे श्रीलंका स्थित सभी शिवमंदिरों में से विशालतम शिवमंदिर माना जाता था। कहा जाता है कि इस नष्ट किये गए शिवमंदिर के पत्थरों से ही मन्नार का किला, मन्नार के सभी गिरिजाघर और केट्स के हैमर्शील्ड किले का निर्माण किया गया था। आप इस तथ्य से अंदाजा लगा सकतें हैं कि मूल शिव मंदिर कितना विशाल रहा होगा!

इस मंदिर में कई सभामंडप थे जिनमें भगवान की विभिन्न मूर्तियाँ रखीं गईं थीं। इन सभामंडपों के प्रवेशद्वार पूर्णतः एक पंक्ति में बनाए गए थे। मैं पहले सभामंडप के प्रवेशद्वार से, सभी सभामंडपों के पार, मुख्य मंदिर में स्थित शिवलिंग को देख सकता था। इस अभूतपूर्व दृश्य को देख मन में एक अद्भुत शान्ति का अनुभव हुआ।

मुसीबत मोटरसायकल की

तिरुकेतीश्वरम मंदिर से शहर वापस आते समय मेरी मोटरसायकल ने मुझे तकलीफ देने का अवसर नहीं गंवाया। अपने मोबाइल फोन पर बात करते समय मैंने मोटरसायकल का इंजन जरूर बंद करा पर हेडलाईट बंद करना भूल गया। नतीजा! मोटरसायकल की बैटरी अचेत हो गयी। सुनसान जगह होने के कारण चारों ओर नजर दौडाने पर भी कोई सहायतार्थ मौजूद नहीं था। दौड़ कर मोटरसाईंकल चालू करने की भी असफल कोशिश की। इस दौरान सांस इतनी फूल गयी कि लगा दिल का दौरा ना पड जाए! भगवान् की दया से वहां कुछ दयालु कॉलेज के छात्र प्रकट हो गए और उन्होंने मोटरसाईकल चालू करने में मेरी सहायता की। मुझे जिस तरह लोगों की सहायता व आधार मिल रहा था, लोगों पर विश्वास करने को जी चाह रहा था। परन्तु मेरे विचार बदलने हेतु अभी यह शायद पर्याप्त नहीं था।

कोनेश्वरम कोविल

कोनेश्वरम मंदिर में रावण की प्रतिमा
कोनेश्वरम मंदिर में रावण की प्रतिमा

कुछ दिनों पश्चात, अनुराधापुरम व कुछ और विरासती स्थलों के दर्शनों के उपरांत मैंने त्रिंकोमाली स्थित कोनेश्वरम कोविल के दर्शन किये। यह, वह तीसरा व अंतिम शिवलिंग है जहां भगवान् राम ने ब्राम्हण हत्या दोष निवारण हेतु पूजा अर्चना की थी। इस मंदिर का निर्माण अगस्त्य मुनि ने किया था। इसे दक्षिण का कैलाश* भी कहा जाता है। इसके साथ साथ यह एक महाशक्ति पीठ भी है। यह मंदिर एक पहाड़ी के ऊपर बनाया गया है जहां से बंदरगाह का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है।
*श्रीलंका स्थित दक्षिण का कैलाश ठीक उसी देशांतर पर स्थित है जिस पर कैलाश पर्वत स्थित है।

दंतकथा

ऐसा कहा जाता है कि रावण की माता हर दिन शिवलिंग की पूजा किया करती थी। एक दिन उन्हें पूजा हेतु शिवलिंग नहीं मिला। उनकी पूजा सम्पूर्ण करने में मदद करने हेतु रावण ने दक्षिण कैलाश जा कर शिवलिंग प्राप्त करने हेतु घोर तपस्या की। भगवान् शिव के प्रकट ना होने पर रावण क्रोधित हो उठा और उसने दक्षिण कैलाश पर्वत को उठाने की चेष्टा की।परन्तु भगवान् शिव ने उसे पछाड़ दिया। उस पर भी रावण ने सीख नहीं ली और अपनी तलवार निकाल कर पर्वत पर एक बड़ा चीरा लगाया जिसे रावण चीरा कहते हैं। रावण की इस करनी पर दुखी होकर शिव ने उसे घोर सजा दी। रावण घबराकर भगवान् शिव को मनाने लगा। अपने सर व बाहों को वीणा बनाकर वह भगवान् की स्तुति गायन करने लगा। इससे प्रसन्न होकर शिव ने उसे क्षमा कर दिया व एक शिवलिंग उसे दिया।

