श्री बादामी बनशंकरी देवी की पूजा-आराधना स्वर्णिम कर्नाटक के चालुक्य काल से चली आ रही है। कर्णाटक के बागलकोट जिले में बादामी तालुका में स्थित बनशंकरी मंदिर उत्तर कर्णाटक का एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। लाखों की संख्या में भक्तगण यहाँ आते हैं तथा बनशंकरी माता को कुलदेवी के रूप में पूजते हैं।
राजा जगदेकमल्ल प्रथम ने ६०३ ई. में इस मंदिर का निर्माण कराया तथा मंदिर के भीतर बनशंकरी देवी की मूर्ति की स्थापना करवाई थी। बनशंकरी देवी कल्याणी के चालुक्य वंश की कुलदेवी मानी जाती है।
मरारी दंडनायक परुषाराम अगले ने सन् १७५० में इस मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था। नवरात्रि के उत्सव में विशेष आभूषणों एवं वस्त्रों से देवी बनशंकरी का अलंकरण किया जाता है। नवरात्रि में देवी के नौ अद्भुत रूपों का दर्शन करने के लिए लाखों की संख्या में भक्तगण यहाँ आते हैं।
बादामी बनशंकरी का ऐतिहासिक महत्त्व
बादामी बनशंकरी मंदिर के स्वयं के ऐतिहासिक पदचिन्ह हैं।
स्कन्द पुराण में चालुक्य एवं पड़ोसी राज्यों के राजाओं की संरक्षक देवी के रूप में बादामी बनशंकरी की कथाओं का उल्लेख मिलता है।
प्राचीन काल में तिलकारण्य नामक वन में दुर्गमासुर नाम का एक क्रूर राक्षस निवास करता था। वह वन में ध्यानरत साधुओं तथा आसपास के ग्रामीणों को अविरत कष्ट देता था। दुर्गमासुर के अत्याचारों से त्रस्त होकर सभी साधूगण सहायता माँगने देवताओं के पास पहुँचे। उनके अत्याचारों के निदान हेतु आदिशक्ति, जो देवी पार्वती का रूप है, यज्ञ कुण्ड से अवतरित हुईं तथा उन्होंने दुर्गमासुर का वध किया।
बन का अर्थ है, वन अथवा जंगल। शंकरी का अभिप्राय है, पार्वतीस्वरूपा अथवा भगवान शिव की शक्ति। इसी कारण उनका नाम पड़ा, बनशंकरी।
बनशंकरी अम्मा का एक अन्य नाम शाकम्भरी भी है। इसके पृष्ठभाग में भी एक रोचक कथा है।
एक काल में एक नगर सूखे की चपेट में था। वहाँ के निवासियों के पास उदरनिर्वाह हेतु कुछ भी शेष नहीं था। फलस्वरूप नागरिकों ने देवी माँ से गुहार लगाई। देवी बनशंकरी ने अपने अश्रुओं से धरती माता की तृष्णा शांत की तथा अपने भक्तों को जीवनदान दिया। भक्तों की क्षुधा शांत करने के लिए देवी ने शाक भाजियों की रचना की। मंदिर के आसपास के वनों में नारियल, केला आदि के वृक्षों की उपस्थिति इस ओर संकेत भी करती है। इसी किवदंती के कारण देवी को देवी शाकंभरी भी कहते हैं। शाक का अर्थ है भाजी तथा भृ धातु पोषण करने से संबंधित है।
देवी शाकंभरी का उल्लेख दुर्गा सप्तशती में भी किया गया है जहाँ उन्हें देवी का एक अवतार कहा गया है।
अम्मा के भिन्न भिन्न नाम
भक्तगण देवी बनशंकरी को अनेक नामों से पूजते हैं, जैसे बलव्वा, बनदव्वा, शिरावंती, चौदम्मा, चूडेश्वरी, संकव्वा, वनदुर्गे तथा वनशंकरी। देवी सिंहारूढ़ हैं अर्थात सिंह वाहन पर आरूढ़ रहती हैं।
