दार्जिलिंग हिमालय रेलवे, भारत की उन ३ पर्वतीय रेल सेवाओं में से एक है जिन्हें यूनेस्को ने विश्व विरासत घोषित किया है। दार्जिलिंग हिमालय रेल की दार्जिलिंग से घूम की यात्रा, भारत के इस पर्वतीय रेल की प्रारम्भिक दिनों की हमारी कल्पना साकार करती है। इस रेल का पुराना कोयले वाला इंजन अभी भी इस रेल को खींचने में बहुत हद तक सक्षम है। दुर्गम मार्ग पर सहायता के लिए एक डीजल इंजन भी इसके पीछे लगाया जाता है। घूम स्टेशन पर स्थित संग्रहालय अपने विभिन्न रेलवे कलाकृतियों द्वारा पर्यटकों का अपने इतिहास से परिचय कराता है।
कई दिनों से दार्जिलिंग हिमालय रेल यात्रा का रोमांचक अनुभव प्राप्त करने की तीव्र इच्छा थी। दरअसल रेल यात्राएं मुझे हमेशा से रोमांचित करतीं हैं। बचपन में मैंने अपने माता पिता के साथ भारत भ्रमण हेतु अनेक रेल यात्राएं की थीं। हालांकि समय की कमी के रहते मेरी रेल यात्रा अब पहले से बहुत कम हो गयी हैं। फिर भी रेल यात्रायें मेरी यादों का एक अहम् हिस्सा जरूर बन गईं हैं। भारत में रेल, परिवहन का एक महत्वपूर्ण साधन है। साथ ही साथ भारत में ऐसी रेलें भी हैं जो राजसी ठाटबाट से भरपूर यात्रा का आनंद देतीं है और कुछ ऐसी जो आपको अतीत के वाष्प इंजन की दुनिया में ले जाती हैं। कुछ वर्षों पूर्व मुझे डेक्कन ओडिसी रेल में ७ दिनों तक राजसी ठाटबाट से यात्रा का आनंद उठाने का सुअवसर मिला था। इस बार मुझे दार्जिलिंग हिमालय रेलवे में मजा व मस्तीभरी सवारी का अवसर मिला।
दार्जिलिंग हिमालय रेलवे- यूनेस्को विश्व विरासत
इस बार मेरी दार्जिलिंग यात्रा का मुख्य उद्देश्य दार्जिलिंग हिमालय रेल यात्रा का अनुभव प्राप्त करना था। भारत की अन्य २ पर्वतीय रेल सेवाओं, शिमला-कालका रेल व नीलगिरी पर्वतीय रेल की तरह, दार्जिलिंग हिमालय रेल भी यूनेस्को विश्व विरासत स्षित हुआ है। इनकी दिलचस्प विशेषतायें यह है कि तीनों विश्व विरासत रेलवे सेवायें अभी भी सुचारू रूप से कार्यान्वत है और देश के ३ कोनों में स्थित हैं। जहाँ दार्जिलिंग हिमालय रेल और शिमला-कालका रेल दोनों हिमालय पर्वतों से होकर गुजरती है वहीं ऊटी रेल नीलगिरी पर्वतों से गुजरती है। मैं, नीलगिरी रेल व शिमला-कालका रेल, दोनों की यात्रा का आनंद उठा चुकी हूँ। हालांकि मैंने उन दिनों अपने यात्रा संस्मरण लिखना आरम्भ नहीं किया था। परन्तु दार्जिलिंग हिमालय रेल यात्रा का अवसर मेरे हाथों से बच कर निकल जाता था। पिछली बार मेरी भूटान व सिक्किम यात्रा के दौरान मैंने यह अवसर गंवाया था। बेहद अफसोस हुआ कि मै इसके बगल से होकर निकल गयी थी।
