बेलूर कर्नाटक के हासन जनपद में स्थित एक छोटा सा नगर है। यागाची नदी के तीर स्थित यह नगर चारों ओर से हरियाली से घिरा हुआ है। वेलापुरा के नाम से भी जाना जाने वाला यह एक प्राचीन एवं महत्वपूर्ण नगर है। यह 10 वी. से 14 वीं. सदी के मध्य कर्नाटक में राज्य करते होयसल साम्राज्य की राजधानी है। होयसल साम्राज्य अप्रतिम मंदिर वास्तुकला के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है। वे कला, साहित्य तथा धर्म के महान संरक्षक थे। इसका एक जीत जागता उदाहरण है चेन्नाकेशव मंदिर।
बेलूर का होयसल राजवंश
होयसल राजवंशी मूलतः पश्चिमी घाट के मलनाडू नामक क्षेत्र के थे। इन्हे युद्ध कौशल में विशेष रूप से निपुण माना जाता है। इन्होंने चालुक्य एवं कलचुरी वंशों के मध्य चल रहे आंतरिक युद्ध का लाभ उठाते हुए कर्नाटक के कई क्षेत्रों पर आधिपत्य स्थापित किया था। 13 वी. सदी तक उन्होंने कर्नाटक के अधिकतर क्षेत्रों, तमिल नाडु के कुछ क्षेत्रों तथा आंध्र प्रदेश व तेलंगाना के कई क्षेत्रों तक साम्राज्य स्थापित कर लिया था।
होयसल वास्तुकला
होयसल काल को इस क्षेत्र का स्वर्णिम काल माना जाता है। दक्षिण भारत में कला, वास्तुशिल्प, साहित्य, धर्म तथा विकास के क्षेत्र में होयसल राजवश का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आरंभ में बेलूर नगरी उनकी राजधानी थी। कालांतर में उन्होंने हैलेबिडु में स्थानांतरण किया जिसे द्वारसमुद्र भी कहते हैं। आज होयसल राजवंश को विशेष रूप से उत्कृष्ट होयसल वास्तुकला के लिए स्मरण किया जाता है।
वर्तमान में होयसल वास्तुकला से सुशोभित लगभग ९२ मंदिर हैं जिनमें ३५ मंदिर हासन जिले में स्थित हैं। इनमें प्रमुख मंदिर हैं, बेलूर का चेन्नाकेशव मंदिर, हैलेबिडु में होयसलेश्वर मंदिर तथा सोमनाथपुरा का चेन्नाकेशव मंदिर। इनके अतिरिक्त नग्गेहल्ली का लक्ष्मी नरसिंह मंदिर, बेलवाड़ी में वीर नारायण मंदिर, अरसिकेरे में ईश्वर मंदिर, कोरवंगला का बूचेश्वर मंदिर, हैलेबिडु में जैन बसदी, किक्केरी में ब्रहमेश्वर मंदिर अन्य कई मंदिरों में से हैं जो होयसल वास्तुशिल्प के लिए प्रसिद्ध हैं।
होयसल नाम की व्युत्पत्ति
कन्नड़ लोकसाहित्यों के अनुसार सल नामक एक नवयुवक था जिसने तलवार से वार कर एक बाघ से अपने गुरु के प्राणों की रक्षा की थी। प्राचीन कन्नड़ भाषा में वार करने को होय कहा जाता था। यहीं से होयसल शब्द की व्युत्पत्ति हुई थी।
बेलूर का चेन्नाकेशव मंदिर संकुल
चेन्नाकेशव मंदिर होयसल वास्तुकला के चित्ताकर्षक नमूनों में से एक है। असाधारण नक्काशी एवं उत्कृष्ट शिल्पकला के लिए इस मंदिर को स्थानीय रूप से कलासागर कहा जाता है। इसकी सुंदरता इतनी अभिव्यंजक है कि ये सभी निर्जीव पत्थर की कलाकृतियाँ अत्यंत सजीव प्रतीत होती हैं।
