गुजरात Archives - Inditales https://inditales.com/hindi/category/भारत/गुजरात/ श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Wed, 14 Feb 2024 07:23:15 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 बहुचरा माता- मेहसाणा गुजरात का शक्तिपीठ https://inditales.com/hindi/bahuchar-mata-mandir-gujarat/ https://inditales.com/hindi/bahuchar-mata-mandir-gujarat/#respond Wed, 19 Jun 2024 05:45:40 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3629

गुजरात में तीन शक्तिपीठ हैं जिनमें बहुचरा जी एक हैं। अन्य दो शक्तिपीठ हैं, आबू पर्वत के निकट अम्बा जी तथा पावागढ़ पर्वत के ऊपर कालिका देवी। मैं इससे पूर्व चंपानेर पावागढ़ की यात्रा कर चुकी हूँ। अब जैसे ही मुझे अहमदाबाद भ्रमण का अवसर प्राप्त हुआ, मैंने त्वरित ही एक विमार्ग लेकर बहुचरा जी […]

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गुजरात में तीन शक्तिपीठ हैं जिनमें बहुचरा जी एक हैं। अन्य दो शक्तिपीठ हैं, आबू पर्वत के निकट अम्बा जी तथा पावागढ़ पर्वत के ऊपर कालिका देवी। मैं इससे पूर्व चंपानेर पावागढ़ की यात्रा कर चुकी हूँ। अब जैसे ही मुझे अहमदाबाद भ्रमण का अवसर प्राप्त हुआ, मैंने त्वरित ही एक विमार्ग लेकर बहुचरा जी के दर्शन करने का निर्णय लिया।

बहुचरा माँ कौन हैं?

बहुचरा माँ गुजरात के मेहसाणा क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। वे अपने दर्शनार्थियों एवं भक्तों पर आशीषों का वर्षाव करती हैं। अनेक भक्तगण विशेष रूप से पुत्रप्राप्ति की मनोकामना लिए उनके दर्शन करने आते हैं। स्त्रियाँ अपने घरेलू समस्याओं एवं कष्टों के निवारण की आस लेकर उनके दर्शन करने आती हैं तथा उनके आशीष की कामना करती हैं।

बहुचरा माता और उनका चढ़ावा
बहुचरा माता और उनका चढ़ावा

इस मंदिर की एक विशेषता यह है कि यहाँ किन्नर समुदाय भी बहुचरा देवी के दर्शन के लिए आता है। देवी माँ के भक्तों में उनका एक महत्वपूर्ण स्थान है। आप उन्हे मंदिर में स्थित वृक्ष के नीचे बैठे देख सकते हैं।

कुलदेवी

बहुचरा देवी कई समुदायों की कुलदेवी हैं जिनमें सोलंकी राजपूत, कोली, भील, किन्नर आदि सम्मिलित हैं। सोलंकी राजपूतों ने इस क्षेत्र में दीर्घ काल तक राज किया था। बहुचरा देवी का वाहन एक कुक्कुट अथवा मुर्गा है। सोलंकी राजाओं ने अपने राजध्वज में देवी के वाहन कुक्कुट की छवि भी प्रदर्शित की थी। वे अपनी संतानों के मुंडन समारोह के लिए देवी के मंदिर आते थे। यह प्रथा वर्तमान में भी अनवरत जारी है। आप जब मंदिर में दर्शन के लिए आयेंगे, आप यहाँ मुंडन किये हुए कई शिशुओं को देखेंगे। उनके शीष पर लाल कुमकुम से स्वस्तिक भी बना होगा।

बहुचरा माता को सिंध की हिंगलज माता का स्वरूप माना जाता है। उन्हे बाला त्रिपुरसुंदरी का भी स्वरूप माना जाता है जो रंगकर्मियों की अधिष्ठात्री देवी हैं। आपको स्मरण होगा, कुचीपुड़ी में भी एक मंदिर है जो त्रिपुरसुंदरी को समर्पित है। इंटरनेट से मुझे यह जानकारी प्राप्त हुई कि इस मंदिर के गर्भगृह में स्फटिक का एक बाला यंत्र स्थापित है किन्तु मैं उसे देख नहीं पायी।

चढ़ावा

बहुचरा देवी को अर्पित किये जाने वाले चढ़ावे में एक रोचक चढ़ावा है, धातु का चौकोर पतरा, जिस पर सम्पूर्ण शरीर अथवा शरीर का कोई अंग उत्कीर्णित होता है। मंदिर में प्रवेश करने से पूर्व ही आप चारों ओर विक्रेताओं को देखेंगे जो इन पतरों की विक्री करते हैं। शरीर के जिस अंग में कष्ट है अथवा रोग है, भक्त वही पतरा देवी को अर्पित करता है। देवी उसके उस अंग को रोगमुक्त कर देती हैं।

मंदिर के भीतर हमने अनेक भक्तों को देखा जो ऐसे पतरे देवी को अर्पित कर रहे थे। विशेषतः आदि बहुचरा मंदिर में ऐसे भक्तों की संख्या अधिक थी। संतान प्राप्ति की कामना लिये अनेक स्त्रियाँ अथवा सम्पूर्ण परिवार भी ऐसा चढ़ावा देवी को अर्पित करता है।

बहुचरा माता का इतिहास

ऐसी मान्यता है कि बहुचरा माता एक वास्तविक स्त्री थी जिसका जीवनकाल १४ वीं सदी में माना जाता है। ठीक वैसे ही जैसे देशनोक की करणी माता को एक वास्तविक व्यक्तित्व माना जाता है। उनका मूल स्थान मरु क्षेत्र है जो वर्तमान के जैसलमेर में आता है। उनके पिता को सौराष्ट्र में एक जागीर प्रदान की गयी थी। एक समय की घटना है, सौराष्ट्र की ओर यात्रा करते हुए उन पर तथा उनकी भगिनियों पर एक डाकू ने आक्रमण किया था। आत्मरक्षा करते हुए उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए किन्तु मृत्यु से पूर्व उन्होंने उस डाकू को किन्नर होने का श्राप दे दिया।

बहुचरा माता मंदिर - गुजरात
बहुचरा माता मंदिर – गुजरात

जब उस दस्यु को अपनी भूल का आभास हुआ, वह हृदय से क्षमाप्रार्थी हो गया। तब बहुचरा जी ने उससे उसी स्थान पर उनकी स्मृति में एक मंदिर का निर्माण करने की आज्ञा दी। उस काल में उसे चुनावल कहा जाता था किन्तु अब देवी के नाम पर उसे बेचारजी कहा जाता है। देवी ने वरदान दिया कि यदि किन्नर स्त्री की वेशभूषा धारण कर उनके दर्शन करने के लिए आयेंगे तो वे उन्हे आशीर्वाद देंगी तथा मरणोपरांत अपने चरणों में स्थान देंगी।

उस डाकू ने एक शमी वृक्ष के नीचे देवी के लिए एक मंदिर का निर्माण किया। आप आज भी यहाँ वह मंदिर देख सकते हैं।

वडोदरा के गायकवाड

१८ वीं शताब्दी में इस मंदिर में आराधना करने के पश्चात एक गायकवाड राजा को अपने रोग से मुक्ति प्राप्त हुई थी। उसके पश्चात उन्होंने यहाँ नवीन मंदिर का निर्माण करवाया था। १९ वीं शताब्दी में गायकवाड राजाओं ने दक्षिण भारत के एक पुरोहित को इस मंदिर में पूजा-अनुष्ठान करने के लिए यहाँ आमंत्रित किया था। वर्तमान में उसी दक्षिण भारतीय पुरोहित के वंशज मंदिर की पूजा-आर्चना आदि सभी अनुष्ठानों का नेतृत्व करते हैं।

जब बड़ौदा के गायकवाड राजाओं ने गुजरात में बड़ौदा राज्य रेलसेवा आरंभ की थी, तब वे प्रत्येक यात्री के एवज में मंदिर न्यास को ५० पैसे दान में देते थे। वे तालुका राजस्व से मंदिर के रखरखाव के लिए आवश्यक निधि भी प्रदान करते थे। स्वतंत्रता के पश्चात यह व्यवहार अब भी जीवित है अथवा नहीं, इसका मुझे ज्ञान नहीं है।

मूर्ति विज्ञान – देवी बहुचरा जी की प्रतिमा की विशेषताएँ

बहुचरा देवी का वाहन एक कुक्कुट है। मंदिर के समक्ष अनेक सुंदर रंगों से अलंकृत एक कुक्कुट की प्रतिमा स्थापित है।

कुक्कुट वाहन
कुक्कुट वाहन

देवी की चार भुजायें हैं। दाहिनी ओर की ऊपरी भुजा में देवी ने दुर्गा की भांति एक तलवार धारण की हुई है। वहीं बायीं ओर के ऊपरी हाथ में उन्होंने देवी सरस्वती की भांति एक धर्मग्रंथ पकड़ा हुआ है। बाईं ओर के निचले हाथ में माहेश्वरी की भांति त्रिशूल धारण किया है तथा दाहिनी ओर की निचली भुजा लक्ष्मी की भांति अभय मुद्रा में स्थित है।

इस प्रकार बहुचरा जी देवी के चारों प्रमुख स्वरूपों के लक्षणों को अंगीकार करती प्रतीत होती हैं।

बहुचरा जी से संबंधित किवदंतियाँ

शमी वृक्ष के नीचे स्थित आदि बहुचरा जी के मंदिर के पुजारी जी ने मुझे बहुचरा देवी से संबंधित दो रोचक लोक-कथाएं सुनाईं।

मुसलमान आक्रमणकारी

सोमनाथ मंदिर को ध्वस्त करने के लिए जा रहे मुसलमान आक्रमणकारी मार्ग में स्थित सभी मंदिरों को नष्ट कर रहे थे. आक्रमण करते हुए वो सिद्धपुर पहुँचे जहाँ सिद्धपुर का प्रसिद्ध रुद्र महालय स्थित था। एक ब्राह्मण ने आक्रमणकारियों चुनौती दी कि वे बहुचरा देवी के मंदिर को ध्वस्त कर दिखाएं। उस ब्राह्मण पुजारी का असीम विश्वास था कि बहुचरा जी एक जागृत देवी हैं। वे मंदिर का एवं अपने भक्तों का सदा रक्षण करेंगी।

जब तक आक्रमणकारी मंदिर के निकट पहुँचे, संध्या हो चुकी थी। मंदिर के चारों ओर अनेक कुक्कुट विचरण करने लगे थे जो संयोग से देवी के वाहन भी हैं। उन्हे देख आक्रमणकारियों को लालच आने लगा। उन्होंने भरपूर कुक्कुटों का शिकार किया तथा उसे अपने रात्रि के भोजन में सम्मिलित किया। प्रातः होते ही मंदिर के एक कुक्कुट ने बाँग दी। आक्रमणकारियों के उदर में स्थित कुक्कुटों ने उस बाँग की प्रतिक्रिया दी एवं उनके उदार फाड़कर बाहर आ गए। इस प्रकार उन्होंने आक्रमणकारियों की सम्पूर्ण सेना को समाप्त कर दिया।

तब से देवी को धर्म के अनुयायियों का रक्षक माना जाता है।

सोलंकी एवं चावडा सम्राट

यह दंतकथा १८ वीं सदी की किसी कालावधी के दो घनिष्ठ मित्रों की है। एक कालरी ग्राम का सोलंकी राजा था तो दूसरा पाटन का चावडा राजा। उनके मध्य परम घनिष्ठता थी। उन्होंने एक दूसरे से प्रतिज्ञा की थी कि भविष्य में यदि एक मित्र को कन्यारत्न की प्राप्ति होगी तथा दूसरे को पुत्ररत्न प्राप्त हो तो वे उनका आपस में विवाह संपन्न करायेंगे। इससे उनकी घनिष्ठ मित्रता पारिवारिक संबंध में परिवर्तित हो जाएगी। भाग्य ने ऐसी कृपा की कि कालांतर में दोनों ही मित्रों को कन्या रत्न की प्राप्ति हुई। सोलंकी राजा ने कन्या के स्थान पर पुत्र के जन्म की घोषणा कर दी।

यह ऐसा सत्य है जिसे कोई भी अधिक दिवसों तक गोपनीय नहीं रख सकता। सोलंकी राजा के असत्य घोषणा की सूचना शीघ्र ही पाटन के राजा तक भी पहुँच गयी। सत्य सबके समक्ष उजागर करने की मंशा से पाटन के राजा ने किसी अनुष्ठान के नाम पर अपने भावी जमाई के लिए निमंत्रण भेजा।

इससे सोलंकी राजकुमारी भयभीत हो गयी तथा अपनी घोड़ी दौड़ाते हुए बहुचराजी के पास पहुँची। यदि उसका भेद उजागर हो गया तो दोनों राजवंशों के मध्य युद्ध हो जाएगा तथा असंख्य निर्दोषों के प्राण न्योछावर हो जाएंगे। राजकुमारी ने बहुचराजी से निवेदन किया कि वे बिना किसी हिंसा एवं रक्तपात के इस विकट समस्या का हल निकालें।

यहाँ मानसरोवर नामक एक विशाल सरोवर था। बहुचरा देवी से प्रार्थना करने के पश्चात राजकुमारी उस सरोवर के तट पर बैठ गयी। उसने देखा कि एक मादा श्वान ने सरोवर के जल में प्रवेश किया तथा कुछ क्षण पश्चात वह नर श्वान के रूप में जल से बाहर आ गयी। राजकुमारी ने इसे देवी का संकेत माना तथा वह स्वयं भी सरोवर के जल में प्रवेश कर गयी। एक डुबकी लगाने के पश्चात उसने देखा कि वह एक रूपवान नवयुवक के रूप में परिवर्तित हो गयी है।

हर्षित हो कर उसने पाटन की ओर प्रस्थान किया। वहाँ उसका भव्य स्वागत किया गया। कालांतर में पाटन की राजकुमारी से उसका विवाह भी संपन्न हो गया।

अन्य किवदंतियाँ

एक अन्य किवदंती के अनुसार देवी बहुचरा जी ने दण्डासुर का वध किया था। दण्डासुर दैत्यराजपुर पर शासन करता था जिसे अब दैत्रो कहा जाता है। यह घटना सभी देवी क्षेत्रों में घटी घटनाओं के अनुरूप है जहाँ देवी ने किसी ना किसी असुर का वध किया है। दृष्टांत के लिए, चामुण्डेश्वरी देवी ने मैसूर में महिषासुर का वध किया था, महालक्ष्मी ने कोल्हापूर में कोलासुर का वध किया था।

एक लोककथा के अनुसार एक राजा ने पुत्र प्राप्ति की कामना से यहाँ प्रार्थना की थी। उसे पुत्र की प्राप्ति अवश्य हुई किन्तु वह पुत्र नपुंसक था। देवी ने पुत्र को उसके स्वप्न में दर्शन दिए तथा स्त्री के भेस में उसकी पूजा-आराधना करने का निर्देश दिया। तभी से यहाँ पुरुषों द्वारा स्त्री का रूप धर कर देवी की आराधना की प्रथा चली आ रही है।

बहुचरा जी का मंदिर

हम प्रातःकाल मंदिर पहुँच गए थे। वाहन को वाहन स्थानक पर रखकर हम मंदिर की ओर चल दिए। मार्ग के दोनों ओर विक्रेता देवी को अर्पण करने की विविध वस्तुएं विक्री कर रहे थे। जिस वस्तु ने हमें सर्वाधिक आकर्षित किया, वह था धातु का पतरा। अनेक विक्रेता धातु के छोटे छोटे चौकोर पतरे विक्री कर रहे थे जिन पर शरीर के भिन्न भिन्न भाग उत्कीर्णित थे।

बहुचरा माता शक्तिपीठ का प्रवेश  द्वार
बहुचरा माता शक्तिपीठ का प्रवेश द्वार

एक विशाल अर्धगोलाकार तोरण के नीचे से हम परिसर की ओर अग्रसर हुए। तोरण के एक ओर गणेश जी का एक छोटा मंदिर था। मंदिर की ओर जाने वाला मार्ग अत्यंत अस्तव्यस्त एवं भीड़भाड़ भरा था। किन्तु जैसे ही हमने मंदिर परिसर के भीतर प्रवेश किया, एक शुभ्र श्वेत विशाल संरचना को देख हमारी आँखें चुँधिया गईं। वह संरचना पवित्र एवं सशक्त ऊर्जा उत्सर्जित कर रही थी। वह देवी बहुचरा जी का मंदिर था।

मंदिर की ओर जाते हुए आपको अपने दोनों ओर दो लघु मंदिर दृष्टिगोचर होंगे। उनमें से एक शिव मंदिर है तथा दूसरा गणपती मंदिर है। बहुचरा जी के मंदिर के ठीक अग्र दिशा में देवी के वाहन, कुक्कुट की बहुरंगी प्रतिमा स्थापित है। परिसर में चारों ओर की श्वेत शुभ्र संरचनाओं के मध्य इस कुक्कुट के रंग अत्यंत आकर्षक प्रतीत होते हैं।

मंदिर के अग्रभाग में श्वेत रंग के आकर्षक तोरण हैं। उसके नीचे से जाते हुए आप एक विशाल मंडप में पहुँचेंगे। समक्ष ही गर्भगृह स्थित है जिसके भीतर बहुचरा देवी का सुंदर विग्रह स्थित है। चित्रों में बहुचरा देवी का जैसा आयुधों एवं वस्त्राभूषणों से अलंकृत अप्रतिम रूप दर्शाया जाता है, देवी का विग्रह उसी के अनुरूप है।

देवी के समक्ष नतमस्तक होकर हमने उनकी आराधना की। तत्पश्चात मंदिर के मंडप में बैठ गए। कुछ क्षणों पश्चात मंदिर के बाह्य भाग में स्थित यज्ञ मंडप की ओर से हमें संगीत के स्वर सुनाई देने लगे। उसे सुनने हम मंडप से बाहर आ गए।

मंदिर का परिसर

यज्ञ मंडप में किसी प्रकार का अनुष्ठानिक यज्ञ किया जा रहा था। अनेक भक्तगण गुजराती भाषा में दुर्गा सप्तशती का जाप कर रहे थे।

मंदिर के दूसरी ओर छोटे मंदिर हैं जो नरसिंह वीर को समर्पित हैं। नरसिंह वीर अपने वाहन अश्व पर आरूढ़ हैं। आपको स्मरण होगा, कुमाऊँ के गोलू देवता एवं महाराष्ट्र के खंडोबा, दोनों के वाहन भी अश्व हैं।

मंदिर परिसर में, मंदिर के समक्ष, मंदिर के ही अनुरूप, श्वेत रंग में तीन तलों का एक दीपस्तंभ है।

बहुचरा जी का सुखड़ी प्रसाद
बहुचरा जी का सुखड़ी प्रसाद

परिसर में कुछ भक्त अन्य भक्तों को प्रसाद के रूप में सुखड़ी वितरित कर रहे थे। सुखड़ी एक प्रकार का मिष्टान्न है जिसे दूध एवं गुड़ से बनाया जाता है।

मंदिर से बाहर आकर हमने परिक्रमा आरंभ की। परिक्रमा करते हुए हमने एक सुंदर व्यालमुख जलप्रणाली देखी जिसका मुख हाथी के मुख के अनुरूप था। इस गजमुख से जल एक पात्र में गिर रहा था। एक स्त्री की सुंदर शैलप्रतिमा उस पात्र को अपने हाथों में धारण किये हुए थी।

हमने अनेक स्तंभों से सज्ज एक सभा मंडप देखा जिसके भीतर बहुरंगी आधारों पर मिट्टी के घड़े रखे हुए थे। ऐसे ही एक अन्य सभामंडप में एक पालना रखा हुआ था। उस पालने के समक्ष स्त्रियाँ पुत्र प्राप्ति की कामना करती हैं। इस मंडप में बहुचरा जी के अनेक विशाल चित्र हैं। उनमें से एक चित्र में वे एक सुंदर रथ में सवार हैं जिसे कुक्कुटों का समूह हाँक रहा है।

परिक्रमा करते हुए हम मंदिर के पृष्ठभाग में पहुँचे। वहाँ हमने संगमरमर में उत्कीर्णित चरणों की आकृति देखी जिस पर सिंदूर का ढेर रखा हुआ था। भक्तगण उस सिंदूर को अपनी माथे पर लगाते हैं तथा समक्ष स्थित भित्ति पर स्वास्तिक का चिन्ह अंकित करते हैं। ऐसी ही प्रथा मैंने इससे पूर्व मथुरा के मंदिरों में भी देखी थी।

