मंदिरों क्यों जाएँ और कैसे जाएँ – श्री रामकृष्ण कोंगल्ला से जानें

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अनुराधा गोयल: जैसा कि आप जानते हैं, मैंने अनेक मंदिरों के विषय में लिखा है। मुझे मंदिरों का भ्रमण करना  अत्यंत भाता है। ना केवल आध्यात्मिक दृष्टि से, अपितु मंदिरों की वास्तुकला एवं शिल्पकला में भी मेरी अत्यधिक रुचि है। इसीलिए आज मैंने एक ऐसे अतिथि को यहाँ आमंत्रित किया है जो मंदिरों की वास्तु, शिल्पकला एवं उनके महत्व की विवेचना करने में दक्ष है। वे हमें मंदिरों की सूक्ष्म से सूक्ष्म विशेषताओं एवं विभिन्न आयामों के विषय में जानकारी देंगे जिन्हे हम मंदिर में दर्शन करते समय सामान्यतः अनदेखा कर देते हैं अथवा उपेक्षा कर देते हैं। आईए, आपका परिचय हमारे आज के अतिथि श्री रामकृष्ण कोंगल्ला से कराती हूँ, जो व्यवसाय से पर्यटक क्षेत्र के एक विद्याविद हैं। किन्तु, उनके ट्विटर, इंस्टाग्राम इत्यादि देखने के पश्चात आप मंदिरों से उनके अंतरग नाते को समझ पाएंगे। यदि उन्हे भारतीय मंदिरों का अध्ययन करते विद्वानों व शोधकर्ताओं के जग तथा उन मंदिरों में प्रार्थना करने के लिए जाने वाले जनसामान्य के विश्व के मध्य एक अद्भुत सेतु की संज्ञा दी जाए तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी।

रामकृष्ण कोंगल्ला जी, आपका डीटूर्स में स्वागत है।

रामकृष्ण कोंगल्ला: नमस्ते। मेरा परिचय देने के लिए आपका धन्यवाद।

यूट्यूब में डीटूर्स का विडिओ : भारतीय मंदिरों के दर्शन कैसे करें? रामकृष्ण कोंगल्ला के साथ

इंडिटेल्स के यूट्यूब चैनल पर, उपरोक्त विषय पर, निम्न लिखित वार्तालाप सुनें।

भारतीय मंदिरों के दर्शन कैसे करें – रामकृष्ण कोंगल्ला के विचार

अनुराधा: रामकृष्ण जी, आज हम एक ऐसे विषय पर चर्चा करेंगे जो हम दोनों को अत्यंत प्रिय है। मंदिर! हम में से अधिकतर लोग मंदिर जाकर, भगवान के समक्ष खड़े होकर कुछ क्षण प्रार्थना करते हैं, प्रसाद ग्रहण करते हैं, तत्पश्चात मंदिर से बाहर आ जाते हैं। यदि मंदिर प्राचीन हो व अत्यंत आकर्षक हो तो कुछ क्षण उसकी वास्तुकला एवं सुंदरता को निहारते हैं। हम में से अधिकतर लोगों के लिए मंदिर के दर्शन का यही अर्थ है। किन्तु जितना मैंने सुना एवं पढ़ा है, मंदिरों को विशेष वास्तुकला एवं रूपरेखा के अंतर्गत बनाया गया है, विशेषतः प्राचीन मंदिरों को। उनकी संरचना में एक सम्पूर्ण शास्त्र समाहित है। मंदिरों के दर्शन कैसे करना चाहिए, दर्शन के समय किन किन महत्वपूर्ण तत्वों पर विशेष ध्यान देना चाहिए, क्या आप हमें बताएंगे?

रामकृष्ण: जी। यदि आपकी आज्ञा हो तो इस चर्चा का आरंभ करने से पूर्व, मैं जबाला उपनिषद से एक अप्रतिम श्लोक का उल्लेख करना चाहता हूँ। इस चर्चा में यह श्लोक अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध होगा।

शिवमात्मनि पश्यन्ति प्रतिमासु न योगिनः।

अज्ञानां भावनार्थाय प्रतिमा परिकल्पिता।।

भगवान शिव तो योगी एवं साधुओं के हृदय में बसते हैं। उन्हे मंदिरों में जाकर शिव की प्रतिमा के दर्शन करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह तो हम साधारण एवं अज्ञानी लोग हैं जिन्हे मंदिर जाकर शिव की प्रतिमा के दर्शन की आवश्यकता पड़ती है। हिन्दू धर्म में इसकी स्पष्ट व्याख्या की गई है। सनातन धर्म के साहित्य में भी इसका उल्लेख किया गया है। कालांतर में मूर्ति पूजा की संकल्पना उदित हुई जिसे पाश्चिमात्य उल्लेखों में नकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया।

हमें इस सत्य को समझने की आवश्यकता है कि हम मूलतः अज्ञानी हैं। आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने की उत्सुकता में हमें मंदिरों में जाने की आवश्यकता प्रतीत होती है। जबाला उपनिषद में इसका स्पष्ट उल्लेख है। मंदिर में हमें दो महत्वपूर्ण तत्वों पर लक्ष्य केंद्रित करने की आवश्यकता है, गर्भगृह एवं मंडप।

