गोवा राज्य की उत्तरीय सीमा पार करते ही आप सावंतवाड़ी में पहुँच जाते हैं। गोवा से मुंबई जाते समय या फिर मुंबई से गोवा आते समय रास्ते में आपको सावंतवाड़ी जरूर मिलता है। अगर आप ट्रेन से जाए तो भी वह कुछ समय के लिए सावंतवाड़ी में जरूर रुकती है। मुझे हमेशा से यह नाम बहुत ही दिलचस्प सा लगता है, जिसमें एक खास प्रकार का राजसी गौरव झलकता है। जब हम कास पठार – फूलों की घाटी, पर गए थे तो रास्ते में हम सावंतवाड़ी से गुजरते हुए गए थे। इसलिए अगली बार जब हमने अंबोली घाट पर जाने की योजना बनाई, तो हमने सुनिश्चित किया कि हमे सावंतवाड़ी में कम से कम आधा दिन बिताने का मौका जरूर मिले।
सावंतवाड़ी राजभवन
हमने इस सफर की शुरुआत सावंतवाड़ी राजभवन के दर्शन के साथ की। जब हम वहाँ पहुँचे तो हमे पता चला कि वह एक निजी महल है, जो वहाँ के कर्मचारियों के विचार-विमर्शों के अनुसार चलता है। इन कर्मचारियों का इस महल से एक खास प्रकार का लगाव है। उनके अनुसार वे आज भी इस महल के राजा के लिए कार्य करते हैं। शायद इसीलिए उन्हें यहाँ पर आनेवाले अतिथियों से अधिक मान-सम्मान दिया जाता है।
इससे पहले जब मैं वडोदरा के लक्ष्मी विलास महल के दर्शन करने गयी थी तब भी मुझे वहाँ पर कुछ इसी प्रकार की मनोवृत्ति देखने को मिली थी। बाद में मुझे पता चला कि सावंतवाड़ी की अनेक महारानियों में से एक महारानी वड़ोदरा के राजघराने से है। इस बात को जानने के पश्चात मुझे उनके इस व्यवहार से जरा भी हैरानी नहीं हुई। हमे दोपहर के समय फिर से आने के लिए कहा गया। मुझे उनका यह व्यवहार बिलकुल भी पसंद नहीं आया, लेकिन फिर भी राजभवन देखने की इच्छा से हम फिर से दोपहर के समय वहाँ पर चले गए।
इस राजभवन का प्रवेश द्वार लाल रंग का है। इस द्वार पर ब्रिटिश काल से जुड़े कुछ अभिलेख हैं जिनके अनुसार यह प्रवेश द्वार 1857 में परिवाहनों के लिया खोला गया था। यद्यपि मैं नहीं जान पायी कि वहाँ पर किसी अन्य प्रयोजन से बनाए गए कोई और दरवाजे हैं या नहीं। शायद वह अभिलेख बस एक रूपात्मक द्वार के निर्माण की याद में उत्कीर्णित किया गया था। आज यह राजभवन बहुत ही जीर्ण-शीर्ण स्थिति में खड़ा है। यहाँ का भूतपूर्व राजघराना आज भी इस महल के एक छोटे से भाग में रहता है और शायद महल का वही एक भाग आज भी सुव्यवस्थित रूप से रखा गया है। महल का बाकी का हिस्सा जिसमें राजदरबार भी शामिल है, आम जनता के लिए हमेशा खुला रहता लेकिन उसके दर्शन करने के लिए आपको टिकिट खरीदनी पड़ती है।
राजभवन का संग्रहालय
राजभवन की लाल दीवारों पर यहाँ-वहाँ उगी हरी घास, खास कर उसकी खिड़कियों और दरवाजों पर नाजुक से शामियानों की तरह बिछी घास की लंबी श्रृंखलाएँ उसे और भी आकर्षक बनाती है। इस राजभवन का एक भाग अब संग्रहालय में परिवर्तित किया गया है। यहाँ पर आप 10वी-12वी शताब्दी की विविध प्रकार की शिल्पकृतियाँ देख सकते हैं। इन अनेकों अनभिज्ञ मूर्तियों में से मैं केवल ब्रह्मा, गणेश और कौतूहलपूर्वक रवलनाथ और बेताल की मूर्तियों को ही ठीक से पहचान पाई थी।