प्राचीन कोनेश्वरम मंदिर

एक प्राचीन मंदिर के रूप में कोनेश्वर कोविल का उल्लेख रामायण व महाभारत दोनों महाकाव्यों में किया गया है। चोलवंशी राजाओं के संरंक्षण में इस मंदिर का शीघ्रता से विकास हुआ और यह एक विशाल गोपुरम और एक हज़ार स्तंभों का मंदिर बन गया। अपनी कीर्ति की चरम सीमा पर इसके परिसर ने पूरी पहाड़ी अपने अन्दर समा ली थी। जैसा कि कहा जाता है, प्रत्येक उत्थान के पश्चात पतन नियत होता है। सन १६२२ में पुर्तगालियों ने इसे नष्ट कर दिया था। खुदाई के पश्चात, भगवान् शिव, पार्वती और गणेश की मूर्तियों के खोज के उपरांत इस मंदिर का पुनःनिर्माण किया गया।

“ सन १९५६ में प्रसिद्ध लेखक आर्थर सी. क्लार्क ने गोताखोरी के दौरान इस स्वयम्भू लिंग को खोज निकाला जिसकी स्थापना कभी रावण ने की थी। “

वर्त्तमान में पहाड़ी के निचले भाग पर सेना की एक टुकड़ी को रखा गया है जो ध्यानपूर्वक पर्यटकों का निरिक्षण करती है। मंदिर की ओर जाते मार्ग पर कई दुकानें थीं जो पूजा सामग्री, कपडे, खिलौने, खाद्यवस्तुयें इत्यादि बेच रहीं थीं।

इसके पूर्व दर्शन किये स्थलों की तरह, यहाँ भी लोगों ने मेरा स्वागत किया। सब अत्यंत आगत्यापूर्ण व मित्रवत थे और अपने घर भोजन ग्रहण करने हेतु आमंत्रण देने को आतुर थे। मैं सोच रहा था कि मेरे प्रति इनका इतना अच्छा व्यवहार उनके स्वयं के अच्छे स्वभाव के कारण था या मेरी किसी कथनी अथवा करनी ने उनका दिल जीत लिया था। जो भी हो, मुझे अपनी इस यात्रा में बहुत आनंद प्राप्त हो रहा था और शायद इसलिए मेरे मुख पर निरंतर मुस्कान बिखरी रहती थी। भरे हुए रास्ते पर, काम पर जाने की जल्दी में गाडी चलाने की झुंझलाहट से कोसों दूर, इस सुन्दर प्रदेश में इत्मीनान से मोटरसाईकल चलाने के आनंद ने मेरी सारी अच्छाईयां उभारकर सम्मुख प्रस्तुत कर दिया था।

सिगिरिया

सिगिरिया शिला - श्री लंका
सिगिरिया शिला – श्री लंका

सिगिरिया का कोबरा हुड गुफा मेरा अगला पड़ाव था। दाम्बुला शहर से १५कि.मी. दूर यह एक विश्व विरासत स्थल है। दंतकथाएं कहतीं हैं कि सीता अपहरण के पश्चात, रावण को भय था कि भगवान् राम के शुभचिंतक या सहयोगी देवी सीता को ढूँढ लेंगे। इसलिए वह देवी सीता को इश्त्तिपुरा, सीता पोकुना, उसनगोडा, सीता कोटुवा और अशोक वाटिका जैसे अनेक स्थलों पर निरंतर विस्थापित करता रहा। सिगिरिया स्थित कोबरा हुड गुफा अर्थात् नाग शीर्ष सदृश गुफा भी ऐसा ही एक स्थल है जहाँ रावण ने सीता को कैद कर रखा था।

