श्री लंका के अनेक प्राचीन किन्तु अब भी जीवंत नगरों में से एक है त्रिंकोमाली। यह स्थान पर्यटकों में इतना प्रसिद्ध नहीं है जितना अनुराधापुरा एवं पोलोन्नरूवा जैसे श्री लंका के कुछ अन्य स्थल। किन्तु मेरी मानें तो त्रिंकोमाली उनसे किसी प्रकार से न्यून भी नहीं है। आईये मैं आपको इसका प्रमाण भी देती हूँ। त्रिंकोमाली के अद्भुत दर्शनीय स्थलों के विषय में कुछ जानकारी देती हूँ ताकि आप अपनी श्री लंका यात्रा सर्वोत्तम प्रकार से नियोजित कर सकें।
श्री लंका की मेरी हाल ही की यात्रा के समय मैंने इसके उत्तरी तमिल बहुल भागों के प्राचीन स्थलों का भ्रमण किया था। मैंने यहाँ की कई अद्भुत मणियों को देखा एवं उनका आनंद उठाया, जैसे यहाँ के प्राचीन मंदिर, प्राचीन बंदरगाह, नमक के खेत, खाड़ी, उपद्वीप तथा कई सुन्दर गाँव! मुझे यहाँ के अधिकतर स्थानों में दक्षिण भारतीय व्यंजन खाने मिले। मेरा हृदय गदगद हो गया था । यूँ कहूं कि श्री लंका में मुझे लगा मानो मैं अपने ही देश में भ्रमण रही हूँ, तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। यदि किसी ने मुझसे मेरा पासपोर्ट माँगा, केवल तभी मुझे एक विदेशी पर्यटक होने का आभास हुआ।
बोलचाल की भाषा में त्रिंकोमाली नगरी को त्रिंको कहते हैं।
त्रिंकोमाली के दर्शनीय स्थल
कन्निया उष्ण जल-स्त्रोत
कन्निया गर्म जल का स्त्रोत इस क्षेत्र का एक प्राकृतिक अचम्भा है। एक दूसरे के समीप स्थित कुल ७ चौकोर कुँए हैं जिनमें विभिन्न तापमान के गर्म जल स्त्रोत हैं। इनकी गहराई अधिक नहीं है। केवल ३ से ४ फीट हो सकती है। इन कुओं के समीप खड़े होकर भीतर झांकने पर इनके तल स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। इनके भीतर पर्यटकों ने अनेक सिक्के डाले हुए हैं।
मुझे बताया गया कि इनके भीतर, गुनगुने से लेकर अत्यंत गर्म, ऐसे ७ विभिन्न तापमानों के जल हैं। मैंने प्रत्येक कुँए के जल को स्पर्श कर के देखा। प्रत्येक कुँए का जल उष्ण था। किन्तु मुझे विभिन्न तापमानों का आभास नहीं हुआ। कदाचित दोपहर की भरी गर्मी में कोई भी जल उष्ण हो जाता है।
मैंने कई लोगों को इनमें से जल निकालकर स्वयं पर उड़ेलते देखा।
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किवदंतियों के अनुसार, रावण ने खुदाई करवाकर इन जल स्त्रोतों को उत्पन्न किया था ताकि वह अपनी माता की अंतिम क्रिया संपन्न कर सके। उसी समय से कन्निया उष्ण जल-स्त्रोत के जल का प्रयोग अंतिम क्रिया संपन्न करने में किया जाता है। यह भी कहा जाता है कि रामायण में इसका उल्लेख गोकर्ण तीर्थ के एक भाग के रूप में किया गया है। यह त्रिंकोमाली खाड़ी का एक अन्य नाम भी है।
कन्निया गर्म जल-स्त्रोत के समीप एक बौध मठ तथा एक शिव मंदिर भी है। इनके सम्मुख एक प्राचीन स्तूप का खँडहर है। ठीक वैसा ही जैसा आपने अनुराधापुरा में देखा होगा।