चेन्नाकेशव मंदिर का इतिहास
बेलूर के चेन्नाकेशव मंदिर का निर्माण १११७ ई. में विष्णुवर्धन ने करवाया था। वास्तुकला की इस उत्कृष्ट कलाकृति के निर्माण में राजवंश की तीन पीढ़ियों को १०३ वर्ष लग गए। ऐसा कहा जाता है कि पत्थर द्वारा इस वास्तुकला के निर्माण में १००० से भी अधिक कारीगरों का योगदान था।
यह मंदिर भगवान विष्णु के चेन्नाकेशव रूप को समर्पित है जिसका अर्थ है सुंदर (चेन्ना) विष्णु (केशव)।
यह मंदिर राजा विष्णुवर्धन द्वारा चोलवंश पर अर्जित की गई महत्वपूर्ण सैन्य विजय की स्मृति में निर्मित किया गया था। एक अन्य स्थानीय मान्यता के अनुसार इस मंदिर का निर्माण राजा विष्णुवर्धन द्वारा जैन धर्म त्याग कर वैष्णव धर्म अपनाने के उपलक्ष्य में की गई थी। जब राजा विष्णुवर्धन जैन धर्म का पालन कर रहे थे तब उन्हे बिट्टीदेव कहा जाता था। अपने गुरु रामानुजचार्य के प्रभाव में उन्होंने हिन्दू धर्म अपनाया था। उनकी रानी शांतला देवी कला, संगीत तथा नृत्य की महान प्रशंसक थीं। वे स्वयं भी भरतनाट्यम नृत्य में निपुण थीं। उन्हे नृत्यसाम्राज्ञी भी कहा जाता था।
चेन्नाकेशव मंदिर का गोपुरम
यह विशाल मंदिर चारों ओर से भित्तियों से घिरा हुआ है। मंदिर के भीतर जाने के लिए दो प्रवेश द्वार हैं। पूर्वी प्रवेश द्वार पर पाँच तलों का विशाल गोपुरम है। दिल्ली सल्तनत के आक्रमणकारियों ने मुख्य द्वार को नष्ट कर दिया था। विजयनगर साम्राज्य के काल में इसका पुनर्निर्माण किया गया था।
गोपुरम का निचला भाग कठोर पत्थर द्वारा निर्मित है, वहीं इसका ऊपरी भाग ईंट एवं गारे द्वारा बनाया गया है। इसे देव-देवियों की प्रतिमा द्वारा सुशोभित किया गया है। इसके दो सर्वोच्च कोनों पर गौमाता की सींग के आकार की दो संरचनाएं हैं। इसीलिए इसे गोपुरम कहा जाता है। दो सींगों के मध्य पाँच सुनहरे कलश हैं।
मुख्य मंदिर
मंदिर का अनोखा मुख्य भाग तारे के आकार का है जो एक मंच पर स्थापित है। इस मंच को जगती कहा जाता है। मंदिर में एक गर्भगृह, सुकनासी अर्थात ड्योढ़ी तथा एक नवरंग मंडप है। यहाँ एक विमान अर्थात ईंट व गारे से निर्मित तथा सोने का पानी चढ़े हुए तांबे की चादरों से ढँकी लकड़ी से संरक्षित संरचना थी। भीतरी गर्भगृह के रक्षण हेतु १९ वीं. शताब्दी में इसे खंडित कर दिया गया था।
नवरंग मंडम में प्रवेश करने के लिए पूर्व, उत्तर एवं दक्षिण दिशा में तीन द्वार हैं। मंदिर का निर्माण शैलखटी अर्थात सिलखड़ी पत्थर द्वारा किया गया है जिसकी सम्पूर्ण संरचना पर आप सूक्ष्म नक्काशी देख सकते हैं।