मंदिर के भीतर काली शिला में गढ़ी उनकी प्रतिमा अत्यंत आकर्षक है। लक्ष्मी एवं सरस्वती के संयुक्त रूप में बनशंकरी देवी को मुख्यतः कर्णाटक, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश तथा तमिल नाडु में पूजा जाता है।
मंदिर की स्थापत्य शैली एवं बनशंकरी अम्मा का विग्रह
बनशंकरी देवी के मंदिर का वर्तमान में जो प्रारूप है, वह विजयनगर स्थापत्य शैली में निर्मित है। मूल मंदिर द्रविड़ स्थापत्य शैली में निर्मित था। मंदिर के चारों ओर ऊँचा प्राकर है।
मंदिर में एक चौकोर मंडप है। मंदिर के समक्ष प्रवेश द्वार के ऊपर उंचा गोपुरम है जिस पर अनेक देवी-देवताओं के शिल्प हैं। साथ ही अनेक पौराणिक पात्र भी उत्कीर्णित हैं। यह मुख्य मंदिर का प्रवेश द्वार है।
मुख्य संरचना के अंतर्गत एक मुख मंडप एवं एक अर्ध मंडप है जो गर्भगृह के समक्ष स्थित है। गर्भगृह के ऊपर शिखर अथवा विमान है। मंदिर परिसर के मध्य में मुक्तांगन है जिसके चारों ओर अनेक स्तंभ युक्त कक्ष हैं। इन कक्षों का प्रयोग विविध अनुष्ठानों एवं उत्सवों में किया जाता है।
गर्भगृह के भीतर बनशंकरी अम्मा का पावन विग्रह है जिसे काली शिला में गढ़ा गया है। देवी अपने वाहन सिंह पर विराजमान हैं तथा अपने चरणों के नीचे राक्षस के शीष रहित धड़ को दबाये हुए हैं। अष्टभुजाधारी बनशंकरी अम्मा के हाथों में त्रिशूल, घंटा, डमरू, तलवार, ढाल तथा असुर का शीष है।
बनशंकरी मंदिर के उत्सव
मंदिर के समक्ष एक चौकोर जलकुंड अथवा कल्याणी है जिसका नाम हरिद्रतीर्थ है।
इस कल्याणी से सम्बंधित एक अनुपम अनुष्ठान है। नवजात शिशुओं को केले की पत्तियों द्वारा निर्मित पालने में लिटाकर कल्याणी के जल पर स्थित नौका पर रखते हैं। लोगों की मान्यता है कि यह अनुष्ठान शिशुओं के भविष्य के लिए अत्यंत शुभ एवं कल्याणकारी होता है।
शाकम्भरी राहु की प्रिय देवी हैं। इसीलिए भक्तगण राहुकाल में यहाँ नींबू का दीपक जलाते हैं। उनका मानना है कि इस अनुष्ठान के द्वारा राहु दोष से मुक्ति प्राप्त होती है।
इस मंदिर का एक अद्वितीय उत्सव है, पल्लेदा हब्बा अथवा शाकभाजी का उत्सव जिसमें भक्तगण देवी को विविध शाकभाजियों से अलंकृत करते हैं। भिन्न भिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर बनशंकरी देवी को अर्पित किये जाते हैं। इस अनुष्ठान का अनेक दशकों से अनवरत पालन किया जा रहा है। इस उत्सव में विविध शाकभाजियों का प्रयोग कर कुल १०८ प्रकार के व्यंजन बनाए जाते हैं तथा देवी को अर्पित किये जाते हैं।
उत्तर कर्णाटक में एक अन्य लोकप्रिय सांस्कृतिक आयोजन किया जाता है, बनशंकरी जत्रा। यह एक वार्षिक मेला जो ३ सप्ताहों तक चलता है। यह जत्रा हिन्दू पंचांग के पौष मास की अष्टमी से आरम्भ होता है तथा माघ मास की पूर्णिमा के दिन उत्सव मनाया जाता है जो साधारणतः जनवरी/फरवरी में आता है। इस दिन देवी पार्वती की रथयात्रा का शुभारम्भ होता है। ऐसी मान्यता है कि यह काल देवी लक्ष्मी एवं उनके विभिन्न रूपों की आराधना के लिए परम पावन होता है।