कुछ समय पूर्व मैं भारतीय पर्वतीय रेल के बारे में यूनेस्को वेबसाइट से जानकारी हासिल कर रही थी। यह, भारत के तीनों पर्वतीय रेल सेवाओं के विश्व विरासत स्थल चुने जाने के कारण भी बताती है। इनमें से दो मुख्य कारण हैं-
अभियांत्रिकी उत्कृष्टता
दार्जिलिंग से घूम तक की रेल यात्रा में बतासिया का मोड़ देख कर इस पर्वतीय दार्जीलिंग हिमालय रेल सुविधा की अभियांत्रिकी उत्कृष्टता का अंदाजा लगाया जा सकता है। इस मार्ग में रेल पहाड़ों पर भी चढ़ती है। कहीं कहीं चढ़ाव इतना अधिक है कि इंजन रेल को ऊपर खींचने में असमर्थ होती है। इसलिए इस रेल सेवा के निर्माण में रत अभियंताओं ने एक अनोखे तकनीक के तहत, घुमावदार व टेढ़ी मेढ़ी रेल की पटरियों का इस्तेमाल कर पटरियों की लम्बाई बढ़ाई ताकि चढ़ाई धीरे धीरे बढ़े| इससे रेल यात्रा भी आरामदायी व सुखद होती है। इसे देख हमारे पूर्वजों की तकनीकी प्रतिभा को सलाम कहने को जी चाहता है।
सामाजिक आर्थिक जीवन पर प्रभाव
पर्वतीय रेल सेवाएं, पर्वतीय क्षेत्रों को मुख्य धारा से जोड़ने में अहम् भूमिका निभातीं हैं। यह, पहाड़ी व मैदानी इलाकों के बीच की यात्रा को सुविधाजनक और सुखदायी बनातीं हैं, साथ ही वहाँ के वासिओं के संस्कृति आदान प्रदान में भी सहायक होतीं हैं। दोनों तरफ भौतिक वस्तुओं का आदान प्रदान कर आर्थिक लेन देन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभातीं हैं। नतीजतन, कुछ समय पश्चात दोनों इलाके एक दूसरे पर अमिट प्रभाव छोड़ते हैं और धीरे धीरे एक दूसरे का अभिन्न अंग बन जातें हैं।
दार्जिलिंग हिमालय रेल यात्रा
दार्जिलिंग में प्रवेश करते ही मुझे दार्जिलिंग स्टेशन व वहां खड़ी वाष्प इंजन की पहली झलक मिली। अगले दिन, कोई और भ्रमण योजना न बनाते हुए, सिर्फ इस विरासती पर्वतीय रेल व इसके साथी, दार्जिलिंग और घूम स्टेशनों के दर्शन का निश्चय किया। चूंकि हमने इस रेल यात्रा की टिकट पहले से आरक्षित नहीं करायी थे, हम पर्याप्त समय हाथों में ले कर स्टेशन पहुंचे क्योंकि हम किसी भी शर्त पर रेल छूटने का खतरा मोल नहीं ले सकते थे। हालांकि हमारा होटल प्रतिनिधि हमें निरंतर धाडस बंधा रहा था कि हमें टिकट आसानी से मिल जायेगी क्योंकि ज्यादा पर्यटक नहीं आयें हैं। हमें टिकट तो मिल गयी परन्तु साथ ही हमें यह भी ज्ञात हुआ कि मजेदार यात्रा प्रदान करती यह छोटी रेल हमेशा ही भरी हुई चलती है। कई सालों बाद मैंने रेलवे आरक्षण फार्म भरा। मुझे मिली पुट्ठे की छोटी सी टिकट ने मेरी बचपन की यादें ताज़ा कर दीं। मेरे रोमांच और आनंद की शुरुआत यहीं से हो गयी थी।
“दार्जिलिंग हिमालय रेलवे में, १८८१ में हुए स्थापना के पश्चात, बहुत कम बदलाव किया गया है।”
