पर्यटन स्तर पर गोवा की जो छवि प्रस्तुत की जाती है वह बहुत ही सीमित है। इसी गोवा में मंदिरों के अस्तित्व की बात सुनकर लोगों को हैरानी होती है। लेकिन ये मंदिर ही गोवा की सादगी, सुंदरता और संस्कृति का प्रतीक है और इन्ही में गोवा का इतिहास भी रचा बसा हुआ है। अगर आप गोवा के समुद्र तटों और वहां के वातावरण से अपनी नज़रें हटाकर उसकी ऐतिहासिक विरासत की ओर ध्यान देंगे तो शायद आपको यह एहसास होगा कि, गोवा का इतिहास बहुत ही समृद्ध है। वास्तव में यह विश्व के सबसे प्राचीन निवासित क्षेत्रों में से एक है।
आज मैं आपको गोवा के दक्षिण पूर्वीय क्षेत्रों की यात्रा करवाना चाहती हूँ जो गोवा के बहुत से प्राचीन मदिरों का आश्रय है।
गोवा में स्थित प्राचीन सारस्वत मंदिर
गोवा के मंदिरों को अगर उनके मौजूदा स्थान के हिसाब से देखा जाए तो शायद वे कुछ ही सदियों पुराने नज़र आएंगे। लेकिन सच तो यह है कि ये मंदिर बहुत ही प्राचीन हैं। गोवा के अधिकतर मंदिर स्थानांतरित हैं। अर्थात ये मंदिर अपने मूल निर्मित स्थान पर न होकर अपने पुनः निर्माण के स्थान पर स्थापित हैं। यानि जिस स्थान पर ये मंदिर बनवाए गए थे उन्हें वहां से अपने वर्तमान स्थान पर पुनः स्थापित किया गया है।
अगर आप गोवा के इतिहास के बारे में पढ़ेंगे तो आपको इन सारस्वत मंदिरों के इतिहास की थोड़ी बहुत जानकारी जरूर मिलेगी। ये मंदिर पहले गोवा राज्य या गोवापुरी, जैसा कि उसे पहले कहा जाता था, के विभिन्न क्षेत्रों में फैले हुए थे। लेकिन पुर्तुगाली शासन काल के दौरान जब पुर्तुगालियों द्वारा इन मंदिरों का विध्वंस होने लगा, तब ब्राह्मण परिवारों ने अपने देवी-देवताओं की रक्षा करने हेतु उन मंदिरों में स्थापित मूर्तियों को अपनी मूल जगह से विस्थापित कर, उन्हें फोंडा और उसके आस-पास के क्षेत्रों में पुनः स्थापित किया। और बाद में धीरे-धीरे यहां पर मंदिरों का निर्माण होने लगा। इन नवनिर्मित मंदिरों में पुर्तुगाली वास्तुकला की छाप स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
गोवा के देवस्थान
गोवा में मंदिरों को देवस्थान कहा जाता है। यह आम तौर पर गाँव के बीचों-बीच बसे होते हैं और पूरे गाँव का जीवन इन्हीं देवस्थानों के इर्द-गिर्द घूमता है। यहां पर न सिर्फ धार्मिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, बल्कि सामाजिक कार्यक्रम भी होते रहते हैं। इन देवस्थानों की देख-रेख खास परिवारों द्वारा की जाती है, जिन्हें महाजन कहा जाता है। गोवा के अधिकतर देवस्थान यहां के सारस्वत ब्राह्मण परिवारों के कुलदेवताओं के मंदिर हैं। ये वे ब्राह्मण परिवार हैं जो पुर्तुगालियों के आने से पहले भी इस क्षेत्र पर राज्य करते थे।
गोवा के शिव-पार्वती मंदिर
गोवा के अधिकतम सारस्वत मंदिर भगवान शिव और उनकी पत्नी देवी पार्वती को समर्पित किए गए हैं। इन मंदिरों में आप भगवान शिव और देवी पार्वती के विविध स्वरूप देख सकते हैं। लेकिन इन मंदिरों की विशेष बात यह है कि, इनमें से किसी भी मंदिर में भगवान शिव और देवी पार्वती एक साथ निवास नहीं करते। अर्थात भगवान शिव के मंदिरों में आपको देवी पार्वती की कोई निशानी नहीं मिलती, उसी प्रकार देवी पार्वती के मंदिरों में भगवान शिव का कोई उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन भक्तों में यह भिन्नता नहीं दिखती है, वे दोनों को समान रूप से पूजते हैं।