मंदिर के चारों ओर उसकी बाह्य भित्तियों पर आकर्षक उत्कीर्णन किये हुए हैं।

आद्यस्थान

यह एक लघु मंदिर है जो मुख्य मंदिर के पृष्ठ भाग में स्थित है। यह वह मूल स्थान है जहाँ एक शमी अथवा वरखड़ी वृक्ष के नीचे देवी सर्वप्रथम प्रकट हुई थीं।

प्रत्येक दर्शनार्थी इस मंदिर में देवी के दर्शन अवश्य करता है। वे देवी को धातु के पतरे अर्पित करते हैं। इसी मंदिर में मुझे पण्डितजी ने बहुचरा जी से संबंधित दंतकथाएं सुनाई थीं।

मंदिर का जलकुण्ड

मंदिर के पीछे एक पगडंडी है जो एक जलकुण्ड की ओर ले जाती है। इस जलकुण्ड के चारों ओर अनेक लघु मंदिर स्थित हैं। जलकुण्ड के जल का प्रयोग मंदिर के विविध अनुष्ठानों के लिए किया जाता है। हमने यहाँ अनेक मुंडन संस्कार भी होते देखा।

मंदिर का जलकुण्ड
मंदिर का जलकुण्ड

मैंने महाभारत में पढ़ा था कि अज्ञातवास की अवधि में अपना परिचय गुप्त रखने की मंशा से अर्जुन ने इस सरोवर में डुबकी लगाई थी जिसके पश्चात उसे बृहन्नला का रूप प्राप्त हुआ था। ऐसा भी उल्लेख किया जाता है कि शिखंडी ने भी द्रोणाचार्य से युद्ध करने से पूर्व यहाँ पूजा-अर्चना की थी। आपको स्मरण ही होगा कि महाभारत महाकाव्य के अनुसार अम्बा ने मृत्यु पश्चात शिखंडी के रूप में जन्म लिया था। उसका जन्म एक कन्या के रूप में हुआ था। कालांतर में उसने लिंग परिवर्तन कराकर पुरुष रूप धारण किया था तथा भीष्म की मृत्यु का कारण बनकर अपना प्रतिशोध लिया था।

किन्नरों से भेंट

मंदिर परिसर में विचरण करते हुए हमारी दृष्टि किन्नरों के एक समूह पर पड़ी जो उजले चटक रंगों की साड़ियाँ धारण कर तथा स्वर्णाभूषणों से सज्जित होकर एक वृक्ष के नीचे बैठी थीं। जो भी भक्तगण अपनी संतानों के मुंडन संस्कार के लिए यहाँ आए थे, वे आशीष ग्रहण करने के लिए अपनी संतानों को इन किन्नरों के पास ले जा रहे थे। यदा-कदा वे उठकर गरबा नृत्य भी करने लगती थीं।

किन्नर सोनू मासी के साथ
किन्नर सोनू मासी के साथ

कुछ क्षण उनको निहारने के पश्चात मुझसे रहा नहीं गया। मैं उठकर उनके समीप पहुँची तथा उनसे वार्तालाप करने लगी। उन्होंने मुझे उनके वरिष्ठतम सदस्य सोनू मासी के पास भेजा। सोनू मासी ने भरपूर स्वर्णाभूषण धारण किया हुआ था। यहाँ तक कि उनके सभी दाँतों पर स्वर्ण का आवरण था। मैंने वहाँ बैठकर उनके विषय में तथा मंदिर के विषय में चर्चा की। उन्होंने मुझे उनके विविध वार्षिक उत्सवों के विषय में भी जानकारी दी, जैसे दीपावली के पाँच दिवस उपरांत लाभ पंचमी का उत्सव आयोजित किया जाता है जो ८ से ९ दिवसों तक चलता है। उन्होंने मुझे कई विडिओ भी दिखाए जिनमें वे इन उत्सवों में नृत्य करती दिखाई पड़ रही थीं।

मैंने उनसे बहुचरा जी एवं इस मंदिर से उनके संबंध के विषय में प्रश्न किये। उन्होंने बताया कि वे बहुचरा माँ के नामों का जप करते हैं तथा देवी उनका रक्षण करती हैं। उन्होंने यह भी बताया कि अनेक पालक अपनी किन्नर संतानों को यहाँ छोड़ जाते हैं। यहाँ का किन्नर समुदाय उनको गोद ले लेता है तथा उनका पालन-पोषण करता है। इंटरनेट के द्वारा मुझे यह जानकारी भी प्राप्त हुई कि अनेक वयस्क भी इस मंदिर में आकार इस समुदाय से संयुक्त होते हैं।

सोनू मासी ने मुझे आशीर्वाद के रूप में एक सिक्का दिया। देने से पूर्व उन्होंने उस सिक्के को अपनी चूड़ियों से स्पर्श कराया। ऐसी मान्यता है कि उनके आशीष में अपार शक्ति होती है। उनके आशीष ने मुझे कृतार्थ कर दिया। यह मेरा सौभाग्य ही है कि मुझे उनका आशीष प्राप्त हुआ, वह भी बहुचरा जी के शक्तिपीठ में। मानो देवी स्वयं अपने विशेष भक्तों के माध्यम से मुझे आशीर्वाद प्रदान कर रही हों।

मंदिर के विविध उत्सव

प्रत्येक पूर्णिमा के दिवस बहुचरा जी को पालकी में बिठाकर मंदिर के चारों ओर उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है।

चैत्र एवं आश्विन मासों की पूर्णिमा के दिवसों में बहुचरा जी का उत्सव आयोजित किया जाता है। ये पूर्णिमाएँ ग्रीष्म ऋतु एवं शीत ऋतु के आरंभ में आयोजित नवरात्रि उत्सवों के पश्चात आती हैं। इस उत्सव में बहुचरा जी अपनी पालकी में बैठकर शंखलपुर गाँव जाती हैं जो उनके मंदिर से लगभग ३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

दशहरा के दिवस शमी वृक्ष की पूजा-अर्चना की जाती है।

वल्लभ भट्ट नी वाव

वल्लभ भट्ट नी वाव एक बावड़ी है जो बहुचरा जी के मंदिर से लगभग १-२ किलोमीटकर की दूरी पर है। लोककथाओं के अनुसार वल्लभ भट्ट देवी के परम भक्त थे। वे प्रतिदिन अन्न-जल ग्रहण करने से पूर्व देवी के दर्शन करने के लिए आते थे। एक दिवस देवी के मंदिर जाते हुए मार्ग में उन्हे प्यास लगी। गहन तृष्णा के पश्चात भी उन्होंने जल ग्रहण करना अस्वीकार किया। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर देवी ने वहीं उन्हे दर्शन दिए। एक वाव अथवा बावड़ी खोदकर उन्हे जल पिलाया। तब से इस बावड़ी को उस परम भक्त का नाम प्राप्त हुआ।

वर्तमान में यह स्थान एक भक्ति स्थल की अपेक्षा एक पर्यटन स्थल के रूप में अधिक लोकप्रिय है। यहाँ बहुचरा जी का एक छोटा मंदिर है। बावड़ी जाने का द्वार बंद रहता है। एक जाली के मध्य से आप बावड़ी का दर्शन कर सकते हैं।

यात्रा सुझाव

बेचारजी अथवा बहुचर माता मंदिर अहमदाबाद से लगभग ८० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

अहमदाबाद से आप एक दिवसीय यात्रा के रूप में इस मंदिर का भ्रमण कर सकते हैं। अहमदाबाद देश के सभी प्रमुख स्थानों से आकाश मार्ग, रेल मार्ग तथा सड़क मार्ग द्वारा संयुक्त है।

मंदिर के बाह्य क्षेत्र में मंदिर का वाहन स्थानक है।

नवरात्रि, पूर्णिमा तथा अन्य विशेष उत्सवों में मंदिर में भक्तों की भारी भीड़ रहती है। मैंने गुरुवार के दिवस मंदिर का भ्रमण किया था। उस दिन भक्तों की भीड़ अपेक्षाकृत कम थी।

मंदिर में भ्रमण तथा अवलोकन के लिए ३० मिनट से अधिक समय लग सकता है। दर्शन समय भक्तों की संख्या पर निर्भर है।

मंदिर के भीतर छायाचित्रीकरण निषिद्ध है। मंदिर के परिसर में आप छायाचित्र ले सकते हैं।

आप इस एक दिवसीय यात्रा में मोढेरा सूर्य मंदिर, पाटन की बावड़ी रानी की वाव, सिद्धपुर तथा उंझा जा सकते हैं जहाँ उमिया माता का मंदिर है।

यह गुजरात का एक महत्वपूर्ण मंदिर है। आप इसके दर्शन अवश्य करें।

बहुचराजी नगरी अथवा मेहसाणा में भी विश्राम गृह उपलब्ध हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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संखेड़ा के रंगीन गृह सज्जा सामग्री बनाने वाला कला ग्राम https://inditales.com/hindi/sankheda-kala-gram-gujarat/ https://inditales.com/hindi/sankheda-kala-gram-gujarat/#respond Wed, 21 Dec 2022 02:30:35 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=766

संखेड़ा, वडोदरा से दक्षिण-पूर्वीय दिशा में लगभग 45 कि.मी. की दूरी पर बसा हुआ एक छोटा सा गाँव है। यह भारत का एक सामान्य सा गुजराती गाँव है, जहाँ पर रहनेवाले अधिकतर परिवार लकड़ी की कारीगरी का व्यवसाय करते हैं। ये लोग लकड़ी के बड़े ही सुंदर फर्नीचर बनाते हैं, जो सिर्फ यहीं पर बनाए […]

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संखेड़ा, वडोदरा से दक्षिण-पूर्वीय दिशा में लगभग 45 कि.मी. की दूरी पर बसा हुआ एक छोटा सा गाँव है। यह भारत का एक सामान्य सा गुजराती गाँव है, जहाँ पर रहनेवाले अधिकतर परिवार लकड़ी की कारीगरी का व्यवसाय करते हैं। ये लोग लकड़ी के बड़े ही सुंदर फर्नीचर बनाते हैं, जो सिर्फ यहीं पर बनाए जाते हैं। यहाँ पर उत्पादित इन वस्तुओं को संखेड़ा के फर्नीचर के नाम से जाना जाता है।

संखेडा गुजरात में बनी रंग बुरंगी चौकियां
संखेडा गुजरात में बनी रंग बुरंगी चौकियां

इनकी विशेष बात यह है कि इन वस्तुओं को लाख के प्रयोग से चमकदार परिष्करण दिया जाता है। हालांकि अब इस कार्य के लिए लाख के स्थान पर तामचीनी का उपयोग किया जाता है। यह न केवल प्रयोग करने में ही आसान है, बल्कि इससे यहाँ के कारीगरों को रंगों की व्यापक विविधता भी प्राप्त हुई है, जिससे कि वे अपनी कलाकृतों को और भी सुंदर बना सकते हैं।

संखेड़ा के फर्नीचर अथवा गृह सज्जा का सामान

वडोदरा से संखेड़ा जाते वक्त हम दभोई से होते हुए गुजरे थे। संखेड़ा की इन संकरी गलियों में घूमते हुए हमे चाँदी की वस्तुएं बेचनेवाली बहुत सारी दुकाने दिखी, जिनमें चाँदी के बने ठेठ आदिवासी गहने बेचे जा रहे थे। जब हमने इन लोगों से लकड़ी की कलाकृतियों के बारे में पूछा तो उन्होंने हमे एक और गली की ओर मार्गदर्शित किया, जहाँ पर फर्नीचर की बहुत सी दुकानें और कार्यशालाएं थीं।

संखेडा में बना झूला
संखेडा में बना झूला

जिस दिन हम वहाँ गए थे वह दशहरे का दिन था जिसके कारण वहाँ की अधिकतर दुकानें बंद थीं। लेकिन जो भी दुकानें खुली थीं उनमें भी हमे एक से बढ़कर एक काष्ठ की वस्तुएं देखने को मिली। इन में से एक दुकान पर हमे दो महिलाएं दिखीं जो उस दुकान की कर्ता-धर्ता थीं। उन्होंने हमे लकड़ी की विविध वस्तुएं दिखाई, जो यहाँ पर बनायी जाती हैं; जैसे कि छोटी-छोटी चौकियाँ, डांडिया में प्रयुक्त छड़ियाँ, मंदिर और पालने आदि। यहाँ पर झूले भी थे जो गुजराती घरों की साज-सज्जा से बहुत मेल खा रहे थे।

कार्यशाला

संखेडा की कार्यशाला
संखेडा की कार्यशाला

थोड़ा-बहुत निवेदन करने के पश्चात उन में से एक महिला ने मुझे उनकी कार्यशाला के दर्शन करवाए। वहाँ पर मैंने सागौन लकड़ी के छोटे-बड़े टुकड़े देखे जिन्हें बाद में यंत्रों के द्वारा विविध आकार दिये जाते थे। आकार देने के बाद इन कलाकृतियों पर प्राइमर पोता जाता था और फिर आखिर में उनपर मेलामाइन रंगों की परत चढ़ाई जाती थी। यह रंग सूखने के बाद उस पर हाथ से विविध चित्र बनाए जाते थे, जो अधिकतर फूलों से संबंधित होते थे या फिर किसी प्रकार के ज्यामितीय आकार होते थे।

बाजोड़
बाजोड़

पुराने समय में इन वस्तुओं पर परिष्करण के तौर पर लाख की परत चढ़ाई जाती थी, जिसके कारण ये वस्तुएं भूरे से रंग की नज़र आती थीं; लेकिन अब इसके स्थान पर पोलिश का इस्तेमाल किया जाता है जो हूबहू वैसे ही परिणाम देती है। हमे बताया गया कि पुरानी प्रक्रिया बहुत ही थकाऊ थी और उसमें बहुत समय भी लगता था जिसका अनुसरण अब कोई नहीं करता। बाद में जब हम यहाँ की कारीगरों की गली में घूम रहे थे, तो हमने देखा कि यहाँ के अधिकतर घरों के बरामदों में लकड़ी के अध-उत्कीर्णित टुकड़े रखे गए थे।

संखेड़ा की प्रसिद्ध काष्ठ की वस्तुएं

काष्ठ का बना एक मनमोहक मंदिर
काष्ठ का बना एक मनमोहक मंदिर

संखेड़ा में उत्पादित प्रसिद्ध लकड़ी की वस्तुएँ हैं, बाजोड़ या चौकी – जो पूजा के समय बैठने के लिए इस्तेमाल की जाती है, कंगन रखने के स्टैंड, डांडिया की छड़ियाँ, मंदिर, सोफा, झूला आदि। इस छोटे से गाँव में उत्पादित इन वस्तुओं का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी संख्या में निर्यात भी किया जाता है। अगर आप कभी भी गुजराती घरों में गए हैं, तो आपने उनके घरों में संखेड़ा की कोई न कोइन लकड़ी की वस्तु जरूर देखी होगी।

यह भारत में स्थित अनेक छोटे-छोटे कला केन्द्रों में से एक है, जिनके अस्तित्व के बारे में बहुत से लोगों को जरा भी ज्ञान नहीं है।

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लक्ष्मी विलास महल – वड़ोदरा स्थित गायकवाड वंश की शोभा https://inditales.com/hindi/lakshmibvilas-mahal-gaikwad-vadodara/ https://inditales.com/hindi/lakshmibvilas-mahal-gaikwad-vadodara/#respond Wed, 22 Dec 2021 02:30:22 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=784

वडोदरा की यात्रा पर जाते वक्त सबसे पहले आपको लक्ष्मी विलास महल के दर्शन करने के लिए जरूर कहा जाएगा। इस शहर में घूमते हुए हमने बहुत बार इस महल की कुछ-कुछ झलकियाँ जरूर देखी थीं। उसका आलीशान मेहराबदार प्रवेश द्वार सड़क के पास ही स्थित है। इस महल का परिसर इतना विशाल है कि […]

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वडोदरा की यात्रा पर जाते वक्त सबसे पहले आपको लक्ष्मी विलास महल के दर्शन करने के लिए जरूर कहा जाएगा। इस शहर में घूमते हुए हमने बहुत बार इस महल की कुछ-कुछ झलकियाँ जरूर देखी थीं।

लक्ष्मी विलास महल - वड़ोदरा
लक्ष्मी विलास महल – वड़ोदरा

उसका आलीशान मेहराबदार प्रवेश द्वार सड़क के पास ही स्थित है। इस महल का परिसर इतना विशाल है कि वहाँ पर स्थित विविध भवनों के, जैसे फतेह सिंह संग्रहालय और लक्ष्मी विलास महल के दर्शन करने हेतु आपको अलग-अलग प्रवेश द्वारों से जाना पड़ता है। इस महल के परिसर में एक सुव्यवस्थित गोल्फ कोर्स और क्रिकेट का मैदान भी है। इसके अलावा यहाँ पर घास के व्यापक मैदान हैं, जहाँ पर आप यहाँ-वहाँ घूमते हुए ढेर सारे मोर देख सकते हैं तथा वृक्षों पर चहचहाते हुए पक्षियों को सुन सकते हैं।

लक्ष्मी विलास महल, वडोदरा

गायकवाड वंश

लक्ष्मी विलास महल की बाहरी दीवारों पर चित्रकारी
लक्ष्मी विलास महल की बाहरी दीवारों पर चित्रकारी

वडोदरा शहर में गायकवाड परिवार के अनेक भवन हैं। पर इनमें से जो सबसे अधिक प्रसिद्ध है और जिसे सबसे अच्छी तरह से संरक्षित किया गया है, वह है लक्ष्मी विलास महल। यह आज भी विश्व का सबसे बड़ा व्यक्तिगत निवास स्थान है। यहाँ का भूतपूर्व राज परिवार आज भी इस महल में आते-जाते रहता है। जब भी महाराज यहाँ पर आते हैं तो उनकी उपस्थिति की घोषणा महल के प्रवेश द्वार पर केसरी ध्वज फहराकर की जाती है। 19वी शताब्दी के उत्तरकाल में महाराज सयाजी राव गायकवाड तृतीय ने इस महल को अपनी महारानी का नाम दिया, जो तंजौर के दक्षिणी राज्य से थी। हमे बताया गया कि गायकवाड वंश के वर्तमान राजकुमार डॉक्टरेट की उपाधि हेतु पगड़ियों अर्थात साफ़ा या भारत के पारंपरिक सिर के पहनावों पर अपना शोधकार्य कर रहे हैं।

महल का एक अंश
महल का एक अंश

लक्ष्मी विलास महल के कर्मचारी बहुत ही अशिष्ट और असभ्य थे। वे आज भी इसी मनोवृत्ति से व्यवहार करते  हैं जैसे कि महाराज आज भी यहाँ पर राज कर रहे हों। शायद उन्हें इससे कोई दिक्कत न हो क्योंकि उन्हें तो राज परिवार द्वारा ही काम पर रखा गया है। यहाँ का प्रवेश शुल्क 175/- रुपया है, जो मेरे अनुमान से अधिक है जिसके कारण देश के अधिकतर लोग इस अद्वितीय धरोहर के दर्शन करने में असमर्थ हैं। लेकिन चूंकि यह एक व्यक्तिगत महल है, तो उससे संबंधित सभी निर्णय लेने का अधिकार भी उसके स्वामी का ही होता है।

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यद्यपि इसकी एक बात अच्छी है कि टिकिट के साथ आपको एक श्रव्य मार्गदर्शिका भी दी जाती है जिससे कि आप आराम से बिना किसी गाइड के अपने आप इस पूरे महल के दर्शन कर सकते हैं। इस श्रव्य मार्गदर्शिका में इस महल की अधिकतर वस्तुओं को बहुत ही विस्तार से समझाया गया है। इसके अलावा इस श्रव्य मार्गदर्शिका में आप गायकवाड कुल के वर्तमान वंशज को इस महल से जुड़ी अपनी यादों को आपके साथ साझा करते हुए सुन सकते हैं। इस महल के लंबे-लंबे गलियारों में चलते हुए उन्हें अपनी बाल लीलाओं का वर्णन करते हुए सुनना और परिवार के अन्य सदस्यों के चित्रों से सजी दीवारों वाले उसे गलियारे में खड़े होकर उनके विवरणों को कल्पना का रूप देना जैसे बहुत ही रोचकपूर्ण अनुभव था।

लक्ष्मी विलास महल की वास्तुकला

विभिन्न वास्तु शैलियों का मिश्रण
विभिन्न वास्तु शैलियों का मिश्रण

लक्ष्मी विलास महल विविध वास्तु शैलियों की परिणति है जैसे मुगल, राजपूत, जैन, गुजराती और वेनिशियन। यहाँ तक कि इसके निर्माण में इस्तेमाल किए गए पत्थर भी पुणे, अजमेर और आगरा जैसे दूर-दूर के स्थानों से लाए गए थे। इस महल के मध्य भाग में महाराज रहते थे तो दाहिने तरफ वाले भाग में राज घराने की महिलाएं रहती थीं और महल का बाईं तरफ वाला भाग मेहमानों के लिए बनवाया गया था।

