धारवाड़ कर्नाटक का एक ऐसा क्षेत्र है जो अनेक विशिष्टताओं से अलंकृत है। उनमें निर्विवाद सर्वप्रथम है, धारवाड़ की सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका, डॉ. गंगुबाई हंगल। उन से आप सब अवगत ही हैं। धारवाड़ की दूसरी विशेषता है, वहाँ का प्रसिद्ध मिष्टान्न, धारवाड़ पेड़ा। इसका सर्वप्रथम आस्वाद मैंने १०-१२ वर्षों पूर्व बंगलुरु में लिया था। जिव्हा पर रखते ही मेरे प्रथम उद्गार कुछ इस प्रकार थे, ‘बंगलुरु में मथुरा पेड़ा’! मेरे साथ कर्नाटक के कुछ कन्नड़ भाषी मित्र भी थे। मेरे उद्गारों ने कदाचित उनके कन्नड़ गौरव को आहत किया। उन्होंने त्वरित ही मेरे निष्कर्ष का खंडन किया। उन्होंने दृढ़ता पूर्वक प्रतिपादित किया कि वह शुद्ध धारवाड़ पेड़ा है तथा वह इस शैक्षणिक केंद्र नगरी के रूप में प्रसिद्ध धारवाड़ के अतिरिक्त अन्य किसी स्थान पर उपलब्ध नहीं है.
मेरा अंतर्मन यह स्वीकार करने के लिए सहमत नहीं हो रहा था। वह मेरी जिज्ञासा को अधिक पुष्ट कर रहा था कि इस पेड़े का प्रसिद्ध मथुरा पेड़े से कुछ संबंध अवश्य है। मेरी यह जिज्ञासा अनेक वर्षों पश्चात फलीभूत हुई जब मैं धारवाड़ के लाइन बाजार में स्थित प्रतिष्ठित बाबूसिंह ठाकुर के मिष्टान्न दुकान में पहुँची।
धारवाड़ पेड़ा – लोकप्रिय भारतीय मिष्टान्न
सम्पूर्ण कर्नाटक राज्य में सुप्रसिद्ध बाबूसिंह ठाकुर मिष्टान्न भंडार के विषय में जितना सुना था, मेरे मन में एक कल्पना ने आकार ले लिया था कि वह कोई अति विशाल आधुनिक दुकान होगी जो भिन्न भिन्न मिठाइयों से भरी हुई होगी। किन्तु दुकान का वास्तविक रूप उससे ठीक विपरीत निकला। वह दुकान तो ऐसी प्रतीत हुई मानो भित्ति में एक चौकोर बड़ा छिद्र हो। दुकान को दो नवयुवक संचालित कर रहे थे। ऊपर से इस दुकान के नाम पर इस मार्ग का नामकरण किया गया है, लाइन बाजार। क्यों? क्योंकि प्रतिदिन प्रातः इस दुकान के समक्ष यह पेड़ा क्रय करने के लिए ग्राहकों की लंबी कतार लगती थी। मुझे कालांतर में यह ज्ञात हुआ कि ग्राहकों की संख्या अत्यधिक होने पर प्रत्येक ग्राहक केवल ५०० ग्राम पेड़ा ही ले सकता था ताकि सभी को पर्याप्त पेड़ा प्राप्त हो सके।
मैंने दुकान पर पहुँचकर दुकान के स्वामी से भेंट करने की माँग की। दुकान के कर्मचारी मेरी माँग सुनकर सकते में आ गए। “वे स्वयं किसी ग्राहक से भेंट नहीं करते”। मैं अपनी माँग पर अडिग रही। अंततः उन्होंने मुझे परिवार के कनिष्ठतम व्यावसायिक सदस्य का दूरसंचार क्रमांक दिया। साथ ही मुझे चेतावनी दी कि मैं इन मिठाईयों का छायाचित्र नहीं ले सकती। मेरे कंधे पर लटके कॅमेरे को देख उन्होंने मुझे लगभग चुनौती ही दे दी कि मैं उन पेड़ों का चित्र कदापि नहीं ले सकती।
मथुरा पेड़ा
