छत्तीसगढ़ Archives - Inditales https://inditales.com/hindi/category/भारत/छत्तीसगढ़/ श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Wed, 06 Mar 2024 10:58:54 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 मैनपाट पर्वत छत्तीसगढ़ का तिब्बत https://inditales.com/hindi/mainpat-bouddh-math-chhattisgarh/ https://inditales.com/hindi/mainpat-bouddh-math-chhattisgarh/#respond Wed, 10 Jul 2024 02:30:58 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3642

छत्तीसगढ़ के मैनपाट क्षेत्र का भगवान राम से प्रगाढ़ संबंध है। मैनपाट क्षेत्र का उल्लेख रामायण में किया गया है। रामायण के अनुसार श्री राम ने अपने वनवास काल में मैनपाट क्षेत्र में भी निवास किया था। इस क्षेत्र के आदिवासी जनजातियों से उन्होंने भेंट की थी तथा उनसे वार्तालाप भी किया था। बौद्ध धर्म […]

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छत्तीसगढ़ के मैनपाट क्षेत्र का भगवान राम से प्रगाढ़ संबंध है। मैनपाट क्षेत्र का उल्लेख रामायण में किया गया है। रामायण के अनुसार श्री राम ने अपने वनवास काल में मैनपाट क्षेत्र में भी निवास किया था। इस क्षेत्र के आदिवासी जनजातियों से उन्होंने भेंट की थी तथा उनसे वार्तालाप भी किया था।

बौद्ध धर्म का इस क्षेत्र से कदापि संबंध नहीं था, यद्यपि यह वाराणसी से अधिक दूर नहीं है। इसीलिए यहाँ फलती-फूलती तिब्बती बस्तियों को देखना मेरे लिए अत्यंत विस्मय का विषय था। यहाँ तिब्बती बस्तियों का होना कोई प्राचीन ऐतिहासिक घटना नहीं है, अपितु यह नवागत इतिहास का परिणाम है।

लगभग ५० किलोमीटर दूर स्थित अम्बिकापुर से मैनपट पहुँचने के लिये दो मार्ग हैं। एक अम्बिकापुर-सीतापुर मार्ग द्वारा, अन्यथा दरिमा ग्राम से होते हुए मैनपट पहुँचा जा सकता है।

सघन वनों के मध्य से पहाड़ी पर चढ़ते हुए कमलेश्वरपुर पहुँचते हैं जहाँ पर्वत शिखर पर बौद्ध संस्कृति से प्रभावित एक जलपानगृह है। मैं यह विश्वास से कह सकती हूँ कि सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के सर्वोत्तम जलपानगृहों में इस जलपान गृह की गणना की जा सकती है। इस जलपानगृह के अतिरिक्त आप यहाँ मैनपट तिब्बती बस्ती भी देखेंगे।

मैनपाट तिब्बती बस्ती

सन् १९६२-६३ में कई तिब्बतियों ने भारत स्थानांतरण किया था। भारत सरकार ने इन शरणार्थियों को भारत के विभिन्न क्षेत्रों में भूमि आबंटित की थी। उन भूभागों में से अनेक अब लोकप्रिय पर्यटन आकर्षण बन गये हैं।

ताप्को बौद्ध मठ - मैनपाट छत्तीसगढ़
ताप्को बौद्ध मठ – मैनपाट छत्तीसगढ़

उस काल में मध्यप्रदेश सरकार ने लगभग १४०० विस्थापित तिब्बतियों को ३००० एकड़ भूमि का आबंटन किया था। वर्तमान में यह संख्या लगभग २३०० हो गयी है। उन्होंने निवास करने के लिए विशेष रूप से मैनपट पर्वत का चयन किया क्योंकि तराई तथा मैदानी क्षेत्रों का उष्ण वातावरण उन्हे असहनीय था। तिब्बतीय क्षेत्रों के अनुरूप उन्हे यह स्थान अधिक शीतल तथा अनुकूल प्रतीत हुआ था।

मैनपाट पर्वतीय क्षेत्र एक सघन वनीय प्रदेश था। तिब्बती बस्ती का निर्माण करने के लिए कई वृक्षों की कटाई की गयी थी। प्रारंभ में सभी तिब्बती शरणार्थियों के लिए एक विशाल शिविर बनाया गया था। कालांतर में सात भिन्न भिन्न शिविरों का निर्माण हुआ जो सम्पूर्ण पर्वत पर फैले हुए हैं।

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मैनपाट पर्वत पर बसने के पश्चात इन तिब्बतियों ने भेड़ें चराना आरंभ किया जिसमें वे पूर्वतः अभ्यस्त थे। किन्तु वह जीविका के साधन के रूप में एक विफल प्रयास सिद्ध हुआ। इसके फलस्वरूप धर्मशाला में स्थित उनके मुख्य कार्यालय द्वारा उन्हे कृषि उद्योग में प्रशिक्षण दिया गया जिसके पश्चात उन्होंने खेती करना आरंभ किया। यहाँ आलू एवं कुट्टू की उत्तम उपज होती है।

बौद्ध पताकाएं - मैनपाट
बौद्ध पताकाएं – मैनपाट

अब वे सहकारी समिति प्रकल्प के अंतर्गत सूक्ष्म-ऋण, कृषि-यंत्रीकरण तथा आटा चक्की जैसे उद्यमों में नित-नवीन प्रयोग कर रहे हैं। एक दीर्घ काल तक हस्तकला की कृतियाँ निर्मित करना भी उनका प्रमुख व्यवसाय रहा। यह प्रकल्प भी वित्तीय मानदंडों पर खरा नहीं उतर पाया। अंततः उन्होंने अपनी जीविका के लिए कृषि एवं कृषि उत्पादन का चयन किया।

तकपो मठ

तिब्बती बस्ती में भ्रमण करते हुए आप एक छोटा स्वच्छ गाँव देखेंगे जहाँ कुछ विशाल भवन हैं। इन भवनों में केवल मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध हैं। एक बौद्ध मंदिर है जिसे तकपो मठ कहा जाता है। मठ के भीतर एक वेदी पर दलाई लामा का चित्र रखा हुआ है।

सम्पूर्ण क्षेत्र में गेरूएं रंग के पारंपरिक बौद्ध चोगे धारण किये अनेक नवयुवक लामा तथा किशोर लामा दृष्टिगोचर होते रहते हैं। मार्ग के दोनों ओर बहुरंगी प्रार्थना पताकाएं फड़फड़ाते रहते हैं। सम्पूर्ण पर्वत पर फहराते प्रार्थना ध्वजों के मध्य अनेक श्वेत व सुनहरे गुंबद दृष्टिगोचर होते हैं।

भारत के अन्य क्षेत्रों के नवयुवकों के अनुरूप यहाँ के नवयुवक लामा भी मोटरसाइकिल की सवारी करते हैं। स्त्रियाँ अपने पारंपरिक वस्त्र धारण करती हैं तथा अपने दैनंदिनी क्रियाकलापों में व्यस्त दिखाई पड़ती हैं। वहीं नन्हे बालक भी लाल चोगा धारण किये विविध क्रीडा में रत हिंडोले खाते दिखाई देते हैं। वे पर्यटकों से बतियाने में भी उत्सुक रहते हैं। उन्हे अपनी बस्ती का भ्रमण कराने में भी अत्यंत आनंद आता है।

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गाँव में पदभ्रमण करते हुए मुझे एक स्वास्थ्य केंद्र दिखाई पड़ा। साथ ही एक वृद्धाश्रम भी दिखा। खिन्न मन से सोच में पड़ गयी कि इतनी छोटी सी बस्ती में भी वृद्धों के लिए पृथक आवास की आवश्यकता पड़ी! आरंभ में आए शरणार्थियों में से अब कुछ ही शेष रह गये हैं। नवीन पीढ़ी के लिए यही उनका मूल आवास है।

एक आगंतुक के रूप में जब आप इन्हे देखेंगे तो आपको अपने घरों में निवास करते, फिर भी विस्थापित समुदाय की प्रतीति होगी।

पर्यटन आकर्षण

तिब्बती बस्ती के सीमावर्ती क्षेत्र में, जलपानगृह के समीप, सर्व-सुविधा सम्पन्न तंबू आवास क्षेत्र है जिसे स्विस टेंट कैम्प क्षेत्र कहते हैं। यहाँ से घाटी का सुंदर परिदृश्य दृष्टिगोचर होता है। मानसून काल में यह अप्रतिम प्राकृतिक दृश्यों से परिपूर्ण एक शांति प्रदायक स्थल हो जाता है।

इस पर्वत पर अनेक स्थानों पर परिदृश्य अवलोकन बिन्दु हैं जिनके नाम भी अन्य पर्वतीय क्षेत्रों के अवलोकन बिंदुओं के नामों जैसे ही हैं, जैसे टाइगर पॉइंट आदि। किसी काल में यहाँ बाघों के दर्शन हो जाते थे। एक अन्य अवलोकन बिन्दु है, मछली पॉइंट। यहाँ से बहती नदी को मछली नदी कहते हैं। कुछ अन्य पर्यटन स्थल हैं, बगीचा तथा जलजला किन्तु हम उनका अवलोकन नहीं कर पाये।

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पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण मैनपट को एक रोमांचक पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित करने की योजना है। इस योजना को पूर्ण होने में अभी कुछ समय तथा पर्याप्त परिश्रम शेष है। किन्तु तब तक आप इसके प्राकृतिक सौन्दर्य का आनंद लेने यहाँ आवश्य आ सकते हैं।

मैनपाट पर्वत के आसपास के क्षेत्र में बॉक्साइट अयस्क की खानें हैं। आप इन खदानों से उत्खनित लाल-भूरे रंग के भंगुर अयस्क खंडों को ले जाती ट्रकों को पहाड़ी के उतार-चढ़ाव पार करते देख सकते हैं। बॉक्साइट एल्युमिनियम का अयस्क है। इन अयस्क ट्रकों के लिए पर्वत शिखर तक जाने के लिए पृथक मार्ग निश्चित किया गया है। सम्पूर्ण उत्खनन क्षेत्र को अस्थाई भित्तियों से सीमाबद्ध किया। ये भित्तियाँ भी बॉक्साइट अयस्क खंडों द्वारा बनाई गयी हैं।

गुरु शिष्य परंपरा का चित्रण
गुरु शिष्य परंपरा का चित्रण

मेरे छत्तीसगढ़ दर्शन कार्यक्रम में मैनपट भ्रमण एक अनपेक्षित किन्तु सुखद आश्चर्य था।

मैनपाट से ५ किलोमीटर की दूरी पर बिसार पानी अथवा उलटा पानी नाम का एक अनोखा स्थान है। यहाँ एक नदी की जलधारा गुरुत्वाकर्षण के विपरीत ऊपर की ओर बहती है। यह एक दृष्टि-भ्रम है अथवा गुरुत्वाकर्षण को चुनौती देती कोई घटना, कुछ कहा नहीं जा सकता।

यात्रा सुझाव

मैनपाट अम्बिकापुर से लगभग ५५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। अम्बिकापुर देश के अन्य भागों से वायु मार्ग, सड़क मार्ग तथा रेल मार्ग द्वारा सुविधाजनक रूप से सम्बद्ध है।

आप स्विस टेंट में निवास कर सकते हैं अथवा अम्बिकापुर से एक-दिवसीय यात्रा के रूप में मैनपट भ्रमण कर सकते हैं।