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अन्य देखने की वस्तुएं

लक्ष्मी विलास महल का प्रवेश द्वार
लक्ष्मी विलास महल का प्रवेश द्वार

लक्ष्मी विलास महल महल के भीतर तस्वीरें खिचाना माना है इसलिए मैं आपको वहाँ की कुछ देखने योग्य वस्तुओं के बारे में बता दूँ ताकि जब आप वहाँ पर जाए तो इन वस्तुओं को देख सके।

  1. महाराज और महारानी की अर्ध-प्रतिमाएँ जिन्हें इतनी बारीकी से बनवाया गया है कि, महारानी का मोतियों वाला हार उनकी साड़ी की सिलवटों से भी साफ झलकता है।
  2. प्रताप शस्त्रागार, जो शस्त्र प्रदर्शन का कक्ष है। वैसे तो मुझे शस्त्रों में ज्यादा दिलचस्पी नहीं है। लेकिन इस शस्त्रागार में प्रदर्शित कुछ तलवारें आपको जरूर देखनी चाहिए जैसे कि दो-धारी तलवार, गुरु गोबिन्द सिंह की पंचकला तलवार और सोने और चाँदी के बने तोप। वहाँ पर कुछ तख्ते भी हैं जिन पर इन तलवारों के विभिन्न भागों को दर्शाया गया है तथा यह भी बताया गया है कि कब और किस स्थिति में कौनसी तलवार का इस्तेमाल करना चाहिए। यह प्रदर्शन कक्ष जैसे तलवारों का जीता-जागता विश्वकोश है।
  3. महल के बीचोबीच खड़ा 300 फिट का घंटाघर जो बाद में दीपस्तंभ में परिवर्तित किया गया था।
  4. महल के गद्दी सभागृह या राज परिवार के राज-तिलक कक्ष में प्रदर्शित राजा रवि वर्मा के चित्र। उनके राजसिंहासन की सादगी आपको आश्चर्य चकित कर देगी।
  5. दरबार कक्ष जो आपको अपनी अभियांत्रिकी की ओर आकर्षित करता है। इसकी 95 फीट की लंबी ऊंची दीवारें जो बिना किसी स्तंभ के सहारे के खड़ी हैं, सच में बहुत ही प्रशंसनीय हैं। यहाँ पर प्रदर्शित भिन्न भिन्न विषयों पर की गयी काँच की चित्रकारी एक अनोखा सम्मिश्रण है। इस महल की पहली मंजिल पर महिलाओं के लिए बने झरोखे प्रचुरता से उत्कीर्णित हैं। इस कक्ष के दोनों तरफ परिवार के अन्य सदस्यों की अर्ध-प्रतिमाएँ सजी हुई हैं। यहाँ पर वार्षिक बरोड़ा संगीत महोत्सव का भी आयोजन किया जाता था।
  6. इस महल को बाहर से भी जरूर देखिये, उसकी कुछ बाह्य दीवारों पर आपको प्रचुर चित्रकारी देखने को मिलती है।
  7. वहाँ के घास के मैदानों में टहलते हुए इस महल को एक पूर्ण संरचना के रूप देखिये जो बहुत ही सुंदर और आकर्षक लगता है।

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व्यक्तिगत महल

क्योंकि यह एक व्यक्तिगत महल है तो प्रबंधकों की इच्छा के अनुसार वह जब चाहे खुलता है और बंद होता है। जब हम पहली बार वहाँ गए तो महल खुला होने के बावजूद भी हमे वापस जाने के लिए कहा गया, क्योंकि उस दिन वहाँ पर किसी विज्ञापन का चित्रीकरण चल रहा था। इसलिए जाने से पहले एक बार जरूर पता कीजिए।

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नवरात्रि उत्सव में सर्वोत्तम डांडिया रास एवं गरबा गीत https://inditales.com/hindi/navratri-garba-daandiya-raas-ke-prasiddh-geet/ https://inditales.com/hindi/navratri-garba-daandiya-raas-ke-prasiddh-geet/#comments Wed, 22 Sep 2021 02:30:14 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2422

नवरात्रि अपने साथ में गरबा व डांडिया रास ले कर आती है। यूँ तो नवरात्रि देश भर में भिन्न भिन्न रीति से मनायी जाती है, किन्तु उनमें सर्वाधिक लोकप्रिय है पारंपरिक गुजराती नवरात्रि। अपने घर में देवी माँ की पूजा-अर्चना कर हम संध्या की प्रतीक्षा करते हैं जब हमारे पग अनायास ही पारंपरिक गुजराती उत्सव […]

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नवरात्रि अपने साथ में गरबा व डांडिया रास ले कर आती है। यूँ तो नवरात्रि देश भर में भिन्न भिन्न रीति से मनायी जाती है, किन्तु उनमें सर्वाधिक लोकप्रिय है पारंपरिक गुजराती नवरात्रि। अपने घर में देवी माँ की पूजा-अर्चना कर हम संध्या की प्रतीक्षा करते हैं जब हमारे पग अनायास ही पारंपरिक गुजराती उत्सव पंडालों की ओर चल पड़ते हैं, जहां गरबा एवं डांडिया रास आयोजित किए जाते हैं। आरंभ में नवरात्रि के गरबे एवं डांडिया केवल गुजरात तक ही सीमित थे। गुजरात के बाहर भी केवल गुजराती समाज के लोग ही इस आयोजन में भाग लेते थे। किन्तु अब गरबा एवं डांडिया इस स्तर तक लोकप्रिय हो गए हैं कि ये केवल गुजरात अथवा भारत ही नहीं, अपितु विदेशों के अप्रवासी भारतीयों में भी प्रमुख आकर्षण बन गए हैं।

गरबा डांडिया रास गीत - नवरात्रि
गरबा डांडिया रास गीत के साथ नवरात्रि

रंग-बिरंगे पारंपरिक परिधान धारण कर जब नर्तक व नर्तकियाँ, लोकप्रिय गरबा तथा डांडिया गीतों पर लहराते हुए नृत्य करते हैं तो वह दृश्य देखते ही बनाता है। इन गीतों में अनेक गीत ठेठ गुजराती भाषा में गाए गए पारंपरिक गीत होते हैं। इसमें मुंबई चित्रपट उद्योग कैसे पीछे रह सकता है? अनेक चित्रपटों में गरबा व डांडिया के दृश्य चित्रित किए गए हैं व उनके गीत अत्यंत लोकप्रिय भी हो गए हैं।

गरबा एवं डांडिया रास क्या हैं?

जैसा कि नाम से ही ज्ञात होता है, नवरात्रि देवी के नौ रात्रियों से संबंधित है। सम्पूर्ण भारत में नवरात्रि के नौ दिवस एवं रात्रि अपनी अपनी रीति से मनाए जाते हैं। बंगाल में दुर्गा पूजा मनाई जाती है तो तेलंगाना में बतुकम्मा, तमिलनाडु में गोलू सजाया जाता है तो उत्तर भारत शाकाहारी होकर उपवास करने लगता है। किन्तु इन सब में गुजरात का उत्सव सर्वाधिक रंगबिरंगा एवं जोशपूर्ण होता है जिसमें प्रमुख आकर्षण गरबा एवं डांडिया होते हैं।

गरबा गर्भ का द्योतक है जो प्रजनन क्षमता का प्रतीक है। मिट्टी के घट के भीतर दीप प्रज्ज्वलित कर, उसमें  देवी का आह्वान किया जाता है। इसे गरबा कहते हैं। घट के भीतर दीप प्रज्ज्वलित कर उनके भीतर देवी को आमंत्रित करने के लिए भक्तगण उसके चारों ओर नृत्य करते हैं। इस नृत्य को गरबा कहा जाने लगा। गरबा आरती से पूर्व किया जाता है। गरबा के चारों ओर नृत्य करते हुए भक्तगण लय में गोलाकार घूमते हैं जो हम  जैसे जीवों के लिए जीवन व मृत्यु के अनवरत चक्र का प्रतीक है। वहीं घट में विराजमान दीप, देवी सदृश, परम तत्व का द्योतक हैं। अतः गरबा की प्रकृति भक्तिभाव से परिपूर्ण है। इसमें गाए जाने वाले गीतों में देवी की स्तुति की जाती है।

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नवरात्रि समारोह

डांडिया रास साधारणतः आरती के पश्चात किया जाता है। कुछ सूत्रों के अनुसार आरंभ में डांडिया केवल पुरुषों द्वारा किया जाता था। किन्तु अब इसे स्त्री व पुरुष दोनों ही करते हैं। इस नृत्य में रंबबिरंगी डंडियों का प्रयोग किया जाता है तथा यह नृत्य जोड़े में किया जाता है।

डांडिया नृत्य की डंडियाँ वास्तव में देवी के शस्त्रों का प्रतीक हैं जिनका प्रयोग कर देवी ने असुरों का वध किया था। डांडिया करते समय विभिन्न मुद्राओं में इन डंडियों को शस्त्रों जैसा मान दिया जाता है। इस नृत्य में प्रचुर मात्रा में उत्साह व ऊर्जा की आवश्यकता होती है।

डांडिया का सर्वोत्तम आकर्षण है नर्तकों का परिधान। पुरुषों का पारंपरिक परिधान है, केडियु, कफ़नी पैजमा तथा पगड़ी। केडियु को कांच के टुकड़ों एवं बेल-बूटियों की कढ़ाई द्वारा सजाया जाता है। स्त्रियाँ कसीदाकारी युक्त रंगबिरंगे भव्य लहंगे, चोली एवं उससे भी अधिक चटक व अलंकृत ओढ़नियाँ धारण करती हैं। उन्हे देख ऐसा प्रतीत होता है मानो साक्षात देवी धरती पर अवतरित हुई हैं।

गुजरात में डांडिया पंडाल के दर्शन, रंगों के सर्वोत्तम सम्मिश्रण में घुल जाने जैसा होता है। क्यों ना हो? यह विश्व का विशालतम नृत्योत्सव जो है।

डांडिया रास के गरबा गीत

नवरात्रि के पारंपरिक गुजराती डांडिया व गरबा गीत

फाल्गुनी पाठक द्वारा – केसरियो रंग तने लाग्योल्या गरबा

यह विडिओ लोकप्रिय गायिका/कलाकार फाल्गुनी पाठक का है जो १८ अक्टोबर २०१२ के दिन, मुंबई के गोरेगांव स्पोर्ट्स क्लब में मंगल एंटरटेनमेंट द्वारा आयोजित मंगल नवरात्रि में सादर कर रही थी। देखिए उनके गाये दो लोकप्रिय गुजराती गीत, केसरियो रंग तने लाग्योल्या गरबा एवं हामु काका बाबा न पोरिया

के ओढनी ओढू ओढू ने उड़ी जाए   

गायिका अलका याग्निक एवं गायक प्रफुल देव द्वारा सादर किया गया ये गीत, के ओढनी ओढू ओढू ने उड़ी जाए सुनिए जो, सारेगामा इंडिया लिमिटेड के मेरु मालन अल्बम से लिया गया है। इसके गीतकार हैं, कान्ति अशोक तथा संगीतकार हैं, महेश-नरेश।

मेहंदी ते वावी – रंग गयो गुजरात

आईए सुनें यह नवरात्रि का विशेष डांडिया गरबा गीत जिसे अपने सुमधुर स्वरों में प्रस्तुत किया है, गरबा गीतों की महाराज्ञी व लोकप्रिय गायिका फाल्गुनी पाठक ने।

गुजराती भाषा में सर्वोत्तम डांडिया गरबा गीतों का अद्भुत सम्मिश्रण

गुजराती भाषा में गाये गए १० नवरात्रि-विशेष गरबा गीत, जिन्हे आप अवश्य देखिये। इनका आनंद उठाईये एवं उनके सुरों पर झूमकर नृत्य करिये।

  • नवरात्र नवेली बड़ी अलबेली
  • पडवेथि पेलु मानु नोरतु जीवे
  • रमतो भमतो जाय माँ नो गरबो रमतो जाय
  • हिचको अम्बा तानो संभालये
  • सोनानों गरबो रुपानो गरबो
  • अम्बे माँ नो घम्मर घड़ोलिओ
  • तरने तरने अमे मेले ज्ञाता
  • माँ तारो गरबो झाकमझोल
  • झूले खुले छे गबरनी माँ आंबा झूले छे
  • पत्णनि शहरणि नार पदमणि

ये सभी गीत राघव म्यूजिक कंपनी द्वारा प्रकाशित गरबा गीत झंकारो एलबम से लिए गए हैं। इन गीतों के गीतकार हैं, मनुभाई रबारी धनुदास ने तथा इन्हे अपने स्वरों से सजाया है, कविता, जयदीप एवं दीपक ने।

बॉलीवुड के गरबा गीत

अब हिन्दी भाषा में कुछ चुने हुए गरबा गीतों की सूची प्रस्तुत है जिनमें कुछ पारंपरिक गीत हैं तथा कुछ बॉलीवुड चित्रपटों में प्रदर्शित किए गए गीत हैं।

सबसे बड़ा तेरा नाम रे

हे नाम रे सबसे बड़ा तेरा नाम ओ शेरोवाली, ऊँचे डेरों वाली, बिगड़े बना दे मेरे काम, माँ शेरावाली की स्तुति में प्रस्तुत इस भक्तिगीत का विडिओ सुनें व देखें। इसके लिए निम्न वेब स्थल पर जाएँ।

He Naam Re Sabse Bada Tera Naam – Sherawali Mata, Devotional Song

ओ शेरोंवाली गीत – चित्रपट-सुहाग

सुहाग चित्रपट का यह गीत, ओ शेरोंवाली सुनिए। इस चित्रपट के नायक-नायिका अमिताभ बच्चन एवं रेखा हैं। इस गीत के रचयिता आनंद बक्शी हैं तथा लक्ष्मीकांत प्यारेलाल इसके संगीतकार हैं। इसे गाया है, आशा भोसले एवं मोहम्मद रफी ने। इस गीत का विडिओ देखने के लिए निम्न वेबस्थल पर जाएँ।

O Sheronwali | Amitabh Bachchan | Rekha | Suhaag 1979 Songs | Asha Bhosle | Mohd Rafi

मैं तो भूल चली बाबुल का देश – चित्रपट-सरस्वतीचंद्र

१९६८ में निर्मित चित्रपट, सरस्वतीचंद्र में मुख्य भूमिका नूतन, मनीष, विजय चौधरी एवं डॉ रमेश देव ने निभायी है। इस चित्रपट को गोविंद सरैया ने निर्देशित किया है। मैं तो भूल चली बाबुल का देश, पिया का घर प्यारा लगे, इस गीत को सुरों से सजाया है, कल्याणजी आनंदजी ने व इस गीत को अपने स्वर प्रदान किए, लता मंगेशकर ने। इस गीत का आनंद उठाने के लिए निम्न वेबस्थल पर जाएँ।

Main To Bhool Chali Babul Ka Des

ढोली तारो ढोल बाजे – चित्रपट-हम दिल दे चुके सनम

चित्रपट हम दिल दे चुके सनम का एक लोकप्रिय गीत है, ढोली तारो ढोल बाजे। इसके संगीतकार हैं, इस्माइल मर्चेन्ट एवं इसे हरिहरण एवं कविता कृष्णमूर्ति ने गाया है। इस चित्रपट के निर्माता व निर्देशक संजय लीला भंसाली हैं एवं इसके कलाकार सलमान खान, ऐश्वर्या राय एवं अजय देवगन हैं।

अवश्य पढ़ें: बॉलीवुड के २० सर्वोत्तम वर्षा गीत – वर्षा ऋतु का संगीत

राधा कैसे ना जले – चित्रपट-लगान

लगान चित्रपट में चित्रित इस मधुर गीत में कृष्ण राधा को छेड़ रहे हैं। आमिर खान एवं ग्रेसी सिंग पर चित्रित इस गीत के बोल जावेद अख्तर ने लिखे हैं तथा उसे संगीतबद्ध किया है, ए. आर. रहमान ने। सोनी म्यूजिक एंटेरटैनमेंट प्राइवेट लिमिटेड के अंतर्गत इस गीत को आशा भोसले एवं उदित ने गाया है।

नगाड़ा संग ढोल बाजे – चित्रपट-गलियों की रासलीला राम-लीला

नगाड़ा संग ढोल बाजे, गलियों की रासलीला राम-लीला चित्रपट में चित्रित इस गीत के साथ नवरात्रि का आनंद उठाइए। इस चित्रपट में मुख्य भूमिका दीपिका पादुकोण एवं रणवीर सिंग की है। श्रेया घोषाल एवं ओसमान मीर द्वारा गाए गए इस गीत के रचयिता सिद्धार्थ-गरिमा एवं संगीतकार संजय लीला भंसाली हैं।

छोगाड़ा तारा – चित्रपट-लवयात्री

बॉलीवुड चित्रपट लवयात्री का यह गीत, छोगाड़ा तारा, गरबा नृत्य करने के लिए नवीन एवं लोकप्रिय गीत है। इस चित्रपट में आयुष शर्मा एवं वारीना हुसैन मुख्य भूमिका में हैं तथा इसका निर्देशन अभिराज मिनावाला ने किया है। इस लोकप्रिय गीत को दर्शन रावल एवं असीस कौर ने गाया है। इस गीत के बोल दर्शन रावल ने लिखे हैं जिसमें शब्बीर अहमद ने भी सहयोग किया है। इसके संगीतकार लीलो जॉर्ज तथा डीजे चेतस हैं। यह गीत अविनाश व्यास द्वारा रचित व संगीतबद्ध गीत, ‘हे रंगालो’ पर आधारित है।

अवश्य पढ़ें: रेलगाड़ी पर चित्रित बॉलीवुड के २० सर्वोत्तम गीतों के विडिओ देखें।

कमरिया – चित्रपट-मित्रों

मित्रों चित्रपट का यह ऊर्जा भर गीत प्रस्तुत है। इस चित्रपट में जॅकी भगनानी एवं कृतिका कामरा ने मुख्य भूमिका निभाई है। कमरिया, यह गीत नृत्य समारोहों का प्रिय गीत है। दर्शन रावल द्वारा गाये इस गीत को संगीतबद्ध किया है, लीलो जॉर्ज तथा डीजे चेतस ने तथा इसके बोल लिखे हैं, कुमार गायकों ने।

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तो, इनमें से आपके प्रिय गरबा डांडिया गीत कौन से हैं?

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे  

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एकता की प्रतिमा – लौह पुरुष सरदार पटेल को एक श्रद्धांजलि https://inditales.com/hindi/ekta-ki-pratima-kevadia-gujarat/ https://inditales.com/hindi/ekta-ki-pratima-kevadia-gujarat/#comments Wed, 07 Apr 2021 02:30:53 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2259

नवीन युग की प्रतिमाओं में सर्वोत्तम मानी जानी वाली प्रतिमा निःसन्देह एकता की प्रतिमा अर्थात् स्टैचू ऑफ यूनिटी है। भव्य अधिरचना से युक्त, १८२ मीटर ऊंची यह अद्वितीय प्रतिमा विश्व की सर्वाधिक ऊंची प्रतिमा है। यह अतिविशाल व्यापक प्रतिमा भारत के लौह पुरुष माने जाने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल की है। यह भव्य प्रतिमा […]

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नवीन युग की प्रतिमाओं में सर्वोत्तम मानी जानी वाली प्रतिमा निःसन्देह एकता की प्रतिमा अर्थात् स्टैचू ऑफ यूनिटी है। भव्य अधिरचना से युक्त, १८२ मीटर ऊंची यह अद्वितीय प्रतिमा विश्व की सर्वाधिक ऊंची प्रतिमा है। यह अतिविशाल व्यापक प्रतिमा भारत के लौह पुरुष माने जाने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल की है। यह भव्य प्रतिमा सरदार पटेल की हमारे देश के प्रति अभूतपूर्व योगदान, निष्ठा, समर्पण एवं दृढ़ निश्चय को एक भावपूर्ण श्रद्धांजलि है। संयुक्त भारत के स्वप्न को साकार में सरदार पटेल की भूमिका से, हमारी आने वाली पीढ़ी को अवगत कराने में यह प्रतिमा अत्यंत सहायक सिद्ध होगी।

सरदार वल्लभ भाई पटेल कौन थे?

