मुंबई भारत की वित्तीय राजधानी है। लोकप्रिय मान्यता यह कहती है कि मुंबई महानगर के यशस्वी इतिहास का आरंभ औपनिवेशिक काल के साथ होता है। किन्तु वास्तविकता यह है कि केवल आज के आधुनिक मुंबई को ही अंग्रेजों ने बनाया था। मुंबई का वास्तविक इतिहास उससे कहीं अधिक प्राचीन है। ऐतिहासिक दृष्टि से, आज की मुंबई का प्राचीनतम विधान सोपारा से आता है जिसे अब नालासोपारा कहते हैं। नालासोपारा को मुंबई का एक तुच्छ उपनगर माना जाता है। विडंबना यह है कि मुंबई से संबंधित प्राचीनतम ऐतिहासिक प्रमाण इसी स्थान से प्राप्त होते हैं। ये प्रमाण अशोक के ९वें अध्यादेश के रूप में है जो नगर के छत्रपती शिवाजी महाराज वास्तु संग्रहालय में रखा हुआ है।
सोपारा को प्राचीनकाल में शुर्पारक(शुरपारक) कहा जाता था। इस स्थान का एक वैभवशाली इतिहास है। भारत के पश्चिमी तट पर एक महत्वपूर्ण बंदरगाह के रूप में ही नहीं, अपितु एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र के रूप में भी यह प्रसिद्ध था। सोपारा के मिस्र, यूनान, रोम तथा मध्य पूर्वी क्षेत्रों से व्यापारिक संबंध थे। आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि इसका उल्लेख २००० वर्ष प्राचीन पुस्तक, ‘PERIPLUS OF THE ERYTHRAEAN SEA’ में भी किया गया है। सोपारा को अपरांत (कोंकण का प्राचीन नाम) की राजधानी भी माना जाता था। सनातन ब्राम्हण, बौद्ध एवं जैन धर्म, भारत के ये तीनों स्वदेशी धर्मों के महत्वपूर्ण साहित्यों में सोपारा का उल्लेख प्राप्त होता है।
धर्म ग्रंथों, महाकाव्यों एवं मिथकों का सोपारा
ऐसी मान्यता है कि शुर्पारक की स्थापना भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम ने की थी। यहाँ तक कि स्थानीय प्रजा को शिक्षा प्रदान करने के लिए परशुराम संस्कृत के विभिन्न विद्वानों को यहाँ लेकर आए थे। उन्होंने अपने परशु द्वारा इस स्थान का परिरक्षण भी किया था। इसीलिए सोपारा को परशुरामतीर्थ भी कहा जाता है। परशुराम ने यहाँ दो विशाल सरोवरों का निर्माण किया था जिनके नाम थे, निर्मल व विमल।
निर्मल वह स्थान है जहां एक समाधि है। ऐसा माना जाता है कि यह समाधि ५वें शंकराचार्य विद्यारण्य स्वामी की है। कुछ शोधकर्ता इस समाधि का संबंध बाद के शंकराचार्य से जोड़ते हैं जो द्वारका से यहाँ आए थे। निर्मल सरोवर के महत्व का अनुमान आप इस तथ्य से लगा सकते हैं कि इसके नाम पर एक स्थलपुराण भी है जिसका नाम है, निर्मल माहात्मय। पद्म पुराण में १०८ तीर्थों का उल्लेख है। उनमें निर्मल को सर्वाधिक पवित्र स्थलों में से एक माना गया है।
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बौद्ध परम्पराएं
सोपारा का बौद्ध परंपराओं में एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। अपने पूर्व जन्म में गौतम बुद्ध ने बोधिसत्व सुप्पारका के रूप में जन्म लिया था। बोधिसत्व पुन्ना(पूर्णा) की कथाओं में भी कहा गया है कि जब पुन्ना श्रावस्ती गए थे तब उनके अनुनय पर बुद्ध सुप्पारका आए थे। जब बुद्ध यहाँ आए थे तब उन्होंने सनातन ब्राम्हण ऋषि वक्कली एवं ५०० विधवाओं को बौद्ध धर्म में धर्मांतरण किया था। बुद्ध ने उन्हे स्मृतिचिन्ह के रूप में अपने नख एवं कुछ केश दिए थे। ऋषि एवं विधवाओं ने बुद्ध की इन स्मृतियों पर एक स्तूप का निर्माण किया जिसे विधवाओं का स्तूप कहा जाता है।