लायन रॉक अर्थात् शेर शिला

सिगिरिया का अर्थ है शेर रुपी शिला अर्थात् लायन रॉक। यह प्राचीन श्रीलंका की राजधानी थी। अपने आप में अनोखी यह अन्य शिलाओं से घिरी, १८०मी. ऊंची विशाल शिला पर स्थित है। राजधानी के रूप में इसकी स्थापना राजा कश्यप के शासनकाल में हुआ था जब उसने अपने पिता को मार कर, इस राज्य के असली उत्तराधिकारी, अपने भ्राता मोगल्लाना से इसे छीना था। कश्यप ने इसकी संरचना रक्षात्मक किला व आमोद महल के रूप में की थी। विडम्बना देखिये, कुछ समय पश्चात, इस किले में ही कश्यप अपने भाई मगल्लाना से युद्ध में पराजित हो गया। तत्पश्चात इसे सन्यासियों के हवाले कर दिया गया और इस तरह इसके निर्माण के दोनों उद्देश्य असफल हो गए।

चूंकि सिगिरिया एक गढ़ था, उसमें सभी अनिवार्य रक्षात्मक संरचनाएं उपस्थित थीं जैसे प्राचीर, स्तंभ, मुख्य द्वार और खन्दक जिसमें किसी समय मगरमच्छ रखे गए थे। इनका उद्देश्य गुप्तचरों, शत्रुओं व गद्दारों से गढ़ के रहवासियों की रक्षा करना था। गढ़ के प्राचीर के भीतर, सिगिरिया शिला तक के मार्ग पर पानी, शिलाखण्ड और मेंड़ बगीचे बनाए गए थे।

दर्पण दीवार

पहाड़ी के आधे रस्ते पर एक दर्पण भित्त थी, अर्थात् पलस्तर दीवार जो किसी समय इतनी ज्यादा चमकदार थी कि यह कश्यप के लिए दर्पण का कार्य करती थी। इस दर्पण के पर्यटकों ने इतने दर्शन किये, इन पर अंकित प्राचीन भित्तिचित्रण इसको प्रमाणित करतें हैं। परन्तु समय के साथ साथ, कला के साथ अपवित्रता और अश्लीलता जुड़ने लगी और उसका एक अभिन्न अंग बनने लगी। आश्चर्य होता है कि “राजू रानी से प्रेम करता है”, मेरा बाप चोर है” या “इधर पेशाब करना मना है” जैसे प्रचारवाक्य जो इन पर्यटन स्थलों पर लिखे जातें हैं, भविष्य में क्या यह भी हमारे विरासत का हिस्सा माने जायेंगे?

भक्त हनुमान, राम्बोड़ा

भक्त हनुमान मंदिर - राम्बोदा पर्वत
भक्त हनुमान मंदिर – राम्बोदा पर्वत

भक्त हनुमान मंदिर, कैंडी से ५०कि.मी. दूर, राम्बोड़ा के पास नुवारा एलिया के रास्ते पर स्थित है। ऐसा मानना है कि भक्त हनुमान देवी सीता को खोजने यहाँ भी आये थे। यहाँ समीप ही सीता अश्रु कुण्ड है जो दंतकथाओं के अनुसार सीता देवी के अश्रुओं से बना है। यह वही स्थान है जहां दोनों सेनायें पहली बार एक दूसरे के समक्ष आयीं थीं। राम्बोड़ा पहाड़ी की तरफ भगवान् राम की सेना व दूसरी तरफ की रावण सेना राम्बोड़ा झील के दोनों तरफ खड़ीं थीं।

एक अनुभव

राम्बोड़ा के भक्त हनुमान मंदिर की स्थापना चिन्मय मिशन ने एक पहाड़ी के ऊपर की थी जहाँ से राम्बोड़ा झील दिखाई देता है। इस मंदिर के पास ही मुझे इस यात्रा का अब तक का सबसे ज्यादा नागवार अनुभव प्राप्त हुआ। जब मैं अपनी मोटरसाईकल चला कर जा रहा था, मुझे राजमार्ग के बीचोंबीच एक कुत्ते का पिल्ला किसी इंतज़ार में बैठा दिखाई पड़ा। मैंने सड़क के बाजू में मोटरसायकल खड़ी कर उसे उठाया और सड़क के बाजू रखा। पास की दूकान से उसके लिए कुछ खाने का सामान खरीदा और जैसे ही मुडा,मैंने देखा की वह शैतान पिल्ला फिर सड़क के बीचोंबीच बैठ गया था। मैं एक बार फिर उसकी तरफ बढ़ा पर इस बार वह भाग गया। मैं भी उसके पीछे भागा परन्तु हड़बड़ी में एक ट्रक के नीचे आते आते बचा।

