महरौली में स्थित योगमाया मंदिर संभवतः दिल्ली का प्राचीनतम जीवंत मंदिर है। यह मंदिर प्रसिद्ध कुतुब मीनार संकुल के ठीक पृष्ठभाग में स्थित है।
महरौली स्वयं भी दिल्ली के प्राचीनतम आवासीय क्षेत्रों में से एक है। यह इस्लाम-पूर्व काल की प्रथम राजधानी रहा है। उस काल के सभी शासकों ने यहाँ से शासन किया था। एक काल में यह एक सशक्त हिन्दू व जैन क्षेत्र था। किन्तु इस क्षेत्र को इस्लामिक क्षेत्र में परिवर्तित करने के लिए इसकी इस छाप को अधिकांशतः नष्ट कर दिया गया। मंदिरों को नष्ट कर मस्जिदों का निर्माण किया गया। ऊंची ऊंची मीनारों का निर्माण कराया गया।
एक मंदिर जो इन विनाशकारी आक्रमणों से अप्रभावित बचा रहा, वह था योगमाया मंदिर। जब आप कुतुब संकुल से महरौली बस स्थानक की ओर जाएंगे, तब आप अपने दाहिने ओर एक पत्थर का प्रवेश द्वार देखेंगे जिसके दोनों ओर द्वार को अलंकृत करते दो सिंहों की प्रतिमाएं हैं। प्रवेश द्वार से भीतर प्रवेश करने के पश्चात जब आप लगभग १५० मीटर आगे बढ़ेंगे तब आप अपनी बाईं ओर यह मंदिर देखेंगे।
जैन शास्त्रों में दिल्ली के इस महरौली क्षेत्र को योगिनीपुर कहा गया है। कदाचित इस मंदिर के नाम पर ही इस क्षेत्र का नामकरण किया गया था। दादाबाड़ी जैसे अनेक प्राचीन जैन मंदिर अब भी इस क्षेत्र में अस्तित्व में हैं। इन्हे देख इस संबंध को समझना कठिन नहीं है।
योगमाया की लोककथा
योगमाया मंदिर या जोगमाया मंदिर एक प्राचीन हिन्दू मंदिर है। यह मंदिर ५००० वर्षों से भी अधिक प्राचीन माना जाता है। इसका अर्थ है यह द्वापर युग का मंदिर है जब महाभारत युद्ध हुआ था।
देवी योगमाया को आदि शक्ति महालक्ष्मी का अवतार माना जाता है। यह ५१ शक्तिपीठों में से एक है। ऐसी मान्यता है कि यहाँ देवी सती का मस्तक यहाँ गिरा था जो यहाँ एक पिंडी के रूप में उपस्थित है। योगमाया देवी को सत्व गुण प्रधान देवी माना जाता है। इसीलिए इस मंदिर में किसी भी प्रकार की बलि, निरामिष आहार एवं सुरा के अर्पण पर प्रतिबंध है।
योगमाया श्री कृष्ण की भगिनी थी जो कृष्ण के पालक माता-पिता यशोदा एवं नन्द की पुत्री थी। जब देवकी एवं वासुदेव के आठवें पुत्र का वध करने की मंशा से कसं कारागृह पहुंचा तथा कृष्ण के भ्रम में उसके स्थान पर लेटी यशोदा एवं नन्द की पुत्री को उठकर भित्ति पर पटका तब वह उसके हाथ से छूटकर आकाश में लुप्त गई। जाते जाते बालिका ने भविष्यवाणी की कि कसं की मृत्यु विष्णु के जिस आठवें अवतार के हाथों होगी, उसने जन्म ले लिया है। तत्पश्चात वह बालिका विंध्याचल पर्वत पर जाकर वहाँ विंध्यावासिनी के रूप में निवास करने लगी। वहाँ पर्वत के ऊपर उन्हे समर्पित एक मंदिर भी है। दुर्गा सप्तशती में भी यह उल्लेख है कि इस समय चक्र में उन्होंने यशोदा एवं नन्द की पुत्री के रूप में जन्म लिया है।
कुछ विद्वानों का मानना है कि योगमाया देवी का मस्तक दिल्ली में है तथा उनके चरण विंध्याचल में हैं।
महाभारत एवं योगमाया