यहाँ से प्राप्त, ८वीं एवं ९वीं सदी के अशोक शिलालेख इस ओर संकेत करते हैं कि ३री सदी में इस स्थान की महत्ता अपनी चरम सीमा पर थी। अशोक ने अपने एक धर्म-प्रचारक, यवन धम्मरखिता(धम्मरक्षिता) को बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपरांत(कोंकण) भेजा था। कहा जाता है कि उस प्रचारक ने ७०,००० श्रोताओं को बौद्ध धर्म में धर्मांतरित किया था। शोधकर्ताओं का मानना है कि धम्मरक्षिता ने इस स्थान को अपनी मूल कर्मभूमि बनाई थी। यहीं से उसने पश्चिम भारत में बौद्ध धर्म का प्रसार किया था।
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जैन ग्रंथ
जैन साहित्यिक ग्रंथ भी सोपारा को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हैं। जैन धर्म के अनुयायी सोपारा को पवित्र शत्रुंजय पहाड़ी की प्राचीन तलेटी मानते हैं। शत्रुंजय, जिसे सामान्यतः पालीताना भी कहा जाता है, श्वेताम्बर जैनियों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तीर्थ है। १४वीं शताब्दी के आचार्य जीनाप्रभासूरी ने अपनी रचना ‘विविध तीर्थ कल्प’ में उल्लेख किया है कि सोपारा जैनियों के ८४ सर्वाधिक महत्वपूर्ण तीर्थों में से एक है। उन्होंने यह भी कहा कि यहाँ आदिनाथजी की प्रतिमा भी थी जिसे भक्तगण पूजते थे। जैन भक्तों की मान्यता है कि यह आदिनाथ की जीवितस्वामी प्रतिमा थी, अर्थात् तीर्थंकर के जीवनकाल में बनाई गई थी। १२२३ ई. से १२८३ ई. के मध्य एक धनी व्यापारी, पेठद शाह ने सम्पूर्ण भारत में कुल ८४ मंदिरों का निर्माण करवाया था। उनमें से ५१वां मंदिर एक पार्श्वनाथ मंदिर था जो सोपारा में स्थित था।
कालांतर में इस क्षेत्र में जैनियों की जनसंख्या में भारी कटौती हुई। जीविका की खोज में मुंबई के सम्पन्न क्षेत्रों की ओर तेजी से पलायन इसका प्रमुख कारण है। प्राचीन काल में, रेल परिवहन का मानवी जीवन में पदार्पण से पूर्व, अनेक जैन व्यापारी यहाँ आकर बस गए थे। उन्होंने देशीय एवं समुद्री मार्ग द्वारा अन्तर्देशीय व्यापार में अपना सिक्का जमा लिया था। आगाशी के चलपेठ में स्थित लगभग २०० वर्ष प्राचीन जैन मंदिर इसका जीवंत प्रमाण है। इसकी स्थापना एक धनी व्यापारी मोतिशा सेठ ने करवाई थी जो अपने अन्य व्यापारों के अतिरिक्त अन्तर्देशीय व्यापार में भी एक सफल व्यापारी थे।
महाकाव्य महाभारत का कथन है कि जब अर्जुन भारत के पश्चिमी तटों के विभिन्न स्थानों की यात्रा कर रहे थे तब वे अतिपावन शुर्पारक भी आए थे। पउमचरियम, जो रामायण का जैन संस्करण है, उस में उल्लेख है कि शुर्पारक उन अनेक स्थलों में से एक है जिस पर लव-कुश ने विजय प्राप्त की थी।
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प्राचीन यात्रियों के संस्मरण