मैनपाट प्रकृति प्रेमियों तथा पदयात्रा प्रेमियों के लिए उत्तम पर्यटन स्थल है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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ताला का देवरानी-जेठानी का मंदिर, बिलासपुर, छत्तीसगढ़  https://inditales.com/hindi/tala-bilaspur-devrani-jethani-mandir/ https://inditales.com/hindi/tala-bilaspur-devrani-jethani-mandir/#respond Wed, 20 Dec 2023 02:30:04 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=839

ताला और मल्हार जैसे नाम सुनते ही सबसे पहले आपके दिमाग में एक ऐसी जगह आती है जो संगीत से जुड़ी हो, लेकिन वास्तव में यह जगह छत्तीसगढ़ की वास्तुकला संबंधी विरासत का प्रमुख केंद्र है। मनियारी और शिवनाथ नदी के संगम बिन्दु के आस-पास बसी इस जगह पर शायद शैव पंथियों का प्रभुत्व है, […]

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ताला और मल्हार जैसे नाम सुनते ही सबसे पहले आपके दिमाग में एक ऐसी जगह आती है जो संगीत से जुड़ी हो, लेकिन वास्तव में यह जगह छत्तीसगढ़ की वास्तुकला संबंधी विरासत का प्रमुख केंद्र है। मनियारी और शिवनाथ नदी के संगम बिन्दु के आस-पास बसी इस जगह पर शायद शैव पंथियों का प्रभुत्व है, हालांकि इस क्षेत्र में आपको कदम-कदम पर रामायण से जुड़े उपाख्यान सुनने को मिलते हैं।

ताला बिलासपुर का देवरानी जेठानी मंदिर परिसर
ताला बिलासपुर का देवरानी जेठानी मंदिर परिसर

हमे बताया गया कि ताला विशेष रूप से तांत्रिक विद्याओं और प्रथाओं के लिए प्रचलित है।

तो चलिये ताला में स्थित देवरानी – जेठानी के इन दो मंदिरों के बारे में जानते हैं।

बिलासपुर – छत्तीसगढ़ के पर्यटन स्थल

देवरानी – जेठानी का मंदिर

यहाँ पर दो प्राचीन मंदिरों के अवशेष पाए जाते हैं। दोनों मंदिर एक-दूसरे से कुछ ही मीटर की दूरी पर बसे हुए हैं।  सार्वजनिक रूप से यह देवरानी – जेठानी के मंदिरों के नाम से जाने जाते हैं। उपाख्यान बताते हैं, कि ये मंदिर यहाँ के राजसी परिवार के दो भाइयों की पत्नियों के लिए बनवाए गए थे।

जेठानी मंदिर

जेठानी का मंदिर अब पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है। एक समय में जो पत्थर मंदिर के रूप में खड़े हुआ करते थे, वे आज एक-दूसरे के ऊपर ऐसे ही पड़े हुए हैं। इन पत्थरों पर उत्कीर्णित विविध आकृतियाँ छोटे-छोटे कोनों से बाहर झाँकती हुई नज़र आती हैं।

मंदिर के अवशेष
मंदिर के अवशेष

यहाँ पर आप उत्कीर्णित हाथी भी देख सकते हैं, जो शायद मंदिर के प्रवेश द्वार पर खड़े हुआ करते थे। यहाँ पर कुछ टूटे हुए उत्कीर्णित स्तंभ भी हैं जो कभी इस मंदिर की छत का भार संभालते थे। इसके अतिरिक्त आप मंदिर की पूरी की पूरी छत जमीन पर बिखरी पड़ी हुई देख सकते हैं।

देवरानी मंदिर

देवरानी के मंदिर का आधारभूत मंच आज भी ज्यों का त्यों हैं और इसी के साथ मुख्य मंदिर तक जाती सीढ़ियाँ भी वैसी की वैसी हैं। इस मंदिर के द्वार की चौखट पर भी गुजरते हुए काल से हुई क्षति के ज्यादा निशान नहीं मिलते। यह चौखट आज भी इस प्रकार खड़ी है, जैसे कि वह आपको इस मंदिर के गौरवपूर्ण अतीत की झलकियाँ प्रदान कर रही हो। यह पूरी चौखट जटिल और नाजुक नक्काशी काम से सजी हुई है।

मंदिर के उत्कीर्णित पाषाण द्वार
मंदिर के उत्कीर्णित पाषाण द्वार

उसकी मोटी-मोटी दीवारों पर विस्तृत रूप से सिंह की मुखाकृतियाँ और मनुष्यों की आकृतियाँ उत्कीर्णित की गयी हैं, जो शायद किसी कथा का बयान करती हैं या फिर किसी घटना को दर्शाती हैं। उसके कोने गुलाब की वेणियों के रूप में तराशे गए हैं, जो विभिन्न आकारों में बनी हुई हैं। इस चौखट की सीधी किनारी पर कमल की वेणियाँ तराशी गयी हैं।

यहाँ पर खड़े स्तंभों के ऊपर अमलका बने हुए हैं और उनके मूल में पूर्ण घटक हैं। इस चौखट के ऊपरी भाग पर दिव्य आकृतियाँ बनी हुई हैं और उसी के नीचे वाली पट्टिका पर शायद देवी-देवताओं की आकृतियाँ बनी हुई हैं, जिन्हें ठीक से पहचानना थोड़ा मुश्किल है। तो कुछ पट्टिकाओं पर नृत्य करते पुरुषों के चित्र हैं, जिनके पैर असंगत रूप से छोटे हैं; जैसे कि मंदिर के बाहर पड़ी गणेश जी की मूर्ति है।

यहाँ के अधिकतर पत्थरों को जोड़ने का प्रयास किया गया है। इन पत्थरों को देखते हुए यह बता पाना थोड़ा मुश्किल है कि ये सभी पत्थर उसी मंदिर के हैं या नहीं। इस मंदिर का निर्माण इस प्रकार किया गया है कि, मंदिर तक जाती सीढ़ियाँ चढ़कर जब आप ऊपर पहुँचते हैं तो उस उच्चतम स्थान बिन्दु पर आपको मंदिर का गर्भ-गृह नज़र आता है। मंदिर के अवशेषों से यह बता पाना थोड़ा कठिन है कि उसकी शिखर किस प्रकार की थी। लेकिन भौगोलिक दृष्टि से देखा जाए तो उड़ीसा और खजुराहो के बीच बसे होने के कारण यह कहा जा सकता है कि शायद उसकी शिखर नागर शैली में बनाई गई होगी।

श्री सिद्धनाथ आश्रम

ताला के देवरानी – जेठानी के इन मंदिरों तक पहुँचने के लिए आपको अपेक्षाकृत कुछ नए मंदिरों से होकर गुजरना पड़ता है। इन मंदिरों तक जाने वाले मार्ग पर बने मेहराब पर नज़र आनेवाले बड़े-बड़े अक्षरों के अनुसार इस जगह को श्री सिद्धनाथ आश्रम के नाम से जाना जाता है। इस आश्रम का निर्माण 2008 में किया गया था।

संग्रहालय में ऋषि मूर्ति
संग्रहालय में ऋषि मूर्ति

इन प्राचीन मंदिरों के पास खड़े सफ़ेद त्रिकोणी शिखरोंवाले ये नए मंदिर काफी आकर्षक लग रहे थे। यहाँ पर एक छोटा सा अस्थायी संग्रहालय है जिसमें इस जगह से, खुदाई के दौरान प्राप्त कुछ मूर्तियाँ रखी गयी हैं। इन में से कुछ टूटी हुई मूर्तियों को सीमेंट के प्रयोग से फिर से संपूर्णता प्रदान करने की कोशिश की गयी है। मेरे विचार से अगर यह कार्य संरक्षण संस्थाओं को सौपा जाता तो शायद वे इससे भी बेहतर कार्य करतीं।

इन मूर्तियों के संबंध में भी यहाँ पर कोई दस्तावेजीकरण नहीं मिलता। यहाँ तक कि इन मंदिरों से संबंधित जानकारी प्रदान करने वाले सूचना फलकों को भी थोड़ी-बहुत मरम्मत की आवश्यकता है। और अगर इन सूचना फलकों को अंग्रेज़ी में भी प्रस्तुत किया गया तो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों के लिए इन्हें समझना और भी आसान हो सकता है।

कहा जाता है कि ताला ये सभी मंदिर मनियारी नदी के किनारे बसे हुए हैं, लेकिन हो सकता है कि मैं इस वास्तुकलात्मक विरासत में इतनी खो गयी थी की नदी की तरफ मेरा ध्यान ही नहीं गया; या फिर शायद यह नदी उतनी नजदीक नहीं थी कि हम उसे देख पाते।

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देवबलोदा का रहस्यमयी शिव मंदिर – रायपुर छत्तीसगढ़ https://inditales.com/hindi/deobaloda-shiv-mandir-raipur-chhattisgarh/ https://inditales.com/hindi/deobaloda-shiv-mandir-raipur-chhattisgarh/#respond Wed, 01 Mar 2023 02:30:55 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2987

भगवान शिव का यह प्राचीन मंदिर छत्तीसगढ़ राज्य के देवबलोदा नामक गाँव की गोद में बसा हुआ है जो राजधानी रायपुर से लगभग २२ किमी दूर स्थित है। रायपुर-दुर्ग महामार्ग पर, भिलाई-३ चरोदा की रेल पटरी के किनारे बसे इस सुन्दर गाँव में स्थित यह ऐतिहासिक मंदिर अपनी पुरातनता, इतिहास एवं उत्कृष्ट कारीगरी के साथ […]

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भगवान शिव का यह प्राचीन मंदिर छत्तीसगढ़ राज्य के देवबलोदा नामक गाँव की गोद में बसा हुआ है जो राजधानी रायपुर से लगभग २२ किमी दूर स्थित है। रायपुर-दुर्ग महामार्ग पर, भिलाई-३ चरोदा की रेल पटरी के किनारे बसे इस सुन्दर गाँव में स्थित यह ऐतिहासिक मंदिर अपनी पुरातनता, इतिहास एवं उत्कृष्ट कारीगरी के साथ साथ रहस्यमयी किवदंतियों के लिए भी अत्यंत लोकप्रिय है। अब यह भारतीय पुरातत्व संरक्षण विभाग के अंतर्गत एक संरक्षित क्षेत्र भी है।

कुछ दिनों पूर्व मैं अपने एक पारिवारिक आयोजन में भाग लेने के लिए भिलाई गयी थी। रायपुर के स्वामी विवेकानंद विमानतल से भिलाई की ओर प्रस्थान करते समय मेरी बहिन ने मुझे रायपुर-भिलाई महामार्ग पर स्थित इस प्राचीन मंदिर के विषय में बताया। मुझे यह एक स्वर्णिम अवसर प्रतीत हुआ। हम तुरंत सहमत हो गए कि घर पहुँचने से पूर्व, मार्ग में स्थित इस मंदिर के दर्शन करते हुए चलें। वह एक अत्यंत ही फलदायी निर्णय सिद्ध हुआ।

रायपुर विमानतल से भिलाई की ओर लगभग ३०किमी वाहन चलाकर हमने देवबलोदा गाँव की ओर एक छोटा सा विमार्ग लिया। वर्षा ऋतु होने के कारण हमारे चारों ओर स्थित विशाल वृक्षों की पंक्तियों के मध्य धान के कोमल पौधे हरिवाली की भिन्न भिन्न छटा बिखेर रहे थे। घुमावदार, कच्चे किन्तु स्वच्छ मार्ग से होते हुए हम मंदिर प्रांगण के प्रवेश द्वार पर पहुंचे।

देवबलोदा छत्तीसगढ़ का शिव मंदिर
देवबलोदा छत्तीसगढ़ का शिव मंदिर

वाहन से बाहर आते ही हमारे चारों ओर के परिदृश्यों ने हमारा मन मोह लिया। यह एक स्वच्छ व सुन्दर गाँव है जो छोटे छोटे घरों, विशाल वृक्षों व जलाशयों से भरा हुआ है। प्रांगण के भीतर, प्रवेश द्वार पर ही एक अतिविशाल पीपल का वृक्ष है। पवन के झोंके उसके पत्तों से अठखेलियाँ खेल रहे थे जिससे निकलते मधुर स्वर मन को मोह रहे थे। पीपल के वृक्ष से आगे दृष्टि गई तो इस अप्रतिम प्राचीन मंदिर पर टिक गयी। लाल बलुआ शिलाखंड द्वारा निर्मित यह सुन्दर मंदिर अपूर्ण प्रतीत हो रहा था। इसका रहस्य भी कुछ क्षणों पश्चात खुलने वाला था!

