राजस्थान Archives - Inditales https://inditales.com/hindi/category/भारत/राजस्थान/ श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Wed, 31 Jan 2024 06:50:37 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 जोधपुर – राजस्थान की नील नगरी केअद्भुत दर्शनीय स्थल https://inditales.com/hindi/jodhpur-ke-paryatak-sthal/ https://inditales.com/hindi/jodhpur-ke-paryatak-sthal/#respond Wed, 05 Jun 2024 02:30:55 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3621

मुझे राजस्थान का भ्रमण करना अत्यंत प्रिय है क्योंकि वहाँ के व्यंजन, वहाँ की भाषा, वहाँ का संगीत, वहाँ के उद्यमी नागरिक तथा वहाँ के अचंभित करते बालू के टीले अथवा धोरा मुझे अत्यंत भाते हैं। किन्तु अब तक नील नगरी के नाम से प्रसिद्ध जोधपुर का मैंने भ्रमण नहीं किया था। एक दीर्घ काल […]

The post जोधपुर – राजस्थान की नील नगरी केअद्भुत दर्शनीय स्थल appeared first on Inditales.

]]>

मुझे राजस्थान का भ्रमण करना अत्यंत प्रिय है क्योंकि वहाँ के व्यंजन, वहाँ की भाषा, वहाँ का संगीत, वहाँ के उद्यमी नागरिक तथा वहाँ के अचंभित करते बालू के टीले अथवा धोरा मुझे अत्यंत भाते हैं। किन्तु अब तक नील नगरी के नाम से प्रसिद्ध जोधपुर का मैंने भ्रमण नहीं किया था। एक दीर्घ काल से मेरी भ्रमण सूची में वह अनवरत रूप से आरक्षित था।

मैं जोधपुर विमान द्वारा पहुँची थी। वायु मार्ग द्वारा जोधपुर पहुँचने का आकर्षण इसलिए भी था कि विमान तल जोधपुर नगर के केंद्र बिंदु से अधिक दूर नहीं है। इसका पूर्ण श्रेय महाराजा उम्मैद सिंग को दिया जा सकता है। विमान की खिड़की पर बैठकर उस ऊँचाई से मुझे बालू के टीले तो दिखाई नहीं दिये किन्तु उस ऊँचाई से जोधपुर के दुर्ग एवं राजवाड़े को ढूँढने में मुझे बड़ा आनंद आया।

जोधपुर पहुँचने के पश्चात उसी दिवस हमने उम्मैद भवन संग्रहालय के अवलोकन का निश्चय किया। संग्रहालय बंद होने का समय संध्या ५ बजे का है जिसके लिए पर्याप्त समय शेष था। गणतंत्र दिवस होने के कारण हम किंचित शंकित थे कि यह संग्रहालय कदाचित सार्वजनिक अवकाश के चलते बंद ना हो। किन्तु गणतंत्र दिवस के दिन भी यह संग्रहालय दर्शकों के लिए खुला था। उम्मैद भवन संग्रहालय का वर्णन करने से पूर्व आईये हम जोधपुर के इतिहास पर एक संक्षिप्त चर्चा कर लेते हैं।

जोधपुर का संक्षिप्त इतिहास

ऐसी मान्यता है कि १५वीं सदी में राव जोधा ने जोधपुर की नींव रखी थी तथा उनके पुत्र राव बीका ने बीकानेर की स्थापना की थी। ऐसी मान्यता है कि उन्होंने ऐसा भगवती करणी जी की आज्ञा पर किया था जिन्हें करणी माता के नाम से भी बुलाते हैं।

एक ओर जहाँ सन् १४५९ में एक एकाकी चट्टानी क्षेत्र पर मेहरानगढ़ दुर्ग की नींव रखी गयी, वहीं दूसरी ओर सन् १४८८ में एक निर्जन प्रदेश में बीकानेर के जूनागढ़ दुर्ग की स्थापना की गयी थी, जिसे जंगलदेश, जंगल प्रदेश अथवा जांग्ला देश भी कहते हैं।

करणी माता ने अपने प्रभाव से भिन्न भिन्न कबीलों को एकत्र किया व उन्हें एकजुट किया। सम्पूर्ण अराजकता से भरे काल में राजस्थान में स्थिरता स्थापित की। मैंने इससे पूर्व अनेक अवसरों पर राजस्थान के देशनोक में स्थित करणी माता मंदिर में माता के दर्शन किये थे। उस समय मुझे यह ज्ञात नहीं था कि करणी माता ने राजस्थान का इतिहास रचने में इतनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

जोधपुर के दर्शनीय स्थल

उम्मैद भवन पैलेस

जोधपुर में हमने जहाँ जहाँ भी भ्रमण किया, उपलब्धता के अनुसार हमने ऑटोरिक्शा अथवा उबर का प्रयोग किया। जोधपुर भ्रमण के अंतर्गत हमारा प्रथम गंतव्य था, उम्मैद भवन महल। ८० वर्ष पूर्व निर्मित उम्मैद भवन को विश्व के विशालतम महलों में से एक माना जाता है। यह ऐतिहासिक धरोहर नगरी जोधपुर का सर्वाधिक लोकप्रिय आकर्षण है। इस महल के एक लघु भाग को संग्रहालय में परिवर्तित किया गया है जिसके भीतर प्रवेश करने के लिए एक पृथक प्रवेश द्वार है।

उम्मेद भवन जोधपुर
उम्मेद भवन जोधपुर

महाराजा गज सिंग द्वितीय जो महाराजा उम्मैद सिंग के ज्येष्ठ पुत्र हनुवंत सिंग के पुत्र हैं तथा राठौर वंश के ३९वें पीढ़ी के राजा हैं, वे अपने परिवार समेत इस महल के एक भाग में निवास करते हैं। महल के शेष भाग को अब एक उच्च स्तरीय विश्रामगृह में परिवर्तित किया गया है जो ताज होटल श्रंखला के अंतर्गत आता है। यह अलंकृत महल भारतीय एवं यूरोपीय वास्तु का एक चित्ताकर्षक सम्मिश्रण है।

ऐसा कहा जाता है कि ३४७ कक्षों से सज्ज इस अतिविलासी व्यक्तिगत निवास का निर्माण जोधपुर के निवासियों को १५ वर्षों के लिए एक लाभकारी व्यवसाय उपलब्ध कराने की मंशा से किया गया था। जोधपुर के निवासी उस काल में सूखे की मार झेल रहे थे तथा यह प्रकल्प उन्ही के लिए सूखा राहत उपायों के अंतर्गत कार्यान्वित किया गया था।

महल के मुख्य कक्ष में इस महल के निर्माण कार्य से सम्बंधित प्रदर्शनी है। साथ ही राजपरिवार के सदस्यों की रूचि एवं उनके योगदान भी प्रदर्शित हैं।

उम्मैद भवन के भित्तिचित्र

भवन में प्रवेश करते ही आपकी दृष्टि गुम्बद के नीचे एक अवतल भित्ति पर चित्रित एक विशाल भित्ति चित्र पर पड़ेगी। एक अन्य भित्तिचित्र आपके पृष्ठ भाग में स्थित भित्ति पर चित्रित है। प्रथम भित्तिचित्र में सेनापति दुर्गादास राठौर एवं औरंगजेब के मध्य हुए युद्ध का दृश्य है। इस दृश्य की पृष्ठभूमि में आप मेहरानगढ़ दुर्ग देख सकते हैं। दूसरी भित्तिचित्र में महाराजा उम्मैद सिंग के विवाह की शोभायात्रा का दृश्य है। इस दृश्य की पृष्ठभूमि में उम्मैद भवन चित्रित है। इन भित्तिचित्रों को स्टीफान नोरब्लिन नामक पोलैंड वासी चित्रकार ने चित्रित किया है।

दूसरी भित्तिचित्र के नीचे कांच में गढ़ी संकट मोचन हनुमान जी की छवि है। मैं सोच में पड़ गयी कि इस चित्र को यहाँ प्रदर्शित करने का उद्देश्य केवल धार्मिक भावना है अथवा यह लाक्षणिक है। जैसा कि बताया जाता है, दुर्गादास इस क्षेत्र में राठौर वंश के शासन को संरक्षित रखने में तथा राठौर वंश की सेवा में निरंतर प्रयासरत रहे। ठीक वैसे ही जैसे हनुमान जी भगवान राम की अमोघ सेवा में तत्पर रहने के लिए जाने जाते हैं। तो क्या हनुमान जी का यह चित्र उन दो परिस्थितियों में समानांतरता दर्शाने के लिए प्रदर्शित किया गया होगा?

संग्रहालय क्षेत्र में विविध प्रकार की प्राचीन वस्तुएं, मानवी चित्र, बहुआयामी चित्र, आयुध, मानवी जीवनशैली की वस्तुएं, गृह साज-सज्जा की वस्तुएं आदि प्रदर्शित की गयी हैं।

उम्मैद भवन का सिंहासन कक्ष

उम्मैद भवन का सिंहासन कक्ष सर्वाधिक चित्ताकर्षक प्रतीत हुआ। इस कक्ष को अनेक भित्तिचित्रों से सज्जित किया गया है जो प्राचीन महाकाव्य रामायण में घटी महत्वपूर्ण घटनाओं पर आधारित हैं। इन भित्तिचित्रों को भी पोलैंड वासी चित्रकार स्टीफान नोरब्लिन ने चित्रित किया है।

प्रथम दृष्टया इन चित्रों में दर्शित व्यक्तियों को देख श्री राम, सीता एवं लक्ष्मण का स्मरण नहीं होता है। गत दशकों में यहाँ की कठोर जलवायु के कारण ये भित्तिचित्र गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो गए थे। एक दशक पूर्व पोलैंड के पुरातत्व संरक्षकों के एक समूह ने अथक प्रयास कर इनका नवीनीकरण किया है। चित्रकार स्टीफान नोरब्लिन एवं उनके भित्तिचित्रों के विषय में अधिक जानकारी के लिए यह वृत्तचित्र अवश्य देखें।

इन भित्तिचित्रों को देख मुझे बैंकाक के ग्रैंड रॉयल पैलेस में देखे रामायण चित्रांजलि का स्मरण हो आया।

महल के बाह्य भाग में, प्रवेश द्वार के समीप विंटेज वाहनों का एक संग्रह प्रदर्शित है। विंटेज वाहन सामान्यतः वे वाहन होते हैं जिनका निर्माण १९१९ के आरम्भ से १९३० के अंत तक किया गया था। हमने इस संग्रह से भी विशाल संग्रह जोधपुर के खास बाग में देखा।

उम्मैद भवन में अब भी भिन्न भिन्न अनुष्ठान एवं समारोह आयोजित किये जाते हैं जिनके विषय में अनेक विडियो इन्टरनेट पर उपलब्ध हैं।

जोधपुर का घंटाघर

जोधपुर के घंटाघर का दर्शन करने के लिए हमने एक ऑटोरिक्शा की सेवा ली।

घंटाघर
घंटाघर

यह पांच तलीय अलंकृत घंटाघर बलुआ चट्टानों द्वारा निर्मित है जिसमें अनेक छज्जे एवं झरोखे हैं। हम जब वहाँ गए तब इसे संरक्षण कार्यों के लिए बंद किया गया था। मैं केवल कल्पना ही कर सकती थी कि इस घंटाघर के ऊपर से जोधपुर नगरी एवं दुर्ग का उत्तम परिदृश्य प्राप्त होता होगा।

घंटाघर के चारों ओर स्थित हाट कढ़ाई किये वस्त्रों, हस्तकला की वस्तुओं, मसालों, सुगंधी चाय आदि के लिए  लोकप्रिय है। यह एक व्यस्त हाट है जो क्रेता-विक्रेताओं से भरा रहता है।

हमने भी इस हाट में जाकर अपनी रूचि के अनुसार इसका आनंद उठाया। हमने घंटाघर चौक के निकट स्थित शाही समोसा अरोरा नमकीन मिष्टान्न भण्डार में मिर्ची बड़ा/पकोड़ा एवं समोसा जैसे स्थानीय व्यंजनों का आस्वाद लिया। श्री मिश्रीलाल होटल उनकी विशेष रबड़ी के लिए प्रसिद्ध है।

यहाँ की स्वच्छता के विषय में कुछ भी कहने में मैं असमर्थ हूँ। किन्तु इतना स्वादिष्ट मिर्ची बड़ा मैंने इससे पूर्व केवल गंगाशहर के छोटू मोटू के यहाँ खाया था।

जोधपुर की पाल हवेली

हम हाट के दूसरे छोर पर स्थित प्रवेश की ओर जाने लगे। हमने पाल हवेली का अवलोकन करने का निश्चय किया। पाल हवेली को अब दो भिन्न धरोहर होटलों में परिवर्तित किया गया है। दोनों होटलों की छतों पर जलपान गृह अथवा कैफे हैं जहाँ से अप्रतिम परिदृश्य दिखाई देता है।

पाल हवेली से सूर्यास्त
पाल हवेली से सूर्यास्त

इनमें से एक कैफे में बैठकर संध्या के समय अदरक वाली चाय का आस्वाद लेते हुए परिदृश्यों का आनंद उठाना स्वयं में एक अद्वितीय अनुभव था। क्षितिज में विभिन्न रंगों से अठखेलियाँ खेलता सूर्य अस्त की ओर बढ़ रहा था। समक्ष चट्टानी पहाड़ी पर भव्य मेहरानगढ़ दुर्ग विराजमान था। दुर्ग के एक ओर नीली छतों के अनेक घर थे जिनके कारण जोधपुर को ब्लू सिटी या नील नगरी कहते हैं। दूसरी ओर गुलाब सागर सरोवर था। इन अप्रतिम परिदृश्यों को केवल हम ही नहीं निहार रहे थे। इन चित्ताकर्षक दृश्यों को चिरस्थायी बनाने के प्रयास में एक ड्रोन भी ऊपर उड़ रहा था।

तूरजी का झालरा- एक लुभावनी बावड़ी

जोधपुर के इस भाग का आनंद हमने पदयात्रा द्वारा उठाया। हमने मार्ग में अनेक सुन्दर हवेलियाँ देखीं। उनमें से कई हवेलियों को होटलों में परिवर्तित कर दिया गया है। कई हवेलियाँ अब उच्च स्तरीय दुकानों में परिवर्तित हो चुकी हैं जिनमें उच्च स्तर की उत्तम वस्तुओं की विक्री की जाती है। अंततः हम एक प्राचीन बावड़ी के समक्ष पहुँचे। इस बावड़ी का नाम है, तूरजी का झालरा। यह ३०० फीट गहरी बावड़ी है।

तूरजी का झालरा बावड़ी
तूरजी का झालरा बावड़ी

लगभग २५० वर्ष प्राचीन इस बावड़ी का निर्माण जोधपुर के महाराजा अभयसिंग की महारानी तंवर तूर जी ने अपने निरिक्षण में करवाया था। उस काल में राज परिवार की स्त्रियों का सार्वजनिक विकास के लिए किये गए कार्यों का निरिक्षण करना एक सामान्य घटना होती थी। इसकी संरचना महारानी के पीहर गुजरात में निर्मित बावड़ियों से साम्य रखती है। इस झालरे के जल का प्रयोग प्रमुख रूप से राज्य की स्त्रियाँ ही करती थीं।

मैंने पढ़ा था कि यह झालर अनेक दशकों से जलमग्न था तथा जोधपुर के RAAS होटल द्वारा इसका जीर्णोद्धार किया गया था। यह होटल इस बावड़ी से लगा हुआ है। यह जोधपुर की लाल शिलाओं द्वारा निर्मित है। इसमें नृत्य करते हाथी एवं अन्य पशुओं के उत्कीर्णन हैं। देवी देवताओं की भी मूर्तियाँ हैं। जल निकास के लिए गाय एवं शेर के मुख की संरचना की गयी है।

हमने समीप स्थित एक कैफे में भोजन किया जहाँ से बावड़ी का विहंगम दृश्य प्राप्त हो रहा था। बावड़ी को उत्तम रूप से प्रकाशित किया गया है जो सर्व सामान्य जनता के लिए २४ घंटे उपलब्ध रहता है। लोग यहाँ आकर बैठते हैं तथा यहाँ के वातावरण का आनंद उठाते हैं। अपने इस धरोहर को स्वच्छ रखने का उनका प्रयास स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। यह सब देख मन प्रसन्नता से भर उठा।

जसवंत थड़ा

जसवंत थड़ा जाने के लिए हमने एक रिक्शा किराए पर लिया।

जसवंत थड़ा एक राजसी स्मारक है जो देवकुंड सरोवर के निकट स्थित है तथा चारों ओर से चट्टानी पहाड़ियों से घिरा हुआ है। श्वेत संगमरमर द्वारा निर्मित इस भव्य स्मारक को महाराजा सरदार सिंग ने बनवाया था। उनके पिता महाराजा जसवंत सिंग द्वितीय की अंतिम इच्छा पूर्ण करते हुए उन्होंने यहाँ उनका अंतिम संस्कार किया। तत्पश्चात उनकी स्मृति में इस स्मारक का निर्माण कराया।

जसवंत ठाडा
जसवंत ठाडा

जसवंत थड़ा को लोग मारवाड़ का ताजमहल कहते हैं। इसकी संरचना एक मंदिर के समान है जिस के ऊपर एक शिखर है। यह ओरछा की छत्रियों जैसा प्रतीत होता है। यह एक राजसी समाधी है।

एक प्रतिभाशाली स्थानीय गायक बीरबलरामजी के राजस्थानी गीतों से सम्पूर्ण वातावरण सजीव हो उठा था। साथ में वे रावणहत्था नामक वाद्य यंत्र बजा रहे थे। मैंने उन्हें Game Of Throne का संगीत सुनाया तथा उनसे अनुरोध किया कि वे उसे अपने वाद्य यंत्र पर बजा कर सुनाएँ। उन्होंने हमें वह संगीत बजाकर सुनाया तथा उसमें अपनी विशेष छाप भी डाल दी।

मेहरानगढ़ दुर्ग – जोधपुर का अद्वितीय रत्न

राव चुँडा अथवा चामुंडाराय ने मंडौर में राठौरों की राजधानी स्थापित की थी। राव चुँडा को मंडौर क्षेत्र दहेज में प्राप्त हुआ था। दो पीढ़ियों के पश्चात राव जोधा ने एक वीरान विशालकाय व ऊँची चट्टान पर मेहरानगढ़ दुर्ग का निर्माण कराया। यह दुर्ग उनकी राजधानी मंडौर से कुछ मील दूर स्थित है। इसकी ऊँचाई उत्तम चौकसी एवं उत्तम प्राकृतिक सुरक्षा प्रदान करने में अत्यंत सहायक थी। मेहरानगढ़ का अर्थ है, सूर्य का गढ़। राव जोधा एक सूर्य वंशी महाराजा जो थे।

मेहरानगढ़ दुर्ग जोधपुर
मेहरानगढ़ दुर्ग जोधपुर

यह दुर्ग आसपास के मैदान से लगभग ४०० फीट ऊँचे धरातल पर स्थित है। लगभग ५०० वर्षों तक यह राठौरों का प्रमुख केंद्र था। ५०० गज लम्बा यह दुर्ग राजस्थान के विशालतम दुर्गों में से एक माना जाता है। यह ऊँची भित्तियों द्वारा संरक्षित है। इसमें सात द्वार है जिन्हें विक्ट्री द्वार, फतेह द्वार, भैरों द्वार, डेढ़ कामग्रा द्वार, जयपोली, मार्टी द्वार तथा लोहा द्वार कहा जाता है। इस दुर्ग में अनेक महल अथवा विशाल कक्ष हैं जो उत्तम रूप से संरक्षित हैं। सभी कक्ष चटक रंगों में रंगे तथा अलंकृत हैं। दुर्ग में छः गलियारे तथा अनेक मुक्तांगन हैं।

मेहरानगढ़ दुर्ग के महल

मेहरानगढ़ के महलों में फूल महल, मोती महल, शीष महल, जनाना महल आदि अधिक लोकप्रिय हैं। फूल महल मेहरानगढ़ के सभी महलों में सर्वाधिक भव्य महल है। इस महल में संगीत प्रदर्शन आयोजित किये जाते थे। मोती महल अपेक्षाकृत साधारण महल है जो वर्तमान महाराजा का महल है। शीशमहल में दर्पण के टुकड़ों द्वारा जटिल आकृतियाँ बनाई गयी हैं जो अत्यंत मनभावन हैं। इसके सभी आलों में जब दीप जलाए जाते थे तो यह महल अत्यंत आकर्षक प्रतीत होता होगा। हमारे परिदर्शक ने हमें बताया कि महाराजा शीशमहल का प्रयोग ध्यान-साधना के लिए करते थे।

मेहरानगढ़ का मोती महल
मेहरानगढ़ का मोती महल

यह दुर्ग एवं इसके महलों का निर्माण लगभग ५०० वर्षों तक जारी था। दुर्ग को देख कर प्रसन्नता होती है कि इसके संरक्षकों ने इनके नवीनीकरण एवं संरक्षण की दिशा में उत्तम कार्य किया है। दुर्ग के भीतर संग्रहालय की दुकानें तथा एक स्थानीय हाट स्थित है जहाँ से हस्तकला की वस्तुओं की विक्री की जाती है। आप संग्रहालय की दुकानों की वस्तुओं को ऑनलाइन भी क्रय कर सकते हैं। मेहरानगढ़ संग्रहालय न्यास ने इस दुर्ग एवं इसके महलों के विषय में पर्याप्त जानकारी एकत्र कर उनके वेबस्थल पर प्रकाशित की है।

मेहरानगढ़ का रानीवास
मेहरानगढ़ का रानीवास

दुर्ग अत्यंत विस्तृत है तथा भीतर मार्ग अत्यंत ढलुआँ है। जिन्हें पैदल चलने में कष्ट हो, उनके लिए दुर्ग के भीतर एक उद्वाहक अथवा लिफ्ट उपलब्ध कराई गयी है जो पर्यटकों को न्यूनतम शुल्क पर टिकट खिड़की से दुर्ग की एक छत तक ले जाती है। इस छत का नाम मेहरान छत है जहाँ एक जलपानगृह (कैफे) भी है। इस कैफे में रात्रि का भोजन उपलब्ध होता है। दुर्ग भ्रमण पूर्ण कर आपको इसी छत पर आना होगा जहाँ से यह उद्वाहक आपको टिकट खिड़की तक ले जायेगी। इस उद्वाहक की कार्यप्रणाली संध्या के पश्चात बंद कर दी जाती है। इसके पश्चात आप ढलुआँ मार्ग द्वारा नीचे उतर सकते हैं। यह मार्ग भी सुगम है।

जोधपुर में उत्तम राजस्थानी थाली मुझे केवल कैफे मेहरान में ही मिली जो दुर्ग के प्रवेश द्वार के निकट स्थित है। यह कैफे मेहरान छत से एक तल नीचे स्थित है।

मेहरानगढ़ में चामुंडा मंदिर

आप दुर्ग के भीतर स्थित चामुंडा माता मंदिर का अवलोकन करने अवश्य जाएँ। ऊँचाई पर स्थित यह एक लघु किन्तु सुन्दर मंदिर है। यदि आपकी आस्था ना हो तो आप वहाँ से जोधपुर की नील नगरी का अवलोकन कर सकते हैं। मुझे आश्चर्य होता है कि इस मंदिर को जोधपुर भ्रमण की प्रचलित सूची में सम्मिलित क्यों नहीं किया गया है! इसके पश्चात भी यहाँ दर्शनार्थियों एवं पर्यटकों की भीड़ खिंची चली आती है। इस मंदिर तक पहुँचने के लिए आपको कैफे मेहरान से कुछ सोपान चढ़ने पड़ेंगे।

परिदृश्यों के छायाचित्र लेने के लिए यह एक सर्वोत्तन क्षेत्र है। यहाँ से आप एक विशाल मुक्तांगन में जा सकते हैं जहाँ अनेक पुरातन वृक्ष हैं। आप उनकी छाँव में बैठकर तनिक सुस्ता सकते हैं। आपकी सुविधा के लिए बलुआ शिलाओं द्वारा निर्मित बैठकें रखी हुई हैं। आप वहाँ कई लोक गायकों को देखेंगे जो गलियारों एवं तोरणों के नीचे बैठकर अपनी लोककला प्रस्तुत करते रहते हैं। मंदिर से चारों ओर का उत्तम परिदृश्य दिखाई देता है। मंदिर तक जाने के लिए स्त्रियों के लिए किंचित छोटा व सुगम मार्ग है तथा पुरुषों के लिए किंचित लम्बा पृथक मार्ग है। दोनों ही मार्ग आकर्षक हैं। मैं सोचने लगी कि क्या यह व्यवस्था वर्ष २००८ में हुए भगदड़ का परिणाम है!

