आन्ध्र प्रदेश के विजयवाड़ा से कुछ किलोमीटर दूर स्थित एक छोटा सा गाँव – कोंडापल्ली। कृष्णा नदी के तट पर बसा यह ऐतिहासिक स्थल एक ओर अपने प्राचीन कोंडापल्ली दुर्ग के लिए प्रसिद्ध है तो दूसरी ओर लकड़ी के रंगबिरंगे पारंपरिक खिलौनों, गुड्डे-गुड़ियों एवं देवी-देवताओं की काष्ठ प्रतिमाओं के लिए जाना जाता है।
एक पहाड़ी के शीर्ष पर स्थित विशाल कोंडापल्ली दुर्ग इस क्षेत्र का संरक्षण करता प्रतीत होता है। अपने चरम काल में यह एक विशाल भव्य दुर्ग रहा होगा। काल के साथ कोंडापल्ली क्षेत्र में अनेक परिवर्तन हुए। यद्यपि यह दुर्ग अब भी भव्यता से परिपूर्ण है, तथापि गाँव पूर्णतः परिवर्तित हो चुका है। किन्तु कोंडापल्ली की एक परम्परा अब भी अखंड अनवरत रूप से जीवंत है। वह है, पारंपरिक कारीगरों द्वारा निर्मित कोंडापल्ली खिलौने।
कोंडापल्ली खिलौने
आपने अपने जीवन में कभी ना कभी लकड़ी की वह गुड़िया अवश्य देखी होगी जो अपना सर, वक्ष एवं कमर हिलाते हुए नृत्य करती है। जी हाँ, वह गुड़िया आंध्र प्रदेश के इस छोटे से गाँव, कोंडापल्ली की विशेष कलाशैली की एक अद्भुत देन है। जब आप कोंडापल्ली भ्रमण के लिए आयेंगे तो आप यहाँ के सभी कारीगरों को अपने घरों के भीतर अनेक प्रकार के काष्ठ खिलौने बनाते देखेंगे। मैंने इसलिए ऐसा कहा क्योंकि वे सभी साधारणतः अपने द्वार खुले रखकर अपने कार्य में तल्लीन हो जाते हैं।
किसी भी कारीगर के घर को ढूँढना अत्यंत आसान है। वे अपने घरों की भित्तियों पर सुन्दर आकृतियाँ चित्रित करते हैं। साधारणतः लाल रंग की भित्तियों पर श्वेत कोलम अथवा रंगोली द्वारा सुन्दर आकृतियाँ बनाते हैं। द्वारों एवं झरोखों की सीमाओं को विशेष बनाते हुए सुन्दर किनारियाँ चित्रित करते हैं। घरों एवं दुकानों के समक्ष लकड़ी की बैलगाड़ी जैसे पारंपरिक खिलौने प्रदर्शित करते हैं। कुछ बैलगाड़ियों पर अनाज के बोरे रखकर उन्हें परिवहन के साधन के रूप में भी प्रदर्शित करते हैं। उन्हें देख मुझे दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में प्रदर्शित सिन्धु घाटी सभ्यता स्थलों से प्राप्त मिट्टी की बैलगाड़ियों का स्मरण हो आया।
जब हम कोंडापल्ली गाँव में भ्रमण कर रहे थे तब हमने शुभ्र श्वेत रंग के कई उत्कीर्णित चौखट देखे जिन्हें सूर्य की धूप में सुखाने के लिए फैलाया हुआ था। यह उन्हें विविध चटक रंगों में रंगने से पूर्व की प्रक्रिया थी।
घरों के समक्ष स्थित आँगन में बैठकर घर के स्त्री एवं पुरुष पूर्ण एकाग्रता एवं धैर्यता से एक एक खिलौनों को विविध रंगों से रंगते हैं। मार्ग पर चलते लोगों से अनभिज्ञ, यहाँ तक कि ठहर कर उनके कार्यकौशल को निहारते लोगों से भी अबाधित, वे अपने कार्य में मग्न रहते हैं। उनकी एकाग्रता एवं तन्मयता देख हृदय उनके प्रति आदर भाव से भर जाता है।
नवरात्रि के लिए विशेष खिलौने
कोंडापल्ली गाँव के कारीगर नवरात्रि पर्व के लिए विशेष खिलौनों की रचना करते हैं। दक्षिण भारत में प्रचलित प्रथा के अनुसार नवरात्रि के नौ दिवस घर घर में एक संकल्पना के अंतर्गत विविध प्रकार के खिलौने रीतसर प्रदर्शित किये जाते हैं। बहुधा विशेष रूप से निर्मित बहुतलीय आलों पर ये खिलौने रखे जाते हैं। इस प्रदर्शनी को गोलू अथवा बोम्माला कोलुवु कहते हैं। आन्ध्र प्रदेश में ये खिलौने मकर संक्रांति के पर्व का भी महत्वपूर्ण भाग होते हैं। मेरे अनुमान से, इन कारीगरों द्वारा निर्मित कलाकृतियों का प्रयोग किसी ना किसी रूप में भारत के लगभग सभी उत्सवों में किया जाता है।