मानवों में अपने मस्तिष्क में उभरते प्रश्नों के उत्तर खोजने की सदा से ही एक ललक रही है। यात्रा मानवजाति की उसी कुतूहलता का परिणाम है। फिर भले ही यात्रा धार्मिक हो या आनंद के लिये, प्रिय रुचि से संबंधित हो अथवा दैनंदिनी जीवन की विरक्ति से मुक्ति पाने के लिए हो। जहां तक सोपारा का प्रश्न है, इसने प्राचीन काल से सभी धर्मों व पंथों के तीर्थ यात्रियों को आकर्षित किया है। आईए, उनमें से कुछ विशेष यात्रियों के विषय में जानते हैं।
प्रथम शताब्दी से ही अनेक यात्रियों के यात्रा संस्मरणों में सोपारा का उल्लेख मिलता है। एक अज्ञात लेखक की पुस्तक, ‘Periplus Of The Erythraean Sea’ में अनेक स्थानों पर सोपारा का उल्लेख किया गया है। तत्पश्चात, ग्रीक भूगोलवेत्ता क्लाडियस टॉलमी ने इस स्थान को अरियाके कहा है तथा यहाँ की नदियों के विषय में भी विवरण प्रस्तुत किया है। किन्तु कुछ शोधकर्ताओं के अनुसार इसकी अवस्थिति सटीक अंकित नहीं है। इन दोनों कृतियों में जो तथ्य स्पष्ट है, वह ये कि सोपारा या औप्पारा अथवा अरियाके एक महत्वपूर्ण बंदरगाह था। उनमें इस स्थान को कल्याण एवं भरूच को जोड़ने वाली कड़ी भी कहा गया है।
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६वीं सदी में ग्रीक व्यापारी तथा भिक्षु कोसमास इंडिकोप्लेयस्टेस ने कल्याण के निकट सीबोर का संदर्भ दिया था। १०वीं सदी में अरब यात्री अल मसुदी ने थाना के साथ सुबारा का भी उल्लेख किया था। फारसी यात्री इब्न हाउकल व अल इस्तखु तथा अरब भूगोलवेत्ता अल बिरुनी ने क्रमशः सुर्बारह, सुरबाया तथा सुबारा का संदर्भ दिया था। १२वीं सदी में अफ्रीका के भूगोलवेत्ता अल इदरिसी ने सुबारा को भारत का महान बिक्री भंडार कहा था। सन् १३२२ में ईसाई प्रचारक जॉर्डनस ने थाना के मुसलमानों के साथ संघर्ष का उल्लेख किया था। उसने, उस काल में, सोपारा में ईसाइयों की उपस्थिति की ओर भी संकेत किया था। उसने अपने यात्रा संस्मरण में सुपेरा होते हुए थाना से ब्रोच जाने का विवरण दिया है।
साहित्यों में उल्लेखित सोपारा के विभिन्न नाम
साहित्यों में अनेक स्थानों पर सोपारा का उल्लेख किया गया है। उसे विभिन्न नामों से संबोधित किया है। वे नाम हैं, सोपारा, सुरपुर, शुर्पारक, सोपारक, सोपार, सुरपक्का, सुर्पापारक, सुर्पारक, सुरीपक्का, सुम्हला, सहुआला, सुहालक, सुम्हलका, सुम्हलाका, सोपारपुर, सोपारपुर पट्टन, सोफिर, ओफिर, सोपारग, सहुपारा, सोर्पारक, सुपारिक इत्यादि।
आधुनिक यात्रियों के लिए सोपारा के मायने
सोपारा ऐसा स्थल है जो हर प्रकार के यात्रियों की रुचि को संतुष्ट करने की क्षमता रखता है, वह चाहे यात्रा में आनंदित होने वाले घुमक्कड़ हों या कला के क्षेत्र में रुचि रखने वाले यात्री, किसी स्थान के वैभवशाली इतिहास को जानने में रुचि रखने वाले हों अथवा आध्यात्मिक कारणों से यात्रा करने वाले तीर्थयात्री।
ये हैं सोपारा के कुछ दर्शनीय स्थल:
१. बुद्ध स्तूप
२. चक्रेश्वर तलाव तथा उसके निकट स्थित प्रतिमाएं
३. निर्मल शंकराचार्य समाधि
४. चलपेठ जैन मंदिर
५. आगाशी हनुमान मंदिर तथा पुष्करणी
६. जीवदानी मंदिर