सरदार पटेल स्वतंत्र भारत के प्रथम उप-प्रधानमंत्री तथा गृह मंत्री थे। उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन एवं स्वतंत्रता के पश्चात भारत के एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। जिस समय भारत स्वतंत्र हुआ था उस समय भारत ५६२ विभिन्न रियासतों में बंटा हुआ था। सरदार पटेल ने इन रियासतों का एकीकरण कर एक विशाल राष्ट्र के निर्माण का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर लिया था।

एकता की प्रतिमा गुजरात
एकता की प्रतिमा – गुजरात

स्वतंत्रता आंदोलन के समय भी उन्होंने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध अवज्ञा आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन जैसे अनेक आंदोलनों में सक्रिय भाग लिया था।

केवड़िया गुजरात में एकता की प्रतिमा – एक अभियांत्रिकी अचंभा

पद्मश्री एवं पद्मभूषण की उपाधि से अलंकृत श्री राम वंजी सुतार जी के जादुई हाथों ने इस विशालकाय प्रतिमा की रूपरेखा तैयार की है। इसके निर्माण में लगभग ७०,००० टन सीमेंट, १८,५०० टन सुदृढ़ीकृत इस्पात तथा ६,००० टन संरचित इस्पात का प्रयोग किया गया है। ३००० से अधिक कारीगरों तथा २०० से अधिक अभियंताओं ने दिवस-रात्र कष्ट कर इस प्रभावशाली व असाधारण प्रतिमा को खड़ा किया है।

सरदार पटेल की भव्य प्रतिमा
सरदार पटेल की भव्य प्रतिमा

१८२ मीटर ऊंची एकता की प्रतिमा, विश्व की विगत विशालतम प्रतिमा, १५३ मीटर ऊंची चीन की स्प्रिंग टेम्पल बुद्ध से कहीं अधिक ऊंची है। यह प्रतिमा, अमेरिका में स्थित सुप्रसिद्ध प्रतिमा, स्टैचू ऑफ लिबर्टी (९३ मीटर) से लगभग दुगुनी ऊंची है।

गुजरात के तात्कालीन मुख्यमंत्री, श्री नरेंद्र मोदीजी ने ३१ अक्टोबर २०१३ में इस प्रकल्प का शिलान्यास किया था। ३१ अक्टूबर २०१८ के दिन, सरदार पटेल के १४३ वें जन्मदिवस के उपलक्ष्य में भारत के प्रधान मंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी जी ने ही इस प्रतिमा का अनावरण किया था।

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अनोखा लोहा अभियान

सरदार वल्लभ भाई पटेल की लौह सदृश इच्छाशक्ति एवं दृढ़ संकल्प के कारण, स्वतंत्रता पश्चात सम्पूर्ण भारत का एकीकरण सम्पन्न हो पाया था। इसी कारण उन्हे भारत का लौह पुरुष कहा जाता है। उनकी इस अभूतपूर्व सफलता की स्मृति में सम्पूर्ण भारत में एक अनोखे लौह अभियान का शुभारंभ किया गया। भारत के सभी किसानों एवं गांव वासियों से यह अनुरोध किया गया कि वे अपने सभी अनुपयोगी लोहे के औजार एवं माटी इस महाअभियान के लिए दान करें ताकि उन सब का प्रयोग इस विशालकाय प्रतिमा के निर्माण में किया जा सके। इस अभियान को सम्पूर्ण भारत में अद्वितीय प्रतिसाद प्राप्त हुआ। “स्टैच्यू ऑफ यूनिटी अभियान” के अंतर्गत, ३ मास में ६ लाख ग्रामीणों ने लगभग ५,००० मीट्रिक टन लोहे का दान दिया।

एकता की प्रतिमा के दर्शन

गत दिसंबर में मुझे इस अभूतपूर्व संकल्पना के अवलोकन का अवसर प्राप्त हुआ। यह अवसर अत्यंत सुअवसर सिद्ध हुआ। वडोदरा से मैंने गुजरात राज्य सड़क परिवहन निगम की बस पकड़ी तथा केवड़िया के लिए निकल पड़ा। ५ किलोमीटर दूर से ही यह प्रतिमा दृष्टिगोचर होने लगी थी।

गुजरात के केवड़िया जिले में स्थित यह स्थान प्रकृति एवं कंक्रीट का अनोखा संगम है। यह प्रतिमा  नर्मदा नदी के जल में साधु बेट नामक टापू पर स्थित है। यहाँ सतपुड़ा एवं विंध्याचल पर्वतमालाओं का अत्यंत मनभावन दृश्य आपको चकित कर देगा। प्रतिमा के चारों ओर स्थित नर्मदा का जल शांतिपूर्ण एवं मनमोहक दृश्य प्रस्तुत करता है तथा हमें प्रफुल्लित कर देता है।

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एकता की मूर्ति के आसपास दर्शनीय स्थल

जब आप इस नव-प्रसिद्ध एकता की प्रतिमा के दर्शन करने यहाँ आयें तो इनका भी अवलोकन करें-

एकता की भित्ति

एकता की प्रतिमा के समीप यह एकता की भित्ति बनाई गई है जो राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है। ५० फुट x १५ फुट आकार की इस भित्ति के निर्माण के लिए, लोहा अभियान के अंतर्गत, भारत के १,६९,०७८ ग्रामीणों ने माटी का दान किया। अर्थात् इस एक भित्ति में सम्पूर्ण भारत की माटी का प्रयोग किया गया है। अतः यह कहा जा सकता है कि इस एक भित्ति में सम्पूर्ण भारत का एकीकरण हुआ, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार सरदार पटेल ने स्वतंत्रता के पश्चात सम्पूर्ण भारत को एक किया था।

संग्रहालय

प्रतिमा की आधार पीठिका के भीतर एक विशाल एवं उन्नत संग्रहालय की स्थापना की गई है। इस संग्रहालय में, छायाचित्रों एवं रेखाचित्रों द्वारा सरदार पटेल के अथक परिश्रम, संघर्ष एवं त्याग का वर्णन किया गया है। भारत के लौह पुरुष की जीवनी पर प्रकाश डालने के लिए १५ मिनटों का एक लघु चलचित्र भी दिखाया जाता है। संग्रहालय में प्रवेश करते ही आपकी दृष्टि सरदार पटेल के शीश के प्रतिरूप पर पड़ेगी जो एकता की प्रतिमा में सरदार के शीश का प्रतिरूप है।

एकता की प्रतिमा में सरदार पटेल का मुख
एकता की प्रतिमा में सरदार पटेल का मुख

इसके अतिरिक्त, गुजरात के आदिवासी जनजातियों की जीवनी, सरदार सरोवर बांध व एकता की प्रतिमा के निर्माण की कथा को दृश्य-श्रव्य प्रदर्शनों द्वारा दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। इस संग्रहालय का अवलोकन मेरे लिए एक अद्भुत अनुभव था।

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प्रेक्षण दीर्घा 

संग्रहालय से एक लिफ्ट आपको प्रतिमा के वक्षस्थल तक ले जाती है जो १३५ मीटर की ऊंचाई पर है। यहाँ से चारों ओर का जो विहंगम दृश्य दिखाई पड़ता है वह अविस्मरणीय है। मुझे स्वयं जो यहाँ अनुभव प्राप्त हुआ वह मुझे जीवन भर स्मरण रहेगा। यहाँ स्थित दर्शन दीर्घा से परिदृश्य का आनंद उठाने के लिए प्रवेश शुल्क लिया जाता है तथा वह २ घंटों की समयावधि के लिए मान्य होता है।

दृश्य-श्रव्य प्रदर्शन

सरदार पटेल की प्रतिमा पर लेज़र प्रकाश द्वारा एक वृत्तचित्र प्रकाशित की जाती है जो भारत स्वतंत्रता आंदोलन में सरदार पटेल की भूमिका एवं योगदान पर आधारित है। इस प्रदर्शन का समय संध्या ७ बजे से ८ बजे तक है।

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आसपास के अन्य दर्शनीय स्थल

पुष्प घाटी अर्थात् वैली ऑफ फ्लावर्स

पुष्प घाटी - केवडिया
पुष्प घाटी – केवडिया

१७ किलोमीटर चौड़ी तथा २३० हेक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल में फैली इस रंगबिरंगी आकर्षक पुष्पघाटी में पुष्पों की अनगिनत प्रजातियाँ हैं जो पर्यटकों के विशेष आकर्षण का क्षेत्र है। पुष्प घाटी में स्वयं के छायाचित्र लेने वालों के आनंद की यहाँ सीमा नहीं रहती। यहाँ एक फलक पर “मैं पुष्प घाटी में हूँ” लिखा हुआ है जिसके समक्ष स्वयं का चित्र ले कर उसे आप आपके जीवन भर की अविस्मरणीय स्मृतियों के खजाने में रख सकते हैं तथा अपने भ्रमण स्मृति को चिरस्थाई बना सकते हैं।

सरदार सरोवर दर्शन बिन्दु

पुष्प घाटी के समीप सरदार सरोवर बांध है जो एक सम्पूर्ण अभियांत्रिकी चमत्कार है। इस बांध को विशालतम कांक्रीट गुरुत्व बांधों में से एक माना जाता है। यह बांध १.२ किलोमीटर लंबा तथा अपने सर्वाधिक गहरे आधार स्तर से १६३ मीटर ऊंचा है। इस दर्शन बिन्दु से बांध तथा चारों ओर के परिदृश्य का अद्भुत विहंगम दृश्य प्राप्त होता है।

सरदार सरोवर बांध नर्मदा नदी पर
सरदार सरोवर बांध नर्मदा नदी पर

दर्शन बिन्दु के प्रवेश स्थल पर फलों एवं जलपान के अनेक विक्रेता हैं। अतः भूख लगने की स्थिति में विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। आपको कुछ न कुछ प्रिय जलपान अवश्य प्राप्त हो जाएगा।

इनके अतिरिक्त आसपास अनेक सुंदर पर्यटन आकर्षण हैं जहां आप जा सकते हैं, जैसे नागफनी बाग, तितली बगीचा, जरवाणी जलप्रपात तथा जंगल सफारी। स्मारिका दुकानों से आप परिधान तथा उपहार की वस्तुएं ले सकते हैं। समीप फूड-कोर्ट है जहां से आप नाममात्र मूल्यों में स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ ले सकते हैं।

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कहाँ ठहरें?

नर्मदा तंबू नगरी

यह एक अत्यंत सुविधाजनक एवं सुख सुविधाओं से परिपूर्ण तंबू नगरी है जो आपका भ्रमण अविस्मरणीय बनाने के लिए आतुरता से आपकी प्रतीक्षा कर रही है। पारंपरिक अतिथिगृहों व होटलों की अपेक्षा इन तंबुओं में ठहरना पर्यटकों के लिए एक नवीन व अद्भुत अनुभव सिद्ध होगा।

श्रेष्ठ भारत भवन

यह एक अतिविलासी विश्रामगृह है जो सरदार प्रतिमा के समीप स्थित है। यह होटल आपको सुख सुविधाओं के सभी साधन उपलब्ध कराएगा। यहाँ से नर्मदा नदी एवं सरदार पटेल की प्रतिमा का अतिसुन्दर दृश्य प्राप्त होता है।

सरदार सरोवर रिज़ॉर्ट

यह एक अत्यंत उत्कृष्ट रिज़ॉर्ट है जहां आपको सुख सुविधापूर्ण पड़ाव के साथ साथ, तरणताल एवं स्पा जैसी सुविधाएं भी उपलब्ध होंगी।

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प्रवेश शुल्क विवरण

जब मैंने केवड़िया का भ्रमण किया था तब एकता की प्रतिमा के अवलोकन हेतु प्रवेश शुल्क वयस्कों के लिए १५० रुपये तथा ३ से १५ वर्ष के बच्चों के लिए ९० रुपये था। प्रेक्षण दीर्घा सहित प्रवेश शुल्क वयस्कों के लिए ३८० रुपये तथा बच्चों के लिए २३० रुपये था।

दोनों प्रकार के शुल्क में, बस द्वारा पुष्प घाटी तथा सरदार सरोवर बांध दर्शन बिन्दु के भ्रमण सम्मिलित हैं। आप इस वेबस्थल द्वारा अपने पूर्व नियोजित टिकट क्रय कर सकते हैं।

भ्रमण पूर्व आवश्यक सूचनाएं

  • एकता की प्रतिमा की अवलोकन समयावधि प्रातः ८ बजे से संध्या ६ बजे तक है।
  • दृश्य-श्रव्य प्रदर्शन समयावधि संध्या ७ बजे से रात्रि ८ बजे तक है।
  • प्रतिमा के अवलोकन के लिए दिन में शीघ्रातिशीग्र यहाँ आयें, अन्यथा पर्यटकों की अत्यधिक भीड़ एकत्र हो जाती है। उसी प्रकार, सप्ताहांत में यहाँ आना जितना संभव हो, टालें।
  • प्रत्येक सोमवार के दिन यह स्थल पर्यटकों के लिए बंद रहता है।
  • प्रतिमा के भीतर किसी भी प्रकार की खाद्य सामग्री ले जाना निषिद्ध है। प्रवेश पूर्व ही आपको अपना सामान जमा-खिड़की में जमा करना पड़ता है।
  • एकता की प्रतिमा के दर्शन हेतु सर्वोत्तम समयावधि नवंबर मास से फरवरी मास के मध्य है जब यहाँ का वातावरण अत्यंत सुखमय होता है।

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कैसे पहुंचे?

केवड़िया, गुजरात के सभी प्रमुख नगरों से सड़क मार्ग द्वारा सुव्यवस्थित रूप से जुड़ा हुआ है। यह वडोदरा से १०० किलोमीटर, सूरत से १५० किलोमीटर तथा अहमदाबाद से २०० किलोमीटर दूर स्थित है। निकटतम विमानपत्तन वडोदरा विमानपत्तन है जो ९० किलोमीटर की दूरी पर है। निकटतम रेल स्थानक भी वडोदरा रेल स्थानक ही है। आप वडोदरा से गुजरात राज्य सड़क परिवहन निगम की बस अथवा टैक्सी द्वारा भी यहाँ पहुँच सकते हैं।

अधिक जानकारी के लिए इस आधिकारिक वेबस्थल पर संपर्क करें।

आप भारत के इस अद्वितीय एवं अनोखे पर्यटन गंतव्य के दर्शन अवश्य करें। इस स्थान का भ्रमण आपके हृदय एवं आत्मा को देशभक्ति व गर्व की भावना से सराबोर कर देगा।

यह हर्शिल गुप्ता द्वारा प्रस्तुत किया गया एक अतिथि संस्करण है। वे IndiTales Internship Program के अंतर्गत एक प्रशिक्षु हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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द्वारका गुजरात के आसपास बिखरे प्राचीन तीर्थ स्थान https://inditales.com/hindi/dwarka-prabhas-kshetra-tirtha-sthal/ https://inditales.com/hindi/dwarka-prabhas-kshetra-tirtha-sthal/#comments Wed, 30 Dec 2020 02:30:27 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2106

स्कन्द पुराण के अनुसार द्वारका नगरी को ऐतिहासिक रूप से प्रभास क्षेत्र का ही एक भाग माना जाता है। प्रभास एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है, दीप्तिवान, ज्योतिर्मय, प्रकाशवान, अर्थात जो प्रकाश उत्पन्न करे। पूर्व दिशा में सोमनाथ तक फैले इस क्षेत्र में कई छोटे बड़े प्राचीन तीर्थ स्थल हैं जिन्हें आप द्वारका दर्शन […]

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स्कन्द पुराण के अनुसार द्वारका नगरी को ऐतिहासिक रूप से प्रभास क्षेत्र का ही एक भाग माना जाता है। प्रभास एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है, दीप्तिवान, ज्योतिर्मय, प्रकाशवान, अर्थात जो प्रकाश उत्पन्न करे। पूर्व दिशा में सोमनाथ तक फैले इस क्षेत्र में कई छोटे बड़े प्राचीन तीर्थ स्थल हैं जिन्हें आप द्वारका दर्शन के समय आसानी से देख सकते हैं। आईये द्वारका के आसपास के इन तीर्थ स्थलों के विषय में जानने का प्रयत्न करें-

बेट द्वारका

द्वारका व आसपास के तीर्थ स्थानों में सर्वाधिक प्रसिद्ध स्थल है, बेट द्वारका। बेट अर्थात् गुजराती भाषा में द्वीप। ओखा के समुद्रतट स्थित बेट द्वारका एक द्वीप है जो मुख्य द्वारका से लगभग ३५ की.मी. की दूरी पर स्थित है। मुख्य द्वारका तट से इस द्वीप तक पहुँचने हेतु आपको एक नौका यात्रा करनी पड़ेगी। मैं आपको बताना चाहूंगी कि यह नौका यात्रा भी कम आनंददायी नहीं है।

अनेक अनोखे मंदिरों से सुशोभित बेट द्वारका से कृष्ण-सुदामा भेंट तथा मीराबाई की स्मृतियाँ भी जुड़ी हुई हैं। बेट द्वारका के विषय में मैंने अपने एक अन्य संस्मरण में विस्तार पूर्वक लिखा है। इनके विषय में मेरा संस्मरण पढ़ने के लिए बेट द्वारका, इसे पढ़ें।

मूल द्वारका

ऐसा माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण जब अपने यदुवंशी परिवारजनों समेत द्वारका आये थे तब उन्होंने प्रथम पड़ाव मूल द्वारका में ही डाला था। पोरबंदर के निकट विसवडा में स्थित यह स्थान द्वारका से लगभग ७५ की.मी पर है।

मूल द्वारका का मंदिर परिसर
मूल द्वारका का मंदिर परिसर

यहाँ आपको एक छोटा मंदिर परिसर देखने मिलेगा। इस परिसर में भगवान् शिव को समर्पित कई मंदिर हैं जिनमें मुख्य हैं,नीलकंठ महादेव मंदिर तथा सिद्धेश्वर महादेव मंदिर। सौराष्ट्र में भगवान श्रीकृष्ण रणछोड़ राय के नाम से भी जाने जाते हैं। इन्ही रणछोड़ राय का एक मंदिर भी आप यहाँ देख सकते हैं। इन मंदिरों की जिस वैशिष्ठता ने मुझे अत्यंत आकर्षित किया था, वह थी इसकी नागर शैली के अंतर्गत पञ्च-रतन उपशैली की वास्तुकला। मंदिर के भीतर भक्तों के बैठने योग्य स्थानों की भी व्यवस्था की गयी थी।

मुझे मूल द्वारका अत्यंत छोटा परिसर होते हुए भी अत्यंत शांत मंदिरों का समूह प्रतीत हुआ।

मूल द्वारका मंदिर परिसर प्रवेश द्वार
मूल द्वारका मंदिर परिसर प्रवेश द्वार

मूल द्वारका की एक और अनोखी विशेषता है, १३ वीं. शताब्दी में बनी बावड़ी, ज्ञानव्यापी। इसका नाम सुनकर आप में से कई को वाराणसी के ज्ञान वापी कुँए का स्मरण हो आया होगा। मूल द्वारका की इस बावड़ी के चारों ओर खेमे बने हुए हैं। बावडी की ओर जाते गलियारे के आलों पर मुझे ब्रम्हा, विष्णु तथा सूर्यदेव की प्रतिमाएं दिखीं। ऊपर स्थित मंडप को वाव अर्थात बावड़ी के जल से शीतल रखा जाता है।

ज्ञानव्यापी बावड़ी में विष्णु प्रतिमाएं
ज्ञानव्यापी बावड़ी में विष्णु प्रतिमाएं

बावड़ी देख मन में एक हूक सी उठी कि इस बावड़ी के रखरखाव तथा स्वच्छता में वृद्धि होनी चाहिए।

एक जानकारी आपको अवश्य दे दूँ कि सोमनाथ के समीप भी एक मूल द्वारका है। मेरे विचार से हम यह मान सकते हैं कि इन हजारों वर्षो में इस तटीय क्षेत्र के भूभाग में कई परिवर्तन आये होंगे जिसके परिणाम स्वरूप मूल द्वारका ने अपना स्थान परिवर्तित कर दिया होगा। सिक्के के दूसरी ओर देखते हुए यह भी माना जा सकता है कि भक्तों ने उन सब स्थानों पर मूल द्वारका की स्थापना की होगी जहां जहां बृज भूमि से आते श्रीकृष्ण ने पड़ाव डाले थे।