सामान्य ज्ञान – स्थानीय जनता यह मानती है कि यह दुर्ग एवं बीकानेर का जूनागढ़ दुर्ग, केवल ये दो दुर्ग ही ऐसे हैं जो अब भी राठौरों के स्वामित्व में हैं क्योंकि करणी माता ने इन दोनों दुर्गों की नींव रखी थी। अन्य सभी राजपुताना दुर्ग अब त्यक्त हो चुके हैं।

दुर्ग से नील नगरी(प्राचीन नगर) तक पद भ्रमण

मेरे जोधपुर भ्रमण की एक दूसरी विशिष्टता थी, मेहरानगढ़ दुर्ग से जोधपुर की प्राचीन नगरी तक पद भ्रमण। यदि आप यह पद भ्रमण करना चाहते हैं तो आप दुर्ग के सामान्य निकास द्वार से बाहर ना आयें। आप उस द्वार से निकास करें जो प्राचीन नगर की ओर जाती है। आप वहाँ उपस्थित सुरक्षा कर्मियों से आवश्यक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

नील नगरी जोधपुर
नील नगरी जोधपुर

दुर्ग से निकास करते ही आपकी प्रथम दृष्टि जोधपुर के प्रतिष्ठित नीले घरों पर पड़ेगी। उनमें से कुछ घरों की भित्तियाँ भित्तिचित्रों से चित्रित हैं। सम्पूर्ण दृश्य अत्यंत मनभावन प्रतीत होता है। मुझे बताया गया कि इन घरों पर प्रयुक्त नीला रंग नील एवं चूने के सम्मिश्रण से प्राप्त हुआ है जो स्थानीय खदानों में उपलब्ध होता है।

कहा जाता है कि प्राचीन काल में नीले रंग का प्रयोग ब्राह्मणों के घरों को दर्शाने के लिए किया जाता था। किन्तु अब वह भेद नहीं रहा। अब स्थानीय लोग जोधपुर की उष्णता से बचने के लिए घरों को नीले रंग में रंगते हैं ताकि घर के भीतर शीतलता रहे। कुछ का मानना है कि नीला रंग मच्छरों एवं अन्य कीटों को दूर रखता है।

जो भी कारण हो, ये नीले रंग के घर जोधपुर को एक पृथक वैशिष्ट प्रदान करते हैं। इसी कारण जोधपुर को राजस्थान की नील नगरी अथबा ब्लू सिटी कहा जाता है।

खास बाग

यह एक अप्रतिम होटल है जिसके कक्ष केवल राजपरिवार एवं उनके अतिथियों के लिए आरक्षित रहते हैं। हमने इस होटल के मुक्ताकाश बगीचा भोजनालय में रात्रि का भोजन करने का निश्चय किया।

मैंने यहाँ अत्यंत स्वादिष्ट बाजरा मिर्ची की रोटी खायी। हमें बताया गया कि होटल में अनेक जलपानगृह हैं। वे एक नवीन जलपानगृह इसकी छत पर भी खोलने जा रहे हैं।

हमने यहाँ राजपरिवार के विंटेज वाहनों का विशाल संग्रह देखा जो उम्मैद भवन के संग्रह से कहीं अधिक था।

सरदार सरकारी संग्रहालय

इस संग्रहालय का नामकरण महाराजा सरदार सिंग पर किया गया है। इसे औपचारिक रूप से सन् १९३६ में खोला गया था। यह संग्रहालय एक विस्तृत सार्वजनिक उम्मैद उद्यान के मध्य स्थित है। इस संग्रहालय में राजस्थान की संस्कृति का उत्सव मनाती अनेक कलाकृतियाँ एवं अवशेष संग्रहीत हैं।

महेश्वरी माता मूर्ति - सरदार संग्रहालय जोधपुर
महेश्वरी माता मूर्ति – सरदार संग्रहालय जोधपुर

संग्रहीत वस्तुओं में सर्वाधिक रोचक संग्रह हैं, वे मसौदे जिन पर १०वीं शताब्दी से राजपरिवार के सभी महानुभावों की जन्म कुण्डलियाँ हैं। साथ ही रागमाला चित्र, हिन्दू देवियों के चित्र, त्रिविम दर्शक, दक्षिण- पूर्वी एशिया से आयी व्यापारिक वस्तुएं, जोधपुर एवं आसपास का मानचित्र जो २०वीं शताब्दी का है, जैन चित्रावलियाँ, मूर्तियाँ आदि का भी प्रदर्शन किया गया है।

ब्रिटिश भारतीय सेना में अभियंता, स्थापत्यकार एवं लेखक कर्नल सर सैमुअल स्विंटन जैकब द्वारा लिखित पुस्तकों के कुछ पन्ने रखे हुए हैं। उनके द्वारा रूपांकित अनेक प्रतिष्ठित भवनों में बीकानेर का उम्मैद भवन महल भी सम्मिलित है। ऐसा उल्लेख किया गया है कि अपने समकालीन स्थापत्यकारों को राजस्थान के अप्रतिम संरचनाओं के विषय में बताने की ललक में उन्होंने एक विस्तृत पुस्तक की रचना की जिसका नाम है, ‘Jaypore Portfolio of Architectural Details’। १२ अध्यायों में संकलित इस पुस्तक में सटीक रेखाचित्रों का संकलन है जो भारतीय स्थापत्य शैली के विविध तत्वों के रूपांकन एवं निर्माण का विस्तृत वर्णन करता है। ये तत्व हैं,

  1. 1. मुंडेर एवं स्तंभ के नीचे स्थित चौकी (Copings and Plinths)
  2. 2. स्तंभ: शीर्ष एवं आधार
  3. 3. उत्कीर्णित द्वार
  4. 4. कोष्ठक (Brackets)
  5. 5. तोरण (Arches)
  6. 6. कठघरा (Balustrade)
  7. 7. आड़ी-तिरछी आकृतियाँ
  8. 8. भित्तियां एवं सतह
  9. 9. न्याधार एवं भित्तिचित्र (Dados and Frescos)
  10. 10. प्राचीर (Parapets)
  11. 11. छत्रियाँ एवं गुंबद
  12. 12. झरोखे एवं छज्जे की खिड़कियाँ

स्थापत्य कला से सम्बंधित उनकी पुस्तक से इतने जटिल रेखांकन प्रदर्शित थे कि मेरा सर चकराने लगा था। जब हम सूक्ष्म चित्रों अथवा उत्कृष्ट रूप से अलंकृत विशाल संरचनाओं को देखते हैं तो वे अपनी सुन्दरता से हमारा ध्यान अनायास ही आकर्षिक कर लेते हैं। किन्तु यह कल्पना करना भी कठिन हो जाता है कि प्राचीन काल में भारत में ऐसे अद्भुत कलाकार एवं चित्रकार थे जिन्होंने इन रूपांकनों को अपनी शिल्पकला से सजीव किया था। उनमें से अधिकाँश को जानना तो दूर, उनके नाम तक ज्ञात नहीं हैं। किन्तु उन सभी ने अपनी अप्रतिम धरोहर हमारे लिए छोड़ी है जिसे हमें संजो कर रखना है।

जोधपुर के आसपास के दर्शनीय स्थल

मंडोर उद्यान

जोधपुर से इसके एक उपनगर मंडोर तक जाने के लिए आधे घंटे का समय लगता है। ओसियाँ जाने के मार्ग में हमने मंडोर में अल्प विराम लिया तथा यहाँ स्थित मंडोर उद्यान में लगभग एक घंटा व्यतीत किया।

कई सदियों तक मंडोर जोधपुर के अनेक महाराजाओं की राजधानी रही है। राठौरों द्वारा अपनी राजधानी जोधपुर में स्थानांतरित करने के पश्चात भी मंडोर की महत्ता कम नहीं हुई। आगामी ४०० वर्षों तक मंडोर राजपरिवार से सदस्यों की समाधि स्थल रही है। उसके पश्चात जसवंत थड़ा का निर्माण हुआ। उद्यान में अनेक छत्रियाँ हैं। सभी छत्रियों के ऊपर शिखर हैं तथा सम्पूर्ण छत्रियों पर जटिल व सूक्ष्म उत्कीर्णन हैं। हमने यहाँ ऐसे विशाल एवं अलंकृत संरचनाओं की उपस्थिति की अपेक्षा नहीं की थी। इन संरचनाओं को देखते ही मेरा मन उनके प्रति श्रद्धा से भर गया। इसका कारण कदाचित यह हो सकता है कि वे देखने में मंदिर जैसे प्रतीत हो रहे थे।

मन्दौर के मंदिर
मन्दौर के मंदिर

सम्पूर्ण स्थल में नवीनीकरण का कार्य चल रहा था। जिसके चलते यहाँ की उर्जा बाधित हो रही है, ऐसा मुझे प्रतीत हुआ। मेहरानगढ़ न्यास ने ‘Adopt a Heritage’ एक धरोहर को गोद लेने की इस परियोजना के अंतर्गत मंडोर उद्यान को गोद लिया है। हमारे पास समय की कमी थी जिसके कारण हम मंडोर महल, Hall of Heros, संग्रहालय तथा यहाँ स्थित अन्य मंदिरों के दर्शन नहीं पाए। आप उन सब का दर्शन अवश्य कीजिये क्योंकि वे अत्यंत दर्शनीय हैं।

मुझे बताया गया कि मंडोर के निकट स्थित बालसमंद सरोवर महल अत्यंत सुन्दर है जहाँ आप संध्या के समय कुछ क्षण अवश्य व्यतीत करें। इस महल का स्वामित्व जोधपुर के राजपरिवार के हाथों में है। मुझे यह भी बताया गया कि महल में स्वादिष्ट जोधपुरी भोजन परोसा जाता है। आप चाहें तो कुछ दिवस भी इस महल में व्यतीत कर सकते हैं।

ओसियाँ

जोधपुर से लगभग डेढ़ घंटे वाहन चलाकर हम ओसियाँ पहुंचे। यदि आपके राजस्थान भ्रमण की सूची में जैसलमेर सम्मिलित नहीं है तो आप ओसियाँ अवश्य जाएँ। यहाँ भी वैसे ही बालू के टीले हैं, यद्यपि जैसलमेर में स्थित टीलों से किंचित न्यून हैं।

सच्चियां माता मंदिर ओसियाँ
सच्चियां माता मंदिर ओसियाँ

ओसियाँ अपने सुन्दर मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। ओसियाँ के परिदृश्यों की पृष्ठभूमि में सच्चियाय माता मंदिर अत्यंत आकर्षक लगता होगा किन्तु अब यहाँ दर्शनार्थियों एवं पर्यटकों की अत्यधिक भीड़ रहने लगी है। बड़ी संख्या में पधारे श्रद्धालुयों की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए मंदिर परिसर में अनेक परिवर्तन किये गए हैं।

ओसियाँ के रेट के टीले
ओसियाँ के रेट के टीले

ओसियाँ जाकर वहाँ भ्रमण करने के मेरे निश्चय के पीछे एक विशेष कारण था। मैं ओसियाँ की उस वायु में श्वास लेना चाहती थी जहाँ किसी काल में मेरे ओसवाल पूर्वजों ने जीवन व्यतीत किया था तथा यहाँ स्थित बालू के टीलों पर भ्रमण किया था। बालू के टीलों पर पर्यटकों की अत्यधिक भीड़ थी जो तीव्र गति के जीपों द्वारा इन टीलों पर चढ़-उतर रहे थे। आनंद उठा रहे थे। हम इन टीलों पर पदभ्रमण करना चाहते थे। इन जीपों से स्वयं को सुरक्षित रखते हुए हमने बालू के टीलों पर दीर्घ काल कर रोहण किया। अंततः हम एक शांत स्थान पर पहुंचे जहाँ बैठकर हमने सूर्यास्त के अप्रतिम दृश्यों का आनंद लिया।

यात्रा सुझाव

  • इस संस्करण में मैंने जिस दर्शनीय स्थलों का उल्लेख किया है, उन सभी का अवलोकन करने के लिए कम से कम ४ दिवस आवश्यक हैं। प्रथम दिवस जसवंत थड़ा, मेहरानगढ़ दुर्ग एवं नीली नगरी में पदभ्रमण के लिए आवश्यक हैं। दूसरे दिवस आप उम्मैद भवन महल, सरकारी संग्रहालय तथा उसके आसपास भ्रमण कर सकते हैं। तीसरा दिवस आप मंडोर उद्यान एवं आसपास के क्षेत्रों के लिए रख सकते हैं। यदि मंदिरों एवं भग्नावशेषों के अवलोकन में आपकी रूचि है तो चौथे दिवस आप ओसियाँ जा सकते हैं।
  • जोधपुर यात्रा नियोजित करने से पूर्व आप मेहरानगढ़ तथा आसपास के क्षेत्रों में आयोजित संगीत प्रदर्शनों एवं उत्सवों की पूर्व जानकारी प्राप्त कर लें। उसी के अनुसार अपनी यात्रा कार्यक्रम का नियोजन करें।
  • जोधपुर एक उष्णता प्रधान क्षेत्र है। शीत ऋतु में भी दिवस की ऊष्मा असहनीय हो सकती है। अतः अपने स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए आवश्यक प्रबंध अवश्य करें।
  • जोधपुर के प्राचीन क्षेत्र, नीली नगरी में भ्रमण करते समय किसी भी गंतव्य को ध्यान में ना रखें। इससे आप इस प्राचीन नगरी में पदभ्रमण का सही आनंद उठा सकते हैं। सम्पूर्ण प्राचीन क्षेत्रों में अनवरत जीर्णोद्धार का कार्य चल रहा है ताकि इस क्षेत्र को इसकी पूर्ववत भव्यता पुनः प्रदान कराई जा सके।

जोधपुर कैसे जाएँ तथा कहाँ ठहरें?

  • करणी भवन धरोहर होटल जोधपुर विमानतल से केवल ५ मिनट की दूरी पर स्थित है। किन्तु इस होटल में उद्वाहक अथवा लिफ्ट नहीं है। जोधपुर के इस भाग में उबर टैक्सी आसानी से उपलब्ध होती हैं।
  • तूरजा का झालरा के निकट भी अनेक धरोहर विश्रामगृह हैं। आवश्यक हो तो लिफ्ट के विषय में पूर्व जानकारी प्राप्त कर लें अन्यथा भूतल पर स्थित कक्षों की मांग करें।
  • जोधपुर भ्रमण के लिए हमें ऑटोरिक्शा अधिक सुगम प्रतीत हुए। विशेषतः पुरातन नगर की संकरी गलियों में वे अत्यंत सुविधाजनक हैं। हमने २०० रुपये प्रति घंटे के दर से उन्हें भुगतान किया।
  • जोधपुर देश के अन्य क्षेत्रों से रेल तथा सड़क मार्गों द्वारा भी सुविधाजनक रूप से जुड़ा हुआ है।
  • जोधपुर एवं दिल्ली/मुंबई के मध्य अनेक विमान सेवायें उपलब्ध हैं। इनके अतिरिक्त भी कई ऐसे प्रमुख नगर हैं जहाँ से आप विमान द्वारा सीधे जोधपुर आ सकते हैं।

यह खुशबू ललानी द्वारा प्रदत्त एक अतिथि संस्करण है।

खुशबू ललानी ने सॉफ्टवेर के क्षेत्र में १३ वर्षों तक कार्य किया है। मानवीय गतिविधियों के दीर्घकालिक परिणाम तथा उनसे सीख लेने की प्रणाली, इस विषयों में खुशबू की विशेष रूचि है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post जोधपुर – राजस्थान की नील नगरी केअद्भुत दर्शनीय स्थल appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/jodhpur-ke-paryatak-sthal/feed/ 0 3621
कुम्भलगढ़ दुर्ग – राजपूत वीरों की पावन भूमि https://inditales.com/hindi/kumbhalgarh-durg-rajasthan-vishwa-dharohar/ https://inditales.com/hindi/kumbhalgarh-durg-rajasthan-vishwa-dharohar/#respond Wed, 14 Feb 2024 02:30:05 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3385

कुम्भलगढ़ दुर्ग राजस्थान के राजसमंद जिले में स्थित अरावली पर्वतों के पश्चिमी श्रंखलाओं में गर्व से खड़ा मेवाड़ का एक किला है। यह दुर्ग राजस्थान के लोकप्रिय पर्यटन सूची में कदाचित ना हो किन्तु इसकी कुछ अद्वितीय विशेषताओं के कारण भारत की यह एक अद्भुत धरोहर है। यह उन दुर्लभ दुर्गों में से एक है […]

The post कुम्भलगढ़ दुर्ग – राजपूत वीरों की पावन भूमि appeared first on Inditales.

]]>

कुम्भलगढ़ दुर्ग राजस्थान के राजसमंद जिले में स्थित अरावली पर्वतों के पश्चिमी श्रंखलाओं में गर्व से खड़ा मेवाड़ का एक किला है। यह दुर्ग राजस्थान के लोकप्रिय पर्यटन सूची में कदाचित ना हो किन्तु इसकी कुछ अद्वितीय विशेषताओं के कारण भारत की यह एक अद्भुत धरोहर है।

कुम्भलगढ़ दुर्ग
कुम्भलगढ़ दुर्ग
  • यह उन दुर्लभ दुर्गों में से एक है जिस पर कभी किसी ने आक्रमण नहीं किया। इसीलिए इस पर कभी किसी शत्रु ने विजय प्राप्त नहीं की है। इसी कारण इसे अजय गढ़ भी कहते हैं।
  • यह दुर्ग अरावली पर्वत श्रंखलाओं के मध्य समुद्र सतह से लगभग ३५०० फीट ऊँचे पर्वत शिखर पर निर्मित है।
  • इस दुर्ग के चारों ओर एक लम्बी भित्त है जिसकी लम्बाई लगभग ३६ किलोमीटर तथा चौड़ाई ७ मीटर है। यह भित्ति कई पहाड़ियों एवं घाटियों के ऊपर से जाती है। इस भित्ति ने अपने भीतर अनेक गढ़ों, मंदिरों, बावडियों, आवासीय इमारतों को समाया हुआ है।
  • चीन की भित्ति के पश्चात यह विश्व की दूसरी सर्वाधिक लम्बी अखंड भित्त है।
  • कुछ वर्षों के पश्चात इस भित्ति पर घोड़ा गाडी की सवारी भी उपलब्ध हो जायेगी।
  • यह मेवाड़ के सर्वाधिक लोकप्रिय महाराजा महाराणा प्रताप का जन्मस्थल है।
  • इस दुर्ग का निर्माण राणा कुंभा ने करवाया था तथा उन्होंने ही इस पर राज भी किया था। राणा कुम्भा सिसोदिया राजपूत के वंशज थे।
  • यह दुर्ग राजस्थान के सर्वाधिक लोकप्रिय पर्यटन स्थल, उदयपुर से लगभग ८५ किलोमीटर दूर स्थित है।
  • १५वीं सदी में निर्मित यह दुर्ग १९वीं सदी के अंतिम चरण तक बसा हुआ था।
  • यह दुर्ग अब एक विश्व धरोहर स्थल है। राजस्थान के पर्वतीय दुर्गों की सूची में इसका नाम अंकित है।
  • निम्न चित्र में दुर्ग की विशाल भित्त एवं राम पोल प्रवेश द्वार दिखाई दे रहे हैं। इसके समक्ष खड़े वाहन एवं लोगों के आकार की तुलना भित्त के आकार से की जाए तो आपको दुर्ग की विशालता का अनुमान हो जाएगा।

कुम्भलगढ़ दुर्ग – विश्व की दूसरी सर्वाधिक लम्बी भित्त

राम पोल कुम्भलगढ़
राम पोल कुम्भलगढ़

कुम्भलगढ़ दुर्ग से संबंधित किवदंतियों में यह कहा गया है कि राणा कुम्भा इस दुर्ग का निर्माण सर्वाधिक विशाल दुर्ग के रूप में करना चाहते थे। साथ ही ऐसा दुर्ग बनवाना चाहते थे जहाँ से वे चित्तौड़गढ़ को देख सकें। किन्तु जैसे ही उन्होंने इस दुर्ग का निर्माण आरंभ कराया, वे अधिक कार्य नहीं करा सके।

कुम्भलगढ़ से जुड़ी लोककथाएं एवं मिथक

ऐसा कहा जाता है कि कारीगर दिवसभर जितना भी निर्माण कार्य करते थे, रहस्यमयी रीति से वह सम्पूर्ण निर्माण कार्य रात्र भर में नष्ट हो जाता था। एक रात्रि में राजा को स्वप्न में उनकी कुलदेवी के दर्शन हुए जो उनसे कह रही थीं कि गढ़ के निर्माण कार्य को अखंडित रूप से कार्यान्वित करने के लिए किसी मनुष्य की बलि देनी पड़ेगी। किन्तु देवी ने यह भी कहा कि बलि देने के लिए उस मनुष्य को स्वेच्छा से आगे आना पड़ेगा। बलि देने के लिए उस पर किसी भी प्रकार का दबाव नहीं होना चाहिए।

राजा ने सार्वजनिक घोषणा करवाई। मेर (या मेहर) नाम का एक पुरुष स्वेच्छा से अपनी बलि देने के लिए सहमत हो गया किन्तु उसके लिए उसने तीन अंतिम अभिलाषाएं व्यक्त कीं। पहली अभिलाषा थी कि आरंभ में दुर्ग का नाम उसके नाम पर रखा जाए। इसी कारण इस दुर्ग को आरंभ में कुम्भलमेर दुर्ग कहा जाता है। उसकी दूसरी अभिलाषा थी कि बलि के पश्चात जहाँ भी उसका शीष गिरे, वहाँ एक मंदिर का निर्माण कराया जाए। तथा जहाँ भी उसका धड़ गिरे, वहाँ महल का निर्माण किया जाए। उसकी अभिलाषा के अनुसार ही इस दुर्ग का निर्माण कराया गया है।

आप इस दुर्ग पर चढ़ सकते हैं। जैसा कि अन्य पर्वतीय दुर्गों में होता है, यहाँ भी आप जैसे जैसे ऊपर चढ़ते जायेंगे, आपके चारों ओर के परिदृश्य भी परिवर्तित होते जायेंगे। विशेषतः इस दुर्ग में, जब आप ऊपर चढ़ते जायेंगे, दुर्ग के चारों ओर निर्मित भित्त भी अधिकाधिक दृष्टिगोचर होने लगेगी।

इस दुर्ग की विशालता एवं भित्त की लंबाई आपको आश्चर्य चकित करने लगेगी। इसका सही अनुमान आप प्रत्यक्ष दुर्ग के भीतर जाकर ही लगा सकते हैं। दुर्ग के ऊपर बना महल दो भागों में है। एक भाग महल की स्त्रियों के लिए तथा दूसरा भाग पुरुषों के लिए हुआ करता था। प्रत्येक भाग में भीतर अनेक प्रांगण एवं गुंबज हैं।

शिव मंदिर

दुर्ग की सीमा के भीतर एक अप्रतिम प्राचीन शिव मंदिर है। यह तीन तल का विशाल मंदिर दुर्ग में प्रवेश करते ही हमारे दाहिनी ओर स्थित है। इसके दर्शन अवश्य करिए।

शिव मंदिर कुम्भलगढ़
शिव मंदिर कुम्भलगढ़

हमें बताया गया कि दुर्ग की सीमा के भीतर अनेक छोटे छोटे मंदिर हैं किन्तु हम सबके दर्शन नहीं कर पाए क्योंकि हम उदयपुर से कुम्भलगढ़ की एक-दिवसीय यात्रा के अंतर्गत यहाँ पहुंचे थे। आशा है हम शीघ्र ही अधिक समय के साथ यहाँ पुनः आयेंगे। तब इस दुर्ग के विस्तृत रूप से दर्शन करेंगे। साथ ही समीप स्थित वन्यप्राणी अभयारण्य में भी भ्रमण करेंगे।

बादल महल

इस महल को बादल महल कहते हैं क्योंकि इसकी ऊँचाई इतनी अधिक है कि मेघ इसके झरोखों से भीतर प्रवेश कर सकते हैं। आप इसके गुंबजों के किनारे से इसके सर्वोत्तम तल तक चढ़ सकते हैं जहाँ से आपको दुर्ग का विहंगम दृश्य प्राप्त होगा।

सीढियाँ चढ़ते हुए कैसा दिखता है यह दुर्ग
सीढियाँ चढ़ते हुए कैसा दिखता है यह दुर्ग

दुर्ग परिसर में अनेक बावड़ियाँ हैं जिनमें अनेक प्राचीन हैं तथा कुछ का अब भी निर्माण कार्य जारी है। महल का वह भाग जो पुरुषों के लिए निहित था, उसे अब संग्रहालय के रूप में विकसित किया जा रहा है। यदि आप भविष्य में इस महल के दर्शन के लिए यहाँ आयें तो कदाचित आपको संग्रहालय के अवलोकन का भी अवसर प्राप्त हो जाएगा। साथ ही आप दुर्ग की भित्तियों के ऊपर भी जा सकेंगे।

चट्टान के आधार पर निर्माण
चट्टान के आधार पर निर्माण

यहाँ पर एक विजय द्वार भी है जिसे अब तक कोई भी आक्रमणकारी नष्ट नहीं कर पाया। इसी कारण यह दुर्ग अब तक अजेय ही रहा है। एक यज्ञ शाला भी है जहाँ राज परिवार के सदस्य विभिन्न पूजा-अर्चना एवं धार्मिक अनुष्ठान करते थे। शिव मंदिर एवं इस यज्ञ शाला का निर्माण दुर्ग निर्माण के समय ही किया गया था। दुर्ग के ऊपर से आप मंदिरों का एक अन्य समूह भी देखेंगे

कुम्भलगढ़ दुर्ग के आसपास अनेक रिसोर्ट एवं होटल हैं। वन्यजीव अभयारण्य में प्राणियों एवं वन्य समृद्धि का अवलोकन करने के लिए आप जंगल सफारी कर सकते हैं। जंगल के आसपास पदभ्रमण के भी अनेक पर्याय हैं किन्तु आप उन्हें वर्ष में एक सीमित कालावधि के भीतर ही कर सकते हैं क्योंकि यह क्षेत्र अत्यंत शुष्क एवं उष्ण है। आप कुम्भलगढ़ दुर्ग एवं रणकपुर का एक साथ दर्शन, उदयपुर से एक रोचक एक-दिवसीय यात्रा के अंतर्गत कर सकते हैं।

पर्यटकों के लिए आवश्यक सूचनाएं

  • कुम्भलगढ़ दुर्ग पर्यटकों द्वारा अवलोकन के लिए खुला है।
  • यह गढ़ पर्यटकों के लिए सप्ताह के सातों दिवस प्रातः ८ बजे से सायं ६ बजे तक खुला रहता है। केवल राष्ट्रीय अवकाशों पर पूर्व सूचना अवश्य प्राप्त कर लें।
  • प्रवेश शुल्क नाम मात्र है।
  • गढ़ के भीतर छायाचित्रीकरण की अनुमति है। इसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क भी नहीं लिया गया।
  • यदि आपको ऊँचाई से भय लगता हो तो आप गढ़ के ऊपर सावधाने बरतें।
  • इस गढ़ के भीतर उतार-चढ़ाव पर चलना पड़ता है। साथ ही सीढ़ियाँ भी चढ़नी उतरनी पड़ती हैं। यदि आपका स्वास्थ्य अथवा वय इसकी अनुमति ना दे तो गढ़ में कितने भीतर तक जाना है अथवा कितने ऊपर तक जाना है, अपने शारीरिक परिस्थिति के अनुसार इसका निर्णय लें। इन परिस्थितियों में आप गढ़ के प्रवेश द्वार, राम पोल को देख सकते हैं। निकट स्थित शिव मंदिर जा सकते हैं। नीचे से गढ़ का विहंगम दृश्य प्राप्त होता है, उसे निहार सकते हैं।
  • गढ़ में चढ़ने, दुर्ग का अवलोकन करने, अरावली पर्वतमाला के परिदृश्यों को निहारने तथा अन्य पर्वत शिखरों को देखने आदि में आप आसानी से दो घंटे व्यतीत कर सकते हैं।
  • गढ़ के विस्तृत भित्तियों के ऊपर पैदल सैर कर सकते हैं। किन्तु इसके लिए अतिरिक्त समय की आवश्यकता होगी।
  • गढ़ के वसाहती क्षेत्र में स्थित चित्रों के अवशेष अत्यंत रोचक हैं। उन्हें अवश्य देखिये।
  • मरूक्षेत्र होने के कारण दिन के समय यहाँ अत्यंत उष्णता एवं शुष्कता होती है।
  • अपने साथ पेयजल रखना अत्यावश्यक है। साथ ही सूर्य की तीखी किरणों से स्वयं का रक्षण करने के लिए तथा सर ढंकने के लिए आवश्यक प्रबंध करना ना भूलें।
  • कुम्भलगढ़ भ्रमण एवं उसके निवांत अवलोकन के लिए सर्वोत्तम समय शीत ऋतु है।
  • यदि आपके पास समय हो तथा आपकी रूचि हो तो समीप स्थित रणकपुर जैन मंदिर देखना ना भूलें। साथ ही कुम्भलगढ़ वन्यजीव अभयारण्य में भी अवश्य सफारी करें।
  • उदयपुर में ठहरते हुए, एक टैक्सी किराए पर लेकर कुम्भलगढ़ दुर्ग एवं रणकपुर जैन मंदिर, दोनों का अवलोकन व दर्शन एक-दिवसीय भ्रमण के रूप में आप आसानी से कर सकते हैं।

यदि आप उदयपुर में अथवा उसके समीप जा रहे हों तो इस गढ़ का भ्रमण अवश्य करें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post कुम्भलगढ़ दुर्ग – राजपूत वीरों की पावन भूमि appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/kumbhalgarh-durg-rajasthan-vishwa-dharohar/feed/ 0 3385
राजस्थान की जल संस्कृति – नीरज दोशी से वार्ता https://inditales.com/hindi/rajasthan-jal-sanskriti-dharohar/ https://inditales.com/hindi/rajasthan-jal-sanskriti-dharohar/#comments Wed, 25 Oct 2023 02:30:18 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3304

अनुराधा – नमस्ते। इंडीटेल्स डीटुअर्स के इस संस्करण में आप सबका स्वागत है। आज हमारे साथ हैं नीरज दोशीजी जो जयपुर के जल धरोहर पदभ्रमण, Heritage water walks नाम की संस्था के संस्थापक हैं। यह इस दिशा में एक अत्यंत ही रोचक पहल है। मैंने सदा ही इस मांग पर पुरजोर बल दिया है कि […]

The post राजस्थान की जल संस्कृति – नीरज दोशी से वार्ता appeared first on Inditales.

