बंगलुरु के रेशम पथ अथवा सिल्क रूट का आरम्भ बंगलुरु के प्रसिद्ध सिल्क बोर्ड जंक्शन से होता है। जी हाँ, यह वही सिल्क बोर्ड जंक्शन है जिसे पार करने के लिए पथिकों को घंटों प्रतीक्षा करनी पड़ती है। यह जंक्शन अब यातायात अवरोधों के लिए इतना कुप्रसिद्ध हो गया है कि इसका नाम यहाँ स्थित केंद्रीय सिल्क बोर्ड संकुल के नाम पर सिल्क बोर्ड जंक्शन पड़ा है, यह तथ्य बहुधा लोग बिसार देते हैं।
अपने बंगलुरु निवास के समय, अवरुद्ध यातायात के कारण मैंने इस जंक्शन पर प्रचुर समय व्यतीत किया था किन्तु मार्ग के किनारे स्थित इस संकुल के कभी दर्शन नहीं कर पायी थी। कहावत ही है कि प्रत्येक घटना का एक निर्धारित समय होता है। अपनी इस बंगलुरु यात्रा में मैंने भारतीय सिल्क मार्क संगठन (Silk Mark Organization of India) के साथ केंद्रीय सिल्क बोर्ड संकुल में पांच दिवस व्यतीत किये एवं उनकी गतिविधियों को समझा। बंगलुरु व कदाचित भारत के रेशम पथों को समझने के लिए सम्पूर्ण बंगलुरु नगर को खंगाला।
बंगलुरु का रेशम मार्ग
बंगलुरु नगर ने अनेक काल से अपने अप्रतिम बाग-बगीचों, सूचना प्रौद्योगिकी उद्योगों एवं नवीन लघु उद्योगों के लिए अपार लोकप्रियता अर्जित की है। साथ ही यह भारत का रेशम नगर होने की भी पात्रता रखता है। सम्पूर्ण बंगलुरु-मैसूरू गलियारा रेशम उद्योग मूल्य शृंखला के प्रमुख व्यावसायिक इकाइयों से भरा हुआ है।
यह यात्रा बंगलुरु नगर के केंद्रीय सिल्क बोर्ड संकुल के खेत में सावधानीपूर्वक पाले गए रेशम कीटों से आरम्भ होकर दक्षिण बंगलुरु के उच्च स्तरीय भव्य रेशम धरोहर वस्त्रालयों में समाप्त होती है। रेशम प्रेमियों से लेकर रेशम उद्यमियों तक, इस गलियारे में सभी की अभिरुचि एवं लाभ के तत्व उपस्थित हैं। आईये, बंगलुरु नगर के इस गुप्त चित्र यवनिका के शोध पर चलते हैं।
बंगलुरु का केंद्रीय सिल्क बोर्ड
केंद्रीय सिल्क बोर्ड वह सर्वोच्च सरकारी संस्था है जो भारत को विश्व स्तरीय रेशम बाजार में अग्रणी देश बनाने के ध्येय पर कार्यरत है। बंगलुरु में अपना मुख्यालय स्थापित करना अनायास ही नहीं है। कर्णाटक भारत का अग्रणी सिल्क उत्पादक राज्य है। इसके अतिरिक्त, अधिकतर रेशम समूह बंगलुरु एवं मैसूरू के मध्य स्थित हैं जबकि मैसूरू सिल्क की प्रसिद्धि के कारण हम बहुधा रेशम का सम्बन्ध केवल मैसूरू से जोड़ देते हैं।
केंद्रीय सिल्क बोर्ड के अनेक उपविभाग हैं जो इस क्षेत्र के अनुसंधान एवं विकास की ओर अग्रसर हैं। एक ओर वे रेशम कृषकों, सूतकारों एवं बुनकरों की उत्पादकता एवं उत्पादन में वृद्धि करने के लिए नवीन उपायों पर शोध करते हैं तो दूसरी ओर रेशम के नवीन उत्पादनों पर भी अनुसंधान करते हैं, जैसे डेनिम रेशम अथवा रेशम मोजे इत्यादि।
राष्ट्रीय रेशमकीट बीज संस्था रेशम कीट प्रजनन केन्द्रों का नियंत्रण करती है एवं किसानों को उनकी सुविधाएं उपलब्ध करती है। उत्तम स्तर के रेशम कोषों के उत्पादन एवं संरक्षण की सम्पूर्ण प्रक्रिया को समझने में मुझे दो घंटों से अधिक समय लग गया।
विभिन्न तकनीकियां