नागेश्वर ज्योतिर्लिंग

भारत देश के १२ ज्योतिर्लिंगों में से एक, यह नागेश्वर ज्योतिर्लिंग द्वारका से लगभग १६ की.मी. दूरी पर स्थित है। नागेश्वर ज्योतिर्लिंग नाम से ही एक और ज्योतिर्लिंग उत्तराखंड के जागेश्वर धाम में भी है। इनमें कौन सा नागेश्वर ज्योतिर्लिंग असली है, मैं दृड़ता से नहीं कह सकती। चूंकि मैंने दोनों के ही दर्शन किये हैं, मैंने शान्ति से इसका नाम अपनी दर्शनार्थ ज्योतिर्लिंग सूची में से निकाल लिया है।

नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर

टी-सीरीज के गुलशन कुमार द्वारा निर्मित यह छोटा सा मंदिर अपेक्षाकृत नवीन है। मूल प्राचीन मंदिर कदाचित अत्यंत छोटा रहा होगा। लाल रंग में रंगे इस सादे मंदिर के एक ओर एक प्राचीन कुण्ड है जो उस समय कछुओं से भरा हुआ था। यद्यपि कुण्ड के जल तक पहुँचने हेतु प्राचीन सीढियाँ दिखाई दीं, किन्तु उन्हें देख कर लगा कि बहुत समय से इनका प्रयोग नहीं हुआ है। मंदिर के समीप एक पुराना वृक्ष है। इस वृक्ष ने कदाचित प्राचीन मंदिर को भी छत्रछाया प्रदान की होगी। इस मंदिर की परिक्रमा करते समय मुझे एक अद्भुत उर्जा का सुखद अनुभव हुआ।

नागेश्वर धाम पर विशाल शिव मूर्ति
नागेश्वर धाम पर विशाल शिव मूर्ति

मंदिर के बाहर भगवान् शिव की बैठी मुद्रा में एक विशालकाय मूर्ति है। इससे पूर्व मैंने ऐसी विशाल शिव मूर्ति सिक्किम राज्य के नामची क्षेत्र में स्थित चार धाम में देखी थी। नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के बाहर स्थित शिव की यह विशाल मूर्ति पर्यटकों को अत्यंत उत्साहित करती है क्योंकि मंदिर के भीतर छायाचित्रिकरण वर्जित होने के कारण पर्यटक अक्सर इस विशाल मूर्ति के समक्ष चित्रीकरण कर अपनी इच्छा पूर्ति करते हैं।

गोपी तलाव

नागेश्वर ज्योतिर्लिंग से ५ की.मी. दूर स्थित इस छोटे से तालाब से कई प्रसिद्ध किवदंतियां जुडी हुई हैं।

पीली मिट्टी लिए गोपी तालाब
पीली मिट्टी लिए गोपी तालाब

एक कथा अनुसार भगवान् कृष्ण जब वृन्दावन छोड़ द्वारका आये थे, उनके मोहपाश में बंधीं गोपियाँ उनका पीछा करने लगीं थीं। कहा जाता है कि यहीं उन्होंने कृष्ण से भेंट की तथा उनमें विलीन हो गयीं। इस तालाब की मिट्टी उन्ही गोपियों का प्रतिनिधित्व करती है। इसीलिए इस तालाब के आसपास की पीली मिट्टी अत्यंत पावन मानी जाती है। यह पावन पीली मिट्टी आप गोपी तालाब के चारों ओर कहीं भी अथवा द्वारका से भी खरीद सकते हैं।

दूसरी किवदंती के अनुसार यह वही स्थान है, जहां अर्जुन का घमंड चूर चूर हुआ था। कथाओं के अनुसार जब कृष्ण ने देह त्याग का निश्चय किया, उन्होंने अर्जुन से अपनी रानियों तथा बच्चों की रक्षा करने का आग्रह किया था। दुर्भाग्यवश काबा नामक एक स्थानीय जनजाति के सदस्यों ने रानियों तथा बच्चों पर हमला किया। कई रानियों ने स्वयं के रक्षण हेतु इसी तालाब में कूदकर प्राण त्याग दिए थे। अर्जुन ने अपने पराक्रम व गांडीव के मद में आक्रमणकारियों पर धावा बोला, किन्तु वे उन को नियंत्रित नहीं कर पाए। मुझे गोपी तलाव की भित्तियों पर इस कथा से सम्बंधित कई उत्कीर्णित छंद भी दिखाई दिये।

इस तलाव के मैंने जब दर्शन किये, यह तालाब पूर्ण रूप से सूखा हुआ था। कुछ स्थानीय लोगों ने मुझे बताया कि पिछले ३-४ वर्षों में अपर्याप्त वर्षा इसका मुख्य कारण है। गोपी तलाव पर आप कई विशाल, तैरने में सक्षम पत्थरों की प्रदर्शनी देख सकते हैं। द्वारका में भी सर्वत्र आप इन पत्थरों को देख सकते हैं।

गोपी तलाव पर रुक्मिणी तथा गोपीनाथ मंदिरों के अलावा अधिक कुछ देखने योग्य मुझे नहीं मिला। यह और बात है कि यह स्थल भक्तगणों की प्रसिद्ध तीर्थ यात्रा, द्वारकाधीश मंदिर, रुक्मिणी मंदिर, बेट द्वारका तथा नागेश्वर ज्योतिर्लिंग, इस तीर्थ सूची के अंतर्गत आता है।

सुवर्ण तीर्थ

कृष्ण सुभद्रा एवं बलभद्र सुवर्ण तीर्थ पर
कृष्ण सुभद्रा एवं बलभद्र सुवर्ण तीर्थ पर

द्वारका तथा मीठापुर के मध्य स्थित सुवर्ण तीर्थ भी मंदिरों का एक समूह है। मुख्य मंदिर सूर्य देवता को समर्पित है। जगन्नाथ रुपी भगवान् विष्णु का भी एक मंदिर इस समूह में सम्मिलित है।

और पढ़ें – मोढेरा का सूर्य मंदिर 

वहां उपस्थित पुजारीजी के मुझे बताया कि मूल प्राचीन मंदिर वर्तमान में उपस्थित मंदिर के एक कोने में स्थापित था। सूर्य देव की मौलिक मूर्ति को अंग्रेज सन १९२० में यहाँ से निकाल कर ले गए थे। वर्तमान में स्थापित सूर्य देव की मूर्ति मुझे अपेक्षाकृत नवीन तथा आधुनिक शैली में निर्मित प्रतीत हुई। खुले प्रांगण में मुझे एक श्री चक्र भी दृष्टिगोचर हुआ।

सुवर्ण तीर्थ के सम्मुख एक सूखा ताल है जो किसी काल में विशाल तालाब रहा होगा।

मीठापुर

मीठापुर और कुछ नहीं, बल्कि टाटा रसायन कारखाने के चारों ओर बसा नगर है। इस कारखाने में मुख्यतः नमक का उत्पादन होता है। यूँ तो कारखाने के भीतर जाने की अनुमति हम पर्यटकों को नहीं है, फिर भी मीठापुर नगर देख आप अचंभित हो जायेंगे। चारों ओर नमक के ढेर ही ढेर पड़े हुए हैं।

मीठापुर में नमक के पहाड़
मीठापुर में नमक के पहाड़

चारों ओर फैले नमक के ढेरों पर रंगों के उतार चड़ाव मनोरम छटा बिखेरते हैं। मैंने इन टीलों पर कई प्रकार के पक्षियों को भी मंडराते देखा। कदाचित वे अपने पोषण में नमक की कमी को पूर्ण करने के लिए यहाँ आते हैं।

द्वारका के आसपास अन्य मंदिर तथा दर्शन स्थल

इन्द्रेश्वर महादेव मंदिर जहां से अर्जुन ने सुभद्रा का हरण किया था। यह एक छोटा सा अत्यंत रंगबिरंगा मंदिर है जिसके मध्य में शिवलिंग स्थापित है। मूल प्राचीन मंदिर इसी मंदिर परिसर में कहीं था। इसके समीप एक गुफा भी थी जहां कथित रूप से अर्जुन ने तपस्या की थी।

इन्द्रेश्वर महादेव मंदिर
इन्द्रेश्वर महादेव मंदिर

कहा जाता है कि यहीं से समीप ही एक कुण्ड था जहां अर्जुन का सुभद्रा के साथ विवाह हुआ था। इन्द्रेश्वर मंदिर पर एक भद्र स्त्री ने हमें वहाँ पहुँचने का मार्ग भी बताया था, किन्तु हम उसे ढूंढ नहीं पाए।

ऋण मुक्तेश्वर महादेव जहां की मान्यता है कि मनुष्य अपने सर्व ऋणों से मुक्ति पा सकता है। जैसा कि नाम से विदित है, यह एक शिव मंदिर है जिसके चारों ओर कई छोटे छोटे प्राचीन मंदिर हैं।

पिंडारक जहां ऋषि दुर्वासा का गुरुकुल था। अपनी इस यात्रा में मैं इस मंदिर के दर्शन नहीं कर पायी। आशा है भविष्य में यह अवसर शीघ्र प्राप्त होगा।

चरण गंगा जहां दुर्वासा ऋषि को द्वारका ले जाते समय कृष्ण ने रुक्मिणी के लिए जल स्त्रोत उत्पन्न किया था।

मेरा सदैव यह मानना है कि भारत हमें अचंभित करने में कभी नहीं चूकता है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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गुजरात में श्री कृष्ण की स्वर्णिम द्वारका नगरी के १५ अद्भुत पर्यटक स्थल https://inditales.com/hindi/dwarka-gujarat-ke-paryatak-sthal/ https://inditales.com/hindi/dwarka-gujarat-ke-paryatak-sthal/#comments Wed, 13 May 2020 02:30:37 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1847

द्वारका नगरी से कदाचित ही कोई अनभिज्ञ होगा। यह एक प्राचीन नगरी है जो पौराणिक कथाओं से परिपूर्ण है। द्वारका में आप जहां भी जाएँ, ये सब कथाएं आपके समक्ष पुनः पुनः सजीव होती चली जाती हैं। गोमती नदी के तीर पर बसी यह देवनगरी पर्यटकों तथा तीर्थयात्रियों हेतु स्वर्ग सदृश है। क्या आप जानते […]

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द्वारका नगरी से कदाचित ही कोई अनभिज्ञ होगा। यह एक प्राचीन नगरी है जो पौराणिक कथाओं से परिपूर्ण है। द्वारका में आप जहां भी जाएँ, ये सब कथाएं आपके समक्ष पुनः पुनः सजीव होती चली जाती हैं। गोमती नदी के तीर पर बसी यह देवनगरी पर्यटकों तथा तीर्थयात्रियों हेतु स्वर्ग सदृश है।

द्वारका में गोमती संगम
द्वारका में गोमती संगम

क्या आप जानते हैं कि द्वारका का इतिहास महाभारत काल से भी प्राचीन है? जानकारी अनुसार, ज्ञात प्राचीनतम काल से यह नगरी अनवरत बसी हुई है। द्वारका नगरी धार्मिक पर्यटन हेतु भले ही अधिक प्रसिद्ध हो, प्राचीन ऐतिहासिक स्मारकों में रूचि रखने वाले पर्यटकों के लिए भी यह अद्भुत स्थल है। इस नगरी में इतिहास की विभिन्न परतों को देख आप अचंभित रह जायेंगे।

यूँ तो द्वारका के दर्शनीय स्थलों की लम्बी सूची में वरीयता निश्चित करना उचित नहीं, किन्तु उन सब के दर्शन एक यात्रा में पूर्ण करना भी संभव नहीं है। अतः इन संस्मरण में मैं आपके समक्ष द्वारका नगरी के इन १५ दर्शनीय स्थलों की सूची का सुझाव रख रही हूँ जिन्हें आप अपनी आगामी यात्रा के समय देख सकते हैं।

द्वारकाधीश मंदिर

श्री द्वारकाधीश मंदिर - द्वारका
श्री द्वारकाधीश मंदिर – द्वारका

अधिकतर पर्यटक इसी मंदिर के दर्शन करने द्वारका आते हैं। क्यों न हो? यह मंदिर अत्यंत महत्वपूर्ण व आकर्षक है। आप इस मंदिर में प्रातःकाल एवं संध्याकाल, दोनों समय कम से कम एक एक दर्शन अवश्य करें।

द्वारकाधीश मंदिर पर मेरी यात्रा संस्मरण आप पहले से पढ़ लें। यह अवश्य आपके लिए उपयोगी होगा|

द्वारकाधीश मंदिर में ध्वजारोहण

द्वारकाधीश मंदिर का ५२ गज लंबा ध्वज दिन में ५ बार बदला जाता है, ३ बार प्रातःकाल तथा २ बार संध्याकाल में। प्रत्येक बार भिन्न भिन्न भक्त परिवार पर यह ध्वज, जो आदर से यहाँ ध्वजजी कहलाते है, अर्पित करने का उत्तरदायित्व होता है। उल्हासित परिवार नाचते गाते उत्सव मनाते ध्वजजी को लेकर आता है। गुग्गली ब्राम्हण, मंदिर के शिखर पर चढ़कर ध्वजारोहण करते है। और जैसे ही ध्वज हवा में फड़फड़ता है, चारों ओर खड़े भक्तगण जयजयकार कर इसका स्वागत करते हैं। आप जब भी यहाँ आयेंगे, यह दृश्य आपको अवश्य मंत्रमुग्ध कर देगा।

रुक्मिणी मंदिर

रमणीय रुक्मिणी मंदिर
रमणीय रुक्मिणी मंदिर

रुक्मिणी द्वारका एवं द्वारकाधीश की रानी थी। अतः आप द्वारका आयें तथा उनके दर्शन ना करें, यह कैसे हो सकता है। वैसे भी कहा जाता है कि उनके मंदिर के दर्शन बिना द्वारका दर्शन अपूर्ण है।

और पढ़ें:- रुक्मिणी – द्वारका एवं द्वारकाधीश की रानी

तुलाभार

तुलाभार
तुलाभार

यदि आप रुक्मिणी की कथा जानते हैं तो आप तुलाभार के उद्भव विषयी जानकारी भी अवश्य रखते होंगे। यदि नहीं, तो संक्षिप्त में यह कथा आपको बताती हूँ। एक बार नारद मुनि के उकसाने पर कृष्ण की अपूर्व सुंदरी पत्नी सत्यभामा, उनकी दूसरी पत्नी रुक्मिणी से ईर्ष्या करने लगी। रुक्मिणी के समक्ष अपने कृष्ण प्रेम को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने हेतु सत्यभामा ने अपने आभूषणों द्वारा कृष्ण को तुलाभार में तोलना आरम्भ किया। किन्तु उनके सम्पूर्ण आभूषण भी कम पड़ने लगे। परिणाम स्वरुप होने वाली नारद की चाकरी से कृष्ण को बचाने हेतु लाचार होकर सत्यभामा को रुक्मिणी के शरण जाना पड़ा। रुक्मिणी ने केवल तुलसी के एक पत्ते को पूर्ण प्रेम एवं श्रद्धा से तुला पर रखा और कृष्ण का पलड़ा हल्का पड़ गया। अतः सच्चे मन से भगवान् को अर्पित प्रेम व श्रद्धा किसी भी संपत्ति से श्रेष्ठ है। तुलाभार इसी सत्य का प्रतीक है।

छोटे छोटे मंदिरों से भरे गोमती नदी के तट पर आप ऐसा ही एक विशाल तुलाभार देखेंगे। छत से लटके इस तुलाभार के एक पलड़े पर कोई मनुष्य तथा दूसरे पलड़े पर अनाज रखा पायेंगे। तुलाभार द्वारा भक्तगण अपने वजन के बराबर अनाज दान कर ईश्वर के प्रति अपने प्रेम व श्रद्धा को व्यक्त करते हैं।

मैंने जब ऐसे ही एक मंदिर के भीतर प्रवेश किया, वहां उपस्थित पंडितजी ने मुझे देखते ही मेरा सही भार बताते हुए तुरंत तुलाभार प्रक्रिया का मूल्य भी बता दिया। उनकी दक्षता ने मुझे अचंभित कर दिया। तत्पश्चात उन्होंने मुझे इस तुलाभार प्रक्रिया के विषय में यह जानकारी दी।

पुजारीजी के अनुसार, शास्त्रों में लिखा है कि द्वारका में मोक्ष प्राप्ति के लिए किसी भी मनुष्य को अपने भार के बराबर ७ विभिन्न वस्तुओं का दान करना पड़ता है। ये वस्तुएं हैं, गेहूं, चावल, शक्कर, उड़द दाल, मूंग दाल, देसी घी और तेल।

उन्होंने मुझे बताया कि तुलाभार की ३ श्रेणियां हैं, उत्तम, मध्यम तथा सूक्ष्म। यह संस्मरण लिखते तक तुलाभार की इन श्रेणियों के दाम क्रमशः १२०रु, ८०रु तथा ४०रु प्रति किलो था। इन श्रेणियों में मुख्यतः ऊपर उल्लेख किये गए ७ वस्तुओं में से दाम के अनुसार चयन किया जाता है। उदाहरणतः सूक्ष्म श्रेणी में केवल शुद्ध घी का प्रतीकात्मक दान किया जा सकता है।

आपके मष्तिष्क में कदाचित यह शंका उत्पन्न हो रही होगी कि इतना सब दान आखिर जाता कहाँ है। पंडितजी ने मुझे बताया कि इन वस्तुओं को द्वारका में बसेरा करतीं विधवाओं, छोटे मन्दिरों अथवा गरीब ब्राम्हणों में बाँट दिया जाता है। मैं सोच में पड़ गयी कि द्वारका जैसी नगरी में क्या गरीब ब्राम्हण होंगे?

गोमती नदी के किनारे ऊँट की सवारी

गोमती नदी के एक तट की ओर देखें, तो आप सम्पूर्ण तट मंदिरों तथा घाटों से भरा हुआ पायेंगे। वहीं दूसरा किनारा आपको रेतीला दृष्टिगोचर होगा जिसके एक छोटे से भाग को बालू-तट के रूप में परिवर्तित किया गया है। नदी के इन दोनों किनारों पर आप ऊँट की सवारी का आनंद उठा सकते हैं।

गोमती के तट पर ऊँट की सवारी
गोमती के तट पर ऊँट की सवारी

जहां तक नदी के मंदिरों वाले तट का प्रश्न है, वहां ऊँट नदी के अत्यंत समीप चलते हैं। छोटे छोटे बच्चों को यहाँ ऊँट सवारी करते देख मैं भयभीत हो रही थी किन्तु बच्चे सवारी का भरपूर आनंद उठा रहे थे।

नदी के रेतीले तट पर ५ मीठे पानी के कुएँ हैं जिनके विषय में ऐसा माना जाता है कि ५ ऋषी इन ५ नदियों को यहाँ लेकर आये थे। इन ऋषियों तथा उनके द्वारा लाई गयी नदियों के नाम आप कुओं के समीप रखीं छोटी छोटी सूचना पट्टिकाओं पर पढ़ सकते हैं। हो सकता है कि इन कुओं के कारण ही यहाँ मनुष्य वास आरम्भ हुआ होगा। वर्तमान में आप यहाँ केवल दो छोटे मंदिर देख सकते हैं जो लक्ष्मीनारायण एवं अम्बाजी को समर्पित हैं। लक्ष्मीनारायण मंदिर में एक पुरानी गुफा है। यहाँ पांच पांडवों के पदचिन्ह अर्थात् पांडव चरण अंकित हैं। ठीक उसी प्रकार पांच नदियों को लाने वाले पांच ऋषियों के भी पदचिन्ह यहाँ आपको दृष्टिगोचर होंगे।

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यहाँ आप कई विश्राम करते अथवा चलते ऊँट देखेंगे और यदि मेरे सामान भाग्यशाली रहे तो दौड़ते ऊँट भी देख सकेंगे। आप चाहें तो ऊँट की सवारी का रोमांच भी ले सकते हैं। अथवा पत्थरों के टीलों से तटबंद रेतीले तट पर बैठकर इस मनोरम परिदृश्य का आनंद उठा सकते हैं।

गोमती नदी पर निर्मित सुदामा सेतु से सूर्योदय दर्शन

द्वारका एक ऐसा अद्भुत स्थल है जहां से आप सूर्योदय तथा सूर्यास्त दोनों के तेजस्वी व मोहक दर्शन एक ही स्थान से कर सकते हैं।

सुदामा सेतु पर सूर्योदय
सुदामा सेतु पर सूर्योदय

मनमोहक सूर्योदय के विलक्षण दर्शन पाने के लिए सुदामा सेतु से उत्तम स्थान दूसरा नहीं। गोमती नदी के दोनों किनारों को जोड़ता, मोटे लोहे के रस्सों से बंधा यह सेतु, रिलायंस समूह द्वारा निर्मित, अपेक्षाकृत नवीन है। केवल एक तथ्य ध्यान में रखिये कि इसपर चढ़ने के लिये टिकट खरीदने की आवश्यकता है। अतः प्रातःकाल टिकट खिड़की खुलने की प्रतीक्षा आपको अवश्य करनी पड़ेगी। विश्वास रखिये, आप निराश नहीं होंगे।