कन्निया उष्ण जल-स्त्रोत के दर्शन करने के लिए टिकट मूल्य इस प्रकार है-
श्री लंका के निवासियों के लिए – १०/- श्रीलंकाई रूपया
विदेशियों के लिए – ५०/- श्रीलंकाई रूपया
आपके श्री लंका भ्रमण के समय त्रिंकोमाली के इस अद्भुत हीरे के दर्शन अवश्य करें।
त्रिंकोमाली युद्ध स्मारक
सुन्दर रखरखाव युक्त एक समाधिस्थल के लौह द्वार पर यह नाम अंकित है। साथ ही १९३९-१९४५, यह तिथि भी अंकित है। तिथि को देख यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह स्मारक द्वितीय विश्व युद्ध के युग से सम्बन्ध रखता है। जैसा कि चित्र में दिख रहा है, वास्तव में भी यह उतना ही सुन्दर दिखाई पड़ता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस स्मारक को पर्यटकों के लिये इससे अधिक नहीं खोला जाता।
ऑर्र पहाड़ी सेना संग्रहालय
यह एक अत्यंत मौलिक एवं उत्तम प्रदर्शित संग्रहालय है। एक साधारण व्यक्ति के लिए यह संग्रहालय, सेना में प्रयुक्त अनेक प्रकार के हथियारों को जानने एवं समझने के लिए एक अनूठा संग्रह है। किस हथियार का अविष्कार कहाँ एवं कब हुआ, इन्हें श्री लंका ने कब खरीदा इत्यादि। एक कक्ष में सेना की वर्दी, उनके ओहदे, विभिन्न पलटनों के विषय में जानकारी इत्यादि प्रदर्शित की गयी हैं। एक अन्य कक्ष में सेना में प्रयुक्त संचार साधनों का प्रदर्शन किया गया है।
इस संग्रहालय की एक विशेषता है आतंकवादियों से जब्त की गयी वस्तुओं का प्रदर्शन, जिनमें आत्मघाती बम भी सम्मिलित हैं।
इस संग्रहालय के अवलोकन के लिए लगभग ३० – ६० मिनटों का समय लग सकता है। यह आपकी रूचि पर निर्भर है। समुद्र के समीप स्थित इस संग्रहालय का रखरखाव अतिउत्तम है। इस संग्रहालय में घूमते हुए विभिन्न संग्रहीत वस्तुओं का अवलोकन करना मुझे अत्यंत भाया था। सेना का एक जवान आपको इन वस्तुओं की जानकारी देते हुए आपके साथ चलता है। हाँ, उनकी भाषा समझना किसी चुनौती से कम नहीं होता।
युद्ध संग्राम का एक कृत्रिम दृश्य उत्पन्न कर आपको भी निशानेबाजी के अभ्यास का अवसर दिया जाता है। आप भी सेना के एक जवान होने का अनुभव प्राप्त कर सकते हैं, कुछ समय के लिए ही सही। मेरे विचार से यह एक अत्यंत ही उत्तम अवसर है जिसके द्वारा हम जैसे आम नागरिकों को देश की सेना के जवानों के जीवन के विषय में जानने का अवसर प्राप्त होता है।
टिकट :
श्री लंका के निवासियों के लिए – २०/- श्रीलंकाई रूपया
विदेशियों के लिए – २५०/- श्रीलंकाई रूपया
त्रिंकोमाली के मंदिर
त्रिंकोमाली एक प्राचीन बंदरगाह है। यह तमिल भाषी हिन्दुओं का तीर्थस्थल भी है। पंच ईश्वरम् अर्थात ५ प्रमुख शिव मंदिरों में से एक, यह मंदिर स्वामी शिलाखंड के एक ओर स्थित है। इनसे सिवाय कई अन्य मंदिर यहाँ अब भी जीवंत हैं। आईये उन में से कुछ मंदिरों के विषय में चर्चा करते हैं:
थिरुकोनेश्वरम मंदिर