इस भवन की दीवारों पर आप भोसले कुल की वंशावली देख सकते हैं, जिन्होंने 17वी से 20वी शताब्दी के मध्य तक यहाँ से अपना शासन चलाया था। यहाँ पर कुछ प्रदर्शन कक्ष भी हैं, जिनमें चित्र, तस्वीरें और स्थानीय कला से जुड़ी विभिन्न वस्तुओं को प्रदर्शित किया गया है। इन प्रदर्शित वस्तुओं में लकड़ी लाह के उत्पाद जैसे असबाब की वस्तुएं, थालियाँ, तटरक्षा के जहाज़, बक्से तथा शतरंज जैसे बोर्ड गेम्स आदि सबकुछ है। इनमें से कुछ वस्तुएं बेचने के लिए भी रखी गयी थीं।
मोती तलाव या झील
इस महल के पास ही एक कृत्रिम झील है, जिसे मोती तलाव कहा जाता है। अगर आज यहाँ पर बढ़ रही भीड़ को अनदेखा किया जाए, तो यह जगह काफी मनोरम और चित्रात्मक है। अगर आप महल के ऊपरी मजले पर जाकर बैठे, जहाँ से झील का सुंदर सा दृश्य नज़र आता है और उसपर अगर आपको एक अच्छी सी किताब और चाय का साथ मिल जाए तब तो यह पूरा दृश्य किसी स्वप्न से कम नहीं लगेगा।
सावंतवाड़ी राजभवन में 1952 में महात्मा गांधी की मेजबानी की गयी थी। यह ब्लॉग सावंतवाड़ी के इतिहास को जानने का सबसे उत्तम साधन है।
सावंतवाड़ी राजभवन में कला का प्रदर्शन
हमे सावंतवाड़ी राजभवन के पृष्ठभाग में ले जाया गया, जहाँ से हम इस भवन के राजदरबार में पहुँचे। लगता है कि इस दरबार को उसके वैभवपूर्ण दिनों से ही अच्छी तरह से संरक्षित किया जा रहा था, जिसके चलते आज भी वह उतना ही खूबसरत लग रहा था जितना कि शायद उन दिनों में लगता होगा। आज भी वहाँ पर भरवां प्राणी, महाराजा और महारानियों के चित्र और आयातित फानूस जैसी बहुत सी चीजें देखने को मिलती हैं। वैसे तो यह राजदरबार उतना शानदार नहीं है, जितने कि आप भारत के अन्य अधिकांश महलों में देख सकते हैं, लेकिन इस दरबार की अपनी ही एक अलग खासियत है जो आपको उसकी ओर आकृष्ट करती है।
कला और हस्तकला का केंद्र
इस दरबार की एक बात जो मुझे सबसे ज्यादा पसंद आयी वह यह है कि वह सिर्फ संग्रहालय के रूप में संरक्षित इतिहास का एक अंश मात्र नहीं है बल्कि वह कला और हस्तकला का एक जीता-जागता केंद्र है। चित्रकार और कलाकार राजसी परिवार की कृपा से आज भी यहाँ पर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। जब हम वहाँ पर गए थे तब बहुत से चित्रकार अपनी रंगपेटियाँ लिए अपने-अपने स्थान पर बैठकर विविध प्रकार के चित्र बनाने में मग्न थे।
कुछ चित्रकार गंजीफा के पत्तों पर चित्रकारी कर रहे थे, जिन पर उन्होंने बड़ी ही बारीकी से विष्णु के दस अवतारों के, तथा अन्य देवी-देवताओं के सुंदर चित्र बनाए थे। तो कुछ चित्रकार टैरो कार्ड बना रहे थे। तो अन्य कलाकार लकड़ी के बक्सों को रंगवाने में लीन थे। इनमें से अधिकतर बक्सों को बाद में गंजीफा के पत्ते रखने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि ये चित्रकार इन लकड़ी के बक्सों को रंगवाने के लिए जलवर्णों का प्रयोग करते थे और फिर उसे टिकाऊ बनाने के लिए उस पर लाह की परत चढ़ाते थे। आंध्रप्रदेश की यह तकनीक सालों पूर्व अपना विस्तार करते हुए सावंतवाड़ी आ पहुँची थी।