गोवा के मंदिरों की यह बात कुछ असामान्य सी है, क्योंकि, शिव और पार्वती को समर्पित भारत के अन्य मंदिरों में अगर किसी एक को प्रमुख देवी/देवता के रूप से पुजा जाता है तो दूसरे को परिवार देवता के रूप में पूजा जाता है। तथा भारत के अधिकतर शिव मंदिरों में पार्वती के साथ, कार्तिकेय और गणेश को भी पूजा जाता है।
लेकिन गोवा के मंदिरों की बात थोड़ी अलग है। यहां पर सारस्वत manमंदिर मंदिर के प्रमुख देवता के साथ उस क्षेत्र के ग्रामपुरुष को पूजा जाता है। जैसे मंगेशी के मंदिर में भगवान शिव के साथ मूलकेश्वर, जो वहां का ग्रामपुरुष या स्थानीय पुरुष है, को मान्यता दी जाती है। आम तौर पर ग्रामपुरुष वह व्यक्ति होता है, जिसने मंदिर बनवाने में लोगों की बहुत सहायता की हो।
गोवा के मंदिरों की वास्तुकला
पुर्तुगालियों ने गोवा पर 400 सालों से भी अधिक काल के लिए शासन किया था । इस काल के दौरान उनके द्वारा गोवा के अधिकांश मंदिरों का विध्वंस किया गया था। इसी से त्रस्त होकर लोगों ने इन मंदिरों की मूर्तियों को दूसरी जगहों पर ले जाकर उन्हें वहीं पर स्थापित कर नए मंदिरों का निर्माण किया। जिसके कारण आज उनका मूल स्वरूप या फिर उनकी मूल वास्तुकला का अंदाजा लगाना या उसकी जानकारी मिलना बहुत कठिन है।
लेकिन गोवा में एक मंदिर ऐसा है जो पुर्तुगालियों के विध्वंस से अछूता, आज भी सुरक्षित है। वह है ‘तांबड़ी सुर्ला का महादेव मंदिर’ जो पत्थरों से बनवाया गया था। आज यह मंदिर गोवा के खोये हुए इतिहास के प्रमाण के रूप में हमारे सामने खड़ा है। इससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि, उस काल के अन्य मंदिर भी इसी प्रकार पत्थरों से बनवाए गए होंगे और देखा जाए तो पूरे भारत में भी उस समय मंदिरों के निर्माण की यही परंपरा प्रचलन में थी।
17-18 वी शताब्दी के दौरान गोवा के आस-पास के क्षेत्रों के अनेकों राजाओं के प्रश्रय में बनवाए गए नवीन मंदिरों की वास्तुकला अप्रतिम है। इन मंदिरों की संरचना में आप इस्लामी वास्तुकला और पुर्तुगाली वास्तुकला की स्पष्ट झलक देख सकते हैं, जिसके साथ ही ये हिन्दू मंदिरों की सूक्ष्मताओं को बरकरार रखे हुए हैं।
गोवा के मंदिरों की विशेषताएँ
गोवा के प्रत्येक मंदिरों के उपर शिखर होती है, जो कभी गुबंद या फिर एक लंबे से गुबंद की तरह होती है। यह शिखर कभी ईंटों और गारे से बनी होती है, तो कभी पीतल की होती है। कुछ मंदोरों में यह शिखर पिरामिड की तरह होती है जो त्रिकोणीय आकार की होती है।
गोवा के मंदिरों को अक्सर उज्जवलित रंगों से रंगवाया जाता है, जैसे कि नीला, पीला, लाल आदि, जो उन्हें और भी आकर्षित बनाते हैं।
इन मंदिरों में प्रमुख प्रवेश द्वार के अलावा और भी द्वार होते हैं जो आपको सीधे मंदिर के गर्भ गृह तक ले जाते हैं। इन दरवाजों की चौखट चाँदी से उत्कीर्णित होती है, जो मंदिर की सुंदरता को और भी बढ़ाते हैं।
गोवा के मंदिरों में स्थापित देवी-देवताओं की मूर्तियाँ अक्सर काले ग्रेनाइट पत्थर की होती हैं। इन मूर्तियों को आभूषणों से इस प्रकार सुशोभित किया जाता है कि, उनके उत्कीर्णन की सूक्ष्मताओं को देख पाना मुश्किल है। इन मूर्तियों के सिर्फ मुख और मुकुट ही दृष्टिगोचर होते हैं, जिसके साथ उनकी थोड़ी-बहुत बारीकियाँ और विशेषताएँ भी झलकती हैं।