थिरुकोनेश्वरम अथवा कोनेश्वरम मंदिर त्रिंकोमाली का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंदिर है। यह सम्पूर्ण श्रीलंका के ५ शिव मंदिरों में से एक है। यह मंदिर कम से कम रामायण के युग से अस्तित्व में है। क्योंकि हमने रावण एवं उसके इस मंदिर से सम्बन्ध की कई कथाएं सुनी हैं।
उन कथाओं के अनुसार एक समय पार्वती को एक सामान्य स्त्री के समान एक गृह में निवास करने की इच्छा उत्पन्न हुई। भवन निर्माण के लिए उन्होंने इसी स्थान का चुनाव किया था। नवीन गृह में प्रवेश करने से पूर्व वास्तु पूजा करने के लिए पार्वती ने रावण को आमंत्रित किया। रावण इस भव्य ईमारत को देख इतना मंत्रमुग्ध हो गया कि उसने देवी पार्वती से अनुष्ठान की दक्षिणा स्वरूप इस भवन की ही मांग कर दी। जैसे ही देवी पार्वती ने उसकी इच्छा पूर्ण की, उसे अपनी भूल का आभास हुआ। उसने घोर तपस्या कर देवी से क्षमा मांगी तथा देवी से अनुनय किया कि वे यह स्थान छोड़ कर ना जाएँ। उसका अनुग्रह स्वीकार करते हुए पार्वती शंकरी देवी के रूप में यहीं स्थिर हो गयीं। भगवान् शिव उनके संग यहाँ कोनेश्वर अर्थात् पर्वतों के देव के रूप में निवास करते हैं। कुछ लोग थिरुकोनेश्वर का अर्थ त्रिकोण + ईश्वर अर्थात् तीन पर्वतों के ईश्वर, ऐसा भी मानते हैं।
दक्षिण कैलाश
एक अन्य किवदंती के अनुसार, रावण कैलाश पर्वत का एक टुकड़ा ले आया था जिसके ऊपर त्रिंकोमाली बसा हुआ है। वास्तव में कोनेस्वर मंदिर उसी देशांतर पर स्थित है जिस पर कैलाश पर्वत स्थित है। इसीलिए इसे दक्षिण कैलाश भी कहा जाता है। स्कन्द पुराण के दक्षिण कैलाश महात्म्य में भी इसका उल्लेख प्राप्त होता है।
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इस मंदिर को सहस्त्र स्तंभों का मंदिर भी कहा जाता है। इसके चारों ओर कई छोटे मंदिर हैं। इस क्षेत्र के कई प्रमुख मंदिरों के समान यह मंदिर भी पुर्तगाली सेना द्वारा नष्ट किया गया था। एक समय जहां मंदिर का प्रांगण स्थित था, आज वहां फ्रेडरिक का दुर्ग स्थित है। इन्हें देख अनुमान लगाया जा सकता है कि किसी समय यह एक अतिविशाल मंदिर संकुल था। इतिहास कहता है कि पुर्तगालियों ने तोपों द्वारा मंदिर तो ध्वस्त किया था। जान बचाकर भागते पुजारियों ने कुछ मूर्तियों को धरती में गाड़कर छुपा दिया था। लोग इनमें से कुछ प्रतिमाओं को ढूंढ निकालने में सफल हुए जो अब मंदिर संकुल का भाग हैं।
वसंत मंडप में आप इसी प्रकार ढूंढी हुई कुछ पीतल की प्रतिमाएं देख सकते हैं। एक अन्य छोटे मंदिर में आपको काले पत्थर में बनी बड़ी लक्ष्मी एवं नारायण की प्रतिमाएं दृष्टिगोचर होंगी। मंदिर के एक आले पर एक प्राचीन नंदी स्थापित था।
वर्तमान में यह एक छोटा सा मंदिर चट्टान के दूसरी छोर पर स्थित है जहां से चारों ओर समुद्र का अद्भुत दृश्य दिखाई पड़ता है। मुख्य मंदिर के भीतर एक शिवलिंग है। समीप ही देवी का छोटा सा मंदिर है जिसके भीतर देवी की खड़ी प्रतिमा स्थापित है।