मुझे वाष्प इंजन चलित रेल की सवारी का बहुत इंतज़ार था। परन्तु मुझे बाद में ज्ञात हुआ कि वाष्प इंजन के पीछे पीछे ही डीजल इंजन वाली गाडी भी चलती है। इस रेल यात्रा के दौरान, घुमावदार मोड़ों पर मैं अपनी ही रेल के इंजन को पटरी पर दौड़ते देख सकती थी। इस छोटी सी वाष्प इंजन को पटरी पर दौड़ते देखने का आनंद मैं शब्दों में नहीं बांध सकती इसलिए इन अविस्मरणीय व खूबसूरत दृश्यों को छोटी छोटी चलचित्रों में कैद कर लिया। यह और बात है कि वाष्प इंजन से निकला हुआ धुआं और कालिख इस अविस्मरणीय यात्रा पर अपनी छाप छोड़ने से नहीं चूक रहा था।
“इस रेल की यात्रा का आनंद उठाने वाले जानी मानी हस्तियों में महात्मा गांधी और मार्क ट्वेन का भी समावेश है।”
जब हम इस रेल का, पिछली यात्रा से वापिस लौटने का इंतजार कर रहे थे, लोकोशेड में तैयार होते वाष्प इंजन पर मेरी नजर पड़ी और उसकी प्रशंसा किये बिना नहीं रह पायी। पर्यटक, जिनमें ज्यादातर विदेशी नागरिक सम्मलित थे, धीरे धीरे स्टेशन पर इकट्ठे होने लगे। स्टेशन स्वयं भी एक विरासत इमारत है। उस पर लगे “पर्चे ना चिपकाएँ” चिन्ह भी इस बात का संकेत है। चूंकि रेल अभी पहुंची नही थी, मैंने स्टेशन के बारे में और जानने की चेष्टा की व कई तस्वीरें भी खींचीं। यहाँ कुछ ऐसी तस्वीरें भी लगीं हुईं हैं जो १८८१ में स्थापित इस स्टेशन व रेल का, उस समय का, नजारा दिखा रहीं हैं। मैंने उस वक्त की रेल व स्टेशन की कल्पना करने की असफल चेष्टा की। आज के इस भीड़ भरे स्टेशन में खड़े होकर ऐसा करना मेरे लिए असंभव हो रहा था।
इस रेल की पटरियां बहुधा सड़क पर से गुजरतीं हैं और कई बार घरों, दुकानों व इमारतों के बहुत करीब आतीं हैं। रेल के अन्दर प्रवेश करने से पहले तक मुझे शंका थी कि इन घरों व इमारतों को छुए बिना, यह रेल यात्रा कैसे संभव है। तथापि रेल के अन्दर प्रवेश करते से ही इसके संकरेपन का अहसास सबसे पहले आप को झकझोर देता है।
“ यह एक आश्चर्यजनक घटना है कि १३५ साल पुराना यह दार्जिलिंग हिमालय रेल अभी भी कार्य सक्षम है और लोगों की सेवा में रत है।”
वाष्प इंजन
जैसे ही वाष्प इंजन ने स्टेशन में प्रवेश किया, सबकी आँखें फटी की फटी रह गईं। जैसे जैसे इंजन अन्दर प्रवेश कर रहा था, आस पास की सारी कायनात हमारे जहन से अस्तित्वहीन होने लगी। ऐसा अहसास हुआ जैसे आने वाले २-३ घंटे में हम एक युग जीने वाले हों। नीले रंग के इंजन के ऊपर “आयरन शेरपा” अर्थात लोह शेरपा गुदा हुआ था। एक छोटा लाल रंग का फलक रेल का क्रमांक ८०५ दर्शा रहा था। जैसे ही वाष्प इंजन चालित छोटी रेल आगे सरकी, हम अपने डीजल इंजन चलित डिब्बे में प्रवेश किये। डिब्बा अन्दर से बहुत छोटा व खचाखच भरा हुआ था। रेल के कुल ३ डिब्बे थे और प्रत्येक में २८ यात्री सवारी कर सकते थे। २ फीट की पटरी के ऊपर चलती रेल के अन्दर इससे ज्यादा जगह की उम्मीद कैसे की जा सकती है? धीरे धीरे रेल स्टेशन से बाहर सरकी और हमारी उन्मादपूर्ण व रोमांचक यात्रा की शुरुआत हुई। चूंकि यह रेल की पटरी सड़क पर चलती, कई बार सड़क पार करती है, हमने कई बार सड़क यातायात को अपने खातिर रोका।
