विंध्यवासिनी देवी का सीधा साधा सा अर्थ है विंध्य पर्वत पर निवास करने वाली देवी । विंध्याचल पर्वत श्रंखला भारत के सम्पूर्ण मध्य भाग में फैली हुई है। बिहार जैसे पूर्वी राज्यों से आरंभ होकर यह महाराष्ट्र जैसे दक्षिण-पश्चिम राज्यों तक पहुंचता है। मेरे अनुमान था की देवी इसी पर्वत श्रंखला में कहीं निवास करती है। कुछ समय पूर्व मैंने देवी महात्म्य पढ़ा जहाँ देवी के विंध्याचल निवास के विषय में उल्लेख है। मुझे यह तो ज्ञात था कि देवी पर्वत निवासिनी है किन्तु यथार्थतः कहाँ, यह ज्ञात नहीं था।
गूगल में कुछ ढूंढते समय सहसा मुझे उत्तर प्रदेश में वाराणसी के समीप, मीरजापुर जिले में स्थित विंध्याचल के विंध्यवासिनी मंदिर के विषय में कुछ रोचक साहित्य प्राप्त हुए। मैंने इस मंदिर का नाम तुरंत वाराणसी के आसपास के दर्शनीय स्थलों की सूची में सम्मिलित कर लिया। कुछ समय पूर्व मैं गीता प्रकाशन द्वारा प्रकाशित तीर्थंक का अध्ययन कर रही थी, तब मैंने उसमें विंध्याचल के अनेक मंदिरों के विषय में उल्लेख पढ़ा। उससे मुझे ज्ञात हुआ कि यह एक प्रमुख देवी क्षेत्र है जहां शक्ति के उपासक साधना करते हैं।
ऐसा माना जाता है कि शक्ति पीठों में तो देवी सती के अंग गिरे थे। किन्तु विंध्य में देवी स्वयं पर्वतों में वास करती हैं। विंध्यवासिनी के नाम का उल्लेख महाभारत, पद्म पुराण, मार्कण्डेय पुराण तथा देवी भागवत के साथ साथ कई स्तुतियों में भी किया गया है।
कुछ समय पूर्व मैं अपने वाचकों से देवी के नामों पर आधारित भारत के विभिन्न स्थलों के नामों के विषय में जानकारी एकत्र कर रही थी। तब मुझे मीरजापुर के विषय में ज्ञात हुआ था। मीरजापुर का अर्थ है, जो सागर से उत्पन्न हुआ हो, उसका नगर, अर्थात देवी लक्ष्मी का नगर। हम बहुधा इस नाम का अपभ्रंशित रूप, मिर्जापुर सुनते हैं। विंध्याचल में सर्व आधिकारिक सूचना पट्टिकाओं पर इसका नाम मीरजापुर है, वहीं अनौपचारिक पट्टिकाओं पर इसे मिर्जापुर कहा गया है।
आगामी यात्रा सम्मेलन के लिए जैसे ही मुझे वाराणसी की यात्रा का अवसर प्राप्त हुआ, मैंने तुरंत इसे विन्ध्याचल दर्शन के सुअवसर में परिवर्तित करने का निश्चय किया। तो आइए उस क्षेत्र के मंदिरों के दर्शन करें जहां विंध्य पर्वत का गंगा से मिलन होता है।
विंध्याचल के ३ देवी मंदिर
इस क्षेत्र में देवी के तीन मंदिर हैं जो देवी के तीन रूपों को समर्पित हैं। देवी के यह तीन मंदिर एक त्रिकोण में स्थित हैं। अनेक भक्तगण त्रिकोण के तीन कोनों पर स्थित इन तीन मंदिरों की त्रिकोण परिक्रमा भी करते हैं।
माँ विंध्यवासिनी मंदिर
यह मंदिर इस क्षेत्र का सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं सर्वाधिक लोकप्रिय मंदिर है। मीरजापुर से विंध्याचल की ओर आते समय, इन तीन मंदिरों में से आप सर्वप्रथम इस मंदिर के द्वार पर पहुंचेंगे। गाड़ी पार्किंग से मंदिर की ओर कुछ दूरी चलकर पूर्ण करनी पड़ती है। यहाँ चलते हुए आप दोनों ओर रंगबिरंगी दुकानों के बीच से होते हुए आगे बढ़ते हैं। ये दुकानदार देवी को अर्पण करने की सामग्री के साथ साथ मंदिर से संबंधित स्मारिकाओं की भी बिक्री करते हैं। लोग यहाँ से पूजा में उपयोगी छोटे छोटे तांबे एवं पीतल के पात्र इत्यादि अपने घर ले जाते हैं।
