छत्तीसगढ़ के उत्तरी भाग में बसे इस अचानकमार वन्यजीव अभयारण्य में हम देर रात को पहुंचे। यद्यपि उस अंधेरी रात में हम आस-पास के ऊंचे-ऊंचे पेड़ देख सकते थे, लेकिन इसके अलावा हमे वहाँ पर और कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। हम जंगल के विभिन्न भागों के प्रवेश स्थलों पर स्थित नाकों को पार करते हुए आगे बढ़ते गए और अंत में अमाडोब आश्रय घर के पास जाकर रुके, जहाँ पर हम ठहरे हुए थे। वहाँ पहुँचते ही आश्रय घर के कर्मचारियों ने बड़ी ही प्रसन्नता से हमारा स्वागत किया। उसके बाद अपने कमरे की ओर जाने से पहले मैंने आश्रय घर के प्रबंधक के साथ थोड़ी बातचीत की।
उन्होंने मुझे अचानकमार वन्यजीव अभयारण्य में स्थित तथा उसके आस-पास स्थित कुछ महत्वपूर्ण स्थलों के बारे में बताया। यह अभयारण्य एक टाईगर रिजर्व भी है जो बाघ परियोजना का एक भाग है। इस अभयारण्य से जुड़े एक उपाख्यान के अनुसार कहा जाता है कि बहुत साल पहले यहाँ पर एक बाघ द्वारा हुए अचानक आक्रमण के कारण एक अंग्रेज़ व्यक्ति की मौत हुई थी और इसी वजह से इस अभयारण्य को अचानकमार के नाम से जाना जाने लगा।
अचानकमार वन्यजीव अभयारण्य – उपाख्यान और कथाएं
दूसरे दिन सुबह जल्दी उठकर जब मैं बाहर टहलने गयी तो वहाँ का नज़ारा देखकर मुझे एक गहन शांति का आभास हुआ। इस आश्रय घर का पूरा आँगन सागौन, साल और महुए के पेड़ों से गिरे सूखे पत्तों से भरा पड़ा था, जैसे कि अभी-अभी पतझड़ गुजरा हो। वहाँ पर सब कुछ इतना शांत था कि पवन के मंद-मंद झोकों की वह मधुर धुन स्पष्ट सुनाई दे रही थी। इन सूखे पत्तों पर चलते हुए मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे पैरों तले बीता हुआ कल बिछा हुआ है और ऊपर पेड़ों की शाखों पर अंकुरित होते नए पत्ते जैसे आने वाले भविष्य की ओर संकेत कर रहें हो।
इन सूखे पत्तों के बीच महुआ के छोटे-छोटे पीले फूल भी गिरे हुए थे। हमे बताया गया कि यह महुआ का पुष्पणकाल है और इस दौरान यहाँ के सभी स्थानीय लोग पूरे दिन इन फूलों को एकत्रित करने में जुटे हुए दिखाई देते हैं। साल वृक्ष पर भी उज्ज्वलित हरे रंगे के पत्ते अंकुरित हो रहे थे। इनका यह उज्ज्वलित हरा रंग आस-पास खड़े पलाश के पेड़ों के उज्ज्वलित केसरी रंग तथा अन्य पेड़ों के लाल, गुलाबी और पीले रंगों से बहुत विषम सा लग रहा था। कुछ साल के वृक्षों पर तो सफ़ेद फूल भी खिल आए थे। पूरे अभयारण्य में फैले इन ऊंचे-ऊंचे सुंदर से पेड़ों का वह नज़ारा सच में बहुत ही सुखदायक अनुभव था। इनकी छाव में सूर्य की तपती हुई धूप भी जैसे बहुत ही नरम महसूस हो रही थी।
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वन्यजीव अभयारण्य