कई बार घरों व दुकानों के सामने खड़े लोगों को हमने पीछे धकेला व रेल गुजरने की जगह बनायी। एक तरफ रस्ते भर बच्चे हाथ हिला हिला कर हमारा अभिनन्दन कर रहे थे तो दूसरी तरफ दुकानदार, खरीददार व अन्य लोग हमारे जाने का इंतज़ार कर रहे थे ताकि वे अपने अपने कार्य पर जल्द वापिस लौट सकें।
रेल पटरी के एक बाजू घाटी थी तो दूसरी तरफ सम्पूर्ण दार्जिलिंग शहर। कभी कभी शहर हमारे अत्यंत करीब आ कर हमें बैचैन कर देता था तब हम दूसरी तरफ घाटी का सुन्दर नजारा देख सुकून पाते।
बतासिया लूप अर्थात् बतासिया का घेरा
बतासिया घेरे पर रेल करीब १० से १५ मिनट तक रुकती है। यह घेरा रेलवे अभियंताओं ने इसलिए बनाया ताकि यह रेल पहाड़ की तीव्र चढ़ाई को सरलता से पार कर सके। पहले रेल रेलवे पुल के नीचे से होकर गुजरती है और फिर घूम कर उसी पुल के ऊपर से जाती है। यह एक मजेदार दृश्य होता है। इस घेरे के भीतर एक शहीद स्मारक है जो विभिन्न युद्धों में शहादत पाने वाले गोरखा सैनिकों को श्रद्धांजलि अर्पित करता है। इस शहीद स्मारक के चारों ओर सुन्दर बगीचा बना है।
बतासिया घेरा हिमालय की कंचनजंगा पर्वतमाला के अवलोकन हेतु सर्वोत्तम स्थान है, बशर्ते आसमान साफ़ हो।
यहाँ लगे एक सूचना फलक पर उन सभी भारतीय व विदेशी चलचित्रों की तस्वीरें लगीं हैं जिनके कई दृश्य दार्जिलिंग पर्वतीय रेल पर चित्रित किये गए हैं।
दार्जिलिंग स्टेशन
दार्जिलिंग स्टेशन भी उतना ही पुराना है जितना यह दार्जिलिंग पर्वतीय रेल परन्तु स्टेशन के मौलिक स्वरुप में समय के साथ बहुत बदलाव आया है। एक सूचना फलक पर इस रेल स्टेशन की अनेक तस्वीरें लगीं हैं जो समय के साथ इसमें आये बदलाव की कहानी कहतीं हैं।
श्वेत श्याम तस्वीरों में दिखता पुराने जमाने का स्टेशन वर्त्तमान स्वरुप से अपेक्षाकृत अधिक खूबसूरत है।
एक और फलक पर दार्जिलिंग हिमालय रेलवे का दार्जिलिंग से न्यू जलपाईगुड़ी तक का विस्तृत मार्ग बनाया है जो सभी स्टेशनों के नाम, ऊंचाई व सिलीगुड़ी से दूरी दर्शाता है। संयोग से दार्जिलिंग हिमालय रेलवे का मुख्यालय, दार्जिलिंग या सिलीगुड़ी में ना होकर, कर्सियांग में है।
घूम स्टेशन