जब तक ट्रक मेरे सामने से गुज़रा, उन कुछ क्षणों में ही वह गायब हो गया। मैं डर गया था कि वह ट्रक के नीचे आ गया। परन्तु एक राहगीर ने इशारे से बताया कि वह पास के एक घर में घुस गया था। मुझे उस पर इतना गुस्सा आया कि शायद मेरे सामने होता तो अवश्य उसे सबक सिखाता।

यात्रा के दौरान अनुभव और ज्ञानार्जन

कुत्ते के पिल्ले के गायब होते ही मुझे अपनी बेवकूफी का अहसास हुआ जब मैंने सड़क बाजू खड़े कुछ लोगों को अपने ऊपर हंसते और लोटपोट होते देखा। बचीखुची इज्ज़त बचाने की कोशिश में मैं एक रेस्तरां में घुस गया। कुछ अच्छा काम करने जाएँ और उस पर भी लोग हम पर हंसें तो मन बहुत आहत होता है। परन्तु होटल के स्थूलकाय मालिक ने जोर से खिलखिलाते हुए मुझे समझाया तब मुझे अहसास हुआ कि लोग मुझ पर नहीं बल्कि उस पूरे घटनाचक्र पर हंस रहे थे। उसने वह पूरा दृश्य अपनी आँखों से देखा था। मुझ पर दया कर उसने रसोईघर फिर खोलने का भी प्रस्ताव दिया। खाने के पैसे देने पर उसने लेने से भी इनकार कर दिया। तब मैंने जाना कि दया, सहानुभूति और सहायता की इच्छा अभी लुप्त नहीं हुई है।

एडम चोटी

आदम छोटी - श्री लंका
आदम छोटी – श्री लंका

अगले कुछ दिनों में मैंने कैंडी, पोलोन्नारुवा, दाम्बुला, एडम चोटी और कई दूसरे स्थलों के दर्शन किये। कहा जाता है कि एडम चोटी पर भगवान शिव के पदचिन्ह अंकित हैं। अंततः मैं नुवारा एलिया से करीब ३०की.मी. दूर होर्टन मैदानी राष्ट्रीय उद्यान पहुंचा जिसे पाताल लोक अथवा विश्व का अंतिम स्थल भी कहा जाता है। यह वही स्थान है जहाँ अहिरावण ने राम और लक्षमण को बंदी बना कर रखा था। अपने पंचमुखी रूप में भगवान हनुमान ने उन्हें बाद में मुक्त कराया था।

“भगवान हनुमान ने अपने पंचमुखी रूप में राम और लक्षमण को अहिरावण से मुक्त कराया था।”

अशोक वाटिका

अशोक वाटिका - श्री लंका
अशोक वाटिका – श्री लंका

होर्टन मैदानी राष्ट्रीय उद्यान के समीप हकगला वाटिका अथवा अशोक वाटिका है जहां रावण ने देवी सीता को बंधक बना कर रखा था क्योंकि महारानी मंदोदरी ने उन्हें महल में लाने की अनुमति नहीं दी थी। यहीं पर हनुमान ने पहली बार देवी सीता से भेंट की थी और उन्हें भगवान राम की अंगूठी दी थी।

यह एक अविश्वसनीय रूप से खूबसूरत बगीचा था। यहाँ पौधों की हज़ारों प्रजातियाँ थीं जिन पर सैकड़ों तितलियाँ मंडरा रहीं थीं। कहा जाता है कि बसंत ऋतु में यह बगीचा सबसे खूबसूरत लगता है जब पौधे फूलों से भर जातें हैं। दुर्भाग्य से बसंत अभी बहुत दूर था।

सीता अम्मा मंदिर

हकगला वाटिका के दर्शन के पश्चात मैं सीता अम्मा मंदिर की ओर चल पड़ा जो सड़क के ठीक दूसरी तरफ था।किवदंतियां कहतीं हैं कि देवी सीता, मंदिर के पास स्थित नदी में स्नान करती थी। नदी के पास कई पत्थर थे जिन पर पैरों के पदचिन्ह थे। माना जाता है कि यह भगवान् हनुमान के पदचिन्ह हैं।