७. वसई दुर्ग
८. नंदखल गिरिजाघर तथा वसई के अन्य प्राचीन गिरिजाघर
९. दिवस भर की थकान मिटाने के लिए अनेक समुद्र तट
बुद्ध स्तूप – सोपारा
बुद्ध स्तूप का स्थल, जिसे स्थानीय स्तर पर बरूड राजाचा कोट कहा जाता है, इसका उत्खनन सन् १८८२ में भगवानलाल इंद्राजी ने करवाया था। यहाँ से ईंटों से बना एक कक्ष उत्खनित किया गया था जिसके भीतर पत्थर का एक बड़ा सन्दूक प्राप्त हुआ था। इस सन्दूक में बुद्ध की धातु में बनी ८ मूर्तियाँ थी जिनमें मैत्रेय बुद्ध की भी एक प्रतिमा सम्मिलित थी। इनके अतिरिक्त रत्नों से भरी तांबे की मंजूषा, स्वर्ण पुष्प, सुगंधित चूर्ण, आभूषण, भिक्षापात्र जैसे बुद्ध के स्मृतिचिन्ह, गौतमीपुत्र सत्करणी का प्रथम शताब्दी का रजत सिक्का इत्यादि भी प्राप्त हुए थे।
इस स्तूप का निर्माण काल ३री सदी आँका गया है। निकट स्थित भटेला कुंड से सम्राट अशोक द्वारा घोषित ८वां आज्ञापत्र एक शिलालेख के अवशेष के रूप में प्राप्त हुआ था। यह शिलालेख अध्यादेश न केवल सोपारा का, अपितु मुंबई के आरंभिक अस्तित्व का प्रमाण है।
चक्रेश्वर तलाव
चक्रेश्वर तलाव अनेक अर्थों में अत्यंत महत्वपूर्ण है। हिन्दू अनुयायियों की प्रतीति है कि चक्रेश्वर तलाव उस समय अस्तित्व में आया जब भगवान कृष्ण के अपने चक्र के द्वारा इस जलस्त्रोत की खुदाई की। वहीं जैन धर्म के अनुयायी मानते हैं कि इसका संबंध प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ की यक्षिणी से था। आधुनिक काल के चक्रेश्वर तलाव ने अब एक अत्यंत ही परिवर्तित स्वरूप अपना लिया है। इसे अत्यंत स्वच्छ एवं सुंदर रूप प्रदान कर इसके चारों ओर दौड़ने व सैर करने के लिए पथ का निर्माण किया गया है। जहां तक एक यात्री का प्रश्न है, उसकी दृष्टि से चक्रेश्वर तलाव की महत्ता का कारण इसके निकट स्थित चक्रेश्वर महादेव मंदिर है।
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चक्रेश्वर महादेव मंदिर
इस मंदिर के वास्तविक उद्भव के विषय में विवाद है क्योंकि इसके उद्भव के विषय में लोगों की भिन्न भिन्न धारणाएं हैं। किन्तु अधिकतर इतिहासकारों तथा पुरातत्ववेत्ताओं का मानना है कि यह मंदिर १९वीं सदी में अस्तित्व में आया है। आज इसे चक्रेश्वर महादेव मंदिर कहा जाता है। यह मंदिर यहाँ का प्रमुख आराधना स्थल होते हुए भी, लोगों की कल्पना से विपरीत, एक भव्य मंदिर नहीं है। ऐसी मान्यता है कि यह वही स्थान है जहां स्वामी समर्थ रहते थे। यह मंदिर अक्कलकोट स्वामी मठ से लगा हुआ है जहां स्वामी मयूरानंद की समाधि है।
इस मंदिर का मुख्य आकर्षण है इसकी पुरातनता जो बड़ी मात्रा में इसके आसपास पसरी हुई है। मंदिर के भीतर तो प्रतिमाएं हैं ही, मंदिर के बाहर, इसके परिसर में भी चारों ओर अनेक शिल्प हैं।
हम इन प्रतिमाओं का विस्तृत रूप से अवलोकन करेंगे। शैलीगत रूप से कुछ प्रतिमाएं १०वीं से ११वीं सदी की भी हैं।स्थानीय मान्यता है कि अधिकतर मूर्तियों को चक्रेश्वर तलाव से निकाला गया था। मूल मंदिर को नष्ट करते समय पुर्तगलियों ने इन मूर्तियों को इस तालाब में डाला था।
