बौद्ध चाम नृत्य एक आनुष्ठानिक नृत्य है। हिमालयीन क्षेत्रों, विशेषतः लद्दाख के विभिन्न बौद्ध मठों में इस उत्सव का आयोजन किया जाता है। प्रत्येक मठ अपने पञ्चांग के अनुसार भिन्न भिन्न दिवसों में इस उत्सव का आयोजन करता है तथा अपना स्वयं का गुस्तोर उत्सव मनाता है। यह लद्दाख का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उत्सव है। मैंने जनवरी के मास में लद्दाख का भ्रमण किया था। तब लेह के समीप स्थित स्पितुक मठ में इस गुस्तोर उत्सव में भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ।
बुद्ध एवं बौध धर्म को मैं जितना समझती थी, चाम नृत्य उससे ठीक विपरीत प्रतीत हुआ। चाम नृत्य रंगों से परिपूर्ण अत्यंत मनभावन उत्सव है जिसे लामा कठोर अनुष्ठानों एवं नियमों के अंतर्गत प्रस्तुत करते हैं। एक ओर हम उन्हें पहाड़ों के ऊपर स्थित बौध मठों में रहते एवं प्रार्थना करते देखते हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हें इस मनमोहक नृत्य में तल्लीन देखना अत्यंत विस्मयकारी है। हिमायालीन बौद्ध मठ, जो अन्यथा शांत क्षेत्र होते हैं, इस उत्सव के समय जीवंत हो उठते हैं। रंगबिरंगे चटक एवं भव्य परिधान धारण किये लामा संगीत के सुरों पर थिरकते एवं झूमते हुए नृत्य करते हैं।
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चाम नृत्य का इतिहास
यह एक प्राचीन नृत्य परंपरा है जिसकी उत्पत्ति संभवतः तिब्बत में हुई थी। किवदंतियों के अनुसार इस नृत्य परंपरा का सम्बन्ध ८ वीं. शताब्दी के गुरु पद्मसंभव से है। ऐसा माना जाता है कि तिब्बत के तत्कालीन सम्राट त्रिशोंग डेस्टन ने गुरु पद्मसंभव को आमंत्रित किया था। वे उनसे उन आत्माओं से मुक्ति प्राप्त करने में सहायता चाहते थे जो उन्हें साम्ये बौद्ध मठ निर्माण करने में अड़चन उत्पन्न कर रहे थे। दिन के समय जो भी निर्माण कार्य सम्पूर्ण किया जाता था, रात्रि में वे आत्माएं उसे समूल नष्ट कर देती थीं। गुरु पद्मसंभव ने उन आत्माओं को नष्ट करने के लिए अनुष्ठान किये थे। समय के साथ ये अनुष्ठान बढ़ते चले गए। आज ये अनुष्ठान चाम नृत्य के रूप में किया जाता है। यह अनुष्ठान विशेषतः महायान बौद्ध धर्म से सम्बंधित है।
‘कोर ऑफ़ कल्चर’ द्वारा चाम नृत्य पर किये विस्तृत अनुसंधान के अनुसार यह नृत्य संभवतः गुरु पद्मसंभव के इस घटना से भी पूर्व अस्तित्व में था। समय के साथ इसमें परिवर्तन आते चले गए। यह नृत्य एक तांत्रिक नृत्य से सार्वजनिक प्रदर्शन में परिवर्तित हो गया है।
चाम, यह शब्द इस नृत्य में प्रयुक्त एक मुद्रा से उत्पन्न है। इस नृत्य शैली में इस मुद्रा का प्रयोग व्यापक रूप से किया जाता है। इस नृत्य शैली में हस्त मुद्राओं, पहनावों तथा हाथों में धारण किये चिन्हों का अत्यंत महत्व है। जैसे, हाथों में तलवार धारण करने का अर्थ है अज्ञानता का नाश करना।