जीवन परिवर्तित करने वाला जो अनुभव मैंने यहाँ पाया, वह क्या मेरी नियति थी या मेरी अच्छी किस्मत! अभी भी कई बार इस बारे में सोच कर मैं अचंभित हो जाता हूँ।

यात्रा के कुछ और अनुभव

पूजा अर्चना करने के पश्चात मैं मंदिर के एक कोने में शांतिपूर्वक बैठ गया। एक छोटी सी बालिका मेरे पास आई व अपना कुछ प्रसाद एक बड़ी मुस्कराहट के साथ मेरे हाथ में रख दिया। उसकी मुस्कराहट ने मेरा दिल पिघलाकर रख दिया। मुझे अहसास हुआ कि बच्चे कितने मासूम और विश्वासी होते हैं। पर फिर मेरे दिल के किसी मानवद्वेषी कोने ने अपना सर उठाया और मुझे उस खतरे और विकट परिणाम के लिए आगाह किया जिसने इतने बार मेरे मन को उकसाया था। मन किया कि उस बालिका को डांट पिलाऊं कि यह दुनिया सुरक्षित स्थान नहीं है। बाहर इतने राक्षसी प्रवृत्ति के लोग हैं कि उसे अपने परिवारजनों के सानिध्य में सुरक्षित रहना चाहिए। परन्तु मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। क्यों? पता नहीं!

उस मासूम बालिका के हाथों दयालुता का प्रसाद ग्रहण कर उसकी मासूमियत पर प्रहार करना, क्रूरता और स्वार्थी बनने के सामान है। मैं उस निर्मलता और मानवता पर विश्वास की मूरत को अविरल निहारते रहना चाहता था। उसके मासूम हावभाव ने मुझे मेरे डर व अविश्वास को भुला दिया। लोगों पर विश्वास करना मैंने बहुत पहले छोड़ दिया था और इसी कारण मेरा अंतर्मन मलिन व क्लांत रहता था। यही अत्याचार मैं उस मासूम बालिका पर कैसे कर सकती थी।

मानवता

मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि उस वक्त मेरा कोई वजूद नहीं था। अगर उस वक्त कुछ अस्तित्व में था तो वह थी मेरी शंका।वह शंका जो हर इंसान के ऊपर मंडराती है, वह शंका जो हमें किसी अजनबी को देख मुस्कुराने से पहले सोचने पर मजबूर करती है, वह शंका जो हमें किसी से सहानुभूति के दो शब्द कहने व किसी की सहायता करने से रोकती है, उस शंका का आज अंत होना चाहिए। मुझे अभी इसी वक्त इस शंका को मारना होगा।

वैसे तो यह एक तुच्छ सी घटना थी, जिसे किसी और दिन मैंने ध्यान नहीं दिया होता। परन्तु उस स्थिति में उस घटना ने मेरे ऊपर बड़ा प्रभाव छोड़ा। इसे समझाना कठिन है परन्तु इस तरह कुछ अनुभव जीवन में आते हैं जो सही समय सही स्थान के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण बन जातें हैं। यह घटनाएँ तुच्छ भी हो सकतीं हैं जैसे पुस्तक की एक पंक्ति, चलचित्र का एक संवाद या घटना बड़ी भी हो सकती है जैसे एक दुर्घटना। परन्तु यही घटनाएँ हमारी जिंदगी बदल देती हैं। मेरे जीवन की इस घटना ने मानवता में मेरा विश्वास फिर जगा दिया।

दिवुरुम्पोला मंदिर, नुवारा एलिया

दिवुरुम्पोला मंदिर - श्री लंका
दिवुरुम्पोला मंदिर – श्री लंका

अगले दिन मैंने दिवुरुम्पोला मंदिर के दर्शन किये जो वेलिमडा की तरफ जाते मार्ग पर नुवारा एलिया से २०कि.मी. दूर स्थित है। पौराणिक कथाएं कहतीं हैं कि सीता देवी ने अपनी अग्नि परीक्षा इसी स्थान पर दी थी और यह मंदिर उन्हें ही समर्पित है। ‘दिवुरुम्पोला’ का अर्थ सिंहली भाषा में है सौगंध की धरती। यह मंदिर देवी सीता के सौगंध के लिए प्रसिद्ध है।स्थानीय लोग विवाद सुलझाने हेतु इस मंदिर में आ कर सौगंध दिलवाते हैं इस परिसर में स्थित बोधिवृक्ष बोध गया के उसी श्री महाबोधिवृक्ष का वंशज है जिसके नीचे बैठ कर भगवान बुद्ध को परम ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।