अंततः मैंने बाबूसिंह ठाकुर से भेंट कर ही ली। वे मूल बाबूसिंह ठाकुर के पोते हैं जिन्हे यह प्रसिद्ध पेड़ा इस नगर में लाने का श्रेय प्राप्त है। दुकान के पृष्ठ भाग में ही उनका निवासस्थान है। मैंने उनसे उनके निवास पर ही भेंट की। उन्होंने बताया कि उनके परिवार का मूलस्थान उत्तर प्रदेश है। कालांतर में वे बंगाल के उन्नाव से होते हुए अंततः धारवाड़ पहुँचे। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि इस स्थानीय लोकप्रिय मिष्टान्न का पूर्वज मथुरा पेड़ा ही है। मुझे अपनी परख पर किंचित गर्व हुआ। मेरी रसेंद्रियों ने मुझे सही संकेत प्रदान किया था।
बाबूसिंह ठाकुर का परिवार आया तो उत्तर प्रदेश से है लेकिन मैंने कुछ क्षण पूर्व उन्हे अपने कर्मचारियों को कन्नड़ भाषा में अनुदेश देते देखा था। मैं जानना चाहती कि उनका परिवार आपस में किस भाषा में वार्तालाप करता है। तुरंत उनका आया, “हिन्दी”। उसके पश्चात मैं भी उनसे शुद्ध हिन्दी में वार्तालाप करने लगी। उन्होंने बताया कि किस प्रकार उनके दादाजी एवं पिताजी ने इस व्यवसाय को आरंभ किया एवं आगे बढ़ाया। आरंभ में उनके दादाजी एवं पिताजी प्रतिदिन प्रातः, अपने निवास पर ही, स्वयं पेड़े बनाते थे तथा इसी दुकान से उनकी विक्री करते थे।
अतीत की स्मृतियाँ
बाबूसिंह ठाकुर जी अपने अतीत की स्मृतियों में विचरण करने लगे। उन्होंने बताया कि उनकी दुकान के समक्ष ग्राहकों की लंबी कतार होती थी। प्रत्येक दिवस प्रातः १० बजे से दोपहर १२ बजे तक उनके सभी पेड़े समाप्त हो जाते थे। चूंकि वे सर्व मिष्टान्न अपने निवास पर स्वयं तैयार करते थे, वे प्रतिदिन लगभग ५० किलो से अधिक मिठाइयाँ नहीं बना पाते थे। उनके शब्दों ने मुझे पुणे के चितले बंधु की भाकरवड़ी का स्मरण कर दिया। उनकी विशेष कृतियाँ भी प्रातः कुछ ही घंटों में समाप्त हो जाती थीं। भारत के अनेक स्थानों में ऐसे ही अनेक मिष्टान्न भंडार हैं जो उस स्थान को गौरवान्वित करते हुए जगप्रसिद्ध हैं।
वर्तमान में धारवाड़ में अनेक पेड़ा विक्रेताओं की श्रंखलाएं प्रस्फुटित हो गयी हैं। संयोग से उनमें से अधिकांश व्यवसायकों का मूल स्थान उत्तर प्रदेश ही है। गत कुछ वर्षों में बाबूसिंह पेड़े ने भी भरपूर प्रगति की है। अब उनके तीन कारखाने हैं जहाँ वे भिन्न भिन्न प्रकार के मिष्टान्न तैयार करते हैं। राज्य के लगभग सभी नगरों में उनकी अनेक दुकानें हैं। कई स्थानों पर मैंने उनके विज्ञापन देखे। धारवाड़ बस स्थानक पर लगभग सर्वत्र उनका नाम अंकित था।
वे औसतन लगभग ७००-८०० किलो पेड़े प्रतिदिन तैयार करते हैं। उन्होंने अपनी मिष्टान्न सूची में अनेक अन्य लोकप्रिय मिठाइयाँ सम्मिलित की हैं, जैसे विविध प्रकार के लड्डू आदि। उन्होंने अब डबलरोटी, केक, पैस्ट्री जैसे पदार्थ भी बनाना एवं विक्री करना आरंभ किया है।