स्थानीयों की एक अन्य मान्यता के अनुसार, पुर्तगाली आक्रमणकारियों से इन मूर्तियों का रक्षण करने के लिए, यहाँ के लोगों ने ही जानबूझ कर उन्हे तलाव में डाल दिया था।
दोनों संदर्भों से एक तथ्य स्पष्ट है कि स्थानीयों के मस्तिष्क में पुर्तगलियों की स्मृति किसी घाव के समान चिन्हित है।
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निर्मल शंकराचार्य मंदिर
निर्मल एक विलक्षण गाँव है जिसे भक्तगण अत्यंत पावन मानते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार परशुराम ने निर्मल की रचना की थी। ऐसा माना जाता है कि परशुराम ने समुद्र की ओर एक तीर फेंका जिससे समुद्र का जलस्तर घट गया तथा एक नवीन भूमिखण्ड का जन्म हुआ। परशुराम ने उस भूमि पर ब्राह्मणों को बसाया। निर्मल उसी भूमिखण्ड का भाग है। यह पूर्ण दंतकथा निर्मल माहात्मय नामक स्थलपुराण में अभिलेखित है। इस पुराण में परशुराम एवं निर्मल या सोपारा में किये उनके विजय अभियानों के अनेक उल्लेख हैं। यह पुराण परशुराम द्वारा रचित दोनों तीर्थ, निर्मल एवं विमल के विषय में भी विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है।
निर्मल से संबंधित मान्यताओं का साक्षी है निर्मल पहाड़ी के शीर्ष पर स्थित जगतगुरु शंकराचार्य मंदिर। इस मंदिर का संबंध शंकराचार्य से जोड़ने के विषय में भिन्न भिन्न मत हैं। कुछ का विश्वास है कि यहाँ ५वें शंकराचार्य विद्यारण्य स्वामी की समाधि है। वहीं कुछ की मान्यता है कि यह कालांतर में गुजरात से आकर बसे शंकराचार्य की समाधि है। दोनों ही मान्यताओं में इस मंदिर का संबंध शंकराचार्य से ही है। वर्तमान में जो मंदिर यहाँ है वह एक आधुनिक पुनर्निर्माण है।
चलपेठ जैन मंदिर
यह मंदिर २०वें जैन तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी को समर्पित है। इसका निर्माण १९वीं शताब्दी के आरंभ में सेठ मोती चंद द्वारा किया गया था जो मुंबई के एक समृद्ध व्यापारी थे। इस विषय में कुछ लोग सेठ मोती शाह का संदर्भ भी देते हैं जो सेठ मोती चंद के पिता थे। यह मंदिर लगभग १९० वर्ष प्राचीन है। इसके निर्माण के विषय में एक रोचक कथा प्रचलित है।
किवदंतियों के अनुसार लगभग २५० वर्षों पूर्व तीर्थंकर की एक प्रतिमा चक्रेश्वर तलाव से प्राप्त हुई थी। निकटवर्ती क्षेत्रों के बड़े बड़े जैन संघों में होड़ सी लग गई। सभी उस प्रतिमा को अपने अपने क्षेत्रों में ले जाकर मंदिर का निर्माण करना चाहते थे। जब यह विवाद अपनी चरम सीमा पर था, तब बिना बैल की एक बैलगाड़ी वहाँ आकर रुकी। उसे देख सभी आश्चर्यचकित हो गए थे। मंत्रमुग्ध से उन्होंने उस प्रतिमा को बैलगाड़ी में रख दिया। बैलगाड़ी स्वयं ही चलने लगी। बिना बैल की बैलगाड़ी को स्वयं ही जाते देख सभी स्तब्ध थे। वे बैलगाड़ी का पीछा करने लगे। उस स्थान से लगभग ५ से ७ किलोमीटर दूर जाकर बैलगाड़ी स्वयं ही रुक गई। यह स्थान आगाशी का चलपेठ क्षेत्र था। सभी लोग सर्वसम्मति से इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि उस प्रतिमा को वहीं एक छोटे से कक्ष के भीतर स्थापित किया जाए। इस प्रकार चलपेठ जैन मंदिर में तीर्थंकर की प्रतिमा स्थापित हुई।