गर्भगृह

मंदिर में जिस कक्ष में मूल मूर्ति, मूल नायक अथवा प्रमुख देव स्थापित होते हैं, उसे गर्भगृह कहते हैं। यह चारों ओर भित्तियों से घिरा एक छोटा सा कक्ष ऊर्जा से परिपूर्ण होता है। गर्भगृह में उपस्थित ऊर्जा एक अन्य विस्तृत चर्चा का विषय है।

दक्षिण भारतीय मंदिर का गर्भगृह
दक्षिण भारतीय मंदिर का गर्भगृह

आपने मंदिर के गर्भगृह के प्रवेश द्वार के दोनों ओर भक्तों को पंक्तियों में खड़े देखा होगा। वे इस प्रकार इसीलिए खड़े रहते हैं ताकि गर्भगृह से निकलती ऊर्जा को वे अवशोषित कर सकें। किन्तु अधिकांश लोगों को गर्भगृह तथा भगवान की मूर्ति से उत्सर्जित ऊर्जा के विषय में जानकारी नहीं होती। अनेक लोगों को यह रूढ़िवादी परंपरा प्रतीत होती है तो कुछ लोगों को यह आधुनिकता के विपरीत जान पड़ती है। अतः वे गर्भगृह के इस तत्व की उपेक्षा करते हैं।

मंडप

जब हम गर्भगृह के समक्ष खड़े होकर मूल मूर्ति या प्रमुख विग्रह  के दर्शन करते हैं, तब हम वास्तव में मंडप के भीतर खड़े होते हैं। मंडप गर्भगृह के समक्ष स्थित होता है। हमें मंडप में बैठकर कम से कम ५-१० मिनट व्यतीत करना चाहिए। वर्तमान में प्रायः हम देखते हैं कि लोग मंडप की भूमि को हाथ से स्पर्श कर बाहर आ जाते हैं। कुछ लोग इस परंपरा की खानापूर्ति करते हुए बैठते तो हैं किन्तु उसी क्षण उठकर बाहर आ जाते हैं। किन्तु ऐसा करने से मंदिर के दर्शन के मूल सिद्धांत की उपेक्षा होती है।

हिन्दू मंदिर का मंडप
हिन्दू मंदिर का मंडप

हमें मंडप में क्यों बैठना चाहिए? मंदिर में अनवरत होते मंत्रों के जप, पूजा-अर्चना, आरती एवं अन्य अनुष्ठानों के कारण मंदिर का स्थल सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण हो जाता है। वहाँ बैठने से हमारे भीतर इस सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है तथा हमारे मन में सकारात्मक भावनाएं उत्पन्न होती हैं।

घरों में अगरबत्ती जलाना इसका उत्तम उदाहरण है। घर के मंदिर से उमड़ती अगरबत्ती की गंध हममें एक आध्यात्मिक भाव एवं सकारात्मक ऊर्जा भर देती है। अतः हमें मंडप में कम से कम ५-१० मिनट बैठकर इस सकारात्मकता का अनुभव लेना चाहिए तथा गर्भगृह व मंडप में स्थित ऊर्जा को आत्मसात करना चाहिए। मंदिर के इन दो तत्वों पर हमें अधिक ध्यान देना चाहिए।

अनुराधा:  जब हम मंदिर जाकर प्रार्थना करते हैं, मंत्रोच्चारण करते हैं तथा ध्यान करते हैं तब क्या हम भी इस ऊर्जा में वृद्धि करते हैं?

रामकृष्ण: जी, अवश्य करते हैं।

आप यह वार्तालाप इस पॉडकास्ट पर भी सुन सकते हैं।

घंटा

रामकृष्ण: मंदिर का एक अन्य महत्वपूर्ण भाग है घंटा। मंदिर में प्रवेश करते ही घंटे के नीचे खड़े होकर घंटानाद करना चाहिए। अनेक लोग, दूसरों को कष्ट ना हो अथवा किसी भी अन्य कारण से घंटा नहीं बजाते। मंदिर का घंटा पंचधातु से बना होता है। जब इस घंटे को बजाया जाता है तब उससे एक विशेष कंपन उत्पन्न होता जो हमारी कुंडलिनी को प्रभावित करने में सक्षम होता है। अतः मंदिर में प्रवेश करते ही घंटे के ठीक नीचे खड़े होकर ८, १६, ३२ अथवा ६४ घंटानाद करने का नियम बताया गया है। यदि संख्या चूक जाए, तब भी लंबे समय तक किया गया घंटानाद हमारा ध्यान केवल गर्भगृह एवं उसके भीतर स्थित मूर्ति पर ही केंद्रित रखता है। हमें लक्ष्य से भटकने नहीं देता।

घंटा नाद
घंटा नाद

प्रसाद

अनुराधा: गर्भगृह में प्रार्थना करने के पश्चात हम चरणामृत ग्रहण करते हैं, जिसे दक्षिण भारत में तीर्थ कहा जाता है। उसका क्या महत्व है?