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उगते सूर्य की अनछुई किरणें जब गोमती व समुद्र के संगम पर पड़ती हैं तो आपको मंत्रमुग्ध कर देती हैं।

सेतु के उस पार, नदी के किनारे किनारे चलने योग्य पगडंडी बनाए गयी है तथा बैठने के लिए बेंच रखी गयी हैं। मैंने भी वहां कुछ क्षण बैठकर परिदृश्य का आनंद उठाया। नदी के दूसरे तीर पर द्वारकाधीश मंदिर था जिसका प्रतिबिम्ब गोमती के जल सतह पर मंदिर की मोहक छवि प्रस्तुत कर रहा था। घाट पर कई श्रद्धालु नदी के पवित्र जल में डुबकी लगा रहे थे। मंदिर के भीतर पूजा अर्चना की जा रही थी। जैसे ही मेरी दृष्टी नदी तथा सागर के संगम स्थल पर पड़ी, मैं समझ नहीं पायी कि नदी अपने अस्तित्व को सागर में समा रही थी या सागर आगे बढ़कर नदी को गले लगा रहा था। यह मंत्रमुग्ध कर देने वाला अद्भुत दृश्य आने वाले कई वर्षों तक मेरे मन को प्रफुल्लित करता रहेगा।

आप चाहें तो गोमती घाट पर चलते चलते वहां स्थित कई छोटे छोटे मंदिरों के भी दर्शन कर सकते हैं। गोमती तथा सागर के मिलन स्थल पर स्थित समुद्र नारायण मंदिर अवश्य देखिये। यह द्वारका के प्राचीनतम मंदिरों में से एक मंदिर है।

द्वारका समुद्रतट से सूर्यास्त दर्शन

यदि आप द्वारका के सर्वोत्तम सूर्यास्त दर्शन की अभिलाषा रखते हैं तो समय पर बडकेश्वर महादेव मंदिर पहुंचें। सूर्यास्त देखने योग्य यह सर्वोत्तम स्थल एक छोटा सा प्राचीन मंदिर है। यह मंदिर जहां स्थित है वह किसी काल में एक छोटा द्वीप रहा होगा। वर्तमान में आप यहाँ तक आसानी से चलकर आ सकते हैं तथा समुद्र में समाते सूर्य का अबाधित दर्शन कर सकते हैं।

द्वारका का सूर्यास्त
द्वारका का सूर्यास्त

मनोहारी सूर्यास्त देखने के पश्चात जैसे ही मैंने मुड़कर द्वारका की ओर देखा मुझे द्वारका नगरी चट्टानों के ऊपर दिखाई दी। जी हाँ! द्वारका ऊंची चट्टानों के ऊपर बसी हुई थी। समुद्र की लहरें इस चट्टानों से अठखेलियाँ कर रही थीं। कुछ स्थानों पर ये लहरें इतनी बलशाली थीं कि उन्होंने चट्टानों को काटकर गुफाएं बना दी थीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो समुद्र अपनी लहरों द्वारा द्वारका की चट्टानों को धीरे धीरे कुतर रहा था।

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सम्पूर्ण दृश्य को मानसपटल में समेटने के लिए मैंने द्वारका नगरी के किनारे चलाना आरम्भ किया। मेरे एक ओर चट्टानों के अद्भुत गठन थे तो दूसरी ओर कई पर्यटक ऊँट की सवारी का आनंद उठा रहे थे। तट के दूसरे छोर पर श्वेत श्याम रंग में एक ऊंचा प्रकाश स्तंभ चारों ओर निरिक्षण करता प्रतीत हो रहा था। प्रकाश स्तंभ के साथ चित्रीकरण करना हो तो यह एक उत्तम स्थल है।

उपरोक्त विवरण पढ़कर आपने यह निश्चय कर लिया होगा कि आपनी द्वारका यात्रा के समय आप एक संध्या यहाँ अवश्य व्यतीत करना चाहेंगे।

गोमती आरती

गोमती मंदिर
गोमती मंदिर

आप सबने काशी, ऋषिकेश तथा हरिद्वार में होने वाली गंगा आरती के विषय में अवश्य सुना व देखा होगा। ठीक उसी प्रकार की आरती द्वारका में गोमती नदी के तट पर की जाती है। हालांकि यह आरती उतने भव्य स्तर पर नहीं होती। इस आरती को कुल १० मिनट से भी कम समय लगता है।

गोमती घाट पर स्थित गोमती मंदिर में जाकर आप इस आरती के सही समय की जानकारी ले लें। मार्च में जब मैंने यहाँ की यात्रा थी, तब यह आरती संध्या ६ बजकर ३० मिनट पर की जाती थी।

द्वारका के पीठासीन देव-देवताओं के दर्शन

द्वारका का भद्रकाली मंदिर
द्वारका का भद्रकाली मंदिर

द्वारका शब्द से आप सबने यह अनुमान लगा लिया होगा कि द्वारकाधीश अर्थात् कृष्ण यहाँ के पीठासीन देव हैं। किन्तु यह पूर्णतः सत्य नहीं है। कृष्ण द्वारका के राजा थे तथा उनकी इसी रूप में आराधना की जाती है। यहाँ के पीठासीन देव वे हैं जो कृष्ण द्वारा द्वारका को नवीन राजधानी घोषित करने से भी पूर्व यहाँ पूजे जाते थे। अर्थात् सिद्धेश्वर महादेव के रूप में भगवान् शिव तथा माँ भद्रकाली के रूप में उनकी शक्ति।

वर्तमान में उनके मंदिर सादे व छोटे से हैं जो सहज ही आपको दिखाई नहीं देंगे। उन तक पहुँचने के लिए आपको कुछ स्थानीय लोगों की सहायता लेनी पड़ सकती है। वहां पहुंचकर आपकी मेहनत सफल हो जायेगी। सिद्धेश्वर महादेव मंदिर में संध्या के समय दीपों को प्रज्ज्वलित करने की एक सुन्दर प्रथा है। मंदिर के समीप एक प्राचीन बावडी भी है। भद्रकाली मंदिर मुख्य सड़क पर स्थित है तथा कई अन्य मंदिरों से घिरी हुई है।

शारदा पीठ के दर्शन

द्वारका उन चार सौभाग्यशाली नगरियों में से एक है जहां आदि शंकराचार्य ने पीठ की स्थापना की थी। द्वारकाधीश मंदिर परिसर के भीतर स्थित इस पीठ के अंतर्गत एक सुन्दर मंदिर तथा कुछ अप्रतिम पुस्तकालय हैं। इनके साथ साथ आप यहाँ कुछ अत्यंत ज्ञानी व्यक्तियों से भी भेंट कर सकते हैं। यहाँ से मुझे भी एक पुस्तक प्राप्त हुई थी जो मेरे लिए द्वारका संबंधी अनेक जानकारियों का सर्वोत्तम स्त्रोत सिद्ध हुई। सौभाग्य से मुझे इस पुस्तक के लेखक प्राध्यापक जयप्रकाश नारायण द्विवेदी से भेंट करने का भी अवसर प्राप्त हुआ।

यहाँ की सर्वाधिक आनंददायक अनुभूति जो मुझे प्राप्त हुई, वह थी शारदा पीठ के विद्यार्थियों द्वारा किये गए मंत्रोच्चारणों का श्रवण। आप इसका अनुभव लेना ना भूलें।

द्वारका के अन्य मंदिर

द्वारका का स्वामीनारायण मंदिर
द्वारका का स्वामीनारायण मंदिर

द्वारका नगरी के कुछ अन्य मनभावन मंदिर इस प्रकार हैं:-
• स्वामीनारायण मंदिर
• ISCKON मंदिर
• गायत्री देवी मंदिर
• शंकराचार्य मंदिर –इन दिनों यह में खँडहर में परिवर्तित हो गया है, फिर भी आप इस प्राचीन संरचना के अवशेष देख सकते हैं।
• मीराबाई का मंदिर जो समुद्र नारायण मंदिर परिसर के भीतर स्थित है।
आप द्वारका के रास्तों पर यूँ ही पैदल चलिए। प्रत्येक क्षण आपका परिचय एक नवीन अनुभूति से होगा, यह मेरा दावा है।

द्वारका में पंछी दर्शन

द्वारका के अन्दर तथा बाहर जहां जहां भी जल स्त्रोत हैं, सभी स्थानों पर आपको कई प्रकार के पक्षी दृष्टिगोचर होंगे। द्वारका में विचरण करते समय मुझे भी झाड़ियों में कई छोटे छोटे पंछी दिखाई पड़े।

द्वारका के अतिथि पक्षी
द्वारका के अतिथि पक्षी

मेरी बांछे तब खिल गयीं जब मेरी दृष्टी द्वारका के एक मुहाने पर खड़े पंछियों के समूह पर पड़ी। वे पंछी अत्यंत आकर्षक ‘Demoiselle Cranes’ अर्थात् कुरजां थे जो बड़ी संख्या में वहां आये हुए थे। उन मनोहारी पंछियों को झुण्ड में बैठे तथा उड़ते देख मन प्रसन्न हो गया। समय का चुनाव सही रहा तो आप भी इन पंछियों के दर्शन कर सकते हैं।

छकड़ा सवारी

द्वारका में आप का सामना एक अनोखी गाड़ी से होगा। छकड़ा, यह एक ऐसी गाड़ी है जो चलती तो है मोटरसाईकिल के इंजन पर, फिर भी एक साथ १२ से १५ लोगों को ले जाने में सक्षम है। सम्पूर्ण द्वारका नगरी में आप इन रंगबिरंगी गाड़ियों को देख सकते हैं। रही बात इन पर सवारी करने की तो यह आपकी इच्छा एवं भरोसे पर निर्भर है।

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द्वारका नगरी की प्राचीनतम पाषाणी अभिलेख के दर्शन

द्वारका के प्राचीनतम शिला लेख
द्वारका के प्राचीनतम शिला लेख

द्वारका के भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के कार्यालय में रखा गया यह एक प्राचीनतम अभिलेख है। एक बड़े तिकोने पत्थर पर किया गया यह अभिलेख दूसरी सदी में गढ़ा गया था। यूँ तो मैं इन अभिलेखों को पढ़ने में असमर्थ थी, फिर भी इन अभिलेखों को देख मन प्रसन्न हो उठा। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा इनके संरक्षण का उत्तम कार्य प्रगति पर था।

द्वारका से स्मृतिचिन्हों की खरीददारी

जैसा कि आपने अनुमान लगा लिया होगा, द्वारका की सर्वोत्तम स्मृतिचिन्ह तो द्वारकाधीश ही होंगे। आप इन्हें किसी भी रूप में चयन कर सकते हैं, कांच की मञ्जूषा के भीतर बिठाई गयी मूर्ति, चित्र इत्यादी।

सीपियाँ, शंख और गोपीचंदन
यहाँ से क्या घर ले जाएँ

चक्रशिला– द्वारका की अत्यंत अनोखी वस्तु है वे पत्थर जिन पर चक्र की तरह गोलाकार संरचनाएं होती हैं। वैसे तो यह समुद्र में पाए जाने वाला मूंगा है, किन्तु इन पर उभरी इन संरचनाओं को देख आप आश्चर्यचकित रह जायेंगे। इनमें कुछ पत्थर तो इतने हलके होते हैं कि वे पानी के ऊपर तैरते हैं। यहाँ के कई मंदिरों के बाहर ऐसे ही बड़े पत्थरों को पानी पर तैरते भी आप देख सकते हैं। कई भक्तगण इन पर पुष्प इत्यादि भी अर्पण करते दिखाई देते हैं।

द्वारका से आप शंख अथवा शंख के आकार की सीपियाँ भी ले सकते हैं।

द्वारका से एक और अनोखी वस्तु जो आप ले सकते हैं वह है गोपी चन्दन। यह कुछ और नहीं बल्कि गोपी तालाब की सूखी हुई मिट्टी है। यह आपको स्मारिका दुकानों में मिल जायेगी।

द्वारका के लिए कुछ यात्रा सुझाव

द्वारका के पर्यटक स्थल • द्वारका रेल द्वारा देश के अन्य भागों से जुड़ा हुआ है। आप अनुमान  लगा सकते हैं कि यह भारत के सर्वोत्तम पश्चिमी रेल स्थानकों में से एक है।
• यदि आप हवाई मार्ग द्वारा यहाँ पहुँचना चाहते हैं तो आपको पोरबंदर पहुँचना होगा। तत्पश्चात १०० की.मी. दूर स्थित पोरबंदर से द्वारका तक सड़क मार्ग से आ सकते हैं।
• सामान्यतः गुजरात के सभी स्थानों से बसें द्वारका तक आती हैं।
• आपको यह याद दिला दूं कि द्वारका में दिन का आरम्भ जल्दी होता है तथा दोपहर के समय कामकाज शांत हो जाता है। अतः इन अड़चनों को ध्यान में रख कर अपने दिन के कार्यक्रमों को सूचीबद्ध करें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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अहमदाबाद धरोहर यात्रा – प्राचीन नगर से एक परिचय  https://inditales.com/hindi/ahmedabad-nagar-dharohar-yatra/ https://inditales.com/hindi/ahmedabad-nagar-dharohar-yatra/#respond Wed, 07 Aug 2019 02:30:35 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=774

दिल्ली और हैदराबाद की तरह अहमदाबाद में भी एक प्राचीन नगर बसा हुआ है, जो आज भी पुरातन काल के उसी दौर में जी रहा है। ये प्राचीन जगहें आपको वापिस पुराने जमाने में ले जाती हैं जब इन नगरों का नया-नया निर्माण हो रहा था और जहाँ धीरे-धीरे वे विकसित हो रहे थे। इन […]

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दिल्ली और हैदराबाद की तरह अहमदाबाद में भी एक प्राचीन नगर बसा हुआ है, जो आज भी पुरातन काल के उसी दौर में जी रहा है। ये प्राचीन जगहें आपको वापिस पुराने जमाने में ले जाती हैं जब इन नगरों का नया-नया निर्माण हो रहा था और जहाँ धीरे-धीरे वे विकसित हो रहे थे। इन क्षेत्रों की अपनी एक विशेष पहचान है जो वहाँ के वातावरण से साफ प्रतीत होती है।

अहमदाबाद का कालूराम स्वामीनारायण मंदिर
अहमदाबाद का कालूराम स्वामीनारायण मंदिर

अहमदाबाद की सबसे बड़ी खासियत है इस प्राचीन नगर की आवासीय व्यवस्था जो उसे अद्वितीय बनाती है। यहाँ पर विविध समुदाय स्वतंत्र रूप से रहते हैं, लेकिन फिर भी वे एक दूसरे बंधे हुए हैं।

अहमदाबाद नगरपालिका निगम द्वारा हर दिन अहमदाबाद की विरासत यात्रा का आयोजन किया जाता है जो आपको इस शहर के पुराने भागों की सैर कराती हैं। सालों से इन यात्राओं का आयोजन करते-करते अब वे इस कार्य में बहुत ही निपुण हो गए हैं। मैं लगभग 13 साल पहले पहली बार इस पदयात्रा पर गयी थी और फिर उसके 10 साल बाद, यानी 3 साल पहले मुझे फिर से इस यात्रा पर जाने का मौका मिला और दोनों ही बार मुझे इन यात्राओं के दौरान बहुत आनंद आया।

अहमदाबाद की विरासत यात्रा से जुड़े अनुभव 

इस यात्रा का आरंभ कालूपुर स्वामीनारायण मंदिर से होता है, जो इस शहर के ठीक बीचोबीच स्थित है। अगर आप चाहें तो सुबह-सुबह 8 बजने से थोड़ा पहले वहाँ पर पहुँचकर मंदिर के बाहर खड़ी दुकानों पर मिलनेवाले ताजे और गरमा-गरम नाश्ते का लुत्फ उठा सकते हैं। आपको वहाँ पर मिलने वाला फाफड़ा जो पपीते की चटनी के साथ परोसा जाता है और जलेबी जरूर खानी चाहिए।

जलेबी और फाफडा - गुजरात का नाश्ता
जलेबी और फाफडा – गुजरात का नाश्ता

इस पदयात्रा की शुरुआत करने से पहले यात्रियों को इस मंदिर में यहाँ की विरासत पर आधारित एक छोटा सा चलचित्र दिखाया जाता है।  एक यात्रा विवरणिका भी दी जाती है, जिससे कि यात्रा के दौरान उन्हें कोई दिक्कत न हो।

कवि दलपत राय का घर

कवि दलपत राय की प्रतिमा - अहमदाबाद
कवि दलपत राय की प्रतिमा – अहमदाबाद

इस यात्रा का सबसे पहला पड़ाव है कवि दलपत राय का घर, जहाँ पर अगवाड़े के सिवाय और कुछ नहीं है, जिसमें एक खुला आँगन है जहाँ पर उनकी एक बड़ी सी मूर्ति खड़ी है। हमारे गाइड ने हमे उनके जीवन और उनके दार्शनिक विचारों के बारे में विस्तार से समझाया तथा यह भी बताया कि कैसे इस आँगन के द्वारा उन्हें जीवित रखने का प्रयास किया गया है।

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पक्षियों का चबूतरा  

अहमदाबाद की गलियों में घूमते हुए हमे अनेक प्रकार के पक्षियों के चबूतरे दिखाये गए थे। ये चबूतरे कुछ-कुछ पेड़ों की तरह लग रहे थे, जो इन अतिप्रजनक गलियों में कहीं भी नज़र नहीं आ रहे थे।

पक्षियों को खिलने के लिए पक्षी घर
पक्षियों को खिलने के लिए पक्षी घर

अहमदाबाद का यह पुराना शहर आवासीय समूहों में विभाजित है, जहाँ पर कुछ विशेष समुदाय रहते हैं। ये समुदाय या तो जाति के आधार पर बनते हैं, या फिर धर्म या व्यवसाय के आधार, या फिर इन तीनों के समिश्रण के आधार पर भी बनाए जाते हैं।

काष्ठ का काम - अहमदाबाद के पोल
काष्ठ का काम – अहमदाबाद के पोल

यहाँ पर कुछ गुप्त मार्ग हैं जो किसी पहेली की तरह इन आवासों को एक-दूसरे से जोड़ते हैं। किसी भी बाहरवाले के लिए इन रास्तों को समझा पाना असंभव है, जो की आक्रमण की स्थिति में बहुत ही सुविधाजनक सिद्ध होता है। यहाँ पर इस प्रकार की निर्माण शैली देखकर मेरे मन में यही विचार आया कि, क्या आक्रमण और लड़ाइयाँ हमेशा से इस शहर की संस्कृति का एक अटूट हिस्सा रहे हैं; जिसके चलते उन्हें इस पद्धति का प्रयोग आवासीय भागों में भी करना पड़ता था, जैसा कि अक्सर राजसी प्रासादों में होता है।

रामजी मंदिर – हवेली मंदिर

रामजी मंदिर - अहमदाबाद
रामजी मंदिर – अहमदाबाद

हमने अहमदाबाद के लगभग 450 साल पुराने रामजी मंदिर के दर्शन किए जिसे हवेली मंदिर के रूप में भी जाना जाता है। इस मंदिर के कर्ता-धर्ता यानी मंदिर का विस्तारित संयुक्त परिवार आज भी यहाँ पर निवास करता है। यह पारिवारिक मंदिर आम जनता के लिए भी खुला रहता है। यहाँ की लकड़ी की बनी संरचनाएं जो आज भी इस हवेली का भार संभाले हुए है, सच में बहुत प्रशंसनीय है।

अष्टपदी जैन मंदिर

अष्टपदी जैन मंदिर बहुत ही सुंदर है जिसकी ठेठ जैन वास्तुकला प्रशंसनीय है। इस दौरान हमारे टूर गाइड ने हमे वहाँ की अनोखी वर्षा जल संचयन प्रणाली के बारे में बताया जो उपलब्ध उपभोग्य बारिश के पानी को पूरे साल तक संरक्षित रख सकती है। इस बेतरतीब सी संरचना को देखरकर आपको आश्चर्य जरूर होगा, जिसकी संरचना में भी अनेक विधियाँ छिपी हुई हैं।

काष्ठ पर हुआ काम - अहमदाबाद की गलियों में
काष्ठ पर हुआ काम – अहमदाबाद की गलियों में