]]>

अनुराधा – नमस्ते। इंडीटेल्स डीटुअर्स के इस संस्करण में आप सबका स्वागत है। आज हमारे साथ हैं नीरज दोशीजी जो जयपुर के जल धरोहर पदभ्रमण, Heritage water walks नाम की संस्था के संस्थापक हैं। यह इस दिशा में एक अत्यंत ही रोचक पहल है। मैंने सदा ही इस मांग पर पुरजोर बल दिया है कि यदि भारत को अपनी स्वर्णिम संस्कृति पुनः प्राप्त करनी है तो उसे अपनी प्राचीन राजस्थान की जल संस्कृति को वापिस लाना होगा। जल का सम्मान करना होगा। जल की विक्री नहीं, उसकी आराधना करनी होगी क्योंकि जल हमारे जीवन का मूलभूत आधार है।

जल के बिना किसी जीव का जीवित रहना संभव नहीं है। भारत में जल स्त्रोतों की अवस्था एवं उसके संरक्षण की आवश्यकता किसी से छुपी नहीं है। वह भी राजस्थान में, जिसका अधिकतर भाग मरुभूमि के अंतर्गत आता है। जयपुर के निवासी होने के कारण जल से हमारे संबंधों, उस के संरक्षण एवं संस्कृति के विषय में चर्चा करने के लिए नीरज से उत्तम जानकार कौन हो सकता है? वे एक ऐसे राज्य के निवासी हैं जो सबसे सूखे राज्यों एवं जल संरक्षण व संग्रहण के क्षेत्र में सर्वाधिक विकसित राज्यों में से एक है। तो आईये आज की इस महत्वपूर्ण चर्चा में हम सब नीरजजी का स्वागत करते हैं।

नीरज – डीटुअर्स में मुझे आमंत्रित करने के लिए धन्यवाद अनुराधाजी। विश्व भर के पाठकों से राजस्थान के जल की गाथाओं को साझा करते हुए मुझे प्रसन्नता हो रही है। मैं आप सबको यह भी बताना चाहता हूँ कि जल धरोहर पदभ्रमण, Heritage water walks का आरम्भ करने की प्रेरणा मुझे कहाँ से मिली। साथ ही यहाँ के जल स्त्रोतों की विलक्षणता की भी चर्चा करना चाहता हूँ।

अनुराधा – आईये राजस्थान की जल संस्कृति के विषय में चर्चा आरम्भ करते हैं। राजस्थान में जल संरक्षण व संचयन के अनेक उदहारण देखने को मिलते हैं। वहां लोगों का जल से कैसा सम्बन्ध है?

नीरज – जी। जल के बिना जीवन असंभव है। राजस्थान में इसी जल का अभाव है। इसीलिए वहां के निवासियों का जल के साथ प्रगाढ़ सम्बन्ध है। राजस्थान जैसी मरुभूमि भी वसाहत से परिपूर्ण है, यह विश्व का प्रथम अचम्भा है। राजस्थान में जल का विशेष महत्त्व है।

सम्पूर्ण विश्व में २५ मरुस्थल हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर भाग में महान भारतीय मरुस्थल थार है, जिसे ग्रेट इंडियन डेजर्ट भी कहा जाता है। उस मरुस्थल का ७५ प्रतिशत भाग राजस्थान में है। शेष भाग पाकिस्तान में है। इस मरुस्थल का कुल क्षेत्रफल लगभग २००,००० वर्ग किलोमीटर है। वहीं अफ्रीका के विशालतम मरुस्थल, सहारा मरुस्थल का क्षेत्रफल लगभग ९,२००,००० वर्ग किलोमीटर है। विश्व के अन्य मरुभूमियों की तुलना में थार मरुस्थल की विशेषता उसकी प्राकृतिक रूप से निवास कर रही बड़ी जनसँख्या है। सहारा की जनसँख्या का घनत्व एक व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है। इसके ठीक विपरीत थार मरुस्थल की जनसँख्या का घनत्व १४३ व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है जो एरिज़ोना अथवा अमेरिका के मरुभूमि के जनसँख्या घनत्व से १४० गुना अधिक है। राजस्थान में जिस प्रकार जीवन विकसित हुआ, उसका सम्बन्ध जल से अवश्य ही होगा क्योंकि सब कुछ अंततः जल से ही जुड़ा हुआ है। यदि आप राजस्थान की संस्कृति के भीतर झाँक कर देखें तथा उसकी परतों को खोलते हुए उसके मूल में जाएँ तो आपको वहां जल ही जल दिखाई देगा।

राजस्थान की जल संस्कृति – जल प्रबंधन

अनुराधा – राजस्थान की मरुभूमि में इतनी बड़ी संख्या में लोग निवास करते हैं, इसका एक ही अर्थ है कि वे अपने जल का उपयुक्त प्रबंधन करने में सफल हुए हैं।

नीरज – जल प्रबंधन एक आयाम है। जल प्रबंधन का उनके जीवन का अभिन्न अंग बनना एक दूसरा किन्तु महत्वपूर्ण आयाम है जहां उन्हें यह प्रतीत ही नहीं होता है कि वे इस दिशा में परिश्रम कर रहे हैं। जैसे जब भी किसी गाँव में कुआँ आदि खोदा जाता है तब सभी गांववासी पूर्ण उत्साह से उसमें भाग लेते हैं। उन्हें यह आभास ही नहीं होता है कि वे अपने दैनिक कार्य से हटकर कुछ कर रहे हैं। जल संचयन एवं प्रबंधन के प्रत्येक कार्य को अपनी परंपरा मानते हुए उन्होंने अपना जीवन जल के चारों ओर ही विकसित किया है। अपने दैनिक कार्यों के भाग के रूप में वे जल संचयन, संरक्षण एवं प्रबंधन करते हैं।

उदहारण के लिए, विवाह, जन्म तथा मृत्यु जैसे सुखद व दुखद अवसरों पर वे प्रतिज्ञा लेते हैं कि नवजात शिशु अथवा स्वर्गवासी व्यक्ति के नाम पर वे जल के एक स्त्रोत का निर्माण अवश्य कराएँगे। ऐसे अवसरों के लिए किया गया कार्य उन्हें श्रम प्रतीत नहीं होता है, अपितु वह आनंद का अवसर होता है। मेरे बालपन में मेरी दादी स्नान के लिए मुझे केवल आधी बाल्टी जल देती थी तथा कहती थी कि यदि अधिक जल चाहिए तो स्वयं लेकर आओ। वह मेरे लिये बड़ी सीख सिद्ध हुई। उसके पश्चात मुझे कभी भी जल के अभाव का तनिक भी आभास नहीं हुआ।

अनुराधा – मैं देवी भागवत पुराण पढ़ रही हूँ। उसके अनुसार किसी भी जल स्त्रोत का निर्माण कराना एक पुण्य कार्य है। किन्तु उससे भी बड़ा पुण्य कार्य उस जल स्त्रोत का प्रबंधन होता है, संरक्षण होता है। जल स्त्रोत का केवल निर्माण ही नहीं, अपितु उसका संरक्षण भी आवश्यक है। इसी तथ्य में भारत का सम्पूर्ण जल दर्शन समाया हुआ है।

नीरज – महाभारत का युद्ध १८ दिवसों तक चला था। महाभारत महाकाव्य १८ अध्यायों में विभक्त है जिसकी १८ पुस्तकें हैं। इसके १३वें अध्याय को अनुशासन पर्व कहा जाता है। इस अध्याय में मृत्यु शैय्या पर लेटे भीष्म पितामह एवं युधिष्ठिर के मध्य हुए संवाद हैं। मृत्यु से पूर्व भीष्म पितामह अपना सम्पूर्ण ज्ञान युधिष्ठिर को देना चाहते थे। युधिष्ठिर ने भीष्म से पूछा था कि सबसे उत्तम कर्म कौन सा होता है? उन्होंने उत्तर दिया कि सर्वोत्तम कर्मों में एक है, प्यासे को जल पिलाना, चाहे वह मनुष्य हो अथवा पशु, पक्षी, वृक्ष आदि। ऐसा करने से ६०,००० पुनर्जन्मों से मुक्ति मिल जाती है।

अनुराधा –  इससे मुझे प्याऊ संस्कृति का स्मरण हो आया जो विशेषतः ग्रीष्म ऋतु में देखे जाते हैं। भारत के राजस्थान, मध्य प्रदेश या उत्तर प्रदेश जैसे अनेक उष्ण प्रदेशों में ग्रीष्म ऋतु की चिलचिलाती धूप में मैंने कई लोगों को देखा है जो घड़ों में जल भरकर उसका शीतल जल प्यासे को पिलाते हैं। किसी भी प्रकार का प्रश्न पूछे बिना वे लोगों की सेवा करते हैं। वहीं दूसरी ओर जब हम विमानतल पर जाते हैं तो वहां पाव या आधा लीटर जल की बोतल के लिए ५० रुपये से भी अधिक शुल्क माँगा जाता है। दोनों में कितनी भिन्नता है। एक ओर सेवा की प्राचीन परंपरा है तो दूसरी ओर स्वार्थी व्यापार। मेरा यही मानना है कि जिस दिन से हम जल एवं जल स्त्रोतों का आदर करना सीखेंगे, उसी दिन से भारत की भूतपूर्व गरिमा पुनः वापिस आ जायेगी।

जल स्त्रोतों के विभिन्न प्रकार

अनुराधा – क्या आप हमें राजस्थान के जल स्त्रोत संरक्षण तकनीकियों एवं प्राचीन प्रक्रियाओं के विषय में कुछ बताएँगे? वहां कौन कौन से जल स्त्रोत उपलब्ध हैं?

नीरज –  राजस्थान में जल स्त्रोतों की अनेक वास्तु शैलियाँ हैं। कई जल स्त्रोत ऐसे हैं जो देखने में तो एक प्रकार के ही हैं किन्तु भिन्न भिन्न क्षेत्रों में होने के कारण उनके नाम भिन्न हैं। राजस्थान को ५ प्रमुख क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है। शेखावटी, मारवाड़, मेवाड़, ढूंढाड़ तथा हाडोती। जल के विषय में हाडोती अन्य चारों से अधिक भाग्यशाली है क्योंकि यह चम्बल नदी के समीप है। चम्बल नदी राजस्थान से बहती इकलौती चिरस्थाई नदी है।

शेखावाटी के चुरू नगर में सेठानी का जोहारा - राजस्थान की जल संस्कृति
शेखावाटी के चुरू नगर में सेठानी का जोहारा

राजस्थान के जल स्त्रोतों में प्रमुखतः कुआं, जलाशय एवं बावड़ियां हैं। राजस्थान में लगभग ३००० जल स्त्रोत हैं तथा सभी मानव निर्मित हैं। यदि किसी गाँव, नगर या शहर का नाम ‘सर’ से अंत होता है तो वह स्थान निश्चित रूप से अपने जल स्त्रोत के नाम से ही जाना जाता है क्योंकि ‘सर’ का अर्थ है, सरोवर। जैसे अलसीसर, पदमसर, लूणकरणसर, इन सभी के नाम वहां के जल स्त्रोतों के नाम पर आधारित हैं। यही दर्शाता है कि प्राचीनकाल में लोग जल को इतना महत्त्व देते थे तथा उसका आदर करते थे।

राजस्थान में जल स्त्रोत का एक ऐसा प्रकार भी है जो आप भारत में अन्यत्र कहीं नहीं देखेंगे। वह है, कुईं, जो कुआं का स्त्रीलिंग संस्करण है। ये कुईं किसी भी क्षेत्र के भूविज्ञान एवं स्थलाकृति पर आधारित हैं। शेखावटी क्षेत्र में अनेक कुईं हैं जो ‘रेजानी पानी’ के अंतर्गत आते हैं। राजस्थान में जल के तीन प्रकार हैं। प्रथम है, पालर पानी, जो वर्षा का जल है। दूसरा है, पातालपानी, जो भूमिगत जल है। तीसरा है, रेजानी पानी, जिसे वायु की आर्द्रता से एकत्र किया जाता है।

शेखावाटी के कुछ भागों में भूमि सतह से कुछ फीट नीचे जिप्सम की परतें हैं तथा उनके ऊपर बालू है। इसके कारण वर्षा का जल भूमि के भीतर नहीं जा पाता तथा बालू की परत में ही एकत्र रहता है। यहाँ के लोगों ने व्यक्तिगत उपयोग के लिए उस जल के निकास का भी उपाय खोज लिया है। उन्होंने संकरी(४-५ फीट व्यास), खड़ी व बेलनाकार कुओं का निर्माण किया।

मंडावा में हरलालका कुआँ
मंडावा में हरलालका कुआँ

इसकी गहराई लगभग ४०-५० फीट तक हो सकती है। इस प्रक्रिया में कुँए के भीतर कम दबाव का क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है। इससे बालू में एकत्र जल का वाष्पीकरण होने के पश्चात भी वायु की आर्द्रता पुनः जल में परिवर्तित हो जाती है। कुईं कुँए का ही संकरा प्रकार है।

कुईं व्यक्तिगत अथवा सार्वजनिक दोनों हो सकते हैं। वे किसी विशेष परिवार, क्षेत्र अथवा जाति की व्यक्तिगत संपत्ति हो सकती हैं। परिवार की कुईं उनके निवास के भीतर ही होती हैं। एक क्षेत्र में होने के पश्चात भी ये कुईं आपस में जुड़े हुए नहीं होते हैं। इस जल की शुद्धता अधिक होती है क्योंकि कुईं में एकत्र होने से पूर्व यह बालू की अनेक परतों से होकर जाता है।

अनुराधा – इससे मुझे बुरहानपुर के कुओं का स्मरण हो गया। वे भूमिगत रूप से  आपस में जुड़े हुए हैं तथा सम्पूर्ण नगरी में झरने एवं वर्षा के जल की आपूर्ती करते हैं। ये भी कुईं के समान लगते हैं किन्तु वहां का भूविज्ञान एवं स्थलाकृति भिन्न होने के कारण उनका जल संचयन तकनीक भिन्न है।

नीरज – नाहरगढ़ दुर्ग जल संसाधन पदभ्रमण के समय आप दो कृत्रिम जल प्रणालियाँ देख सकते हैं। इस प्रणाली का आविष्कार प्रथम ईसवी में रोम वासियों ने किया था। यह तकनीक मध्य-पूर्वी देशों से होते हुए भारत में आई थी।

जल स्त्रोतों की स्थापत्य शैली

अनुराधा – भारत के पश्चिमी भागों में, गुजरात एवं राजस्थान में अत्यंत सुन्दर बावड़ियां हैं। वे सब उत्कृष्ट रूप से उत्कीर्णित होते हुए भी एक दूसरे से भिन्न हैं क्योंकि वे सब अपने स्थानीय परिवेश एवं संस्कृति को उजागर करती हैं। मुझे राजस्थान की चाँद बावडी एवं गुजरात की रानी की वाव के विषय में जानना है। उनका निर्माण कैसे किया गया? उनमें तिरछी पौढ़ियाँ क्यों हैं? उन्हें भूमि को गहराई तक खोदकर बनाया गया है। आज ८००-९०० वर्षों पश्चात भी वे अखंड कैसे खड़ी हैं?

नीरज – ये बावड़ियां अत्यंत गहरी हैं। इस कारण उनके भीतर सीधे सीधे नहीं उतरा जा सकता क्योंकि ऐसा करने के लिए एकाग्रता एवं समन्वय की तीव्र आवश्यकता पड़ेगी। अन्यथा हम अपना संतुलन खो कर सीधे जल की गहराई में गिर जायेंगे। वहीं तिरछी सीढ़ियों से गहराई का आभास नहीं होता है।

आभानेरी की चाँद बावड़ी - राजस्थान की जल संस्कृति
आभानेरी की चाँद बावड़ी

संतुलन भी बना रहता है तथा गिरने पर भी २-३ पौढ़ियाँ  से ही गिरेंगे। इस संरचना में पौढ़ियों की संख्या भी बढ़ जाती है तथा प्रत्येक पौढ़ी की ऊँचाई भी अधिक नहीं होती। अन्यथा इतनी गहरी बावड़ी में यदि सीधी पौढ़ियाँ बनाई जाएँ तो या तो प्रत्येक पौढ़ी की ऊँचाई अत्यधिक हो जायेगी जिससे नीचे उतरने का संकट कई गुना बढ़ जाएगा, या पौढ़ियों की ऊँचाई कम कर उनकी संख्या बढ़ाई जाए, उससे बावड़ी का घेरा प्रभावित होगा। तिरछी सीढ़ियाँ देखने में भी अत्यंत आकर्षक लगती हैं तथा एक समय में अधिक से अधिक लोग बिना संकट के नीचे उतर सकते हैं।

राजस्थान की जल संस्कृति

अनुराधा –  राजस्थान की संस्कृति में जल की क्या भूमिका है?

नीरज – किसी भी क्षेत्र की संस्कृति उसकी जीवनशैली, वस्त्रशैली, परम्पराएं एवं खान-पान से परिभाषित होती है। हमारे लिए जल एक उत्सव है। पुष्कर का ही उदहारण लें। वहां सब कुछ जल के चारों ओर ही केन्द्रित है, चाहे वह होटल व धर्मशालायें हों, विद्यालय व महाविद्यालय हों, या मेले एवं उत्सवों का आयोजन हो।

लहरिया साडीपर जल तरंगों का आभास
लहरिया साडीपर जल तरंगों का आभास

जल ही जीवन है। जल हमारी आवश्यकता तब भी थी, अब भी है। किन्तु जल संस्कृति में बड़ा परिवर्तन आ गया है। पारंपरिक जल संस्कृति का स्थान आधुनिक संस्कृति ने ले लिया है। अब हमारे घरों में सीधे नल से जल की आपूर्ति की जाती है। इसके अपने लाभ व हानियाँ हैं। एक ओर जल प्राप्त करने में परिश्रम नहीं करना पड़ता है तो दूसरी ओर हम जल स्त्रोतों के महत्त्व एवं उनके संरक्षण के विषय से दूर हो जाते हैं। आप ही सोचिये, क्या घर में नल के जल का प्रयोग करते समय आपके मस्तिष्क में उस स्त्रोत की छवि भी आती है जहां से इस जल की आपूर्ति की जा रही है? क्या एक क्षण के लिए भी उसकी परिस्थिति आपको चिंता में डालती है? कदाचित नहीं!

राजस्थान की एक पारंपरिक वस्त्र शैली है, बांधनी। उसमें लहरिया एक लोकप्रिय आकृति है जो जल की तरंगों को दर्शाती हैं। किन्तु राजस्थान में तो कहीं भी बहता हुआ जल नहीं है। इसीलिए लोग भगवान से प्रार्थना करते हैं कि वे शीघ्रातिशीघ्र वर्षा दें ताकि उन्हें भी बहता हुआ जल प्राप्त हो। उसी  के प्रतीक स्वरूप यह लहरिया साड़ी मानसून के आरम्भ में तथा तीज में पहनी जाती है।

अनुराधा – बहते जल की कितनी सुन्दर अभिव्यक्ति है यह लहरिया साड़ी। इसमें भगवान से प्रार्थना भी है कि वे उन्हें वर्षा से अनुग्रहीत करें।

नीरज – कल्पना कीजिये कि सहस्त्रों महिलायें एक साथ लहरिया साड़ियाँ पहन कर एक साथ खड़ी हैं। उन्हें देख आपको बहते हुए जल का आभास होगा। पुरुष भी तीज त्योहारों में लहरिया शैली के वस्त्रों से बने साफे धारण करते हैं।

जैसलमेर का गडीसर सरोवर - राजस्थान की जल संस्कृति
जैसलमेर का गडीसर सरोवर

जल से सम्बंधित दो प्रकार की नृत्य शैलियाँ हैं। पहला है, गुजरात का भवाई जिसमें स्त्रियाँ अपने सर पर कई मटके रखकर नृत्य करती हैं। दूसरा है राजस्थान का चारी नृत्य जिसमें स्त्रियाँ अपने सर पर एक घड़ा रख कर नृत्य करती हैं। भवाई का मटका टेराकोटा अथवा मिट्टी का होता है तो चारी का मटका ताम्बे या पीतल का होता है। स्थानीय भाषा में ताम्बे के घड़े को चारी कहते हैं। वे अपने नृत्य में घर से जल लेने के लिए जाने का दृश्य प्रस्तुत करती हैं। किन्तु एक सर पर अनेक घड़े क्यों? प्राचीन काल में समय की कमी तथा जल स्त्रोतों की दूरी के कारण स्त्रियाँ एक समय में ही कई घड़ों को अपने सर पर उठाती थीं। बिना जल छलकाए, कई मटके सर पर उठाकर घर तक पहुँचना कोई आसान कार्य नहीं है। जल से भरे मटकों को सर पर रखकर वे नीचे कंकड़ पत्थर नहीं देख सकती थीं। वह भी नंगे पैर। बिना नीचे देखे ही अपने पैरों से कंकड़-पत्थर का आभास लेते हुए, बिना जल छलकाए वे कैसे घर पहुँचती थीं, यह नृत्य उसी का चित्रण है। यह नृत्य अत्यंत मनमोहक व सुन्दर होता है।

अनुराधा –  मैंने कई सांस्कृतिक आयोजनों में यह नृत्य देखा है। किन्तु मैं नहीं जानती थी कि अपने नृत्य में वे जल ले जाने का दृश्य प्रस्तुत करती हैं।

नीरज – यह उनकी दिनचर्या से प्रेरित नृत्य है। इस क्षेत्र में पनिहारी संगीत भी लोकप्रिय है। पनिहारी का अर्थ है, वह स्त्री जो नदी आदि से जल भरने जा रही है। समुदाय की सभी स्त्रियाँ एकत्र होकर एक साथ जल भरने जाती हैं। मार्ग में वे आपस में चर्चा करते हुए अपने सुख-दुख बांटती हैं, हंसी-ठिठोली करती हैं। उनके पायल एवं कंगनों से निकलती मधुर ध्वनी वातावरण में संगीत का रस घोल देती हैं।

अनुराधा –  मैंने भी वह मधुर संगीत सुना है।

नीरज – अनेक संगीतज्ञों ने अनेक शैलियों में यह संगीत बजाया व गाया है। उनमें यह कथा बहुधा प्रस्तुत की जाती है। एक स्त्री सम्पूर्ण श्रृंगार कर घूंघट ओढ़कर जल लेने के लिए जा रही है। मार्ग में उसे एक घुड़सवार मिलता है जो प्यासा है। वह उसे जल पिलाती है। उस समय उसे यह ज्ञान नहीं होता है कि वह उसका मंगेतर है क्योंकि उसने अपने मंगेतर को इससे पूर्व कभी नहीं देखा था। घर पहुंचकर वह उसी युवक को अपने घर में बैठे देखती है। पनिहारी संगीत में यह कथा अवश्य प्रस्तुत की जाती है।

जल के अभाव में यहाँ बर्तन धोने की प्रक्रिया भी भिन्न होती थी। वे घर के बर्तन सूखी राख या बालू से धोते थे। यह प्रक्रिया वैज्ञानिक रूप से भी उत्तम है। राख में शुद्ध कार्बन होता है जिसकी सरंध्रता अत्यधिक होती है। जब राख को जूठे बर्तन पर फैलाया जाता है तो वो तेल, घी आदि को तुरंत सोख लेता है। तत्पश्चात बर्तनों को सूखे कपडे से पोंछ लिया जाता था। इसे जलबिन स्वच्छता कहते हैं।

ऐसा नहीं है कि अब चारकोल अथवा कार्बन का प्रयोग नहीं किया जाता। जल स्वच्छ करने वाले यंत्रों में, दन्त मंजन तथा चेहरे धोने वाले साबुन आदि में इसका प्रयोग किया जाता है।

जयपुर में जल धरोहर पदभ्रमण

अनुराधा –  हमें अपने धरोहर पदभ्रमण के विषय में भी बताएं जो आप जयपुर के दो महलों में करते हैं। इन पदभ्रमणों के कौन से विशेष बिंदु हैं?