रामकृष्ण: गर्भगृह में प्रार्थना करने के पश्चात हम प्रसाद तथा चरणामृत या पंचामृत ग्रहण करते हैं। पंचामृत एवं चरणामृत के विषय में चर्चा करने से पूर्व प्रसाद के विषय में कुछ कहना चाहता हूँ। आपको स्मरण होगा कि सत्यनारायण पूजा के समय पाँच कथाएं पढ़ी जाती हैं। उन कथाओं में स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि प्रसाद ग्रहण किए बिना मंदिर से बाहर आना अशुभ माना जाता है।

अनुराधा: तो प्रसाद ग्रहण ना करने पर मंदिर दर्शन पूर्ण नहीं माना जाता?

रामकृष्ण: नहीं, दर्शन पूर्ण नहीं माना जाता। प्रसाद की विशेषता है कि वह विभिन्न पौष्टिक तत्वों से बनाया जाता है जो हमें अतिरिक्त पोषण प्रदान करता है। अतः उसे ग्रहण करने का नियम बनाया गया है।

चरणामृत/पंचामृत

रामकृष्ण: पंचामृत में कुल पाँच तत्व होते हैं, गाय का दूध, दही, घी, शहद एवं शक्कर। जब गर्भगृह के बाहर इससे मूर्ति को स्नान कराया जाता है तब इसे चरणामृत कहते हैं।

मंदिर में मूलतः दो मूर्तियाँ होती हैं। एक, गर्भगृह के भीतर स्थापित मूल मूर्ति होती है जो अचल होती है। दूसरी, मूल मूर्ति की प्रतिकृति होती है जो गर्भगृह के बाहर रखी जाती है। यह भी पंचधातु से बनी होती है। इसे उत्सव मूर्ति कहा जाता है। मंडप में किए गए सभी अनुष्ठान इस मूर्ति पर किए जाते हैं जिसे भक्तगण छू भी सकते हैं। उत्सवों के समय इसी मूर्ति की शोभायात्रा निकाली जाती है। अनुष्ठानों के समय इस उत्सव मूर्ति को पंचामृत स्नान कराया जाता है। हमें यह अमृत भगवान के चरणों से प्राप्त होता है, इसीलिए इसे चरणामृत कहते हैं। इस प्रसाद रूपी चरमामृत में पंचधातु के खनिज घटक मिल जाते हैं जो हमें अतिरिक्त पोषक तत्व प्रदान करते हैं।

अनुराधा: गर्भगृह के दर्शन व मंडप में कुछ क्षण व्यतीत करने के उपरांत, हमने घंटी बजाकर चरणामृत ग्रहण कर लिया। इसके पश्चात क्या किया जाता है?

रामकृष्ण: इसके उपरांत दो प्रदक्षिणाएं करना आवश्यक है, भीतरी प्रदक्षिणा व बाहरी प्रदक्षिणा। तभी मंदिर का दर्शन पूर्ण माना जाता है। भीतरी प्रदक्षिणा में हम गर्भगृह के चारों ओर परिक्रमा करते हैं। मंदिर की सम्पूर्ण ऊर्जा में अभिभूत होते हैं। बाहरी परिक्रमा में मंदिर के अन्य अवयव भी समाहित किए जाते हैं, जैसे भगवान के वाहन एवं उनका परिवार।

वाहन

भारत में अनेक प्रकार के मंदिर हैं किन्तु उनमें दो प्रकार प्रमुख माने जाते हैं, शिव मंदिर तथा विष्णु मंदिर। इन मंदिरों में, गर्भगृह के समक्ष, इन देवों के वाहन मंडप होते हैं जिसके भीतर उनके वाहन स्थापित होते हैं, शिव का वाहन नंदी तथा विष्णु का वाहन गरुड़। बाहरी परिक्रमा में उन्हे परिक्रमा पथ के भीतर रखा जाता है।

परिवार देवता 

मुख्य मंदिर के समीप अनेक छोटे मंदिर होते हैं जो प्रमुख देव के परिवार के सदस्यों को समर्पित होते हैं। जैसे, विष्णु मंदिर में भुदेवी, श्रीदेवी, विश्वकर्मा इत्यादि को समर्पित मंदिर होते हैं। वहीं, शिव मंदिर में गणेश, पार्वती अथवा कार्तिकेय को समर्पित मंदिर होते हैं। बाहरी परिक्रमा पथ में इन मंदिरों को भी भीतर रखना आवश्यक है।

प्रदक्षिणा

हम प्रदक्षिणा क्यों करें? हमें प्रदक्षिणा इसीलिए करनी चाहिए क्योंकि यह स्वयं में एक अध्ययन है। गर्भगृह की प्रदक्षिणा के उपरांत जब आप बाहरी प्रदक्षिणा करते हैं तब आपकी दृष्टि भित्तियों पर उत्कीर्णित विभिन्न प्रतिमाओं एवं शिल्पों पर पड़ती है। उन प्रतिमाओं एवं उत्कीर्णित दृश्यों से हमें इतिहास एवं पुराणों के संदर्भ में कई जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। अनेक नवीन संदर्भों एवं परंपराओं से हमारा परिचय होता है। परिवारजन के साथ परिक्रमा करते समय बड़े छोटों को उनके विषय में जानकारी प्रदान करते हैं। उनसे हमारे इतिहास एवं पुराणों के विषय में चर्चा होती है। हम उनके विषय में अधिक जानने का प्रयास करते हैं। छोटों को भी चिंतन के लिए एक नवीन दृष्टिकोण प्राप्त होता है।