पूर्व दिशा का द्वार मकर तोरण द्वारा सज्जित है। मुख्य द्वार के ऊपर स्थित पट्टिका पर विष्णु के दसों अवतारों को चित्रित किया गया है। द्वार के दोनों ओर सल द्वारा बाघ के वध का दृश्य दो विशाल संरचनाओं द्वारा दर्शित किया गया है। यह होयसल राजवंश का राज प्रतीक भी है। इस प्रतीक के दोनों ओर आप दो छोटे मंदिर देखेंगे जो भगवान विष्णु को समर्पित हैं। पूर्वी द्वार के दोनों ओर की भित्तियों पर मनमोहक उत्कीर्णन द्वारा राजदरबार का दृश्य दर्शाया गया है जिसमें बायीं ओर राजा विष्णुवर्धन तथा दाहिनी ओर उनके पोते वीर बल्लाल हैं।
मंदिर के द्वार भी उत्कृष्ट रूप से सुंदर फिलग्री नक्काशी द्वारा उत्कीर्णित हैं। पूर्वी द्वार के समक्ष, गोपुरम की ओर सुनहरा ध्वजस्तम्भ है। इसके समक्ष सुंदर रीति से उत्कीर्णित गरुड़ है जिसका मुख मंदिर की ओर है तथा जो भगवान विष्णु का वाहन है।
नवरंग मंडप
विशाल नवरंग मंडप ४८ अत्यंत चमकीले एवं समृद्ध रूप से उत्कीर्णित स्तंभों से सुसज्जित है। प्रत्येक स्तंभ का आकार एवं उसकी शैली भिन्न हैं। इन स्तंभों में से मध्य स्थित चार स्तंभ सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं।
इन चार स्तंभों में से भी सर्वाधिक विलक्षण स्तंभ हैं, दक्षिण-पश्चिम दिशा में मोहिनी स्तंभ तथा दक्षिण-पूर्व दिशा में नरसिंह स्तंभ। तारे के आकार के मोहिनी स्तंभ पर १६ लंबी धारीदार नक्काशी है। उस पर आप मोहिनी रूप में भगवान विष्णु की विशाल प्रतिमा देखेंगे। नरसिंह स्तंभ पर उभरी हुई उत्कृष्ट नक्काशी एवं संरचनाएं हैं। ऐसा बताया जाता है कि किसी समय नरसिंह स्तंभ अपनी ही धुरी पर पत्थर की कीलों द्वारा गोल घूम सकता था किन्तु विमान के खंडन के पश्चात यह स्तंभ भी स्थिर हो गया है।
मध्य स्थित चार स्तंभों के ऊपरी कोने चार कोष्ठक प्रतिमाओं द्वारा अलंकृत हैं। ये प्रतिमाएं होयसल शिल्प कौशल के उत्कृष्ट नमूने हैं। ये प्रतिमाएं हैं:
• शुक भाषिणी – अपने पालतू तोते से वार्तालाप करती एक नारी
• रानी शांतलादेवी
• गंधर्व नृत्य
• केश शृंगार – स्नान के पश्चात अपने केशों से जल निचोड़ती एक नारी
गंधर्व नर्तकी एवं शांतलादेवी की प्रतिमाएं विशेषतः ध्यान देने योग्य हैं क्योंकि उनके उपर सज्जा-साधन अपने स्थान से हिल सकते हैं। कहा जाता है कि दक्षिण-पश्चिम दिशा में स्थित स्तंभ पर उत्कीर्णित रानी की केशसज्जा पर अलंकृत एक छोटा चक्र तथा उत्तर-पश्चिम दिशा में स्थित स्तंभ पर उत्कीर्णित नर्तकी की कलाई पर सज्जित कंगन घूम सकते हैं।
भीतरी छत
मंडप के मध्य, भीतरी छत वास्तव में पत्थर पर एक अत्यंत आकर्षक उत्कीर्णन है। छत का आकार दो संकेंद्रित वर्ग के मध्य उलटे कमल जैसा है। वर्ग का मध्य भाग उलटे शिवलिंग के समान है। आधार पर नरसिंह तथा मध्य में ब्रह्मा का प्रतीक कमल का पुष्प है। त्रिमूर्ति को पत्थर की एक शिला पर सांकेतिक रूप से प्रदर्शित किया गया है। इसे त्रिमूर्ति संगम भुवनेश्वरी कहा जाता है।
