नृत्यसम्राट नटराज की कथा कहती चोल काल की कांस्य प्रतिमाएं

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नृत्य सम्राट भगवान शिव के नटराज रूप का उद्भव तमिलनाडु के चिदंबरम में हुआ था। भारतीय कलाकृति की कदाचित यह सर्वाधिक लोकप्रिय एवं जानी-पहचानी कलाकृति है। लोकप्रियता में इस कलाकृति की निकटतम प्रतिस्पर्धी केवल गणेश की विभिन्न मुद्राओं की प्रतिमाएं हैं। काल, स्थान एवं कला क्षेत्र में आये परिवर्तनों के पश्चात भी नटराज की नृत्य मुद्रा में अधिक अंतर नहीं आया है। यद्यपि, बिरला संग्रहालय में मैंने नटराज की एक मुद्रा देखी जिसमें वे शीर्षासन अवस्थिति में थे।

नृत्यसम्राट नटराज

नटराज की भव्य कांस्य प्रतिमा दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में
नटराज की भव्य कांस्य प्रतिमा दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में

आईये हम भगवान शिव के नटराज रूप के पृष्ठभाग में निहित मूर्ति शास्त्र के विषय में कुछ चर्चा करें। भगवान शिव संहार के द्योतक हैं। इसके पश्चात सृष्टि की रचना होती है। यदि आप भगवान शिव के नटराज रूप का अवलोकन करें तो आप देखेंगे कि यह मुद्रा शिव की इस परिभाषा पर खरी उतरती है। उनकी इस छवि में जीवन चक्र दर्शाया गया है जिसके प्रत्येक भाग का शिव एक अभिन्न अंग हैं। नटराज का अर्थ है, नृत्यसम्राट, जो इस मुद्रा में दिव्य तांडव नृत्य कर रहे हैं।

नटराज की प्रतिमा

ऊपरी दाहिने हाथ में डमरू – चार भुजाधारी शिव के एक दाहिने हाथ में डमरू है जिस पर एक छोटी व मोटी रस्सी बंधी होती है। इस डमरू को जब वे कलाई से गोल घुमा कर बजाते हैं, तब रस्सी के सिरे पर बनी गाँठ डमरू के चमड़े पर टकराती है जिससे डमरू से नाद उत्पन्न होते हैं। डमरू से उत्पन्न नाद उस प्रणव स्वर का द्योतक है जिससे ब्रह्माण्ड की रचना हुई है। भगवान शिव का डमरू जगत की सृष्टि अर्थात जगत की रचना का प्रतीक है।

ऊपरी बाएं हाथ में अग्नि – उनके ऊपरी बाएँ हाथ में अग्नि है जो संहार अथवा विनाश या प्रलय का प्रतीक है। उनके दोनों ओर के दोनों हाथों में स्थित रचना एवं संहार के विपरीत चिन्ह, उनके मध्य संतुलन या स्थिति को दर्शाते हैं। यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि रचना एवं संहार एक दूसरी के अनुगामी है।

निचले दाहिने हाथ में अभय मुद्रा – उनका निचला दाहिना हाथ अभय मुद्रा में अवस्थित है। इसका अर्थ है कि वे धर्म के पथ पर अग्रसर शिव भक्तों का संरक्षण करते हैं। अभय एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है, भय विहीन।

निचले बाएं हाथ में वरद मुद्रा –नटराज का निचला बायाँ हाथ वरद मुद्रा में नीचे की ओर झुका हुआ है। यह समस्त जीवों की आत्मा का शरण स्थान अथवा मुक्ति का द्योतक है। उनका यह हाथ ब्रह्माण्ड के सुरक्षात्मक, पोषक व संरक्षक तत्वों का प्रतीक है। यह  एवं संहार के मध्यकाल से सम्बन्ध रखता है।

दाहिना पैर – उन्होंने अपने दाहिने चरण के नीचे अज्ञान के प्रतीक, एक बौने दानव को दबा रखा है। अतः, सृष्टि की रचना, पोषण, संहार तथा पुनर्रचना के अतिरिक्त भगवान शिव अज्ञानता के दानव पर भी अंकुश रख रहे हैं। एक तत्व पर अपना ध्यान अवश्य केन्द्रित करें, दानव आनंदित भाव से भगवान शिव को निहार रहा है।

बायाँ पैर – उनका बायाँ पैर नृत्य मुद्रा में उठा हुआ है जो नृत्य के आनंद को दर्शा रहा है।

कटि पर बंधा सर्प –  उनके कटिप्रदेश पर बंधा सर्प कुण्डलिनी रूपी शक्ति है जो नाभि में निवास करती है। अर्धचन्द्र ज्ञान का प्रतीक है। उनके बाएं कान में पुरुषी कुंडल हैं तथा दायें कान में स्त्री कुंडल हैं, जो यह दर्शाते हैं कि जहां शिव हैं, वहां उनकी शक्ति भी विराजमान हैं। उन्होंने एक नर्तक के समान अपने गले में हार, हाथों में बाजूबंद व कंगन, पैरों में पायल, पैरों की उँगलियों में अंगूठियाँ, कटि में रत्नजड़ित कमरपट्टा आदि आभूषण धारण किये हैं। उनके मुख पर समभाव हैं। पूर्णरुपेन संतुलित। न रचयिता का आनंद, नाही विनाशकर्ता का विषाद। वे जब नृत्य करते हैं तब उनकी जटाएं खुल जाती हैं। उनकी जटाओं के दाहिनी ओर आप गंगा को देख सकते हैं। उनके चारों ओर अग्नि चक्र है जो ब्रह्माण्ड को दर्शाता है।