गोवा के कुछ मंदिरों में आप लकड़ी की कारीगरी भी देख सकते हैं, जो यहां की सदियों पुरानी परंपरा रही है। मुझे बताया गया कि लगभग एक शताब्दी पहले तक गोवा के सारे मंदिरों में ऐसी ही लकड़ी की कारीगरी हुआ करती थी, जो धीरे-धीरे ईंटों और गारे का स्वरूप लेने लगी है।
यहां के प्रत्येक मंदिरों के पास मंदिर का एक सरोवर होता है, जो चौकोर या आयताकार आकार का होता है, इसे स्थानीय भाषा में ‘तळी’ कहते हैं।
गोवा के हर सारस्वत मंदिर में वार्षिक उत्सव या मेला होता है, जिसे ‘जात्रा’ कहा जाता है। इस उत्सव के कुछ ही दिन पहले पूरे मंदिर को रंगवाकर उसे सजाया जाता है, तथा टिमटिमानेवाली बत्तियों से मंदिर को प्रकाशमय किया जाता है। इस समय मंदिर के प्रमुख देवी/देवता की यात्रा निकाली जाती है, जिसे देखने के लिए बहुत सारे भक्त आते हैं। इस यात्रा में मंदिर के देवता को उनकी सवारी या वाहन, जिसे ‘पालकी’ कहते हैं, में बिठाकर उन्हें पूरे मंदिर के गोल प्रदक्षिणा के रूप में ले जया जाता है। भगवान की यह पालकी लकड़ी की बनायी जाती है जिस पर बारीक और अप्रतिम नक्काशी का काम होता है। इस पालकी को एक खास कक्ष में रखा जाता है, जिसे पालकी घर या वाहनशाला कहते हैं।
यहां के मंदिरों में छतों के आंतरिक भाग से लंबे-लंबे झूमर लटकते हुए नज़र आते हैं, जो लगभग 18-19 वी शताब्दी के होंगे, क्योंकि, इसी काल के दौरान इन मंदिरों का निर्माण हुआ था और उस समय इस प्रकार के झूमर काफी प्रचलित थे।
इन मंदिरों के दर्शन लेने हेतु आए हुए भक्त यात्रियों को यहां पर ठहरने के लिए खास कमरों और भोजनालयों की भी व्यवस्था की गयी है।
तो आइए मैं आपको गोवा के कुछ प्रसिद्ध सारस्वत मंदिरों की सैर करवाती हूँ।
श्री शांतादुर्गा मंदिर, कवले (कवळे)
शांतादुर्गा एक विरोधालंकार शब्द है। शांता का अर्थ होता है शांत और नीरव, वहीं दुर्गा बहुत ही आक्रामक और उग्र स्वभाव की देवी मानी जाती है। इस संबंध में गोवा के लोगों का मानना है कि गोवा इतना अमनप्रिय स्थल है कि दुर्गा भी यहां आकर नीरवता का रूप धारण करती है।
शांतादुर्गा देवी से जुड़े कुछ उपाख्यान बताते हैं कि, एक बार जब भगवान शिव और विष्णु के बीच भयंकर युद्ध हुआ था तब इस युद्ध को रोकने के लिए माँ दुर्गा संधाता के रूप में आयी थी। कहते हैं कि, ब्रह्मा जी की प्रथना सुनकर माँ पार्वती ने दुर्गा का रूप धारण कर युद्ध में हस्तक्षेप किया और विष्णु को अपने दाईने हाथ और शिव जी को अपने बाएं हाथ पर ग्रहण किया था। उनके इसी स्वरूप को शांतादुर्गा देवी के नाम से जाना जाता है। अर्थात माँ दुर्गा जो शांति दूत बनी। उन्हें स्थानीय लोगों द्वारा श्री शांतेरी देवी के नाम से भी जाना जाता है। उनके मंदिर पूरे गोवा में फैले हुए हैं।
इसी प्रकार कुछ अन्य उपाख्यान के अनुसार माना जाता है कि, उन्होंने कलांतक राक्षस का वध किया था, जिसके कारण उन्हें विजयदुर्गा भी कहा जाता है। और देखा जाए तो अब यह मंदिर भी शांतादुर्गा विजयते के नाम से जाना जाता है। इसमें भी विरोधलंकार दिखाई देता है, यानि शांति से विजय प्राप्त करने वाली दुर्गा देवी। कुछ उपाख्यानों के अनुसार शांतादुर्गा देवी को जगदंबा देवी का अवतार भी माना जात है।