सन् २०१९ में इस मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया था। आज यह मंदिर अपने नवीनतम स्वरूप में विद्यमान है।
आगाशी हनुमान मंदिर तथा पुष्करणी
जैन मंदिर से केवल एक किलोमीटर दूर ही पेशवा काल का एक शिव मंदिर है। आगाशी में स्थित इस शिव मंदिर का सन् २०१२-१३ में जीर्णोद्धार किया गया जिसके पश्चात अब इसे हनुमान मंदिर के रूप में पूजा जाता है। इस मंदिर से लगी हुई इसकी एक अत्यंत सुंदर पुष्करणी है। प्राचीन काल में लगभग सभी प्रमुख उत्सवों के समारोहों के लिए यह एक लोकप्रिय स्थल हुआ करता था। पूर्व में यह पुष्करणी अनेक मनमोहक प्रतिमाओं एवं शिल्पों से अलंकृत थी किन्तु उनमें से अधिकतर प्रतिमाएं अब अस्तित्व में नहीं हैं। दुर्भाग्य से जीर्णोद्धार में मंदिर का मूल स्वरूप भी खो गया है। प्राचीन भित्तियों एवं सतहों का स्थान अब टाइलों एवं तैलीय रंगों ने ले लिया है। ये तथ्य भले ही एक यात्री अथवा धरोहर प्रेमी के हृदय को दुख पहुंचाएं, फिर भी यह एक अत्यंत दर्शनीय स्थल है। आगाशी तलाव से लगा हुआ एक भवानी मंदिर है। संयोग से, उपरोक्त उल्लेखित मंदिरों के समान, इस मंदिर से संबंधित भी एक रोचक दंतकथा है।
एक प्रचलित दंतकथा के अनुसार, सांगली के पटवर्धन राज-परिवार का एक सदस्य एक असाध्य रोग से ग्रसित हो गया था, जिसके कारण वह अत्यंत दुखी था। एक रात्रि उसके स्वप्न में उसे एक देवी ने दर्शन दिए तथा कहा कि यदि उसे उस असाध्य रोग से मुक्ति पानी हो तो इस क्षेत्र के आगाशी गाँव में जाये। वहाँ जाकर स्वयं के व्यय पर एक जलकुंड का निर्माण करे। छः मास वहाँ वास करे तथा उस जलकुंड के जल में स्नान करे। रोग से त्रस्त उस व्यक्ति ने ठीक वैसा ही किया जैसा देवी ने कहा था। छः मास तक जलकुंड में स्नान करने के पश्चात वह रोगमुक्त हो गया।
अब तक आप जान ही गए होंगे कि यह तलावों एवं जलस्त्रोतों की भूमि है। ऐसे अनेक संदर्भ हैं जहां इस क्षेत्र को १०८ कुंडों की भूमि कहा गया है!
जीवदानी मंदिर
जीवदानी मंदिर एक पहाड़ी के शीर्ष पर स्थित है जिसे स्थानीय लोग जीवदानी कहते हैं। यद्यपि यह एक आधुनिक मंदिर है तथापि यह स्थानीय भक्तों के साथ साथ दूर-सुदूर से आए तीर्थयात्रियों के लिए भी अत्यंत पूजनीय है। इस मंदिर की मुख्य देवी जीवदानी माता है। माता की एक झलक पाने के लिए अनेक श्रद्धालु एक छोटी पगडंडी से पहाड़ी पर चढ़ते हैं। यह मंदिर एक गुफा के भीतर स्थित है जो मूलतः कुछ बौद्ध गुफाओं का एक भाग था। मंदिर की गुफा से लगी अन्य गुफाओं में लोगों ने अतिक्रमण कर लिया है। वहाँ वे दुकानें लगा कर जलपान की वस्तुएं एवं पूजा सामग्रियों की विक्री कर रहे हैं। एक जर्जर गुफा के एक भाग में तो मंदिर में दर्शन के लिए जाते भक्तों के पादत्राण भी सुरक्षित रखे जा रहे थे। यह सब देखना अत्यंत दुखद था।
वसई दुर्ग