इस मंदिर का परिसर छोटा होते हुए भी कई मंदिरों को समाए हुए है। विंध्यवासिनी के मुख्य मंदिर में प्रवेश करने के लिए भक्तों को पंक्ति में खड़ा किया जाता है। दर्शनार्थी यहाँ बड़ी संख्या में आते हैं। मंदिर के अधिकारी एवं सेवक भीड़ को अत्यन्त कुशलता से संचालित करते हैं। भक्तों की पंक्ति बिना अवरोध के आगे बढ़ती जा रही थी। मुख्य मंदिर को देख मुझे ऐसा आभास हुआ मानो यह मंदिर किसी समय गुफा मंदिर रहा होगा।
माँ विंध्यवासिनी के विग्रह अर्थात प्रतिमा को पुष्पहारों द्वारा सज्जित किया गया था। केवल काले पत्थर में निर्मित देवी की प्रतिमा का मुख ही दृष्टिगोचर हो रहा था। उनके मुख पर सुनहरी धातु से बनी चमकीली आँखें भक्तों का ध्यान आकर्षित कर रही थीं। देवी को हृदयपूर्वक निहारने के लिए आपको कुछ क्षण ही मिल पाते हैं जिसके पश्चात आपको मंदिर से बाहर पड़ता है ताकि सब लोग दर्शन कर पायें।
इस मंदिर के परिसर में देवी के तीन रूपों को समर्पित तीन मंदिरों का त्रिकोण है। विंध्यवासिनी के एक ओर महा-काली तथा दूसरी ओर महा-सरस्वती का मंदिर है।
महा-सरस्वती मंदिर
इस मंदिर के भीतर महा-सरस्वती के साथ दो शिवलिंग तथा शिव की एक मूर्ति भी है। भित्तियों पर हनुमान, गणेश तथा भैरव की प्रतिमाएं हैं जो किंचित प्राचीन प्रतीत होते हैं। पाषाण की कुछ अन्य प्राचीन प्रतिमाएं भी हैं जिन्हे देख यह एक प्राचीन मंदिर प्रतीत होता है। मंदिर की संरचना प्राचीन है। यहाँ कई स्तंभ हैं जिन्हे जोड़ते कोष्ठकों पर संगीत वाद्य बजाते गंधर्व उत्कीर्णित हैं। चटक रंगों से रंगे ये स्तंभ एक साधारण मंदिर को असाधारण रूप प्रदान करते हैं।
महा-सरस्वती मंदिर के पृष्टभाग पर एक विशाल यज्ञशाला है। जब मैं यहाँ पहुंची, तब यहाँ एक यज्ञ का आयोजन किया जा रहा था। मुझे बताया गया कि यहाँ कोई भी भक्त हवन सामग्री लाकर यज्ञ में सम्मिलित हो सकता है।
मंदिर गंगा के अत्यन्त समीप स्थित है। मंदिर के भीतर आपको यह आभास नहीं होता कि आप गंगा के अत्यन्त निकट हैं क्योंकि मंदिर ऊंचाई पर स्थित है। मंदिर से एक संकरा मार्ग गंगा की ओर जाता है। इस मार्ग के दोनों ओर भी कई दुकानें हैं जहां पूजा सामग्री के साथ स्मारिकाओं की भी बिक्री की जाती है। भक्तगण गंगा में पवित्र स्नान करते हैं। समीप ही कई नौकाएं थीं किन्तु मैंने किसी को नौका सवारी करते नहीं देखा। मानसून के कारण चढ़ा हुआ जल स्तर इसका कारण हो सकता है।
अष्टभुजा मंदिर
विंध्याचल स्थित तीन मंदिरों के त्रिदेव में विंध्यवासिनी के पश्चात यह दूसरा मंदिर है। अष्टभुजा का अर्थ है आठ भुजायें युक्त देवी। यह माँ सरस्वती का एक रूप है। देवी माहात्म्य में महा सरस्वती को आठ भुजायें युक्त दर्शाया गया है।
अष्टभुजा वह कन्या है जिसे गोकुल के नन्द तथा यशोदा ने जन्म दिया था। जन्म पश्चात इन्हे कृष्ण से बदल दिया गया था। अर्थात कृष्ण के स्थान पर वासुदेव इस नन्ही बालिका को देवकी के पास ले गए थे। देवी स्वरूप इस नन्ही बालिका ने कसं के अंत की आकाशवाणी की तथा अन्तर्धान हो गई। ऐसा माना जाता है कि वहाँ से देवी विंध्याचल पर्वत आयीं तथा उन्होंने यहाँ निवास करने का निश्चय किया। इसी कारण उन्हे नंदा तथा योगमाया भी कहा जाता है।