देवबलोदा शिव मंदिर का इतिहास

भारतीय पुरातत्व संरक्षण विभाग द्वारा स्थापित सूचना पटल के अनुसार नागर शैली में निर्मित इस शिव मंदिर का निर्माण १३-१४ सदी में कलचुरी राजवंश के राजाओं ने करवाया था। इस मंदिर को छमासी मंदिर भी कहते हैं।

देवबलोदा शिव मंदिर से जुड़ी किवदंतियां

देवबलोदा के इस प्राचीन व ऐतिहासिक मंदिर से कुछ अत्यंत ही रोचक लोककथाएं जुड़ी हुई हैं। एक किवदंती के अनुसार मंदिर का निर्माण करने वाला शिल्पकार इसे अपूर्ण ही छोड़कर कहीं चला गया। इसी कारण मंदिर के ऊपर शिखर नहीं है।

एक अन्य लोककथा यह कहती है कि जब इस मंदिर का निर्माण किया जा रहा था तब छः मास के लिए अखंड रात्रि छाई हुई थी। इसी कारण इसे छमासी मंदिर अथवा छः मास का मंदिर भी कहा जाता है। किन्तु इस घटना का किसी भी खगोलशास्त्र अथवा इतिहास में कहीं भी उल्लेख नहीं है। मेरे अनुमान से कदाचित इस मंदिर के निर्माण में अत्यधिक समयावधि व्यतीत हुई होगी अथवा शिल्पकार कदाचित केवल रात्रिकाल में ही मंदिर का निर्माण कार्य करता होगा। इसी कारण ऐसा कहा गया होगा।

जगती पर खड़ा लाल बलुआ से बना मंदिर
जगती पर खड़ा लाल बलुआ से बना मंदिर

इस मंदिर से संबंधित एक अन्य रोचक कथा भी अत्यंत लोकप्रिय है। ऐसा माना जाता है कि शिल्पकार मंदिर निर्माण कार्य में इतना तल्लीन था कि उसे किसी की भी सुध नहीं रहती थी। दिवस-रात्रि अनवरत कार्य करते हुए वह इतना लीन हो गया था कि उसे स्वयं का भी भान नहीं रहा। उसके वस्त्र घिस कर नष्ट हो चुके थे तथा वह पूर्णतः निर्वस्त्र हो चुका था। उसकी पत्नी प्रतिदिन उसके लिए भोजन लाती थी।

एक दिवस पत्नी की व्यस्तता के कारण शिल्पकार की बहिन उसके लिए भोजन व कलश में जल लेकर आयी। अपनी बहिन को आते देख उसे अपनी निर्वस्त्र स्थिति का आभास हुआ तथा वह अत्यंत शर्मिंदा हुआ। स्वयं को व बहिन को लज्जित होने से बचाने के लिए वह मंदिर की छत पर चढ़ गया तथा मंदिर के एक ओर स्थित जलकुंड में छलांग लगा दी। अपने भाई को जल समाधि लेते देख बहिन को इतना पश्चाताप हुआ कि उसने मंदिर परिसर के बाहर स्थित तालाब में कलश समेत कूद कर अपनी जान दे दी। हमें बताया गया कि तालाब का जल स्तर नीचे आने पर हम वह कलश देख सकते हैं।

इसी कथा को आगे ले जाते हुए ऐसा कहा जाता है कि मंदिर के जल कुण्ड के नीचे दो कुँए हैं जिनमें से एक वास्तव में एक सुरंग है जो आगे जाकर आरंग नामक गाँव में खुलती है। शिल्पकार को जल में छलांग लगाते से ही यह सुरंग दिखाई दी जिसके द्वारा वह आरंग पहुँच गया। वहाँ जाकर वह एक शैल प्रतिमा में परिवर्तित हो गया। ऐसा कहा जाता है कि आरंग मंदिर में उसकी प्रतिमा अब भी है।

देवबलोदा के गांववासी

 हमें देवबलोदा के गांववासी अत्यंत आत्मीय प्रतीत हुए। वे सभी अत्यंत प्रेम व निच्छल भाव से हमारा स्वागत कर रहे थे। वे हमें अत्यंत सरल प्रतीत हुए। जिनकी भी दृष्टि हम पर पड़ रही थी वे आत्मीयता से हमारा अभिवादन कर रहे थे। हम बहुधा देखते हैं कि किसी भी ऐतिहासिक व पुरातन स्थल पर अधिकाँश सामान्य नागरिकों को मंदिर के विषय में अधिक जानकारी नहीं होती है। किन्तु यहाँ हमने देखा कि उन्हें ना केवल मंदिर, उसके इतिहास व उनसे संबंधित दन्त कथाओं की जानकारी थी, वे उत्साह से हमें बता भी रहे थे। कुछ स्त्रियों ने हमें तालाब में कलश का स्थान भी बताया।

मंदिर की वास्तुकला एवं स्थापत्य

यह पूर्वाभिमुख मंदिर लाल बलुआ पत्थर में बना हुआ है। यह पत्थर स्थानीय प्रतीत नहीं होता। ये शिलाखंड कहाँ से लाये गए, इसकी जानकारी हमें प्राप्त नहीं हुई। मंदिर नागर शैली में निर्मित है। इसमें एक गर्भगृह एवं एक नवरंग मंडप है। मंदिर एक ऊँचे चबूतरे अथना जगती पर स्थित है जिसकी छत चार मुख्य स्तंभों पर टिकी हुई है।

देवबलोदा शिव मंदिर की भित्तियों पर उत्कीर्णित देवी देवता
देवबलोदा शिव मंदिर की भित्तियों पर उत्कीर्णित देवी देवता

मंदिर का शिखर नहीं है जो कदाचित नागर शैली रहा होगा अथवा नियोजित होगा। मंदिर के समक्ष एक मंडप है जिसमें नंदी विराजमान हैं। नंदी के समक्ष मंदिर का मुख्य प्रवेश द्वार है। मंदिर का एक अन्य द्वार भी है जो मंदिर से लगे हुए जलकुंड की ओर खुलता है।

हंसों की पंक्ति, देवता और मानुष
हंसों की पंक्ति, देवता और मानुष

मुख्य द्वार पर स्थित सीढ़ियाँ चढ़ते ही आप उत्कृष्ट रूप से उत्कीर्णित चार मुख्य स्तंभ तथा नवरंग के अन्य स्तंभ देखेंगे। उन पर आप भैरव, विष्णु, महिषासुरमर्दिनी, शिव, कीर्तिमुख तथा अनेक नर्तक व संगीतज्ञ देख सकते हैं। गर्भगृह के प्रवेश द्वार के दोनों ओर अप्रतिम प्रतिमाएं गढ़ी हुई हैं जिनमें आप द्वारपाल, गणेश, भगवान शिव का सम्पूर्ण परिवार तथा अन्य देवी-देवताओं के साथ साथ पुष्प, बेल, लताएँ एवं सर्पाकृतियाँ देख सकते हैं। गर्भगृह के द्वार का अलंकृत चौखट छोटा है जिसके कारण आपको किंचित झुककर प्रवेश करना पड़ता है। वैसे भी कहते हैं ना कि भगवान के समक्ष शीष झुकाकर जाना चाहिए।

गर्भगृह मंडप से लगभग ३ फीट नीचे है। वहाँ उतरने के लिए कुछ सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। गर्भगृह के मध्य में एक ऊँचा शिवलिंग है जिसके दोनों ओर फन फैलाए दो नाग हैं। शिवलिंग के पृष्ठभाग में देवी पार्वती की सुन्दर प्रतिमा है। इनके अतिरिक्त गर्भगृह के भीतर गणेश, हनुमान, जगन्नाथ तथा अन्य देवताओं की भी प्रतिमाएं हैं।

देवबलोदा शिव मंदिर की मनोहर कलाकृतियाँ
देवबलोदा शिव मंदिर की मनोहर कलाकृतियाँ

मंदिर की बाहरी भित्तियों पर शिलाखंडों की कुछ पंक्तियों पर नक्काशी नहीं है क्योंकि मंदिर निर्माण अपूर्ण है। अन्य पंक्तियों पर, कुछ भंगित फलकों को छोड़कर अधिकतर शिलाखंडों पर उत्कृष्ट शिल्पकारी है। उत्कीर्णित शिल्पकारी की विविधता आपको अचरज में डाल देगी। हाथी, घोड़े एवं मानवी आकृतियाँ सहसा ध्यान आकर्षित करते हैं। ढोलक एवं अन्य संगीत वाद्य बजाते स्त्री-पुरुष, तलवार, भालों आदि के साथ युद्ध करते योद्धा, वृक्षों व प्राणियों को दर्शाते दृश्य, शिव-विवाह दृश्य आदि के शिल्प अचरज में डाल देते हैं। एक फलक पर उत्कीर्णित दृश्य में माताएं अपने शिशुओं को उठाये वृक्ष के नीचे खड़ी हैं। अनेक फलकों पर रामायण तथा महाभारत के दृश्य उत्कीर्णित हैं। मंदिर पर की गयी कलाकृतियों के विभिन्न प्रकार देखकर उस काल के राजाओं के कलाप्रेम का आभास होता है।

बैल और हाथी का एक सिर
बैल और हाथी का एक सिर

मंदिर की बाह्य भित्तियों पर अनेक देवी-देवताओं के चित्र उत्कीर्णित हैं। हम ने हिरण्यककश्यप को जांघ पर लिटाकर उसका पेट चीरते विष्णु का नरसिंह अवतार, गणेश, वराह, त्रिशूल धारी भगवान शिव, वैजयंतीमाल धारण किये भगवान विष्णु एवं देवी लक्ष्मी को देखा। वहाँ हमें एक शिल्प अत्यंत रोचक प्रतीत हुआ जिसमें एक बैल एवं एक हाथी का समुच्चय चित्र था। उससे शिल्पकार की कल्पना शक्ति का आभास होता है। वहाँ कुछ कामुक चित्र भी उत्कीर्णित थे। शिलाखंडों की अनेक पंक्तियों पर अब भी शिल्पकारी नहीं की गयी है।

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नंदी मंडप के एक ओर एक काला उंचा शिलाखंड है जिस पर कुछ शिल्पकारी की गयी है। वह किसका प्रतिरूप है, हम नहीं पहचान पाए।