अनुराधा: मैं उन प्रतिमाओं एवं शिल्पों को इतिहास की मुक्तांगन कक्षा मानती हूँ। मंदिर की भित्तियों पर उत्कीर्णित प्रतिमाएँ एवं शिल्प स्वयं में ज्ञान का भंडार हैं।

रामकृष्ण: निःसंदेह! मेरा गाँव इसका उत्तम उदाहरण हैं। अनेक गांववासी अनपढ़ हैं। उन्होंने इतिहास एवं पुराणों की पुस्तकें नहीं पढ़ी हैं। फिर भी उनके पास इतिहास एवं पुराणों की कथाओं का भंडार है। वे रामायण व महाभारत की कथाएं मुझसे अधिक उत्तम प्रकार से सुना सकते हैं। उन्होंने जीवन भर इन मंदिरों के दर्शन किए हैं, इन भित्तियों पर उत्कीर्णित शिल्पों को देखा व समझा है।

तत्वज्ञान

अनुराधा: इतना ही नहीं, वे उन शिल्पों के पृष्ठभागीय तत्वज्ञान को भी समझते हैं। हमें यह बिसराना नहीं चाहिए कि अंततः ये लोग ही हैं जिन्होंने इन भित्तियों की कथाओं को समझकर, पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से आगे प्रसारित की है।

रामकृष्ण: इसमें संदेह नहीं है अनुराधाजी। सामान्यतः, मंदिर की भित्तियों पर उत्कीर्णित कथाओं का मुख्य सार ‘अच्छाई की बुराई पर विजय’ होती है। दृष्टांत के लिए, चोल शिव मंदिरों में आप शिव के त्रिपुरांतक तथा कालांतक रूपों के शिल्प देखेंगे।

अनुराधा: ये कथाएं यह भी स्मरण कराती हैं कि प्रत्येक विपरीत परिस्थिति में भगवान हमारी रक्षा अवश्य करेंगे।

रामकृष्ण: जी हाँ! इसी से भगवान में हमारी आस्था जीवित रहती है।

अनुराधा: भगवान पर हमारा विश्वास दृढ़ होता है कि हमारा कितना भी कुसमय हो, भगवान कभी ना कभी तो सहायता करेंगे।

रामकृष्ण: जी। इसीलिए जीवन के प्रत्येक आयाम के लिए मंदिर की बाहरी प्रदक्षिणा अत्यंत आवश्यक है, वह चाहे सामान्य ज्ञान अर्जन हो अथवा आध्यामिक आस्था का विकास, कथाओं द्वारा इतिहास व पुराणों की व्याख्या हो अथवा भगवान में श्रद्धा व विश्वास की दृढ़ता का प्रश्न हो।

मंदिर की वास्तुकला

भित्तियों पे चित्रित कथाएं
भित्तियों पे चित्रित कथाएं

अनुराधा: आपने एक अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य पर प्रकाश डाला है कि मंदिरों से हमारे बालक-बालिकाओं को सीखने का अवसर मिलता है। वे अपने परिवार के वरिष्ठ सदस्यों के साथ मंदिर जाते हैं। भित्तियों पर उत्कीर्णित दृश्यों को देख, कौतूहलवश वे बड़ों से उनके विषय में प्रश्न करते हैं। इस प्रकार, उन दृश्यों से संबंधित कथाओं द्वारा उन्हे हमारी प्राचीन सभ्यता एवं उनके तत्वज्ञान के विषय में जानने का अवसर प्राप्त होता है।

रामकृष्ण: जी हाँ। इसका एक सुंदर उदाहरण देना चाहता हूँ। आप यदि हम्पी के हजारा राम मंदिर अथवा ऐसे ही किसी मंदिर में जाएंगे तो आप मंदिर के आधार पर सिंह, अश्व, गज एवं मकर के शिल्प उत्कीर्णित देखेंगे। ये प्राणी विभिन्न तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। जैसे, मकर जल का, गज शक्ति का, सिंह अधिकार व सत्ता का तथा अश्व राज्य के व्यापार एवं समृद्धि का। बच्चे मंदिर की भित्तियों पर इन प्राणियों की उपस्थिति के विषय में प्रश्न करते हैं। बालपन से बच्चों को इनके विषय में जानकारी प्राप्त होती है। उन्हे धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष जैसे जीवन मूल्यों से परिचित होने का अवसर प्राप्त होता है।

मुख्य विग्रह

रामकृष्ण: मैं एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। मुख्य विग्रह का ध्यानपूर्वक अवलोकन। जैसे महिषासुरमर्दिनी की मूर्ति पर दस हाथ होते हैं जिनमें वे दस आयुध धारण करती हैं। प्रत्येक आयुध का अपना महत्व होता है। महिषासुर का वध करती देवी बुराई के नाश का संदेश देती हैं।