घूम स्टेशन, दार्जिलिंग छोटी रेल का एक गंतव्य स्टेशन है। यहाँ रेल ३० मिनट रूकती है ताकि यात्री घूम स्टेशन व यहाँ स्थित एक संग्रहालय भी देख सकें। यह स्टेशन भी एक विरासती इमारत है। इसके पहिले मंजिल पर डी एच आर अर्थात् दार्जिलिंग हिमालय रेलवे संग्रहालय है। चटक पीले व लाल रंग में रंगे इस स्टेशन पर भी हिंदी चलचित्रों के कई दृश्य चित्रित किये गए हैं। इस स्टेशन को देख आपको उन सभी चलचित्रों की यादें ताज़ा हो आएगी। स्टेशन पर घूमते हुए, वाष्प इंजन की रेल को निहारते हमें ऐसा एहसास हो रहा था मानो हम स्वप्नलोक पहुँच गएँ हों। हमारे चारों ओर पहाड़, घाटियाँ, व्यस्त बाज़ार और इन्हें निहारते पर्यटक हमें किसी दूसरी दुनिया में ले गए।
“घूम स्टेशन भारत का सर्वाधिक ऊंचा रेलवे स्टेशन है।”
घूम स्टेशन पर टहलते मैं इस स्टेशन जितने पुराने डाकपेटी तक पहुंची जिसके दोनों तरफ युनेस्को द्वारा घोषित विरासत स्थल की फलक पट्टियां रखीं हुईं थीं।
अपनी सारी जिज्ञासाएं शांत कर मैं जैसे ही घूम स्टेशन की तरफ वापिस मुड़ी, मैंने देखा कि स्टेशन दो रेलगाड़ियों के बीच गर्व से खड़ा था। उस पर लिखा स्थापना दिवस “१८९१” शान से चमक रहा था।
घूम संग्रहालय
स्टेशन के एक कमरे में यह संग्रहालय बनाया है जो दार्जिलिंग हिमालय रेलवे की कहानी कहता है। जैसे मैदानी इलाकों से दार्जिलिंग तक पहुँचने हेतु लोगों को कैसी कैसी परेशानियों का सामना करना पड़ता था और समय बर्बाद होता था। समय की बचत करने व लोगों की यात्रा सुविधाजनक बनाने हेतु कैसे इस रेलवे की संकल्पना की गयी। चूंकि इसकी पटरियां “हिल कार्ट” रस्ते के समान्तर चलती है, धीमी गति की रेल सुविधा कालांतर में कैसे द्रुत गति बसों से अपेक्षाकृत पिछड़ने लगी। कुछ फलकों पर इस रेल की तकनीकी बारीकियां भी दिखायीं गईं हैं। स्टेशन, पटरियां, घेरों व दृश्यों की सुन्दर चित्रकारियां दार्जिलिंग हिमालय रेलवे के प्रारंभिक दिवसों को सजीव करतीं हैं। अखबार के पन्ने भी रखे हैं जिन पर इस रेल व इसकी यात्रा करते प्रतिष्ठित नागरिकों पर लेख छपे थे।
दार्जिलिंग हिमालय रेलवे के कई प्रतीकचिन्ह भी यहाँ रखे हैं। उनमें से एक सन १८७९ का था। इसका अर्थ यह है कि इस प्रतीकचिन्ह की कल्पना, १८८१ में हुए इस रेलवे की स्थापना के कई वर्ष पूर्व करी गयी थी।
“हिल कार्ट शेड अर्थात् पर्वतीय गाड़ी सड़क उन घोड़ागाड़ियों के लिए थी जो सिलीगुड़ी से दार्जिलिंग के मध्य दौड़तीं थीं। अब यह सड़क राष्ट्रीय राजमार्ग ५५ है।”
इस संग्रहालय में जिसने मेरा अधिकाँश ध्यान आकर्षित किया वह था, पुराने अंदाज़ का रेलवे टिकट जो गत्ते का बना और माचिस की डिबिया के आकार का था। काश इस विरासती धरोहर रेल को शोभायमान, इन्हीं टिकटों को आज भी इस्तेमाल किया जाता तो सोने पर सुहागा हो जाता।
दार्जिलिंग हिमालय रेल का विडियो