मंदिर का जलकुण्ड एवं तालाब

मंदिर के निकट दो प्रमुख जल स्त्रोत हैं। मंदिर से लगा हुआ एक विशाल चौकोर जलकुण्ड है जो मंदिर के प्रवेश द्वार के दाहिनी ओर स्थित है। मंदिर परिसर के पीछे एक बड़ा तालाब है। दोनों के जल स्वच्छ प्रतीत हो रहे थे। मंदिर के जलकुण्ड में कई मछलियाँ एवं कछुए हैं। ऐसा कहा जाता है कि इस कुण्ड का जल कभी नहीं सूखता।

जलकुण्ड में २३ सीढ़ियाँ हैं तथा इसके भीतर दो कुँए हैं। ऐसा कहा जाता है कि उनमें से एक कुआँ कुण्ड को अनवरत रूप से जल की आपूर्ति करता रहता है। दूसरा कुआँ वास्तव में एक सुरंग है। लोगों का मानना है कि यह सुरंग आरंग नामक एक गाँव में जाकर खुलता है। किन्तु किसी के पास इसका ठोस संज्ञान नहीं है। ना ही इसका कोई वैज्ञानिक अथवा पुरातात्विक प्रमाण है।

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तालाब मंदिर के जलकुण्ड के पीछे स्थित है। इसे करसा तालब या कलश तालाब भी कहते हैं। वहाँ गाँव की कुछ स्त्रियाँ तालाब से जल भर रही थीं। हमने उनसे शिल्पकार की बहिन के कलश के विषय में पूछा क्योंकि जल सतह के ऊपर हमें कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था। उन्होंने कहा कि तालाब के मध्य एक शैल स्तंभ के ऊपर शिलाखंड की ही गोल संरचना है। किन्तु वर्षा के कारण जल स्तर ऊपर आ गया था जिसके कारण वह संरचना उस समय जल के भीतर थी।

मंदिर के उत्सव

प्रत्येक वर्ष शिवरात्रि के समय इस मंदिर में दो-दिवसीय उत्सव आयोजित किया जाता है। यह जनवरी-फरवरी के समय होता है। इस विशाल मेले में भाग लेने के लिए आसपास के गाँवों एवं नगरों से बड़ी संख्या में भक्तगण यहाँ आते हैं तथा श्रद्धा से पूजा अर्चना करते हैं। बड़े उत्साह से मेले के विभिन्न क्रियाकलापों में भाग लेते हैं। इस उत्सव को देवबलोदा उत्सव कहते हैं।

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इस मंदिर में दर्शनार्थी वर्ष भर, सप्ताह के सातों दिवस आते हैं। लोगों को भगवान शिव, मंदिर तथा जलकुंड के जल पर अपार श्रद्धा है। वे जलकुंड के जल को अपने साथ ले जाते हैं तथा घरों में छिड़काव करते हैं। वे इसे अत्यंत शुभ मानते हैं। उनका मानना है कि इस जल में विभिन्न रोगों एवं भूत बाधा जैसे अवांछित तत्वों से मानवों को मुक्ति दिलाने की क्षमता है। जब हम इस मंदिर में आये थे, हिन्दू पंचांग का श्रावण मास चल रहा था। शिव भक्तों के लिए इस मास में भगवान शिव के दर्शन करना व शिवलिंग पर जल चढ़ाना बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। हमने देखा गाँव की अनेक स्त्रियाँ व पुरुष सज-धज कर भगवान के दर्शन करने के लिए आये थे। वे बड़ी श्रद्धा एवं उत्साह से सभी अनुष्ठान कर रहे थे।

अन्य मंदिर

देवबलोदा गाँव में शिव मंदिर की ओर मुड़ने से पूर्व देवी महामाया का एक मंदिर है। जहां भगवान शिव हैं वहाँ उनकी शक्ति भी अवश्य होगी।

कैसे पहुंचें

देवबलोदा के शिव मंदिर रायपुर में कहीं से भी आसानी से पहुंचा जा सकता है। यह रायपुर-दुर्ग महामार्ग पर भिलाई-३, चरोदा से एक छोटे से विमार्ग पर स्थित है। यह रायपुर विमानतल से लगभग ३५ किमी तथा रायपुर रेल स्थानक से लगभग २० किमी दूर है।

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अचानकमार वन्यजीव अभयारण्य से जुड़े उपाख्यान और मिथक, छत्तीसगढ़  https://inditales.com/hindi/achanakmar-vanya-jeevan-abhyaranya-chhattisagrh/ https://inditales.com/hindi/achanakmar-vanya-jeevan-abhyaranya-chhattisagrh/#respond Wed, 29 Dec 2021 02:30:52 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=833

छत्तीसगढ़ के उत्तरी भाग में बसे इस अचानकमार वन्यजीव अभयारण्य में हम देर रात को पहुंचे। यद्यपि उस अंधेरी रात में हम आस-पास के ऊंचे-ऊंचे पेड़ देख सकते थे, लेकिन इसके अलावा हमे वहाँ पर और कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। हम जंगल के विभिन्न भागों के प्रवेश स्थलों पर स्थित नाकों को पार […]

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छत्तीसगढ़ के उत्तरी भाग में बसे इस अचानकमार वन्यजीव अभयारण्य में हम देर रात को पहुंचे। यद्यपि उस अंधेरी रात में हम आस-पास के ऊंचे-ऊंचे पेड़ देख सकते थे, लेकिन इसके अलावा हमे वहाँ पर और कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। हम जंगल के विभिन्न भागों के प्रवेश स्थलों पर स्थित नाकों को पार करते हुए आगे बढ़ते गए और अंत में अमाडोब आश्रय घर के पास जाकर रुके, जहाँ पर हम ठहरे हुए थे। वहाँ पहुँचते ही आश्रय घर के कर्मचारियों ने बड़ी ही प्रसन्नता से हमारा स्वागत किया। उसके बाद अपने कमरे की ओर जाने से पहले मैंने आश्रय घर के प्रबंधक के साथ थोड़ी बातचीत की।

अचानकमार वन्य प्राणी अभ्यारण्य छत्तीसगढ़
अचानकमार वन्य प्राणी अभ्यारण्य छत्तीसगढ़

उन्होंने मुझे अचानकमार वन्यजीव अभयारण्य में स्थित तथा उसके आस-पास स्थित कुछ महत्वपूर्ण स्थलों के बारे में बताया। यह अभयारण्य एक टाईगर रिजर्व भी है जो बाघ परियोजना का एक भाग है। इस अभयारण्य से जुड़े एक उपाख्यान के अनुसार कहा जाता है कि बहुत साल पहले यहाँ पर एक बाघ द्वारा हुए अचानक आक्रमण के कारण एक अंग्रेज़ व्यक्ति की मौत हुई थी और इसी वजह से इस अभयारण्य को अचानकमार के नाम से जाना जाने लगा।

अचानकमार वन्यजीव अभयारण्य – उपाख्यान और कथाएं

दूसरे दिन सुबह जल्दी उठकर जब मैं बाहर टहलने गयी तो वहाँ का नज़ारा देखकर मुझे एक गहन शांति का आभास हुआ। इस आश्रय घर का पूरा आँगन सागौन, साल और महुए के पेड़ों से गिरे सूखे पत्तों से भरा पड़ा था, जैसे कि अभी-अभी पतझड़ गुजरा हो। वहाँ पर सब कुछ इतना शांत था कि पवन के मंद-मंद झोकों की वह मधुर धुन स्पष्ट सुनाई दे रही थी। इन सूखे पत्तों पर चलते हुए मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे पैरों तले बीता हुआ कल बिछा हुआ है और ऊपर पेड़ों की शाखों पर अंकुरित होते नए पत्ते जैसे आने वाले भविष्य की ओर संकेत कर रहें हो।

विश्राम गृह
विश्राम गृह

इन सूखे पत्तों के बीच महुआ के छोटे-छोटे पीले फूल भी गिरे हुए थे। हमे बताया गया कि यह महुआ का पुष्पणकाल है और इस दौरान यहाँ के सभी स्थानीय लोग पूरे दिन इन फूलों को एकत्रित करने में जुटे हुए दिखाई देते हैं। साल वृक्ष पर भी उज्ज्वलित हरे रंगे के पत्ते अंकुरित हो रहे थे। इनका यह उज्ज्वलित हरा रंग आस-पास खड़े पलाश के पेड़ों के उज्ज्वलित केसरी रंग तथा अन्य पेड़ों के लाल, गुलाबी और पीले रंगों से बहुत विषम सा लग रहा था। कुछ साल के वृक्षों पर तो सफ़ेद फूल भी खिल आए थे। पूरे अभयारण्य में फैले इन ऊंचे-ऊंचे सुंदर से पेड़ों का वह नज़ारा सच में बहुत ही सुखदायक अनुभव था। इनकी छाव में सूर्य की तपती हुई धूप भी जैसे बहुत ही नरम महसूस हो रही थी।

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वन्यजीव अभयारण्य

अचानकमार के घने जंगले
अचानकमार के घने जंगले

अचानकमार वन्यजीव अभयारण्य छत्तीसगढ़ में स्थित 11 वन्यजीव अभयारण्यों में से एक है। 555 वर्ग कि.मी. की जमीन पर फैला हुआ यह वन एक पहाड़ी क्षेत्र है जो सतपुड़ा पर्वतश्रेणी की मैकल पर्वतमाला से घिरा हुआ है। इसे उत्तरीय उष्णकटिबंधीय आर्द्र पर्णपाती वन के रूप में वर्गीकृत किया जाता है यह पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश में स्थित कान्हा राष्ट्रीय उद्यान से जुड़ा हुआ है। कहते हैं कि यहाँ पर बाघ, तेंदुआ, लकड़बग्धा, सियार, सांभर, नीलगाय, गौर और जंगली सांड जैसे अनेक पशु हैं, लेकिन जब हम वहाँ पर गए थे तो हमे वहाँ पर इनमें से एक भी जानवर नहीं दिखा। पर हमे वहाँ बहुत सारे लंगूर और बंदर जरूर दिखे जो एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर छलांग मरते हुए यहाँ-वहाँ खेल रहे थे। वहाँ पर पशुओं के बहुत से झुंड थे जो जंगल में यहाँ-वहाँ चर रहे थे।

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अगर वृक्षों की बात करें तो इस अभयारण्य में आप साल, साजा, तेंदू, बांस, धावड़ा, हल्दू, करौंदा, जामुन, बेल और कतीरा जैसे अनेक पेड़ देख सकते हैं। जिन में साल वृक्षों की संख्या सबसे अधिक है, तो करौंदे के पेड़ों की तरह बांस भी कहीं-कहीं नज़र आ रहे थे। इस जंगल के आंतरिक क्षेत्रों में बसे बहुत से गांवों को जंगल के बाह्यांचल में स्थानांतरित किया जा रहा था। इन गांव वालों द्वारा पीछे छोड़े हुए उनके जीवन की कुछ झलकियाँ अभी भी वहाँ पर थीं, जैसे कि उनके मिट्टी के घर और छोटे-छोटे तालाब।