महिषासुरमर्दिनी देवी के हाथों में परशु, कटार तथा एक पात्र है। इन सभी वस्तुओं के क्या अभिप्राय हैं, यह समझने की आवश्यकता है। परशु यह दर्शाता है कि हमें सांसारिक आसक्तियों को काटना है। तेज कटार यह दर्शाती है कि हमारे लक्ष पर हमारा ध्यान कटार की धार के समान तेज होना आवश्यक है। इसी प्रकार देवी महिषासुरमर्दिनी के अन्य आयुधों के भी विशेष अभिप्राय हैं। यदि आप देवी के बीसियों दर्शन भी कर लें किन्तु उनके विग्रह के विविध अवयवों के अभिप्राय ज्ञात ना हो तो मात्र दर्शन कर लेने से हमारे जीवन में कोई भी सकारात्मक परिवर्तन संभव नही है। कम से कम परशु एवं छुरी के अर्थ हमें सदा स्मरण रहना चाहिए।

मंदिर दर्शन द्वारा ज्ञान वर्धन

जीवन के दो मूल मंत्र हैं। प्रथम, सांसारिक बंधनों के प्रति भावुक ना होना, दूसरा, तेज कटार के समान अपने लक्ष्य की ओर ध्यान होना। महिषासुरमर्दिनी की प्रतिमा हमें इन दोनों मूल्यों की प्रेरणा देती है। जब जब हम मूर्ति के दर्शन करते हैं, हमारे जीवनमूल्य अधिक दृढ़ होते जाते हैं। उनकी प्रतिमा हमें सम्मोहित सा कर देती है।

अनुराधा: मूर्ति दर्शन स्व-अध्ययन पुस्तक को पुनः पुनः पढ़ने के समान है जो हमें हमारे जीवनमूल्यों का सदा स्मरण कराती रहती है। रामकृष्णजी, आपने अभी परशु तथा कटार का महत्व बताया। हम में से अधिकांश लोगों को इन आयुधों के अभिप्राय ज्ञात नहीं है। विशेषतः मेरे जैसे उत्तर भारत में पले-बढ़े लोग इनसे अनभिज्ञ हैं।

मुझे स्मरण है, एक संग्रहालय में छायाचित्रीकरण विषय के कुछ विद्यार्थी विष्णु एवं शिव की प्रतिमाओं को भी पहचान नहीं पा रहे थे, जबकि उनकी प्रतिमाओं में अनेक स्पष्ट चिन्ह होते हैं। अन्य कम-ज्ञात देवों की क्या चर्चा करें! अतः, हम जैसे लोग प्रतिमाविद्या एवं इन कथाओं की विवेचना किस प्रकार करें? उनके संदर्भ में अधिक साहित्य भी उपलब्ध नहीं हैं। क्या आप हमें कुछ ऐसे स्त्रोतों की जानकारी दे सकते हैं, जहां हमें इन विषयों पर प्रामाणिक जानकारी प्राप्त हो सके?

रामकृष्ण: हमारे दादा-दादी हमारे बालपन में हमें पंचतंत्र, शिव पुराण अथवा विष्णु पुराण से अनेक सुंदर कथाएं सुनाते थे। आपने भी बालपन में विष्णु पुराण, शिव पुराण इत्यादि पर आधारित प्रदर्शन देखे होंगे। किन्तु आज के बच्चे इन कथाओं की ओर ध्यान नहीं देते। यही कारण है कि उन्हे इन घटनाओं, कथाओं, मंदिर के विभिन्न अवयवों, मूर्तिविद्या के विभिन्न आयामों इत्यादि के विषय में जानकारी नहीं है।

मंदिर में उपस्थित अर्चक अथवा पुजारी का यह कर्तव्य है कि वह मंदिर में उपस्थित लोगों को मंदिर, मूर्ति, मंदिर से संबंधित कथाओं इत्यादि के विषय में व्याख्यान दें। भले ही व्याख्यान संक्षिप्त हो। किन्तु आज पुजारी की भूमिका केवल वैदिक मंत्रों को जपने तक ही सीमित रह गई है।

अर्चक की भूमिका

अनुराधा: आपका कथन अत्यंत सटीक है। मैंने आज तक अनेक मंदिरों के दर्शन किए हैं किन्तु अर्चक का व्याख्यान केवल एक ही मंदिर में देखा है। बेट द्वारका के मुख्य मंदिर में यह नियमित रूप से किया जाता है। उपस्थित भक्तों की संख्या के आधार पर, प्रत्येक आधे घंटे अथवा १०-२० मिनट के अंतराल में, पुजारीजी सभी को बैठाकर उनके हाथों में चावल के कुछ दाने रखते हैं, क्योंकि सुदामा ने कृष्ण को चावल के दाने ही दिए थे। तत्पश्चात वे सब को कृष्ण-सुदामा की कथा सुनाते हैं। कथा के पश्चात वे सब से कहते हैं कि कृष्ण को चावल का एक दाना अर्पित करें, भगवान कृष्ण आपका घर भी सुदामा के समान धन-धान्य से भर देंगे।

सम्पूर्ण घटना मेरे लिए अत्यंत आनंददायी थी। मंदिर में आए सभी भक्त व्याख्यान को ध्यानपूर्वक सुन रहे थे। भक्तगण संतुष्टि एवं सम्पन्नता का भाव लिए मंदिर से बाहर आते हैं। मंदिर में केवल दर्शन कर, मंदिर के विषय में जाने बिना बाहर आना उचित नहीं है। किन्तु मैंने इसके अतिरिक्त यह प्रथा अन्य कहीं नहीं देखी है।

रामकृष्ण: कितनी अद्भुत प्रथा है! ऐसा कर वे अनगिनत भक्तों को श्रेष्ठ जीवन मूल्यों से अवगत करा रहे हैं। यहाँ से प्राप्त अनुभव भक्तगणों को जीवन भर स्मरण रहेगा तथा उनके जीवन को समृद्ध करता रहेगा।

अनुराधा: आपका सुझाव अत्यंत उत्तम है। आशा करती हूँ कि अधिक से अधिक मंदिरों के अधिकारीगण इस ओर प्रयास करेंगे तथा कम से कम प्रातः व संध्या के समय, जब भक्तों की संख्या अधिक होती है, मंदिर में एक पौराणिक कथा कथन का सत्र अवश्य आयोजित करेंगे।

मंदिर दर्शन कैसे करें, कौन बताए?