यहाँ पर सिर्फ बारिश का पानी एकत्रित ही नहीं किया जाता बल्कि, चूने और तांबे की पाइपिंग के इस्तेमाल से उसका इस प्रकार संचयन किया जाता है कि उसकी उपयोगिता बनी रहे और वह किसी भी प्रकार के जीव-जंतुओं या बीमारी से मुक्त रहे। कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि हमने अपने पूर्वजों की इस समान्यतः उपलब्ध बुद्धिमत्ता को न जाने क्यों और कहाँ खो दिया है, जिनके पास हमारी हर जरूरत के लिए कोई न कोई स्थानीय और आसान उपाय जरूर होते थे।

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अंतिम पड़ाव की ओर पहुँचते-पहुँचते यह पदयात्रा बाज़ारों से होते हुए आगे बढ़ती है, जहाँ पर दुकानदार अपनी दुकान खोलते हुए अपने दिन की शुरुआत करते हुए नज़र आते हैं। भारत की अन्य प्राचीन जगहों की तरह इस जगह से भी कुछ रोचक सी कहानियाँ जुड़ी हुई हैं, लेकिन इस बार मैं इन कहानियों को आपके साथ साझा नहीं करूंगी, ताकि जब आप वहाँ पर जाए तो स्वयं उनका आनंद ले सके।

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इन बाज़ारों में घूमते हुए हमारे गाइड ने हमे यहाँ की नक्काशीदार लकड़ी की विविध वस्तुओं को ध्यान से देखने के लिया कहा, जिनमें बहुत सी कहानियों के सूत्र उत्कीर्णित थे। जैसे कि आप इन वस्तुओं पर उत्कीर्णित विश्व की विविध जगहों के प्रभावों को देख सकते हैं। अक्सर इन वस्तुओं के आकार उनकी प्रतिष्ठा की निशानी होते हैं।

जामी मस्जिद 

इस पदयात्रा का अंतिम पड़ाव है जामी मस्जिद, जो ताज महल से 200 साल पुराना है, संभवतः किसी प्राचीन मंदिर पे बना।

जामी मस्जिद
जामी मस्जिद

अहमदाबाद नगरपालिका निगम द्वारा इस विरासत यात्रा के पूरे मार्ग पर छोटे-छोटे सूचना फ़लक लगाए गए हैं जो यहाँ की विविध जगहों के बारे में आपको विस्तृत जानकारी देते हैं। ताकि अगर आप खुद से इस यात्रा पर जाए तो आप आसानी से उस जगह से संबंधित जानकारी को ग्रहण कर उसे समझ सके।

मेरे खयाल से हर किसी को अहमदाबाद की इस विरासत यात्रा पर जरूर जाना चाहिए।

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पोरबंदर- सुदामा व गांधी की जन्मस्थली https://inditales.com/hindi/porbandar-gandhi-sudama-janamsthal/ https://inditales.com/hindi/porbandar-gandhi-sudama-janamsthal/#respond Wed, 15 May 2019 02:30:13 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1316

पोरबंदर – यह शब्द मेरे कानों में सर्वप्रथम तब पड़ा जब प्राथमिक शाला में हमें महात्मा गांधी पर निबंध लिखने कहा गया था। पोरबंदर की तो छोड़िये, चंडीगड़ में पढ़ रही मुझ जैसी नन्ही बालिका के लिए गुजरात भी एक सुदूर स्थान था। बड़े होते होते मेरे भूगोल की सीमाएं भी बढ़ने लगीं। फिर आया […]

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पोरबंदर – यह शब्द मेरे कानों में सर्वप्रथम तब पड़ा जब प्राथमिक शाला में हमें महात्मा गांधी पर निबंध लिखने कहा गया था। पोरबंदर की तो छोड़िये, चंडीगड़ में पढ़ रही मुझ जैसी नन्ही बालिका के लिए गुजरात भी एक सुदूर स्थान था। बड़े होते होते मेरे भूगोल की सीमाएं भी बढ़ने लगीं। फिर आया इन्टरनेट अर्थात् संगणक जाल का युग। मेरे कुछ भ्रमणप्रिय साथियों ने पोरबंदर के दर्शन किये तथा इन्टरनेट द्वारा मुझे गांधीजी के उस घर के चित्र भेजे जहां उनका जन्म हुआ था। उस घर के चटक हरे चौखटों ने मेरे मानसपटल पर अमिट छाप छोड़ दी थी और तभी मैंने ठान लिया था कि भविष्य में कभी ना कभी उस घर के दर्शन अवश्य करूंगी।

कीर्ति मंदिर - पोरबंदर गुजरात
कीर्ति मंदिर – पोरबंदर गुजरात

हाल ही में जब मैंने द्वारका की यात्रा की थी, मुझे पोरबंदर होकर जाना पड़ा था। तभी मैंने निश्चय किया था कि इसी यात्रा में, विश्व को दो महान सुपुत्र प्रदान करने वाले पोरबंदर को जितना हो जानने का प्रयत्न करुँ। मोहनदास करमचंद गांधी तथा सुदामा के कारण प्रसिद्धी को प्राप्त पोरबंदर एक छोटा सा नगर होगा, ऐसा मेरा अनुमान था। किन्तु जब मेरा विमान पोरबंदर विमानतल पर उतरने हेतु नीचे आया, समक्ष बहुमंजिली इमारतों तथा हवाई पुलों से भरे एक विशाल नगर को देख मेरी आँखें फटी की फटी रह गयीं।

द्वारका की ओर जाते जाते मैंने एक विमार्ग लेते हुए पोरबंदर की ओर प्रस्थान किया। वहां पहुंचकर मैंने सर्वप्रथम महात्मा गाँधी के जन्म स्थल को देखने का निश्चय किया। कीर्ति मंदिर के नाम से पहचाने जाने वाला यह स्थल पोरबंदर का सर्वाधिक प्रसिद्द तथा सर्वाधिक प्रदर्शित स्थल है। बाजार के समीप हमने अपनी गाड़ी खड़ी की तथा चारों ओर अपनी दृष्टी दौड़ाई। अधिकांशतः दुकानों में मसालों की विक्री हो रही थी। बाजार के चारों ओर विशाल तथा अलंकृत इमारतें थीं। इन्हें देखकर पोरबंदर एक अति समृद्ध तथा संपन्न नगर प्रतीत हुआ।

पोरबंदर का कीर्ति मंदिर

गांधीजी के जन्मस्थान के दर्शन से पूर्व क्यों ना हम उनसे सम्बंधित ऐतिहासिक तथ्यों को पुनः स्मरण करें!

गांधीजी का इतिहास

कीर्ति मंदिर पोरबंदर में गाँधी जी के चित्र
कीर्ति मंदिर पोरबंदर में गाँधी जी के चित्र

पोरबंदर के जिस घर में गांधीजी का जन्म हुआ था, उसे उनके परदादा श्री हरजीवनजी रहिदासजी गाँधी ने खरीदा था। एक स्थानीय कुलीन स्त्री मनबा जी से खरीदा गया यह घर उस समय एक-मंजिला घर था। गांधीजी के जन्म दिवस, २ अक्टोबर १८६९ तक यह छोटा सा घर एक तिमंजिली इमारत में परिवर्तित हो गया था। यहाँ लगे एक सूचना पटल पर दी गयी जानकारी अनुसार इस इमारत के भीतर सर्व कक्ष तथा गलियारे मिलाकर कुल २२ कक्ष हैं।

गांधीजी के पिता व दादा पोरबंदर के राजदरबार में (राजाओं के) दीवान थे। यह एक प्रतिष्ठित पदवी थी। उनकी यह भव्य हवेली इसका जीता जागता उदाहरण है।

गांधीजी के विषय में और अधिक जानना चाहें तो गाँधी विरासती सूचना पटल पर पा सकते हैं।

कीर्ति मंदिर – पोरबंदर का गाँधी निवास

गाँधी निवास पोरबंदर
गाँधी निवास पोरबंदर

गांधीजी का मूल निवास स्थान इस विशाल व अलंकृत कीर्ति मंदिर के बाईं ओर स्थित है। समक्ष ही नवीन से प्रतीत होते हुए एक सादे भित्त पर लिखा था – महात्मा गाँधी का जन्म स्थान। इसके भीतर प्रवेश करते ही आप स्वयं को हरे रंग के किनार वाली ऊंची भित्तियों से घिरे प्रांगण में पायेंगे। निवास स्थान का मुख्य प्रवेश-द्वार दाहिनी ओर है। गृह के अग्र भाग पर स्थित गलियारे में हरे रंग के कई स्तंभ तथा नक्काशीयुक्त लकड़ी के चौखट हैं।

प्रवेश द्वार पर अंकित गणपति - कीर्ति मंदिर - पोरबंदर
प्रवेश द्वार पर अंकित गणपति – कीर्ति मंदिर – पोरबंदर

मुख्य द्वार के ऊपर ही गांधीजी तथा कस्तूरबा का एक श्वेत-श्याम चित्र लटका हुआ है। द्वार के चौखट पर महीन नक्काशी की गयी है। बारीकी के निरिक्षण करने पर मुझे लाल रंग में गणेश जी दिखाई दिए। कोष्ठक के रूप में दोनों ओर लकड़ी के तोते लटके हुए हैं। कक्ष के भीतर प्रवेश करते ही आप गांधीजी के जन्म का सटीक स्थान देख सकते हैं। यह स्थान स्वास्तिक द्वारा इंगित किया गया है। समीप ही भित्ति के ऊपर उनका एक विशाल चित्र भी लटका हुआ है। मुझे किंचित आश्चर्य हुआ कि कक्ष के भीतर ही सही, किन्तु द्वार के इतने समीप गांधीजी की माता ने उन्हें जन्म दिया होगा! जाने दीजिये, मुझे इसकी जानकारी नहीं। अतः अनावश्यक टिप्पणी करना उचित नहीं।

गाँधी जी का जन्म स्थल
गाँधी जी का जन्म स्थल

मैंने घर को सूक्ष्मता से निहारना आरम्भ किया। मुझे कुछ झरोखे दृष्टिगोचर हुए जो भले ही छोटे थे किन्तु बारीकी से तराशे हुए थे। छोटी छोटी कई अलमारियां थीं जिन पर हरे रंग के द्वार थे तथा उनके चारों ओर की दीवारें लाल रंग की थीं। दीवारों पर कई आले भी थे जो रंग बिरंगे चित्रों द्वारा अलंकृत थे। इन सर्व चित्रों मैं तोतों के प्रति चित्रकार के विशेष लगाव ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। तोता यहाँ के कारीगरों व चित्रकारों का प्रिय विषय प्रतीत हुआ।

गाँधी निवास की चित्रित दीवारें
गाँधी निवास की चित्रित दीवारें

गृह के भीतर ऊपरी मंजिल तक जाने-आने हेतु लकड़ी की लगभग खड़ी सीड़ियाँ बनी हुई हैं जो मुझे अत्यंत डरावनी सी प्रतीत हुईं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने मोटी रस्सी बाँधी हुई है जिसके सहारे सीड़ियाँ चढ़ी जा सकती हैं। इन सीड़ियों को देख मैं सोच में पड़ गयी कि बिजली की अनुपस्थिति में इन खड़ी सीड़ियों पर चढ़ना कितना दुर्गम रहा होगा।

महात्मा गाँधी के अन्य निवास स्थान

अहमदाबाद का सत्याग्रह आश्रम
अहमदाबाद का साबरमती आश्रम
मुंबई का मणि भवन
पुणे का आगा खान महल

पोरबंदर का कस्तूरबा गृह

कीर्ति महल का एक गलियारा महल के पिछवाड़े स्थित पोरबंदर की गलियों तक पहुंचाता है। ऐसी ही एक गली के कोने में कस्तूरबा का पैतृक निवासस्थान है। मायके में वे कस्तूरबा कपाडिया कहलाती थीं। १९वी. सदी में बनी यह हवेली भी गाँधी निवास के सामान विशाल है। मैंने इस हवेली में घूमकर इसका निरिक्षण आरम्भ किया।

कस्तूरबा गाँधी का पैत्रिक निवास - पोरबंदर
कस्तूरबा गाँधी का पैत्रिक निवास – पोरबंदर

सर्वप्रथम हवेली के एक कक्ष में मुझे एक छोटा सा कार्यालय दिखाई दिया। भीतर मुझे कई रसोईघर भी दिखे जिसने मुझे असमंजस में डाल दिया था। इतने सारे रसोईघर क्यों? वहां उपस्थित एक अधिकारी ने मुझे बताया कि कस्तूरबा के इस निवासस्थान में कई भाईयों का हिस्सा था। कदाचित भाईयों के परिवार साथ रहकर भी अपनी स्वायत्तता बनाए हुए थे। व्यवहारिक सोच!

पोरबंदर के इस कस्तूरबा निवास में सर्व तलों को जोड़ती लकड़ी की सीड़ियाँ भी गाँधी निवास के ही सामान तीव्र ढलान वाली हैं। कस्तूरबा निवास में जिसने मुझे विशेषतः प्रभावित किया वह है यहाँ की शीत प्रणाली। दीवारों के भीतर कई जल नलिकाएं गड़ी हुई हैं जिनके द्वारा बहता जल कक्ष को शीतलता प्रदान करता है।

दोनों निवास स्थानों के मध्य खड़े मैं सोचने लगी कि क्या कभी मोहनदास व कस्तूरबा अपने बालपन में इन्ही गलियों में खेलते रहे होंगे!

कीर्ति मंदिर

कीर्ति मंदिर - पोरबंदर
कीर्ति मंदिर – पोरबंदर

कीर्ति मंदिर महात्मा गाँधी तथा कस्तूरबा गाँधी की स्मृति में बनाया गया एक स्मारक है। इस स्मारक में गांधीजी का निवास स्थान भी सम्मिलित है। कीर्ति मंदिर के विषय में एक रोचक जानकारी मेरे ध्यान में आई कि इसका निर्माण १९४७ में आरम्भ हो चुका था। अर्थात् गांधीजी को इस निर्माण कार्य के विषय में जानकारी थी। कहा जाता है कि उन्होंने स्वयं अपने घर का लेखापत्र कीर्ति मंदिर निर्मिती संस्था को सौंपा था। दुर्भाग्य से वे कीर्ति मंदिर को सम्पूर्ण होते नहीं देख पाए।

पोरबंदर के ही एक निवासी, सेठ नानजीभाई कालीदास मेहता ने गांधीजी का यह स्मारक बनवाया था। इमारत के साथ साथ उस भूमि का खर्च भी उन्होंने ही उठाया था। यह वही सेठ नानजीभाई कालीदास मेहता हैं जिनके प्रसिद्ध पुत्र जय मेहता को तो आप सब जानते ही हैं। जी हाँ! जय मेहता जो एक उद्योगपति होने के साथ साथ आईपीएल के कोलकाता दल के सह-स्वामी भी हैं।

गाँधी एवं कस्तूरबा के चित्र - कीर्ति मंदिर पोरबंदर
गाँधी एवं कस्तूरबा के चित्र – कीर्ति मंदिर पोरबंदर

कीर्ति मंदिर के बीचोंबीच महात्मा गांधी तथा कस्तूरबा गांधी की आदमकद प्रतिमाएं हैं। एक ओर स्मारिका विक्री दुकान तथा एक छोटी चित्र दीर्घा दिखाई दिए। किन्तु स्मारिका दुकान में खरीदने लायक कुछ विशेष प्राप्त नहीं हो सका। काश यहाँ गांधीजी तथा उनके विरासत सम्बन्धी कुछ विशेष वस्तुएं यहाँ उपलब्ध हो सकते। कैसी विडम्बना है कि कुछ घंटो पूर्व मैं मुंबई विमानतल पर स्थित एक विशिष्ट दुकान में थी जो गांधीजी से सम्बंधित स्मारिकाओं से भरी हुई थी। रही बात चित्र दीर्घा की तो यहाँ गाँधी परिवार के कई चित्र प्रदर्शित थे। गाँधी परिवार के वंश वृक्ष का भी रेखाचित्र अंकित था।

कीर्ति मंदिर के प्रथम तल पर मुझे गांधीजी की जीवनी को सुन्दर दर्शन प्रदान कराती विस्तृत चित्र दीर्घा देखने को मिली। कहीं उच्च कोटि के वस्त्र धारण किये बाल मोहनदास तो कहीं अंग्रेजो की तरह वस्त्र धारण किये अफ्रीका में वकालत करते गांधीजी। और कहीं धोती पहने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेते राष्ट्रपिता गांधीजी। अर्थात् इस चित्र दीर्घा में गांधीजी की १९वीं. शताब्दी के अंत से २०वीं. शताब्दी के आरम्भ तक की जीवनी का सजीव चित्रण देखने मिला।

सुदामापुरी अर्थात् सुदामा मंदिर

कृष्ण सुदामा की कथा तो आप सबने सुनी ही होगी। किन्तु क्या आप जानते हैं कि सुदामा पोरबंदर के निवासी थे? इस कथा में सुदामा कृष्ण से भेंट करने पोरबंदर से बेट द्वारका पहुंचे थे। वास्तव में कृष्ण तथा सुदामा बाल मित्र थे। उज्जैन के संदीपनी आश्रम में उन दोनों ने साथ अध्ययन किया था।

सुदामा मंदिर - पोरबंदर
सुदामा मंदिर – पोरबंदर

सुदामा कृष्ण की इसी मैत्री को दर्शाते इस मंदिर में उनके कई भित्ति चित्र थे। एक चित्र में कृष्ण सुदामा के चरण धो रहे हैं तथा रुक्मिणी उन्हें पंखा झल रही हैं। वहीं कुछ चित्रों में कृष्ण तथा रुक्मिणी दोनों को सुदामा के चरण धोते दर्शाया गया था।

मंदिर के समक्ष धरती पर एक भूलभुलैया बनी हुई थी जिसे सुदामा का लख-चौरासी कहा जाता है। कहा जाता है कि मरणोपरांत मनुष्य योनी में फिर जन्म लेने से पूर्व एक आत्मा को ८४ लाख अन्य योनियों में जन्म प्राप्त होता है। भक्तों का मानना है कि इस भूलभुलैया के भीतर चलने से इस पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति प्राप्त होती है।

सुदामा मंदिर की दीवारों पर सुदामा कृष्ण के मिलन का चित्रण
सुदामा मंदिर की दीवारों पर सुदामा कृष्ण के मिलन का चित्रण

यहाँ का मुख्य मंदिर मुझे अत्यंत आकर्षक प्रतीत हुआ। मंदिर के अग्रभाग में स्तंभों युक्त एक प्रांगण था। कहा जाता है कि १२वीं. सदी में निर्मित यह मंदिर लगभग १००० वर्ष प्राचीन है। आप मंदिर के भीतर द्वारकाधीश एवं सुदामा दोनों की प्रतिमाएं देखेंगे तथा बाहर सुदामा कुंड नामक एक कुआं। मुख्य मंदिर के पृष्ठभाग में हरसिद्धि देवी समेत कई अन्य देवी-देवताओं को समर्पित छोटे छोटे मंदिर भी देख सकते हैं। मंदिर के चारों ओर सुन्दर बगीचे बनाए हुए हैं जिसमें कृष्ण सुदामा की कथा को दर्शाती कई मूर्तियाँ बनी हुई थीं।

पोरबंदर के बाज़ार
पोरबंदर के बाज़ार

पोरबंदर की गलियों तथा सडकों पर गाड़ी से घूमते समय मुझे अंग्रेजी उपनिवेशीय काल की कई अलंकृत हवेलियाँ दिखाई दीं। आकर्षक झरोखों तथा द्वारों से सज्ज ये हवेलियाँ मन मोह रही थीं।

Porbandar - Birthplace of Gandhi & Sudama पोरबंदर स्थित तारा मंडल भारत के प्राचीन तारा मंडलों में से एक तथा यहाँ के मुख्य आकर्षणों में से एक है। अपने पोरबंदर यात्रा के समय इसका भी अवश्य आनंद उठायें।

पोरबंदर सड़क मार्ग, रेल तथा विमान सेवा द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है। मैं जब यहाँ विमान द्वारा पहुंची, विमानतल पर, सड़क किनारे उपस्थित ढाबों के सामान दिखाते एक अनोखे जलपानगृह ने मुझे आकर्षित किया। काश चाय की कीमत भी ढाबों की तरह ही होती!