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कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इस परम्परा का आरम्भ शाक्यमुनि अर्थात् ऐतिहासिक बुद्ध के जीवनकाल में हुआ था। यह सिद्धांत इस परंपरा का उद्भव छठीं ईसा पूर्व बताता है।
मुखौटा नृत्य अथवा चाम नृत्य की कथा
लद्दाख में चाम नृत्य प्रदर्शन का विडियो देखें।
इस नृत्य का पूर्ण उद्देश्य है, मानवता की भलाई के लिए दुष्ट आत्माओं का अंत। यह कैसे किया जाता है, यह अत्यंत रोचक है। उत्सव से पूर्व बौद्ध भिक्षुक लम्बे समय तक ध्यान एवं प्रार्थना करते हैं। गुस्तोर उत्सव के दिन, वे बेल बूटेदार जरी से निर्मित परिधान धारण करते हैं। सर पर भयंकर मुखौटे तथा हाथों में प्रतीकात्मक वस्तुएं धारण करते हैं। इस प्रकार भयावह रूप धरकर वे दुष्ट आत्माओं को डराते हैं तथा उन्हें वहां से भगा देते हैं।
चाम नृत्य की गोपनीयता
प्रारम्भ में यह नृत्य अत्यंत गोपनीय हुआ करता था। लामा एकांत में यह नृत्य प्रदर्शन करते थे। मेरे अनुमान से तांत्रिक तत्वों से जुड़े होने के कारण इस परंपरा को गुप्त रखा गया था।
वर्तमान में यह नृत्य पूर्णतः सार्वजनिक प्रदर्शन में परिवर्तित हो गया है। गाँव निवासी मठ के चप्पे चप्पे पर स्थान ग्रहण कर बैठ जाते हैं। मध्य में केवल नर्तकों द्वारा प्रदर्शन के लिए पर्याप्त स्थान छोड़ देते हैं। चारों ओर लगे कैमरे भविष्य के लिए इस नृत्य को कैद करते रहते हैं। तकनीकी की सहायता से आज इस नृत्य को हम कहीं भी बैठकर देख सकते हैं तथा इसका आनंद ले सकते हैं।
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यह नृत्य परम्परा लामाओं में पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ रही है। इसके विषय में कहीं भी लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। हाँ, मेरे द्वारा प्रत्यक्ष लिया गया यह विडियो आने वाली पीढ़ियों के लिए अवश्य एक वैद्य प्रमाण है।
चाम एक तांत्रिक अनुष्ठान है। इसकी जड़ें हिन्दू तांत्रिक सम्प्रदाय की प्राचीन भारतीय तांत्रिक परम्पराओं में पाया गया है।
दुष्ट आत्माओं का अंत
ऐसा माना जाता है कि नृत्य करते लामा भिक्षुओं में रक्षात्मक देवी-देवता अवतरित हो जाते हैं। नृत्य करते समय वे इन देवी-देवताओं के प्रत्यक्ष स्वरूप बन जाते हैं। मेरा अनुभव जानना चाहें तो, स्पितुक मठ में मैंने जो चाम प्रदर्शन देखा, वहां मुझे ऐसा कुछ भी प्रतीत नहीं हुआ।
नृत्य प्रदर्शन के समय लामा जो विस्तृत मुखौटे धारण करते हैं, उन्हें मिट्टी एवं सूत के मिश्रण द्वारा निर्मित किया जाता है। प्राकृतिक रंगों द्वारा उन्हें रंग कर उन पर बहुमूल्य घातुओं द्वारा चमक दी जाती है। प्रत्येक मुखौटा किसी वेशेष देवता को दर्शाता है। जैसे, काला मुखौटा धारण किया हुआ लामा महाकाल का स्वरूप धरता है, वहीं पीला मुखौटा धन के देव वैश्रमण को दर्शाता है। कुछ मुखौटों पर हिरण तथा भैंस जैसे पशुओं के शीश की आकृति होती है। मध्य में विदूषक जैसे परिधान धारण कर भी कई लामा नृत्य करते हैं। मेरे गाइड के अनुसार ये लामा अनुयायियों को दर्शाते हैं।