केंद्रीय सिल्क बोर्ड संकुल में मैंने अनेक सम्बंधित तकनीकों के विषय में जाना, जैसे रेशमी वस्त्रों को सुगंधित करना, तेल अथवा जल से वस्त्रों का रक्षण करना इत्यादि। यहाँ रेशमी वस्त्रों के डेनिम रेशम तथा वोयड रेशम जैसे विभिन्न नवीन प्रकारों पर शोध किये जा रहे हैं।
टसर रेशम से बने जूते, रेशमी वस्त्र पर जरदोजी द्वारा पारिवारिक चित्र बुनना, कोमल व मृदु एरी रेशम द्वारा हल्के वजन के उपवस्त्र (शाल) बनाना आदि तकनीकों को उन्होंने अपने उत्पाद विकास सुविधाओं के अंतर्गत प्रदर्शित किया है। टसर कोष की डंठल द्वारा बुना गया वस्त्र मुझे अत्यंत भाया जिसे पेडंकल कहते हैं। गहन भूरे रंग के इस वस्त्र पर अपनी पृथक चमक होती है। घरेलू साज-सज्जा हेतु एवं शिशुओं के लिए भी भिन्न भिन्न रेशमी वस्त्रों पर अनुसंधान किया जा रहा है।
क्या आप जानते हैं, International Sericulture Commission, एक ऐसा अंतरराष्ट्रीय सरकारी संगठन है, जो रेशम उत्पादन एवं रेशम के विश्व स्तरीय विकास पर कार्य कर रहा है तथा इसका मुख्यालय भी बंगलुरु में है। ये एक निश्चित प्रमाण है कि रेशम जगत में भारत विश्व का नेतृत्व कर रहा है।
भारतीय सिल्क मार्क संगठन भी इस ओर सक्रियता से कार्य कर रहा है कि जो रेशम हम क्रय कर रहे हैं, वह पूर्णतः सत्यापित है। वे तकनीकी विकास की ओर अनवरत अग्रसर हैं ताकि हमें शुद्धतम रेशम उपलब्ध हो सके तथा मूल्य भी सीमित हो सके। सिल्क मार्क संगठन द्वारा हम उपभोक्ताओं के लिए क्या क्या सुनिश्चित किया जाता है, इसके विषय में किसी अन्य संस्करण में चर्चा करेंगे।
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रामनगर रेशम-कोष बाजार
क्या आपको चित्रपट शोले का विशाल चट्टानों से भरा वह गाँव स्मरण है जहां गब्बर सिंह रहता था? जी हाँ, यह वही रामनगर गाँव है जहां एशिया का विशालतम रेशम-कोष बाजार है। रामनगर को भारत का रेशमनगर कहना अतिशयोक्ति नहीं है। बंगलुरु से मैसूरू की ओर जाते हुए, बंगलुरु से लगभग 50 किलोमीटर दूर यह गाँव स्थित है जो अब कर्णाटक का एक जिला भी है।
ना केवल राज्य भर के रेशम उद्यमी अपितु तमिलनाडू व महाराष्ट्र जैसे पड़ोसी राज्यों के किसान भी यहाँ आकर अपने रेशम-कोषों का विक्रय करते हैं। कर्णाटक राज्य सरकार द्वारा संचालित इस बाजार में ४०,००० से ५०,००० किलोग्राम रेशम-कोषों की नीलामी प्रतिदिन की जाती है। प्रतिदिन प्रातः बाजार के विशाल कक्षों के भीतर रेशम-कोषों से भरे धातुई थालों को रखा जाता है।
उनमें से श्वेत कोष द्विवर्षप्रज है अर्थात् प्रति वर्ष उनके दो प्रजनन चक्र होते हैं। उसी प्रकार किंचित पीतवर्ण कोष बहुवर्षप्रज हैं अर्थात् एक वर्ष में उनके अनेक प्रजनन चक्र होते हैं। वे दोनों मलबरी रेशम के ही प्रकार हैं। रेशम के विभिन्न प्रकारों में मलबरी रेशम का योगदान सर्वाधिक होता है। प्रत्येक थाल पर विक्रेता एवं उत्पादन सम्बन्धी जानकारी अंकित होती है। इनके क्रेता वो सूतकार होते हैं जो इन कोषों से रेशम के धागे बनाते हैं।
रेशम-कोषों की नीलामी – जीवंत ई-विक्री