दार्जिलिंग हिमालय रेल की यात्रा के दौरान मेरे द्वारा लिया गया ३ मिनट का यह विडियो आपके लिए प्रस्तुत है-
दार्जिलिंग हिमालय रेलवे से मेरी अपेक्षाएं
घूम स्टेशन पर लगा एक सूचना पट्ट भारत के २ अनोखे रेल अनुभव का जिक्र करता है- एक हिमालय रेल और दूसरा डेक्कन ओडिसी। मुझे ख़ुशी है कि इस यात्रा के उपरांत मेरे दोनों अनुभव संपन्न हुए। तथापि मेरी यह इच्छा है कि रेल मंत्रालय इस दार्जिलिंग हिमालय रेलवे पर और ध्यान दे ताकि सवारी के उपरांत पर्यटकों का अनुभव अविस्मरणीय हो सके।इससे सरकार द्वारा अर्जित राजस्व में भी बढ़ोतरी होगी। इसके लिए मेरे कुछ सुझाव हैं-
जैसा कि मैंने पहले कहा था, इसकी टिकटें ठीक वैसी ही हों जैसी इसके स्थापना के दौरान हुआ करतीं थीं, गत्ते की बनी माचिस की डिबिया के आकार की। इसे पर्यटक यादगार स्वरुप रख सकते हैं।
एक परिदर्शक अर्थात् गाइड जो पर्यटकों को इस हिमालय रेलवे के इतिहास की जानकारी प्रदान कर सके। एक अनुभवी कथाकार जो इस अनुभव को अपने निराले अंदाज़ में अभूतपूर्व व स्वप्निल बना सके।
दार्जिलिंग स्टेशन की स्वछता पर खास ध्यान दिया जाय। रेल यात्रा के दौरान पर्यटकों को बाहर का दृश्य स्वच्छ व सुन्दर दिखे तो उनका आनंद दुगुना हो जाएगा। यह आसान कार्य नहीं है परन्तु कहते हैं ना! जहाँ चाह वहां राह।
रेल यात्रा के दौरान यदि जलपान की व्यवस्था हो तो पर्यटकों को सहूलियत होगी। साथ ही लोगों को रोजगार भी उपलब्ध होगा। पुराने तरीके से परोसी चाय का आनंद भी कुछ और ही होगा।
दार्जिलिंग व घूम स्टेशन पर लगी दुकानें भी यदि पुराने शैली की हों तो माहौल एकसार होगा।
दार्जिलिंग हिमालय रेलवे हेतु विशेष चिन्ह व स्मारिकाएं तैयार किये जाएँ जिन्हें पर्यटक यादगार स्वरुप खरीदकर ले जा सकें| स्मारिका पुस्तिका भी प्रकाशित की जा सकती है जो इस रेलवे की सारी जानकारी दर्शाती हो।
इन्टरनेट द्वारा इस रेल में स्थान निश्चित करने सुविधा उपलब्ध होनी चाहिए ताकि स्टेशन पर समय बर्बाद ना हो और पर्यटकों को निश्चिन्तता रहे।
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बहुत ही शानदार जगह का वर्णन किया है आपने ! अनारक्षित टिकट में सीट नहीं मिल पाती है क्या ?
धन्यवाद। जी नहीं, इस गाड़ी में अनारक्षित जाना संभव नहीं है।
अनुराधा जी आपके इन सुझावों से मैं पूरी तरह से सहमत हूँ।हमको विरासत मे मिला ये एक नायाब तोहफा हैं।जिसकी देखरेख हमें पूरी शिद्द्त से करनी चाहिए।
शालिनी जी, आशा है पश्चिम बंगाल पर्यटन विभाग और भारतीय रेल विभाग आपकी और हमारी बात सुनेगा और इस अनमोल धरोहर को सहेज कर रखने और पर्दर्शित करने के लिए आवश्यक कदम उठाएंगे।