वसई दुर्ग उन सर्वाधिक प्रतिष्ठित स्मारकों में से एक है जिसका दर्शन प्रत्येक यात्री करना चाहेगा। वसई दुर्ग इस क्षेत्र के लगभग ६०० वर्षों के इतिहास तथा हस्तांतरणों का गौरवशाली साक्षी रहा है। यद्यपि यह दुर्ग वसई में स्थित है तथापि यहाँ वैतरणी एवं उल्हास नदियों के सम्पूर्ण क्षेत्र को सोपारा माना गया है। यह दुर्ग इस क्षेत्र की सर्वाधिक दक्षिणी सीमा को अंकित करता है।
नाथाराव सिंह भण्डारी भोगले ने १४वीं शताब्दी में इस दुर्ग का निर्माण करवाया था। कालांतर में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने इस पर विजय प्राप्त की थी। तत्पश्चात पुर्तगालियों ने बहादुर शाह से न केवल यह दुर्ग जीता, अपितु उस का अत्यधिक विस्तार भी किया। तदनंतर उन पुर्तगलियों ने लगभग २०० वर्षों तक इस दुर्ग को अपना सैन्य संचालन केंद्र बनाया। अंत में मराठा पेशवा चिमाजी अप्पा ने पुर्तगलियों को परास्त किया। अंततोगत्वा यह दुर्ग अंग्रेजों के हाथ चला गया। इस दुर्ग का यही नानारूप इतिहास पर्यटकों को, विशेष रूप से इतिहास के शोधकर्ताओं व इतिहास में रुचि रखने वालों को अत्यंत आकर्षित करता है।
एक समय इस दुर्ग के भीतर ७ गिरिजाघर थे। उनमें से ५ अब भी अस्तित्व में हैं। उनमें से एक गिरिजाघर उपयोग में है। दुर्ग के भीतर एक वज़्रेश्वरी मंदिर है जिसे चिमाजी अप्पा ने बनवाया था।
गिरिजाघर
इस क्षेत्र में लगभग २ शताब्दियों तक पुर्तगाली शासन होने के कारण इस सम्पूर्ण क्षेत्र में अनेक सुंदर प्राचीन गिरिजाघर हैं। उनमें से नंदखल गिरिजाघर एवं आवर लेडी ऑफ रेमेडी गिरिजाघर प्राचीनतम एवं भव्य गिरिजाघरों में से हैं। आवर लेडी ऑफ रेमेडी गिरिजाघर को रमेदी माता चर्च भी कहते हैं।
नंदखल का होली स्पिरिट गिरिजाघर एवं दक्षिण वसई का आवर लेडी ऑफ रेमेडी गिरिजाघर, इन दोनों का निर्माण १६वीं सदी के दूसरे भाग में हुआ था। पुनः, अन्य धार्मिक किवदंतियों के समान, ईसाइयों का भी मानना है कि वसई को स्वयं प्रभु ने ५३ मीठे जल के स्त्रोतों से अभिमंत्रित किया है। इस स्थान के विषय में एक अत्यंत रोचक तथ्य जो उभरकर आता है, वह यह है कि सभी धर्मों में यहाँ के जलस्त्रोतों की महत्ता थी।
समुद्रतट
सोपारा की यात्रा का सर्वोत्तम समापन, समुद्र तट पर बैठकर शांत चित्त सूर्यास्त को देखने से उत्तम कुछ हो ही नहीं सकता। सोपारा का लंबा समुद्र किनारा होने के कारण यहाँ आपको अनेक सुंदर समुद्र तट मिलेंगे। उनमें प्रमुख हैं, अरनाला, भुईगाँव, रजोडी, कलंब, नवापुर एवं रानगाँव। इन सभी समुद्र तटों से सूर्यास्त का अप्रतिम दृश्य देखने मिलता है। सोपारा दर्शन के जिस भी अंतिम पड़ाव पर आप पहुंचेंगे, उसी अनुसार इनमें से निकटतम समुद्र तट का आप चुनाव कर सकते हैं। सोपारा के प्रत्येक दर्शनीय स्थल से इनमें से एक तट पर आसानी से पहुंचा जा सकता है।
मोनीश दीपक शाह द्वारा अभिदत्त यह एक अतिथि संस्करण है। जब तक किसी अन्य को श्रेय ना दिया हो, सभी छायाचित्र भी श्री शाह द्वारा ही प्रदत्त हैं।