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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रुक्मिणी मंदिर – द्वारका की रानी से एक साक्षात्कार https://inditales.com/hindi/rukmini-mandir-dwarka-gujarat/ https://inditales.com/hindi/rukmini-mandir-dwarka-gujarat/#comments Wed, 26 Dec 2018 02:30:21 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1112

बालपन से ही हमने पढ़ा व सुना था कि श्री कृष्ण की पहली रानी रुक्मिणी थी। कहने का अर्थ है कि उन्होंने सर्वप्रथम रुक्मिणी से विवाह किया था। तत्पश्चात आयीं सत्यभामा, जाम्बवती तथा अन्य। यह और बात है कि कृष्ण के लोकप्रिय चित्रों व प्रतिमाओं में आप उन्हें अधिकतर राधा के साथ ही देखेंगे। यद्यपि […]

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बालपन से ही हमने पढ़ा व सुना था कि श्री कृष्ण की पहली रानी रुक्मिणी थी। कहने का अर्थ है कि उन्होंने सर्वप्रथम रुक्मिणी से विवाह किया था। तत्पश्चात आयीं सत्यभामा, जाम्बवती तथा अन्य। यह और बात है कि कृष्ण के लोकप्रिय चित्रों व प्रतिमाओं में आप उन्हें अधिकतर राधा के साथ ही देखेंगे। यद्यपि कुछ रूपों में कृष्ण रुक्मिणी के संग भी दर्शाये जाते हैं। जैसे कृष्ण के विट्ठल रूप के संग उनकी शक्ति रुक्मिणी उनके साथ रहती है। अतः कृष्ण के साथ राधा तथा रुक्मिणी दोनों के नामों को श्रद्धा के साथ लिया जाता है। एक ओर बृज भूमि में राधा का बोलबाला है। इसे राधाक्षेत्र भी कहा जाता है। वहीं दूसरी ओर द्वारका में कृष्ण के संग केवल रुक्मिणी को पूजा जाता है। राधा की भी कुछ प्रतिमाएं द्वारका में हैं किन्तु अधिकतर श्रद्धालू रुक्मिणी की ही आराधना करते हैं।

प्राचीन रुक्मिणी मंदिर - द्वारका
प्राचीन रुक्मिणी मंदिर – द्वारका

यह पहला अवसर था जब मैंने रुक्मिणी को दी जाने वाली प्राधान्यता का अनुभव किया। द्वारका में उनकी अनेक कथाएं प्रचलित हैं। द्वारकावासी उन्हें प्रेम से रुक्ष्मणि पुकारते हैं। मैंने द्वारका नगरी के सीमापार स्थित उनका मंदिर भी देखा। वहां एक फलक पर रुक्ष्मणि के विवाह संबंधी सूचना लिखी हुई थी। यह सब देख कर मेरा कौतुहल चरम सीमा तक पहुँच गया था। द्वारका से लौट कर प्रथम कार्य जो मैंने किया वह था रुक्मिणी के विषय में और पढ़ना तथा जानना। विदर्भ की राजकुमारी, महालक्ष्मी का अवतार तथा श्री कृष्ण की पटरानी इन नामों के सज्जित रुक्मिणी के विषय में कितना कुछ था जो मुझे ज्ञात नहीं था।

तो आईए रुक्मिणी देवी के सुन्दर मंदिर के दर्शन करने चलते हैं।

द्वारका का रुक्मिणी मंदिर

द्वारका का रुक्मिणी मंदिर
द्वारका का रुक्मिणी मंदिर

द्वारका के द्वारकाधीश मंदिर से २ की.मी. की दूरी पर रुक्मिणी का यह मंदिर स्थित है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि यह मंदिर द्वारका की सीमा में ना होते हुए नगर के बिलकुल बाहर बना हुआ है। हो सकता है कि प्राचीनकाल में यहाँ जंगल रहा हो। द्वारकाधीश के मुख्य मंदिर का समकालीन यह मंदिर अनुमानतः १२ वीं. शताब्दी में बनवाया गया है। वर्तमान में यहाँ केवल यह एक मंदिर है व समीप ही एक छोटा जल स्त्रोत है। मैंने इस जल स्त्रोत में कई पक्षी देखे जो इस मंदिर का साथ निभाते प्रतीत हो रहे थे।

रुक्मिणी मंदिर के शीर्ष पर एक ऊंचा शिखर है जिस पर प्राचीन नक्काशियां अब भी स्पष्ट देखी जा सकती हैं। शिखर के सम्पूर्ण सतह पर कई मदनिकाएं अर्थात् रूपवती स्त्रियों की नक्काशी है। वहीं मंदिर का आधार उल्टे कमल पुष्प के आकार का है। इस पुष्प के ऊपर हाथियों की कतार है जिन के ऊपर बने आलों के भीतर विष्णु की प्रतिमाएं बनी हुई हैं। आप समझ गए होंगे कि मैं अपने सम्मुख नागर पद्धति के वास्तुशिल्प का अभूतपूर्व चित्रण देख रही थी। शिखर के ऊपर फहराता चटक केसरिया ध्वज इस मंदिर की सुन्दरता को और बढ़ा रहा था।

रुक्मिणी मंदिर का प्रवेश द्वार
रुक्मिणी मंदिर का प्रवेश द्वार

समुद्र जल से होने वाले क्षरण के चिन्ह मंदिर के पत्थरों पर स्पष्ट दिखाई दे रहे थे।

मंदिर के शिखर से विपरीत मंडप का शीर्ष गुम्बदाकार है। मेरे अनुमान से इसका कारण हो सकता है, मध्यकालीन अनुवृद्धी अथवा मुख्य मंदिर का प्रतिस्थापन। मेरे कहने का अर्थ है कि या तो यह मंडप मध्य काल में जोड़ा गया होगा अथवा मुख्य मंदिर के स्थान पर नवीन संरचना की गयी होगी।

रुक्मिणी की गाथा

रुक्मिणी मंदिर के शिखर पर शिल्पकारी
रुक्मिणी मंदिर के शिखर पर शिल्पकारी

रुक्मिणी मंदिर में प्रवेश करते से ही वहां के पंडित आप को रोक कर सर्वप्रथम रुक्मिणी की कथा सुनायेंगे। तत्पश्चात छोटे छोटे जत्थों में आपको मुख्य मंदिर के भीतर प्रवेश की अनुमति देंगे। मंदिर के भीतर प्रवेश करते ही रुक्मिणीजी की मनमोहक छवि आपका मन मोह लेगी। मंदिर की भीतरी भित्तियों पर भी उनसे जुड़े अनेक प्रसंगों को सुन्दरता से चित्रित किया गया है। इनसे आप अनुमान लगा सकते हैं कि जनमानस में उनकी कितनी महत्ता है।

रुक्मिणी देवी मंदिर परिसर में मैंने एक और मंदिर भी देखा जो अम्बा देवी को समर्पित था। विशेष उल्लेख करना चाहूंगी, अम्बा देवी श्रीकृष्ण जी की कुलदेवी थी।

कमल पट्ट पर खड़ा रुक्मिणी मंदिर - द्वारका
कमल पट्ट पर खड़ा रुक्मिणी मंदिर – द्वारका

रुक्मिणी मंदिर के बाहर एक इकलौता मंडप था जिसका उद्देश्य मैं समझ नहीं पायी। मंदिर के बाहर साधुओं का एक झुण्ड बैठा हुआ था जिनके पास रुक्मिणी का चित्र भी था।

रुक्मिणी मंदिर के बाहर साधुओं का जमघट
रुक्मिणी मंदिर के बाहर साधुओं का जमघट

रुक्मिणी का मंदिर, द्वारका के मुख्य मंदिरों से भले ही छोटा हो किन्तु रुक्मिणी देवी के समान उनका मंदिर भी अपने आप में अनोखा है। अप्रतिम मंदिरों से भरी द्वारका नगरी के बाहर स्थित इस मंदिर की अपनी ही एक विशिष्टता है।

आखिर रुक्मिणी मंदिर द्वारका नगरी के बाहर क्यों बनाया गया?

गोपी तलाव के पास रुक्मिणी मंदिर
गोपी तलाव के पास रुक्मिणी मंदिर

इसके पीछे भी एक मनोरंजक कथा है। कहा जाता है कि यादवों के कुलगुरु, ऋषी दुर्वासा का आश्रम द्वारका से कुछ दूरी पर, पिंडारा नामक स्थान में था। एक बार श्रीकृष्ण व रुक्मिणी के मन में उनका अतिथी सत्कार करने की इच्छा उत्पन्न हुई। वे दोनों अपने रथ में सवार होकर ऋषी को निमंत्रण देने उनके आश्रम पहुंचे। ऋषि दुर्वासा का चिड़चिड़ा स्वभाव तथा त्वरित क्रोध किसी के छुपा नहीं है। दुर्वासा ऋषि ने कृष्ण रुक्मिणी का आमंत्रण स्वीकार तो किया किन्तु एक शर्त भी रख दी। शर्त थी कि उन्हें ले जाने वाले रथ को न तो घोड़े हांकेंगे ना ही कोई अन्य जानवर। बल्कि रथ को केवल कृष्ण व रुक्मिणी हांकेंगे। कृष्ण व रुक्मिणी ने उनकी मांग सहर्ष स्वीकार कर ली।

और पढ़ें – बेट द्वारका महाभारत की स्वर्णिम नगरी के दर्शनीय स्थल

चूंकि रुक्मिणी एक रानी थी, इन्हें रथ हांकने का कोई अनुभव नहीं था। कुछ समय पश्चात वे थक गयीं व प्यास से उनका कंठ सूखने लगा। उन्होंने कातर दृष्टी से कृष्ण की ओर देखा। स्थिति को भांप कर कृष्ण ने शीघ्र अपने दाहिने चरण का अंगूठा धरती पर दबाया। और वहीं गंगा नदी प्रकट हो गयीं। यहाँ रुक्मिणी से एक बड़ी भूल हो गयी। तृष्णा से वशीभूत रुक्मिणी दुर्वासा मुनि से जल ग्रहण का आग्रह करना भूल गयी तथा उनसे पूर्व, स्वयं ही जल ग्रहण कर लिया। यह देख दुर्वासा मुनि कुपित हो गए। उन्होंने तुरंत ही कृष्ण व रुक्मिणी को विछोह का श्राप दे डाला। यही कारण है कि रुक्मिणी का मंदिर कृष्ण मंदिर से दूर बनाया गया है। मानो वे अब भी दुर्वास मुनि के श्राप को जी रहे हों।

रुक्मिणी विवाह का निमंत्रण पत्र
रुक्मिणी विवाह का निमंत्रण पत्र

लोगों का कहना है कि कृष्ण व रुक्मिणी को श्राप देकर भी दुर्वासा मुनि का क्रोध शांत नहीं हुआ। उन्होंने द्वारका नगरी को भी बंजर हो जाने का श्राप दे दिया। उनके श्राप का प्रभाव आज भी यहाँ देखा जा सकता है। द्वारका के आसपास की धरती सूखी व बंजर है जिस पर कुछ उगता नहीं । यहाँ के लोग नमक बना कर अपना जीवन यापन करते हैं।

यह कथा है रुक्मिणी मंदिर के नगर बाहर स्थापना करने का कारण!

जैसा कि मैंने आपको मेरे बेट द्वारका के संस्मरण में बताया था, द्वारकाधीश मंदिर में भी रुक्मिणी, स्व:रूप में ना होकर, महालक्ष्मी रूप में विराजती हैं।

रुक्मिणी का पृथक् सा एक छोटा मंदिर गोपी तलाव में भी है।

रुक्मिणी देवी से जुड़ी कुछ और कथाएं

रुक्मिणी देवी से जुड़ी कुछ ३-४ कथाएं प्रसिद्ध हैं जो अधिकतर श्रीमद भागवत से आयी हैं।

कृष्ण – रुक्मिणी विवाह

कृष्ण रुक्मिणी विवाह
कृष्ण रुक्मिणी विवाह

रुक्मिणी विदर्भ की राजकुमारी थी। विदर्भ अर्थात् वर्तमान में नागपुर के आसपास का क्षेत्र। इसी कारण उन्हें वैदर्भी भी पुकारा जाता है। रुक्मिणी विदर्भ-राज भीष्मक की सुपुत्री थी। उनका विवाह चेदि राजा शिशुपाल के संग तय किया गया था। रुक्मिणी को यह विवाह स्वीकार्य नहीं था। उन्होंने नारद मुनि तथा कई अन्य महानुभावों से श्री कृष्ण के इतने गुणगान सुने थे कि उन्होंने कृष्ण संग विवाह का मन बना लिया था। भागवत पुराण के अनुसार, गुणों के आधार पर रुक्मिणी केवल कृष्ण को ही स्वयं हेतु योग्य वर मानती थी।

कहा जाता है कि भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार रुक्मिणी अब तक की सर्वाधिक सुन्दर स्त्री है। क्यों ना हो! वे महालक्ष्मी की अवतार जो हैं। लक्ष्मी के रूप में वे नारायण की शक्ति हैं तथा रुक्मिणी रूप में कृष्ण की।

रुक्मिणी पत्र

रुक्मिणी पत्र
रुक्मिणी पत्र

श्रीकृष्ण की ख्याति से प्रभावित होकर रुक्मिणी ने उन्हें अपना वर मान लिया था। शिशुपाल संग विवाह निश्चित किये जाने पर उन्होंने कृष्ण को एक प्रेम पत्र लिखा था जो कुल सात श्लोकों में सीमित था। पत्र में उन्होंने कृष्ण के समक्ष स्वयं का अपहरण कर ले जाने का आग्रह किया। विवाह पूर्व मंदिर दर्शन हेतु जाते समय अपहरण करने की भी सलाह दी। यह पत्र उन्होंने एक पत्रवाहक द्वारा भिजवाया था। कुछ का मानना है कि पत्रवाहक एक ब्राम्हण था तो कुछ के अनुसार रुक्मिणी ने यह पत्र हनुमान के हाथों भिजवाया था। कुछ लोग कहते हैं कि पत्रवाहक गरुड़ थे।

इस पत्र की छपी प्रति द्वारका के रुक्मिणी मंदिर में उपलब्ध है। मैंने इस पत्र का हिंदी संस्करण उठाया। श्वेत पन्ने पर लाल अक्षरों में लिखे इस पत्र में मूल ७ श्लोक तथा हिंदी में उनके अर्थ अंकित हैं। वैसे तो प्रकाण्ड पंडित घंटों इसकी व्याख्या कर सकते हैं। फिर भी इस पत्र में विस्तार पूर्वक की गयी अर्थ-विवेचना पर्याप्त है।

और पढ़ें – भारत के ५० नगर देवी के नाम पर आधारित 

पत्र का आरम्भ रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण गुणगान से किया है। तत्पश्चात प्रेम प्रकट कर उनसे विवाह करने की इच्छा व्यक्त की है। शिशुपाल संग उनके विवाह समारोह के मध्य अपहरण की योजना उन तक पहुंचाई। साथ ही भावी युद्ध तथा रक्तपात की आशंका भी जताई। जन्म जन्मान्तर तक उनकी प्रतीक्षा करते रहने के प्रण की जानकारी देते हुए उलाहना भी दी।

रुक्मिणी पत्र पठन

द्वारकाधीश मंदिर में प्रत्येक रात्री, कृष्ण की निद्रा पूर्व, इस पत्र का पठन किया जाता है। कहा जाता है कि इच्छित प्रेमी के संग विवाह की आस रखती प्रत्येक स्त्री को इसका पठन करना चाहिए।

कृष्ण-रुक्मिणी विवाह की कथा पर लौटते हुए आगे की घटना की चर्चा करते हैं। पूर्वयोजना अनुसार श्री कृष्ण रुक्मिणी के अपहरण में सफल हो गए। तत्पश्चात चैत्र मास की एकादशी को पोरबंदर के निकट स्थित माधवपुर खेड नामक एक गाँव में वे दोनों विवाह बंधन में बंध गए। द्वारका पहुंचकर कृष्ण व रुक्मिणी ने एक बार फिर अपना विवाह रचाया।

आज भी द्वारका में कृष्ण-रुक्मिणी विवाह का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। प्रत्येक वर्ष इस दिन द्वारकाधीश मंदिर से कृष्ण की बारात निकलती है तथा रुक्मिणी मंदिर पहुंचती है जहां उनका विवाह-संस्कार किया जाता है। द्वारका सहित बेट द्वारका तथा माधवपुर खेड में भी यह प्रथा अनवरत चली आ रही है।

रुक्मिणी को ९ पुत्ररत्नों तथा एक सुपुत्री के मातृत्वसुख की प्राप्ति हुई। कालान्तर में उनका पुत्र प्रद्युमन श्री कृष्ण का उत्तराधिकारी बना।

तुलाभार

रुक्मिणी - महालक्ष्मी के स्वरुप में
रुक्मिणी – महालक्ष्मी के स्वरुप में

इस कथा के अनुसार एक बार नारद मुनि ने श्रीकृष्ण की तृतीय पत्नी सत्यभामा के मन में यह कहकर शंका उत्पन्न की, कि कृष्ण का रुझान रुक्मिणी की ओर अधिक है। कृष्ण के प्रति प्रेम सिद्ध करने हेतु उनके भार के बराबर संपत्ति दान देने के लिए कहा। चुनौती स्वीकार करते हुए सत्यभामा ने तुला के एक पलड़े पर कृष्ण को बैठने का आग्रह किया। किन्तु तुला के दूसरे पलड़े पर अपनी सम्पूर्ण संपत्ति रखने के पश्चात भी कृष्ण के भार को पार नहीं कर पायी। पराजय के भय से सत्यभामा ने कृष्ण की अन्य पत्नियों से मदद माँगी। उनकी सम्पूर्ण संपत्ति भी सत्यभामा की सहायता करने में असफल रही। अंततः हारकर सत्यभामा ने रुक्मिणी से सहायता करने का आग्रह किया।

कृष्ण के प्रति निश्छल प्रेम तथा अगाध भक्ति ह्रदय में लिए रुक्मिणी ने केवल एक तुलसी के पत्ते को तुला के दूसरे पलड़े पर रखा। और तुलाभार दूसरी ओर झुक गया! अतः कृष्ण को केवल भक्ती एवं समर्पण से पाया जा सकता है, ना कि धन संपत्ति द्वारा।

यह विरोधाभास ही है कि तुलाभार की प्रथा आज भी द्वारका में प्रचलित है। गोमती नदी के किनारे रखे एक तुलाभार पर भक्तगण अपने भार के बराबर ७ प्रकार के विभिन्न धान्य दीन-दुखियों को दान करते हैं। द्वारका यात्रा के समय इस प्रकार दान करना कथित रूप से मोक्ष प्राप्ति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है।

पंढरपुर में रुक्मिणी

सुदामा को पंखा करती रुक्मिणी
सुदामा को पंखा करती रुक्मिणी

Talking Myths’ इस वेब पोर्टल के अनुसार रुक्मिणी को महाराष्ट्र के पंढरपुर तक लाने के पीछे भी एक मनोरंजक कथा है। कृष्ण की मुख्य रानी होने के कारण सर्व गोपियों तथा अन्य रानियों को रुक्मिणी का सम्मानपूर्वक अभिवादन करना आवश्यक था। एक बार जब वह कृष्ण के संग थी, राधा ने उठकर उनका अभिवादन नहीं किया। इससे क्रोधित होकर रुक्मिणी ने द्वारका छोड़ दी तथा रूठकर डिंडीर्वन आ गयी। डिंडीर्वन वर्तमान में पंढरपुर के नाम से जाना जाता है।

कहा जाता है कि कृष्ण, उनकी गउएँ, गंगा तथा गोवर्धन पर्वत भी रूठी रुक्मिणी को मनाने उनके पीछे पीछे चल दिए। अंततः कृष्ण उनको मनाने में सफल हो गए। तब दोनों ने मिलकर दही तथा मक्के से दहीकाला नामक पदार्थ बनाकर सब उपस्थित शुभचिंतकों को प्रीतिभोज कराया। इसी प्रथा को जीवंत रखते हुए आज भी वार्षिक पंढरपुर यात्रा के समय भक्तों को दहीकाला परोसा जाता है।

द्वारका में हुई कृष्ण-सुदामा की विशिष्ठ भेंट की गाथा कहते हुए भी रुक्मिणी का स्मरण किया जाता है। कृष्ण ने उनसे सुदामा को पंखा झलने का आग्रह किया था। उनके आतिथ्य-सत्कार के सर्व प्रबंध का उत्तरदायित्व भी कृष्ण ने रुक्मिणी को दिया था। यह और बात है कि रुक्मिणी द्वारा पंखा झलवाने के लिए आखिर सुदामा ने क्या किया, यह कईयों को असमंजस में डाल देता है।

रुक्मिणी से सम्बंधित और भी कई कथाएं होंगीं जिन्हें आप इस सूची में सम्मिलित करना चाहेंगे। मुझे आपके योगदान की प्रतीक्षा रहेगी।

द्वारका पर एक वीडिओ

अपनी द्वारका यात्रा के समय मेरे द्वारा लिए गए इस विडियो पर अवश्य दृष्टी डालिए।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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