रामकृष्ण: अर्चक का उत्तरदायित्व अत्यंत महत्वपूर्ण है। अर्चक अथवा पुजारी भगवान की सेवा करता है, उनकी पूजा-अर्चना करता है तथा भक्ति के आवश्यक तत्वों का ज्ञान रखता है। एक अर्चक को भगवान के अत्यंत समीप माना जाता है। यह उसका कर्तव्य है कि वह मंदिर के सभी आयामों की जानकारी अर्जित करे तथा उस ज्ञान को भक्तों तक प्रसारित भी करे। इसीलिए मंदिर में अर्चक अत्यंत आदरणीय होता है।

अनुराधा: मैं तो मंदिर में जाकर उनके समीप बैठ जाती हूँ तथा उनसे मंदिर से संबंधित जानकारियाँ एवं उससे जुड़ी कथाओं के विषय में जानने के लिए सतत प्रश्न करती रहती हूँ। कुछ हिचक के पश्चात वे मुझे मेरे प्रश्नों का उत्तर देने लगते हैं। मैंने देखा, अनेक दर्शनार्थी अर्चक से वार्तालाप करने में भय का अनुभव करते हैं। वे अर्चक से कोई प्रश्न नहीं करते, ना ही मंदिर के विषय में उनसे जानने की चेष्टा करते हैं। मैं आप सब से कहना चाहती हूँ कि आप अर्चक से मंदिर के विषय में प्रश्न करें। वे अवश्य आपको पूर्ण जानकारी प्रदान करेंगे। यह उनका कर्तव्य भी है।

रामकृष्ण: मैं आपके पिछले प्रश्न का उत्तर पूर्ण करना चाहता हूँ। तत्पश्चात आगे बढ़ेंगे। भारत में अनेक मंदिर हैं जो शिव अथवा विष्णु को समर्पित हैं। शिव मंदिर में उपस्थित अवयव एवं चिन्ह भगवान शिव से संबंधित होते हैं। उसी प्रकार विष्णु मंदिर में उपस्थित अवयव एवं चिन्ह विष्णु भगवान से संबंधित होते हैं। उन्हे कैसे पहचानें?

मंदिर में देवों के चिन्हों को पहचानने के लिए उनके विषय में जानना आवश्यक है। उसके लिए पुस्तकों से उत्तम कोई साधन नहीं है। किन्तु आपको आगम शास्त्र जैसे क्लिष्ट पुस्तकें पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। बच्चों की पंचतंत्र अथवा चित्रकथा जैसी आसान पुस्तकें भी पर्याप्त हैं। शिव पुराण तथा विष्णु पुराण क्रय करें तथा उनमें दी गई कथाएं पढ़ें व उन्हे समझें। मैंने भी आरंभ में यही किया था। मैंने ड्रीम्लैन्ड प्रकाशन की रंगबिरंगी पुस्तकें पढ़ी थीं।

पुस्तकें पढ़ने के उपरांत मुझे ज्ञात हुआ, त्रिपुरांतक क्या है। विष्णु के कौन कौन से अवतार हैं, वे कैसे दिखते हैं, इन्होंने क्या कार्य किया हैं, वराह ने भुदेवी को हिरण्याक्ष के चंगुल से कैसे छुड़ाया इत्यादि। इसके पश्चात आपको मूर्तियों एवं दृश्यों को पहचानने में कोई दुविधा नहीं होगी।

अनुराधा: मुझे तथा आपको यह ज्ञात हो गया है कि ऐसी कथाएं अस्तित्व में हैं तथा मंदिरों के शिल्प उन्ही कथाओं पर आधारित होते हैं। किन्तु अनेक लोगों को यह भी ज्ञात नहीं होता कि ऐसी कथाएं हैं। मंदिर में यदि उन्हे कोई यह जानकारी प्रदान करे कि ये दृश्य पौराणिक कथाओं पर आधारित हैं तो वे पुस्तक अथवा इंटरनेट द्वारा जानकारी आसानी से प्राप्त कर सकते हैं।

जगती व सोफान मार्ग

जगती जिस पर मंदिर स्थापित किया जाता है
जगती जिस पर मंदिर स्थापित किया जाता है

क्या आप जगती के विषय में चर्चा कर सकते हैं? न्याधार, जिस पर मंदिर खड़ा किया जाता है, सोपान, सोपान मार्ग इत्यादि।