अचानकमार वन्यजीव अभयारण्य छत्तीसगढ़ में स्थित 11 वन्यजीव अभयारण्यों में से एक है। 555 वर्ग कि.मी. की जमीन पर फैला हुआ यह वन एक पहाड़ी क्षेत्र है जो सतपुड़ा पर्वतश्रेणी की मैकल पर्वतमाला से घिरा हुआ है। इसे उत्तरीय उष्णकटिबंधीय आर्द्र पर्णपाती वन के रूप में वर्गीकृत किया जाता है यह पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश में स्थित कान्हा राष्ट्रीय उद्यान से जुड़ा हुआ है। कहते हैं कि यहाँ पर बाघ, तेंदुआ, लकड़बग्धा, सियार, सांभर, नीलगाय, गौर और जंगली सांड जैसे अनेक पशु हैं, लेकिन जब हम वहाँ पर गए थे तो हमे वहाँ पर इनमें से एक भी जानवर नहीं दिखा। पर हमे वहाँ बहुत सारे लंगूर और बंदर जरूर दिखे जो एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर छलांग मरते हुए यहाँ-वहाँ खेल रहे थे। वहाँ पर पशुओं के बहुत से झुंड थे जो जंगल में यहाँ-वहाँ चर रहे थे।
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अगर वृक्षों की बात करें तो इस अभयारण्य में आप साल, साजा, तेंदू, बांस, धावड़ा, हल्दू, करौंदा, जामुन, बेल और कतीरा जैसे अनेक पेड़ देख सकते हैं। जिन में साल वृक्षों की संख्या सबसे अधिक है, तो करौंदे के पेड़ों की तरह बांस भी कहीं-कहीं नज़र आ रहे थे। इस जंगल के आंतरिक क्षेत्रों में बसे बहुत से गांवों को जंगल के बाह्यांचल में स्थानांतरित किया जा रहा था। इन गांव वालों द्वारा पीछे छोड़े हुए उनके जीवन की कुछ झलकियाँ अभी भी वहाँ पर थीं, जैसे कि उनके मिट्टी के घर और छोटे-छोटे तालाब।
श्रद्धेय साल वृक्ष
अचानकमार जंगल की सफारी के दौरान हमे उससे जुड़े एक और उपाख्यान के बारे में जानने का मौका मिला। वहाँ पर एक बहुत ही पुराना साल का वृक्ष है, जिस पर साल 1955 और 1990 में बिजली गिरी थी। कहा जाता है कि पहले उसकी ऊंचाई लगभग 155 फीट की थी और चौढ़ाइ 6 फीट की। लेकिन उस दुर्घटना के बाद अब उसकी ऊंचाई सिर्फ 25-30 फीट ही रह गयी है और उसका तना भीतर से बिलकुल खोखला हो गया है। यहाँ के स्थानीय लोग आज भी इस पेड़ की पूजा करते हैं। इस पेड़ के नजदीक जाते समय आपको अपने जूते उतारकर जाना पड़ता है। जो भी स्थानीय व्यक्ति यहाँ से गुजरता है वह इस पेड़ को अपना प्रणाम अवश्य अर्पित करता है। यहाँ तक कि यात्रियों या आगंतुकों को उसका परिचय देने से पहले भी ये लोग इस पेड़ को प्रणाम करते हैं। इन लोगों का मानना है कि उनके आराध्य भगवान बुद्ध देव इसी पेड़ में बसते हैं। उनकी इसी आस्था ने इस पेड़ को एक जीता जागता मंदिर बना दिया है।
जैसे कि अधिकतर आदिवासी इलाकों में होता है, यहाँ पर भी आदिवासी लोग इस जंगल के संरक्षक के रूप में यहाँ निवास करते हैं। वे यहाँ पर स्थानांतरणीय खेती भी करते हैं, जिसमें एक सीमित अवधि के लिए वे जमीन के छोटे से टुकड़े पर अपनी खेती करते हैं। और फिर खेती का काम पूर्ण होने के पश्चात उस जमीन को फिर से उपजाऊ बनने के लिए वैसी ही छोड़कर दूसरे स्थान पर चले जाते हैं। कुछ आदिवासी जातियाँ तो खेती करते समय हल का भी उपयोग नहीं करते क्योंकि वे धरती को अपनी माँ के समान मानते हैं।
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इस अभयारण्य की सफारी करने का सबसे अच्छा तरीका है, कि आप बिलासपुर में ठहरे और फिर इस वन के दर्शन करने जाइए। यहाँ की अन्य सुविधाओं की तरह इस अभयारण्य में निवास की योजना भी बहुत सीमित है।