मंदिर की भीतरी भित्तियाँ इस मंदिर की गाथाएँ कहती हैं। यहाँ आलेखित इतिहास के अनुसार इस मंदिर का मूल स्वरूप सम्पूर्ण पहाड़ी पर फैला हुआ था। मन्दिर की बाहरी भित्तियों पर मंदिर की उन कथाओं का उल्लेख है जो पुराणों में कही गयी हैं।
गाड़ी खड़ी करने के पश्चात, छोटी छोटी दुकानों से होते हुए जब हम मंदिर के समीप पहुंचते हैं, वहां स्थापित भगवान् शिव की एक विशाल प्रतिमा मन मोह लेती है।
रावण रसातल
रावण रसातल अथवा वेट्टा का अर्थ है स्वामी चट्टान के बीच का कटाव। स्वामी चट्टान वही चट्टान है जिस पर कोनेश्वर मंदिर स्थित है। ऐसा माना जाता है कि रावण ने अपनी तलवार से इस चट्टान को काटा था।
यहाँ मैंने रावण की एक अनोखी प्रतिमा देखी। चट्टान से जुड़ा किन्तु समुद्र पर टंगा एक मंच है जिस पर हाथ जोड़े खड़े रावण की प्रतिमा है। उसकी वीणा समीप ही रखी हुई है। यह उस क्षण को प्रदर्शित करता है जब रावण ने भगवान् शिव एवं देवी पार्वती को प्रसन्न करने के लिए अपने ही एक शीश को काटकर उससे वीणा की रचना की थी।
यह विडम्बना ही है कि सुवर्ण नगरी लंका का अधिपति समुद्र पर लटकते एक मंच पर हाथ जोड़े खड़ा है। लोग उसे सिक्के अर्पित करते हैं। आप उसके चरणों के आसपास सिक्के बिखरे देखेंगे।
झूले
थिरुकोनेस्वर मंदिर के पीछे भित्ति पर लकड़ी के कई छोटे छोटे झूले लटकते दिखाई देंगे। मेरे अनुमान से संतान की इच्छा रखते दंपत्ति यहाँ आकर ये झूले बांधते हैं। मैंने देखा कि कुछ झूलों से कपड़े में कुछ सिक्के लपेटकर बांधे हुए थे।
हमने मंदिर की प्राचीर से सूर्योदय का अप्रतिम दृश्य देखा।
हम मंदिर परिसर में स्वच्छंदता से घूमते हिरणों को देख अचंभित रह गए थे।
शंकरी देवी शक्ति पीठ
शंकरी देवी मंदिर कोनेश्वर मंदिर के परिसर में ही स्थित है। आदिशक्ति यहाँ शंकरी के रूप में स्थित है जो शिव की अर्धांगिनी हैं। खड़ी मुद्रा में स्थित इस प्रतिमा के ४ हाथ हैं। उनके चरणों के समीप ताम्बे का दो आयामी श्री चक्र रखा हुआ है। वहीं उनकी प्रतिमा के समक्ष तीन आयामी श्री चक्र खड़ा है।
ऐसा माना जाता है कि जब भगवान् शिव देवी सती की मृतदेह हाथों में उठाये तांडव कर रहे थे तथा भगवान् विष्णु ने चक्र द्वारा उसे छिन्न-भिन्न कर दिया था, तब देवी का एक पैर इस स्थान पर गिरा था।
आदि शंकराचार्यजी ने भारतीय उपमहाद्वीप में स्थित १८ शक्तिपीठों का जो उल्लेख अपने स्तोत्र में किया है, उनमें सर्वप्रथम उन्होंने इसी मंदिर का उल्लेख किया है। अतः भगवान् शिव एवं विष्णु के अनुयायियों के लिए यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।
भद्रकाली अर्थात् पथिरकाली अम्मा मंदिर
यह मंदिर नगर के बीचोंबीच स्थित है। दूर से यह किसी भी अन्य दक्षिण भारतीय मंदिर के समान दिखाई पड़ता है। द्रविड़ वास्तुशैली में निर्मित रंगबिरंगा गोपुरम तथा कथाएं कहती शिल्पकारियाँ!