रावण मंदिर व गुफाएं

रावण मंदिर एवं गुफ़ा
रावण मंदिर एवं गुफ़ा

एला से करीब २कि.मी. दूर यह रावण मंदिर व गुफाएं स्थित हैं। रावण मंदिर बेहद छोटा है और आश्चर्यजनक रूप से यहाँ रावण की मूर्ती नहीं है। इस मंदिर के प्रवेश द्वार से पहाड़ी की ५००मि. चड़ाई के पश्चात रावण गुफाएं पहुंचते हैं। माना जाता है कि पूरे श्रीलंका में फैले इन गुफाओं के जालों को रावण को बनवाया था। सुरंगों के इस जाल के पीछे रावण की मंशा अपने राज्य के विभिन्न ठिकानों को आपस में जोड़ना था व इसे गुप्त जासूसी, सैनिक सर्वेक्षण और पलायन हेतु उपयोग में लाना था। गुफाओं का मुख्य द्वार और मुख्य कक्ष दोनों विशाल थे। मुख्य कक्ष से ३ सुरंगें निकल रहीं थीं। पहली सुरंग सबसे लंबी थी जो २० फीट बाद समाप्त हो रही थी। दूसरी १० फीट लम्बी थी और तीसरी, सबसे छोटी, का दूसरा छोर बंद था।

उस्सनगोड नगर – जिसे हनुमान ने भस्म किया था

अपने यात्रा के अंतिम पड़ाव में मैं उस्सनगोड़ा पहुँचा। किवदंतियां कहतीं हैं उस्सनगोड़ा, रावण राज्य के उन नगरों में से एक है जिसे भगवान हनुमान ने जला दिया था। देवी सीता को खोजने के पश्चात, भगवान हनुमान ने रावण से भेंट करने का निश्चय किया। इसलिए उन्होंने स्वयं को, रावण के सबसे शक्तिशाली पुत्र, इन्द्रजीत के हाथों बंदी बनवा लिया। हनुमान को सबक सिखाने की मंशा से रावण ने अपने राक्षसों को उनकी पूंछ को आग लगाने की आज्ञा दी। हनुमान ने, रावण को अपनी शक्ति का परिचय देने हेतु, अपनी पूंछ को खूब लम्बी बना लिया व पूरे लंका में नाच नाच कर जलती पूंछ से पूरी लंका जला डाली। लंका को नष्ट करने के पश्चात उन्होंने उस्सनगोड़ा पर छलांग लगाई, जो विमानों से भरा विमानतल था, और उसे नेस्तनाबूत कर दिया।

कठिन स्थान निर्धारण

उस्संगोड़ - श्री लंका
उस्संगोड़ – श्री लंका

रामायण सम्बंधित कई स्थलों की तरह, उस्सनगोड़ा को भी ढूँढना बेहद कठिन था। नक़्शे में स्पष्ट स्थान निर्धारित था, हम्बनटोटा-तन्गल्ले राजमार्ग पर हम्बनटोटा से ३०कि.मी. दूर। परन्तु निर्धारित स्थान पहुँचाने पर मुझे कोई भी सूचना पट्टिका दिखाई नहीं दी, ना ही उस स्थान की जानकारी रखने वाला कोई इंसान! अंततः, एक उदार ह्रदय ने मुझ पर दया की और मुझे सही दिशा दिखाई। “राजमार्ग पर कारखाने से बाएं मुड़ कर सीधे रास्ते खड़ी चट्टान तक जाएँ, तत्पश्चात पैदल चलें।” मैंने कुछ समय उनकी दिशा निर्देशों का पालन किया परन्तु एक बार फिर रास्ता भटक गया। मेरे स्वयं का अंतर्ज्ञान या अंतर्दृष्टि भी निस्तेज हो चुकी थी इसलिए मैं उस चट्टान तक भी नहीं पहुँच पाया।

एक घंटा भटकने के पश्चात में एक छोटे बालक से टकराया जिसकी सहायता से मैं उस्सनगोड़ा पहुंचा। ३की.मी. घेरे का समतल दायरा घनी झाड़ियों से चारों ओर से घिरा हुआ था परन्तु दायरे के भीतर कोई भी झाडी नहीं थी। शायद हनुमान द्वारा लगाए गए आग ने यहाँ सब भस्म कर दिया था!