कर्णाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु तथा आँध्रप्रदेश से असंख्य भक्तगण उत्सव में भाग लेने के लिए बनशंकरी मंदिर आते हैं। वे देवी की पूजा-आराधना करते हैं तथा उनसे आशीष माँगते हैं। उत्सव काल में सम्पूर्ण वातावरण उल्हासपूर्ण, जीवंत तथा रंगों से परिपूर्ण हो जाता है। मंदिर के आसपास भक्तों का ताँता लग जाता है। विक्रेता उन्हें भिन्न भिन्न वस्तुएं, जैसे खाद्य प्रदार्थ, परिधान, खिलौने, मिष्टान, देवी को अर्पण करने की वस्तुएं आदि विक्री करने में व्यस्त हो जाते हैं।
बनशंकरी अम्मा मंदिर में नवरात्रि का पर्व
हिन्दू पंचांग के अनुसार सर्वाधिक महत्वपूर्ण नवरात्रि पर्व अश्विन मास में आता है जो साधारणतः सितम्बर-अक्टूबर मास में पड़ता है। किन्तु कर्णाटक के बादामी में स्थित इस मंदिर में नवरात्रि का उत्सव पौष मास में मनाया जाता है। नौ दिवसों का यह उत्सव देवी बनशंकरी को समर्पित किया जाता है।
बाणदाष्टमी एक अत्यंत पवित्र दिवस माना जाता है। सम्पूर्ण उत्तर कर्णाटक, विशेषतः बनशंकरी मंदिर में विविध उत्सव एवं जत्रायें आयोजित किये जाते हैं।
मंदिर में विशेष उत्तर कर्णाटक भोजन अवश्य ग्रहण करें
स्थानीय स्त्रियाँ अपने घरों में अनेक प्रकार के उत्तर कर्नाटकी व्यंजन बनाते हैं, जैसे मक्के/जवार की रोटियाँ, करगडुबू (पूरण कडबू), कलुपल्ले (अंकुरित दालों का रस), लाल मिर्च की चटनी, पुंडी पल्ले (गोंगुरा भाजी) आदि। वे ये सभी व्यंजन मंदिर में लाते हैं तथा भक्तगणों को देते हैं।
वे एक थाली का मूल्य ३०-५० रुपये तक लेते हैं। आप भी न्यूनतम मूल्य में उपलब्ध इस स्वादिष्ट भोजन का आस्वाद लेकर प्रसन्न हो जायेंगे। इसका स्वाद आपके दैनिन्दिनी स्वाद से अवश्य भिन्न एवं विशेष होगा।
यदि आप बनशंकरी मंदिर में दर्शन के लिए आयें तथा मंदिर के बाहर उपलब्ध इस भोजन का आस्वाद ना लें तो आपकी यात्रा अपूर्ण है!
बनशंकरी मंदिर तक पदयात्रा
भक्तों द्वारा पदयात्रा कर बनशंकरी मंदिर तक पहुँचना, विशेषतः पूर्णिमा के दिवस, यह एक सर्वसामान्य दृश्य होता है। यह परंपरा जनवरी-फरवरी में आयोजित वार्षिक बनशंकरी उत्सव/जत्रा में विशेष रूप से लोकप्रिय है।
भक्तगण अपनी पदयात्रा सामान्यतः अपने निवासों से अथवा निकट के गाँवों एवं नगरों से आरंभ करते हैं। वे लम्बी दूरी की पदयात्रा कर बादामी के बनशंकरी मंदिर पहुँचते हैं। कुछ भक्तगण नंगे पैरों से ही पदयात्रा करते देखे जा सकते हैं। कदाचित भक्ति, कोई विशेष कार्यसिद्धि का हेतु अथवा पश्चाताप की भावना उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित करती होगी।
बनशंकरी अम्मा का आशीष प्राप्त करने के लिए पदयात्रा करते हुए उन तक पहुँचना, यह एक अत्यंत पावन एवं सुखद अनुभव होता होगा। अनेक भक्तगण अपने परिवारजनों एवं मित्रों के संग यह यात्रा प्रत्येक वर्ष करते हैं। ऐसी मान्यता है कि यह अम्मा के प्रति उनके समर्पण एवं भक्ति में उनका विश्वास दृढ़ करता है।
बादामी के बनशंकरी मंदिर कैसे पहुँचे?