बेलूर के भीतर एवं आसपास स्थित अधिकतर होयसल मंदिर भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार को समर्पित हैं। उन्हे होयसल के वंशज पारिवारिक देव मानते हैं। मंडप के अग्रभाग पर छिद्रयुक्त गवाक्ष हैं जिन पर प्रकाश एवं वायु के आदान-प्रदान के लिए चौकोर छिद्र बने हुए हैं। यह चालुक्य अथवा होयसल वास्तुकला का प्रतीकात्मक चिन्ह है।
गर्भगृह
मंडप का पश्चिमी भाग गर्भगृह की ओर ले जाता है। गर्भगृह के भीतर आप चतुर्भुज मुद्रा में भगवान विष्णु की ६ फुट ऊंची तथा नाना प्रकार से अलंकृत अत्यंत नयनाभिराम प्रतिमा देख सकते हैं। मनमोहक प्रभामंडल युक्त यह प्रतिमा एक ३ फुट ऊंची पीठिका पर स्थापित है। भगवान विष्णु ने अपने ऊपरी दोनों हाथों में शंख एवं चक्र धारण किया हुआ है तथा निचले दोनों हाथों में कमल तथा गदा धारण किया है। उनके प्रभामंडल पर भगवान विष्णु के दस अवतारों की चक्रीय उत्कीर्णन की गई है।
भगवान विष्णु की प्रतिमा दोनों ओर से उनकी शक्तियों की प्रतिमाओं से घिरी हुई है। वे हैं श्रीदेवी तथा भूदेवी। भीतरी गर्भगृह का प्रवेशद्वार मकर तोरण तथा फिलग्री कलाकृतियों द्वारा सुसज्जित है। प्रवेशद्वार के ऊपर भगवान विष्णु तथा देवी लक्ष्मी की मूर्तियाँ हैं। द्वार के दोनों ओर दो द्वारपालों की अत्यंत अलंकृत तथा सूक्ष्मता से उत्कीर्णित भव्य प्रतिमाएं हैं। इनके नाम हैं जय तथा विजय।
नवरंग मंडप के उत्तरी द्वार के समीप स्थित प्राचीन कन्नड़ भाषा में लिखित एक शिलालेख के अनुसार भगवान को विजयनारायण भी कहा जाता है।
चेन्नाकेशव मंदिर की बाहरी भित्तियाँ
मुख्य मंदिर की बाहरी भित्तियों पर मानवों, पशुओं, देवी तथा देवताओं की प्रतिमाएँ भव्यता से उत्कीर्णित हैं।
नवरंग मंडप की भित्तियाँ सामाजिक ताने-बाने अर्थात जीवात्मा को दर्शाती हैं, वहीं गर्भगृह की भित्तियाँ पुराणों में दर्शित आध्यात्मिक जीवन व कथाओं का अर्थात परमात्मा का चित्रण करती हैं।
मंदिर की बाहरी भित्तियों का प्रत्येक भाग व प्रत्येक कोना सूक्ष्मता से उत्कीर्णित तथा भव्यता से अलंकृत है। भित्ति के निचले भाग पर आड़ी पट्टियों में हाथी, सिंह तथा लघु प्रतिमाएं हैं जिन पर भव्य अलंकरण हैं। इन आड़ी प्रतिमाओं की पंक्तियों को तोड़ती सी मध्य में विशाल खड़ी प्रतिमाएं हैं। ये प्रतिमाएं एकल शिला पर गढ़ी तथा शिलाओं के अन्तर्गठन पद्धति द्वारा भित्तियों से गूँथी हुई हैं। इसी प्रकार का शिलाओं का अन्तर्गठन आप मंदिर की भित्तियों के चारों ओर, छत से लटकती कँगनी में भी देख सकते हैं।
गज उत्कीर्णन