किन्तु जैसे ही मैंने प्रवेश द्वार से भीतर प्रवेश किया, चारों ओर स्थित तीन आयामी प्रतिमाओं को देख मेरी आँखें फटी की फटी रह गयीं। ये प्रतिमाएं मुझे छत से, चौखटों से, भित्तियों से तथा स्तंभों से निहार रही थीं। ये प्रतिमाएं देवी के असंख्य रूपों की असंख्य कथाएं कह रही थीं। आदमकद से भी बड़ी, रंगों से परिपूर्ण ये प्रतिमाएं हमें अभिभूत कर रही थीं।
इस मंदिर की अधिष्ठात्री देवी महाकाली अथवा भद्रकाली हैं जो काली का उदार रुप है। उनके संग महालक्ष्मी एवं महासरस्वती भी वास करती हैं।
मंदिर के आलेखों से जानकारी प्राप्त होती है कि यह मंदिर चोल वंश से पूर्व का है। इसका अर्थ है कि ११वीं. सदी में यह मंदिर अस्तित्व में था। यह तथ्य इस मंदिर को १००० वर्षों से भी अधिक प्राचीन सिद्ध करता है।
सल्ली मुथुमरिअम्मा कोविल
उप्पुवेली समुद्रतट के समीप जिस स्थान पर एक छोटी जलधारा समुद्र से मिलती है, वहीं त्रिंकोमाली नगर के प्राचीनतम मंदिरों में से एक, यह मंदिर स्थित है। इस क्षेत्र के सभी देवी मंदिरों में से यह तीसरा प्रमुख मंदिर है।
अप्रवाही जल एवं समुद्र के बीच, संकरी धरती पर स्थित यह मंदिर बीहड़ चट्टानों से घिरा हुआ है। मंदिर के चारों ओर प्राकृतिक रूप से स्थित चट्टानों की पंक्ति उसे समुद्र से बचाती हैं। जब मैं यहाँ दर्शन के लिए आयी थी, तब यह मंदिर बंद था। किन्तु मुझे इतना आभास अवश्य हुआ कि यह अत्यंत पूजनीय मंदिर है तथा यहाँ अनेक भक्तगण दर्शनार्थ आते हैं। चारों ओर मुझे पूजा आराधना के चिन्ह स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे थे। यहाँ से हिन्द महासागर का सुन्दर दृश्य प्राप्त हो रहा था।
मंदिर के समक्ष मुझे ताम्बे का एक विचित्र यन्त्र दिखाई पड़ा। ऊपर उसका चित्र है। यदि आप में से किसी को भी उसके विषय में जानकारी हो तो कृपया मुझसे अवश्य साझा करें।
क्या आप जानते हैं कि त्रिंकोमाली खाड़ी को गोकर्ण भी कहते हैं?
लक्ष्मी नारायण मंदिर
नीले एवं सुनहरे रंग में रंगा यह एक विशाल मंदिर है। यह मंदिर दूर से ही दिखाई देने लगता है। यह मंदिर भी उस समय बंद था जब मैं यहाँ पहुँची। इसके चारों ओर स्थित चौड़ी खाई के कारण मैं इसका एक अच्छा चित्र भी नहीं ले पायी। मुझे बताया गया कि त्रिंकोमाली दर्शन के लिए आये पर्यटकों में यह मंदिर अत्यंत लोकप्रिय है।
लक्ष्मी नारायण के रूप में विष्णु का यह मंदिर अपेक्षाकृत नवीन है। मंदिर के ऊपर नीले एवं सुनहरे रंग को देख मुझे भगवान् विष्णु का स्मरण हो आया। मानो नीलवर्ण विष्णु ने सुवर्ण वस्त्र धारण किये हों।
बौध विहार
नगर में यत्र-तत्र बौध विहार दृष्टिगोचर हो जाते हैं। इन्हें आप श्वेत स्तूपों द्वारा पहचान सकते हैं। मैंने कुछ के समीप रुककर उन्हें देखा। इन विहारों में विद्यालय जैसा वातावरण था तथा युवा छात्र यहाँ वहां घूम रहे थे।