देवी का मंदिर पर्वत के दो तहों के मध्य घाटी में स्थित है। यदि आप पैदल आ रहे हैं तो मंदिर पहुँचने के लिए आपको एक पहाड़ी चढ़कर लगभग २०० सीढ़ियाँ उतरने की आवश्यकता है। यदि आप गाड़ी से आ रहे हैं, जैसे कि मैं पहुंची थी, आप पहाड़ी के ऊपर तक गाड़ी से जा सकते हैं। २०० सीढ़ियाँ तो आपको तब भी उतरनी और फिर चढ़नी पड़ेंगी।
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छोटे मंदिर एवं यज्ञशाला
लाल रंग के इस अष्टभुजा मंदिर परिसर में कई छोटे मंदिर एवं एक यज्ञशाला है। आप जैसे ही गर्भगृह की ओर बढ़ेंगे, आप कई छोटे एवं प्राचीन शिवलिंग उनके नंदियों के संग देखेंगे। वहाँ कई प्राचीन मूर्तियाँ हैं जो मेरे अनुमान से देवी की हैं। उन्हे निहारने के लिए कुछ क्षण ही प्राप्त होते हैं। इस कुछ क्षणों में आप अनुमान नहीं लगा सकते कि ये मूर्तियाँ वास्तव में किस की हैं। छायाचित्रिकारण की भी अनुमति नहीं है। आशा करती हूँ कि कोई इतिहासकार शीघ्र ही इस मंदिर पर शोध करे एवं आलेख प्रस्तुत करे।
मंदिर के गर्भगृह के भीतर देवी की एक मूर्ति है जो आभूषणों एवं पुष्पहारों से सजी विंध्यवासिनी देवी के समान ही दिखती है। इसके एक ओर कांसे की एक मूर्ति है जिसके समक्ष एक बड़े दीपक में अखंड ज्योत जलायी हुई थी। भक्तगण एक द्वार से भीतर प्रवेश करते, दोनों प्रतिमाओं के समक्ष नतमस्तक होते तथा दूसरे द्वार से बाहर चले जाते हैं। यह किसी एक साधारण टेकड़ी मंदिर के ही समान है, छोटा किन्तु सुविधाजनक व सर्वोत्तम स्थल पर स्थित।
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काली गुफा
मंदिर परिसर में एक काली गुफा है। इसके भीतर झुककर जाना पड़ता है, भीतर झुके हुए ही रहना पड़ता है तथा झुके हुए ही गुफा के दूसरी ओर से बाहर आना पड़ता है। इस गुफा के ऊपर कात्यायनी यंत्र स्थापित है। यहाँ मैंने एक वृक्ष के नीचे कुछ प्राचीन मूर्तियाँ भी देखीं।
यहाँ से कुछ सीढ़ियाँ उतरकर हम सीता कुंड पहुंचते हैं। ऐसा कहा जाता है कि सीता माता की तृष्णा शांत करने के लिए लक्ष्मण ने इस कुंड की रचना की थी। इस कुंड के चारों ओर छोटे मंदिर स्थित हैं। दूसरी ओर से कुंड को देखने पर आपको ज्ञात होगा कि पहाड़ी के ऊपर से गिरते झरनों के जल से कुंड भरता है।
अष्टभुजा मंदिर से आप गंगा को देख सकते हैं जो इस पहाड़ी की तलहटी से होकर बहती है। गंगा के दोनों ओर के कुछ जलधाराएँ आ कर गंगा में समाती हुई भी आप देख सकते हैं। इस स्थान की विशेषता है इसकी वस्तुस्थिति, जहां से आप विंध्य पर्वतों का गंगा से मिलन का विहंगम दृश्य देख सकते हैं। वर्षा के पश्चात हरियाली से परिपूर्ण वह दृश्य अत्यन्त चित्ताकर्षक था।
काली खोह अथवा महा काली मंदिर
अष्टभुजा मंदिर से कुछ किलोमीटर दूर यह महाकाली मंदिर स्थित है। इस मंदिर से किंचित पूर्व में एक प्राचीन काली गुफा है। इसके भीतर भी झुककर प्रवेश करना पड़ता है, झुके हुए ही आगे बढ़ते हुए गुफा के दूसरी ओर से बाहर आना पड़ता है। इसके भीतर काली की केवल एक प्रतिमा है जिस पर नींबुओं का हार अर्पित किया हुआ था।