मैं यहाँ से गंजीफा पत्तों का एक संकुल खरीदना चाहती थी, लेकिन वे कुछ ज्यादा ही महंगे थे। कुछ पलों के लिए मैं यही सोचती रही कि इतने ऊँचे दामों के चलते बाज़ारों में इनका क्या स्थान होगा। मैंने उनसे पूछा कि क्या वे ये पत्ते सिर्फ मांग होने पर ही बनाते हैं, तो उनका जवाब था नहीं। लेकिन कुछ स्रोतों के द्वारा मुझे यह जानकारी मिली थी कि इनमें से अधिकतर हस्तकला की वस्तुओं का निर्यात किया जाता है। भले ही अब इन चित्रकारों और कलाकारों की संख्या कम होती जा रही हो, लेकिन कला की इन विभिन्न विधाओं को उनके देशज रूप में जीवित रखने का पूरा श्रेय भोसले परिवार को ही जाता है।
चित्राली गल्ली या चित्रकारों की गली, सावंतवाड़ी
चित्राली गल्ली सावंतवाड़ी की सबसे प्रसिद्ध खरीदारी की गली है। यहाँ पर आपको लकड़ी के खिलौने और बर्तन प्रचुर मात्रा में बिकते हुए नज़र आएंग। इस बाजार में यहाँ-वहाँ मिलनेवाले रंगबिरंगी ‘पाट’ या चौकी को आप चाहने पर भी अनदेखा नहीं कर सकते। इन चौकियों को उज्ज्वलित लाल और पीले रंगों से रंगवाया गया था और उस पर तोते का चित्र बनाया गया था। वहाँ पर फलों की टोकरियाँ थीं जिन में लकड़ी के बने हुए नकली फल रखे हुए थे जो बिलकुल असली लग रहे थे। इसके अलावा वहाँ पर तबलफल जैसे खेल, बच्चों के लिए बनाए गए लकड़ी के खिलौने और लकड़ी के बर्तन जैसे चम्मच, लेपनी आदि और सूईदाब के उपादान जैसे सभी प्रकार की वस्तुएं थीं।
मेरा वाचन मुझसे कह रहा था कि ये वही वस्तुएं हैं जो ये लोग शताब्दियों पूर्व बनाया करते थे। शायद इन वस्तुओं के लिए भी यहाँ पर कोई खास बाज़ार लगता होगा, लेकिन मुझे लगता है कि अब उन्हें कुछ नवीन प्रकार की चित्रकारी आजमाने की आवश्यकता है, ताकि वे अपनी चित्रकला, हस्तकला और उससे जुडी अपनी आजीविका का अच्छी तरह से पालन-पोषण कर सके।
मुझे बताया गया था कि एक समय में ये कारीगर अपनी कलाकृतियाँ बनाने के लिए शिवालय की लकड़ी का उपयोग किया करते थे, लेकिन समय के साथ धीरे-धीरे उसकी उपलब्धता सीमित होती गयी और फलस्वरूप दिन प्रति दिन उसके दाम भी आसमान छूने लगे। इस वजह से कारीगरों ने शिवालय की लकड़ी के स्थान पर लकड़ी का बुरादा इस्तेमाल करना शुरू किया। आज लकड़ी की वस्तुओं के निर्माण में बुरादा मुख्य सामग्री के रूप में प्रयुक्त होता है। उनकी कीमत भी यथोचित और योग्य होती है। हमने वहाँ से काफी वस्तुएं खरीदी जिनमें लकड़ी के आभूषण भी थे।
अगर आप कभी सावंतवाड़ी गए तो वहाँ का मसालेदार मालवणी खाना जरूर खाइये जो कि मछली के व्यंजनों के लिए बहुत प्रसिद्ध है।
शिल्पग्राम
इस सब के अलावा सावंतवाड़ी में एक शिल्पग्राम भी है जो सीमित समय के कारण हम नहीं देख सके। पर अगली बार जब मैं सावंतवाड़ी से गुजरूंगी तब मैं वह शिल्पग्राम देखने जरूर जाऊँगी।
भारत के छोटे-छोटे शहर जिन में आज भी प्रचुर सांस्कृतिक विरासत बसती है, मुझे हमेशा अचंभित कर देते हैं। महाराष्ट्र में बसे अनेक पर्यटन स्थलों में से यह भी एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है, जहाँ पर आपको जरूर जाना चाहिए। मुंबई वासियों के लिए शांतिपूर्ण सप्ताहांत बिताने हेतु यह सबसे अच्छी जगह है, जो कोंकण रेल्वे से मुंबई से जुडी हुई है।
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