मोनीश दीपक शाह व्यवसाय से एक अभियंता हैं जिन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय से इलेक्ट्रानिक्स एवं दूरसंचार में स्नातक की उपाधि प्राप्त की है। पुरातत्व एवं इतिहास के क्षेत्र में अत्यधिक रुचि होने के कारण अपने अध्ययनक्षेत्र में परिवर्तन करते हुए उन्होंने तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ, पुणे से भारतीय विद्या में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय से पुरातत्व, जैन शास्त्र एवं पुराण शास्त्र में विविध डिप्लोमा भी अर्जित किए हैं। व्यावसायिक रूप से उन्होंने ‘Robotics and Embedded Systems’ के क्षेत्र में कार्य किया है। वर्तमान में वे निर्माण उद्योग में कार्यरत हैं। अपने प्रिय विषय, पुरातत्व, जैन शास्त्र तथा इतिहास के क्षेत्र में कार्य करने का कोई भी अवसर वे चूकते नहीं है। ‘Indica Yatra Conference’ सहित अनेक राष्ट्रीय सम्मेलनों में उन्होंने अपने शोध पत्र प्रस्तुत किए हैं। वर्तमान में वे सोपारा एवं जैन शास्त्र के क्षेत्र में अनेक पुरातात्विक विषयों पर शोध कार्य कर रहे हैं। उनके कार्य के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए ‘BawArchaeology on Instagram’ पे संपर्क करें।
एक इंजिनीयर व्दारा लिखीत तथा एक इंजिनीयर व्दारा उत्कृष्ट अनुवादित लेख किसी कादंबरीसे कम नही है. दुसरी शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक का चुनींदा शब्दो व्दारा वर्णन बहुतही रोचक एवं भावपुर्ण है.
उसमे किंवदंतियों सहित ऐतिहासिक और भौगोलिक वर्णन अचंभित करनेवाला है.नालासोपारा याने शुर्पारक की स्थापना और निर्मल सरोवर का निर्माण परशुरामजी व्दारा किया गया जानकर आश्चर्य हुवा. लेख से प्रतित होता है की गौतम बुध्द से अशोक तक और उसके बाद अन्य बौध्द धर्मियोंने भी इसके उत्थान में अत्यन्त योगदान दिया. जैन धर्मीयोने भी इस स्थान को अपना महत्वपुर्ण तिर्थस्थल माना और इसे अंतर्देशीय व्यापारिक स्थल बनाया जानकर खुशी हुई.
लेख व्दारा जाना की पुर्तगालियों ने भी यहां दो शताब्दी तक राज किया वैसेही वसई दुर्ग से अपना सैन्य संचालन किया और अनेक गिरजाघरों का निर्माण करवाया.
नालासोपारा के सभि दर्शनीय स्थलों की सुंदर और सटिक जानकारी के लिए आपको अनेकानेक धन्यवाद.
आपके स्नेहाशीष के लिए धन्यवाद
अनुराधा जी,मुंबई के सोपारा के पास स्थित विभिन्न मंदिरों ,तीर्थ तथा पर्यटन स्थलों की विस्तृत जानकारी प्रदान करता बहुत ही सुंदर आलेख । वर्तमान नाला सोपारा का इतना प्राचीन ऐतिहासिक तथा पौराणिक वैभवशाली इतिहास हैं यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ । सदियों पुरानी पुस्तक में भी इस क्षेत्र का तथा विभिन्न देशों के साथ यहाँ के व्यापारिक संबंधों का,पुरातन काल में क्षेत्र की सामाजिक संरचना का उल्लेख होना हतप्रभ करने के लिये पर्याप्त है । समय समय पर यहाँ सनातन,बौद्ध तथा जैन धर्मों का प्रचार प्रसार होना यहाँ के धार्मिक उत्थान को भलीभाँति इंगित करता हैं ।
ज्ञानवर्धक सचित्र आलेख हेतु आप,मोनीशजी तथा मीता जी के लिये साधुवाद !
धन्यवाद प्रदीप जी
Ye blog post bada hi sundar aur acche se likha gya h.
Mje isko padker kafi jaankari mili.
Thanks
धन्यवाद विपिन जी