गुफा के बाहर स्थित एक वृक्ष के तने पर पवित्र धागे बंधे हुए थे। भारत के कई अन्य मंदिरों के समान, इस वृक्ष के तने पर भी पवित्र धागा बांधकर इच्छापूर्ति की कामना की जाती है। इच्छा पूर्ण होने पर यहाँ वापिस आकर धागा खोला जाता है। खुले प्रांगण में एक शिवलिंग तथा उनका नंदी स्थापित है। इस शिवलिंग पर भी अनेक लाल चुनरियाँ अर्पित की हुई थीं। ये लाल चुनरियाँ भी इच्छापूर्ति के लिए अर्पित की जाती हैं।
महा काली मंदिर भी एक छोटा मंदिर है। तथापि इस मंदिर में भी भक्तों की उतनी ही बड़ी संख्या थी जितनी अन्य दो मंदिरों में थी। यहाँ माँ काली की दो प्रतिमाएं हैं। सर्वप्रथम आप भद्रकाली के दर्शन करेंगे, तत्पश्चात महा काली के दर्शन प्राप्त करेंगे जो इस मंदिर की अधिष्ठात्री देवी हैं।
महाकाली की अनोखी प्रतिमा
महाकाली की प्रतिमा अत्यन्त अनूठी है। उन्होंने अपना मुखड़ा ऊपर की दिशा में उठाया हुआ है तथा उनका खुला मुंह एक कुएं के समान प्रतीत होता है। उन कुछ क्षणों के साक्षात्कार के पश्चात मेरे मानसपटल पर इतना ही अंकित हो पाया था। मंदिर के पृष्ठभाग में भैरव मंदिर है। साधारणतः प्रत्येक काली मंदिर के साथ भैरव मंदिर अवश्य होता है।
समीप ही एक छोटा सा मंदिर बरम बाबा नामक संत को समर्पित है। बाबा को अनेक खड़ाऊ अर्पण किये हुए थे।
मुख्य मंदिर के समीप दुर्गा को समर्पित एक मंदिर है। इस मंदिर के समक्ष सिंदूर में सनी हुई सिंह की एक प्राचीन मूर्ति है। ऐसा प्रतीत होता है कि किसी काल में यह मंदिर का ही एक भाग था तथा मंदिर आज के मंदिर से अपेक्षाकृत विशाल था।
यहाँ से अष्टभुजा मंदिर तक सीढ़ियाँ जाती हैं।
विन्ध्याचल के अन्य मंदिर
विंध्याचल नगरी अनेक छोटे मंदिरों से परिपूर्ण है। मैंने उनमें से कई मंदिरों के दर्शन किये थे। आईए मैं आपको उनके दर्शन कराती हूँ-
लाल भैरव मंदिर
भैरव को देवी का रक्षक माना जाता है। यह एक छोटा सा मंदिर है जिसके भीतर भैरव की लाल रंग की एक प्रतिमा है। यह एक अत्यन्त साधारण मंदिर है। वहाँ बैठे एक साधु ने मुझे सम्पूर्ण भारत के ११ भैरवों की कथाएं सुनायी। उनमें से एक काशी में, एक उज्जैन में तथा शेष नौ विभिन्न देवी क्षेत्रों में स्थित हैं। यहाँ के भैरव विंध्यवासिनी के रक्षक अर्थात कोतवाल हैं। आदर्श रूप से आपको सर्वप्रथम भैरव के दर्शन करना चाहिए। तत्पश्चात उनकी अनुमति प्राप्त कर देवी के दर्शन करना चाहिए।
आदि शक्ति महामुंडलिनी मंदिर
यह मंदिर बाबा अवधूत के आश्रम में स्थित है जो अष्टभुजा मंदिर के अत्यन्त समीप है। यह मंदिर अब भी निर्माणाधीन प्रतीत हो रहा था। अथवा कदाचित इसके पुनरुद्धार का कार्य प्रगति पर हो। इसके भीतर महामुंडलिनी के रूप में काली की विशाल प्रतिमा है। साथ ही एक यज्ञशाला भी है। मंदिर के चारों ओर त्रिकोणीय यज्ञ कुंड हैं। कदाचित यहाँ साधुगण अपनी साधना करते हैं।
मंदिर के पृष्ठभाग से पर्वत, वन एवं गंगा का अद्भुत दृश्य दृष्टिगोचर होता है।
यहाँ की एक रीत मुझे खटक रही थीं। सभी मंदिरों की भित्तियों पर सेरैमिक टाइलें लगी हुई थीं। मेरी तीव्र इच्छा हुई कि उन्हें निकलवा दूँ। सभी मंदिरों में पुजारी उसी वेदिका पर बैठे थे जिस पर देवी विराजमान थीं। मुझे यह सब विचित्र प्रतीत हो रहा था, किन्तु प्रश्न करने वाली मैं कौन होती हूँ!