बनशंकरी मंदिर बादामी नगर की बाहरी सीमा में अवश्य स्थित है लेकिन वहाँ पहुँचना कठिन नहीं है। आप सड़क मार्ग से इस मंदिर तक आसानी से पहुँच सकते हैं। आप किसी भी परिवहन सेवा द्वारा बादामी पहुँचें तथा वहाँ से सड़क मार्ग द्वारा बनशंकरी मंदिर पहुँचें जो नगर के केंद्र से लगभग ४ किलोमीटर दूर स्थित है।
यदि आप वायुमार्ग द्वारा पहुँचना चाहते हैं तो बादामी से निकटतम विमानतल हैं, ११० किलोमीटर दूर स्थित हुबली विमानतल तथा १३० किलोमीटर दूर स्थित बेलगावी। यदि आपकी प्राथमिकता रेल मार्ग है तो बनशंकरी मंदिर पहुँचना अधिक सुगम है। बादामी रेल मार्ग द्वारा देश के सभी मुख्य नगरों से जुड़ा हुआ है। बादामी रेल स्थानक बनशंकरी मंदिर से लगभग ९ किलोमीटर दूर है।
बादामी नगर में किसी भी स्थान से बनशंकरी मंदिर पहुँचने के लिए कर्णाटक राज्य परिवहन निगम की सुविधाजनक बस सेवायें नियमित रूप से उपलब्ध रहती हैं। आप बस से ना जाना चाहें तो ऑटो अथवा ताँगे से भी जा सकते हैं जो न्यूनतम शुल्क पर उपलब्ध होती हैं।
बादामी एवं आसपास के अन्य अद्भुत दर्शनीय स्थल
बादामी चालुक्य वंश से संबंधित एक ऐतिहासिक नगर है। बादामी अनेक प्राचीन मंदिरों तथा शैल-कृत गुफाओं व शिल्पों के लिए प्रसिद्ध है। बादामी में बनशंकरी मंदिर में दर्शन के पश्चात आप आसपास के अनेक दर्शनीय स्थलों का आनंद ले सकते हैं। उनमें कुछ हैं,
बादामी गुफाएं – बादामी गुफाएँ वास्तव में गुफा मंदिर हैं। यहाँ कोमल बलुआ शिलाओं को काटकर चार गुफा मंदिर निर्मित किये गए हैं।
ऐहोले – ऐहोले भी एक ऐतिहासिक नगरी है। बादामी से लगभग ३५ किलोमीटर दूर स्थित ऐहोले चालुक्य वंश की प्रथम राजधानी थी। यहाँ १२० से अधिक शिला एवं गुफा मंदिरों का समूह है।
पत्तदकल/पट्टदकल्लु – बादामी से लगभग २३ किलोमीटर दूर स्थित, यूनेस्को द्वारा घोषित इस विश्व धरोहर स्थल में ९ प्रसिद्ध हिन्दू एवं एक प्रसिद्ध जैन मंदिर हैं।
महाकुटा – बादामी से लगभग १४ किलोमीटर दूर स्थित महाकुटा एक लघु नगरी है जो अनेक प्राचीन मंदिरों एवं उष्ण जल के प्राकृतिक सोते के लिए प्रसिद्ध है। इसे दक्षिण की काशी भी कहा जाता है।
बादामी-ऐहोले-पत्तदकल कर्णाटक का लोकप्रिय पर्यटन परिपथ है।
बादामी के आसपास स्थित ये ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल कर्णाटक के संपन्न इतिहास एवं संस्कृति की एक झलक प्रदान करते हैं।
यह एक अतिथि यात्रा संस्करण है जिसे गायत्री आरी ने प्रदान किया है। वे बागलकोट जिले में स्थित इल्कल नगर की स्थानिक हैं जो प्रसिद्ध इल्कल साड़ियों के लिए जग प्रसिद्ध हैं। वे व्यवसाय से गुणवत्ता विशेषज्ञ हैं। उनके जीवन का सर्वाधिक उत्साहवर्धक क्रियाकलाप है, विश्वभर में यात्राएं करना एवं नित-नवीन संस्कृतियों पर शोध करना। एक प्रकृति प्रेमी तथा आध्यात्मिक यात्री के रूप में उन्हें प्राकृतिक सौंदर्य एवं भिन्न भिन्न स्थलों के आध्यात्मिक सार में शान्ति का अनुभव होता है।