मैंने केवल पुरुष लामाओं को ही यह नृत्य प्रदर्शित करते देखा है। मैंने इसके विषय में जितना भी साहित्य पढ़ा था, वहां भी केवल पुरुष बौद्ध भिक्षुओं द्वारा यह नृत्य किये जाने का उल्लेख था। नृत्य के कुछ भागों में नर्तक देवी-देवताओं के जोड़े को दर्शाते हुए नृत्य करते हैं मानो भगवान् अपनी पत्नी सहित पधार रहे हैं। यहाँ भी दोनों पात्र पुरुष ही निभाते हैं।
स्पितुक मठ के गुस्तोर उत्सव का चाम नृत्य
यह मेरा सौभाग्य था कि मुझे लेह के बाहर एक छोटी पहाड़ी के ऊपर स्थित स्पितुक मठ के गुस्तोर उत्सव में भाग लेने का स्वर्णिम अवसर प्राप्त हुआ। हमने दिन का आरम्भ इस बौद्ध मठ के दर्शन से किया जहां तक पहुँचने के लिए ऊंची चढ़ाई करनी पड़ती है। यह चढ़ाई अत्यंत आनंददायी थी। चारों ओर लेह नगरी एवं लेह विमानतल का मनमोहक दृश्य था। मार्ग में हम कई लद्धाखियों से मिले। हमने जब उनके छायाचित्र लेने की इच्छा व्यक्त की, उन्होंने सहर्ष हमारे आग्रह को मान कर हमें कई चित्र लेने दिए।
लेह का स्पितुक बौद्ध मठ
स्पितुक मठ में, मुख्य सभागृह के पृष्ठभाग में स्थित एक कक्ष में हमने प्रवेश किया। वहां सम्पूर्ण भित्तियाँ बौद्ध कथाओं, चिन्हों तथा प्रतिमाओं से भरी हुई थीं। स्पितुक मठ का निर्माण ११वी. सदी में किया गया था, वहीं भित्तिचित्र १४वी. शताब्दी में बनाए गए हैं। महीन चूने द्वारा श्वेत चिंतामणी, षट-भुजाधारी महाकाल, वैश्रवण, वज्र भैरव, श्री देवी तथा चामुंडी सहित अनेक उपासिकाओं की प्रतिमाएं भी बनायी गयी थीं। आपको अचरज हो रहा होगा कि बौद्ध मठ के भीतर बौद्ध धर्म के चिन्हों के साथ हिन्दू देवी-देवताओं के भी चित्र हैं। इन्हें देख आप सोच में पड़ जाते हैं कि क्या इनमें कोई भेद है?
मठ के भीतर विभिन्न मंदिरों के दर्शन के उपरांत हम एक प्रांगण में पहुंचे जहां नृत्य प्रदर्शन के प्रबंध किये जा रहे थे। सम्पूर्ण प्रांगण दर्शकों से भरने लगा था। सौभाग्य से हमें एक मुंडेर के पीछे, एक ऊंचे स्थान पर बैठने के लिए कहा गया जहां से हमें प्रांगण का दृश्य भलीभांति दिखाई पड़ रहा था। कई लोग छत पर, खिड़कियों पर तथा प्रांगण के दूसरी ओर भी बैठे थे।
स्पितुक मठ का गुस्तोर उत्सव
उत्सव का आरम्भ भित्ति पर टंगे एक विशाल थान्ग्का के अनावरण से हुआ। शनैः शनैः जब इसका अनावरण हो रहा था, तब ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो देवी देवताओं को अनुष्ठान में भाग लेने के लिए आमंत्रित कर रहा हो। कुछ भिक्षुक संगीत वाद्य बजा रहे थे। अचानक एक ओर स्थित ऊंची सीढियाँ आकर्षण का केंद्र बिंदु बन गयी। कई भिक्षुक रंगबिरंगे परिधान तथा मुखौटे धारण कर सीढियाँ उतर रहे थे। वे जोड़ों में