रामकृष्ण: जी। ये शब्द अत्यंत चित्तरंजक हैं। जैसे जगती, जो जगत शब्द से व्युत्पन्न है। जगत का अर्थ है विश्व। जगती का अर्थ है, जगत के ऊपर। अर्थात् इस जगत के ऊपर एक मंदिर है जहां भगवान का वास है। अतः जगती हमें यह संदेश देता है कि वे सम्पूर्ण विश्व से ऊपर हैं। मंदिरों में जगती एक ऊंचे मंच के रूप में होता है जिसके ऊपर हम सीढ़ियों द्वारा पहुंचते हैं। इन सीढ़ियों को स्वर्ग का मार्ग अथवा सोपान मार्ग कहते हैं।

ये स्वर्ग का मार्ग कैसे हैं? क्योंकि आप जगत के ऊपर जाकर देख रहे हैं कि इस ‘जगत’ के ऊपर कौन है, भगवान कौन है, क्या भगवान का वास ही स्वर्ग है इत्यादि। आप ऐसा क्यों करना चाहते हैं? क्योंकि इसके ऊपर जाकर आपको शांति प्राप्त होती है, आनंद प्राप्त होता है तथा आपको सभी नकारात्मक व अनुचित विचारों से मुक्ति मिलती है।

अनुराधा: साथ ही हमें हमारे सांसारिक मोहपाशों से पृथक होकर परमात्मा के साथ शांतिपूर्ण समय व्यतीत करने का अवसर मिलता है।

रामकृष्ण: सत्य कहा आपने। ये थे जगती व सोपान मार्ग। जगती के ऊपर, मंदिर की संरचना भी अत्यंत विलक्षण होती है। प्रवेश द्वार पर एक लघु मंडप होता है जो किंचित संकरा होता है। इसके आगे किंचित बड़ा मंडप, जिसके पश्चात उससे भी विशाल मंडप होता है। गर्भगृह एवं शिखर इनसे भी विशाल होते हैं।

जैसे जैसे हम मंदिर की ओर जाते हैं, हमारी मनःस्थिति भी ऊर्ध्वगामी होती जाती है। सोपान मार्ग पार कर जब हम मंदिर में प्रवेश करते हैं तब हमारे चित्त में देव दर्शन की इच्छा शनैः शनैः बढ़ती जाती है। गर्भगृह की ओर जाते समय यह इच्छा तीव्र हो जाती है तथा वह अपने चरम सीमा पर होती है जब हम गर्भगृह के समक्ष पहुँच जाते हैं। प्रवेशद्वार से गर्भगृह की ओर जैसे जैसे हम चढ़ते हैं, वैसे वैसे भगवान के प्रति हमारी उत्सुकता में भी वृद्धि होती जाती है। अतः हमारी मनःस्थिति में मंदिर की रूपरेखा एवं संरचना का महत्वपूर्ण योगदान होता है।

मंदिर के दर्शन कब करें?

अनुराधा: आपने हमें सरलता से समझाया कि मंदिर के दर्शन कैसे करें। अब आपसे जानना चाहती हूँ कि मंदिर के दर्शन कब करें। प्रतिदिन, यदा-कदा अथवा केवल उत्सवों के समय। क्या मंदिर दर्शन के लिए किसी नियम का पालन आवश्यक है?

रामकृष्ण: आपने उत्तम प्रश्न पूछा है। बहुधा यह देखा गया है कि लोग प्रातःकाल में मंदिर में देव-दर्शन करने आते हैं। साधारणतः वे अपने निवास से २००-५०० मीटर के अंतराल पर स्थित मंदिर में जाते हैं। मंदिर दर्शन के लिए हमें प्रातःकाल शीघ्र उठना चाहिए। उस समय को ब्रह्म मुहूर्त कहते हैं। नित्य कर्म से निवृत्त होकर, स्नानादि कर मंदिर के लिए प्रस्थान करना चाहिए।

मंदिर में वेदिक मंत्रों का उच्चारण करना चाहिए, कुछ आध्यात्मिक अध्ययन एवं ध्यान करना चाहिए। ये सब क्रियाएं तन एवं मन दोनों को पवित्र करती हैं। यह आपको स्वस्थ एवं सक्रिय रखती है क्योंकि आप प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठ रहे हैं।

अनुराधा: जिन्हे ब्रह्म मुहूर्त के विषय में जानकारी नहीं है, उन्हे बताना चाहती हूँ कि ब्रह्म मुहूर्त सूर्योदय से लगभग डेढ़ घंटे पूर्व का समय होता है।

रामकृष्ण: ब्रह्म मुहूर्त में उठकर मंदिर के दर्शन करना सर्वोत्तम माना जाता है।

अनुराधा: जी। मैंने अपने जीवन में अनेक देवी मंदिर देखे हैं। उनमें से कई पहाड़ी की चोटी पर स्थित थे। इसका अर्थ है, प्रातः शीघ्र उठकर वहाँ पहुँचने में हमारा प्रातःकालीन सैर एवं व्यायाम हो जाता है। मंदिर पहुंचकर ध्यान भी हो जाता है। सूर्य की प्रथम किरणों में सराबोर हो कर हमारी देह की विटामिन डी कमतरता भी दूर हो जाती है, जो वर्तमान में हमारे लिए एक बड़ी समस्या बन गई है। केवल इन नियमों का पालन कर हम हमारे शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य को संभाल सकते हैं।

रामकृष्ण: जी हाँ। प्रातःकाल शीघ्र उठकर मंदिर जाना ही उत्तम स्वास्थ्य, मानसिक शांति एवं लंबी आयु का रहस्य है।

अनुराधा: यह तो हुआ दैनिक दर्शन। इसके अतिरिक्त, मंदिर दर्शन कब करना चाहिए?