श्रद्धेय साल वृक्ष

अचानकमार जंगल की सफारी के दौरान हमे उससे जुड़े एक और उपाख्यान के बारे में जानने का मौका मिला। वहाँ पर एक बहुत ही पुराना साल का वृक्ष है, जिस पर साल 1955 और 1990 में बिजली गिरी थी। कहा जाता है कि पहले उसकी ऊंचाई लगभग 155 फीट की थी और चौढ़ाइ 6 फीट की। लेकिन उस दुर्घटना के बाद अब उसकी ऊंचाई सिर्फ 25-30 फीट ही रह गयी है और उसका तना भीतर से बिलकुल खोखला हो गया है। यहाँ के स्थानीय लोग आज भी इस पेड़ की पूजा करते हैं। इस पेड़ के नजदीक जाते समय आपको अपने जूते उतारकर जाना पड़ता है। जो भी स्थानीय व्यक्ति यहाँ से गुजरता है वह इस पेड़ को अपना प्रणाम अवश्य अर्पित करता है। यहाँ तक कि यात्रियों या आगंतुकों को उसका परिचय देने से पहले भी ये लोग इस पेड़ को प्रणाम करते हैं। इन लोगों का मानना है कि उनके आराध्य भगवान बुद्ध देव इसी पेड़ में बसते हैं। उनकी इसी आस्था ने इस पेड़ को एक जीता जागता मंदिर बना दिया है।

साल का विशाल, प्राचीन एवं वन्दनीय वृक्ष
साल का विशाल, प्राचीन एवं वन्दनीय वृक्ष

जैसे कि अधिकतर आदिवासी इलाकों में होता है, यहाँ पर भी आदिवासी लोग इस जंगल के संरक्षक के रूप में यहाँ निवास करते हैं। वे यहाँ पर स्थानांतरणीय खेती भी करते हैं, जिसमें एक सीमित अवधि के लिए वे जमीन के छोटे से टुकड़े पर अपनी खेती करते हैं। और फिर खेती का काम पूर्ण होने के पश्चात उस जमीन को फिर से उपजाऊ बनने के लिए वैसी ही छोड़कर दूसरे स्थान पर चले जाते हैं। कुछ आदिवासी जातियाँ तो खेती करते समय हल का भी उपयोग नहीं करते क्योंकि वे धरती को अपनी माँ के समान मानते हैं।

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इस अभयारण्य की सफारी करने का सबसे अच्छा तरीका है, कि आप बिलासपुर में ठहरे और फिर इस वन के दर्शन करने जाइए। यहाँ की अन्य सुविधाओं की तरह इस अभयारण्य में निवास की योजना भी बहुत सीमित है।

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एकताल – शिल्प और कला का गाँव, छत्तीसगढ़ https://inditales.com/hindi/ektaal-dhatu-kala-shilpgram-chhattisgarh/ https://inditales.com/hindi/ektaal-dhatu-kala-shilpgram-chhattisgarh/#comments Wed, 17 Apr 2019 02:30:09 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=889

एकताल – छत्तीसगढ़ में रायगढ़ जिले के पास बसा यह छोटा सा साधारण गाँव शिल्प और कला का प्रमुख केंद्र माना जाता है। इस गाँव की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह अनेकों राज्य और राष्ट्र स्तरीय पुरस्कार विजेता कलाकारों का घर है। ढोकरा की कारीगरी – एकताल, शिल्प और कला का गाँव, छत्तीसगढ़  […]

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एकताल ढोकरा धातु शिल्प ग्राम छत्तीसगढ़
एकताल ढोकरा धातु शिल्प ग्राम छत्तीसगढ़

एकताल – छत्तीसगढ़ में रायगढ़ जिले के पास बसा यह छोटा सा साधारण गाँव शिल्प और कला का प्रमुख केंद्र माना जाता है। इस गाँव की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह अनेकों राज्य और राष्ट्र स्तरीय पुरस्कार विजेता कलाकारों का घर है।

ढोकरा की कारीगरी – एकताल, शिल्प और कला का गाँव, छत्तीसगढ़ 

एकताल का पूरा गाँव हस्तनिर्मित धातु की शिल्पकारी में कार्यरत है। इस शिल्पकारी को ढोकरा की कारीगरी के नाम से जाना जाता है। ये दस्तकार आज भी मोम क्षय विधि जैसी प्राचीन कार्य पद्धति का इस्तेमाल करते हैं, जिसका प्रयोग सिंधु घाटी सभ्यता की कालावधि के दौरान भी होता था। इस पद्धति के अनुसार सबसे पहले मधुमक्खी के मोम से बनी पट्टियों से चिकनी मिट्टी की बनी सिल्ली पर तरह-तरह के ढांचे बनाए जाते हैं। यह मोम की पट्टियाँ एक छोटी सी लकड़ी की मशीन की सहायता से बनाई जाती हैं, जिसमें सामान्य सी दबाव प्रक्रिया का प्रयोग किया जाता है। फिर यह मोम पूर्ण रूप से स्थिर होने के पश्चात उस पर चिकनी मिट्टी की और एक परत चढ़ाई जाती है, जिसे ठोस बनाने के लिए बाद में पकाया जाता है।

ढोकरा कलाकृतियों को गढ़ने के लिए मिटटी के सांचे
ढोकरा कलाकृतियों को गढ़ने के लिए मिटटी के सांचे

जैसे-जैसे मिट्टी मोम का आकार लेने लगती है, वैसे- वैसे धीरे-धीरे मोम भी पिघलने लगता है। और फिर मोम के पिघलने से निर्मित उस खाली जगह में द्रव्य धातु भर दिया जाता है जो मोम का आकार ले लेता है। उसके बाद यह धातु पूर्ण रूप से स्थायी होने के पश्चात मिट्टी के आवरण को तोड़ दिया जाता है, जिससे चमचमाती हुई धातु की अंतिम कलाकृति अपने पूर्ण स्वरूप में प्रस्तुत होती है।

मोम की पट्टियाँ बनती हुई
मोम की पट्टियाँ बनती हुई

हमने देखा कि इस प्रक्रिया में महिलाएं चिकनी मिट्टी की सिल्लियों पर विविध ढांचे रखने का कार्य कर रही थीं। जबकि पुरुष मोम की पट्टियाँ बनाना, मिट्टी के ढांचे पकाना, फिर उन्हें तोड़ना, तथा अंतिम उत्पाद को व्यवस्थि रखना और उन्हें बेचना जैसे अन्य कार्यों में व्यस्त होते थे। इन कलाकारों की अधिकतर कृतियाँ आदिवासी देवी-देवताओं और लोक-कथाओं या उनसे जुड़े पात्रों से संबंधित हुआ करती थीं। लेकिन अब धीरे-धीरे ये लोग उपयोगी वस्तुएं जैसे कि बर्तन आदि की आकृतियाँ बनाने का प्रयास भी करने लगे हैं। मुझे लगता है कि यह कलाकार इस विश्व की बदलती आवश्यकताओं के अनुसार कुछ भी बना सकते है।

श्रीमति बुधियारिन देवी – राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता

राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता श्रीमति बुधियारिन देवी के साथ बातचीत करके मुझे बहुत प्रस्सनता हुई। उन्होंने बड़े गर्व से हमे अपनी नवीनतम कृति दिखाई जिसके लिए उन्हें राज्य स्तरीय पुरस्कार प्राप्त हुआ था। उन से उनके यात्रा अनुभवों तथा उनके द्वारा देखी गयी अनेक जगहों का उन पर पड़े प्रभावों के बारे में सुनना बहुत ही दिलचस्प था।

राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता श्रीमती बुधियारिन  देवी अपनी कृति गज लक्ष्मी के साथ
राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता श्रीमती बुधियारिन देवी अपनी कृति गज लक्ष्मी के साथ

ये कुशल कारीगर पूरे देश में घूमकर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। उन्हें देश के अन्य राज्यों में भी समय-समय पर अपनी कलाकृतियों पर कार्यशालाएं आयोजित करने हेतु आमंत्रित किया जाता है। एक प्रकार से उनकी कलाकृतियाँ उनके लिए दुनिया देखने का साधन बन गयी हैं, तो दूसरी तरफ उनकी कृतियाँ विश्व को उनकी संकृति के बारे में जानने का अवसर भी प्रदान करती हैं। देखा जाए तो कला का एक मुख्य प्रयोजन यह भी है कि वह मानव-निर्मित सीमाओं के पार संबंध स्थापित करे।

एकताल - छत्तीसगढ़ का छोटा सा शिल्पग्राम
एकताल – छत्तीसगढ़ का छोटा सा शिल्पग्राम

इस यात्रा के दौरान हमने रायपुर में स्थित छत्तीसगढ़ के राज्य विक्रय केंद्र के दर्शन भी किए, जो एक विचित्र से नाम वाली समिति द्वारा संचालित होता है। इस समिति का नाम है झिटकू मिटकी। जब मैंने अपने गाइड से इस नाम के पीछे छिपे रहस्य के बारे में पूछा, तो उन्होंने मुझसे कहा कि वह बस लोक-कथा का एक भाग है, परंतु उससे जुड़ी कहानी के बारे में वे मुझे कुछ नहीं बता पाए। इसके बावजूद भी इस नाम में कुछ तो ऐसी बात जरूर थी जो मुझे बार-बार उसके पीछे छिपी कहानी को जानने के लिए उकसा रही थी। वहाँ से लौटने के तुरंत बाद मैंने इंटरनेट पर झिटकू मिटकी के बारे में ढूंढना शुरू किया जिसके चलते मुझे यह कहानी प्राप्त हुई।

झिटकू मिटकी की कथा 

मिटकी बस्तर क्षेत्र में रहने वाले सात भाइयों की एकलौती बहन थी। जब मिटकी बड़ी हुई तो उसके भाई उसकी शादी करवाने के लिए झिटकू नाम के एक युवक को घर लेकर आए। धीरे-धीरे झिटकू और मिटकी दोनों एक-दूसरे से प्रेम करने लगे। लेकिन शायद नियति को उनका यह साथ मंजूर नहीं था। एक दिन ऐसा हुआ कि मिटकी के परिवार को किसी धार्मिक कार्य के लिए बलि चढ़ाने हेतु किसी मनुष्य की आवश्यकता थी और क्योंकि उन्हें बलि चढ़ाने के लिए कोई नहीं मिला तो उन्होंने आखिर में झिटकू की ही बलि चढ़ा दी।

आप ढोकरा कलाकृतियाँ ऑनलाइन भी मंगवा सकते हैं ।

इस घटना से मिटकी बहुत क्रोधित हुई और आवेश में आकार उसने आत्महत्या कर ली। तब से बस्तर का आदिवासी समाज उन्हें प्रेमी युगल के रूप में पूजने लगा। यहाँ के लोगों का मानना है कि झिटकू-मिटकी की पूजा करने से आपकी सभी मनोकामनाएँ पूरी होती हैं। झिटकू मिटकी को गप्पा देई और लक्कड़ देई, या डोकरा-डोकरी जैसे अन्य कई नामों से भी जाना जाता है। वे इस क्षेत्र में निर्मित शिल्प कृतियों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गए हैं।

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एकताल के अधिकतर निवासी झारा जनजाति के हैं, जो गोंड आदिवासी समाज की एक उप-जाति है। वे कई वर्ष पूर्व ओड़ीशा से यहाँ स्थानांतरित हुए थे। ये लोग पत्रकारों और आगंतुकों से बातचीत करने में इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि, जैसे ही उन्हें कैमरा और किताब लेकर आते लोगों का समूह नज़र आता है तो वे तुरंत ही अपनी मुश्किलों का पिटारा उनके सामने खोल देते हैं; इसी उम्मीद में कि इन पत्रकारों के द्वारा उनकी मुश्किलें लोगों तक पहुंचेगी और आशापूर्वक उनके कुछ समाधान भी मिलेंगे। लेकिन अब मैं उन्हें कैसे बताऊँ की मेरे पों में भी वही जूते हैं, जो उनके पों में हैं।