प्रतिदिन नीलामी के कम से कम तीन चक्र होते हैं। मुझे नीलामी के नवीन तकनीकों ने आकर्षित एवं अत्यंत प्रभावित किया। वहां आधुनिक तकनीक का प्रयोग कर कंप्यूटर द्वारा ई-नीलामी की जा रही थी। प्रत्येक क्रेता के मोबाइल अथवा टेबलेट पर ई-नीलामी का ऐप होता है। वह प्रत्येक थाल में रखे कोषों की गुणवत्ता का अपने वर्षों के अनुभव द्वारा परिक्षण करता है। अपनी मांग के अनुसार वह थाल क्रमांक पर बोली लगाता है।
विभिन्न उत्पाद क्रमांकों के जीवंत मूल्य बड़े बड़े कंप्यूटर पटलों पर प्रदर्शित किये जाते हैं जो रेशम मंडी में अनेक स्थानों पर लगे हैं। ये मूल्य विक्रय मांग के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं। क्रेता अपने ऐप पर देख सकता है कि उसकी बोली सर्वोच्च है अथवा किसी ने उससे अधिक बोली लगाई है। यह बोली एवं नीलामी ३०- ६० मिनटों तक चलती है जिसके अंत में कोषों को तौलकर क्रेता को भेजा जाता है।
मुझे यहाँ एक अनोखी परंपरा देखने मिली। कुछ किसान अपने प्रिय थालों में कुछ कोष पीछे छोड़ देते हैं अथवा कुछ कोषों को एक छोटी थैली में बांधकर अपने पैर पर बांधते हैं। वे उन थालों को अपने व्यापार के लिए शुभकारी तथा अच्छा मूल्य प्राप्त कराने में सहायक मानते हैं। कुछ लोग ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि वे थालों को पूर्णतः रिक्त करना अशुभ मानते हैं। परम्पराएं हमारे जीवन के सभी आयामों को प्रभावित करती हैं।
रामनगर के रेशम-कोष बाजार के बाहर अनेक दुकानें हैं जहां रेशम-कीट कृषकों एवं सूतकारों की आवश्यकता अनुसार सभी वस्तुएं एवं सुविधाएं उपलब्ध हैं। वे रेशम उद्योग के परितंत्र को पूर्ण करते हैं।
रामनगर में सूतकारी
रामगर की गलियों में आप सूत कातने के स्वचलित यंत्रों से प्रस्फुटित ध्वनि सुन सकते हैं। रेशम-कीट रेशों को चिपचिपे पदार्थ द्वारा बांधकर कोष बनाते हैं। इन कोषों को इस चिपचिपे पदार्थ से छुड़ाने के लिए उन्हें जल में उबाला जाता है। तत्पश्चात इन स्वचलित यंत्रों द्वारा एक अखंड सूत काता जाता है। इस सूत को अनेक शीत एवं उष्ण प्रक्रियाओं को पार करना पड़ता है। तत्पश्चात उन्हें अटेरन अथवा चरखियों पर लपेटा जाता है। तत्पश्चात उन्हें श्वेतीकरण कर एवं विभिन्न रंगों में रंग कर बुनाई के लिए बुनकरों के पास भेजा जाता है।
रेशम कोषों से सूत निकालने के पश्चात मृत रेशम-कीटों से तेल निकला जाता है। तत्पश्चात उनके अवशेषों को मवेशियों तथा मछलियों को खिलाया जाता है क्योंकि इनमें भरपूर मात्रा में प्रोटीन होते हैं।
मैं जहां भी गयी, मुझे यही कहा गया कि रेशम एक शून्य-अपशिष्ट उद्योग है जहां कुछ भी व्यर्थ नहीं होता है। इस पर किसी अन्य दिवस चर्चा करेंगे।
गोटिगेरे/येलहंका – बंगलुरु में रेशम बुनकरों के समूह
कुछ वर्ष पूर्व अनायास ही मेरी भेंट येलहंका के रेशम बुनकरों से हुई थी। उन पर लिखा मेरा संस्करण मेरे पाठकों में अब तक लोकप्रिय है। उस समय तक मेरा यह अनुमान था कि रेशम बुनकरों का समूह केवल यहीं है। यह मेरी अनभिज्ञता थी। मेरी इस यात्रा में मैंने जाना कि बंगलुरु नगर में छोटे बुनकरों के अनेक ऐसे समूह हैं। उनमें से अनेक अब गोटिगेरे नामक स्थान पर स्थानांतरित हो गए हैं जो बन्नेरघट्टा राष्ट्रीय उद्यान के निकट है।