यहाँ की एक अत्यंत विशेष कलाकृति ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। यहाँ हाथियों के विभिन्न मुद्राओं के लगभग ६५० शिल्प थे जिनमें प्रत्येक छवि दूसरी छवि से भिन्न थी। बाहरी भित्ति एवं नवरंग मंडप व गर्भगृह के चारों ओर लटकते कँगनी के मध्य ३८ कोष्ठक शिल्प हैं। ये शिल्प फिलग्री शैली में रचित हैं तथा मदानिकाओं द्वारा सुशोभित हैं। इन मदानिकाओं की विभिन्न नृत्य मुद्राएँ एवं कार्यकलाप इस प्रकार हैं
• दर्पण में स्वयं को निहारती एक स्त्री
• एक स्त्री की साड़ी खींचता एक बंदर
• स्नान के पश्चात केश सँवारती एक स्त्री
• धनुष पर बाण का लक्ष्य साधती एक स्त्री
• त्रिभंगी मुद्रा में खड़ी एक स्त्री जिसकी देह तीन स्थानों पर तिरछी की हुई है।
• रुद्र वीणा बजाती एक स्त्री
• कटहल के फल पर बैठी मक्षिका की ओर जीभ लपलपाती छिपकली को देखती हुई एक स्त्री
ऐसी अनेक अलौकिक सुंदरियाँ शिलाओं पर उत्कीर्णित आप देख सकते हैं। गर्भगृह की भित्तियों पर अनेक पौराणिक दृश्य सुंदरता से उत्कीर्णित हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार है:
• हिरण्यकश्यप का वध करते नरसिंह
• महिषासुरमर्दिनी
• कैलाश पर्वत उठाए रावण
• सूर्य देवता
• अंधकासुर का वध करते शिव
• रामायण एवं महाभारत की कथाएं
उत्तर दिशा में एक मंच पर एक विशाल पदचिन्ह है। यह भगवान विष्णु का पदचिन्ह माना जाता है। यदि किसी कारणवश आपको भगवान के दर्शन प्राप्त नहीं हो पाते तो आप विष्णु के इन पदचिन्हों के दर्शन कर सकते हैं।
शिलालेख
मंदिर के उत्तरी द्वार की पूर्वी भित्तियों पर प्राचीन कन्नड़ भाषा में अनेक शिलालेख हैं जो मंदिर की संरचना, इतिहास एवं दान-दक्षिणा की विस्तृत जानकारी प्रदान करते हैं। नवरंग मंडप की ओर जाते उत्तरी तथा दक्षिणी द्वारों के दोनों ओर भगवान विष्णु के छोटे मंदिर हैं।
मुख्य मंदिर के अतिरिक्त इस संकुल में अनेक अप्रतिम छोटे-बड़े मंदिर हैं। जैसे कप्पे चेन्निगरय मंदिर, वीर नारायण मंदिर, सौम्यानकि मंदिर, आँडाल मंदिर, कल्याण मंडप अथवा विवाह प्रांगण, दीपस्तंभ, पाकगृह, जलकुंड इत्यादि।
चेन्नाकेशव मंदिर संकुल के अन्य मंदिर एवं तत्व
दीपस्तंभ
मंदिर परिसर के भीतर, गोपुरम के बायीं ओर, दक्षिण दिशा में ४२ फुट ऊंचा विशाल दीपस्तंभ है जिसे एकल शिला में उकेरा गया है।
इसे गुरुत्वाकर्षण विरोधी स्तंभ भी कहा जाता है। एक ऊंची पीठिका पर यह स्तंभ बिना संबल अपने ही भार पर खड़ा है। उत्तरी दिशा में इस स्तंभ का आधार कुछ उठा हुआ है जिसके फलस्वरूप पीठिका एवं स्तंभ के मध्य अंतर है। इस अंतर में से कागज का टुकड़ा आसानी से पार हो सकता है। इसे देख मैंने दांतों तले उंगली दबा ली। कुशल और अद्भुत शिल्प कौशल का यह एक जीवंत उदाहरण है।
मेरे स्थानीय गाइड के अनुसार एक समय इस स्तंभ के चारों ओर सीढ़ियाँ थीं जिसकी सहायता से दीपस्तंभ के दीप जलाए जाते थे। वर्तमान में स्तंभ के समीप जाने एवं पीठिका पर चढ़ने की अनुमति नहीं है।