कुछ सूत्रों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण स्वयं श्री कृष्ण ने किया था। यह उस समय की कथा है जब श्री कृष्ण एवं अर्जुन महाभारत युद्ध के समय इस योगमाया मंदिर में आराधना करने आए थे। जब युद्ध में जयद्रथ ने अर्जुन पुत्र अभिमन्यु का वध किया था तब अर्जुन ने प्रतिज्ञा की थी कि वे आगामी संध्याकाल तक जयद्रथ का वध कर देंगे अन्यथा स्वयं अग्नि में प्राण अर्पण कर देंगे। अगले दिन कौरवों ने सम्पूर्ण दिवस जयद्रथ को अर्जुन से दूर रखा। इससे जयद्रथ का वध असंभव होने लगा था।
उस समय कृष्ण एवं अर्जुन इस मंदिर में आए तथा देवी से सहायता की गुहार लगाई। देवी ने अपनी माया से अल्पकालीन सूर्य ग्रहण की स्थिति उत्पन्न कर दी। संध्या के भ्रम में जब जयद्रथ असावधान हुआ तब अर्जुन ने जयद्रथ का वध किया।
एक अन्य किवदंती में यह कहा गया है कि महाभारत युद्ध के उपरांत युधिष्ठिर ने इस मंदिर का निर्माण किया था।
जहां तक मेरा प्रश्न है, मैं इसी तथ्य से संतुष्ट हूँ कि यह एक प्राचीन मंदिर है तथा यहाँ योगमाया की अनवरत पूजा अर्चना की जाती है।
महरौली के योगमाया मंदिर का इतिहास
योगमाया चौहान राजाओं की कुलदेवी हैं। चौहान राजाओं ने दिल्ली के किला राय पिथौरा से राजपाट संभाला था।
आप सोचते होंगे कि यह प्राचीन मंदिर दिल्ली में हुए अनेकों आक्रमणों से कैसे सुरक्षित बच पाया? एक लंबे समय तक यह मंदिर शब्दशः आक्रमणों की आंधी के मध्य में स्थित था। सर्वप्रथम इस पर गजनी ने आक्रमण किया, तत्पश्चात इस्लामी आक्रमणकारियों ने। १६ वीं. सदी के मध्य में हिन्दू सम्राट विक्रमादित्य हेमू ने इस मंदिर का नवीनीकरण किया था।
१७ वी. सदी के अंत में औरंगजेब ने सभी मंदिरों को नष्ट करने का आदेश दिया था जिसमें यह मंदिर भी सम्मिलित था। ऐसा कहा जाता है कि इस मंदिर को ध्वस्त करने की चेष्टा करते समय औरंगजेब की सेना को विचित्र अनुभव हुए। दिन के समय वे मंदिर का जितना भाग नष्ट करते थे, रात्रि के समय मंदिर पुनः सम्पूर्ण हो जाता था। इस प्रक्रिया में वे अपने हाथों को खोने लगे थे। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। तब औरंगजेब ने हार मान ली। इस प्रकार यह मंदिर बच गया। इस मंदिर के चारों ओर आप एक लंबा कक्ष देखेंगे। आक्रमणकारी इसे एक मस्जिद में परिवर्तित करना चाह रहे थे। स्मरण रहे कि मंदिर की संरचना सदैव चौकोर होती है तथा मस्जिद का कक्ष लंबा होता है। यह बाहरी कक्ष का अब मंदिर के भंडार गृह के रूप में उपयोग किया जाता है जहां यहाँ की निशुल्क भोजन व्यवस्था के लिए खाद्य पदार्थों का भंडारण किया जाता है।
हम ऐसा कह सकते हैं कि देवी माँ के उपासक स्थानीय निवासियों ने ही इस मंदिर को अब तक सुरक्षित एवं संरक्षित रखा है।
बहुत कम लोग यह जानते हैं कि भारत की प्रसिद्ध १८५७ की क्रांति की योजना भी इस मंदिर के प्रांगण में बनाई गई थी।