हमने इन कारीगरों द्वारा गढ़ी गयी गणेश, कृष्ण, दशावतार तथा कई अन्य देवी-देवताओं की कलाकृतियाँ देखीं। यहाँ निर्मित नर्तनशीला गुड़िया कोंडापल्ली की विशेष देन है। इन गुड़ियों को तंजावुर गुड़ियाँ भी कहते हैं। ये कारीगर विविध पक्षियों एवं पशुओं के आकार के खिलौने भी बनाते हैं। हमने एक ग्रामीण जनजीवन में प्रयुक्त लगभग सभी वस्तुओं की प्रतिकृतियाँ यहाँ खिलौनों के रूप में देखीं। ग्रामीण व्यवसायों से सम्बंधित खिलौने देखे, जैसे कुंभार, लुहार, किसान, भाजी विक्रेता आदि। कार, जीप जैसे आधुनिक खिलौने भी देखे। हमने भारत के राष्ट्रीय चिन्ह की प्रतिकृति भी देखी जिसे काष्ठ को उत्कीर्णित कर बनाया गया था। आपने इस कलाकृति को किसी ना किसी सरकारी कार्यालय में अवश्य देखा होगा। यदि आपको कोई विशेष खिलौना अथवा लकड़ी की भेंट वस्तु बनवानी हो तो आप उनसे निवेदन कर सकते हैं।
कोंडापल्ली ग्राम एवं कोंडापल्ली खिलौनों को सन् २००६ में भौगोलिक संकेत (GI अथवा Geographical Indicator Tag) प्रदान किया गया है। इसका अर्थ है कि ये कोंडापल्ली विशेष खिलौने केवल इसी गाँव में निर्मित किये जा सकते हैं। भौगोलिक संकेत एक प्रतीक है जो किसी उत्पाद को मुख्य रूप से उसके मूल स्थान से जोड़ता है। यह संकेत उत्पाद की विशेषता भी दर्शाता है।
कोंडापल्ली खिलौनों का इतिहास
ऐसा माना जाता है कि ये कारीगर कुछ सदियों पूर्व राजस्थान से यहाँ आये तथा यहीं बस गए। आपको स्मरण होगा, मैंने राजस्थान की सैकड़ों वर्ष प्राचीन कावड़ कलाकृतियों पर एक संस्करण लिखा था। विभिन्न धार्मिक एवं ऐतिहासिक लोककथाओं का चित्रण करते ये कावड़ भी लकड़ी द्वारा निर्मित किये जाते हैं तथा इन पर भी विविध चटक रंगों का प्रयोग किया जाता है।
कोंडापल्ली के ये दक्ष कारीगर स्वयं को ऋषि मुक्तर्षी के वंशज मानते हैं। मुक्तर्षी को भगवान शिव ने कला एवं शिल्प कौशल प्रदान किया था। इस प्रकार मुक्तर्षी कारीगर समुदायों के मार्गदर्शक ऋषि माने जाते हैं। स्थानीय भाषा में इन कारीगरों को नाकरशालु कहते हैं। पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार इन्हें आर्यक्षत्रिय कहा जाता है। इनका उल्लेख ब्रह्माण्ड पुराण में किया गया है। ये कुशल कारीगर खिलौने के अतिरिक्त मंदिरों एवं देवी-देवताओं के लिए रथों एवं वाहनों की भी रचना करते हैं।
मैं कारीगरों के निकट बैठकर उन्हें खिलौने गढ़ते देखने लगी। उन्होंने मुझे बताया कि इन खिलौने में प्रयुक्त मृदु लकड़ी अथवा काष्ठ स्थानीय पहाड़ी क्षेत्रों से ही उपलब्ध हो जाती हैं। इस काष्ठ को तेल्ला पोनिकी अथवा पोनुकू कहते हैं। ये कम भार के काष्ठ होते हैं जिसके कारण उनसे निर्मित खिलौने चाहे जितने भी बड़े हों, उनका भार भी कम ही रहता है।
इन काष्ठ के लट्ठों को सर्वप्रथम सुखाया जाता है। इसके पश्चात उनसे खिलौनों के भिन्न भिन्न अंश गढ़े जाते हैं। तत्पश्चात इन अंशों को पारंपरिक गोंद का प्रयोग कर एक दूसरे से जोड़ा जाता है। यह गोंद इमली के बीजों का चूरा एवं लकड़ी का बुरादा मिलाकर तैयार किया जाता है। इन खिलौनों को रंगने से पूर्व उन पर श्वेत चूने की परत चढ़ाई जाती है। पुरातन काल में इन खिलौनों को रंगने के लिए वनस्पति जन्य रंगों का प्रयोग किया जाता था। किन्तु अब बाजारों में व्यवसायिक रूप से उपलब्ध जल-रंगों (Water Colour), तैल-रंगों अथवा एनामेल रंगों का प्रयोग किया जा रहा है।