तारा मंदिर
तारा वामपंथी उपासकों अथवा तांत्रिक उपासकों की आराध्य देवियों में से एक है। यह श्वेत रंग में रंगा उनका छोटा सा मंदिर है। यह गंगा घाटों के उस पार स्थित है जहां दाह संस्कार किया जाता है।
मैंने इस मंदिर के भीतर केवल एक शिवलिंग एवं एक बैल ही देखा। मेरी जिज्ञासा शांत करने के लिए वहाँ कोई भी उपस्थित नहीं था। इस मंदिर की अवस्था इससे श्रेष्ठ हो सकती है।
तारकेश्वर महादेव मंदिर
रामेश्वर मंदिर
तालाब/कुंड
इस क्षेत्र के अत्यन्त समीप से गंगा बहती है। फिर भी यह स्थान कई छोटे-बड़े जलकुंडों से भरा हुआ है। उनमें से कई जलकुंडों के साथ अनेक किवदंतियाँ जुड़ी हुई हैं। ये जलकुंड यात्रियों के मार्ग पर ही स्थित हैं। मेरे अनुमान से प्राचीन भारत के समान ही ये भी जल संचयन का भाग हों। वर्षा की एक बूंद भी व्यर्थ नहीं की जाती थी।
मैंने कुछ जलकुंडों के दर्शन किये थे। वे हैं:
गेरुआ तालाब
गेरुआ एक रसायन रेड आक्साइड का रंग है। इसका प्रयोग किसी भी वस्तु को जंग के समान लाल रंग देने में किया जाता है। इसका प्रयोग घरों की भित्तियों को भी रंगने में किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि किसी समय इस तालाब के जल का रंग गेरुआ था। इस तालाब के जल में डुबाकर लोग अपने वस्त्र रंग लेते थे।
यह एक बड़ा किन्तु अब उपेक्षित सा तालाब है। इसके चारों ओर सीढ़ियाँ हैं। कहीं कहीं जल तक पहुँचने के लिए ढलुआं मार्ग भी है। कदाचित यह मवेशियों को जल पीने में सहायता करने के लिए बनाया गया है।
गेरुआ तालाब के निकट एक कृष्ण मंदिर है।
मोतिया तालाब
इस विशाल तालाब का आधा भाग कमल के पुष्पों से भरा हुआ था। समीप एक छोटा शिव मंदिर है जहां बड़ा रविवार, यह उत्सव मनाया जा रहा था। वर्ष में एक विशेष रविवार के दिन मनाए जाने वाले इस उत्सव के उपलक्ष्य में सामूहिक भोजन पकाया जा रहा था। यह भोजन नमक का प्रयोग किये बिना पकाया जाता है। भोजन पकाने वाले लोगों ने मुझसे भी दोपहर का भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया। समय की कमी के कारण यह मेरे लिए संभव नहीं था। किन्तु मेरी तीव्र इच्छा थी कि मैं चोखा का स्वाद ले पाती। चोखा एक स्वादिष्ट व्यंजन है जिसे टमाटर, आलू एवं बैंगन को भूनकर बनाया जाता है।
नाग कुंड
मेरे लिए यह एक अत्यन्त चित्ताकर्षक खोज थी। लाल भैरव मंदिर के समीप एक सूचना पट्टिका पर इस कुंड का नाम तथा उस ओर जाने का संकेत बना हुआ था। लाल भैरव मंदिर के दर्शन करते समय अनायास ही मेरी दृष्टि इस पट्टिका पर पड़ी। वहाँ पहुंची तो मेरी आंखे फटी की फटी रह गयीं। यह वास्तव में आभानेरी की चाँद बावड़ी के समान ही एक बावड़ी है। यह बावड़ी गहरी एवं चौकोर है। इसके चारों ओर शुंडाकार सीढ़ियाँ बनी हैं जिससे आप नीचे जल तक पहुँच सकते हैं। श्वेत रंग में रंगी इन सीढ़ियों का प्रयोग अब कपड़े सुखाने के लिए किया जा रहा है।
