चिलकुर बालाजी का शाब्दिक अर्थ है छोटे बालाजी। चिलकुर बालाजी मंदिर हैदराबाद तथा उसके आसपास के क्षेत्रों का सर्वाधिक प्रसिद्ध मंदिर है। यह इच्छा-पूर्ति मंदिर के नाम से भी प्रसिद्ध है। यहाँ के भक्तों की इच्छाओं में सर्वोपरि इच्छा विदेश जाने के लिए वीसा पाने की होती है। इस मंदिर के भगवान को वीसा का भगवान माना जाता है, अर्थात वह भगवान जो विशेषतः भक्तों के पासपोर्ट में वीसा अंकित करवाने की इच्छा पूर्ण करते है।
मुझे जब इस मंदिर के विषय में ज्ञात हुआ, मुझमें इसके दर्शन करने की एवं इसके विषय में अधिक जानकारी एकत्र करने की इच्छा जागृत हुई। यही इच्छा एक दिन मुझे इस मंदिर तक ले आई। प्रारंभ में मैंने यहाँ सप्ताह के अंत में आने का निश्चय किया था किन्तु मंदिर के एक नियमित भक्त ने मुझे आगाह किया कि सप्ताहांत में यहाँ भक्तों की अत्यधिक भीड़ हो जाती है। अतः हमने एक सोमवार के दिन यहाँ आने की योजना बनाई। उस दिन भी भीड़ थी किन्तु उनकी संख्या अधिक नहीं थी।
मंदिर की ओर जाने वाला मार्ग खेतों, किसानों के घरों तथा मृगवनी राष्ट्रीय उद्यान के प्रवेश द्वार के समीप से होकर जाता है। यह मंदिर उस्मान सागर झील के समीप स्थित है। हैदराबाद शहर के भीड़भाड़ भरे मार्गों से जब हम मंदिर पहुंचे, हमारा चित्त शांत व प्रसन्न हो गया।
हैदराबाद का चिलकुर बालाजी मंदिर
चिलकुर बालाजी हैदराबाद के प्राचीनतम मंदिरों में से एक है। इसका निर्माण १७ वीं. शताब्दी में अक्कना एवं मदन्ना के शासनकाल में किया गया था। अक्कना एवं मदन्ना भक्त रामदास के काका हैं। भक्त रामदास कर्नाटक शैली के शास्त्रीय संगीत के विद्वान थे तथा भगवान राम के परम भक्त थे।
मंदिर की ओर जाते मार्ग पर एक सम्पन्न बाजार है। अन्य मंदिरों के बाहर जो आम वस्तुओं की विक्री की जाती है, उन वस्तुओं के साथ यहाँ श्वेत एवं हरित संगमरमर में बनी छोटी कलाकृतियों की भी विक्री की जाती है। सम्पूर्ण हैदराबाद में केवल इसी स्थान पर मैंने ऐसा सम्मिश्रण देखा।
१०८ परिक्रमा
एक विचित्र वस्तु की विक्री ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। एक पेन के साथ एक पुट्ठे का पत्रक जिस पर १ से १०८ तक की संख्या लिखी हुई थी। यह कैसा पत्रक है? इसका क्या उपयोग है? प्रथम दृष्टि यह तंबोला खेल के पत्रक के समान प्रतीत हो रहा था। ऐसा सोचते हुए मुझे खेद भी हो रहा था किन्तु मैं तंबोला खेल का मंदिर से कोई संबंध ढूंढ नहीं पा रही थी। कैसे ढूंढ पाती? ना तो यह तंबोला का पत्रक था, ना ही इस मंदिर का उस खेल से कोई संबंध। फिर किसी ने मुझे जानकारी दी कि इच्छा पूर्ति के पश्चात भक्तगण मंदिर की १०८ प्रदक्षिणा अर्थात परिक्रमा करते हैं। किन्तु १०८ प्रदक्षिणा करते समय कभी कभी गणना चूक जाती है। ऐसे समय यह पत्रक अत्यंत उपयोगी सिद्ध होता है। प्रत्येक प्रदक्षिणा के पश्चात संबंधित संख्या को चिन्हित किया जा सकता है। मंदिर के भीतर हम उपयोग किये गए ऐसे अनेक रंगबिरंगे पत्रक सर्वत्र देखने वाले थे।
चिलकुर बालाजी मंदिर एक छोटा सा मंदिर है, यह जानकारी मुझे पूर्व से ही थी। किन्तु प्रत्यक्ष देखने पर यह मेरी कल्पना से भी अधिक लघु प्रतीत हुआ। मंदिर की सादी श्वेत भित्तियों की पृष्ठभूमि पर एक छोटा किन्तु रंगबिरंगा चमकता हुआ गोपुरम है जिसके ऊपर सुनहरा ध्वजस्तम्भ है। भक्तगणों की भीड़ को संयमित पंक्तियों में सीमित करने के लिए चारों ओर बाड़ लगी हुई थीं। चूंकि उस दिन अधिक भीड़ नहीं थी, हम सीधे चिलकुर बालाजी मंदिर के परिसर पहुंच गए। यहाँ भक्तगण मंत्रोच्चारण के साथ मंदिर की प्रदक्षिणा कर रहे थे।
इच्छा पूर्ति के लिए ११ परिक्रमा