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त्रिंकोमाली के समुद्रतट
अद्भुत समुद्रतटों के धनी गोवा राज्य की निवासी होने के कारण त्रिंकोमाली दर्शन सूची में मैंने यहाँ के समुद्र तटों को अत्यंत निम्न तल में रखा था। किन्तु संध्या के समय कुछ अन्य स्थलों के दर्शन उपलब्ध न होने के कारण समुद्र तट का भ्रमण मुझे सर्वाधिक उपयुक्त प्रतीत हुआ। दिवस भर पर्यटन स्थलों के दर्शन कर थकने के पश्चात यहाँ आकर अत्यधिक चैन एवं सुकून प्राप्त हुआ। दिन भर की थकावट छूमंतर हो जाती थी। मन तरोताजा हो जाता था।
उप्पुवेली समुद्रतट
मेरी सम्पूर्ण त्रिंकोमाली यात्रा में मैं इस समुद्रतट पर दो बार आयी थी। सर्वप्रथम जब मैंने मंदिर के दर्शन किये थे। समुद्र से झांकती चट्टान पर खड़ी होकर मैंने कई क्षण सूर्यास्त के दर्शन करने में व्यतीत किये। गोधूली की बेला में वृक्षों के घिरे समुद्रतट पर बैठना मेरे लिए अविस्मरणीय क्षण थे जिनकी व्याख्या संभव नहीं।
दूसरी बार मैं यहाँ तब आयी जब मैं अपने अतिथिगृह द्वारा आयोजित अप्रवाही जल में नौका विहार का आनंद ले रही थी। अतिथिगृह से समुद्र तट तक एवं वापिस अतिथिगृह तक की ४० मिनटों की यह धीमी नौका यात्रा थी। खारे जल के मध्य खड़े वृक्ष, यहाँ वहां उड़ते पंछी एवं चारों ओर पसरी शान्ति मन मोह लेते हैं। इनका आनंद लेने के पश्चात अब मैं यही कहूँगी कि अपनी त्रिंकोमाली यात्रा के समय आप यहाँ अवश्य आईये।
नीलावेली समुद्रतट
उप्पुवेली समुद्रतट के उत्तरी दिशा में यह समुद्रतट है। नगर से दूर यह एक अत्यंत शांत समुद्रतट है।
पिजन द्वीप
इस द्वीप पर आप नीलावेली समुद्रतट से नौका द्वारा पहुँच सकते हैं। व्हेल मछली एवं डोल्फिन मछली के दर्शन करने तथा अन्य जलक्रीडाओं के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है।
यहाँ नील कपोत अर्थात पहाड़ी कबूतर घोंसले बनाते हैं। इसी कारण इसका नाम पिजन द्वीप अर्थात कबूतरों का द्वीप पड़ा है।
मार्बल समुद्रतट
इस समुद्रतट का जल सर्वाधिक स्वच्छ एवं स्पष्ट माना जाता है। मैं अपनी इस यात्रा में इस समुद्र तट के दर्शन नहीं कर पाई।
फ्रेडरिक दुर्ग
पुर्तगालियों ने एक मंदिर को धोखे से ध्वस्त कर उस स्थान पर उन्ही शिलाओं का प्रयोग कर इस दुर्ग को निर्मित किया था। अप्रैल १६२२ में तमिल नूतन वर्ष के उत्सव के समय यह घटना घटी थी। उस दिन मंदिर की उत्सव मूर्ति की नगर में शोभायात्रा निकाली जा रही थी। सर्व भक्तगण शोभायात्रा में सम्मिलित होकर मंदिर से दूर निकल आये थे। तब पुर्तगाली सैनिक मंदिर के पुजारियों का भेष धरकर मंदिर आये तथा उस पर तोपों से हमला किया। उन्होंने सम्पूर्ण मंदिर नष्ट कर दिया।
उनका राज्य अधिक समय तक नहीं चला। उनके द्वारा निर्मित संरचना को डच आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया तथा सन् १६६५ में उस स्थान पर नवीन दुर्ग का निर्माण कराया।