शांतादुर्गा देवी का मूल मंदिर
शांतादुर्गा देवी का मूल मंदिर केलोशी (केळोशी) गाँव में बसा हुआ था जिसे 1564 ई में पुर्तुगालियों से संरक्षण के लिए वहां से स्थानांतरित किया गया था। बाद में 1730 ई में कवले (कवळे) गाँव में उनके नवीन मंदिर का निर्माण किया गया। कवले उस समय हरिजनों का गाँव हुआ करता था। इन्हीं हरिजनों ने मंदिर के निर्माण कार्य में बहुत सहायता की थी, ताकि उनकी जमीन पर देवी माँ का नया मंदिर खड़ा हो सके। उनके इस परोपकारी स्वभाव से खुश होकर देवी माँ के भक्तों द्वारा उन्हें देवी के चढ़ावे की वस्तुओं से सम्मानित किया गया था, जो प्रथा आज भी चलती आ रही है। बाद में यह मंदिर सरदेसाई नामक व्यक्ति के संरक्षण में चला गया, जो गोवा में अदिल शाह के प्रतिनिधि हुआ करते थे। मंदिर से जुड़े सारे विधि-कार्य उन्हीं की निगरानी में होते थे। चाहे वह मंदिर का वार्षिक उत्सव हो या फिर देवी की पालकी यात्रा। इस प्रकार से धीरे-धीरे समय के साथ यह सरदेसाई परिवार की परंपरा बन गयी, जिसे आज तक उस परिवार के व्यक्तियों द्वारा पूरी निष्ठा से निभाया जाता है।
इस मंदिर की छत पिरामिड के आकार की है जिसे लाल रंग से रंगवाया गया है। इसके उपर मंदिर की शिखर है जो थोड़ी सी लंबी और कुछ गोलाकार सी है जिसके उपर एक छोटा सा गुबंद है। इस मंदिर की खिड़कियाँ थोड़ी लंबी और रोमानी मेहराबों की तरह हैं जिन्हें रंगीन काँच से सुशोभित किया गाय है। अगर इस मंदिर को सम्पूर्ण तौर पर देखा जाए तो इसकी वास्तुकला अप्रतिम है।
सूर्य की रोशनी का प्रतिबिंब
जब मैं इस मंदिर में गयी थी तो वहां पर सुबह की आरती चल रही थी। सुबह की इस आरती के समय मंदिर में स्थापित देवी की मूर्ति को सूर्य प्रकाश से ज्योतिर्मय किया जाता है। इसके लिए एक बड़े से आईने का प्रयोग किया जाता है, जिससे सूर्य के प्रकाश को देवी के चेहरे पर प्रतिबिंबित किया जाता है। यही इस मंदिर की प्रमुख विशेषता है। मैंने यह प्रकार इससे पहले किसी भी अन्य मंदिर में नहीं देखा था। यह सबकुछ सच में बहुत ही सुंदर और देखने लायक है। यह मंदिर बहुत ही लंबा है और उसके गर्भगृह में स्थापित देवी की मूर्ति और प्रवेश द्वार के बीच लगभग 100 मिटर का अंतर है। इतनी दूरी से सूर्य की रोशनी को आईने के द्वारा देवी के मुख पर केन्द्रित करना बहुत ही अनोखी बात थी। सूर्य की रोशनी पड़ते ही देवी की मूर्ति जैसे प्रफुल्लित सी हो उठती है, जो उसकी सुंदरता को और भी बढ़ाती है। मूर्ति की इस सुंदरता से आप इतने मोहित होते हैं कि, आपकी नज़रें मूर्ति से हट ही नहीं पाती।
जैसा कि उपर बताया गया था, गोवा के मंदिरों में प्रमुख देवी/देवता के साथ मूलपुरुष को भी समान महत्व दिया जाता है। यह मूलपुरुष वह व्यक्ति होता है जो मूर्ति कि स्थापना में या मंदिर के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस मूलपुरुष के नाम से मुख्य मंदिर के पास ही एक छोटा सा मंदिर बनवाया जाता है। शांतादुर्गा मंदिर के संदर्भ में यह कार्य लोमशर्मा, जो कौशिक गोत्र के हैं, द्वारा किया गया था और उनके नाम से यहां पर एक छोटा सा मंदिर भी है।