गोटिगेरे में प्रवेश करते ही चारों ओर से हथकरघों की लयबद्ध ध्वनी सुनाई देने लगती है। विद्युत्-चलित करघों की स्थाई ध्वनि होती है जबकि हथकरघों का स्वयं का मंद-गति संगीत होता है। मैंने कांचीपुरम, वाराणसी, पोचमपल्ली, पाटन तथा बिश्नुपुर जैसे अनेक स्थानों पर विद्युत्-चलित करघे एवं हथकरघे दोनों देखे थे। किन्तु गोटिगेरे में ही मैंने हस्त-चलित एवं विद्युत्-चलित बुनकर यंत्रों द्वारा बुनी गयी आकृतियों (Jacquard) के मध्य का अंतर समझा था।
सामान्य ज्ञान – जमशेटजी टाटा ने १८९६ में बंगलोर में टाटा रेशम उद्योग की स्थापना की थी।
जैकार्ड (Jacquard) वे आकृतियाँ होती हैं जिन्हें रेशमी वस्त्रों में बुना जाता है, जैसे सुन्दर किनारियाँ, बूटियाँ एवं पल्लू। पारंपरिक रूप से इन आकृतियों के अनुसार गत्ते के पत्रकों पर छिद्र बनाए जाते हैं जिन्हें पंच कार्ड अथवा छिद्र पत्रक कहते हैं। वर्त्तमान के तकनीकी जीवन शैली के चलते अब यह कार्य संगणकों द्वारा किया जाता है। संगणकों पर आकृतियाँ बनाना आसान हो गया है तथा उनमें विभिन्न परिवर्तन करना भी कठिन नहीं होता है। आकृतियों के अनुसार स्वचलित यन्त्र गत्ते के पत्रकों पर छिद्र बनाते हैं। इन पत्रकों का प्रयोग दीर्घ काल तक किया जा सकता है।
इलेक्ट्रोनिक जैकार्ड
इलेक्ट्रोनिक जैकार्ड स्वचालित यंत्रणा को एक उच्च आयाम प्रदान करते हैं। इस यंत्रणा में छिद्रक पत्रकों की आवश्यकता नहीं होती है। जैकार्ड यंत्र उपभोक्ता के आवश्यकतानुसार आकृतियाँ बनाने में सक्षम होता है। यह उन आकृतियों के लिए सर्वोत्तम है जो विशिष्ट होते हैं तथा उन्हें पुनः पुनः नहीं बनाया जाता। इसकी लागत हस्त जैकार्ड की तुलना में किंचित अधिक होती है। किन्तु मेरा विश्वास है कि जैसे जैसे मात्रा में वृद्धि होगी, इसकी लागत भी घटती जायेगी।
यद्यपि अनेक रेशम बुनकरों ने स्वचलित करघों को अपना लिया है तथापि आप अब भी अनेक हथकरघे बुनकरों को करघों के भीतर पैर डालकर रेशम के वस्त्र बुनते देख सकते हैं। बुनाई के समय लम्बाई की दिशा में फैलाये हुए सूत को ताना कहते हैं तथा चौड़ाई लम्बाई की दिशा में बुने जाने वाले सूत को बाना कहते हैं। बाने के सूत को आकृतियों के अनुसार ताने के मध्य से पिरोया जाता है। इस प्रकार इन दोनों के समागम द्वारा वस्त्र की बुनाई की जाती है।
हमारे जीवन में भी इसी प्रकार विभिन्न व्यक्तियों एवं संयोगों के संगम से हमारा जीवन पूर्ण होता है। हमारे जीवन में बुनकर की भूमिका उस सर्वोच्च शक्तिमान तत्व की है जिसे हम अनेक नामों से पुकारते हैं। इसमें आश्चर्य नहीं है कि कबीर जैसे कवियों ने करघे के माध्यम से हमें जीवन का बहुमूल्य पाठ पढ़ाया है।
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गोटिगेरे का स्वयं का एक परितंत्र है जिसके माध्यम से उसे रेशमी धागों का कच्चा माल प्राप्त होता है। उन धागों को वे अप्रतिम साड़ियों एवं वस्त्रों में परिवर्तित करते हैं जो दुकानों में पहुंचकर हमें रिझाते हैं। इसमें असंख्य प्रकार के सूत, रंग, तकनीक, यंत्र, अभियांत्रिकी तथा दक्ष कारीगरों के परिश्रम का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।