इस मंदिर को दिल्ली में महाभारत काल के पाँच जीवंत मंदिरों में से एक माना जाता है। एक अन्य प्राचीन मंदिर है भैरव मंदिर जो पुराना किला के बाहर स्थित है। यह पांडवों के इंद्रप्रस्थ नगरी की भूमि थी। अन्य प्राचीन मंदिर निगम बोध घाट के समीप तथा पुरानी दिल्ली की गलियों में स्थित हैं, जैसे खारी बाउली।
योगमाया मंदिर के दर्शन
अवस्थिति की दृष्टि से यह मंदिर लाल कोट की भित्तियों के भीतर स्थित है। लाल कोट तोमर राजाओं द्वारा ८ वीं. सदी में निर्मित दिल्ली का दुर्ग है। मंदिर के समीप एक सूर्य मंदिर भी था किन्तु अब उसका कहीं अता-पता नहीं है।
यह अपेक्षाकृत छोटा मंदिर है। यदि आपको इसके दीर्घकालीन इतिहास की जानकारी नहीं हो तो आप यह मंदिर सहज ही अनदेखा कर सकते हैं। मुझे बताया गया कि मंदिर की उत्तर दिशा में एक जलकुंड अथवा जोहड़ है जिसका नाम अनंग ताल है। किन्तु मैं इसे ढूंढ नहीं पायी।
मंदिर न्यास
योगमाया मंदिर का प्रबंधन अब एक न्यास द्वारा किया जाता है। वत्स पुरोहितों के एक परिवार ने सदियों से इस मंदिर की देखरेख की है। मैंने मंदिर के गर्भगृह के भीतर पूजा-अर्चना करती एक प्रौड़ स्त्री से चर्चा की। वह स्त्री इसी वत्स परिवार की बड़ी बहू है। उन्होंने मुझे बताया कि वत्स परिवार अब अत्यंत विशाल हो जाने के कारण वे बारी बारी से मंदिर में पूजा करते हैं। उस वर्ष मंदिर में पूजा-अर्चना का दायित्व उनके परिवार पर था।
उनके हाथों में दुर्गा सप्तशती की एक प्रति थी। उन्होंने जानकारी दी कि अभी जो मंदिर वहाँ है वह ६० वर्षों से अधिक प्राचीन नहीं है। मंदिर का छोटा सा गर्भगृह, जिसे देवी का भवन कहा जाता है, सैकड़ों वर्ष प्राचीन है। इतने वर्षों में गर्भगृह के भीतर कोई भी परिवर्तन नहीं किया गया है। हाँ, संगमरमर एवं टाइलें अवश्य कालांतर में जोड़े गए हैं।
दैनंदिनी अनुष्ठान
वस्त्रों एवं पुष्पों से ढँकी देवी की जो छवि आप देखते हैं वह देवी की मूल प्रतिमा पर ढंका एक आवरण है। जैसा कि मैंने पूर्व में भी लिखा है, मूल देवी एक कुएं के समान संरचना के भीतर पिंडी स्वरूप में विराजमान हैं।
वत्स पुरोहित परिवार की बड़ी बहू ने मुझे मंदिर के दैनिक अनुष्ठानों के विषय में विस्तृत जानकारी दी जिसमें देवी का स्नान एवं शृंगार अनुष्ठान सम्मिलित हैं जो प्रतिदिन दो बार किये जाते हैं। जल, दूध,दही एवं मध द्वारा उनका स्नान अनुष्ठान पूर्ण किया जाता है जिन्हे अनुष्ठान के पश्चात चरणामृत अथवा प्रसाद के रूप में भक्तों में वितरित किया जाता है। देवी का शृंगार पुरुष करते हैं। गर्भगृह अत्यं लघु होने के कारण अधिक लोग एक साथ भीतर नहीं जा सकते हैं।
उन्होंने मुझे समझाया कि देवी शक्ति रूप में विद्यमान हैं तथा शक्ति के संग शिव सदैव विराजमान रहते हैं। समीप स्थित शिवलिंग की ओर संकेत करते हुए उन्होंने मेरा ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि शिवलिंग के आधार का स्तर देवी की पीठिका के स्तर से किंचित ऊंचा है। उन्होंने मुख्य मंदिर से लगे एक लंबे कक्ष की ओर संकेत करते हुए मुझे बताया कि वह कक्ष औरंगजेब द्वारा मंदिर को मस्जिद में परिवर्तित करने के प्रयास के तहत बनाया गया था।