शांतादुर्गा मंदिर की अधिक जानकारी के लिए आप मंदिर से संबंधित वैबसाइट देख सकते हैं।
श्री रामनाथ प्रसन्न देवस्थान, रामनाथी
रामनाथ मंदिर अक्सर रामनाथी मंदिर के नाम से जाना जाता है। वास्तव में यह मंदिर भगवान शिव का है, लेकिन इसका नामकरण राम के नाम से किया गया है। कहा जाता है कि, लंका से वापसी के दौरान जब राम, सीता और लक्ष्मण रामेश्वरम में ठहरे थे तब भगवान राम ने वहां पर शिवलिंग की स्थापना करके शिव भगवान की आराधना की थी। इसी घटना के स्मरणोत्सव स्वरूप यह मंदिर बनवाया गया था।
यह मंदिर लगभग 450 साल पुराना है। यहां के परिसर को देखकर मंदिर की प्राचीनता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। यहां की प्रत्येक वस्तु अपनी प्राचीनता को बयां करती हुई नज़र आती है। इस मंदिर को देखकर ऐसा लगता है जैसे कि, उसके रख रखाव और नवीकरण पर ध्यान ही नहीं दिया गया हो।
भगवान रामनाथ के साथ ही यहां पर उनकी दोनों जीवन संगिनियों यानि देवी कामाक्षी और देवी शांतेरी के मंदिर भी स्थापित हैं।
रामनाथी मंदिर मूलतः लोटली गाँव में स्थित था, जहां पर आज बिगफूट संग्रहालय बसा हुआ है। वहां से इस मंदिर को पुर्तुगालियों से संरक्षित करने हेतु अपने वर्तमान स्थान यानि रामनाथी में स्थानांतरित किया गया था। शायद इसीलिए इस मंदिर को रामनाथी के नाम से भी जाना जाता है।
इस मंदिर की वैबसाइट के अनुसार श्री रामनाथ विष्णु और शिव जी की एकता का प्रतीक है। अर्थात हरी यानि विष्णु और हरा यानि शिव की एकरूपता से निर्मित हरी-हरा यानि रामनाथ जिसका अर्थ है राम के नाथ। अब रामनाथ मंदिर की वैबसाइट द्वारा अपने अनुयायियों के लिए ऑनलाइन दर्शन की भी व्यवस्था भी की गयी है।
श्री महालक्ष्मी मंदिर, बांदोड़ा
श्री महालक्ष्मी मंदिर दक्षिण गोवा में फोंडा तालुका के पास ही बसे बांदोड़ा गाँव में स्थित है। यह मंदिर उज्जवलित पीले रंग का है, जो कि गोवा के अधिकतम घरों से मिलता जुलता है। यह मंदिर अपनी बड़ी-बड़ी खिड़कियों और अपने विशाल आकार के कारण किसी राजसी भवन की भांति लगता है। लेकिन मंदिर के भीतर प्रवेश करते ही यह भ्रम दूर होता है और आपको मंदिर में होने का एहसास होता है।
इस मंदिर में स्थापित देवी महालक्ष्मी आदि-शक्ति, जो बहुत ही शक्तिशाली देवी है, का ही अवतार मानी जाती है। गोवा में स्थापित श्री महालक्ष्मी की विशिष्ट और अनोखी बात यह है कि उनके माथे पर लिंग बना हुआ है। इसके अलावा उनके हाथों में हँसुआ, गदा, कटार और प्रदास से भरा बर्तन भी है। कहा जाता है कि गोवा की देवी महालक्ष्मी की मूर्ति कोल्हापुर की महालक्ष्मी की मूर्ति के समरूप है।
गोवा के अनेक मंदिरों में से श्री महालक्ष्मी का यह मंदिर अपने सुंदर परिसर के कारण बहुत प्रसिद्ध है। इस मंदिर का परिसर सुंदर बाग-बगीचों से सुशोभित है। यहां पर आपको विविध प्रकार के फूलों के पेड़ देखने को मिलते हैं।
यहां पर देवी महालक्ष्मी की सुंदर सी पालकी मंदिर के पीछे स्थित कक्ष में रखी गयी है। जब आप मंदिर की परिक्रमा करने के लिए मंदिर के गोल घूमते हैं तो उस समय आप इस कमरे में रखी गयी देवी की पालखी देख सकते हैं।