नीरज – हम जयपुर में दो स्थानों पर धरोहर पदभ्रमण कराते हैं। एक है, नाहरगढ़ दुर्ग तथा दूसरा है, आमेर दुर्ग

जलेब चौक से आमेर दुर्ग का दृश्य
जलेब चौक से आमेर दुर्ग का दृश्य

२०२१ में मैं अमेरिका से जयपुर वापिस आ गया था। जयपुर में मैंने एक वर्षा जल अनुसन्धान कंपनी खोली जो संस्थागत स्तर जल प्रबंधन के क्षेत्र में कार्य करती है। मैं एक मरुस्थल निवासी हूँ। मेरी १६ पीढ़ियाँ मरुभूमि में ही जन्मी तथा समाप्त हो गयीं। जब मैंने नाहरगढ़ जल प्रणाली तथा आमेर जल प्रणाली को देखा, मैं अचंभित रह गया। वे पहाड़ी के शीर्ष पर जल एकत्र करते हैं। यह अत्यंत अनोखा है। मुझे ऐसा लगा कि इसके विषय में सबको जानकारी देना कितना आवश्यक है।

राजस्थान की जल संस्कृति – ना जल, ना संस्कृति, ना सभ्यता!

पर्यटन की दृष्टि से राजस्थान भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय गंतव्यों में से एक है। इसे क्या विशेष बनाता है? जल। यदि राजस्थान में जल ना होता तो संस्कृति नहीं होती, सभ्यता नहीं होती तथा राजस्थान ही नहीं होता। आमेर नाहरगढ़ की तुलना में अधिक प्राचीन है। जब जयपुर की रचना की जा रही थी तब इसे जयपुर के रक्षण के लिए बनाया गया था। जब सेना के लिए दुर्ग का निर्माण किया जाता है तो उसके भीतर सक्षम जल प्रणाली भी बनाई जाती है। सैनिक-दुर्ग में प्रतिदिन बाहर से जल नहीं लाया जा सकता। दुर्ग की भित्तियाँ उस राजा की गाथाएँ कहती हैं जिन्होंने इस अद्वितीय दुर्ग की संरचना की थी तथा एक सक्षम जल प्रणाली भी बनाई थी।

हमारा जल धरोहर पदभ्रमण दो घंटों का है। इस भ्रपदमण में हम ३०० प्राचीन जल स्त्रोतों का अवलोकन करते हैं। इस पदभ्रमण के तीन घटक हैं, राजस्थान की वास्तु धरोहर, तकनीकी धरोहर तथा सांस्कृतिक धरोहर। आमेर दुर्ग राजस्थान की अनमोल धरोहर है जिसे राजा मानसिंह ने बनवाया था। दुर्ग का वास्तु शिल्प व स्थापत्य तथा जल संचयन प्रणाली इसकी तकनीकी धरोहर हैं। यह दुर्ग राजस्थान की संस्कृति का द्योतक है, जल जिसका एक महत्वपूर्ण भाग है। इस पदभ्रमण का ध्येय है कि लोग यहाँ आयें, इन धरोहरों को जाने, समझे तथा उनका आनंद उठायें तथा राजस्थान के मूल तत्व से जुड़ें।

जल संस्कृति के विषय में पर्यटकों का मत

अनुराधा –  पर्यटकों को आमेर दुर्ग में सबसे अधिक क्या भाता है?

नीरज – पर्यटकों को सबसे अधिक क्या भाता है, यह बता पाना कठिन है। मैं लोगों की प्रतिक्रियाओं से अभिभूत हो गया हूँ। उन्हें कथाएं रुचिकर लगीं। जल प्रणाली ने उन्हें अत्यंत प्रभावित किया। उन्हें यह सत्य अचंभित कर देता है कि कैसे हम सब जल द्वारा एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।

अनुराधा –  क्या इन पदभ्रमणों के पश्चात आपने उनमें जल के प्रति कृतज्ञता का भाव देखा?

नीरज – अवश्य। भारत में लोग सामान्यतः जल के प्रति संवेदनशील हैं। किन्तु मैंने विदेशों से आये पर्यटकों में जल के प्रति अधिक संवेदनशीलता देखी है। उन्हें आमेर दुर्ग की सम्पूर्ण जल प्रणाली अचंभित कर देती है। वे जल संग्रहण एवं संरक्षण के साथ साथ, दुर्ग की जल प्रणाली के अन्य आयामों को जानने के लिए भी अत्यंत उत्सुक रहते हैं। आमेर दुर्ग एवं नाहरगढ़ दुर्ग की भिन्न आवश्यकताएं थीं। इसलिए उनकी जल प्रणाली भी भिन्न हैं। राजस्थान में इस प्रकार के अनेक दुर्ग हैं जो पहाड़ियों पर निर्मित हैं तथा सभी में इनके क्षेत्र के अनुसार जल प्रणालियाँ हैं।

जयपुर जल धरोहर का पदभ्रमण

अनुराधा –  इस संस्करण के पाठकों से मेरा कहना है कि यदि आप जयपुर की यात्रा कर रहे हैं, तो आप नीरज से अवश्य भेंट करें तथा जल धरोहर का पदभ्रमण करें। नीरज, भारत में कौन से अन्य जल-विशेष क्षेत्र हैं? मध्यप्रदेश का मांडू जल संरक्षण का अप्रतिम उदहारण है। मुंबई के कान्हेरी गुफाओं में भी उत्तम जल संरक्षण  प्रणाली है। पहाड़ियों पर निर्मित सभी दुर्गों में अप्रतिम जल प्रणालियाँ हैं क्योंकि सेना के लिए यह अत्यावश्यक है। क्या इनके अतिरिक्त भी ऐसे स्थान हैं जो विशेष रूप से जल को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं?

नीरज – दिल्ली एक ऐसी जल समृद्ध नगरी है।

अपने आसपास के जल धरोहरों को ढूँढें व जानें

अनुराधा –  मैं पणजी में रहती हूँ जो दो ओर से दो नदियों से तथा तीसरी ओर से अरब महासागर से घिरी हुई एक द्वीप नगरी है। इसके पश्चात भी इस नगरी का मूल धरोहर भूमिगत जल का स्तोत्र है। मूल नगरी पहाड़ी से आते हुए भूमिगत जल स्त्रोत के चारों ओर केन्द्रित थी। मैं आपसे सहमत हूँ कि हम सब जहां भी रह रहे हों, नगर, गाँव अथवा कस्बा, हमें अपने जल के धरोहरों को खोजना चाहिए। हमें भी उनके विषय में अवश्य बताएं।

नीरज – इस प्रकार की धरोहरों को खोजना तथा उनके विषय में सब को जानकारी देना, यह पर्यटन की दृष्टि से अत्यंत लाभकारी होगा। भारत में ऐसे अनेक धरोहर होंगे। यही कारण है कि राजस्थान सरकार ने मुझे ऐसे पदभ्रमणों का विकास करने के लिए आमंत्रित किया था। राजस्थान एक मरुभूमि होने के कारण उसकी जल संरक्षण प्रणाली अत्यंत विकसित थी। भारत के अन्य राज्यों में भी ऐसे हीरे अवश्य होंगे।

अनुराधा – जल के विषय में इतनी रोचक जानकारी देने के लिए आपका हृदयपूर्वक धन्यवाद।

IndiTales Internship Program के अंतर्गत नीरज दोशी के साथ चर्चा के ध्वनी संस्करण का पल्लवी ठाकुर ने प्रतिलेखन किया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post राजस्थान की जल संस्कृति – नीरज दोशी से वार्ता appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/rajasthan-jal-sanskriti-dharohar/feed/ 1 3304
चित्तौड़गढ़ दुर्ग के मंदिर – मीरा बाई की भक्ति स्थली https://inditales.com/hindi/chittorgarh-durg-prachin-mandir/ https://inditales.com/hindi/chittorgarh-durg-prachin-mandir/#comments Wed, 12 Jul 2023 02:30:06 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3102

चित्तौड़गढ़ दुर्ग के भीतर अनेक मंदिर हैं जो दुर्ग में चारों ओर बिखरे हुए हैं। दुर्ग के भीतर ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ मंदिर नहीं है। मुझे स्मरण नहीं कि मैं चित्तौड़गढ़ दुर्ग में कहीं खड़ी हूँ तथा मुझे चित्तौड़गढ़ दुर्ग के मंदिर दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं। हमें सदा ऐसा ही प्रतीत होता […]

The post चित्तौड़गढ़ दुर्ग के मंदिर – मीरा बाई की भक्ति स्थली appeared first on Inditales.

]]>

चित्तौड़गढ़ दुर्ग के भीतर अनेक मंदिर हैं जो दुर्ग में चारों ओर बिखरे हुए हैं। दुर्ग के भीतर ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ मंदिर नहीं है। मुझे स्मरण नहीं कि मैं चित्तौड़गढ़ दुर्ग में कहीं खड़ी हूँ तथा मुझे चित्तौड़गढ़ दुर्ग के मंदिर दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं। हमें सदा ऐसा ही प्रतीत होता रहता है कि चित्तौड़गढ़ के मंदिर यहाँ के जनजीवन का अभिन्न अंग रहे होंगे।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग के मंदिर
चित्तौड़गढ़ दुर्ग के मंदिर

मेरे चित्तौड़गढ़ पहुँचने से पूर्व मीरा बाई का मंदिर देखने की मेरी तीव्र अभिलाषा थी क्योंकि मैंने कृष्ण के प्रति उनकी भक्ति एवं समर्पण की अनेक गाथाएँ पढ़ी थीं। वह स्थान कितना अद्भुत होगा जहाँ उन्होंने कृष्ण के अनेक भजन रचे, गाये तथा उन पर नृत्य किये थे। इसके अतिरिक्त मैंने चित्तौड़गढ़ में किसी अन्य मंदिर की कल्पना भी नहीं की थी। किन्तु यहाँ आने के पश्चात मुझे ज्ञात हुआ कि मीरा बाई का मंदिर चित्तौड़गढ़ के अनेक अप्रतिम मंदिरों में से एक मंदिर है तथा यहाँ स्थित सभी मंदिरों की अपनी अपनी अद्भुत गाथाएँ हैं।

चित्तौड़गढ़ में जितने जैन मंदिर हैं, उतने ही हिन्दू मंदिर भी हैं। चित्तौड़गढ़ में राजसी धरोहर के अतिरिक्त अनेक ऐसे जीवंत मंदिर हैं जहाँ आपको उनके पुरातन आविर्भाव के साथ साथ विभिन्न समयकाल से होते हुए उनकी यात्रा का प्रतिबिम्ब दिखाई देगा।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग के मंदिर

समाधिश्वर शिव मंदिर

भगवान शिव को समर्पित ११वीं सदी के इस मंदिर में शिव अपने त्रिमूर्ती अवतार में विराजमान हैं। यह मंदिर अनुमानतः इस संकुल के प्राचीनतम मंदिरों में से एक है। गोमुख कुण्ड से लगे हुए इस मंदिर का शिखर शुण्डाकार है जो हम सामान्यतः जैन मंदिरों में देखते हैं।

गौमुख कुंड
गौमुख कुंड

मंदिर का आधार उलटे कमल के आकार का है। उसके ऊपर स्थित एक पटल पर मानव जीवन की कथा उत्कीर्णित है। मंदिर की शिलाओं पर उनकी आयु तथा सदियों से होते हुए जलवायु के प्रभाव के चिन्ह स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। इसके पश्चात भी शिलाओं पर उत्कीर्णित कथाओं के माध्यम से शिल्पकार के हाथों की कला आश्चर्यचकित कर देती है।

समाधीश्वर मंदिर की शिव मूर्ति
समाधीश्वर मंदिर की शिव मूर्ति

इस मंदिर की विशेषता है, त्रिमूर्ति रूप में भगवान शिव की विशाल प्रतिमा। मंदिर के भीतर इस प्रतिमा का चित्र लेना प्रतिबंधित नहीं है। जब आप इस छोटे से मंदिर के भीतर खड़े होंगे तो आपको सदियों की भक्ति से परिपूर्ण इसकी भित्तियों में इसकी पुरातनता का अनुभव होगा। आप मंदिर की भीतरी भित्तियों पर यंत्र एवं अभिलेख देख सकते हैं। किन्तु उनके विषय में जानकारी प्रदान करने वाला तथा उन अभिलेखों को पढ़कर बताने वाला वहाँ कोई नहीं था। मुझे विश्वास है कि उन अभिलेखों में मंदिर के इतिहास की घटनाओं से परिपूर्ण गाथाओं का उल्लेख होगा।

समाधीश्वर मंदिर के भित्ति शिल्प
समाधीश्वर मंदिर के भित्ति शिल्प

किसी भी शिव मंदिर के समान यहाँ भी मंदिर के समक्ष एक मुक्त प्रांगण में एक छोटा सा नंदी मंदिर है।

इस मंदिर के चारों ओर अनेक छोटे-बड़े मंदिर बिखरे हुए हैं किन्तु उनमें से अधिकाँश जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं।

कुम्भास्वामी वराह मंदिर

कुम्भास्वामी मंदिर चित्तौड़गढ़ दुर्ग परिसर के भीतर स्थित सर्वोत्तम रीति से संरक्षित मंदिरों में से एक है। यह विलक्षण मंदिर भगवान विष्णु के वराह अवतार को समर्पित है। इस मंदिर का निर्माण लगभग १६वीं सदी में किया गया था। ठेठ उत्तर भारतीय नागर शैली स्थापत्य कला में निर्मित इस मंदिर में चारों ओर अद्भुत शिल्पकारी की गयी है। मंदिर के मंडप के ऊपर शुण्डाकार छत है, वहीं गर्भगृह के ऊपर उंचा शिखर है। गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। इनकी भित्तियों पर भी सूक्षमता से भव्य शिल्पकारी की गयी है।

चित्तोड़गढ़ दुर्ग का कुम्भास्वामी मंदिर
चित्तोड़गढ़ दुर्ग का कुम्भास्वामी मंदिर

गर्भगृह के पिछवाड़े में वराह अवतार की प्रतिमा है। मुख्य गर्भगृह में कृष्ण एवं बलराम की नवीन प्रतिमाएं स्थापित की गयी हैं। इन प्रतिमाओं को रंगबिरंगे वस्त्रों द्वारा समकालीन रीति से सज्जित किया है।

कुम्भास्वामी मंदिर में वराह मूर्ति
कुम्भास्वामी मंदिर में वराह मूर्ति

इस मंदिर की एक रोचक विशेषता है, मंदिर के समक्ष स्थित गरुड़ मंडप। सामान्यतः शिव मंदिर में भगवान शिव के समक्ष नंदी मंडप अवश्य होता है।

कुम्भास्वामी मंदिर का गर्भगृह
कुम्भास्वामी मंदिर का गर्भगृह

विष्णु मंदिरों के समक्ष हम गरुड़ ध्वज अवश्य देखते हैं किन्तु मुझे स्मरण नहीं कि इससे पूर्व मैंने किसी मंदिर में इस प्रकार का समर्पित गरुड़ मंडप देखा होगा।

मीरा बाई मंदिर

मीरा बाई का मंदिर एक छोटा सा मंदिर है जो कुम्भास्वामी मंदिर परिसर के एक कोने में स्थित है। इसके भीतर मीरा बाई की विशाल समकालीन प्रतिमा है जिसमें उन्होंने केसरिया साड़ी धारण की हुई है। एक हाथ से इकतारा बजाते हुए कृष्ण भक्ति में तल्लीन। हमने बालपन से मीरा बाई एवं उनकी कृष्ण भक्ति की अनेक कथाएं पढ़ी हैं।

मीरा बाई का मंदिर
मीरा बाई का मंदिर

भक्ति में तल्लीन होकर वे नृत्य करती हुई कृष्ण भजन गाती थीं। किन्तु मंदिर को देख कर किंचित निराशा होती है क्योंकि इसके लिए मंदिर अत्यंत छोटा प्रतीत होता है। कदाचित यह मंदिर केवल मीराबाई एवं उनकी भक्ति के लिए ही निर्मित किया गया होगा। कदाचित वे स्वयं एकांत में ही भजन गाया करती थीं तथा उसके संगीत में झूमती थीं।

कृष्ण और मीरा
कृष्ण और मीरा

मंदिर में बैठकर मैं भोंपू में बज रहे मीराबाई के भजनों को सुनने लगी। पुजारीजी दर्शनार्थियों से वार्तालाप कर रहे थे। मंदिर के सम्पूर्ण वातावरण में मैं मीराबाई एवं उनकी भक्ति को ढूँढने लगी, उन्हें अनुभव करने का प्रयास करने लगी, किन्तु व्यर्थ। मुझे मंदिर के भीतर मीराबाई की उपस्थिति का अनुभव नहीं हुआ। सम्पूर्ण मंदिर में भक्ति की छवि मुझे केवल एक वृद्धा में दृष्टिगोचर हुई जो मंदिर की सीढ़ियों पर बैठकर दान की आस में भजन गा रही थी।

मंदिर के समक्ष उनके गुरु को समर्पित एक स्मारक है। किन्तु उनके गुरु कौन थे, इस विषय में वहाँ कोई जानकारी प्रदर्शित नहीं थी।

सात-बीस जैन मंदिर

सात बीस जैन मंदिर
सात बीस जैन मंदिर

कुम्भास्वामी मंदिर के ठीक समक्ष सात-बीस जैन मंदिर स्थित है। आप सोच रहे होंगे कि यह सात-बीस क्या है! सात-बीस का अर्थ है, २७। इस एक भव्य मंदिर के भीतर २७ छोटे मंदिर हैं। यह मंदिर दिखने में रणकपुर के जैन मंदिर के समान प्रतीत होता है किन्तु यह उससे २०० वर्ष प्राचीन है। यह मंदिर सभी जैन तीर्थंकरों को समर्पित है।

सात बीस मंदिर के द्वार
सात बीस मंदिर के द्वार

एक मंदिर मध्य में है जिसके तीन ओर अन्य २६ मंदिर स्थित हैं। प्रत्येक मंदिर के द्वार चाँदी के हैं जिन पर भव्य उत्कीर्णन किया गया है। मैंने कुछ द्वारों पर किये गए उत्कीर्णनों को सूक्ष्मता से देखने का प्रयास किया। उन पर मुख्य रूप से शुभ चिन्ह उत्कीर्णित हैं। साथ ही उस तीर्थंकर की छवि उत्कीर्णित है जिनको यह मंदिर समर्पित है।

मंदिर के भीतर केवल उस तीर्थंकर की छोटी अथवा मध्यम आकार की प्रतिमा स्थापित है। इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं। मुख्य मंदिर की भीतरी छत पर सूक्ष्मता से इतना सुन्दर व जटिल उत्कीर्णन किया गया है कि आप उसमें खो से जाते हैं। गोलाकार छत पर चारों ओर नृत्य करती नृत्यांगनाओं के शिल्प हैं जो शीर्ष तक जाते हैं।

सात बीस जैन मंदिर की छत
सात बीस जैन मंदिर की छत

किसी भी ठेठ मंदिर शैली में एक एकल शिखर होता है। इसके विपरीत इस मंदिर में शिखरों की एक पूर्ण पंक्ति है। मेरे अब तक के देखे असंख्य मंदिरों में मैं इस मंदिर को सर्वाधिक स्वच्छ मंदिरों में से एक कह सकती हूँ। मुझे धूल का एक कण भी दृष्टिगोचर नहीं हुआ। इस मंदिर में नंगे पाँव घूमना मुझे अत्यंत आनंददायी प्रतीत हुआ।

इस मंदिर में छायाचित्रीकरण पर पाबंदी नहीं है, केवल भगवान के विग्रह का चित्र लेने की अनुमति नहीं है।

मुख्य मंदिर के पीछे दो लघु मंदिर हैं।

गाँव

इस धरोहरी क्षेत्र से आगे जाकर मैंने गाँव की ओर चलना आरम्भ किया। मैंने नगीना बाजार एवं मोती बाजार पार किये जो बाजार ना होते हुए छोटी दुकानें हैं। जब मैं इस क्षेत्र से जा रही थी तो मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि यह क्षेत्र कदाचित प्रजा के गाँव एवं राजघराने के महलों के मध्य एक अवरोध क्षेत्र रहा हो। यह बाजार क्षेत्र कदाचित दोनों क्षेत्रों का मध्यवर्ती क्षेत्र होते हुए उनका संगम बिंदु रहा हो तथा राज परिवार एवं उनकी प्रजा के दैनन्दिनी आवश्यकताओं की आपूर्ती में सहायक रहा हो।

चितौडगढ़ दुर्ग के गाँव
चितौडगढ़ दुर्ग के गाँव

मैं गाँव की संकरी गलियों में पद भ्रमण करने लगी। वहाँ कुछ मंदिरों के दर्शन किये जिनका सभी प्रबंधन ब्राह्मण परिवार कर रहे थे। इन लघु मंदिरों में अनवरत जीवन के लक्षण स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। यद्यपि कुछ मंदिरों में मैंने शिखरों के स्थान पर गुम्बजों को देखा। किसी के पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं था कि यह कैसे हुआ।

जानकी मंदिर
जानकी मंदिर

मेरा अनुमान है कि यह परिवर्तन मंदिर के रखरखाव अथवा जीर्णोद्धार के समय किया गया होगा। अथवा यह परिवर्तन उस काल में किया गया होगा जब यह दुर्ग इस्लामी शासकों के अधीन आ गया था।

उत्कृष्ट कला समेटे हुए चित्तौडगढ दुर्ग के मंदिर
उत्कृष्ट कला समेटे हुए चित्तौडगढ दुर्ग के मंदिर

मंदिर को उनके आक्रमणों से बचाने के लिए कदाचित भक्तों ने शिखर के स्थान पर गोलाकार छत बना दी होगी। मंदिर एवं आवासों की बाह्य भित्तियों पर मुझे नवीन रंगरोगन दिखाई दिए।

सास-बहू मंदिर

एक अन्य स्थान पर दो मंदिर एक दूसरे के ठीक समक्ष स्थित हैं। उन्हें सास-बहू मंदिर कहते हैं। इनकी विशेषता यह है कि किसी भी मंदिर के भीतर से दोनों मंदिर दिखाई देते हैं। मंदिरों का एक अन्य जोड़ा भी है जो दुर्गा एवं अन्नपूर्णा देवी को समर्पित है। मंदिर के दैनन्दिनी रखरखाव का कार्यभार संभालती कुछ स्त्रियों से मैंने वार्तालाप किया। उन्हें इन मंदिरों की पुरातनता एवं निर्माण काल आदि के विषय में कोई रूचि नहीं थी। वे केवल यह मानती हैं कि ये मंदिर सदा से यहीं स्थित हैं।

वे केवल एक ही तथ्य पर लक्ष्य केन्द्रित कर रही थीं कि मंदिर की सभी संस्कारों एवं अनुष्ठानों का परंपरानुसार पालन हो रहा है कि नहीं हो रहा है। वे भगवान को माँ कहकर पुकार रही थीं। उनका दृढ़ विश्वास था कि देवी माँ उनके जीवन की रक्षा करेंगी तथा उन्हें जीवन में मार्ग दिखाएंगी। अन्नपूर्ण माँ सदा उनकी भोजन की थाली भरी रखेंगी तथा दुर्गा माँ सभी प्रकार के संकटों से उनका रक्षण करेंगी। उनके शब्द सुनकर मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि जो मैं मंदिरों में विभिन्न चिन्हों के अर्थ ढूंढती घूम रही थी तथा मंदिर की पुरातनता को जानने का प्रयास कर रही थी, वह सब कितना अर्थहीन है। यह तो भक्तों की मंदिरों व भगवान पर अपार श्रद्धा एवं अटूट विश्वास है जो मंदिर एवं भगवान को इतना शक्तिशाली व प्रभावशाली बनाता है।

रत्नेश्वर महादेव मंदिर

रतनसिंह महल के समीप मैंने एक छोटा सा किन्तु अत्यंत सुन्दर रत्नेश्वर महादेव मंदिर देखा। एक जलकुंड के निकट स्थित इस मंदिर को अप्रतिम रूप से उत्कीर्णित किया गया है। राम पोल के समीप मैंने जैसे ही जानकी मंदिर को देखा, मैं तुरंत ही गिनने लगी कि मैंने अब तक कितने मंदिर देखे जो देवी सीता को समर्पित हों। मेरी स्मृतियों में केवल नासिक का पंचवटी ही उभर कर आया।

रत्नेश्वर महादेव मंदिर - चित्तौडगढ दुर्ग
रत्नेश्वर महादेव मंदिर – चित्तौडगढ दुर्ग

कुम्भा महल के समक्ष स्थित एक उद्यान में मैंने कई लघु मंदिर देखे जिन पर गोलाकार छत थे। इन सभी मंदिरों के द्वारों पर ताले लगे हुए थे। इसलिए मैं केवल इनकी बाह्य भित्तियों पर की गयी सुन्दर शिल्पकारी की ही सराहना कर सकी।

अन्नपूर्णा मंदिर
अन्नपूर्णा मंदिर

इन मंदिरों के भ्रमण के समय मुझसे कालिका देवी मंदिर का दर्शन छूट गया। किसी काल में वह सूर्य मंदिर था जो कालांतर में देवी मंदिर में परिवर्तित हो गया है।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग वास्तव में एक छोटी सी मंदिर नगरी ही है। इसके भीतर लगभग सभी प्रमुख हिन्दू देवी-देवताओं के मंदिर हैं। भारत में अचंभों की कोई कमी नहीं है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post चित्तौड़गढ़ दुर्ग के मंदिर – मीरा बाई की भक्ति स्थली appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/chittorgarh-durg-prachin-mandir/feed/ 1 3102
रणकपुर का जैन मंदिर उदयपुर से एक-दिवसीय यात्रा https://inditales.com/hindi/ranakpur-jain-mandir-rajasthan/ https://inditales.com/hindi/ranakpur-jain-mandir-rajasthan/#comments Wed, 26 Apr 2023 02:30:02 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3040

राजस्थान की सरोवर नगरी उदयपुर से लगभग ९० किमी दूर स्थित रणकपुर एक मंदिर नगरी है। यह राजस्थान के पाली जिले में सदरी नगरी के निकट स्थित है। आप कुम्भलगढ़ एवं रणकपुर दोनों का भ्रमण एक साथ एक ही दिन में कर सकते हैं। आप उदयपुर से एक-दिवसीय यात्रा के रूप में यह भ्रमण आसानी […]

The post रणकपुर का जैन मंदिर उदयपुर से एक-दिवसीय यात्रा appeared first on Inditales.

]]>

राजस्थान की सरोवर नगरी उदयपुर से लगभग ९० किमी दूर स्थित रणकपुर एक मंदिर नगरी है। यह राजस्थान के पाली जिले में सदरी नगरी के निकट स्थित है। आप कुम्भलगढ़ एवं रणकपुर दोनों का भ्रमण एक साथ एक ही दिन में कर सकते हैं। आप उदयपुर से एक-दिवसीय यात्रा के रूप में यह भ्रमण आसानी से कर सकते हैं।

रणकपुर में प्रमुख रूप से कुछ पुरातन जैन मंदिर हैं। रणकपुर का मुख्य आकर्षण एक भव्य चौमुखा जैन मंदिर है जो रणकपुर जैन मंदिर के नाम से अधिक लोकप्रिय है। इसे चतुर्मुख धारणा विहार भी कहते हैं। यह मंदिर जैन तीर्थंकर आदिनाथ के सम्मान में बनाया गया है।

रणकपुर जैन मंदिर – संगमरमरी चमत्कार

चौमुखा मंदिर

रणकपुर के जैन मंदिरों में विशालतम व सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंदिर है, चौमुखा मंदिर। यह मंदिरों से संबंधित किसी भी मापदंड से अत्यधिक विशाल है।

चौमुखा जैन मंदिर - रणकपुर
चौमुखा जैन मंदिर – रणकपुर

इस मंदिर का निर्माण १४वीं सदी में राणा कुम्भा के एक मंत्री ने करवाया था। किन्तु जब आप इसे देखेंगे, आप विश्वास ही नहीं कर पायेंगे कि यह मंदिर लगभग ७००-८०० वर्ष प्राचीन है। किसी भी दिशा से यह मंदिर पुरातन प्रतीत नहीं होता है।

मुगलों ने इस मंदिर को ध्वस्त कर दिया था। कालांतर में इसका पुनरुद्धार किया गया। मंदिर के पुनरुद्धार का कुछ कार्य अब भी जारी है मानो मंदिर का यह कार्य उस काल से अनवरत चल रहा है।

मंदिर स्तंभ

१०२ फीट ऊँचे इस मंदिर में तीन तल हैं तथा यह लगभग ४५००० वर्गफीट के क्षेत्रफल में पसरा हुआ है। इस मंदिर के निर्माण में संगमरमर का विपुलता से प्रयोग किया गया है।

इस मंदिर में कुल १४४४ स्तंभ हैं जिनमें प्रत्येक स्तंभ दूसरे से भिन्न है। लोगों का कहना है कि मंदिर की जो रूपरेखा है उसके कारण मंदिर के स्तंभों की सटीक संख्या की गणना करना अक्षरशः असंभव है। हमने भी स्तंभों की संख्या का स्थूल अनुमान लगाने का प्रयास किया किन्तु हमें शीघ्र ही यह ज्ञात हो गया कि सही संख्या की गणना करने के लिए कुछ परिश्रम एवं पर्याप्त समय की आवश्यकता होगी।

कुछ स्तंभ हैं जो एक तल तक सीमित हैं वहीं कुछ स्तम्भ हैं जो तीन तलों को भेदते हैं। मंदिर के सभी स्तंभों, छतों एवं भित्तियों समेत सम्पूर्ण मंदिर में विपुलता से उत्कृष्ट उत्कीर्णन किया गया है। उन्हें देखकर आँखें चकाचौंध हो जाती हैं। मन सम्मोहित हो जाता है।

आदिनाथ मंदिर का संगमरमरी तोरण

अधिकांश तोरणों में प्राचीन दंतकथाओं एवं पौराणिक कथाओं को दर्शाया गया है। उनमें एक सर्प था जिसका पृष्ठ भाग अनेक अंतहीन भागों में बंटा हुआ था। स्तंभों पर भिन्न भिन्न नृत्य मुद्राओं में अप्सराओं को उत्कीर्णित किया गया है। छतों पर उत्कीर्णित आकृतियाँ इतनी सूक्ष्म एवं जटिल हैं कि उन्हें स्पष्ट देखने के लिए दूरबीन की आवश्यकता प्रतीत होती है।

एक स्तंभ को जानबूझ कर किंचित टेढ़ा बनाया गया है। यदि आप मंदिर की ओर मुख कर के खड़े हों तो यह स्तम्भ आपके दाहिनी ओर स्थित है। वहाँ के पुरोहितजी ने बताया कि ऐसा मंदिर को किसी भी कुदृष्टि से बचाने के लिए किया गया है। क्यों ना हो! यह मंदिर उत्कृष्टता एवं सुन्दरता में इतना अद्भुत है कि इस अद्वितीय मंदिर किसी की भी कुदृष्टि पड़ सकती है।

आदिनाथ मंदिर के बाहर एक तोरण पर अत्यंत सूक्ष्म एवं जटिल शिल्पकारी की गयी है। यह ठीक वैसा ही है जैसा आप खजुराहो में देख सकते हैं। केवल भिन्नता यह है कि यह तोरण मकर तोरण नहीं है। यहाँ तक कि इस तोरण का रंग भी चन्दन के रंग का है। इसी कारण अन्यथा पूर्णतः श्वेत मंदिर में यह तोरण उठकर दिखाई पड़ता है।

चतुर्मुख मंदिर के चार फलक

मंदिर के चार फलक हैं। इसी कारण इसे चतुर्मुख मंदिर कहा जाता है। इसकी संरचना इस प्रकार की गयी है कि किसी भी समय तथा किसी भी मौसम में मंदिर के भीतर पर्याप्त मात्रा में उजाला एवं वायु का संचार होता रहता है। स्तंभों को इस प्रकार उत्कीर्णित किया गया है कि आप एक स्तंभ को किसी भी दिशा से देखें, आपको वही आकृतियाँ दृष्टिगोचर होंगी।

पत्थर में गढ़ी तोरण
पत्थर में गढ़ी तोरण

मंदिर के दोनों ओर हाथियों के विशाल शिल्प हैं जिन पर साड़ी धारण कर स्त्रियाँ सवारी कर रही हैं। ये स्त्रियाँ किनका प्रतिरूप हैं हमें ज्ञात नहीं हुआ। कदाचित ये इस क्षेत्र की उन सभ्रांत महिलाओं के शिल्प हों जिनका इस मंदिर के निर्माण में बड़ा सहयोग हो। इसी कारण उन्हें भी उचित स्थान प्रदान किया गया है।

मंदिर के ऊपर अनेक गुंबज हैं। उनमें से कुछ के ऊपर लाल-श्वेत ध्वज फहराए हुए हैं। जब आप मंदिर के चारों ओर भ्रमण करें, कुछ दिशाओं से यह मंदिर कम, दुर्ग अधिक प्रतीत होता है। मंदिर के समक्ष सुन्दर बागीचा है। यदि वातावरण सुखद हो तो आप उस बगीचे में भ्रमण कर सकते हैं।

आपको मंदिर के भीतर किसी भी प्रकार की चमड़े की वस्तु एवं तम्बाखू उत्पाद ले जाने की अनुमति नहीं है। मंदिर परिसर में आपसे यह अपेक्षा की जाती है कि आपके परिधान आपको पूर्णतः ढंकने में सक्षम हैं। अतः आप मंदिर परिसर में ऐसे वस्त्र धारण ना करें जो अंग प्रदर्शन करते हों।

और पढ़ें – नाथद्वारा में श्रीनाथजी जी अथवा ठाकुर जी की हवेली

तीर्थंकर आदिनाथ

चौमुखा मंदिर प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित है। मंदिर परिसर में अन्य जैन तीर्थंकरों के लिए भी अनेक छोटे छोटे मंदिर हैं। मुख्य मंदिर संकुल के बाहर सूर्य मंदिर स्थित है। इस परिसर में छोटे से छोटे मंदिर पर भी विपुल मात्रा में उत्कृष्ट शिल्पकारी की गयी है। इसके पश्चात भी चौमुखा मंदिर की भव्यता इन सभी से कई गुना ऊपर है। ठीक उसी प्रकार जैसे खजुराहो में कंदरिया महादेव मंदिर कला की उत्कृष्टता की चरमसीमा है।

सुविधाएं

देश के अधिकाँश जैन मंदिरों के समान इस मंदिर में भी भक्तों एवं दर्शनार्थियों के लिए अनेक सुविधाएं उपलब्ध हैं। वे यहाँ आकर यहाँ की धर्मशाला में रह सकते हैं। कुछ दिवस यहाँ व्यतीत कर यहाँ के मंदिरों की सुन्दरता का आनंद उठाइये। मुझे यह जानकारी नहीं है कि इस धर्मशाला में रहने के लिए क्या क्या औपचारिकताएं हैं।

यदि आपको मंदिर वस्तु कला एवं स्थापत्य शैली में रूचि हो तो यह स्थान आपके लिए सर्वोत्तम स्थलों में से एक सिद्ध होगा।

और देखें – चित्तौड़गढ़ किला – साहस, भक्ति और त्याग की कथाएँ

यात्रियों के लिए रणकपुर जैन मंदिर से संबंधिक कुछ आवश्यक जानकारियाँ

  • जैन श्रद्धालुओं के लिए यह विश्व भर का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल है।
  • मंदिर के भूतल का क्षेत्रफल लगभग ५०,००० वर्गफीट है।
  • मंदिर संकुल के अन्य प्रमुख मंदिर हैं, पार्श्वनाथ मंदिर, अम्बा माता मंदिर तथा सूर्य मंदिर।
  • ऐसा कहा जाता है कि इस मंदिर के निर्माण में ५ दशकों से भी अधिक का समय लगा।
  • मंदिर में प्रवेश शुल्क नहीं है।
  • मंदिर में जाने के लिए परम्परागत परिधान धारण करें।
  • चमड़े की वस्तुएं, जैसे बेल्ट, पर्स, हैंडबैग आदि तथा मोबाइल फोन मंदिर के भीतर ले जाने की अनुमति नहीं है। आप उन्हें मंदिर परिसर के प्रवेश द्वार पर जमा करा दें तथा वापिस जाते समय उन्हें ले लें।
  • कैमरे भीतर ले जाने की अनुमति है। इसके लिए नाममात्र का शुल्क लिया जाता है। किन्तु ध्यान रखें कि बिना अनुमति लिए अन्य भक्तों के छायाचित्र ना लें।
  • रणकपुर जैन मंदिर की वास्तुकला, स्थापत्य, शिल्पकारी, संगमरमर पर सूक्ष्म व जटिल उत्कीर्णन, आराधना-अनुष्ठान तथा परिसर के अन्य मंदिरों के दर्शन करते हुए २-३ घंटे व्यतीत हो जाते हैं।
  • मंदिर में दर्शन की समयावधि प्रातः ६:३० बजे से रात्रि ८ बजे तक है। हमने उदयपुर से एक-दिवसीय यात्रा की थी। यहाँ पहुँचने से पूर्व हमने मार्ग में कुम्भलगढ़ दुर्ग का अवलोकन किया तथा तथा रणकपुर पहुँचते पहुँचते दोपहर हो गयी थी। हमें कहा गया कि प्रातः का समय भक्तों के लिए नियत है तथा पर्यटकों के लिए दोपहर १२ बजे से संध्या ५ बजे तक का समय है। यहाँ पहुँचने से पूर्व अपने विश्राम गृह, स्थानिक मार्गदर्शक अथवा वाहन चालक से समयावधि की पुष्टि कर लें।
  • उदयपुर से सार्वजनिक परिवहन सुविधाएं, जैसे बस आदि नियमित अंतराल पर उपलब्ध हैं।
  • यदि आपके पास वाहन की सुविधा हो तो आप एक-दिवसीय यात्रा में रणकपुर के साथ कुम्भलगढ़ दुर्ग, कुम्भलगढ़ वन्यप्राणी अभयारण्य, रणकपुर घाटी आदि भी देख सकते हैं।
  • आप यहाँ घुड़सवारी सफारी भी कर सकते हैं।

स्तंभों की सर्वाधिक संख्या से अलंकृत रणकपुर जैन मंदिर

जब तक मैंने इस मंदिर के दर्शन नहीं किये थे, मेरा अनुमान था कि मदुरै के मीनाक्षी मंदिर में सर्वाधिक संख्या में स्तंभ हैं। मीनाक्षी मंदिर के मंडप में कुल ९८५ स्तंभ हैं। किन्तु रणकपुर के जैन मंदिर के दर्शनोपरांत मेरा यह भ्रम टूट गया।  अब मैं जानना चाहती हूँ कि विश्व में ऐसी कौन सी एकल संरचनाएं हैं जहाँ इससे भी अधिक स्तंभ हैं। गूगल बाबा ने मेरी कोई सहायता नहीं की है। यदि आप में से किसी को यह जानकारी हो तो अवश्य बताएं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post रणकपुर का जैन मंदिर उदयपुर से एक-दिवसीय यात्रा appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/ranakpur-jain-mandir-rajasthan/feed/ 1 3040
हल्दी घाटी- महाराणा प्रताप के गौरवशाली इतिहास की गाथा https://inditales.com/hindi/haldi-ghati-maharana-pratap-samarak-rajasthan/ https://inditales.com/hindi/haldi-ghati-maharana-pratap-samarak-rajasthan/#comments Wed, 11 Jan 2023 02:30:43 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2909

हल्दी घाटी! मेरे सम्पूर्ण शालेय जीवन में इतिहास की पुस्तकों के माध्यम से हल्दी घाटी मेरे मानस पटल पर छाई हुई है। महाराणा प्रताप एवं उनकी वीरता की गाथाओं पर हमने अनेक पुस्तकें पढ़ी हैं, अनेक कवितायें सुनी हैं। आज भी जब महाराणा प्रताप एवं उनके साहस का स्मरण होता है तो मन रोमांचित हो […]

The post हल्दी घाटी- महाराणा प्रताप के गौरवशाली इतिहास की गाथा appeared first on Inditales.

]]>

हल्दी घाटी! मेरे सम्पूर्ण शालेय जीवन में इतिहास की पुस्तकों के माध्यम से हल्दी घाटी मेरे मानस पटल पर छाई हुई है। महाराणा प्रताप एवं उनकी वीरता की गाथाओं पर हमने अनेक पुस्तकें पढ़ी हैं, अनेक कवितायें सुनी हैं। आज भी जब महाराणा प्रताप एवं उनके साहस का स्मरण होता है तो मन रोमांचित हो उठता हैं।

महाराणा प्रताप स्मारक हल्दी घाटी
महाराणा प्रताप स्मारक हल्दी घाटी

हल्दी घाटी के युद्ध ने मुगल एवं राजपूताना इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनके घोड़े चेतक एवं उसकी स्वामिभक्ति की गाथाओं ने आपकी स्मृतियों में भी अवश्य अमिट छाप छोड़ी होगी। अपने स्वामी महाराणा प्रताप की रक्षा करने के लिए उसका तीन टांगों पर सरपट दौड़ना, इतने युगों पश्चात् भी निष्ठा एवं साहचर्य का प्रतीक स्वरूप माना जाता है।

मैं नाथद्वारा की यात्रा पर थी। यह स्थान हल्दी घाटी से अधिक दूर नहीं है। जब मैं उदयपुर से नाथद्वारा एवं महाराणा प्रताप स्मारक की ओर जा रही थी, मेरे मानसपटल पर महाराणा प्रताप के विषय में सुनी व पढ़ी सभी गाथाएँ पुनः जागृत हो उठी थीं। मैं जैसे जैसे उस स्थान से जा रही थी, मैं उन सभी घटनाओं को उस परिदृश्य से जोड़ते हुए पुनः जीवंत करने का प्रयास करने लगी।

हल्दी घाटी क्या है?

हल्दी घाटी में सर्व प्रथम मैं यह देखना चाहती थी कि क्या उस स्थान की मिट्टी वास्तव में हल्दी के समान चटक पीले रंग की है! उसे देखने के लिए मुझे तब तक प्रतीक्षा करनी पड़ी जब तक मैं अरावली पर्वत माला में एक छोटी पहाड़ी दर्रे तक ना पहुँची। वहाँ एक छोटी पहाड़ी को काटकर एक मार्ग निकाला गया है। जी हाँ! वहाँ की चट्टानें अक्षरशः हल्दी के समान पीले रंग की हैं। हम मार्ग के मध्य में खड़े हो गए तथा इस पूर्णतः पीले परिदृश्य से अभिभूत होकर छायाचित्र लेने लगे।

हल्दी घाटी
हल्दी घाटी

हमारे वाहन चालक के अनुसार यह हल्दी घाटी के युद्ध में हुतात्मा हुए उन वीर सैनिकों का रक्त है जिसने यहाँ की चट्टानों एवं भूमि को पीला कर दिया। निश्चित ही यह एक मिथक है क्योंकि हमने अनेक रंगों की चट्टानें देखी हैं जिनमें पीला रंग भी सम्मिलित है।

अरावली पर्वत माला में स्थित यह दर्रा एक पर्यटन बिंदु बन गया है जहाँ पर्यटक रूककर परिदृश्य एवं स्वयं के छायाचित्र लेते ही हैं।

हल्दी घाटी का युद्ध

हल्दी घाटी के युद्ध का परिदृश्य
हल्दी घाटी के युद्ध का परिदृश्य

हल्दी घाटी का युद्ध सन् १५७६ में महराना प्रताप एवं अकबर का प्रतिनिधित्व करते मान सिंह के मध्य हुआ था। मुगलों की सेना महाराणा प्रताप की सेना से कई गुना अधिक होने के कारण उन पर भारी पड़ रही थी। राजपूत सेना अत्यंत वीरता से लड़ रही थी किन्तु युद्ध के मध्य में महाराणा प्रताप घायल होकर बेसुध हो गए। तब महाराणा प्रताप सिंग के सेनापति मान सिंग झाला ने मुगलों की सेना को असमंजस में डालने के लिए अपना कवच महाराणा को पहना दिया तथा स्वयं महाराणा का कवच धारण कर लिया।

तत्पश्चात महाराणा के घोड़े चेतक को उन्हें कहीं दूर ले जाने का आदेश दिया। तब तक चेतक का एक पाँव घायल हो चुका था। वह स्वामिभक्त घोड़ा अपने स्वामी को पीठ पर लादकर तीन पैरों पर ही सरपट दौड़ने लगा तथा अनेक पहाड़ियों एवं नदियों को पार कर उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले गया। इसके पश्चात उसने अपने प्राण त्याग दिए। चेतक की यह वीरता, सूझबूझ एवं स्वामिभक्ति इतिहास में सदा के लिए अमर हो गयी।

मान सिंग झाला को युद्ध भूमि में वीरगति प्राप्त हुई। मुगलों की सेना कुछ समय तक यह समझ ही नहीं पायी कि उन्होंने महाराणा प्रताप को नहीं, अपितु मान सिंग झाला को परस्त किया है। यद्यपि मुगलों ने उस क्षेत्र पर अपना अधिपत्य जमा लिया किन्तु वे महाराणा प्रताप को नहीं ढूँढ पाए।

ऐसा कहा जाता है कि यह युद्ध लगभग ४ घंटों तक चला था।

चेतक की समाधि

चेतक समाधि
चेतक समाधि

मुझे जितनी जानकारी है उसके अनुसार किसी घोड़े की यह इकलौती समाधि है। चेतक, महाराणा प्रताप का प्रिय घोड़ा, जिसने अपने स्वामी के साथ युद्ध में समान रूप से भाग लिया। अपने स्वयं के प्राणों की आहुति देकर भी अपने स्वामी के प्राणों की रक्षा की।

चेतक का स्मृति स्मारक हल्दी घाटी
चेतक का स्मृति स्मारक हल्दी घाटी

चेतक की स्मृति में एक उद्यान के मध्य उसके मृत्यु स्थल पर एक छोटी सी छत्री बनाई गयी है जिसके समक्ष एक चौकोर स्तंभ पर उसकी वीरगाथा अभिलिखित है। छत्री के नीचे एक छोटा सा चौकोर शिलाखंड है जिस पर चेतक पर आरूढ़ महाराणा प्रताप का शिल्प है। यह वही स्थान है जहाँ पर चेतक ने अपना अंतिम श्वास लिया था।

समाधी के निकट एक पुरातन शिव मंदिर है।

चेतक समाधि के समक्ष खड़े होकर मेरे भीतर दुःख एवं गर्व दोनों का एक मिश्रित भाव उत्पन्न हो रहा था।

महाराणा प्रताप स्मारक

महाराणा प्रताप स्मारक के भीतर
महाराणा प्रताप स्मारक के भीतर

महाराणा प्रताप स्मारक में महाराणा प्रताप, उनके जीवन, उनके शासनकाल, उनके जीवन की विभिन्न घटनाओं तथा उनके द्वारा लडे गए सभी युद्धों को प्रलेखित किया है। चेतक समाधि के निकट स्थित यह स्मारक एक नवीन संरचना है जिसे ठेठ मेवाड़ी स्थापत्य शैली में बनाया गया है।

पर्यटकों को सैर करने को तैयार ऊँट
पर्यटकों को सैर करने को तैयार ऊँट

स्मारक के भीतर स्थानीय शैली में भ्रमण करवाने के लिए परिसर के बाहर ऊँटों की एक पंक्ति तत्पर  खड़ी थी।

शिव मंदिर
शिव मंदिर

आईये टिकट खिड़की से टिकट लेकर इस दुर्ग सदृश सुन्दर स्मारक में प्रवेश करते हैं। दाहिनी ओर भगवान शिव का छोटा सा मंदिर है। श्वेत रंग में निर्मित यह एक सुन्दर मंदिर है।

समक्ष ही काँस्य धातु में निर्मित एक विशाल शिल्प है जिसमें मान सिंह झाला द्वारा मुगलों को चकमा देने की घटना को सांकेतिक रूप से दर्शाया है। हाथी पर बैठे शत्रु पक्ष पर धावा बोलते मान सिंग को घोड़े पर आरूढ़ दिखाया गया है। मान सिंह के इस घोड़े का शीष हाथी का है।

महाराणा प्रताप की कथा कहता चित्तौरगढ़ दुर्ग
महाराणा प्रताप की कथा कहता चित्तौरगढ़ दुर्ग

संग्रहालय के भीतर युद्ध के दृश्यों को अनेक चित्रों एवं कई संवादात्मक चित्रावलियों द्वारा दर्शाया गया है। महाराणा प्रताप की जीवनी एवं उनके जीवन की विभिन्न गौरवशाली गाथाओं को सजीव करने के लिए सम्पूर्ण मेवाड़ को ही यहाँ पुनर्रचित किया गया है। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो मैं अपने विद्यालय की इतिहास की कक्षा में पुनः बैठ गयी हूँ।

रंग बिरंगी मेवाड़ी पगड़ियाँ
रंग बिरंगी मेवाड़ी पगड़ियाँ

यहाँ केवल महाराणा प्रताप के इतिहास को ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण मेवाड़ के इतिहास को प्रदर्शित किया गया है जिसमें कुम्भलगढ़ एवं चित्तोड़गढ़ भी सम्मिलित हैं।

संग्रहालय के पीछे एक गाँव को पुनर्रचित किया गया है जिसमें एक सरोवर भी है। इस सरोवर में नौका विहार किया जा सकता है। कुछ दुकानें हैं जहाँ स्थानीय वस्तुएं विक्री के लिए रखी हुई हैं। मुझे उनमें से एक के ऊपर एक रखी रंगबिरंगी मेवाड़ी पगड़ियों की पंक्तियों को देख अत्यंत आनंद आया।

कविता

महाराणा प्रताप समारक का सरोवर
महाराणा प्रताप समारक का सरोवर

मेवाड़ी राजपूतों की वीरता की गाथाओं को श्याम नारायण पांडे जैसे अनेक कवियों ने सुन्दरता से बखान किया है। कवि श्याम नारायण ने अपनी कविता के माध्यम से हल्दी घाटी के रक्तरंजित युद्ध का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है जिसमें उन्होंने ऐसे ऐसे रूपकों का प्रयोग किया है जो दोनों पक्षों की सेनाओं में निहित असमानता के परिणामों एवं युद्ध के प्रभाव को चरम सीमा तक पहुंचा देते हैं।

चैत्री गुलाब

यह क्षेत्र अब एक अन्य विशेषता के लिए भी लोकप्रिय हो चला है। चैत्री गुलाब अथवा गुलाबी रंग के गुलाब, जिनकी अब यहाँ व्यावसायिक रूप से खेती की जाती है। चैत्री हिन्दू पंचांग के चैत्र मास की ओर संकेत करता है। यह लगभग मार्च महीने में आता है। यहाँ चैत्री गुलाब द्वारा निर्मित अनेक वस्तुओं का भी उत्पादन किया जाता है, जैसे गुलाब जल, गुलकंद, गुलाब शरबत, गुलाब इत्र तथा अनेक अन्य औषधीय उत्पाद। हल्दी घाटी जाने के मार्ग पर आप अनेक दुकानें देखेंगे जहाँ इन वस्तुओं की विक्री की जाती है।

चैत्री गुलाब का लघु उद्योग
चैत्री गुलाब का लघु उद्योग

गुलाब के पुष्पों से लदे खेतों को देखने के लिए आपको यहाँ मार्च के महीने में आना पड़ेगा। मैं यहाँ नवम्बर मास में आयी थी जब यहाँ चारों ओर गेंदे के पुष्प खिले थे जो पीले रंग की विभिन्न छटाओं को चारों ओर बिखेर रहे थे।

उदयपुर से हल्दी घाटी की एक-दिवसीय यात्रा आसानी से की जा सकती है। एक ही दिन में आप हल्दी घाटी के साथ साथ नाथद्वारा एवं एकलिंगी की यात्रा भी कर सकते हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post हल्दी घाटी- महाराणा प्रताप के गौरवशाली इतिहास की गाथा appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/haldi-ghati-maharana-pratap-samarak-rajasthan/feed/ 1 2909
तनोट माता मंदिर एवं काले डूंगर मंदिर – जैसलमेर के देवी मंदिर https://inditales.com/hindi/jaisalmer-ke-devi-mandir/ https://inditales.com/hindi/jaisalmer-ke-devi-mandir/#comments Wed, 07 Sep 2022 02:30:26 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2788

भौतिक रूप से जैसलमेर अपने सुनहरे दुर्ग, भुतहा गाँवों तथा बालू के टीलों के लिए जाना जाता है। किन्तु यदि इस क्षेत्र के आध्यात्मिक आधार की चर्चा की जाये तो वह जैसलमेर के देवी मंदिर हैं। समूचे विश्व में शक्ति ने स्वयं को अनेक आकृतियों, मुद्राओं एवं स्वरूपों में प्रकट किया है। हम मानवों को […]

The post तनोट माता मंदिर एवं काले डूंगर मंदिर – जैसलमेर के देवी मंदिर appeared first on Inditales.

]]>

भौतिक रूप से जैसलमेर अपने सुनहरे दुर्ग, भुतहा गाँवों तथा बालू के टीलों के लिए जाना जाता है। किन्तु यदि इस क्षेत्र के आध्यात्मिक आधार की चर्चा की जाये तो वह जैसलमेर के देवी मंदिर हैं।

समूचे विश्व में शक्ति ने स्वयं को अनेक आकृतियों, मुद्राओं एवं स्वरूपों में प्रकट किया है। हम मानवों को उनके स्वरूप की गहराई की थाह ना होते हुए भी हम उन्हें पहचान जाते हैं। उनकी महिमा, लालित्य, लावण्य एवं अनुग्रह में आनंद पाते हैं। भारत का सम्पूर्ण भूभाग शक्ति उपासनाओं से परिपूर्ण रहा है जिसमें सभी पृष्ठभूमि के लोग भाग लेते आये हैं। “५० भारतीय नगरों ने नाम – देवी के नामों पर आधारित” इस संस्करण में आप देवी के नामों पर आधारित ५० नगरों के विषय में जान सकते हैं। इनमें शक्ति पीठ एवं ग्राम देवियाँ भी सम्मिलित हैं।

जैसलमेर के देवी मंदिर

बहुचर्चित पर्यटन स्थल जैसलमेर में दो ऐसे मंदिर, जो अपनी विशिष्ट पहचान के लिए जाने जाते हैं, वह हैं – तनोट राय अथवा तनोट माता मंदिर व काले डूंगर माता मंदिर।

स्वर्णिम नगरी जैसलमेर की बाह्य सीमा पर स्थित ये दोनों मंदिर दो भिन्न दिशाओं में हैं तथा स्वयं में अत्यंत विशेष हैं।

काले डूंगर देवी मंदिर

जैसलमेर से लगभग ४०-४५ किलोमीटर दूर स्थित इस मंदिर तक पहुँचने में लगभग एक घंटे का समय लगता है। आप किसी स्थानीय टैक्सी द्वारा यहाँ पहुँच सकते हैं। अपने विशेष नाम तथा लोकप्रियता के कारण इस जैसलमेर के देवी मंदिर के विषय में यहाँ लगभग सभी जानते हैं।

काले डूंगर राय मंदिर - जैसलमेर
काले डूंगर राय मंदिर – जैसलमेर

वर्षों पूर्व, यहाँ तक पहुँचने वाली सड़क अत्यंत ऊबड़-खाबड़ थी। मार्ग के दोनों ओर के परिदृश्य शुष्क, धूलभरे तथा रेतीले थे। किन्तु अब यहाँ उत्तम सड़कें हैं। २००६ में आए बाढ़ के पश्चात यहाँ के परिदृश्यों में आमूलाग्र परिवर्तन हो गया है। अब आप यहाँ चारों ओर हरे-भरे खेत, वृक्ष तथा जलाशय देख सकते हैं। मैंने इस परिदृश्य के दोनों रूप देखे हैं।

आधा मार्ग पार करने के पश्चात अचानक भूमि पर काले रंग के कंकड़ व पत्थर दृष्टिगोचर होने लगते हैं। काले डूंगर मंदिर का नाम इन्ही काले रंग के कंकड़ व पत्थरों के कारण पड़ा है। इसी कारण देवी का नाम भी काले डूंगर देवी पड़ा।

पहाड़ी की चोटी पर स्थित मंदिर

आप जैसे जैसे पहाड़ी के निकट पहुंचते हैं, आप पहाड़ी की चोटी पर मंदिर देख सकते हैं। आपने ध्यान दिया होगा, देवी के अधिकतर मंदिर पहाड़ियों व पर्वतों की चोटी पर अथवा वनों के भीतर होते हैं। पहाड़ी की तलहटी पर पहुँचने के पश्चात गाड़ी से उतरकर पहाड़ी चढ़नी पड़ती है।

काले डूंगर मंदिर
काले डूंगर मंदिर

अधिकांशतः इस स्थान पर भीड़ नहीं होती। मंदिर के दैनन्दिनी क्रियाकलापों को पूर्ण करने के लिए बहुत कम लोग यहाँ होते हैं। वैसे भी यह मंदिर अधिक विशाल नहीं है। मंदिर के पुजारी एवं अभीक्षक समीप के गाँव से आते हैं।

और पढ़ें: कुलधरा – जैसलमेर का भुतहा, शापित एवं त्यक्त गाँव

समय के साथ इस मंदिर का पुनर्निर्माण कर नवीन रूप दिया जाता रहा है। इसके पश्चात भी यह मंदिर अधिक विशाल नहीं है तथा विस्तृत क्षेत्र में पसरा हुआ भी नहीं है। इसके नवीनीकरण में स्थानीय जैसलमेर की जगप्रसिद्ध पीली शिलाओं का प्रयोग किया गया है। वस्तुतः, कुछ वर्षों पूर्व अवस्थित एक लघु व संक्षिप्त मंदिर के अपेक्षाकृत अब यह  कुछ विशाल प्रतीत होता है।

मंदिर के बाहर विस्तृत खुला क्षेत्र है। पहाड़ी के ऊपर चारों ओर शीतल वायु बहती रहती है। वहां से चारों ओर के मरुभूमि का परिदृश्य दृष्टिगोचर होता है। हम जिस मार्ग  से यहाँ तक पहुंचे, वह मार्ग भी यहाँ से दिखाई देता है।

गर्भगृह

काले डूंगर मंदिर का गर्भगृह
काले डूंगर मंदिर का गर्भगृह

गर्भगृह में प्रवेश करते ही आपको देवी के दर्शन प्राप्त हो जायेंगे। अपने पर्वतीय क्षेत्र में केवल देवी ही निवास करती हैं। मंदिर के भीतर किसी अन्य देवी- देवता की प्रतिमा नहीं है। इस मंदिर में देवी की प्रतिमा एक फलक पर है जहां ८ प्रतिमाएं उत्कीर्णित हैं। उनमें ७ प्रतिमाएं स्त्री रूप में हैं तथा १ पुरुष रूप में। ७ स्त्रियाँ देवी के शक्ति रूप के ७ स्वरूप हैं। ये सप्त मातृकाएं हैं जिन्होंने शुम्भ व निशुम्भ के साथ युद्ध करते समय देवी की सहायता की थी। पुरुष स्वरूप भैरव का है। स्थानीय कथाओं के अनुसार ये ७ भगिनियां एवं १ भ्राता हैं। किन्तु, यदि पुरुष भैरव है तो वैदिक मान्यताओं के अनुसार सप्त मातृकाओं के रूप में ये ७ स्त्रियों का भैरव की भगिनियां होना संभव नहीं है।

और पढ़ें: सप्तमातृकाओं को जाने व समझें

कथाएं

स्थानीय कथाओं के अनुसार मूर्तियों का यह फलक समीप स्थित जलाशय से प्राप्त हुआ था। कालान्तर में उनके सम्मान में यहाँ एक मंदिर का निर्माण किया गया। प्रतिमाओं का यह फलक किसे व कब प्राप्त हुआ इसकी जानकारी मुझे नहीं मिल पायी।

कहा जाता है कि देवी की आज्ञा के अनुसार कोई भी यहाँ से प्रसाद अथवा कंकड़/पत्थर अपने साथ नहीं ले जा सकता। पहले मुझे इस पर विश्वास नहीं हुआ। किन्तु मेरा सामना कुछ सम्बन्धियों एवं स्थानीय लोगों द्वारा उल्लेखित ठोस कथाओं से हुआ जिन्होंने अत्यंत विश्वासपूर्ण स्वरों में मुझे अपने अनुभव बताये। उनके अनुसार, उन्हें कुछ ना कुछ संकटों का सामना करना पडा जब वे प्रसाद अथवा मंदिर के भीतर या आसपास से एक भी कक्कड़/पत्थर अपने साथ ले गये।

और पढ़ें: जैसलमेर के स्वर्णिम दुर्ग में भ्रमण

देवी की इस कथा को सुनकर ऐसा कदापि ना समझें कि देवी अपनी वस्तुओं के सम्बन्ध में स्वामित्व प्रदर्शित करती हैं। मेरे अनुमान से वे हमें यह सिखाने का प्रयत्न कर रही हैं कि हम वर्त्तमान में जियें, हमें जो प्रदान किया गया है उसमें आनंद प्राप्त करें, त्याग व छोड़ने की भावना को विकसित करें तथा अधिकारात्मकता से मुक्त हों। वे हमें किसी भी स्थान की जैव-विविधता को अस्त-व्यस्त ना करते हुए उसको सम्मान देना सिखा रही हैं।

श्री मातेश्वरी तनोट राय मंदिर – जैसलमेर के देवी मंदिर

यह मंदिर जैसलमेर से १०० किलोमीटर से भी अधिक दूरी पर स्थित है। यह मंदिर लोंगेवाला के निकट, लगभग भारत-पाकिस्तान सीमा के समीप स्थित है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि इसका निर्माण भारतीय सेना के जवानों ने किया था तथा इसकी देखरेख भी वे ही करते हैं।

तनोट माता मंदिर - जैसलमेर
तनोट माता मंदिर

इस मंदिर के सम्बन्ध में एक चमत्कारिक कथा है। १९६५ में भारत व पाकिस्तान के मध्य हुए युद्ध के समय शत्रुपक्ष ने इस स्थान पर अनेक बम फेंके थे किन्तु उनमें से एक भी बम फटा नहीं था। ऐसा भी कहा जाता है कि इस युद्ध के समय देवी ने स्वयं इन व्याकुल सैनिकों को स्वप्न में दर्शन दिए तथा उन्हें संरक्षण एवं विजय का आश्वासन दिया था।

दिव्य माता तनोट राय पर आस्था

दिव्य माता पर आस्था रखते हुए हमारे साहसी जवानों ने यह कठिन युद्ध किया। बम के ना फटने से कोई भी सैनिक हताहत नहीं हुआ तथा वे इस युद्ध में विजयी हुए। उन बमों को निष्क्रिय कर उन्हें सेना द्वारा निर्मित एक छोटे से संग्रहालय में रखा है जिसे सेना ने पाकिस्तान के साथ १९६५ व १९७१ में हुए युद्धों में प्राप्त विजय की स्मृति में बनाया था।

तनोट राय मंदिर का विजय स्तम्भ
तनोट राय मंदिर का विजय स्तम्भ

मंदिर में पहुँचने के लिए किसी भी स्थानीय टैक्सी अथवा किराए की गाडी का प्रयोग किया जा सकता है। जैसलमेर से बाहर निकलकर तनोट मंदिर की ओर जाते समय आप विस्तृत मरुभूमि का अनुभव प्राप्त कर सकते हैं। मंदिर तक पहुँचने के लिए लगभग डेढ़ घंटे का समय लग सकता है। मंदिर के बाहर एक विजय स्तंभ है जिसे युद्ध में प्राप्त विजय की स्मृति में बनवाया गया है।

मंदिर की वास्तुकला

मंदिर की संरचना एवं वास्तु शैली सादी है किन्तु अत्यंत सुन्दर है। यह मंदिर भी अधिक विशाल व विस्तृत क्षेत्र में पसरा हुआ नहीं है। मंदिर के भीतर प्रवेश करते ही समक्ष परमानंद की भावना से ओतप्रोत भवानी माँ की प्रतिमा के दर्शन होते हैं। उनके मुखड़े के भाव हमारे मन-मस्तिष्क में परम सुख व शांति की भावना उत्पन्न करते हैं। मंदिर में दिवस भर की सभी आरतियाँ सेना के जवान ही करते हैं।

तनोट माता के सम्बन्ध में एक अन्य कथा के अनुसार, जब युद्ध के समय देवी ने व्याकुल सैनिकों को स्वप्न में दर्शन दिए तथा उन्हें संरक्षण एवं विजय का आश्वासन दिया था, तब उन्होंने सैनिकों से उनके हाथों में मेहंदी लगाने के लिए कहा था ताकि वे उन फेंके गए बमों को हाथों से पकड़ कर उन्हें निष्क्रिय कर सकेंगी। इसी कारण आज भी देवी को मेहंदी अर्पित की जाती है तथा उनके हाथों में नियमित रूप से मेहंदी लगाई भी जाती है।

आप जब भी जैसलमेर यात्रा का नियोजन करें, इन शक्ति स्थलों अर्थात् देवी मंदिरों के दर्शन अवश्य करें ताकि आप भी इस क्षेत्र में फ़ैली उनकी उर्जा को शोषित कर सकें एवं उनकी उपस्थिति को अनुभव कर सकें।

जय भवानी!

यह यात्रा संस्करण IndiTales Internship Program के अंतर्गत कशिश व्यास द्वारा प्रदत्त अतिथि संस्करण है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post तनोट माता मंदिर एवं काले डूंगर मंदिर – जैसलमेर के देवी मंदिर appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/jaisalmer-ke-devi-mandir/feed/ 1 2788
थार मरुस्थल का चूरू – रंगों की छटा बिखेरता शेखावाटी नगर https://inditales.com/hindi/churu-rajasthan-paryatan-sthal/ https://inditales.com/hindi/churu-rajasthan-paryatan-sthal/#respond Wed, 02 Feb 2022 02:30:29 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2573

चूरू राजस्थान का एक छोटा सा नगर है जो हरियाणा सीमा पर स्थित है। बीकानेर के निकट स्थित चूरू थार मरुभूमि में एक रमणीय मरूद्यान के समान है। लगभग १२वीं सदी में अस्तित्व में आये इस नगर का नाम इसके संस्थापक ठाकुर चूड़ामण पर रखा गया है। कुछ अभिलेखों के अनुसार यह नगर लगभग १७वीं […]

The post थार मरुस्थल का चूरू – रंगों की छटा बिखेरता शेखावाटी नगर appeared first on Inditales.

]]>

चूरू राजस्थान का एक छोटा सा नगर है जो हरियाणा सीमा पर स्थित है। बीकानेर के निकट स्थित चूरू थार मरुभूमि में एक रमणीय मरूद्यान के समान है। लगभग १२वीं सदी में अस्तित्व में आये इस नगर का नाम इसके संस्थापक ठाकुर चूड़ामण पर रखा गया है। कुछ अभिलेखों के अनुसार यह नगर लगभग १७वीं सदी में निर्मित है तथा इसका नाम तात्कालिक नगर-प्रमुख चुर्रू पर रखा गया था। मैं जब शेखावाटी हवेलियों की खोज में भ्रमण कर रही थी तब मैं इस धरोहर स्थल पर आयी थी। यहाँ के अप्रतिम आकर्षणों का अवलोकन करते हुए मैंने एक सम्पूर्ण दिवस यहाँ व्यतीत किया था।

सेठानी का जोहड़ - चुरू
सेठानी का जोहड़ – चुरू

इस क्षेत्र के शेखावाटी नगरों में भ्रमण करते हुए तथा उनका अध्ययन करते हुए, अंतिम गंतव्य के रूप में मैं चूरू पहुँची थी। उस समय तक मैं रंगों की छटा से ओतप्रोत हवेलियों से पूर्ण रूप से अवगत हो गयी थी। एक शेखावटी हवेली की मूलभूत संरचना कैसी होती है, उसके प्रमुख अवयव कौन से होते हैं, उनमें साज-सज्जा कैसी होती है, इत्यादि की मुझे पर्याप्त जानकारी प्राप्त हो चुकी थी। मुझे ज्ञात था कि शेखावाटी नगर में ये हवेलियाँ सामान्यतः एक स्थान पर समूह में होते है। किसी काल में ये हवेलियाँ संपन्न व्यापारियों की संपत्ति थी। चूरू में भी हवेलियाँ उसी प्रकार समूह में स्थित हैं। यहाँ हवेलियों पर मुझे अप्रतिम चित्रकारी देखने मिली। आसपास के मार्गों को भी चित्रकारी द्वारा सुन्दर रूप दिया गया है।

चूरू के दर्शनीय स्थल

चूरू नगर से मेरी जो स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं, उनमें प्रमुख हैं, वे कारीगर, जिनसे मैंने भेंट की थी तथा राजस्थान के अप्रतिम जल धरोहर, जिनके मैंने दर्शन किये थे। इनके अतिरिक्त चूरू की हवेलियाँ भी अत्यंत मनमोहक हैं। आईये आपको चूरू तथा महनसर के सुन्दर दर्शनीय धरोहरों का भ्रमण कराती हूँ।

सेठानी का जोहड़

राजस्थानी भाषा में ‘जोहड़’ एक प्रकार का जलाशय है। सेठानी का जोहड़ रतनगढ़ मार्ग पर स्थित है। इस जोहड़ का निर्माण २०वीं सदी के मध्य में सेठ भगवान दास बागला की पत्नी ने करवाया था। इसीलिए इसे सेठानी का जोहड़ कहते हैं।

मनोरम सेठानी का जोहाड़
मनोरम सेठानी का जोहाड़

यह जोहड़ इस क्षेत्र के उन दुर्लभ जलाशयों में से एक है जो नित्य जल से भरे रहते हैं। मैं यहाँ सितम्बर मास में आयी थी। श्वेत भित्तियों के मध्य इसका जल सतह झिलमिला रहा था। जलाशय का उत्तम रखरखाव किया गया था। जल भी अत्यंत निर्मल था। इनकी संरचना दर्शनीय है। इसके अग्रभाग में पक्षियों के सुन्दर चित्र हैं।

जल के समीप बैठने के लिए इसके चारों ओर गलियारे बने हुए हैं। मेरे गाइड ने मुझे बताया कि यहाँ ऐसे विशिष्ट व्यक्ति हैं जिन्हें कम्पन द्वारा भूमिगत जल की उपस्थिति का आभास होता है। उसी के अनुसार वे उचित स्थान का चुनाव कर वहाँ जलाशय का निर्माण करवाते हैं। भूमि एवं वहां की मिट्टी के रंग द्वारा भी वे सटीक स्थल की जानकारी देते हैं। यह एक अन्तर्निहित ज्ञान है जो एकाग्रता एवं अनुभव से ही प्राप्त होता है। यह ज्ञान अब लुप्त होता जा रहा है।

शीत ऋतु में यहाँ अनेक अप्रवासी पक्षियों का बसेरा होता है। शीत प्रदेशों से वे जल की खोज में यहाँ आते हैं। यदि आप इस क्षेत्र का भ्रमण कर रहे हैं तो सेठानी का जोहड़ अवश्य देखें।

अवश्य पढ़ें: मंडावा एवं फतेहपुर – शेखावाटी पर्यटन केंद्र के आकर्षण

दिगंबर जैन मंदिर

चुरू का जैन मंदिर
चुरू का जैन मंदिर

जैन धर्म के सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ भगवान का यह जैन मंदिर दूसरा वह स्थान है जिसके दर्शन आप अवश्य करें। बाह्य दृष्टया यह मंदिर श्वेत रंग का एक सर्वसाधारण भवन प्रतीत होता है। किन्तु जैसे ही आप कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर मंदिर के भीतर प्रवेश करेंगे, आप अवाक् रह जायेंगे। मंदिर का भीतरी अलंकरण एक सर्वाधिक भव्य महल को भी कड़ी स्पर्धा दे सकता है।

मंदिर की भित्तियाँ समृद्ध रंगों में चित्रित मनमोहक भित्तिचित्रों से भरी हुई हैं। विभिन्न रंगों के दर्पण उन छवियों के अनेक प्रतिबिम्ब प्रस्तुत कर उनकी भव्यता को कई गुना बढ़ा देते हैं।  एक भित्ति में साँप-सीढ़ी के खेल का प्राचीन रूप चित्रित है। विभिन्न रंगों के इस हुड़दंग के मध्य जैन तीर्थंकर की शान्ततम प्रतिमा स्थापित है।

नाथ जी की छत्री

नाथ जी की छत्री
नाथ जी की छत्री

छत्री सामान्यतः किसी क्षेत्र के राजपरिवार के सदस्यों के समाधि स्मारक होते हैं। मुख्यतः महाराजाओं एवं महारानियों के मरणोपरांत, उनकी स्मृति में स्थानीय स्थापत्य की दृष्टी से विशिष्ट स्मारक निर्मित किये जाते थे। भारत में अधिकतर छत्रियाँ राजस्थान राज्य में देखने मिलती हैं, जिनमें जयपुर, जोधपुर, जैसलमेर इत्यादि प्रमुख हैं। मध्यप्रदेश में भी शिवपुरी एवं ओरछा जैसे स्थानों में अप्रतिम छत्रियाँ हैं। नाथजी की छत्री अपेक्षाकृत एक विशाल व भव्य संरचना है। इसके भीतर एक शिवलिंग भी है जिसकी नियमित पूजा-अर्चना की जाती है। जब मैं इसके दर्शनार्थ यहाँ पहुँची थी, उस समय यह बंद होने के कारण मैं इसे भीतर से नहीं देख पायी थी।

छत्री के परिसर में विचरण करते हुए मेरी दृष्टी एक अद्वितीय जल प्रबंधन प्रणाली पर पड़ी। एक ढका हुआ कुआं था जिसके ऊपर एक चौकोर छोटा छिद्र था। इस छिद्र को अनेक जल नलिकाओं से जोड़ा हुआ था जो स्वतः जल को स्वच्छ कर रहे थे। वह एक अद्भुत प्रणाली थी। छत्री के साथ इस प्रणाली का अवलोकन भी अवश्य करिये।

अवश्य पढ़ें: नवलगढ़ की पोद्दार हवेली एवं अन्य दर्शनीय स्थल

चूरू की हवेलियाँ

चूरू नगर के बाजार में भ्रमण करते समय आप स्वयं को अनेक भव्य एवं रंगों से ओतप्रोत हवेलियों से घिरा पायेंगे। ये हवेलियाँ ना केवल विभिन्न रंगों से चित्रित है, अपितु उनमें बेल्जियम के रंगबिरंगे कांच का भी विपुलता से प्रयोग किया गया है। इनके अतिरिक्त, मुझे विश्वास है कि उस समय लोग अत्यंत चटक व रंगबिरंगे वस्त्र भी धारण कर इस बाजार एवं हवेलियों में विचरण करते रहे होंगे। आप कल्पना कर सकते है कि उस काल में यहाँ रंगों का हुड़दंग मचा रहता होगा।

सहस्त्र गवाक्षों वाली सुराना हवेली
सहस्त्र गवाक्षों वाली सुराना हवेली

सुराना हवेली – सुराना हवेली चूरू के हवा महल के नाम से लोकप्रिय है। इसका कारण है, इसमें निर्मित एक सहस्त्र से अधिक द्वार एवं झरोखे। इसे दूर से देखते ही आप इसके नाम के औचित्य का अनुमान लगा सकते हैं। इसके निर्माता के दूरदर्शिता प्रशंसनीय है। इसका स्थापत्य परिवेश के अनुकूल है तथा इसकी रचनात्मकता अद्वितीय है। यह अत्यंत ही भव्य प्रतीत होती है।

कोठारी हवेली पे ढोला मारू का चित्रण
कोठारी हवेली पे ढोला मारू का चित्रण

कोठारी हवेली – प्रसिद्ध व्यापारी ओसवाल जैन कोठारी द्वारा निर्मित यह हवेली सुन्दर चित्रकारी के लिए जाना जाता है। इसमें स्थित मालजी का कक्ष अपनी कलात्मकता के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है।

बंगला हवेली – यह कन्हैया लाल बंगला द्वारा निर्मित एक सुन्दर हवेली है। इसकी भित्तियों पर ढोला मारू की गौरव गाथा का बखान करते अनेक भित्तिचित्र हैं।

चूरू के अधिकाँश हवेलियों के स्वामी अन्यत्र महानगरों में जा कर बस गए हैं। सभी हवेलियाँ अप्रयोग अथवा दुरुपयोग की स्थिति में पड़ी हुई हैं। यहाँ तक कि कुछ हवेलियों का प्रयोग गोदामों के रूप में किया जा रहा है।

हवेलियों के भित्तिचित्रों में ढोल मारू की कथाओं की प्राधान्यता है। उन्हें आप सड़कों पर चलते हुए भी देख सकते हैं।

एक जीवंत हवेली
एक जीवंत हवेली

एक हवेली मैंने देखी जो प्रयोग में थी। स्तंभ युक्त गलियारे में एक तख्त रखा था। भित्तियों पर चित्र लटके हुए थे। इस हवेली के भीतर झांकने पर मुझे शेखावाटी हवेलियों के जनजीवन की एक झलक प्राप्त हुई थी।

हवेलियाँ भले ही वर्षों से ताले में बंद हैं किन्तु उनके बंद प्रवेश द्वार भी हवेली के भीतर की कलात्मकता का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। कुछ द्वार अप्रतिम कलाकारी की पराकाष्ठा हैं।

अवश्य पढ़ें: राजस्थान के झुंझुनू शेखावाटी में दर्शनीय स्थल

चूरू दुर्ग

चूरू जिला मुख्यालय पर स्थित इस दुर्ग से एक रोचक सत्य कथा जुडी हुई है। सन् १७३९ में निर्मित इस दुर्ग की प्राचीर से शत्रुओं पर चाँदी के गोले बरसाए गए थे। १८५७ की क्रान्ति में चूरू के ठाकुरों ने अंग्रेजों से विद्रोह कर दिया था। अंग्रेजी सेना द्वारा गोलाबारी के उत्तर में दुर्ग से भी भारी गोलाबारी होने लगी थी। दुर्ग के गोले समाप्त होने पर लुहारों ने नवीन गोले बनाए। जब गोले बनाने के लिए इस्पात व अन्य सामाग्री भी समाप्त हो गयी तब चूरू के सेठों व जनता ने घरों से चाँदी लाकर दी। तब चाँदी के गोले बनाकर उनमें बारूद भर कर अंग्रेजों पर बरसाए थे। यह घटना इतिहास के पन्नों पर चाँदी के अक्षरों में अंकित हो गयी है।

राम मंदिर

चूरू नगर में गुलाबी रंग में यह प्राचीन राम मंदिर है। इसकी भित्तियाँ राम शब्द से गुदी हुई हैं।

चूरू के कलाकार

चन्दन काष्ठ लघुकला

चूरू नगर में मेरी भेंट श्री. पवन जांगिड से हुई जो चन्दन की लकड़ी पर लघु कलाकृतियाँ गढ़ने के लिए जाने जाते हैं। वे अपनी सूक्ष्म कलाकृतियों के लिए प्रसिद्ध हैं। मैंने उनसे उनकी अनुवांशिक कला के विषय में जाना, उनके द्वारा गढ़ी गयी कलाकृतियों का संग्रह देखा तथा उनके पुरस्कार देखे। साथ ही उनके पिता द्वारा लकड़ी पर की जा रही उत्कीर्णन का एक विडियो भी बनाया। उसे अवश्य देखिये।

चूड़ियाँ बनाना

समूचे भारत के मेलों एवं उत्सवों में राजस्थान की लाक्षा(लाख) की चूड़ियाँ अत्यंत लोकप्रिय होती हैं। अनेक स्थानों पर आप उन्हें बनता हुआ भी देख सकते हैं। उन्हें देखकर हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि एक चूड़ी को बनाने में कितना परिश्रम करना पड़ता है। यहाँ लाख की चूड़ियों को बनाने की प्रक्रिया पर बनाया गया विडियो देखिये।

चूरू के आसपास अन्य दर्शनीय स्थल

ताल छापर वन्यजीव अभयारण्य

मैंने इस अभयारण्य का भ्रमण नहीं किया है। किन्तु मेरे मित्र अरुण भट्ट ने इसकी सराहना करते हुए मुझे इसकी जानकारी दी थी। उन्होंने मुझे बताया कि छायाचित्रीकरण ने इस अभयारण्य की कायापलट कर दी है तथा इसे एक प्रमुख पर्यटन आकर्षण बना दिया है। इसकी प्रशंसा में उनके कुछ शब्द यहाँ सुनिए।

अवश्य पढ़ें: मेड़ता – संत एवं कवयित्री मीराबाई की जन्मभूमि

महनसर की सुनहरी हवेली

चूरू के समीप एक अन्य गाँव है, महनसर। महनसर की सुनहरी हवेली में आप छोटे-बड़े अनेक आकर्षण देखेंगे। किन्तु इसका सुनहरा कक्ष देखना ना भूलें। इसकी भित्तियों पर लाल एवं सुनहरे रंगों का प्रयोग कर अप्रतिम भित्तिचित्र बनाए गए हैं। इसकी छतों पर सम्पूर्ण रामायण एवं अन्य पुराणों की कथाओं के दृश्य चित्रित हैं।

इसका एक कक्ष ठेठ औपनिवेशिक शैली में सज्जित है। मुझे बताया गया कि इस कक्ष का निर्माण यूरोपीय अतिथियों के स्वागत सत्कार करने के लिए किया गया था। हवेली के अन्य निजी भागों में उन यूरोपीय अतिथियों का प्रवेश निषिद्ध होता था। अतः हवेली के इस भाग को अतिथिगृह के रूप में प्रयोग कर यहीं उनके स्वागत सत्कार एवं मनोरंजन की व्यवस्था की जाती थी।

महनसर की सुनहरी हवेली अब एक भव्य धरोहर अतिथिगृह /होटल है। राजस्थान के एक ठेठ कस्बे की जीवनशैली को समीप से निहारने एवं उसका आनंद लेने के लिए यहाँ अवश्य आईये। जब मैं वहां गयी थी, उस पर पुनरुद्धार का कार्य चल रहा था। अब वह अतिथियों के सत्कार हेतु सज्ज हो चुका होगा।

अवश्य पढ़ें: शेखावाटी हवेलियाँ और उनके भित्तिचित्र – राजस्थान की मुक्तांगण दीर्घा

चूरू के लिए यात्रा सुझाव

  • चूरू भ्रमण की सर्वोत्तम समयावधि शीत ऋतु है। ग्रीष्ण ऋतु में यहाँ की उष्णता असहनीय हो सकती है।
  • चूरू तक दिल्ली एवं जयपुर से रेल मार्ग तथा सड़क मार्ग द्वारा सुगमता से पहुंचा जा सकता है।
  • इस धरोहर नगरी के भ्रमण के लिए कम से कम आधा दिवस आवश्यक है।

चूरू में ठहरने के लिए उपयुक्त विकल्प उपलब्ध हैं। आप चाहें तो समीप ही मंडावा, झुंझुनू अथवा नवलगढ़ जैसे किसी बड़े नगर में रुक सकते हैं तथा वहां से चूरू की एक दिवसीय यात्रा कर सकते हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post थार मरुस्थल का चूरू – रंगों की छटा बिखेरता शेखावाटी नगर appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/churu-rajasthan-paryatan-sthal/feed/ 0 2573
मंडावा एवं फतेहपुर – शेखावाटी पर्यटन केंद्र के आकर्षण https://inditales.com/hindi/shekhawati-mandava-haveli-fatehpur/ https://inditales.com/hindi/shekhawati-mandava-haveli-fatehpur/#respond Wed, 04 Aug 2021 02:30:17 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2377

राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र का सर्वाधिक लोकप्रिय नगर है, मंडावा। विश्व भर से आये पर्यटकों की चहल-पहल से भरा यह एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। यह उन विशेष स्थलों में से एक हैं जहां की अर्थ व्यवस्था पर्यटन व्यवसाय पर ही आधारित है तथा इसी कारण जहां स्थानीय निवासियों की अपेक्षा पर्यटक ही अधिक दिखाई […]

The post मंडावा एवं फतेहपुर – शेखावाटी पर्यटन केंद्र के आकर्षण appeared first on Inditales.

]]>

राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र का सर्वाधिक लोकप्रिय नगर है, मंडावा। विश्व भर से आये पर्यटकों की चहल-पहल से भरा यह एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। यह उन विशेष स्थलों में से एक हैं जहां की अर्थ व्यवस्था पर्यटन व्यवसाय पर ही आधारित है तथा इसी कारण जहां स्थानीय निवासियों की अपेक्षा पर्यटक ही अधिक दिखाई देते हैं। यह स्थान चित्रपट निर्माताओं के मध्य भी अत्यधिक प्रसिद्ध है। इस नगर की रंगबिरंगी गलियों में अनेक चित्रपटों के चित्रीकरण किये गए हैं। इसका कारण विविध रंगों से परिपूर्ण यहाँ की हवेलियों के साथ साथ, आसानी से उपलब्ध होने वाले विश्राम गृह भी हैं।

१८वीं शताब्दी में स्थापित मंडावा, नवलगढ़ जैसे अन्य शेखावाटी नगरों का ही समकालीन नगर है। झुंझुनू जिले के अंतर्गत आते इन सभी शेखावाटी नगरों की विशेषताएं लगभग सामान ही हैं, किन्तु मंडावा उन सब से अपेक्षाकृत अधिक आकर्षक एवं विविधतापूर्ण है। मैंने मंडावा की यात्रा उस समय की थी जब शेखावाटी की रंगबिरंगी हवेलियों के दर्शन करने के लिए मैंने झुंझुनू के निकट स्थित बागड़ में कुछ दिनों के लिए डेरा डाला हुआ था।

ऐसी ही रंगबिरंगी शेखावाटी हवेलियों से भरे मनमोहक मंडावा नगर में भ्रमण करने में मुझे अत्यंत आनंद की अनुभूति हुई जो मैं आपके साथ बांटना चाहती हूँ। आईये मेरी दृष्टी से मैं आप सब को मंडावा का भ्रमण कराती हूँ।

मंडावा दुर्ग

मंडावा दुर्ग अब एक आलीशान विरासती होटल है। अतः यहाँ ठहरकर इसका अवलोकन करना सर्वोत्तम मार्ग है। अन्यथा, इस दुर्ग में प्रवेश करने के लिए भारी प्रवेश शुल्क देना पड़ता है।

मंडावा दुर्ग - राजस्थान
मंडावा दुर्ग – राजस्थान

राजस्थान के किसी भी राजमहल के समान यहाँ भी अनेक छायाचित्र हैं, अनेक प्राचीन रूपचित्र हैं तथा साज-सज्जा की अनेक पुरातन चल-सामग्रियां हैं। इस ऐतिहासिक धरोहर के मध्य में एक तरणताल भी है।

मंडावा दुर्ग का चौक
मंडावा दुर्ग का चौक

इस दुर्ग से सम्बंधित मेरी सर्वाधिक प्रगाढ़ स्मृति है, इसके विशाल प्रांगण की, जिसके मध्य में एक चौक है। यह एक मुक्तांगन है जिसकी भूमि पक्की नहीं है। इसके विपरीत, इसकी भूमि को शुभाकृतियों से चित्रित किया गया है। इस प्रकार के मुक्तान्गणों का प्रयोग बहुधा विवाह समारम्भों जैसे अनुष्ठानों के लिए किया जाता है। मुझे स्मरण है कि मेरे पैतृक निवास में भी इसी प्रकार का एक प्रांगण है।

मंडावा दुर्ग की रंग भरी चित्रकारी
मंडावा दुर्ग की रंग भरी चित्रकारी

इस दुर्ग की एक अन्य प्रगाढ़ स्मृति एक लघु व संकरे कक्ष की है जिसके भीतर नील वर्ण की प्राधान्यता लिए कुछ अत्यंत उत्कृष्ट चित्र हैं। यहाँ भगवान विष्णु के दस अवतारों से चित्रित फलकों की एक श्रंखला है।

और पढ़ें: शेखावटी हवेलियाँ और उनके भित्तिचित्र – राजस्थान की मुक्तांगण दीर्घा

यहाँ आपको समग्र कला की कुछ उत्कृष्ट कलाकृतियाँ देखने का अवसर प्राप्त होगा। एक प्राणी, बहुधा एक गज अथवा अश्व, की देह को अनेक अन्य प्राणियों के चित्रों द्वारा चित्रित किया गया है। यह कला अन्य शेखावटी हवेलियों में आम नहीं है।

मंडावा हवेली

मंडावा हवेली भी अब एक अतिथिगृह है जो अन्य अतिथिगृहों की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय है। इसका निर्माण सन् १८९० किया गया था। कुछ समय पूर्व इसका नवीनीकरण भी किया गया। उस समय इसे एक अतिथिगृह में परिवर्तित किया गया। इसकी छत पर एक जलपानगृह भी है। यहाँ के प्रबंधक पर्यटकों को सहर्ष हवेली के दर्शन कराते हैं। यदि आप केवल हवेली के दो तलों में प्रदर्शित चित्रकारियों का ही अवलोकन करना चाहते हैं, तब भी वे उसी आत्मीयता से आपका स्वागत करते हैं।

मंडावा हवेली
मंडावा हवेली

हवेली की भित्तियों पर प्रदर्शित चित्रों में कृष्ण एवं उनकी लीलाओं की प्राधान्यता है। इनके अतिरिक्त, प्रदर्शित चित्रों में आप विमान, रेल, मानवी जीवन की झलक तथा राजसी शोभायात्राओं को भी देख सकते हैं। यह शेखावटी हवेली अब भी उपयोग में लाई जाती है, जिसके चिन्ह आप चारों ओर देख सकते हैं। चारों ओर हर प्रकार के साज-सज्जा की चल-सामग्रियां रखी हुई हैं। जिन कक्षों के झरोखों से सुन्दर बाह्य दृश्य प्राप्त होता है वहां अतिथियों को ठहराया जाता है। अन्य कक्षों का भी विभिन्न कार्यों हेतु प्रयोग किया जाता है। प्रवेश द्वार के ऊपर रखे गणेश जी के विग्रह पर ताजे पुष्पों का हार चढ़ाया जाता है। इन सब के कारण यह हवेली पर्यटकों को अत्यंत जीवंत प्रतीत होती है। इसके विपरीत शेखावटी क्षेत्र की कई हवेलियाँ या तो रिक्त पड़ी हैं अथवा उन्हें संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया है। इस प्राचीन हवेली के पुरातन कक्षों को किस प्रकार पुनर्जीवित एवं अलंकृत कर अतिथि कक्षों  में परिवर्तित किया है, यह अत्यंत रोचक एवं सराहनीय है। हवेली के लघु क्षेत्रों तथा मुक्तान्गणों को बैठकों में परिवर्तित किया है।

और पढ़ें: नवलगढ़ – पोद्दार हवेली एवं अन्य दर्शनीय स्थल

हवेली के गच्ची से आप सम्पूर्ण मंडावा नगर देख सकते हैं। वहां से विभिन्न भवनों की छतों का अद्भुत सम्मिश्रण दिखाई पड़ता है, जिनके मध्य से कलात्मक अभिव्यक्तियाँ झांकती सी प्रतीत होती हैं। ऊंची ऊंची भित्तियों वाला दुर्ग तथा सुन्दर शिखरों से आच्छादित मंदिरों को आप अनदेखा नहीं कर सकते।

रघुनाथ मंदिर

रघुनाथ मंदिर - मंडावा
रघुनाथ मंदिर – मंडावा

मंडावा हवेली के निकट रघुनाथ मंदिर है जहां आप कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर पहुँच सकते हैं। यह मंदिर हवेली के ही सामान प्रतीत होता है। किन्तु सूचना फलक एवं ऊपर फहराता ध्वज हमें यह सन्देश दे देता है कि यह हवेली नहीं, अपितु मंदिर है। नवलगढ़ के गोपीनाथ जी के मंदिर के ही सामान, इस मंदिर में भी मुखमंडप की भीतरी छत पर विविध रंगों में जीवंत चित्रकारी की गयी है। मुझे एक तथ्य ने अत्यंत सुखद आश्चार्य प्रदान किया, प्रत्येक चित्रित दृश्य पर सूक्ष्म सूचना पत्रक हैं जिन पर चित्रों की व्याख्या की गई है। किन्तु दृश्यों में चित्रित पात्रों के विषय में जानकारी की अनुपस्थिति में उन कथाओं को समझना कठिन है। उस समय मुझे एक जानकार परिदर्शक अथवा गाइड की अनुपस्थिति अत्यंत खली, जो हमें चित्रित कथाओं की जानकारी दे सकता था।

झुनझुनवाला हवेली का सुनहरा कक्ष

यूँ तो झुनझुनवाला हवेली आसपास की किसी भी अन्य हवेली के ही सामान है जिनकी भित्तियों के रंग अब फीके पड़ने लगे हैं, किन्तु इस हवेली का एक अपवाद है कि यह अपने एक सुनहरे कक्ष के सन्दर्भ में अंग्रेजी एवं फ्रेंच भाषा में बढ़चढ़ कर विज्ञापन करता है।

झुनझुनवाला हवेली के सुनहरी कक्ष में कृष्ण लीला
झुनझुनवाला हवेली के सुनहरी कक्ष में कृष्ण लीला

झुनझुनवाला हवेली में प्रवेश करते ही मैं एक मुक्तांगण में पहुँची जिसके बायीं ओर वसाहत थी तथा दाहिनी ओर रंगकारी किया हुआ एक द्वारमण्डप था। एक सहायक ने नाममात्र प्रवेश शुल्क लेकर मेरे लिए इस द्वारमण्डप का द्वार खोल दिया। उस द्वार से मैंने एक कक्ष में प्रवेश किया जिसे सुनहरा कक्ष कहते हैं क्योंकि यहाँ के चित्रों में सुनहरे रंग की प्राधान्यता है।

लगभग पूर्ण रूप से उपेक्षित इस हवेली के इस इकलौते सुनहरे कक्ष की एक संग्रहालय के रूप में विशेष रूप से देखरेख की जाती है। इस कक्ष में साज-सज्जा की पुरातन चल-वस्तुएं रखी हुई हैं, साथ ही शतरंज जैसे विशेष पट्टिकाओं पर खेले जाने वाले खेल रखे हुए हैं। सर्वोत्तम रूप से संरक्षित वे चित्र हैं जो कक्ष की भीतरी छत पर अथवा भित्तियों के ऊपरी भागों पर चित्रित हैं। अधिकतर चित्र कृष्ण लीला पर आधारित हैं। किन्तु मैंने कुछ स्थानों पर शिव-पार्वती, देवी तथा राम दरबार भी चित्रित देखे। झरोखों के किवाड़ों पर रंगबिरंगे काँच लगे हुए हैं जो कक्ष की आभा में अपने रंगों का अद्भुत मेल करते प्रतीत होते हैं।

मंडावा का हरलालकर बावड़ी

मंडावा का हरलालकर बावड़ी
मंडावा का हरलालकर बावड़ी

झुनझुनवाला हवेली से आते मार्ग के दूसरे छोर पर यह बावडी है। कुछ सीढ़ियाँ उतरकर हम बावड़ी तक पहुंचते हैं। प्रवेश पर स्थित दो स्तंभ इस बावडी की रक्षा करते प्रतीत होते हैं। बावडी के चारों ओर अनेक छत्रियाँ भी हैं। कहते हैं कि यह बावड़ी अत्यंत गहरी है। संभव है, क्योंकि रेगिस्तानी मरुभूमि होने के कारण भूमिगत जल अत्यंत गहराई में प्राप्त होता है। हो सकता है कि प्राचीन काल में आसपास की हवेलियों की स्त्रियाँ जल लेने इसी बावड़ी पर आती रही होंगी।

बावड़ी की ओर जाते मार्गों पर चलते हुए मैं भवनों की बाह्य भित्तियों पर चित्रित सुन्दर चित्रों को देख स्तब्ध हो गई थी। वहां खेलते बालकों ने मुझे बताया कि बॉलीवुड के अनेक चित्रपटों का चित्रीकरण इन गलियों में किया गया है।

चोखानी दुहरी हवेली

चोखानी दुहरी हवेली
चोखानी दुहरी हवेली

मंडावा में अनेक दुहरी हवेलियाँ हैं। मैंने चोखानी दुहरी हवेली के अवलोकन का निश्चय किया क्योंकि एक सूचना पट्टिका में “डबल” अथवा दुहरी शब्द देख मेरे मस्तिष्क में सहज ही कौतूहल उत्पन्न हुआ। चोखानी दुहरी हवेली में प्रवेश करते ही मेरी भेंट हवेली के अभीक्षक से हुई जिसने नाममात्र का प्रवेश शुल्क लेकर मुझे हवेली के दर्शन कराये। एक छोटे से निर्देशित भ्रमण के द्वारा उन्होंने मुझे दुहरी हवेली का अर्थ समझाया। दुहरी हवेली का अर्थ है, दो संयुक्त समरूप हवेलियाँ। उन्होंने मुझे इस प्रकार की हवेलियों का प्रयोजन यह बताया कि ऐसी हवेलियाँ बहुधा कोई संपन्न व्यक्ति अपने दो पुत्रों के भावी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए बनाता है। यदि दोनों पुत्रों में सामंजस्य है तो दोनों हवेलियों को एक संयुक्त हवेली के रूप में प्रयोग किया जा सकता है, अन्यथा सामंजस्य के अभाव में दोनों हवेलियों के मध्य स्थित भित्ति पर लगे प्रवेश द्वार को बंद कर दोनों पुत्र स्वतन्त्र जीवन व्यतीत कर सकते हैं।

इन हवेलियों की विशालता एवं इसके विशाल प्रांगणों ने मुझे इतना अचंभित कर दिया था कि उन्होंने मेरे मानसपटल पर अमिट छाप छोड़ दी है।

मुरमुरिया हवेली

मुरमुरिया हवेली को देख ऐसा प्रतीत होता है मानो यह इटली की कोई हवेली है। इसका कारण इसकी भित्तियों पर लगे हलके रंग हैं, जैसे हल्का पिस्ता रंग इत्यादि। इसके विपरीत, आसपास की हवेलियों की भित्तियों पर चटक रंग रंगे गए हैं। इस हवेली के विशेष तत्व हैं, एक अश्व की सवारी करते व हाथ में तिरंगा लिए नेहरु का चित्र तथा जॉर्ज पंचम का रूपचित्र। हवेली के बाहर लगा फलक गर्व से इसकी सूचना देता है।

मुरमुरिया हवेली में भारत माता का चित्र
मुरमुरिया हवेली में भारत माता का चित्र

मुरमुरिया हवेली के भीतर मुझे शेखावटी हवेली एवं यूरोपीय भवन का अनोखा सम्मिश्रण दिखाई दिया। इसकी भीतरी भित्तियों पर बड़े बड़े चौकोर चौखटों के भीतर समकालीन चित्रों का मिश्रित संग्रह प्रदर्शित किया गया है। वहीं रामायण एवं महाभारत के दृश्यों के साथ भारत माता का एक विशाल चित्र भी चित्रित है। एक चौखट के भीतर भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में सहभागी अनेक नेताओं के रूप चित्र हैं, जैसे महात्मा गाँधी तथा बाल गंगाधर तिलक।

अनेक ठेठ शेखावटी हवेलियों से घिरी यह हवेली अपनी विशेष मिश्रित शैली के कारण दर्शकों की दृष्टी अकस्मात् अपनी ओर खींचती है।

मंडावा की गोयनका हवेली

मंडावा की गोयनका हवेली भी उत्तम रीति से संरक्षित सुन्दर हवेली है। यहाँ मैंने भित्ति पर यमराज का एक दुर्लभ चित्र भी देखा। इस हवेली का सम्बन्ध प्रसिद्ध गोयनका घराने से है। हवेली की चित्रकारी एवं उत्कीर्णन अत्यंत दर्शनीय है।

गोयनका हवेली पर यमराज का चित्र
गोयनका हवेली पर यमराज का चित्र

इस क्षेत्र के निवासियों के अनुसार बिड़ला, मित्तल, गोयनका, बजाज, डालमिया, पोद्दार, चोखानी जैसे भारत के संपन्न मारवाड़ी व्यापारी घरानों ने इस नगर को बसाया था। आपसी प्रतिस्पर्धा के चलते इन सेठों ने अत्यंत आकर्षक हवेलियों का निर्माण कराया। कहा जाता है कि मंडावा प्राचीन सिल्क रूट पर पड़ने वाला प्रमुख व्यापारिक केंद्र था जिसके कारण यहाँ के व्यापारी अत्यंत संपन्न हुए। अतः उन्होंने हवेलियों के सौन्दर्यीकरण में कोई कमी नहीं होने दी। कालान्तर में उत्तम सुख-सुविधाओं की चाह में ये संपन्न घराने बड़े शहरों में स्थानांतरित हो गए। अब वे कुलदेवता की पूजा-अर्चना जैसे विशेष आयोजनों के लिए ही अपनी हवेलियों में आते हैं। अतः ये हवेलियाँ या तो वीरान पड़ी रहती हैं अथवा किसी अभीक्षक को सौंप कर उसे संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया है।

फतेहपुर की हवेलियाँ

फतेहपुर भी एक शेखावटी नगर है जो मंडावा से अधिक दूर नहीं है। यह क्षेत्र फ्रांसीसी हवेलियों के लिए लोकप्रिय है।

नादिन ली प्रिंस सांस्कृतिक केंद्र

फतेहपुर की फ्रांसिसी हवेली पर गज चित्रण
फतेहपुर की फ्रांसिसी हवेली पर गज चित्रण

यह संरचना अन्य शेखावटी हवेलियों का ही सामान है किन्तु इसका निर्माण २०० वर्षों पूर्व नंदलाल देवरा ने करवाया था। सन् १९९८ में फ्रांसीसी कलाकार नादिन ने इसे खरीद लिया था। उन्होंने इस हवेली के संरक्षण का कार्यभार उठाया। इसी कारण अब इसका एक फ्रांसीसी नाम है तथा इसके भीतर प्रवेश करने के लिए भारी प्रवेश शुल्क भी वसूला जाता है। यहाँ मुझे नीले रंग की पृष्ठभूमि में चित्रित एक विशाल गज अत्यंत भाया।  मुझे यहाँ का वातावरण किंचित असुविधाजनक प्रतीत हुआ। यहाँ का अभीक्षक हमसे अशिष्टता से व्यवहार कर रहा था। कदाचित उसे केवल श्वेत पर्यटकों की ही प्रतीक्षा रहती है। मुझे जानकारी प्राप्त हुई कि यूरोपीय कला विद्यालयों के अनेक विद्यार्थी इन चित्रों के अध्ययन के लिए यहाँ आते रहते हैं। दुर्भाग्य से अधिकतर भारतीय अप्रतिम रूप से चित्रित इन हवेलियों से अवगत ही नहीं हैं।

फतेहपुर नगरी में पद-भ्रमण करते हुए आप यहाँ की गलियों में अनेक रंगबिरंगी हवेलियाँ देखेंगे। प्रत्येक हवेली स्वयं में एक अनूठी हवेली है।

फतेहपुर के भीतर एवं आसपास स्थित मंदिर

गोयनका शक्ति मंदिर – यह शेखावटी का वह प्रथम दादी सती मंदिर है जिसके मैंने सर्वप्रथम दर्शन किये थे। इस सुन्दर मंदिर में गोयनका वंश की पूर्वज बीरन एवं बरजी की वंदना की जाती है। इस मंदिर में इनकी त्रिशूल रूप में पूजा-अर्चना की जाती है। यहाँ एक अन्य मंदिर भी है जो शक्ति के १६ रूपों को समर्पित है। इस मंदिर ने मेरे समक्ष इस क्षेत्र के अध्ययन के लिए एक नवीन विषयवस्तु प्रस्तुत किया है।

गोयनका शक्ति स्थल फतेहपुर
गोयनका शक्ति स्थल फतेहपुर

गोयनका मंदिर के बाहर मुझे एक सूचना पट्टिका दिखी जो बिंदल घराने की कुलदेवी के मंदिर की ओर संकेत कर रही थी। मूलतः, अग्रवाल घराने के लगभग सभी गोत्रों की कुलदेवियों के मंदिर आपको इस क्षेत्र में दिख जायेंगे।

पंचमुखी बालाजी मंदिर – हनुमानजी को समर्पित यह एक सुन्दर मंदिर है। बालाजी नाम से आप भ्रमित ना होएं। इस क्षेत्र में हनुमानजी के लिए बालाजी नाम का प्रयोग किया जाता है। इस क्षेत्र में अनेक बालाजी मंदिर हैं।

श्री दो जाँटी बालाजी मंदिर – यह भी एक लोकप्रिय मंदिर है जहां अर्पण किये गए श्रीफलों को सभी स्थानों पर लटकाया गया है। यहाँ तक कि अनेक स्थानों पर इन श्रीफलों से भित्तियाँ तक बन गयी हैं।

मंडावा के कुँए
मंडावा के कुँए

मंडावा में अनेक स्थानों पर बावड़ियां दृष्टिगोचर हो जाती हैं। इन सभी बावडियों के विषय में आवश्यक जानकारी भी दी गयी हैं तथा इन बावडियों के संरक्षण पर भी कार्य किया गया है। यह इस सत्य का सूचक है कि ये बावड़ियां यहाँ के निवासियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। प्रत्येक बावडी, प्रत्येक जल संचयन प्रणाली के नाम भी अत्यंत अनूठे हैं। इनमें अधिकतर नाम उनके निर्माताओं के नाम से सम्बंधित हैं।

यह क्षेत्र लाख की चूड़ियों इत्यादि राजस्थानी वस्तुओं के लिए भी प्रसिद्ध है। आप यहाँ से इच्छित वस्तुएं क्रय कर सकते हैं।

यहाँ की गलियों में भ्रमण करना एक प्रकार से भूतकाल की उस समयावधि में प्रवेश करने जैसा है जब स्थापत्य शास्त्र पर सौंदर्य शास्त्र का राज था।

मंडावा एवं फतेहपुर नगरों में पर्यटकों के लिए सभी आवश्यक सुविधाएं हैं। आपको यहाँ विश्रामगृह/होटल अथवा जलपान गृह जैसी सुविधाओं को प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं होगी।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post मंडावा एवं फतेहपुर – शेखावाटी पर्यटन केंद्र के आकर्षण appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/shekhawati-mandava-haveli-fatehpur/feed/ 0 2377
नवलगढ़ की पोद्दार हवेली एवं अन्य दर्शनीय स्थल https://inditales.com/hindi/nawalgarh-rajasthan-ki-poddar-haveli-aur-mandir/ https://inditales.com/hindi/nawalgarh-rajasthan-ki-poddar-haveli-aur-mandir/#comments Wed, 12 May 2021 02:30:50 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2281

नवलगढ़ वह प्रथम शेखावटी नगरी है जिसके मैंने दर्शन किए थे। पुष्कर से झुंझुनू के निकट स्थित बागड़ जाते समय नवलगढ़ मेरा प्रथम पड़ाव था। आप यह कह सकते हैं कि अद्भुत शेखावटी हवेलियों से यह मेरा प्रथम साक्षात्कार था। यद्यपि मंडवा की शेखावटी हवेलियाँ अधिक लोकप्रिय हैं, तथापि मैं यह विश्वास से कह सकती […]

The post नवलगढ़ की पोद्दार हवेली एवं अन्य दर्शनीय स्थल appeared first on Inditales.