कप्पे चेन्निगरय मंदिर
दक्षिण दिशा में स्थित यह मंदिर मुख्य मंदिर का प्रतिरूप माना जाता है। इसका निर्माण राजा विष्णुवर्धन की रानी शांतला देवी ने करवाया था। इस मंदिर के भीतर भगवान विष्णु के चेन्निगरय रूप की अत्यंत मनमोहक प्रतिमा है। इस प्रतिमा की स्थापना ठीक उसी समय हुई थी जब मुख्य मंदिर में केशव के प्रतिमा की स्थापना की जा रही थी। इस मंदिर में दो गर्भगृह हैं। एक गर्भगृह कप्पे चेन्निगरय के लिए तथा दूसरा गर्भगृह वेणुगोपाल के लिए है। गर्भगृह के भीतर अन्य देवताओं की भी प्रतिमाएं थीं, जैसे गणेश, दुर्गा तथा लक्ष्मी नारायण।
गर्भगृह के भीतर की मूर्ति के विषय में एक किवदंती प्रसिद्ध है। ऐसा कहा जाता है कि जकनचारी नामक एक प्रसिद्ध शिल्पकार था जो कैदल अथवा कृदपुरा गाँव का निवासी था। उसे इस मंदिर की शिल्पकारी का उत्तरदायित्व दिया गया था। उसका पुत्र धनकांचारी पिता की खोज में बेलूर आया था क्योंकि उसने कई वर्षों से पिता को देखा नहीं था।
मुख्य प्रतिमा की शिल्पकारी
जैसे ही उसने अपने पिता को मुख्य प्रतिमा को गढ़ते देखा, उसने तुरंत पिता से कहा कि वह जिस शिला द्वारा प्रतिमा का गढ़न कर रहा है उसमें खोट है। कई वर्षों पश्चात देखने के कारण वह अपने पुत्र को पहचान नहीं पाया तथा उसकी धृष्टता पर क्रुद्ध हो गया। उसने प्रतिज्ञा की कि यदि शिला में किसी भी प्रकार का खोट पाया गया तो वह अपने हाथ काट लेगा। धनकांचारी ने शिला पर चंदन का लेप लगाया तथा उसे सूखने के लिए छोड़ दिया। दूसरे दिन देखा गया कि मूर्ति की नाभि स्थल के समीप एक भाग अब भी नम था। छेनी द्वारा ताड़ित करने पर वहाँ से जल की कुछ मात्रा बाहर आयी तथा साथ में एक मेंढक भी बाहर आया। मेंढक को कन्नड़ भाषा में कप्पे कहा जाता है।
पुत्र ने अपना परिचय दिया किन्तु वह अपने पिता को अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने से रोक नहीं पाया। पिता शिल्पकार ने अपने वचनों का पालन करते हुए अपने हाथ काट लिए। ऐसा माना जाता है कि उसी दिन से मुख्य मंदिर के देव को कप्पे चेन्निगरय कहा जाता है। यह कथा आगे कहती है कि भगवान विष्णु ने जकनचारी को आज्ञा दी कि वह अपने मूल गाँव में विष्णु को समर्पित एक और मंदिर बनाए। जकनचारी ने भगवान विष्णु की आज्ञा का पालन किया। मंदिर बनाते ही जकनचारी के हाथ वापिस आ गए। तभी से उसके गाँव का नाम कैदल पड़ गया जिसका अर्थ है वापिस आया हाथ। यह मंदिर अब भी टुमकुर जिले के कैदल गाँव में स्थित है।
वीर नारायण मंदिर