उन्होंने मुझे मंदिर की छत को अलंकृत करते सुंदर पंखे दिखाए। छत के मध्य में लगा बड़ा पंखा भारत के राष्ट्रपति ने ‘फूल वालों की सैर’ उत्सव के उपलक्ष में मंदिर को भेंट स्वरूप प्रदान किया था। अन्य पंखे अन्य सरकारी अधिकारियों द्वारा प्रदान किये गए हैं।
वत्स पुरोहित परिवार की बड़ी बहू से वार्तालाप करना इस मंदिर में मेरे भ्रमण का सर्वाधिक रोचक भाग था। जब वे मंदिर के विषय में जानकारी प्रदान कर रही थीं तब उनका वात्सल्य छुपाये नहीं छुप रहा था। उन्होंने जिन तथ्यों की जानकारी दी एवं जिस प्रकार दी, वह देवी के प्रति उनकी सम्पूर्ण भक्ति दर्शा रहा था।
उनके स्वरों में देवी के प्रति कृतज्ञता थी तथा परमानन्द की अनुभूति थी जो उनके प्रिय देवी के संग समय व्यतीत कर पाने के कारण वे अनुभव के रही थीं। आज के काल में ऐसे किसी व्यक्ति से भेंट होना सहज संभव नहीं है। मंदिर में देवी दर्शन के लिए जो भी आ रहा था वह इनके चरण स्पर्श भी कर रहा था। वे सभी को उदारता से आशीष दे रही थीं। उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व भक्तिभाव एवं वात्सल्य में ओतप्रोत था मानो देवी स्वयं उनमें विद्यमान हैं। उनके साथ बैठना, उन्हे निहारना तथा उनसे वार्तालाप करना, मेरे लिए साक्षात देवी के अनुग्रह के समान था।
नवरात्रि
सभी देवी मंदिरों के समान योगमाया मंदिर का भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं विशाल उत्सव है नवरात्रि। दोनों प्रमुख नवरात्रियों में से शरद नवरात्रि, जो लगभग अक्टूबर मास में आती है, अधिक उत्साह से मनाया जाता है।
फूल वालों की सैर
ऐसा कहा जाता है की फूल वालों की सैर उत्सव का आरंभ बहादुर शाह जफर ने किया था। कुछ का मानना है कि अकबर ने इस उत्सव का आरंभ तब किया था जब अपने निर्वासित पुत्र के सुरक्षित वापसी की प्रार्थना लिए अकबर की पत्नी देवी के दर्शन हेतु यहाँ आई थी।
प्रारंभ में यह उत्सव श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के दिन आयोजित किया जाता था जो वर्ष ऋतु के मध्य में आता है। इसे संयोग ही कहेंगे कि विंध्याचल के विंध्यवासिनी मंदिर में श्रावण मास में ही कजरी गाई जाती है। वर्ष ऋतु एवं देवी के मध्य इस संबंध का भेद मैं जान नहीं पायी। आज के आधुनिक एवं धर्म-निरपेक्ष काल में यह उत्सव सितंबर-अक्टूबर मास में मनाया जाता है। इसका अर्थ है कि कभी कभी यह आयोजन पित्रपक्ष श्राद्ध काल में भी हो जाता है।
कदाचित संयोगवश, यह उत्सव उसी समय मनाया जाता था जब भाद्रपद मास की शुक्ल अष्टमी में प्राचीन इन्द्र ध्वज उत्सव का आयोजन किया जाता था। आपको स्मरण होगा, दिल्ली इन्द्र की भूमि है तथा वर्ष ऋतु में इन्द्र की आराधना एक परंपरा थी।