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कालिदास की नाट्यशाला – रामगढ छत्तीसगढ़ की एक प्राचीन धरोहर https://inditales.com/hindi/kalidas-natyashala-ramgarh-chhattisgarh/ https://inditales.com/hindi/kalidas-natyashala-ramgarh-chhattisgarh/#respond Wed, 30 Jan 2019 02:30:30 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=896

संस्कृत के महान कवि कालिदास के बारे तो आप सब जानते ही हैं। उनकी कथाओं, काव्यों और अन्य साहित्यिक कृतियों से भी आप अवश्य परिचित होंगे; लेकिन क्या आप भारत में स्थित उनसे जुड़ी जगहों के बारे में जानते हैं? तो चलिये आज ऐसी ही एक खास जगह के बारे में थोड़ा जान लेते हैं, […]

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संस्कृत के महान कवि कालिदास के बारे तो आप सब जानते ही हैं। उनकी कथाओं, काव्यों और अन्य साहित्यिक कृतियों से भी आप अवश्य परिचित होंगे; लेकिन क्या आप भारत में स्थित उनसे जुड़ी जगहों के बारे में जानते हैं? तो चलिये आज ऐसी ही एक खास जगह के बारे में थोड़ा जान लेते हैं, जो छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में बसी है।

कालिदास की नाट्यशाला - रामगढ, छत्तीसगढ़
कालिदास की नाट्यशाला – रामगढ, छत्तीसगढ़

कहा जाता है कि महाराज राजा भोज से हुई कहा-सुनी के पश्चात कालिदास उज्जैन छोड़कर सरगुजा चले गए थे और वहीं पर बस गए थे। छत्तीसगढ़ के इस जिले में हाथी के आकार की एक बड़ी सी चट्टान रूपी पहाड़ी है जिसे रामगढ़ के नाम से जाना जाता है। इस पहाड़ी में अनेक गुफाएँ बनी हुई हैं, जिनमें से एक कालिदास से संबंधित है। यह गुफा कालिदास की नाट्यशाला के नाम से प्रसिद्ध है।

कालिदास की नाट्यशाला, रामगढ़  

कालिदास की नाट्यशाला
कालिदास की नाट्यशाला

रामगढ़ की इन गुफाओं में से एक गुफा प्राचीन नाट्यशाला हुआ करती थी, जहाँ पर कालिदास के नाटकों का प्रदर्शन किया जाता था। इस नाट्यशाला की तुलना में अगर आज के आधुनिक नाट्यगृहों को देखा जाए तो यह अनुमान लगाना थोड़ा मुश्किल है कि यहाँ पर नाटकों का प्रस्तुतीकरण किस प्रकार होता था। इसके लिए पहले हमे पुरातन काल में झांकना होगा और समझना होगा कि उस समय जनसंख्या बहुत कम हुआ करती थी और यही गुफाएँ लोगों का घर हुआ करती थीं, जहाँ पर विविध समुदायों के लोग एक-दूसरे के साथ मिल जुलकर रहते थे।

इस नाट्यशाला की सबसे उल्लेखनीय बात है, उसकी अद्भुत श्रवण-गम्यता। गुफा में बने इस मंच पर की गयी छोटी सी आवाज भी काफी बड़े प्रतिवेश में साफ-साफ सुनाई दे सकती है। अब क्या यह किसी नाट्यगृह की सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण आवश्यकता नहीं है? इस गुफा में कुछ छेद भी बने हुए हैं, जो शायद किसी प्रकार के पर्दे लटकाने हेतु इस्तेमाल किए जाते होंगे। इस अर्धवृत्त गुफा अर्थात नाट्यशाला में एक साथ 50-60 लोग बड़ी आसानी बैठ सकते हैं।

कवि कालिदास 

जहाँ कवी कालिदास उत्सव रूप में रहते हैं - रामगढ, छत्तीसगढ़
जहाँ कवी कालिदास उत्सव रूप में रहते हैं – रामगढ, छत्तीसगढ़

रामगढ़ की इन्हीं पहाड़ियों में कालिदास ने अपनी सबसे प्रसिद्ध कृति ‘मेघदूतम’ की रचना की थी। इसी याद में आज भी यहाँ पर आषाढ़ महीने के प्रथम दिवस पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। इस पहाड़ी के नीचे एक आधुनिक प्रकार का मंच बना हुआ है जहाँ पर कालिदास के जीवनकाल तथा देवनागरी में उद्धृत उनकी कृतियों को दर्शानेवाले चित्र बने हुए हैं।

कवि कालिदास की प्रमुख कृतियाँ

कालिदास जी ने यूँ तो बहुत साहित्य की रचना की है, परन्तु कुछ है जो जन मानस के स्मृति पटल पे सदैव अंकित रहेंगी इनमे से कुछ यह हैं:

सीता और रामायण 

गुफाओं के बीच से जाती सुरंग - रामगढ
गुफाओं के बीच से जाती सुरंग – रामगढ

इस गुफा के पास स्थित कुछ अन्य गुफाओं में भित्तिचित्र बने हुए हैं, लेकिन मैं उन गुफाओं को नहीं ढूंढ पायी। नाट्यशाला वाली इस गुफा का इतिहास आपको रामायण-काल तक ले जाता है। माना जाता है यह गुफा रामायण में सीता द्वारा वनवास के दौरान प्रयुक्त होती थी। इस गुफा को स्थानीय रूप से सीता बेंगरा के नाम से भी जाना जाता है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि यहीं पर रावण ने सीता का अपहरण किया था और उन्हें लंका ले गए थे। वास्तव में, अगर प्रयाग को रामेश्वरम से जोडनेवाले प्राचीन मार्ग को देखा जाए तो यह जगह लंका तक जाने वाले मार्ग में ही पड़ती है। इस गुफा में कुछ अभिलेख भी पाये गायें हैं, यद्यपि उनके उद्वाचन के बारे में मैं निश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकती।

और पढ़ें – श्रीलंका में श्री राम द्वारा स्थापित मंदिर 

रामगढ़ की चट्टानी पहाड़ियों में बनी इन कुदरती गुफाओं में कुछ जलस्त्रोत भी पाये गए हैं जो सालों पूर्व यहाँ पर बसनेवाले जीवन की ओर संकेत करते हैं। इन पहाड़ियों में सुरंग भी बनी हुई हैं, जो पहाड़ी के दूसरी तरफ जाने के लिए खोदे गए थे। आज इस पहाड़ी के ऊपर तक जाने के लिए व्यवस्थित सीढ़ियाँ बनाई गयी हैं। लेकिन नाट्यशाला तक जानेवाला मार्ग अपने अंतिम पड़ाव पर काफी जोखिम भरा है।

कालिदास नाट्यशाला के पास प्राचीन प्रतिमाएं
कालिदास नाट्यशाला के पास प्राचीन प्रतिमाएं

इस गुफा के आस-पास कुछ उत्कीर्णित पत्थर की मूर्तियाँ हैं। इनमें से कुछ मूर्तियाँ लाल कपड़े पर स्थापित की गयी हैं और उनके सामने कुछ चावल, छुट्टे पैसे और सिक्के अर्पित किए गए थे; जो इस बात की ओर इशारा करते हैं कि जब आप रामगढ़ के दर्शन करने आते हैं तो यहाँ पर आपको  कुछ दान जरूर देना चाहिए।

और पढ़ें – ताला की अद्वितीय रुद्रशिव की मूर्ति – छत्तीसगढ़ 

मैं मार्च महीने के अंतिम कुछ दिनों के दौरान रामगढ़ के दर्शन करने गयी थी और उस समय वहाँ पर पहाड़ी के नीचे मेला लगा हुआ था। भारत में उत्सवों के दौरान लगनेवाले अन्य किसी भी मेले की तरह यहाँ पर भी रंग और श्रद्धा का अद्भुत मिश्रण देखा जा सकता है। इसी के साथ यहाँ पर मिठाई और चाट की बड़ी-बड़ी दुकानें भी लगी हुई थीं।

भारत में आप जहाँ जाइए वहां कहानियां तो मिल ही जाती हैं. पर रामगढ में तो हमें कवि कालिदास की कहानी के साथ साथ उनकी प्राचीन नाट्यशाला भी मिल गयी। हैं न यह देश अजब-गजब!

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पुरखौती मुक्तांगन – पूर्वजों को समर्पित भावपूर्ण श्रद्धांजलि, नया रायपुर  https://inditales.com/hindi/purkauti-muktangan-tribal-museum-raipur/ https://inditales.com/hindi/purkauti-muktangan-tribal-museum-raipur/#respond Wed, 19 Dec 2018 02:30:25 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=875

नए रायपुर की चौड़ी, व्यापक और बिजली के खंबों से पंक्तिबद्ध सड़कें आपको इस 200 एकड़ के संस्कृति और विरासत से जुड़े संग्रहालय तक ले जाती हैं, जिसे पुरखौती मुक्तांगन कहा जाता है। जब पहली बार मैंने इस जगह का नाम सुना था उसी पल से मुझे उसके नाम से एक प्यारा सा लगाव हो […]

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पुरखौती मुक्तांगन की दीवारों पे चित्रकारी
पुरखौती मुक्तांगन की दीवारों पे चित्रकारी

नए रायपुर की चौड़ी, व्यापक और बिजली के खंबों से पंक्तिबद्ध सड़कें आपको इस 200 एकड़ के संस्कृति और विरासत से जुड़े संग्रहालय तक ले जाती हैं, जिसे पुरखौती मुक्तांगन कहा जाता है। जब पहली बार मैंने इस जगह का नाम सुना था उसी पल से मुझे उसके नाम से एक प्यारा सा लगाव हो गया था। पुरखौती मुक्तांगन का अर्थ है एक खुला उन्मुक्त आंगन जहाँ पुरखों को श्रद्धांजलि दी जाती है और उनकी दी गयी धरोहर से हमारा परिचय कराया जाता है। इसे खुला संग्रहालय भी कहा जाता है।

सुनसान सी सड़कों और गलियों को पार करके जब आप इस संग्रहालय के पास पहुँचते हैं, तो सबसे पहले आपको इस छोटे से सांस्कृतिक ग्राम के बड़े-बड़े काले लोहे में गढ़े प्रवेश द्वार नज़र आते हैं, जिस पर आदिवासी कलाकृतियाँ बनी हुई हैं। इसकी चारदीवारी पर चित्रित लोक-कथाएँ चित्तरंजक हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि इस संग्रहालय का खुलापन और उसकी मुक्तता कई हद तक इसे और भी आकर्षक बनाती है।

पुरखौती मुक्तांगन – रायपुर में घूमने की जगहें   
कहानियां सुनते प्रवेश द्वार - पुरखौती मुक्तांगन - रायपुर छत्तीसगढ़
कहानियां सुनते प्रवेश द्वार

इस उन्मुक्त संग्रहालय के धातु के बने प्रवेश द्वार पर चित्रों के रूप में अनेक कहानियाँ कहते हैं – आदिवासियों की, आदवासी जनजातियों की और उनकी संस्कृति की। इस मुक्तांगन में प्रवेश करते ही वहाँ पर खड़ी सुंदर सी आदमक़द मूर्तियाँ आपका स्वागत करती करती हैं। इन मूर्तियों द्वारा छत्तीसगढ़ी लोगों के जीवन को बहुत अच्छी तरह से दर्शाया गया है।