इस समुदाय का पुरुष वर्ग सामान्यतः लकड़ी काटने, उन्हें आकार देने तथा उन्हें उत्कीर्णित करने का कार्य करते हैं, वहीं स्त्रियाँ उन्हें रंगने का दायित्व बड़ी सुन्दरता से निभाती हैं। इसी प्रकार का कार्य विभाजन इससे पूर्व मैंने छत्तीसगढ़ के कला एवं शिल्प ग्राम एकताल में भी देखा था जो धातु शिल्प कला के कारीगरों का गाँव है।
यदि आप इन खिलौनों को क्रय करना चाहे तो आप इन्हें लेपाक्षी जैसे राज्य हस्तकला विक्रय भण्डार से ले सकते हैं। आप इन्हें इन्टरनेट द्वारा भी ले सकते हैं।
कोंडापल्ली दुर्ग
कोंडापल्ली अपने वैभवशाली दुर्ग के लिये भी लोकप्रिय है। कोंडापल्ली खिलौनों एवं कारीगरों के हस्तकौशल के अवलोकन के साथ आप इस दुर्ग का भी दर्शन कर सकते हैं जो समीप ही स्थित है। पूर्व में यह क्षेत्र पश्चिमी चालुक्य वंश एवं वारंगल के काकतिया वंश के आधीन था।
१४वीं शताब्दी के इस दुर्ग का निर्माण मसुनुरी नायक ने करवाया था। मसुनुरी नायक के पतन के पश्चात रेड्डी राजाओं, अनवेमा रेड्डी एवं पेद्दा कोमाटी वेमा रेड्डी ने दुर्ग पर अधिपत्य स्थापित किया। कालांतर में यह दुर्ग क्रमशः ओडिशा के गजपति राजाओं, विजयनगर के कृष्णदेवराय, तत्पश्चात गोलकोंडा के कुतुब शाही के अधिकार क्षेत्र में आया।
फ्रांसीसियों ने भी क्षणिक काल के लिए इस पर अधिपत्य स्थापित किया था जिसके पश्चात यह दुर्ग अंततः अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र में आया। अंग्रेजों ने इस दुर्ग में अपने सैनिकों के लिए एक प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना की।
यह दुर्ग अब खंडित स्थिति में है। किन्तु यह अब भी अपने वैभवशाली भूतकाल की गौरव गाथा कहने में पूर्णतः सक्षम है। यह दुर्ग युक्तिपूर्ण रूप से, विशेषतः गोलकोंडा से आते एवं पूर्वी समुद्र तट की ओर जाते प्राचीन व्यापार मार्ग पर स्थित था। इसी कारण इसमें कदापि अचरज नहीं है कि इस क्षेत्र के आसपास कारीगरों के अनेक गाँव बसे एवं फले-फूले हैं। इस मार्ग द्वारा वे आसानी से अपनी कलाकृतियों का व्यापार करते थे।
इस दुर्ग के भीतर एक आमसभा कक्ष, गजशाला, हाट क्षेत्र, अस्त्र-शस्त्र शाला, कारागृह तथा कुछ धार्मिक स्थल हैं। इस दुर्ग का तोरण युक्त कक्ष पर्यटकों में अत्यंत लोकप्रिय है। इस कक्ष की भित्तियों पर पुरातन छायाचित्रों को प्रदर्शित किया गया है।
जहाँ तक उत्कीर्णन का प्रश्न है, मैंने केवल कुछ ही स्थानों पर उत्तम उत्कीर्णनों के अवशेष देखे। कोंडापल्ली दुर्ग की खंडित होती भित्तियों पर अब पौधे एवं वृक्ष उगने लग गए हैं।
अपनी कोंडापल्ली यात्रा के समय आप कनकदुर्गा मंदिर, उन्दावल्ली की अखंडित शैल गुफाओं, नृत्य में तल्लीन नर्तकों का कुचिपुड़ी ग्राम आदि के भी दर्शन कर सकते हैं। अथवा कृष्ण नदी के तट पर पदभ्रमण कर सकते हैं।
कोंडापल्ली ग्राम के भ्रमण के लिए कुछ यात्रा सुझाव
कोंडापल्ली ग्राम विजयवाड़ा से उत्तर-पश्चिमी दिशा में लगभग २० किलोमीटर दूर स्थित है। आप यहाँ सड़क मार्ग द्वारा सुगमता से पहुँच सकते हैं। विजयवाड़ा देश के सभी क्षेत्रों से वायुमार्ग, रेलमार्ग तथा सड़कमार्ग द्वारा सुचारू रूप से संलग्न है।
मैंने कोंडापल्ली ग्राम तथा कोंडापल्ली दुर्ग, दोनों स्थलों पर किसी भी प्रकार का जलपानगृह अथवा भोजनालय नहीं देखा। अतः आप अपने साथ आवश्यक खाद्य पदार्थ एवं पेय सामग्री अवश्य रखें।
दुर्ग के अवलोकन के लिए लगभग ४५ मिनट का समय पर्याप्त है।
जहाँ तक कोंडापल्ली ग्राम का प्रश्न है, अवलोकन समयावधि आपकी रूचि पर निर्भर करती है।