श्री महालक्ष्मी मंदिर की वैबसाइट के अनुसार यह मंदिर प्राचीन काल से बांदोड़ा गाँव में ही स्थित है। और यही इस मंदिर का मूल स्थान है। कहा जाता है कि, यह मंदिर पुर्तुगालियों के अत्याचारों से अछूता ही रहा था जिसके कारण उसका स्थानांतरण न होकर वह अपनी मूल जगह पर ही स्थित है। लेकिन कोलवा में स्थित श्री महालक्ष्मी का मंदिर जिसे अक्सर मूल मंदिर समझा जाता है, वास्तव में बांदोड़ा के मूल मंदिर का ही सहायक भाग है। यह मंदिर कोलवा के लोगों द्वारा ही बनवाया गया था, क्योंकि, कोलवा से नदी पार करके बांदोड़ा आना वहां के लोगों के लिए काफी मुश्किल था।
श्री नागेशी महारूद्र देवस्थान, बांदोड़ा
बांदोड़ा गाँव में स्थित नागेशी महारूद्र मंदिर जिसे अक्सर नागेशी मंदिर के नाम से जाना जाता है, श्री महालक्ष्मी मंदिर के नजदीक ही स्थित है।
इस मंदिर के ठीक सामने ही देवस्थान का सुंदर सा सरोवर है, जिसमें आप मंदिर का खूबसूरत सा अप्रतिम प्रतिबिंब देख सकते हैं। यही इस मंदिर की प्रमुख विशेषता है, वरना इसकी सादगी ही इसका मुख्य आकर्षण है। इस मंदिर की एक और विशेष बात यह है कि यहां पर लकड़ी का एक बड़ा सा तख़्ता है, जिस पर हिन्दू महाकाव्यों की महत्वपूर्ण कथाएँ दर्शायी गयी हैं और उन्हें उज्जवलित रंगों से उत्कीर्णित किया गया है।
मंदिर के सामने ही एक दीपस्तंभ है, जिस पर 8 दिशाओं के 8 संरक्षक देवताओं को उत्कीर्णित किया गया है। जैसा कि आप मोधेरा के सूर्य मंदिर में भी देख सकते हैं।
इस मंदिर की छत के कोनों पर मयूर (मोर) की प्रतिमाएँ बनाई गयी हैं। तथा यहां के भोजनालय को भी मयूरशाला कहा जाता है। इस संदर्भ में एक बात तो मैं नहीं जान पायी कि, शिव भगवान के महारूद्र अवतार से मयूर का क्या संबंध है, क्योंकि, मयूर समान्य तौर पर उनके पुत्र कार्तिकेय या फिर विष्णु के कृष्ण अवतार जुड़ा हुआ है।
नागेशी मंदिर की एक और विशिष्ट बात यह है कि, वह पश्चिम की ओर मुख किए हुए है जो कुछ असामान्य सा लगता है। जबकि मंदिर आम तौर पर पूर्व की ओर मुख किए होते हैं और कुछ शिव मंदिर तो दक्षिण की ओर भी मुख किए हुए हैं।
नागनाथ
इस मंदिर में 1300 इसवी सदी का एक ताम्रलेख है, जो बताता है कि, यह नागों का मंदिर है। अगर इस बात को ध्यान में रखते हुए मंदिर के आस-पास के वातावरण को देखा जाए तो यह जगह वास्तव में बहुत सारे सापों का घर हो सकता है। लोककथाओं के अनुसार भी कहा जाता है कि, नागेशी मंदिर के सरोवर में भी साँप निवास करते हैं। लेकिन जहां तक मुझे याद है, उस सरोवर में छोटी-बड़ी मछलियों के अलावा मुझे कोई भी साँप नहीं दिखा था।
माना जाता है कि यह मंदिर स्वयंभू है, अर्थात वह जो अपने-आप ही निर्मित हुआ है, ना कि मनुष्यों द्वारा निर्मित किया गया है।
श्री महालक्ष्मी मंदिर की तरह यह मंदिर भी अपने मूलस्थान पर ही बसा हुआ है। यानि यह मंदिर भी स्थानांतरित नहीं है। इसका अर्थ यह है कि, फोंडा क्षेत्र पुर्तुगालियों के अत्याचारों से सर्वथा अछूता ही रहा, क्योंकि, यह क्षेत्र उनके शासन के अधीन कभी नहीं आया था।
श्री महालसा नारायणी मंदिर, मारदोल