चूँकि भारत में मधुमेह का रोग तीव्र गति से प्रगति कर रहा है, बाबूसिंह ठाकुर जी उन ग्राहकों के स्वास्थ्य एवं रुचि दोनों को ध्यान में रखते हुए, मिष्टान्न में नित-नवीन प्रयोग कर रहे हैं तथा नित-नवीन शर्करा रहित मिष्टान्न अपनी सूची में जोड़ रहे हैं।
धारवाड़ पेड़ा कारखाने का भ्रमण
मुझे धारवाड़ पेड़ा कारखाने का भ्रमण करने की उत्सुकता थी। बड़ी मात्रा में ये पेड़े कैसे तैयार किये जाते हैं, मैं देखना चाहती थी। ठाकुर जी ने मुझे इसकी स्वीकृति दे दी किन्तु मेरे समक्ष एक शर्त रखी कि मैं वहाँ छायाचित्रीकरण नहीं करूंगी। मैं सहमत थी क्योंकि मुझे उनकी व्यावसायिक गोपनीयता की माँग का सम्मान करना चाहिए।
कारखाने में भ्रमण करते हुए भी मुझे आभास हुआ कि वे अपने धारवाड़ पेड़ों की सामग्री सूची एवं विधि को स्वयं तक ही सीमित रखे हुए हैं। प्रत्येक प्रातः वे सामान्य कर्मचारियों की अनुपस्थिति में, स्वयं सभी सामग्री एकत्र कर उनका प्रारम्भिक मिश्रण तैयार करते हैं, ताकि बाजार में उनके अन्य प्रतियोगी, उनके कर्मचारियों को किसी भी प्रकार का प्रलोभन देकर, उनकी गोपनीयता ना भंग कर दें। कारखाने में भ्रमण करते हुए मैंने देखा कि वे लकड़ी के चूल्हे पर दूध को गाढ़ा करते हैं, ना कि गैस अथवा बिजली के चूल्हे पर। लकड़ी के चूल्हे की सौंधी गंध कदाचित पेड़े का स्वाद एवं सुगंध का एक प्रमुख रहस्य हो।
मैंने इससे पूर्व कभी मिष्टान्न कारखाना नहीं देखा था। बड़े बड़े कक्षों में विविध प्रकार के नमकीन एवं मीठे पदार्थ बनते देखना मुझे आनंदित कर रहा था। मैं अपने नेत्रों एवं नासिक से उनका भरपूर आस्वाद ले रही थी। गर्म कड़ाही एवं गर्म घी-तेल से बाहर निकले पदार्थ कितने ताजे प्रतीत हो रहे थे। एक कक्ष में डबलरोटी तो दूसरे में केक बन रहा था। तीसरे कक्ष में मिठाइयाँ बनाई जा रही थीं। स्वाभाविक ही है कि पेड़े बनाने का कक्ष सर्वाधिक विशाल होगा। वे उन पेड़ों को गत्ते के छोटे छोटे डिब्बों में भर कर, उन्हे बंद कर स्टील के सन्दूक में रख रहे थे ताकि उन्हे सभी दुकानों तक पहुँचाया जा सके।
भिन्न भिन्न सामग्री द्वारा ताजी भारतीय मिठाइयाँ बनने से लेकर हम-आप जैसे ग्राहकों की जीव्हा तक पहुँचने की उनकी यात्रा को देखना व समझना मुझे रोमांचित कर गया था।
आपको जब भी अवसर प्राप्त हो, यह धारवाड़ पेड़ा अवश्य चखें तथा अपने परिवार जनों व मित्रों को भी चखाएं। उनके अन्य मिष्टान्नों का आनंद भी अवश्य उठायें।
यदि मैंने आपकी जिव्हा सक्रिय व रसीली कर दी है तो मेरा यह संस्करण भी अवश्य पढ़ें, Must-try food in Varanasi।
अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे