उत्तर कन्नड़ भ्रमण के समय सिरसी से गोकर्ण की यात्रा करते हुए अधिकतर पर्यटक गोकर्ण के समुद्र तटों का आनंद उठाने हेतु इच्छुक रहते हैं। क्यों ना हों! गोकर्ण के समुद्र तट हैं ही इतने सुन्दर। परन्तु मैं आपको जानकारी देना चाहती हूँ कि सड़क मार्ग द्वारा सिरसी से गोकर्ण जाते समय, राह में भी कई आकर्षक पर्यटन स्थल हैं, जैसे विभूति झरना, याना की शिलाएं तथा मिर्जन दुर्ग। चाहे आप अन्वेक्षक हों या पर्यटक अथवा साहसी दुचाकी चालाक, आप सब के लिए ये मनोरंजक पर्यटन स्थल हैं।
उत्तर कन्नड़ के अद्भुत पर्यटन स्थल
विभूति झरना, याना गुफाएं तथा सहस्त्रलिंग, ये पर्यटन स्थल उत्तर कन्नड़ के एक नगर सिरसी के अत्यंत समीप हैं। सिरसी कर्नाटक के मलनाड क्षेत्र में स्थित है। इस क्षेत्र में वर्षा ऋतु की विशेष कृपा है। इसके फलस्वरूप यह क्षेत्र सघन जंगलों तथा हरियाली से परिपूर्ण है। जगह जगह पर सुन्दर झरने हैं। प्रकृति का आनंद उठाने हेतु यहाँ कई उत्तम पर्यटन स्थल हैं। भरपूर वर्षा के कारण खेती यहाँ की प्रमुख उपजीविका साधन है। चारों ओर नारियल तथा सुपारी के वृक्ष दृष्टिगोचर होते हैं। वर्षा के अतिरिक्त अघनाशिनी नदी भी सिरसी के जल स्त्रोतों में अपना महत्वपूर्ण योगदान देती है।
पश्चिमी घाटो के आँचल में छिपें सिरसी के किसी भी कोने से आप पहाड़ियों तथा जलप्रपातों के दृश्यों का आनंद उठा सकते हैं। तथापि कुछ महत्वपूर्ण पर्यटन स्थानों के विषय में मैं अपनी विशेष राय देना चाहती हूँ।
पश्चिमी घाटो में स्थित सिरसी से सड़कमार्ग द्वारा आतंरिक भागों को चीरते हुए समुद्रतटीय नगर गोकर्ण पहुँचने तक के मार्ग में कई अवाक करने वाले पर्यटन आकर्षणों से आपका आमना-सामना होगा। इनमें प्रमुख हैं, विभूति झरना व याना गुफाएं। सघन जंगलों तथा हरियाली के मध्य, शहरी भीड़-भाड़ से दूर, प्रकृति के सानिध्य में बिछी इन सडकों पर गाड़ी चलाने का आनंद अतुलनीय है। इस प्राकृतिक परिदृश्य का आनंद उठाने हेतु आप सिरसी अथवा गोकर्ण से एक-दिवसीय यात्रा के रूप में आ सकते हैं।
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जैसा की आप जानते ही होंगे गोकर्ण, मंदिर के साथ साथ अपने अप्रतिम समुद्रतटों हेतु प्रसिद्ध है।
यदि आपने शीत ऋतु के आरम्भ में गोकर्ण यात्रा की योजना बनायी है तो मार्ग में स्थित विभूति जलप्रपात, याना गुफाएं तथा जंगलों की हरियाली का आनंद अवश्य उठायें।
विभूति झरना
विभूति झरना पश्चिमी घाटी के जंगलों की गोद में छुपा एक सुन्दर जलप्रपात है। अन्य पर्यटन स्थलों के विपरीत यह प्रपात पर्यटकों की भीड़भाड़ से अछूता है।
विभूति झरने से सम्बंधित किवदंती इसे याना चट्टानों से जोड़ती है। ऐसा माना जाता है कि याना शिलाओं से बह कर आये जल से बने इस झरने के जल में पवित्र विभूति प्रवाहित होती है। इसी किवदंती के कारण इस झरने का नाम विभूति झरना पड़ गया।