मेरे साथियों ने ११ प्रदक्षिणा करने का निश्चय किया जो किसी भी इच्छा की मांग करने के लिए आवश्यक है। मैं भी उनके साथ हो ली। परिसर में एक सूचना पट्टिका पर लिखा था, ‘भगवान पर ध्यान केंद्रित करें, परिक्रमा की संख्या पर नहीं’। प्रदक्षिणा करते भक्तगण “गोविंदा, गोविंदा” का नाद कर रहे थे जबकि ध्वनि-विस्तारक के माइक पर एक भक्त किसी दूसरे मंत्र का उच्चारण कर रहा था। कुछ किशोर वय के बालक यहाँ-वहाँ घूमकर जल की बोतल की विक्री कर रहे थे।
११ परिक्रमा के पश्चात हमने मंदिर में प्रवेश किया जहाँ एक फलक सूचना दे रहा था कि दर्शन के समय अपनी आँखें बंद ना करें। मुख्य द्वार का चौखट चांदी का था जिसके ऊपरी भाग पर वैष्णवी देवी की छवि उत्कीर्णित थी। मंदिर के भीतर राजस्थानी कलाशैली में उत्कीर्णित एक और तोरण था। मंदिर के भीतर भगवान की प्रतिमा पर वस्त्रों एवं अलंकारणों की इतनी परतें थीं कि इन परतों के अतिरिक्त कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं था। भगवान की छवि की केवल कल्पना ही कर सकते हैं।
इस मंदिर में कहीं भी दान पेटी अथवा हुंडी नहीं है। मंदिर में किसी भी प्रकार का दान भी स्वीकार नहीं किया जाता।
मंदिर की कथा
दर्शन के पश्चात हम मंदिर के पृष्ठभाग में गए जहाँ हमें मंदिर के मुख्य पुरोहित श्री चिलकुर मदभूषी गोपालकृष्णन से भेंट करना था। उनका परिवार गत ४०० वर्षों से मंदिर की देखरेख कर रहा है। उन्होंने हमें मंदिर से संबंधित अनेक कथाएँ तथा किवदंतियाँ सुनाईं।
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एक प्राचीन किवदंती हमें बताती है कि किस प्रकार इस मंदिर का निर्माण किया गया था। ऐसा कहा जाता है कि एक भक्त प्रत्येक वर्ष तिरुपति बालाजी के मंदिर जाता था। एक वर्ष अस्वस्थता के कारण वह बालाजी के दर्शनार्थ नहीं जा पाया था। बालाजी ने उसके स्वप्न में आकर उससे चिंता छोड़ने के लिए कहा। स्वप्न में बालाजी ने कहा कि वे उसके समीप स्थित एक जंगल में हैं तथा उन्होंने उन तक पहुँचने का मार्ग भी बताया। बालाजी के बताए स्थान पर जब भक्त पहुँचा तब उसे उस स्थान पर छुछूँदर की बाँबी दिखी। उस बाँबी से श्रीदेवी एवं भूदेवी सहित बालाजी की मूर्ति प्राप्त हुई। कालांतर में इन मूर्तियों के लिए एक मंदिर का निर्माण किया गया जिसे चिलकुर बालाजी मंदिर अर्थात छोटे बालाजी मंदिर के नाम से जाना गया। वे भक्त जो बालाजी के मुख्य मंदिर में नहीं जा पाए, वे समीप स्थित इस मंदिर में बालाजी के दर्शन कर सकते हैं।
मंदिर के वेबस्थल में एक अन्य दंतकथा का उल्लेख है –
सन् १९६३में, अर्थात चीनी आक्रमण के एक वर्ष पश्चात अम्मवरु की प्रतिमा की स्थापना की गई थी। जब आक्रमणकारी स्वेच्छा से पीछे हटे तब उस घटना का उत्सव मनाने के लिए अम्मवरू का नामकरण राज्य लक्ष्मी किया गया। इस प्रतिमा की विशेषता यह है कि उनके तीन हाथों में कमल के पुष्प हैं तथा चौथा हाथ कमलचरण की ओर संकेत करता है जो शरणागति के सिद्धांत को दर्शाता है।
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जो कथाएं मुझे पुरोहितजी ने सुनाईं उनकी रचना उनके जीवनकाल में हुई थीं। जैसे वीसा की इच्छा भगवान के समक्ष रखना तथा उन इच्छाओं की पूर्ति होना। उन्होंने बताया कि इन मान्यताओं का आरंभ सन् १९८० से हुआ था। उन्होंने कहा कि मंदिर में एक कुएं की खुदाई के समय वे मंदिर की परिक्रमा कर रहे थे। जैसे ही उन्होंने ११ परिक्रमा सम्पूर्ण की तभी कुएं से जल बाहर आया। अपनी क्रतज्ञता व्यक्त करने के लिए उन्होंने मंदिर की १०८ प्रदक्षिणा की। तभी से यह परंपरा आरंभ हो गई। भक्तगण भगवान के समक्ष अपनी इच्छा व्यक्त करते समय मंदिर की ११ परिक्रमा करते हैं। जब उनकी इच्छा पूर्ण हो जाती है तो वे पुनः यहाँ आकर मंदिर की १०८ परिक्रमा अर्थात प्रदक्षिणा लगाते हैं।