व्यापक रूप से फैले इस आँगन के चारों ओर खड़ी दीवारें उज्ज्वल रंगों में की गयी आदिवासी चित्रकारी से सजी हुई हैं। यहाँ की सभी आदिवासी जातियों को उनकी पारंपरिक वेश-भूषा में लोक-नृत्य करते हुए चित्रावली के रूप में प्रदर्शित किया गया है। इसके अलावा यहाँ पर अनेक मौखिक भाव दर्शाते हुए मुखौटे भी दिखाई देते हैं। यहाँ लकड़ी पर उत्कीर्णित कला  दिखाने वाली एक खास दीर्घा भी है, जहाँ पर पेड़ों के बड़े-बड़े तने रखे हुए हैं, जिन्हें आप अपनी आँखों के सामने तराशते हुए देख सकते हैं।

पुरखौती मुक्तांगन के जलाशय को भी आस-पास के परिवेश में ढालने के लिए भित्ति चित्रों से सजाया गया है, जिससे की वह इस प्रांगन के वातावरण में घुल मिल जाता है और इसका एक अंग प्रतीत होता है। इस संग्रहालय के एक भाग में आदिवासी आभूषणों को प्रदर्शित किया गया है, जैसे कि दीवारों पर लटकती हुई बड़ी-बड़ी कान की बालियाँ या झुमके, या हरी घास के बीचों बीच चांदी की मोटी मोटी चूड़ियाँ आदि। संग्रहालय का यह भाग मुझे सबसे ज्यादा अभिनव लगा – जैसे कि आदिवासी आभूषण ही इस संग्रहालय की विषय वस्तु हो।

भित्तिचित्र और ठेठ छत्तीसगढ़ी ग्राम
श्रीमती सोनाबाई रजवार द्वारा बनाये गए भित्तिचित्र - पुरखौती मुक्तांगन
श्रीमती सोनाबाई रजवार द्वारा बनाये गए भित्तिचित्र – पुरखौती मुक्तांगन

राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित कलाकार श्रीमति सोना बाई रजवार को इस पैतृक संग्रहालय के लिए छत्तीसगढ़ के ग्रामीण जीवन पर आधारित भित्ति चित्र बनाने हेतु खास तौर से आमंत्रित किया गया था। इन भित्ति चित्रों के द्वारा उन्होंने छत्तीसगढ़ के ठेठ ग्रामीण घरों को बड़ी बारीकी से दर्शाया है। प्रत्येक घर के मुख्य द्वार की चौखट चमकदार रंगों और चित्रों से सजायी गयी है। प्रत्येक खिड़की पर रखी गयी स्थानीय पशु-पक्षी या फिर लोक-कथा के किसी पात्र की मिट्टी की बनी मूर्ति भी दिखाई गयी है।

वहाँ पर गांववालों की आदमक़द प्रतिमाएँ भी हैं जिन्हें अपने दैनिक काम-काज करते हुए दिखाया गया है। हमारी इस यात्रा के दौरान पुरखौती मुक्तांगन में यहाँ वहां निर्माण कार्य चल रहा था। इसके बावजूद भी उस माहौल में घूमना हमारे लिए बहुत ही आनंददायी था। इस जगह के द्वारा हम भारत के ग्राम्य जीवन को देख और समझ पा रहे थे। पुरखौती मुक्तांगन का भ्रमण कर पता चलता है की कला जीवन के एक अटूट भाग हुआ करता था ना कि बस एक दिखावे की वास्तु मात्र जिसका प्रयोजन केवल हमारी दीवारों का सुसज्जित करना है।

पुरातात्विक स्थलों की प्रतिकृति और सर्वोत्कृष्ट संरचनाएं   
प्रसिद्द भोरेम देव मंदिर - छत्तीसगढ़
प्रसिद्द भोरेम देव मंदिर – छत्तीसगढ़

यहाँ पर प्रमुख छत्तीसगढ़ के पुरातात्विक स्थलों और सर्वोत्कृष्ट संरचनाओं का आदमक़द रचनाओं के रूप में पुनःनिर्माण किया गया है, जैसे कि भोरम देव का मंदिर और ताला की रुद्रशिव की मूर्ति। मुझे बताया गया कि इस संग्रहालय का मुख्य उद्देश्य यहाँ पर आनेवाले आगंतुकों को छत्तीसगढ़ की लोक-संस्कृति की एक छोटी सी झलक प्रदान करना है, जो अन्यथा शायद इन दूरवर्ती जगहों पर ना जाए। यहाँ पर छत्तीसगढ़ के स्वतंत्र सेनानियों की भी प्रतिमाएँ हैं।

मुझे यह जानकर बहुत खुशी हुई कि इस संग्रहालय को खड़ा करने में, खास कर यहाँ पर स्थापित मूर्तियों तथा अन्य कलाकृतियों का निर्माण करने में स्थानीय कलाकारों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। सच में यह बहुत ही प्रशंसनीय बात है, कि यह जगह स्थानीय कलाकारों के लिए अपनी कला को प्रदर्शित करने का एक सुयोग्य मंच बन पाया। यह इन कलाकारों को नयी पहचान देने तथा स्थानीय कला के विविध रूपों को संरक्षित करने का बहुत ही अच्छा प्रयास है। इस संग्रहालय में स्थापित बड़ी-बड़ी प्रतिमाओं और मूर्तियों को बनानेवाले सबसे मत्वपूर्ण व्यक्तियों में से एक हैं कलाकार पीलू राम साहू।

चित्रकार 

इस खुले संग्रहालय के विस्तारित मैदान में यहाँ-वहाँ कुछ पेड़ लगाने की बहुत ज्यादा आवश्यकता है, जिससे कि यहाँ के वातावरण में बढ़ती उष्णता थोड़ी कम हो सके और इस जगह को भी थोड़ा प्रकृतिक स्पर्श मिले। अभी के लिए तो यह जगह कार्य प्रगति की स्थिति में है और शायद थोड़े और समय तक इसी परिस्थिति में हो सकती है। लेकिन ऐसी स्थिति में भी इस संग्रहालय के दर्शन करना हमारे लिए बहुत ही लाभदायक रहा। हम स्वयं अपनी आँखों से इन कारीगरों को बड़ी लीनता से अपना काम करते हुए देख सके। यहाँ पर अतिथि चित्रकारों के लिए एक खास जगह बनवाई गयी है, जहाँ पर रहकर वे अपना काम कर सकते हैं। पुरखौती मुक्तांगन में एक विक्रय केंद्र और एक पर्यटक सूचना केंद्र भी है, यद्यपि यहाँ पर आनेवाले पर्यटको और आगंतुकों की संख्या अभी उतनी ज्यादा नहीं है।

यहाँ पर प्रदर्शित कलाकृतियों का पर्यवेक्षण करने और उन्हें समझने के लिए आपको लगभग एक पूरे दिन की आवश्यकता है। यदि आप जल्दी में हो तो, २-३ घंटों में भी पुरखौती मुक्तांगन को देख सकते हैं। मेरा सुझाव तो यही होगा की शांति से बैठ कर यहाँ की कलाकृतियों को निहारिये

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महुआ के फूलों के रंग – छत्तीसगढ़ यात्रा के कुछ अनुभव https://inditales.com/hindi/mahua-flower-uses-recipes/ https://inditales.com/hindi/mahua-flower-uses-recipes/#respond Wed, 07 Nov 2018 02:30:22 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=913

महुआ के महकते फूल – अब तक इन फूलों के बारे में मैंने सिर्फ कहानियों, गीतों और लोककथाओं में ही सुना था। मुझे कभी भी इन फूलों को प्रत्यक्ष रूप से देखने का अवसर नहीं मिला था। लेकिन संयोग से हमारी छत्तीसगढ़ की यात्रा के दौरान मुझे महुआ के फूलों को समीप से देखने का, […]

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प्रातः बिखरे महुआ के हलके पीले पुष्प
प्रातः बिखरे महुआ के हलके पीले पुष्प

महुआ के महकते फूल – अब तक इन फूलों के बारे में मैंने सिर्फ कहानियों, गीतों और लोककथाओं में ही सुना था। मुझे कभी भी इन फूलों को प्रत्यक्ष रूप से देखने का अवसर नहीं मिला था। लेकिन संयोग से हमारी छत्तीसगढ़ की यात्रा के दौरान मुझे महुआ के फूलों को समीप से देखने का, तथा उनसे जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण और रोचक सी बाते भी जानने का अवसर मिला।

जब हम छत्तीसगढ़ पहुंचे तो वहाँ का पूरा वातावरण ही महुआ के हलके पीले रंग में रंगा हुआ था। फिर हमे पता चला कि यह महुआ की ऋतु चल रही है। हर सुबह होटल से बाहर निकलते ही आँगन में, सड़को पर चारों ओर महुआ के फूल बिखरे हुए होते थे। सूरज निकलते ही यहाँ के लोग, खास कर महिलाएं और छोटी-छोटी लड़कियां अपनी-अपनी टोकरियाँ लेकर गिरे हुए फूल इकट्ठा करने के लिए निकल पड़ती हैं। यहाँ के सभी घरों के आँगन इन पीतवर्णी फूलों से भरे हुए थे।फूलों को धूप में सुखाने के लिए बिछाया गया था। यहाँ की सड़कों से गुजरते हुए, रास्ते में स्थानीय लोगों से बातचीत करते हुए हमे इन मोहक फूलों के बारे बहुत कुछ जानने का अवसर मिला। महुआ के पीत रंग में रंगे ये अनुभव बहुत आनंददायक और ज्ञानवर्धक थे।

महुआ के फूल

फूल बटोर के ले जाती महिलाएं एवं बच्चियां
फूल बटोर के ले जाती महिलाएं एवं बच्चियां

महुआ का पुष्पणकाल 2-3 महीनों तक चलता है जो मार्च अप्रैल के महीने में आता है। इस दौरान पूरे दिन इसके ऊंचे-ऊंचे पेड़ों से उनके फूल झड़ते रहते हैं। फीके से पीले रंग के ये फूल मुह के बल जमीन पर गिरे हुए होते हैं जिन्हें देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी ने जमीन पर कालीन बिछा दी हो। अगर आप जंगलों में जाए तो वहाँ पर ये फूल आपको सूखे पत्तों पर गिरे हुए मिलेंगे जो अपने आप में सुंदर आकृतियाँ निर्मित करते हैं।

इन दिनों पुरुष, महिलाएं और बच्चे सभी अपनी-अपनी टोकरियाँ लेकर घर से निकलते हैं और पूरा दिन महुआ के फूल इकट्ठा करने में व्यस्त रहते हैं। वे सिर्फ दोपहर के मध्यांतर के दौरान खाना खाने के समय ही थोड़ा आराम करते हैं और अपनी टोकरियाँ खाली करके फिर से फूल इकट्ठा करने चले जाते हैं। यहाँ की सड़कों से गुजरते हुए आप लोगों को फूलों से भरी टोकरियाँ लेकर रास्ते पर चलते हुए देख सकते हैं। इनके साथ छोटी-छोटी लड़कियां भी होती हैं, जो अपनी छोटी सी टोकरियाँ लेकर फूल इकट्ठा करती हुई नज़र आती हैं।

रात के समय इन पेड़ों के आस-पास गिरे सूखे पत्तों को जलाया जाता है, ताकि अगली सुबह इस काली राख पर बिखरे पीले फूलों को इकट्ठा करने में आसानी हो, नहीं तो हो सकता है कि उन पत्तों की आड़ में कुछ फूल उनकी नज़र से छूट जाए। रात के समय उस काले घने अंधेरे में जब हमने इन पेड़ों के आस-पास पत्तों के जलते ढेरों को देखा तो यह पूरा दृश्य हमे थोड़ा डरावना सा लगा।