रामकृष्ण: इसका उत्तर मैं एक उदाहरण द्वारा देना चाहता हूँ। मेरे पिता एक किसान हैं। गाँव में, हमारे घर में एक उत्सव मनाया जाता है मृगसिरा कार्थी या मृगशीर्ष कार्ते। इसे मृगसिरा उत्सव भी कहते हैं।

अनुराधा: क्या आप मृगशिरा नक्षत्र के विषय में कह रहे हैं?

रामकृष्ण: जी, मृगशिरा नक्षत्र। मृगसिरा कार्थी सूर्य के मृगशिरा नक्षत्र में प्रवेश एवं निकास का सूचक है। मृगम नाम से भी लोकप्रिय यह उत्सव सामान्यतः ग्रीष्म ऋतु के पश्चात तथा वर्षा ऋतु से पूर्व, जून/जुलाई में मनाया जाता है। ७ फुट की भूमि को शीतल कर, वहां भगवान की मूर्ति रखी जाती है। पुष्प से उनकी अर्चना की जाती है। प्रसाद भी बनाकर भगवान को अर्पित किया जाता है। समीप के मंदिर जाकर पूजा अर्चना की जाती है। तत्पश्चात मेरे पिता खेतों को जोतना आरंभ करते हैं जिससे वर्षा ऋतु के आरंभ होते ही खेतों की बुवाई हो सके।

मेरा तात्पर्य यह है कि उत्सवों में मंदिर के दर्शन करना, एक प्रकार से प्राकृतिक पंचांग का पालन करने जैसा है। हम यदि प्रकृति के नियमों का पालन करेंगे तो मंदिर दर्शन स्वतः ही हो जाएँगे। एक अन्य उदाहरण है, तुली एकादशी। इसे देवशयनी एकादशी भी कहा जाता है। यह उत्सव वर्षा ऋतु के आगमन के पश्चात आता है। इस समय तक खेतों की बुवाई सम्पन्न हो जाती है। किसान निश्चिंत होकर भगवान के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए पूजा-अनुष्ठान करते हैं।

अनुराधा: यह अत्यंत रोचक है। यही कारण है कि सम्पूर्ण भारत में स्थानीय पंचांग में किंचित भिन्नता होती है। क्योंकि वे प्राकृतिक चक्र का पालन करते हैं।

मंदिर दर्शन के लिए प्राकृतिक पंचांग

रामकृष्ण: जी। प्रकृति पर आधारित जीवन चक्र की यही विशेषता है। केरल अथवा कर्नाटक में वर्षा ऋतु का समय उत्तर-पूर्वी राज्यों, ओडिशा अथवा पश्चिम बंगाल से पृथक है। इसी कारण उनके उत्सव भी भिन्न होते हैं। उनके उत्सव, मंदिर दर्शन का समय, प्रसाद इत्यादि भी प्राकृतिक चक्र का पालन करते हैं। यह प्रथा वंशानुगत चली आ रही है। प्राकृतिक चक्र पर आधारित उत्सव मनाने का उत्तम उदाहरण किसान वर्ग है। हमें उनसे बहुत कुछ सीखना चाहिए।

अनुराधा: अद्भुत रामकृष्णजी। यह एक अत्यंत रोचक एवं ज्ञानवर्धक चर्चा थी। मेरे अनेक प्रश्नों का मुझे समाधान प्राप्त हुआ है। किन्तु अब भी अनेक प्रश्न मेरे मस्तिष्क में कौंध रहे हैं। मेरा आपसे अनुरोध है कि भविष्य में पुनः इसी प्रकार चर्चा के लिए आईए तथा दक्षिण भारत एवं उत्तर भारत के मंदिरों के विषय में बताईए। आपने मंदिरों के विषय में अपना ज्ञान हमसे बांटा, अपना बहुमूल्य समय हमें दिया इसके लिये आपका आभार प्रकट करती हूँ। आशा है,  इस चर्चा को सुनने के पश्चात अधिक से अधिक लोग इन नियमों का पालन करेंगे तथा मंदिर के दर्शन करेंगे। मंदिर की विशेषताओं को जानने एवं समझने का प्रयास करेंगे। आपका हृदयपूर्वक धन्यवाद।

रामकृष्ण: आशा करता हूँ कि सभी इसका पालन करें क्योंकि हमारी विरासत का संरक्षण करने का यही एक मार्ग है। मुझे यह अद्भुत सुअवसर प्रदान करने तथा मेरे विचार सुनने के लिये आपका भी धन्यवाद एवं आभार। नमस्ते।

अनुराधा: नमस्ते। धन्यवाद।

IndiTales Internship Program के अंतर्गत, इंडिटेल की प्रशिक्षु, हर्षिल गुप्ता ने विडिओ से यह प्रतिलिपि तैयार की है।

अनलाइन प्रकाशन हेतु संपादित।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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