महालसा मंदिर फोंडा क्षेत्र या गोवा का सबसे सुंदर और मंत्रमुग्ध कर देनेवाला मंदिर है। नीले रंग से सुशोभित इस मंदिर का आकार-प्रकार अद्वितीय है और उसके शिखर पर पीतल का चमचमाता हुआ गुबंद है। इस मंदिर का आंतरिक भाग लकड़ी का बनाया हुआ है, जिसे बहुत अच्छी तरह से संरक्षित किया गया है। मंदिर में प्रवेश करते ही आपको चारों ओर बड़े-बड़े उत्कीर्णित स्तंभ नज़र आते हैं। इस मंदिर के महाकक्ष में भक्तों को बैठने के लिए लकड़ी का तख़्ता बनवाया गया है। मंदिर की छत के आंतरिक भाग पर नाजुक नक्काशी काम देखा जा सकता है, जो विविध प्राणियों और पक्षियों को दर्शाता है। मंदिर के बाहरी दीवारों पर लकड़ी की सुंदर कारीगरी देखि जा सकती है।
अगर आप गोवा के प्राचीन मंदिरों की वास्तुकला को देखना चाहते हैं तो आपको महालसा मंदिर जरूर देखना चाहिए, जो गोवा की प्राचीन वास्तुकला का जीवंत उदाहरण है।
महालसा
महालसा भगवान विष्णु के मोहिनी अवतार का नाम है। मोहिनी यानि अपने रूप से सामनेवाले को मोहित करनेवाली नारी। उनका यह अवतार समुद्र मंथन की कथा से संबंधित है, जब विष्णु ने असुरों का ध्यान विकेंद्रित करने के लिए मोहिनी का रूप धारण किया था। तो कुछ लोककथाओं के अनुसार यह भी माना जाता है कि, देवी पार्वती ने मोहिनी का रूप धारण किया था, अर्थात महालसा भी देवी पार्वती का ही अवतार है। लेकिन मारदोल में महालसा देवी को भगवान विष्णु के अवतार के रूप में ही पूजा जाता है। और शायद इसीलिए महालसा के साथ नारायणी शब्द भी जोड़ा जाता है।
मारदोल मंदिर की महालसा देवी की अनोखी बात यह है कि, उन्होंने यज्ञोपवित्र धागा यानि पवित्र धागा पहना हुआ है जो सामान्य तौर पर पुरुषों द्वारा ही पहना जाता है।
महालसा मंदिर मूलतः आज के वेर्णा गाँव में स्थित था, जो उस समय वरुणापुर के नाम से जाना जाता था। यह मंदिर 16 वी शताब्दी में मारदोल में स्थानांतरित किया गया था, यानि यह मंदिर भी लगभग 450 साल पुराना है।
इस मंदिर की वैबसाइट आपको मोहिनी या महालसा से जुड़े सारे मंदिरों की जानकारी देती है। जैसे कि नेपाल में पशुपतिनाथ मंदिर के पास बसा हुआ मंदिर या फिर महाराष्ट्र का मंदिर।
श्री मंगेशी मंदिर, प्रियोल (प्रियोळ)
शांतादुर्गा मंदिर के साथ ही मंगेशी मंदिर भी गोवा का महत्वपूर्ण और बहुत ही प्रसिद्ध मंदिर है। गोवा पर्यटन के द्वारा यह मंदिर गोवा के सभी मंदिरों के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। मंगेशी का यह नीले रंग का मंदिर गोवा पर्यटन के सभी पत्रकों पर देखा जा सकता है।
मंगेशी भगवान शिव का मंदिर है। यह मूलतः कोरताली में जुआरी नदी के किनारे पर स्थित था। उस समय कोरताली को खुशास्थली और जुआरी नदी को अगाशी के नाम से जाना जाता था। पुर्तुगाली काल के दौरान पुर्तुगालियों द्वारा हो रहे नाश से त्रस्त होकर यह मंदिर कोरताली से प्रियोल गाँव में स्थानांतरित किया गया। मंगेशी मंदिर के मूल स्थान पर अब एक नया मंदिर बनवाया गया है। लेकिन इसके सभी विधि-कार्य आज भी प्रियोल गाँव के मंदिर (स्थानांतरित मंदिर) में ही किए जाते हैं, जो फोंडा के पास है। यहां पर यह मंदिर पिछले 400 सालों से भी अधिक काल से बसा हुआ है।
श्री देवकी कृष्ण मंदिर, मार्सेल
मार्सेल या मार्शेल, जिसे पहले महाशैला के नाम से भी जाना जाता था, गाँव में बसा हुआ देवकी कृष्ण मंदिर बहुत ही अप्रतिम और सुंदर है। यह मंदिर मातृत्व की भावना का प्रतीक है, जहां देवकी माँ अपने पुत्र कृष्ण को अपनी बाहों में लिए हुए है।