यह एक छोटा तथापि अत्यंत सुंदर मंदिर है जो पश्चिम दिशा में स्थित है। यह मंदिर वीर नारायण अथवा लक्ष्मी नारायण को समर्पित है। इस मंदिर की बाहरी भित्तियाँ ब्रह्मा, शिव, पार्वती, सरस्वती, भैरव तथा महिषासुरमर्दिनी की सुंदर प्रतिमाओं से सुशोभित है। अन्य समकालीन होयसल मंदिरों की संरचनाओं के समान यह मंदिर भी एक उठे हुए मंच पर स्थापित है। इसमें एक गर्भगृह, सुकनासी तथा एक नवरंग मंडप है।
सौम्यानकी मंदिर
केशव मंदिर के दक्षिण-पश्चिम दिशा में देवी श्रीदेवी को समर्पित यह एक महत्वपूर्ण मंदिर है। इसमें एक गर्भगृह, सुकनासी तथा एक मंडप है। मंदिर एक विमान अथवा शिखर से अलंकृत है जिसके विषय में कहा जाता है कि यह केशव मंदिर के उस मूल विमान अथवा शिखर के समान है जिसे कालांतर में गिरा दिया गया था। बाहरी भित्तियाँ अनेक शिल्पों से सुसज्जित हैं।
रंगनायकी मंदिर (आँडाल मंदिर)
केशव मंदिर के उत्तर-पश्चिम दिशा में स्थित आँडाल मंदिर एक संत कवियित्री को समर्पित है जिन्हे महालक्ष्मी का अवतार माना जाता है। दक्षिण भारत के १२ वैष्णव अलवर संतों में वे इकलौती स्त्री हैं। मंदिर की भित्तियों पर कई देवी-देवताओं की छवियाँ उत्कीर्णित हैं। मुख्य देवी-देवताओं में लक्ष्मी, मोहिनी, वेणुगोपाल तथा लक्ष्मीनारायण सम्मिलित हैं। मंदिर में एक गर्भगृह, सुकनासी तथा एक मंडप है। शिखर पर सुनहरा कलश है।
मुख्य मंदिर परिसर में स्थित अन्य मंदिर रामानुजाचार्य, कृष्ण, नरसिंह, आंजनेय तथा रामचन्द्र को समर्पित हैं। वीर नारायण मंदिर के समीप वाहन मंडप है जहां पारंपरिक रूप से शोभायात्रा में उपयोग किए गए रथ जैसे वाहनों को रखा जाता था। परिसर के दक्षिण-पूर्वी कोने में एक कल्याण मंडप भी है जहाँ विवाहोत्सव जैसे शुभ आयोजन किए जाते हैं। परिसर के उत्तर-पश्चिम कोने में धान्य संचयन के लिए भंडार तथा सामूहिक पाकशाला स्थित है।
वासुदेव सरोवर
परिसर के उत्तर-पूर्व कोने में, गोपुरम के दाहिने ओर एक छोटी कल्याणी अर्थात सीढ़ी युक्त जलकुंड अथवा बावड़ी है। जलकुंड के समीप स्थित शिलालेख के अनुसार इसे वासुदेव सरोवर भी कहा जाता है। जलकुंड के दूसरी ओर दो हाथियों की शिला प्रतिमाएं हैं। कुंड के समीप आप दो छोटे मंदिर भी देखेंगे। कुंड की ओर जाने वाला द्वार उस समय बंद था।
बेलूर चेन्नाकेशव मंदिर के मंदिर उत्सव
वार्षिक रथोत्सव बेलूर का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उत्सव है। यह उत्सव मार्च-अप्रैल मास में, उगादि अर्थात कन्नड़ नूतन वर्ष के १२ दिवसों पश्चात आयोजित किया जाता है। यह उत्सव दो दिवसों तक मनाया जाता है जब एक विशाल काष्ठी रथ पर उत्सव मूर्ति की शोभायात्रा निकली जाती है। प्रथम दिवस मंदिर के पूर्वी दिशा के भागों में तथा दूसरे दिवस मंदिर के अन्य भागों में शोभायात्रा निकली जाती है। इस वार्षिक उत्सव के उपलक्ष्य में एक जात्रा का भी आयोजन किया जाता है जो १० दिवसों तक चलता है।