रुमस्सला

रुमसल्ला - श्री लंका
रुमसल्ला – श्री लंका

इस यात्रा का अंतिम पड़ाव मैंने रुमस्सला का दर्शन निहित किया था। यह उनवंतुना के पास स्थित एक छोटी पहाड़ी है। रामायण के युद्ध के दौरान लंका में इन्द्रजीत ने लक्षमण की जख्मी किया था। लक्षमण के गहरे जानलेवा जख्मों को देख भालुओं के राजा जाम्बवंत ने, उनके इलाज हेतु, हनुमान से ४ प्रकार की जड़ीबूटियाँ ले कर आने को कहा। यह वनौषधियाँ, मृत संजीवनी, विशल्यकरणी, सुवर्णकरणी व सांधनी, सिर्फ हिमालय के ऋषभ पर्वत पर ही उपलब्ध थीं। हनुमान उड़ कर हिमालय तक पहुंचे, परन्तु वे वह वनौषधियों को पहचानने में असमर्थ थे। किसी उलझन में ना पड़ते हुए, उन्होंने सम्पूर्ण रिषभ पर्वत को ही उठा लिया और उड़ कर लंका पहुँच गए। मार्ग में इस पर्वत के टुकड़े कई जगह गिरे। यह जगहें हैं, सिरुमलाई(भारत), रुमस्सला, रितिगला, दौलकंदा, और तल्लदी। आज भी इन स्थानों से पारंपरिक चिकित्सक, जड़ीबूटियाँ एकत्र कर औषधियाँ बनातें हैं।

अन्य रामायण स्थल

लंका में इनके अलावा भी कई रामायण सम्बंधित स्थल हैं जिनके मैंने दर्शन किये थे। उनमें से कुछ हैं, नागदीप( जहां नागों की माता सुरसा देवी ने हनुमान की परीक्षा ली थी), कटरगामा (भगवान कार्तिकेय का मंदिर), सीता कोटूवा (जहां देवी सीता बंधक बना कर रखीं गईं थीं), नग्गला (वह पहाड़ी जहाँ से भगवान् राम के सेना को देखा गया था।), येहंगला (जहां रावण का पार्थिव शरीर दर्शनार्थ रखा गया था), केलनिया मंदिर (विभीषण मंदीर), कन्निया (रावण द्वारा बनवाये गए भूमिगत जलस्त्रोत) इत्यादि। यह संस्मरण पहले ही बहुत लम्बा हो जाने के कारण इनका उल्लेख मैं इस लेख में नहीं कर रहा हूँ।

अंत में यदि आप मुझसे यह सवाल करें कि इस यात्रा में जितने कष्ट मैंने सहे व जितनी मेहनत मैंने की, क्या इस तरह व इस परिमाण की यात्रा उस लायक थी? मेरा जवाब होगा, शत प्रतिशत हाँ! पूरे यात्रा में मैंने उन संकेतों का अनुभव किया जिन्होंने मुझे मेरे अंतर्मन के दर्शन कराये, अपनी आत्मा से एकाकार किया और श्रद्धा व विश्वास को आत्मसात करने में मेरी मदद की। मेरी श्रीलंका की यात्रा ने मानवता में मेरा विश्वास एक बार फिर जगा दिया और मुझे एक बेहतर इंसान बनने में मदद की। जीवन में क्या सिर्फ यही परम सत्य नहीं है?

यह संस्मरण “मंकीस, मोटरसायकल्स एंड मिसएडवेंचर्स” के लेखक हर्ष द्वारा अतिथी की हैसियत से प्रदत्त है। नक़्शे, चित्र व और अधिक जानकारी हेतु एम्एम्एम् की फेसबुक पेज पर जाएँ। उनकी पुस्तक की प्रति ‘यहाँ’ से खरीद सकतें हैं। पुस्तक की मेरे द्वारा की गयी समीक्षा ‘यहाँ’ उपलब्ध है।

हिंदी अनुवाद : मधुमिता ताम्हणे

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