बेंगलुरु रेशम बुनाई का चलचित्र
जीवंत वस्त्रों का विमोर संग्रहालय (Vimor Museum of Living Textiles)
हमारी वस्त्र संबंधी पुरातन धरोहर को संग्रहालयों एवं अनुभवी संरक्षण केन्द्रों में संजो कर रखने की आवश्यकता है। मैंने तब तक केवल अहमदाबाद का कैलिको संग्रहालय एवं दिल्ली का आनंदग्राम वस्त्र संग्रहालय ही देखा था। इन दोनों संग्रहालयों में वस्त्रों की हमारी धरोहर को सर्वोत्तम रीति से प्रदर्शित किया गया है। इसी कारण, बंगलुरु के हृदय स्थल में स्थित जीवंत वस्त्रों के विमोर संग्रहालय को देख मुझे अत्यंत आनंद आया था।
श्रीमती पवित्र मुद्दैय्या जी अपनी माताजी चिमी नन्जप्पा जी से साथ इस संग्रहालय का प्रबंधन कार्य देख रही हैं जो उनके सुन्दर लाल ईंटों से निर्मित सुन्दर निवास के प्रथम तल पर स्थित है। इस संग्रहालय में उन्होंने सम्पूर्ण भारत के विभिन्न बुनकरों एवं आकृतियों का प्रदर्शन करने का सफल प्रयत्न किया है। उनमें उनके स्वयं के द्वारा रचित एवं निर्मित आकृतियाँ भी हैं।
अपनी आगामी बंगलुरु यात्रा में इस संग्रहालय का अवलोकन करना ना भूलें।
रेशम उत्पादन उद्यमियों की नवीन पीढ़ी
बंगलोर में आयें एवं ऐसी अग्रणी तकनीक का अवलोकन ना करें, यह सही नहीं है। यहाँ रेशामंडी जैसे अनेक नवीन लघु उद्यमी हैं जो रेशम उद्योग के लिए सम्पूर्ण प्रोद्योगिकी मंच का विकास करते हैं। ये मंच रेशम उद्यमियों के लिए उनकी कार्यप्रणालियों को निर्बाध रूप से पूर्ण करने में सहायक अनेक नवीन तकनीकों का अनुसन्धान करते हैं। कुशल प्रचालन तंत्र एवं आंकड़ों के विश्लेषण व अंतर्दृष्टि द्वारा उनकी उत्पादन क्षमता में वृद्धि करने में सहायता करते हैं।
इन्हें हम कृषी प्रोद्योगिकी संबंधी उद्यमों का आरंभिक चरण कह सकते हैं जो २१वीं सदी के भारत में सिल्क उद्योग के महत्वपूर्ण ताना-बाना हैं।
जयनगर रेशम पथ
बंगलुरु नगर के व्यवसायिक जिला जयनगर में भ्रमण करते हुए मैंने अनेक पारंपरिक दुकानें, विशाल एम्पोरियम तथा अंगदी हेरिटेज जैसे विशिष्ट बहुतलीय स्टोर देखे। अंगदी हेरिटेज में किसी संग्रहालय के समान पुरातन कलाकृतियों को प्रदर्शित किया है। मैंने यह अनुभव किया कि आज के उपभोक्ताओं का रुझान पारंपरिक दुकानों से दूर होते हुए इन भव्य विशाल बहुतलीय स्टोर्स की ओर अधिक झुक रहा है।
जयनगर ५वां खंड में इतनी बड़ी संख्या में रेशमी वस्त्रों की विशाल दुकानें हैं कि उसे बंगलुरु का रेशम पथ कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। बंगलुरु के सिल्क रूट का अंत भी यहीं होता है। सम्पूर्ण मूल्य श्रंखला की परिणति भी यही आकर होती है जब आप एवं हम यहाँ से रेशमी साड़ियों, दुपट्टों अथवा वस्त्रों का क्रय करते हैं। जब आप एवं हम रेशमी साड़ियाँ व वस्त्र धारण कर अपने तीज-त्यौहार मनाते हैं तब उनके उद्देश्य भी पूर्ण होते हैं।
यह संस्करण भारतीय सिल्क मार्क संगठन (Silk Mark Organization of India) के सहकार्य से लिखा गया है।