झरने तक पहुँचने हेतु प्रवेशद्वार से लगभग १ से १.५ कि.मी की पदयात्रा करनी पड़ती है। अन्य कई जलप्रपातों की तरह यह जलप्रपात भी पदयात्रा के अंतिम चरण में ही दृष्टिगोचर होता है। पदयात्रा कष्टदायी नहीं है। जगह जगह पर बैठने की सुविधाएं हैं जहां किंचित सुस्ताते हुए आप चारों ओर के प्राकृतिक परिदृश्य का आनंद ले सकते हैं। मार्ग का प्रथम अर्धांश पक्का है किन्तु दूसरा अर्धांश कच्चा रास्ता है।
स्थानीय पंचायत नाममात्र का प्रवेश शुल्क वसूल करता है। रास्ते में स्थानीय निवासियों से मार्ग की पुष्टि करते चलें ताकि समय नष्ट ना हो।
विभूति जलप्रपात के दर्शन
विभूति जलप्रपात एक परतदार प्रपात है जिसकी ऊंचाई मेरे अनुमान से लगभग ६० से ७० फीट तक होगी। कच्चे रास्ते से जब आप यहाँ पहुंचते हैं, तो आप तलहटी अथवा चोटी पर नहीं होते। अपितु मध्य की एक परत पर पहुंचते हैं। चारों ओर घने जंगल एवं हरियाली से घिरे इस प्रपात के निकट केवल झरझर बहते झरने का कोलाहल सुनायी देता है। इस प्रपात पर प्रथम प्रहर अथवा दोपहर का कुछ समय व्यतीत करना अत्यंत आनंददायी होता है। जब मैं यहाँ पहुंची, कुछ युवक जल में अठखेलियाँ कर रहे थे एवं तैराकी में निपुण कुछ युवक तैरने की चेष्टा कर रहे थे। कुछ परिवार के सदस्य बगल में बैठकर धूप का आनंद ले रहे थे। कुल मिलाकर यह शहरी भीड़भाड़ से दूर एक अत्यंत रमणीय स्थल प्रतीत हो रहा था।
विभूति प्रपात के निकट एक जीवनरक्षक भी तैनात था जो तैराकों पर अपनी पैनी दृष्टी गड़ाए बैठा था।
मैंने न केवल विभूति झरने का आनंद लिया, अपितु आते-जाते जंगल में पदयात्रा का भी भरपूर आनंद लिया।
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विभूति जलप्रपात का विडियो
हमारे द्वारा विभूति झरने का यह विडियो देखना ना भूलें। हाई डेफिनिशन चित्रीकरण में इस प्रपात का अत्यधिक आनंद उठा सकते हैं।
अन्य जलप्रपातों की तरह विभूति जलप्रपात भी वर्षा ऋतु में अपनी चरम सीमा पर रहता है। तथापि प्रपात का जलस्तर तथा बहाव को देखते हुए सुरक्षा की दृष्टी से उस समय यहाँ आना उचित नहीं होगा। कदाचित वर्षा ऋतु में प्रपात दर्शन निषेध भी हो। अतः इस जलप्रपात के दर्शन हेतु योग्य काल शीत ऋतु है। अर्थात् अक्टोबर मास से जनवरी मास तक। तत्पश्चात जलस्तर में कमी दृश्यमान होने लगती है। हमने इस जलप्रपात के दर्शन नवम्बर २०१७ में किये थे। प्रवेशद्वार पर एक आकर्षक स्वागत तोरण खड़ा किया जा रहा था। प्रपात से वापिस लौटकर हमने यहाँ एक दूकान से स्वादिष्ट भेलपूरी का भी आस्वाद लिया था।