कुछ समय पूर्व तक शाहजहानाबाद के लोग फूल वालों की सैर उत्सव में भाग लेने पैदल चलते हुए योगमाया मंदिर पहुंचते थे। वे पुष्पों से बने हस्तपंखे बुधवार के दिन योगमाया मंदिर में अर्पित करते थे तथा गुरुवार के दिन बाबा कुतबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह पर चढ़ाते थे। यह एक विशाल पिकनिक के समान दृश्य होता था जब शहरी जनता बाहर आकर वन में आनंदोत्सव मानती थी।
यह उत्सव इस मंदिर का एक प्रकार से नवीन युग की धरोहर है जहां उत्सव हमारे धर्म एवं आस्था से अधिक श्रेष्ठ हो जाते हैं तथा समुदाय केंद्रित अधिक हो जाते हैं। मंदिर की पुजारिन ने यह बताया कि अधिकतर भक्तगण दोनों धार्मिक स्थलों के दर्शन करते हैं।
मंदिर की सादगी
इसकी पुरातनता एवं किवदंतियों को एक ओर रखकर मंदिर की ओर दृष्टि डालें तो यह एक अत्यंत सादगी युक्त मंदिर है। बाहरी भित्तियों पर अनियमित रूप से कलाकारी की गई है। मंदिर के चारों ओर घरों की इतनी सघनता है कि दूर से मंदिर का शिखर दृष्टिगोचर नहीं होता। मुख्य मार्ग पर स्थित मंदिर का प्रवेश द्वार मंदिर का सर्वाधिक अलंकृत भाग है। यदि आप अद्भुत वास्तुशिल्प एवं संरचना की भव्यता ढूंढ रहे हैं तो निश्चित रूप से यह मंदिर उस खांचे में नहीं बैठता। आप इस मंदिर के दर्शन करने आईए इसकी अनेक अद्भुत किवदंतियों व कथाओं के लिए तथा निश्चित रूप से इसकी युगों युगों से जीवित रहने की दृढ़ता देखने के लिए।
मंदिर से बाहर आकर आप पैदल चलते हुए आस-पास के क्षेत्र का अवलोकन कर सकते हैं। यहाँ आप कुछ महंगी वस्त्रों की दुकानें एवं कुछ प्राचीन स्मारकों का आनंद ले सकते हैं। सैर करते हुए यहाँ की संस्कृति एवं धरोहर को आत्मसात करिए तथा दिल्ली के जीवंत इतिहास का अनुभव लीजिए।
दिल्ली के इतिहास को और जानने के लिए आप ‘महरौली धरोहर सैर’ कर सकते हैं अथवा ‘महरौली पुरातत्व उद्यान’ के दर्शन कर सकते हैं।
अन्य योगमाया मंदिर
सम्पूर्ण भारत में अनेक मंदिर हैं जो योगमाया को समर्पित हैं।
इनमें कुछ हैं:
- वाराणसी के निकट विंध्याचल में विंध्यवासिनी
- बाड़मेर का योगमाया मंदिर
- जोधपुर का योगमाया मंदिर
- वृंदावन का योगमाया मंदिर
- मुल्तन जो वर्तमान में पाकिस्तान में है
- केरल में अलमथुरुथी
- त्रिपुरा में अगरतला के निकट योगमाया मंदिर
दिल्ली के अन्य देवी मंदिरों में कालकाजी मंदिर तथा झंडेवाली मंदिर सम्मिलित हैं। यदि आपको देवी के अन्य मंदिरों के विषय में जानकारी हो तो अवश्य साझा करें। हम उसे अपने संस्करण में अवश्य सम्मिलित करेंगे।
योगमाया मंदिर – महरौली स्थित दिल्ली का शक्ति पीठ यह 5000 साल पुराना है तो इसका महत्व अपने आप मे ही बढ़ जाता है तथा मुस्लिम आक्रांताओ से यह बचा रहा तो देवी योगमाया का ही प्रताप रहा होगा। आपने वाकई इस मंदिर की बहुत ही विस्तृत जानकारी दी है। साधुवाद। अब मैं जब भी महरौली हमारे जैन दादावाड़ी जाऊंगा तो इस मंदिर में भी दर्शन करने अवश्य जाऊंगा ।????????????????
योगमाया शक्तिपीठ है दिल्ली का – इसे फिर से शक्ति दीजिये।????????