महुआ का पेड़                                                                                                      
रात को जलते महुआ के जंगले
रात को जलते महुआ के जंगले

मध्य भारत एवं छत्तीसगढ़ के आदिवासी समुदायों में महुए के पेड़ को बहुत ही पवित्र माना जाता है। इस वृक्ष के लगभग सभी भाग मनुष्य के लिए उपयोगी होते हैं। इसकी छाल में औषधीय गुण होते हैं। इसके बीज से उर्वरक बनाया जाता है और उससे निर्मित तेल ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसके तेल को साबुन इत्यादि बनाने के उपयोग में भी लाया जाता है।

महुआ का वैज्ञानिक नाम मधुका लोंगफोलिआ है । इसका एक वृक्ष साल भर में २०० किलो तक तेल दायक बीज दे सकता है। महुआ के पत्ते टसर सिल्क का रेशा बनाने वाले कीटों को खिलाये जाते हैं।

महुआ के फूलों का व्यवसाय

महुआ का फूल
महुआ का फूल

सामान्य तौर पर एक व्यक्ति एक दिन में लगभग 5-6 किलो तक फूल इकट्ठा कर सकता है, जो सुखाने के पश्चात उसके आधे रह जाते हैं। इन फूलों को सुखाने के बाद उन्हें 30-40 रुपया प्रति किलो के हिसाब से बाज़ार में बेचा जाता है।

महुआ का फूल व्यंजन सामग्री तथा औषधीय वनस्पति के रूप में घरेलू नुस्खों में भी इस्तेमाल होता है। जैसे कि व्यंजन सामग्री के रूप में महुआ का फूल खाद्य पदार्थों में वासक के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। यानी हो सकता है कि आपको साधारण से उबले हुए चावल की जगह महुआ की भीनी बीनी सुगंध में पकाए हुए चावल परोसे जाए। अचार बनाने के लिए भी इनका उपयोग किया जाता है। पशुओं को भी यह फूल खिलाया जाता है और यो बड़े शौक से इसे खाते हैं। औषधीय वनस्पति के रूप में यह मनुष्य और पशु जाती में स्तनपान कराने वाली माताओं को दिया जाता है। कहा जाता है कि इससे शरीर को ज्यादा दूध उत्पन्न करने में सहायता होती है।

महुआ के फूलों से उत्पादित सबसे प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण वस्तु है देसी मद्य। आखिरकार यह वही फूल है जो हाथियों को भी मदमस्त बना सकता है। स्थानीय जनजातियों के लिए यह उनकी संस्कृति का एक भाग है। उनका कोई भी उत्सव महुआ के मद्यपान के बिना पूरा नहीं होता। आम तौर पर सूखे हुए फूलों के साथ गुड मिश्रित करके यह मद्यपान बनाया जाता है। अब मुझे पता चला कि महुआ नाम के साथ हमेशा एक विचित्र मद्यता क्यों जुडी हुई है।

छत्तीसगढ़ में मैंने जाना की महुआ जैसे फूल न केवल नयनसुख देते हैं, अपितु यह स्थानीय अर्थ व्यवस्था में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका रखते हैं। बहुत परिवारों का चूल्हा इनको बीन कर बेचने से चलता है तो बाकि लोगों के अपने मध्य एवं सुगंध से आनंदित करते हैं।

छत्तीसगढ़ के अन्य यात्रा वृतांत:

ताला के अद्बुद्ध रूद्र शिव 

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ताला की अद्वितीय रुद्रशिव की मूर्ति – छत्तीसगढ़  https://inditales.com/hindi/rudra-shiva-tala-chhattisgarh/ https://inditales.com/hindi/rudra-shiva-tala-chhattisgarh/#respond Wed, 18 Jul 2018 02:30:18 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=853

रुद्रशिव की अद्वितीय मूर्ति  ताला की रुद्रशिव की यह अद्वितीय मूर्ति शिल्पकला का सबसे अनोखा रचनांश है। लाल बलुआ पत्थर से बनी यह मूर्ति दो मीटर से भी अधिक ऊंची है। मूर्तिकला का ऐसा अनूठा नमूना पुरातत्व के इतिहास में आज तक कहीं भी नहीं मिल पाया है। इस मूर्ति में बड़ी ही कलात्मकता से […]

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रुद्रशिव की अद्वितीय मूर्ति 

ताला छत्तीसगढ़ के रुद्रशिव की प्रतिमा
ताला छत्तीसगढ़ के रुद्रशिव की प्रतिमा

ताला की रुद्रशिव की यह अद्वितीय मूर्ति शिल्पकला का सबसे अनोखा रचनांश है। लाल बलुआ पत्थर से बनी यह मूर्ति दो मीटर से भी अधिक ऊंची है। मूर्तिकला का ऐसा अनूठा नमूना पुरातत्व के इतिहास में आज तक कहीं भी नहीं मिल पाया है। इस मूर्ति में बड़ी ही कलात्मकता से उभारे गए रुद्र अथवा उग्र भावों के कारण यह मूर्ति मुझे यक्ष की आकृति जैसे ज्यादा लग रही थी। शायद इसी वजह से इस मूर्ति को रुद्रशिव कहा जाता है। इस मूर्ति को शिवजी का स्वरूप मानने का एक और संभावित कारण यह भी हो सकता है कि, शिवजी को पशुपतिनाथ अर्थात पशुओं के देवता भी कहा जाता है और इस मूर्ति में शारीरिक अंगों के रूप में उत्कीर्णित विविध पशुओं की आकृतियों द्वारा शिवजी का यह स्वरूप भलीभाँति उभरकर आता है। मेरे खयाल से यह छत्तीसगढ़ की विशेषक मूर्ति हो सकती है।

रुद्रशिव की मूर्ति का पर्यवेक्षण

पशुओं और मनुष्यों की मुखाकृतियों से बनाए गए शारीरिक अंग इस मूर्ति को अद्वितीय बनाते हैं। ऊपर दिये गए चित्र को अगर आप ध्यान से देखेंगे तो उस में आप निम्नलिखित बातें देख सकते हैं।

पशुपति या रुद्रशिव या कोई यक्ष
पशुपति या रुद्रशिव या कोई यक्ष
  • इस मूर्ति का मुकुट साँप का बना हुआ है, जो बिलकुल पगड़ी के समान लगता है।
  • नाक के स्थान पर गिरगिट बना हुआ है, जिसकी पूंछ बिच्छू के जैसी है।
  • उसकी भौहें मेंढक के पावों जैसी हैं।
  • नेत्रगोलक अंडों के समान हैं।
  • कान मयूर के रूप में बनाए गए हैं।
  • ठुड्डी के स्थान पर केकड़ा बना हुआ है।
  • मूँछों के स्थान पर मछलियाँ बनी हुई हैं।
  • कंधों की जगह मगरमच्छ का मुंह बना हुआ है।
  • बाँहें हाथी की सूंड की तरह हैं।
  • उँगलियाँ साँप के मुख जैसी हैं – कुछ लोगों का कहना है कि वह पंचमुखी नाग है।
  • वक्षस्थलों पर मनुष्यों की आकृतियाँ बनी हुई हैं – शायद वह जुड़वा हो।
  • पेट क स्थान पर एक गोलाकार मनुष्य का मुख बना हुआ है – शायद वह कुंभ को दर्शाता हो।
  • जांघों पर विद्याधर की आकृतियाँ बनी हुई हैं – यह मत्स्यकन्या हो सकती हैं – या हो सकता है कि वह तुला को भी दर्शाती हों।
  • जांघों की बाजुओं पर गंधर्व की आकृतियाँ बनी हुई हैं – शायद यह भी मत्स्यकन्या हो सकती है।
  • घुटनों के स्थान पर सिंह का मुख बना हुआ है – जो शायद सिंह राशि को दर्शाता हो।
  • पाँव हाथी के जैसे हैं।
  • दोनों कंधों पर रक्षक के रूप में दो साँप बने हुए हैं।
  • मूर्ति के बाईं तरफ भी एक साँप बना हुआ है।
पशुओं की आकृतियाँ और ज्योतिषीय चिह्न 

जैसा कि आप देख सकते हैं इस मूर्ति में समाहित कुछ पशु विविध ज्योतिषीय चिह्नों से भी संबंधित हैं। जैसे कि जुड़वा व्यक्तियों की वह आकृतियाँ जो मिथुन राशि से जुड़ी हुई हैं, कुंभ की आकृति जो कुंभ राशि से जुड़ी है, सिंह की आकृति सिंह राशि को दर्शाती है, विद्याधर या तुला की आकृतियाँ तुला राशि से संबंधित हैं, मगरमच्छ की आकृति मकर राशि को दर्शाती है, मत्स्यकन्याओं की आकृतियाँ कन्या राशि से संबंधित हैं, बिच्छू की आकृति वृश्चिक राशि से जुड़ी है और केकड़ा कर्क राशि को दर्शाता है, आदि। कुछ स्थानीय लोगों का कहना है कि इस मूर्ति में सभी 12 राशियों या ज्योतिषीय चिह्नों का समावेश है। यद्यपि इन से संबंधित इससे अधिक जानकारी मुझे नहीं मिल पायी।

हैरानी की बात तो यह है कि इस मूर्ति के कुछ भाग टूटे हुए होने के बावजूद भी लोग उसकी पूजा करते हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा इस मूर्ति को एक छोटे से कटघरे में रखा गया है, जिस पर हमेशा ताला लगा रहता है। भक्तजन इस कटघरे में बने धातु के दरवाजे से उस मूर्ति की पूजा करते हैं।

देवरानी – जेठानी मंदिरों का परिसर

देवरानी – जेठानी मंदिरों का वह परिसर, जहाँ पर आज यह मूर्ति रखी गयी है, गुप्त काल के दौरान बनवाया गया था। लेकिन इस मूर्ति के निर्माण-काल के संबंध में वहाँ पर कोई जानकारी नहीं मिलती। मूर्तिकला की दृष्टि से भी यह मूर्ति बहुत अनोखी है और उसे किसी निश्चित काल से जोड़ना थोड़ा कठिन है। उसकी स्थूलता को देखा जाए तो यह मूर्ति पुरातन काल की हो सकती है, या फिर थोड़ा बाद में निर्मित लोक कला का एक अद्भुत नमूना हो सकती है।

कलाकृति

ताला की रुद्रशिव की इस मूर्ति के दर्शन करना जैसे, इतिहास के किसी छूटे हुए किस्से की खोज करने जैसा था। जैसे कि मैंने शिवसागर के अहोम राजवंश की खोज की थी। इस मूर्ति की विचित्र सी शिल्पकला मुझे आज भी उसकी ओर आकर्षित करती है। क्या वह किसी चित्रकार की कल्पना का वास्तविकरण हो सकती है? या फिर किसी पशु-प्रेमी या किसी ज्योतिषी द्वारा की गयी मनुष्य के शरीर की व्याख्या? क्या वह अपने प्रकार का एक ही रचनांश है, या फिर उसकी समकालीन कुछ अन्य प्रतिमाएँ भी हो सकती हैं?

किसी के द्वारा इस मूर्ति को शिवजी की उपमा देना और फिर उसे उन्हीं के स्वरूप में पूजना, इस बात का द्योतक है कि किस प्रकार श्रद्धा का पोषण होता है और कैसे मनुष्य की आस्था एक पत्थर को भी भगवान बना देती है।

भारत में न जाने और ऐसे कितने खजाने छुपे हुए हैं जो इन यात्राओं के द्वारा मुझे हर बार आश्चर्य चकित कर देते हैं।

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