वर्षा ऋतु के पश्चात जंगल की आर्द्रता के कारण यह सम्पूर्ण स्थल जोंक से भरा हुआ है। आप की जानकारी हेतु आपको बता दूं कि जोंक आरम्भ में इतने छोटे होते हैं कि साधारण कीड़ा मानकर आप उन पर ध्यान नहीं देते। उनका आकार १ मिलीमीटर चौड़ा तथा लम्बाई १ इंच से भी कम होती है। चुपके से वे आप के पैरों पर चिपककर, बिना त्रास दिए, रक्त चूसने लगते हैं। तत्पश्चात वे साधारणतः १.५ से ३ इंच तक लम्बे हो जाते हैं। यद्यपि जोंक हानिकारक नहीं होते, फिर भी यदि जोंक ने आपके रक्त का आस्वाद ले ही लिया हो तो किसी स्थानीय निवासी से उसे पृथक करने की पद्धति तथा उपचार की जानकारी ले लें।
विभूति जलप्रपात के दर्शन हेतु आप अपने रहने की व्यवस्था सिरसी, गोकर्ण अथवा देवनहल्ली ग्राम के ‘सात्विक होमस्टे’ में कर सकते हैं। वे आपको जंगल पदयात्रा, ग्रामदर्शन तथा पक्षी अवलोकन हेतु पदयात्रा इत्यादि की सुविधाएं भी मुहैय्या करा सकते हैं।
विभूति झरना सिरसी से लगभग ४४ कि.मी. तथा गोकर्ण से लगभग ४२ कि.मी. पर स्थित है। सिरसी से आप मट्टीघट्टा, देवनहल्ली तथा हेगडेकट्टा होते हुए प्रवेशद्वार तक पहुंचते हैं।
याना शिलाएं, गुफाएं तथा शैल समूह
पश्चिमी घाट के सह्याद्री पर्वत श्रंखला के घने वनों के भीतर दो विशाल शिलाएं हैं। यह शिलाएं दूर से दृश्यमान नहीं हैं। घने वन में स्थित एक छोटी पगडंडी के द्वारा आप जैसे ही वन में इन शिलाओं की दिशा में आगे बढ़ेंगे, गर्व से खड़ी यह विशाल शिलाएं दृष्टिगोचर होने लगेंगी। सह्याद्री के घने वनों के मध्य आश्चर्यजनक रूप से अकस्मात् दृष्टिगोचर होते इन शिलाओं के युगल जोड़े को देख आपका मुँह खुला का खुला रह जाएगा तथा आँखें चौड़ी हो जायेंगी। इन ठोस काले चूने पत्थर की शिलाओं के समीप पहुंचते ही आप एक श्याम वर्ण का वृत्त देखेंगे। राख सदृश पदार्थ से बना यह वृत्त अपने आसपास की भूरी मिटटी से पूर्णतया भिन्न है। सम्पूर्ण दृश्य देखकर हम सोच में पड़ जाते हैं कि घने वन में उपस्थित यह शिलायें आखिरकार क्या हैं तथा कहाँ से आयी हैं।
वैज्ञानिक कारणों की तो जानकारी मुझे नहीं है, यद्यपि कुछ किवदंतियां इनका वर्णन पौराणिक रूप में अवश्य करती हैं। इन दो शिलाओं को इन किवदंतियों में भैरवेश्वर तथा मोहिनी कहा गया है। भैरवेश्वर अर्थात् भगवान् शिव तथा मोहिनी जो भगवान् विष्णु का स्त्री रूप अवतार है। इन दो शिलाओं में जो अधिक विशाल तथा ऊंचा है उसे भैरवेश्वर माना जाता है। भैरवेश्वर शिला की ऊंचाई १२० मीटर है तथा मोहिनी शिला ९० मीटर ऊंची है। इन दो शिलाओं के आसपास कुछ अन्य अति लघु शिलाएं हैं किन्तु इनमें से किसी का भी उल्लेख हेतु महत्वपूर्ण प्रतीत नहीं हुई।
याना शिलाओं की पौराणिक कथाएं
कुछ किवदंतियों के अनुसार असुर भस्मासुर ने भगवान् शिव को प्रसन्न करने हेतु घोर तपस्या की थी। भोलेनाथ भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर भस्मासुर की इच्छा पूर्ण करते हुए उसे वरदान दिया कि वह जिस किसी के शीर्ष पर हाथ रखेगा वह भस्म हो जाएगा।