ऐसा माना जाता है कि इस बावड़ी का निर्माण नाग वंश के राजाओं ने करवाया था। यह कदाचित विंध्याचल नगरी की सर्वाधिक प्राचीन संरचना है। नाग कुंड पर नाग पंचमी की पूजा अब भी की जाती है।
यदि कुंड का जल स्वच्छ किया जाए तो यह एक अत्यन्त मनोहारी स्थल बन सकता है।
सीता कुंड
इस कुंड के विषय में मैं अष्टभुजा मंदिर के खंड में पहले से ही लिख चुकी हूँ। समय की कमी के कारण मैं इसे दूर से ही देख पायी।
ताड़ा जलप्रपात तथा विंध्यम जलप्रपात मीरजापुर के समीप स्थित हैं।
इनके अतिरिक्त एक विशाल कुंड मैंने अष्टभुजा मंदिर की ओर जाते समय भी देखा था। किन्तु उसका नाम मैं पढ़ नहीं पायी।
विंध्याचल मंदिरों के उत्सव
नवरात्रि – यह एक देवी मंदिर है। इसीलिए स्वाभाविक है कि नवरात्रि यहाँ का एक महत्वपूर्ण उत्सव है। हिन्दू पंचांग के अनुसार आश्विन एवं चैत्र मासों में नौ दिवसों तक यह उत्सव मनाया जाता है। इसके अतिरिक्त भक्तगण पूर्णिमा के दिन भी यहाँ बड़ी संख्या में आते हैं।
कजली – ज्येष्ठ एकादशी के दिन मंदिर में एक प्रकार का लोक गीत गाया जाता है।
एक समय यह क्षेत्र एक वनीय क्षेत्र था। अतः देवी को वनदुर्गा भी कहा जाता है। ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी अर्थात ज्येष्ठ मास के छटें दिवस अरण्य एकादशी मनायी जाती है।
विंध्याचल एवं मीरजापुर के स्वादिष्ट व्यंजन
शिवपुरी नामक स्थान पर आप स्वादिष्ट दूध पेढे खा सकते हैं। ये पेड़े विंध्याचल की विशेषता हैं। सड़क के किनारे छोटे दुकानदार इन्हे थोड़ी मात्रा में बनाकर बिक्री करते हैं। मथुरा पेड़े पर एक संस्करण लिखते समय मुझे यहाँ के पेड़ों के विषय में भी जानकारी प्राप्त हुई थी। ये पेड़े अत्यन्त हल्के एवं स्वादिष्ट हैं। जलेबियों के विषय में क्या कहूँ? मेरी मनपसंद स्वादिष्ट जलेबी पूर्वाञ्चल में सभी ओर दृष्टिगोचर हो जाती हैं।
विंध्याचल यात्रा के लिए कुछ सुझाव
- विंध्याचल वाराणसी से लगभग ७० किलोमीटर की दूरी पर है। विंध्याचल पहुँचने के लिए वाराणसी निकटतम विमानतल भी है।
- रेल स्थानक मंदिर से केवल एक किलोमीटर की दूरी पर है।
- विंध्याचल से १० किलोमीटर की दूरी पर मीरजापुर स्थित है जो जिला मुख्यालय भी है।
- मंदिर के आसपास खाने की मूलभूत सुविधाएं हैं जहां आपको आलू पूरी तथा जलेबियाँ मिल जाएंगी। अधिकतर मंदिरों में जलपान एवं पेय पदार्थ उपलब्ध होंगे। उच्च स्तर के जलपानगृह यहाँ अधिक नहीं हैं।
- यहाँ के अतिथिगृहों के विषय में मुझे अधिक जानकारी नहीं है। मेरा सुझाव है कि आप वाराणसी में ठहर कर विंध्याचल की एक दिवसीय यात्रा कर सकते हैं। मैंने भी यही किया था।
Jai meri maa