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अब केवल मंदिर की ओर जाते मार्ग पर एक तोरण द्वार है। सेना द्वारा अधिकृत होने के कारण अब यहाँ पर्यटकों को प्रोत्साहित नहीं किया जाता। किन्तु आप चाहे तो यहाँ दर्शनार्थ आ सकते हैं।
त्रिंकोमाली के समीप दर्शनीय स्थल
आदि कोनेश्वर मंदिर
त्रिंकोमाली से लगभग २५ की.मी. दूर स्थित, तमपलकमम गाँव में यह साधारण किन्तु विशाल मंदिर है। इसका निर्माण सन् १६३२ में किया गया था। यहाँ कोनेश्वर मंदिर की मूल प्रतिमाएं स्थापित हैं।
श्री लंका के मैंने जितने भी मंदिर देखे, उन सब में से यह सर्वाधिक शांत मंदिर है। इसके विशाल गलियारे लगभग खाली रहते हैं। इसके कारण आप यहाँ शान्ति से घूम सकते हैं तथा मंदिर को निहार सकते हैं। मंदिर के पुजारी के अनुसार यहाँ की पीतल की उत्सव मूर्ति ही एकमेव प्राचीन मूर्ति है। भाषा अनजान होने के कारण मैं उनसे अधिक जानकारी प्राप्त नहीं कर पायी। किन्तु उन्होंने मुझे मूर्ति का चित्र लेने की अनुमति अवश्य दी।
श्री लंका गृह युद्ध के पश्चात अन्य मंदिरों के समान यह मंदिर भी उपेक्षित हो गया।
एलीफैंट पास स्मारक
श्री लंका के गृह युद्ध के समापन के स्मरण में इस स्मारक का निर्माण किया गया था। यहाँ की दो अर्ध-गोलाकार संरचना उत्तरी एवं दक्षिणी श्री लंका के मेल एवं लोगों का सम्पूर्ण देश में विचरण करने की संधि को दर्शाती हैं। मध्य में दो हाथों पर श्री लंका का नक्शा है। २००९ में इसका उद्घाटन महिंदा राजपक्सा द्वारा हुआ था।
यह एक सुन्दर कलाकृति है। इसके ऊपर स्थित ढलुआ मार्ग द्वारा आप इस पर चढ़कर घूम सकते हैं। स्मारक के चारों ओर की भित्ति पर युद्ध के तनावपूर्ण दृश्य प्रदर्शित हैं। इन्हें देखने में कुछ ही मिनटों का समय लगता है किन्तु इनके प्रतीकात्मक अर्थ की स्मृति आपके मानसपटल पर अमिट छाप छोड़ती है।
एलीफैंट पास स्मारक के ऊपर से आप एलीफैंट पास नमक निर्माण देख सकते हैं। समुद्र की लहरें यहाँ आकर जब सूखती हैं तब अपने पीछे नमक छोड़ जाती हैं। सूर्य की चमचमाती रोशनी में नमक की चमकती पंक्तियाँ आप यहाँ से देख सकते हैं।
यात्रा सुझाव
• त्रिंकोमाली कोलम्बो से रेल तथा बस परिवहन द्वारा पहुंचा जा सकता है।
• सिन्नामन एयर की एयर टैक्सी द्वारा भी यहाँ पहुंचा जा सकता है।
• नगर में घूमने के लिए टुक टुक सर्वोत्तम साधन है।
• यहाँ साधारण अतिथिगृह से लेकर सर्व सुख-सुविधा युक्त होटल्स तक की सुविधाएं हैं। मैं ‘अमरंथे बे’ नामक होटल में रुकी थी जो उप्पुवेली समुद्रतट के समीप स्थित है।
• मंदिरों के भीतर छायाचित्र लेने की अनुमति नहीं है। अन्य स्थानों पर ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
• त्रिंकोमाली के विस्तृत दर्शन के लिए २-३ दिनों का समय आवश्यक है। समय की कमी के रहते आप इसे एक दिन में भी देख सकते हैं।
• यहाँ आकर किंग नारियल का जल पीना ना भूलें, जो यहाँ सर्वत्र मिलता है।