आप सबको यह स्मरण होगा कि सन् १९८० से सन् १९९० के मध्य नवयुवक-नवयुवतियों में विदेश जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा अपनी चरम सीमा पर थी। इसके लिए उन्हे वीसा प्राप्त करना अत्यंत आवश्यक था। यही इच्छा लिए अनेक नवयुवक-नवयुवतियाँ तथा उनके माता-पिता चिलकुर बालाजी मंदिर आने लगे। तभी से चिलकुर बालाजी का नवीन नाम हो गया, वीसा के देवता। इनमें से अनेकों की इच्छा-पूर्ति भी हुई होगी। विद्यार्थियों एवं उनके पालकों की सहायता करने के लिए किसी ने यह अनोखा पत्रक तैयार किया होगा। अब मुझे समझ आया कि क्यों मंदिर में इतने लोग गणना पत्रक पकड़ कर मंत्रों का उच्चारण करते हुए परिक्रमा लगा रहे थे।
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अंत में स्मित हास्य झलकाते हुए गोपालकृष्णन जी ने कहा कि यह युवाओं का मंदिर है।
अधिकतर मंदिरों में माता-पिता अपने बच्चों को ले कर जाते हैं। किन्तु इस मंदिर में बच्चे अपने माता-पिता को ले कर जाते हैं। जो इच्छाएं अधिकतर व्यक्त की जाती हैं वे हैं, प्रवेश परीक्षा में सफलता प्राप्ति, इच्छित व्यक्ति से विवाह, नौकरी प्राप्ति इत्यादि के साथ मुख्यतः वीसा की प्राप्ति जो आज के युवाओं की प्रमुख मांग बनती जा रही है।
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यहाँ आकर कितने लोगों की इच्छा पूर्ण होती है इसका मुझे अनुमान नहीं है। किन्तु परिक्रमा करते इन भक्तों के मुख पर छाई असीम श्रद्धा एवं संपूर्ण समर्पण की छटा मैंने स्वयं देखी एवं अनुभव की है। ऐसा कहते हैं ना, श्रद्धा एवं विश्वास बड़े बड़े पर्वतों को हिला सकते हैं, कदाचित यह भी उसी का एक प्रकार हो।
चिलकुर बालाजी मंदिर की यात्रा से संबंधित कुछ जानकारियाँ
यह मंदिर हैदराबाद शहर से लगभग ३३ किलोमीटर की दूरी पर, उस्मान सागर झील के समीप स्थित है।
आंध्र प्रदेश पर्यटन विकास निगम (APTDC) का हरिथ अतिथिगृह मंदिर से केवल १०० मीटर दूर स्थित है। मंदिर के समीप ठहरने एवं भोजन करने के लिए यह एक उत्तम स्थान है।
सप्ताहांत, विशेषतः शुक्रवार एवं शनिवार के दिनों में प्रतिदिन लगभग एक लाख से भी अधिक भक्तगण मंदिर में दर्शन के लिए आते हैं। अतः आप अपनी यात्रा नियोजित करते समय इसका विशेष ध्यान रखें।
मंदिर प्रातः ५ बजे से रात्रि ८ बजे तक खुला रहता है।
मंदिर के भीतर छायाचित्रीकरण की अनुमति नहीं है।
अधिक जानकारी के लिए मंदिर का यह वेबस्थल देखें।
अत्यंत रोचक एवं ज्ञानवर्धक जानकारी। उससे भी अधिक मोहक उसका प्रस्तुतिकरण है। लेखन में भाषाई शुद्धता अनुपम है। लेखक एवं अनुवादक को साधुवाद????
धन्यवाद आकाश
अनुराधा जी,
हैदराबाद में स्थित वीसा दीलाने वाले बालाजी भगवान के बारे में काफ़ी सुना था पर इस मंदिर के बारे में सविस्तर जानकारी प्रस्तुत आलेख से ही मिली ।दरअसल भगवान की प्रसिद्धी, भक्तों की श्रद्धा और उनके अनुभवों से भी होती है…कभी कभी यह संयोग मात्र ही होता है !
रोचक प्रस्तुति हेतू साधुवाद ।
जी प्रदीप जी, भारत भरा है ऐसे अनूठे मंदिरों और परम्पराओं से।
उपरोक्त संदर्भ में एक छोटी सी जानकारी देना चाहता हूं –
उज्जैन(म.प्र.)मे वाग्देवी सरस्वती का एक छोटा किन्तु प्रसिद्ध मंदिर है । हर वर्ष वसंत पंचमी के दिन यहां विद्यार्थीयों की अपार भीड़ होती है । परीक्षा में सफलता हेतू विद्यार्थी , देवी का स्याही से अभिषेक करते है ! यह सिलसीला वर्षों से चला आ रहा हैं ।