रचना व संहार का लय

नृत्य सम्राट नटराज
नृत्य सम्राट नटराज

जाने माने भौतिक शास्त्री Fritjof Capra ने अपनी पुस्तक में कहा है, “आधुनिक भौतिक शास्त्र ने यह दिखाया है कि रचना एवं विनाश की लय केवल काल की गति तथा सभी जीवित प्राणियों के जन्म – मृत्यु का  द्योतक मात्र नहीं है, अपितु यह समस्त अजीव पदार्थों का भी सार है।” उस पुस्तक में यह भी कहा गया है कि “उस काल के आधुनिक विज्ञान शास्त्रियों के लिए भगवान शिव का नृत्य उपपरमाण्विक या सूक्ष्माणुओं का नृत्य है।”

उस पुस्तक में लेखक ने यह निष्कर्ष निकाला है कि “सहस्त्रों वर्षों पूर्व भारतीय कलाकारों ने नृत्य में तल्लीन भगवान शिव की छवियों को अनेक कांस्य प्रतिमाओं में साकार रूप प्रदान किया है। उनके काल में भौतिक विदों ने सर्वाधिक उन्नत तकनीक का प्रयोग कर इस दिव्य ब्रह्मांडीय नृत्य की विभिन्न मुद्राओं की श्रंखला को प्रदर्शित किया है। ब्रह्मांडीय नृत्य का यह रूप प्राचीन पौराणिक कथाओं, धार्मिक कलाओं एवं आधुनिक भौतिक शास्त्र का एकीकरण करता है।“

मेरी उनसे एक प्रश्न करने की अभिलाषा है कि क्या आधुनिक कण-भौतिकविद शिव एवं शक्ति को ही कण एवं प्रतिकण कहते हैं, जिनके मिलन से अनंत उर्जा उत्पन्न होती है?

भगवान की स्पष्टतम छवि

कला इतिहासकार आनंद केंटिश कुमारस्वामी कहते हैं कि नटराज भगवान् के कार्यकलापों की स्पष्टतम प्रतिकृति है। नटराज भगवान शिव के नृत्यमग्न छवि की सर्वाधिक उर्जावान प्रतिकृति है। कलामर्मज्ञ भारत-चिन्तक आनंद केंटिश कुमारस्वामी के अनुसार भगवान शिव का नृत्य उनके पाँच क्रियाकलापों का प्रतिनिधित्व करता है जिन्हें पंचक्रिया कहते हैं। वे हैं:

सृष्टि : निरिक्षण, सृजन, विकास

स्थिति : संरक्षण, समर्थन

संहार : विनाश, संसरण

तिरोभाव : अवगुंठन, मूर्त रूप, भ्रम,

अनुग्रह : मुक्ति, मोक्ष, कृपा

शिव के नटराज रूप में इन क्रियाओं की हाथों द्वारा अभिव्यक्ति की गयी है। डमरू द्वारा सृजन, अभय मुद्रा द्वारा संरक्षण, अग्नि द्वारा संहार अथवा विनाश तथा वरद मुद्रा द्वारा मोक्ष की अभिव्यक्ति की गयी है।

वर्णन

आनंद कुमारस्वामी ने नटराज का इन शब्दों में वर्णन किया है। चार भुजा धारी, नृत्य मग्न शिव, गुंथे हुए मणिजड़ित केश जिनकी जटाएं उनके साथ नृत्य कर रही हैं। उनके केश सर्प द्वारा बंधे हुए हैं जिन पर अर्धचन्द्र शोभायमान हैं। उस पर अमलतास की पत्तियों का हार है। अपने दाहिने कर्ण में उन्होंने पुरुषी कुंडल धारण किया है तथा बाएं कान में स्त्री कुंडल। गले में हार, हाथों में कंगन व बाजूबंद, पैरों में पैंजन, हाथों एवं पैरों की उँगलियों में अंगूठियाँ हैं। परिधान के नाम पर उन्होंने मुख्यतः एक लघु धोती, अंगवस्त्र तथा जनेऊ धारण किया है। एक दाहिने हाथ में डमरू तथा दूसरा दाहिना हाथ अभय मुद्रा में उठा हुआ है। एक बाएं हाथ में अग्नि अग्नि धारण की है तो दूसरा बायाँ हाथ बौने दैत्य मुयलका की ओर संकेत कर रहा है। मुयलका ने एक सर्प उठाया हुआ है। बायाँ पैर धरती से नृत्य मुद्रा में उठा हुआ है। शिव कमल के आसन पर खड़े होकर नृत्य कर रहे हैं। उनके चारों ओर गौरव चक्र तिरुवासी है जिससे अग्नि की लपटें निकल रही हैं। चक्र के भीतर से शिव के डमरू एवं अग्नि उठाये हुए हस्त उस चक्र को भीतर से स्पर्श कर रहे हैं।

८१ मुद्राएँ दर्शाते शिव

एक मूर्ति ८१ मुद्राएँ - बादामी कर्णाटक
एक मूर्ति ८१ मुद्राएँ – बादामी कर्णाटक

कर्णाटक के बादामी गुफाओं में स्थित भगवान शिव की एक छवि जिसमें कुल ८१ नृत्य मुद्राएँ प्रदर्शित की गयी हैं।

भारतीय कला के विषय में लिखा गया यह संस्करण इस क्षेत्र में मेरा प्रथम प्रयास है। इस विषय में मैं स्वयं को केवल एक विद्यार्थी मानती हूँ। यदि मेरे प्रयासों में कहीं कोई त्रुटि रह गयी हो तो कृपया मुझे क्षमा करते हुए मेरा मार्गदर्शन करें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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