यात्रा सुझाव
• बेलूर बंगलुरु से २०० किमी की दूरी पर है। बंगलुरु से इसकी एक दिवसीय यात्रा की जा सकती है। सर्वाधिक समीप स्थित नगर हासन है जहां से बेलूर एक घंटे गाड़ी चलकर पहुंचा जा सकता है।
• मेरा सुझाव है कि आप हासन में अपना पड़ाव डालें ताकि बेलूर के साथ साथ आप हैलेबिडु भी उसी दिन देख सकते हैं। हैलेबिडु भी बेलूर के समान होयसल शिल्पकला का उत्कृष्ट नमूना है।
• हासन कर्नाटक के अन्य महत्वपूर्ण नगरों एवं शहरों से सड़क एवं रेल मार्ग द्वारा सुगमता से जुड़ा हुआ है। कर्नाटक राज्य परिवहन की बसें नियमित रूप से बेलूर एवं अन्य महत्वपूर्ण नगरों के मध्य दौड़ती हैं।
• हासन में अच्छे अतिथिगृह उपलब्ध हैं। अतः यहाँ ठहरना उत्तम होगा।
• बेलूर दर्शन का सर्वोत्तम काल अक्टूबर से मार्च मास के मध्य का समय है।
• मंदिरों के दर्शन का सर्वोत्तम समय प्रातःकाल शीघ्र तथा दोपहर के अंतिम प्रहर का है।
• भोजन तथा जलपान के लिए मंदिर के समीप अनेक अच्छे जलपानगृह तथा भोजनालय उपलब्ध हैं।
• मंदिर के समीप स्थित दुकानों में शिला द्वारा निर्मित अनेक आकर्षक कलाकृतियाँ उपलब्ध हैं जिन्हे आप इस स्थान की स्मारिका के रूप में ले जा सकते हैं।
• मेरा सुझाव है कि आप गाइड की सुविधाएं अवश्य लें। गाइड संघों ने उनके शुल्क निर्देशित कर दिए हैं जो ३०० रुपये हैं।
यह संस्करण अतिथि संस्करण है जिसे श्रुति मिश्रा ने इंडिटेल इंटर्नशिप आयोजन के अंतर्गत प्रेषित किया है।
श्रुति मिश्रा व्यावसायिक रूप से बैंक में कार्यरत हैं। उन्हे यात्राएं करना, विभिन्न स्थानों के सम्पन्न विरासतों के विषय में जानकारी एकत्र करना तथा विभिन्न स्थलों के विशेष व्यंजन चखना अत्यंत प्रिय हैं। उन्हे पुस्तकों से भी अत्यंत लगाव है। उन्हे पाककला में भी विशेष रुचि है। वर्तमान में वे बंगलुरु में निवास करती हैं। उनकी तीव्र इच्छा है कि वे विरासत के धनी भारत की विस्तृत यात्रा करें तथा अपने अनुभवों पर आधारित एक पुस्तक भी प्रकाशित करें।
चेन्नाकेशव मंदिर- कर्नाटक के बेलूर की अमूल्य धरोहर:-
आपके द्वारा बेलूर व होयसल का वर्णन व चित्र देखकर वाकई आश्चर्यचकित रह गया कि भगवान की इतनी सुंदर प्रतिमाएं तथा स्त्रीयो की अलग अलग भंगिमाओं व अन्य अनुपम सुंदर प्रतिमाओं को पहले के कलाकार कैसे गढ़ लेते थे और अपनी कल्पनाओ को शिलाओं पर उतार देते थे बहुत सुंदर लेख व इतनी सुंदर जगह की जानकारी देने के लिए साधुवाद????????
फारच सुंदर कलात्मक आहे हे मंदिर दहा मार्चमध्ये एक दिवस बेलूर, हळेबिड पाहिले ..लेखिकेने याची ओळख ही चांगली करून दिली आहे .
में आज मंदिर के दर्शन करने जा रहा हूं, हसन से बस मै बैठे बैठे मैंने आपकी पूरी पढ़ ली , आपने बहुत badiya दर्शन करवा दी। धन्यवाद