अपनी नव प्राप्त शक्ति को परखने हेतु भस्मासुर भगवान् शिव के ही शीश पर साथ रखने उनकी ओर दौड़ पड़ा। स्वयं की रक्षा करने हेतु शिव वहां से भागने लगे तथा भस्मासुर उनका पीछा करने लगा। अंततः भगवान् विष्णु ने मध्यस्थ की भूमिका निभाते हुए मोहिनी अवतार ग्रहण किया। मोहिनी ने भस्मासुर को अपने मोहपाश में बांधते हुए उसे नृत्य हेतु आमंत्रित किया। भस्मासुर को अपनी नृत्य मुद्राओं का अनुसरण करने हेतु बाध्य किया। नृत्य करते मोहिनी ने अपने शीश पर हाथ धरने की मुद्रा धारण की। मोहिनी का अनुसरण करते भस्मासुर ने भी अपने शीश पर साथ रखा तथा अपने वरदान के फलस्वरूप स्वयं ही भस्म हो गया।
ऐसा माना जाता है कि मोहिनी रुपी विष्णु ने याना में ही यह नृत्य किया था तथा यह दो शिलाएं शिव व विष्णु का प्रतिरूप हैं। भैरवेश्वर अर्थात भस्मासुर का इश्वर। इस स्थान को भैरव क्षेत्र भी कहा जाता है। महाशिवरात्रि के पर्व पर यहाँ श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।
याना गुफा मंदिर
गुफा मंदिर को भैरवेश्वर मंदिर भी कहा जाता है। यह भैरवेश्वर शिला के भीतर, आधार पर स्थित है। इस गुफा में एक स्वयंभू शिवलिंग प्राप्त हुआ था जो अब भी यहां स्थित है। इस मंदिर में भगवान् शिव के अवतार भैरवेश्वर की मूर्ति स्थापित है। साथ ही चंडिका देवी की कांस्य प्रतिमा भी स्थापित है। अर्थात् भगवान् शिव अपनी शक्ति समेत यहाँ स्थापित हैं। इस प्राकृतिक गुफा के भीतर निरंतर जल रिसता रहता है जो शिवलिंग के ऊपर गिरता रहता है। अतः इस लिंग को गंगोद्भव भी कहते हैं। यही जल है जो आगे जाकर विभूति प्रपात के जल में परिवर्तित हो जाता है और अंततः नीचे बहती अघनाशिनी नदी में विलीन हो जाता है।
हम जब यहाँ पहुंचे, संध्या होने को थी। एकाध पर्यटक ही शेष था। वापिस लौटते समय अन्धकार में जंगल की पदयात्रा करना कुछ भयावह तथा कुछ रोमांचक था। याना की यह शिलाएं अत्यंत अद्भुत हैं। बड़ी शिला के भीतर से जाती पगडंडी वास्तव में मंदिर का परिक्रमा पथ है। अतः इस पथ पर बिना जूतों व चप्पलों के परिक्रमा की जाती है। इस कारण कभी कभी यह परिक्रमा कष्टकारी भी प्रतीत होती है क्योंकि मार्ग में पड़े छोटे छोटे पत्थर के टुकड़े पाँव के तलुओं में चुभते हैं। इस परिक्रमा में कुछ सीड़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं तथा कुछ कदम उतरना पड़ता है। दोनों शिलाओं के मध्य गणेशजी का एक छोटा मंदिर है। यद्यपि मेरी यात्रा के समय इस मंदिर के पट बंद थे।
याना की शिलाएं सिरसी से लगभग ५० कि.मी. की दूरी पर स्थित हैं। इसके दर्शन दिन के समय ही किया जाना उत्तम है। प्रवेशद्वार के निकट स्थित इकलौती छोटी सी गुमटी के अतिरिक्त यहाँ कुछ उपलब्ध नहीं है।
कुछ स्थानीय निवासियों ने मुझे बताया कि इन शिलाओं के शिखर पर मधुमक्खी के कई छत्ते थे। हालांकि कालान्तर में मधुमक्खियों तथा इन छत्तों की संख्या में बहुत कमी आयी है। आज भी यहाँ कुछ छत्ते देखे जा सकते हैं।
गोकर्ण अथवा सिरसी से विभूति प्रपात व याना की गुफाओं तक कैसे पहुंचे?