अथवा छोटे छोटे समूहों में आते, अपना निर्धारित नृत्य प्रदर्शन करते तथा वहां से चले जाते थे। मध्य में कुछ भिक्षुक दर्शकों से हंसी-मजाक करते, उन्हें छेड़ते तथा चले जाते थे। दोपहर के भोजन का समय होते ही सब दर्शकों ने भोजन के डब्बे खोले तथा खाने लगे। भोजन ग्रहण करने के लिए अनुष्ठान में अल्प विराम दिया गया था। इतना समय उपलब्ध था कि हमने अपने अतिथिगृह ‘होटल दी ग्रैंड ड्रैगन’ जाकर भोजन किया।
भोजन के समय तक मठ के बाहर मेला लग गया था। मठ के पृष्ठभाग से हमें तम्बोला की बोलियों के स्वर सुनायी दे रहे थे। मठ के सामने कई छोटी छोटी दुकानें लग गयी थीं जहां खाद्य पदार्थों सहित कई प्रकार की वस्तुएं बिक्री की जा रही थीं। हम भीड़ में लगभग फंस गए थे। न जाने कहाँ से अचानक इतने लोग एकत्र हो गए थे। दोपहर के भोजन के उपरांत भी हमें उत्सव के प्रदर्शनों को देखने की इच्छा थी। किन्तु खचाखच भरी भीड़ को देख हमें आभास हो गया कि मठ के भीतर जाना लगभग असंभव है। अतः हमने भीतर ना जाकर लेह में कुछ और करने का निश्चय किया।
इतना अवश्य कहना चाहूंगी कि जितना आनंद मुझे नृत्य देखने में आ रहा था, उतना ही आनंद मुझे नृत्य देखते लद्दाख के लोगों को देखने में भी आ रहा था। वृद्ध लोगों ने हाथों में प्रार्थना चक्र लिया हुआ था तथा वे उसे ऐसे घुमा रहे थे मानो यह उनका स्वभाव बन गया हो। कई स्त्रियों ने फिरोजा मणी के सुन्दर हार गले में पहने हुए थे। सभी बालक बालिकाएं सुन्दर एवं गोल-मटोल थे।
समापन
बौद्ध मठ के इस उत्सव को देखना तथा इसमें भाग लेना, यह मेरे लिए अतुलनीय अनुभव था। मार्ग में लगे बैनरों में इस उत्सव को ‘हिमालय का कुंभ मेला’ कहा गया था। मठ से वापिस आते समय लोगों की जो भीड़ हमने देखी, उससे तो हमें भी यह कुंभ मेला ही प्रतीत हुआ। ऐसी भीड़ जिसमें परिवार एवं मित्रों से बिछड़ सकते हैं, ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।
लद्दाख के विभिन्न मठों में गुस्तोर उत्सव भिन्न भिन्न दिवसों में वर्ष भर मनाया जाता है। अतः अपनी यात्रा का नियोजन करते समय इन उत्सवों के दिन, स्थान एवं समय ज्ञात कर लें। अपनी यात्रा का नियोजन ऐसे करें कि कम से कम एक मठ में आपको इस उत्सव में भाग लेने का अवसर प्राप्त हो सके।
लद्दाख के स्पितुक बौद्ध मठ का रहस्यमयी चाम नृत्य:- काफी पहले से मैं मन ही मन यह सोचता था कि लद्दाख के लोगों का जीवन कैसा रहता होगा, लेकिन हमारा समाज कोई न कोई त्यौहार, परम्पराओ या अन्य किसी भी तरह के कुछ सामुहिक आयोजन वह कर ही लेता है व दुनिया के झंझटों से दूर कुछ ही समय के लिए एक अलग ही स्वप्नलोक में ले जाता हैं। आपने बहुत ही सुंदर फोटो व वीडियो के माध्यम से एक दिलचस्प समाज रहस्यमयी चित्रण बहुत खूबसूरत तरीके से हमे अवगत कराया इसके लिए साधुवाद।।
संजय जी – इन उत्सवों में ही हमारी सांझी संस्कृति छुपी होती है।