यह मंदिर मूलतः शराव द्वीप पर बसा हुआ था, जिसे पहले चूडामणी के नाम से जाना जाता था। उपाख्यान के अनुसार कहा जाता है कि, जब वास्को द गामा पहली बार इस मंदिर में आए थे, तब देवकी माँ और कृष्ण की प्रतिमा को मदर मेरी समझकर उन्होंने उनके सामने घुटने टेक दिये थे। लेकिन जब उन्हें सच्चाई का पता चला तो वे बहुत गुस्सा हुए।
इस मंदिर की वैबसाइट के अनुसार देवकीकृष्ण शराव द्वीप के प्रमुख देवता थे। इस देवता का आह्वान करने के पश्चात ही यहां पर शिग्मोत्सव का प्रारंभ होता था।
यह मंदिर पहले शराव से मये, जो बीचोली के पास ही स्थित है, में स्थानांतरित किया गया था। इसके बाद वह मंदिर अपने वर्तमान स्थान यानि मार्शेल में स्थानांतरित किया गया। मार्शेल में यह मंदिर 1842 में स्थापित किया गया था।
श्री देवकीकृष्ण मंदिर की बाईं ओर ही रवलनाथ मंदिर है और इन दोनों मंदिरों को देवकीकृष्ण रवलनाथ मंदिर के नाम से जाना जाता है। रवलनाथ शिव जी का ही मंदिर है। और मेरे शोध के अनुसार रवलनाथ भैरव का रूप है और भैरव यानि शिव जी का उग्र स्वरूप।
गोवा के अधिकतम मंदिर शिव-शाक्त संप्रदाय के हैं, इसलिए देवकीकृष्ण मंदिर के इतिहास के बारे में जानने के लिए मैं काफी उत्सुक थी। मुझे लगता है कि यह मंदिर भक्ति काल के समय ही स्थापित किया गया था, जो मध्यकाल के दौरान अपने चरमोत्कर्ष पर था। इस काल के कवियों ने भक्ति काव्यों के द्वारा हिन्दू धर्म को जीवंत रखने का प्रयास किया था।
देवकीकृष्ण मंदिर से जुड़े उपाख्यान
देवकीकृष्ण मंदिर की कथा आपको महाभारत काल में ले जाती है। कहा जाता है कि जब कृष्ण और बलराम गोमांचल पर्वत पर जरासंध के साथ युद्ध कर रहे थे, तब व्याकुल देवकी माँ अपने पुत्र को देखने के लिए गोमांचल पर्वत तक चली गयी थी। लेकिन क्योंकि देवकी माँ कृष्ण को एक बच्चे के रूप में जानती थी तो वे कृष्ण को नहीं पहचान पायी। इसी कारण कृष्ण ने उनके लिए फिर से बच्चे का रूप धारण किया और देवकी माँ ने उन्हें अपनी गोद में उठा लिया। तब से यहां पर उनकी आराधना इसी रूप में की जाती है।
इस मंदिर की वैबसाइट पर उसका पूरा इतिहास उपलब्ध है तथा गोवा के सारस्वत ब्राह्मणों की भी जानकारी मिलती है।गोवा के इन मंदिरों के भीतर तस्वीरें खिचने की अनुमति नहीं है। यद्यपि कुछ मंदिरों में मुझे अपने ब्लॉग के लिए तस्वीरें खींचने की अनुमति अवश्य दी। तो कुछ मंदिरों में मुझे बाहर से ही तस्वीरें लेने के लिए कहा।
गोवा के मंदिरों की किसी वैबसाइट पर पढ़ी गयी यह पंक्ति गोवा के सारस्वत मंदिरों की संक्षिप्त जानकारी देती है –
“श्री मंगेश का स्तम्भ”, “श्री शांतादुर्गा का गुबन्द”, “श्री नागेश का सरोवर”, “श्री महालक्ष्मी का चौक”, “श्री महालसा का स्थल”, और “श्री कामाक्षी के गण”, जो गोवा के कुछ महत्वपूर्ण मंदिरों की विशेषताओं को स्पष्ट करती है।
गोवा के मंदिर-दर्शन लेने के लिए कुछ सुझाव
• अपने पहनावे पर ध्यान दीजिये।
• मंदिर में प्रवेश करने से पहले अपनी चप्पल उतारना मत भूलिए।
• इस ब्लॉग में उल्लिखित मंदिरों की यात्रा करने के लिए आपको लगभाग 4-5 घंटे लगते हैं। लेकिन अगर इन मंदिरों में कोई उत्सव हो तो थोड़ा और समय लग सकता है।
• गोवा के अधिकतम मंदिरों में भोजनालय होते हैं, जहां पर आप सादा शुद्ध शाकाहारी खाना खा सकते हैं और उनका मूल्य भी वाजिब होता है।