यूँ तो हमें एक स्थानीय रिश्तेदार याना की गुफाओं तक गाड़ी द्वारा ले आये थे। गाड़ी के अतिरिक्त बस से भी यहाँ पहुंचा जा सकता है। पर्यटक सिरसी तथा गोकर्ण के मध्य दौड़ती अंतर्राज्यीय बस द्वारा दिन के समय यहाँ पहुँच सकते हैं। मार्ग संकरा है तथा कुछ ही बसें इस मार्ग पर दौड़ती हैं। सिरसी अथवा गोकर्ण बस स्थानकों से आवश्यक जानकारी प्राप्त कर यात्रा नियोजित की जा सकती है। पर्यटकों हेतु भोजन इत्यादि तथा शौचालय की केवल मूलभूत सुविधाएं ही उपलब्ध हैं। मार्ग का अधिकतम भाग वनों से होकर जाता है। अतः दुपहिया वाहन चालाक सावधानी से गाड़ी हांके। जहां तक हो सके वर्षा ऋतु में यहाँ की यात्रा न करें।
मिर्जन दुर्ग
विजयनगर साम्राज्य का एक ग्राम था गेरासोप्पा। यहीं की महारानी चेन्नाभैरा ने १६वीं. सदी में मिर्जन दुर्ग का निर्माण करवाया था। इस दुर्ग के दर्शन से पूर्व मुझे यह जानकारी नहीं थी कि यह दुर्ग उन भारतीय स्मारकों में से एक है जिसका सम्पूर्ण निर्माण स्त्रियों द्वारा किया था। पश्चिमी तट के समीप स्थित यह एक विशाल दुर्ग था। आपकी जानकारी हेतु, मिर्जन बंदरगाह का उपयोग गुजरात बंदरगाह के सहयोग द्वारा व्यापार हेतु किया जाता था। आपको यह जानकार अत्यंत आश्चर्य होगा कि उन दिनों यहाँ मुख्य रूप से कागज का व्यापार किया जाता था। इसी कारण महारानी को कागज महारानी के नाम से भी जाना जाता है।
पर्याप्त रखरखाव के अभाव में मिर्जन दुर्ग का अधिकतम भाग खँडहर में परिवर्तित हो चुका है। फिर भी इसके सम्पूर्ण दर्शनोपरांत इसकी मूल भव्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। दृड़ भित्तियाँ तथा कई विशाल कुँए दुर्ग के अवशेषों के मध्य आज भी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। एक वृक्ष के नीचे महिषासुरमर्दिनी का एक छोटा मंदिर अब भी सजीव है।
जिस दिन मैंने मिर्जन दुर्ग के दर्शन किये थे, यहाँ अनेक शालेय विद्यार्थी भ्रमण हेतु उपस्थित थे। उनका कोलाहल एवं लीलाएं इस वीरान उजड़े दुर्ग को सजीव कर रहे थे।
मिर्जन दुर्ग एक तटीय क्षेत्र में स्थित होने के कारण यहाँ का वातावरण अधिकतर ऊष्ण रहता है। ग्रीष्म ऋतु तथा वर्षा ऋतु में यहाँ की बढ़ती आर्द्रता असुविधाजनक हो सकती है। अतः मेरा सुझाव है कि इस दुर्ग के दर्शन के समय सूर्य की कठोर किरणों से रक्षा करने हेतु पर्याप्त मात्र में पीने का जल रखें तथा अपना सर ढकने हेतु टोपी रखें।
मिर्जन दुर्ग सिरसी से लगभग ६० कि.मी. तथा गोकर्ण से २२ कि.मी.की दूरी पर स्थित है।
मेरा सुझाव है कि गोकर्ण तथा सिरसी की यात्रा करते समय विभूति प्रपात तथा याना गुफाओं के साथ साथ समीप के अन्य रमणीय पर्यटन स्थलों के भी दर्शन करें। इनमें कुछ हैं, जोग जलप्रपात, इक्केरी, केलदी इत्यादि।