]]>

नवलगढ़ वह प्रथम शेखावटी नगरी है जिसके मैंने दर्शन किए थे। पुष्कर से झुंझुनू के निकट स्थित बागड़ जाते समय नवलगढ़ मेरा प्रथम पड़ाव था। आप यह कह सकते हैं कि अद्भुत शेखावटी हवेलियों से यह मेरा प्रथम साक्षात्कार था। यद्यपि मंडवा की शेखावटी हवेलियाँ अधिक लोकप्रिय हैं, तथापि मैं यह विश्वास से कह सकती हूँ कि नवलगढ़ की पोद्दार हवेली सर्वोत्तम रूप से संरक्षित एवं प्रदर्शित हवेली है।

आईए मैं आपको इस अप्रतिम नगरी का दर्शन कराती हूँ जहां अनेक भारतीय व्यापारी परिवार बसते हैं।

नवलगढ़ का इतिहास

एक सरोवर के किनारे रोहिली नामक एक छोटा सा गाँव था। सन् १७३७ में झुंझुनू के संस्थापक शार्दूल सिंह के कनिष्ठ पुत्र नवल सिंह यहाँ आए थे तथा एक दुर्ग का निर्माण करवाया था। उन्होंने एक मोर्चाबंद नगर की स्थापना की जिसके चार दिशाओं में चार द्वार थे। इन द्वारों के नाम थे, अंगूना, बावड़ी, मंडी तथा ननसा। चारों ओर भित्तियों से घिरा तथा इन चार लौहद्वारों द्वारा संरक्षित इस दुर्ग का नाम बाला किला था। फतेहगढ़ नामक एक अन्य दुर्ग भी है जो इन भित्तियों के बाह्य भाग में है। नगर का बाजार इन चार भित्तियों के भीतर अब भी सक्रिय है। यह राज्य अपने उत्तम नस्ल के शिष्ट घोड़ों एवं हाथियों के लिए जाना जाता था।

नवल सिंह ने अनेक व्यापारी समुदायों को यहाँ आकर अपने व्यवसायों को स्थापित करने के लिए आमंत्रित किया था। इस प्रकार अनेक व्यापारी एवं व्यवसायी यहाँ पधारे तथा अपने व्यवसाय द्वारा संचित धन से इन अप्रतिम हवेलियों का निर्माण किया।

नवलगढ़ के दर्शनीय स्थल

मैं नवलगढ़ की यात्रा विशेषतः शेखावटी हवेलियों का अवलोकन करने के लिए ही कर रही थी। अतः मैंने जैसे ही नवलगढ़ में प्रवेश किया, मैं इन हवेलियों के दर्शन करने के लिए व्याकुल हो गई। बाजार के सँकरे मार्गों से होते हुए हमारी गाड़ी आगे बढ़ी। मार्ग में दुर्ग की भित्तियों एवं विशाल प्रवेश द्वारों को निहारा। अनेक सुंदर इमारतों को देखा। उनमें कुछ इमारत मंदिर प्रतीत हो रहे थे तथा अन्य को देख हवेलियों का आभास हो रहा था। नगर के भीतर से होते हुए हम ऐसे स्थान पर पहुंचे जो हवेलियों से भरा हुआ था। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो मैं एक मुक्तांगन कलादीर्घा में पहुँच गई हूँ।

मोरार्का हवेली

नवलगढ़ नगरी में मैंने सर्वप्रथम इसी हवेली के दर्शन किए थे। एक अत्यंत अलंकृत काष्ठी द्वार, विपुलता से रंगी भित्तियों तथा ऊपर लटकते आलों व झरोखों के नीचे से हमने हवेली के भीतर प्रवेश किया। मेरे अनुमान से हवेली के स्वामी ने हाल ही में इसका नवीनीकरण किया था। भीतर पुस्तकों की एक छोटी दुकान है जहां हवेली की जानकारी एवं भव्य चित्रों से सजी सुंदर पुस्तक उपलब्ध है। पर्यटकों को हवेली से अवगत कराने के लिए अनेक छायाचित्रों एवं चलचित्रों का भी संग्रह है। मैंने तुरंत प्रवेश टिकट क्रय किया तथा हवेली के अभीक्षक से हवेली के दर्शन कराने के लिए अनुरोध किया।

मुरारका हवेली नवलगढ़
मुरारका हवेली नवलगढ़

मेरे परिदर्शक ने मुझे हवेली के विभिन्न अवयव दिखाए जो एक प्रकार से मेरे लिए पारंपरिक शेखावटी हवेलियों से प्रथम परिचय था। उन्होंने मुझे हवेली के मध्य में स्थित प्रांगण दिखाया जिसे चौक कहते हैं। हवेली में कितने चौक हैं, इस पर हवेली का आकार निर्भर होता है। यद्यपि छोटी हवेलियों में एक चौक होता है, तथापि अधिकतर हवेलियों में दो चौक की उपस्थिति सामान्य हैं। कुछ बड़ी हवेलियों में अधिक संख्या में चौक हो सकते हैं किन्तु ऐसी हवेलियाँ विरल हैं। वे मुझे हवेली की बैठक में ले गए जहां व्यावसायिक बैठकें की जाती थीं। उन्होंने मुझे हवेली का रसोईघर एवं ऊपरी तल पर स्थित अनेक विस्तृत शयनकक्ष भी दिखाए।

मुरारका हवेली के झरोखे
मुरारका हवेली के झरोखे

चारों ओर हिन्दू धर्मग्रंथों की कथाएं, विशेषतः कृष्ण की कथाएं दृष्टिगोचर हो रही थीं। मेरे चारों ओर स्थित प्रत्येक भित्ति पर रंगों की ऐसी छटा बिखरी हुई थी कि किसी एक चित्र पर नेत्र केंद्रित करना कठिन प्रतीत हो रहा था। हवेली के प्रांगण के मध्य स्थित तुलसी का पौधा यह संकेत दे रहा था कि अब भी इस हवेली में जीवन है। बैठक की भित्तियों पर मुझे अहोई माता के चिन्ह दृष्टिगोचर हुए। अनेक वैश्य परिवार नवरात्रि तथा अहोई अष्टमी के दिवस अहोई माता की आराधना करते हैं।

हवेली के ऊपर से मैं वह स्थान देख सकती थी जहां घोड़ों का अस्तबल था। उसकी भित्तियों पर घोड़ों की आकृतियाँ चित्रित हैं। हवेली के ठीक समक्ष एक विशाल मंदिर परिसर है जिसे ठेठ राजपूताना वास्तुशैली में निर्मित किया गया है। मंदिर पर शुद्ध श्वेत रंग चढ़ाया हुआ है जो उसके चारों ओर स्थित हवेलियों के चटक रंगों से पूर्णतः विपरीत है।

पोद्दार हवेली

पोद्दार हवेली नवलगढ़
पोद्दार हवेली नवलगढ़

यदि आपसे पूछा जाए कि नवलगढ़ में, यहाँ तक कि सम्पूर्ण शेखावटी में केवल एक स्थल के दर्शन का अवसर है तो आप अवश्य डॉ रामनाथ पोद्दार हवेली संग्रहालय का चुनाव करिए। सन् १९०२ ई. में निर्मित यह एक विशाल हवेली है। इसकी सफलतापूर्वक संरक्षित चित्रों को देख आप इस हवेली के समृद्ध काल की कल्पना कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त, इस हवेली में उचित परिदर्शित भ्रमण की व्यवस्था है जो आपको इस हवेली एवं उत्तम रूप से संरक्षित संग्रहालय को जानने एवं उस की सराहना करने में सहायक है। किंचित प्रवेश शुल्क लेकर सुनील जी आपको प्रत्येक अवयव के विषय में जानकारी देते हैं। सुनील जी राजस्थानी संस्कृति को प्रदर्शित करने के लिए सदा भावुक एवं उत्साही रहते हैं।

इस हवेली का रखरखाव अति उत्तम है। इसमें ७५० से भी अधिक चित्रकलाएं हैं जो उत्तम रीति से संरक्षित एवं अभिलेखित हैं। हवेली के अभीक्षक हवेली से संबंधित कथाओं से भलीभाँति अवगत हैं तथा उन कहानियों को सुनाने में उन्हे अत्यंत आनंद भी आता है।

सांस्कृतिक संग्रहालय

हवेली के ऊपरी कक्षों को संग्रहालय में परिवर्तित किया है जहां राजस्थान के विभिन्न सांस्कृतिक आयामों को प्रदर्शित किया गया है। जैसे:

  • राजस्थान के विभिन्न समुदायों में प्रचलित वर-वधू परिधान
  • विभिन्न समुदायों में प्रचलित पगड़ियाँ
महाजन पगड़ी
महाजन पगड़ी
  • राजस्थान के प्रसिद्ध दुर्गों के लघु प्रतिरूप
  • राजस्थान की विभिन्न सूक्ष्म चित्रकारी शैलियाँ
  • मरुराज्य की विभिन्न हस्तकलाएं
  • राज्य के विभिन्न संगीत वाद्य
  • विभिन्न राजस्थानी शैलियों के आभूषण एवं माणिक
  • राजस्थान के उत्सव
  • एक गांधी कक्ष है जहां भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन काल में इन हवेलियों की नींवों को प्रदर्शित किया गया है।
आनंदी लाल पोद्दार जी अपने पुत्रों के साथ
आनंदी लाल पोद्दार जी अपने पुत्रों के साथ

श्री. रामनाथ पोद्दार काँग्रेस के प्रमुख सदस्य थे। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। संग्रहालय के एक कक्ष में पोद्दार परिवार के छायाचित्र हैं। एक चित्र में परिवार के एक सदस्य को भारतीय संसद का भाग भी दर्शाया गया है। एक श्वेत-श्याम चित्र मुझे अत्यंत रोचक प्रतीत हुआ जिसमें श्री. आनंदी लाल पोद्दार की छवि को उनके चार पुत्रों की छवियों से इस प्रकार संयुक्त किया है कि भिन्न दिशा से अवलोकन करने पर भिन्न छवि नेत्रों के समक्ष उभरती है। इसे देख में अचंभे में पड़ गई कि इस प्रकार की रचनात्मकता अब क्यों दृष्टिगोचर नहीं होती?

चित्रकारी

पोद्दार हवेली में चित्रों का सुंदर संग्रह है। उनमें से कुछ चित्र ऐसे हैं जिन्हे देखना आप कदापि ना भूलें। वे हैं:

कृष्ण की कथाएं शेखावटी हवेली की भित्तियों पर
कृष्ण की कथाएं शेखावटी हवेली की भित्तियों पर
  • जयदेव का गीत गोविंद
  • बैठक के चारों ओर लघु कक्षों में चित्रित १० महाविद्याएं
  • बैठक के द्वार के ऊपर स्थित लक्ष्मी का चित्र
  • महाभारत में खेला गया चौपड़ का दृश्य
  • समरूपता प्रदर्शित करते कृत्रिम झरोखे, जिनमें बैठक की ओर झाँकते लोग ऐसे चित्रित हैं मानो वे जानने को उत्सुक हैं कि उनकी हवेली में आए भेंटकर्ता कौन हैं।
  • विस्तृत गणगौर उत्सव
  • भाप इंजन द्वारा चालित एक लंबी रेलगाड़ी जिसके साथ रेल लाइन बिछाने का भी दृश्य चित्रित है।
  • भारतीय एवं ब्रिटिश व्यापारियों के चित्र
  • बाह्य भित्तियों पर समकालीन संभ्रांतों के विशाल चित्र

यदि आप इन चित्रों का ध्यानपूर्वक विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि हवेली की इन चित्रित भित्तियों में भूत, वर्तमान एवं भविष्य तीनों का समावेश है।

महालक्ष्मी
महालक्ष्मी

पोद्दार हवेली का ऊपरी तल विक्टोरिया कालीन शैली में है। यद्यपि प्रथम तल पर भी उसी प्रकार के चित्र भित्तियों पर हैं किन्तु हल्के पिस्ता रंग में रंगे वहाँ के तोरण एवं स्तंभ विक्टोरिया कालीन अलंकरण का सटीक निरूपण हैं।

बैठक

नवलगढ़ की पोद्दार हवेली की बैठक
नवलगढ़ की पोद्दार हवेली की बैठक

इस हवेली का सर्वाधिक मनमोहक भाग बैठक है जहां सुंदर लाल रंग के गद्दे, तकिये एवं लाल रंग का हस्त पंखा लटका हुआ है। दोनों तलों एवं झरोखों के चित्र यह दर्शाते हैं कि दोनों तलों का मूल प्रारूप भिन्न होते हुए भी उनमें समरूपता है तथा दोनों एक ही हवेली के अभिन्न भाग हैं। तिजोरी कक्ष बैठक के अत्यंत भीतरी भाग में है जहां तक पहुँचने के लिए अनेक द्वार पार करने पड़ते हैं। हवेली का यह भाग अन्य भागों के विपरीत अत्यंत सादा है। हवेली का प्रांगण अत्यंत मनमोहक है। इसका लकड़ी का उत्कीर्णित द्वार अत्यंत शोभायमान है। हवेली का रसोईघर इतना छोटा है कि यह आपको अति विचित्र प्रतीत होगा। इससे विचित्र यह तथ्य है कि रसोईघर में सामग्री भंडारण के लिए आले एवं अलमारी भी नहीं हैं। सामग्री भंडारण के लिए बड़े बड़े सन्दूक अवश्य हैं किन्तु रसोईघर का लघु आकार अब भी मेरे लिए एक पहेली ही है।

विक्टोरियन एवं भारतीय शैली पोद्दार हवेली के दो तलों पर
विक्टोरियन एवं भारतीय शैली पोद्दार हवेली के दो तलों पर

हवेली में एक छोटा पुस्तकालय भी है किन्तु अत्यंत दुखी होकर मुझे कहना पड़ रहा है कि वहाँ मेरे समान आगंतुकों एवं भेंटकर्ताओं के प्रवेश पर पाबंदी है।

पोद्दार हवेली के चित्रों को निहारने, उन्हे समझने एवं उनकी सराहना करने में आपके घंटों व्यतीत हो जाएंगे। इसीलिए हवेली, उसकी संरचना, उसका लोकाचार एवं वहाँ की चित्रकला शैली को समझने के लिए आपको कम से कम एक घंटे का समय ले कर चलें। कोई विशेषज्ञ अथवा पारखी यहाँ एक से अधिक दिवस व्यतीत कर सकता है।

पोद्दार हवेली का विडिओ

हवेली में मेरी भेंट के समय मैंने इस अद्वितीय धरोहर का सुंदर छाया चलचित्र मैंने मेरे यूट्यूब चैनल में डाला है। इसका अवलोकन अवश्य कीजिए। आपको यह उत्तम रूप से संरक्षित कलाकृति अवश्य भायेगी। कदाचित आप अपनी आगामी भ्रमण योजना में नवलगढ़ का ही समावेश करें।

नवलगढ़ की अन्य हवेलियाँ

चूंकि नवलगढ़ की सभी हवेलियाँ एक ही क्षेत्र में स्थित हैं तथा एक ही काल में निर्मित हैं, अन्य हवेलियों का विस्तृत अवलोकन करना आवश्यक नहीं है। आप बाहर भ्रमण करते हुए इन्हे निहार सकते हैं। यदि कोई हवेली खुली हो तो आप भीतर जाकर उसे देख सकते हैं। कभी कभी वहाँ कोई रखवाला भी मिल जाता है जिससे निवेदन कर अथवा कुछ मेहनताना दे कर हवेली दिखाने का आग्रह कर सकते हैं। अधिकार हवेलियाँ बंद हैं। उन पर समय का प्रहार स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।

नवलगढ़ हवेली पर रेल का इंजन, सेनानी और लोक कथाएं
नवलगढ़ हवेली पर रेल का इंजन, सेनानी और लोक कथाएं

यदि आप जिज्ञासू हैं तो आप प्रत्येक हवेली की कुछ ना कुछ वैशिष्ट्य अथवा कुछ रोचक चित्र अवश्य ढूंढ निकालेंगे। एक हवेली में मैंने पर्याप्त मात्रा में बेल्जियम कांच का प्रयोग देखा तो एक अन्य हवेली में रेल सेतु के निर्माण का चित्र मुझे अत्यंत विशेष एवं रोचक प्रतीत हुआ। किन्तु हवेलियों का ऐसा सक्रिय अवलोकन करने के लिए पर्याप्त समय एवं धैर्य की आवश्यकता है।

नवलगढ़ की अधिकतर हवेलियाँ व्यवहार में नहीं हैं। न हवेलियों के स्वामी, न ही किरायेदार इत्यादि इन हवेलियों में वास करते हैं। नवलगढ़ के ठीक विपरीत, मंडावा, चुरू एवं बागड़ की कुछ हवेलियों को विरासती अतिथिगृहों में परिवर्तित किया गया है तथा उनका उत्तम प्रयोग किया जा रहा है।

मंदिर

नवलगढ़ के मंदिर
नवलगढ़ के मंदिर

मोरार्का हवेली के समक्ष शुद्ध श्वेत रंग में रंगा एक मंदिर परिसर है जिसमें अनेक छोटे-बड़े मंदिर हैं। मैं जब यहाँ आई थी तब दोपहर के भोजन का समय हो चुका था। मंदिर के पट बंद हो चुके थे। मेरी निराशा कदाचित मेरे मुखड़े पर स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था। किसी ने समीप स्थित एक दुकान में पुजारीजी को बुलावा भेजा। उन्होंने तुरंत एक मंदिर को खोलकर मुझे मंदिर में दर्शन करने का अवसर दिया।

११ लिंगों वाला शिवलिंग
११ लिंगों वाला शिवलिंग

मैंने यहाँ एक अद्भुत शिवलिंग देखा। पत्थर की एक योनि के ऊपर ११ लिंग विराजमान थे। मंदिर की भित्तियों पर भी हवेलियों के ही समान चित्र थे किन्तु उतनी संख्या में नहीं थे। राधा-कृष्ण का भी एक मंदिर देखा। तत्पश्चात मेरे लिए मंदिर के पट खोलने के लिए मैंने पुजारीजी का हृदय से आभार प्रकट किया। पुजारीजी ने आनंदित होकर कहा कि आप इतनी दूर से यहाँ दर्शन के लिए आई हैं तो मैं आपकी सहायता करने के लिए कुछ पग अवश्य चल सकता हूँ। पुजारीजी की ऐसी सादगी ने मेरा मन गदगद कर दिया था। ऐसे व्यवहार का अनुभव आपको भारत के शहरी केंद्रों से दूर जाकर ही प्राप्त हो सकता है।

गोपीनाथ जी का मंदिर

यह मंदिर भीड़भाड़ भरे बाजार के मध्य में स्थित है। पोद्दार द्वार से मैंने इस मंदिर में प्रवेश किया। दुर्भाग्य से इस मंदिर का गर्भगृह भी बंद था। किन्तु मुझे निराशा नहीं हुई क्योंकि मंदिर के चारों ओर परिक्रमा करते हुए मैंने मंदिर पर की गई चित्रकारी का भरपूर आनंद उठाया। मंदिर में प्रवेश करते ही, कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर आप एक सभागृह में पहुंचते हैं। इस सभागृह की छत पर एक अप्रतिम राम दरबार उत्कीर्णित है। मुझे बताया गया कि इस मंदिर का निर्माण नवलगढ़ के संस्थापक नवल सिंह ने ही करवाया था। अतः यह मंदिर भी नवलगढ़ जितना ही प्राचीन है। गोपीनाथ जी अर्थात् गोपियों के नाथ। जी हाँ, यह मंदिर भगवान श्री कृष्ण को समर्पित है।

गोपीनाथ जी मंदिर में राम दरबार
गोपीनाथ जी मंदिर में राम दरबार

इस क्षेत्र के अन्य मंदिरों में कल्याण जी मंदिर एवं गणेश मंदिर उल्लेखनीय है। मैं इन्हे केवल बाहर से ही देख पायी। मुझे देखकर बाजार में लोगों अटकलें लगा रहे थे कि मैं केवल मंदिर की चित्रकारी एवं वास्तुकला में ही रुचि रखती हूँ। मैंने जब उन्हे बताया कि मैं वास्तव में भगवान के दर्शन करना चाहती हूँ तो उन्हे सुखद आश्चर्य भी हुआ।

रामदेव जी मंदिर – रामदेव शेखावटी क्षेत्र के एक स्थानिक लोक देव हैं। उनका मंदिर आप इस क्षेत्र के प्रत्येक नगरी में देख सकते हैं।

रूप निवास कोठी

रूप निवास कोठी नवलगढ़
रूप निवास कोठी नवलगढ़

विशाल बगीचों से घिरा यह एक प्राचीन महल है। अब इसे एक विरासती अतिथिगृह में परिवर्तित कर दिया गया है जिसका संचालन राजपरिवार ही करता है। इस कोठी में औपनिवेशिक काल का प्रभाव स्पष्ट झलकता है। आप यहाँ राजपरिवार के सदस्यों के छायाचित्रों में उन्हे अन्य साज-सामग्री सहित घोड़ों पर सवार देखेंगे। उनके वेबस्थल के अनुसार आप यहाँ घुड़सवारी का आनंद ले सकते हैं। वैसे भी, नवलगढ़ घोड़ों के लिए प्रसिद्ध था।

पोद्दार कॉलेज – पोद्दार महाविद्यालय अपने विशाल घंटाघर के कारण विशेष है। पोद्दार कॉलेज तथा मोरार्का विद्यालय समेत अनेक अन्य शैक्षणिक संस्थान इस नगरी को यहाँ के व्यापारियों की देन है जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में भी निवेश किया है। इन्हे उस समय बनवाया गया था जब ‘कॉर्पोरेट सोशल रेस्पोन्सिबिलिटी’ अर्थात् कंपनियों का सामाजिक उत्तरदायित्व, यह संकल्पना लोकप्रिय एवं आवश्यक नहीं हुई थी।

बाजार में मैंने लाख की चूड़ियों की, छोटे कुम्हारों की एवं चमड़े के जूतों की अनेक दुकानें देखीं।

कुल मिलाकर नवलगढ़ में प्राचीनता एवं नगरी परिवेश, दोनों के सभी अवयव दृष्टिगोचर होते हैं। मेरी तीव्र अभिलाषा है कि नवलगढ़ के सभी भव्य हवेलियों में सक्रिय वसाहत हो ताकि वे केवल संग्रहालय में संकुचित होकर न रह जाएँ।

यात्रा सुझाव

  • नवलगढ़ जयपुर से १६० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। नवलगढ़ के लिए निकटतम विमानतल भी जयपुर ही है।
  • नवलगढ़ राजस्थान के सभी प्रमुख नगरों से सड़क मार्ग द्वारा भलीभाँति जुड़ा हुआ है।
  • अधिकतर पर्यटक नवलगढ़ की अपेक्षा मंडावा अथवा चुरू में ठहरना अधिक पसंद करते हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post नवलगढ़ की पोद्दार हवेली एवं अन्य दर्शनीय स्थल appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/nawalgarh-rajasthan-ki-poddar-haveli-aur-mandir/feed/ 4 2281