धारवाड़ – हुबली जाने के पीछे मेरा बस एक ही कारण रहा है और वह है, प्रख्यात गायिका डॉ. गंगुबाई हंगल के बारे में थोड़ा और जानने की मेरी इच्छा। उनका देहांत होने के कुछ ही दिनों बाद मैंने किसी अखबार में उनसे संबंधित एक लेख पढ़ा जिसमें बताया गया था कि धारवाड़ में स्थित उनका घर अब संग्रहालय में रूपांतरित किया गया है। तथा हुबली में उनकी स्मृति में एक गुरुकुल भी बनवाया जा रहा है। तब से मेरे मन में इन जगहों पर जाकर गंगुबाई हंगल को करीब से जानने की इच्छा ने जन्म लिया। वहां पर जाकर मैं देखना चाहती थी कि डॉ. गंगुबाई हंगल जैसे संगीतकारों को पैदा करने वाली और उन्हें निखारने वाली जगह और वहां का वातावरण कैसा होता होगा। क्या वहां के वातावरण में ही ऐसा कुछ खास है या फिर यह इन महान व्यक्तियों का ही सौभाग्य है।
धारवाड़ से जुड़े उपाख्यान
धारवाड़ के बारे में थोड़ा और पढ़ने के बाद मुझे मालूम हुआ कि, गंगुबाई हंगल इस शहर द्वारा जनित इकलौती उस्ताद नहीं है, बल्कि उनके अलावा यह शहर मल्लिकार्जुन मंसूर, भीमसेन जोशी, रमाकांत जोशी, सवाई गंधर्व, बसवराज राजगुरु जैसे उस्तादों का भी जनक रहा है। वास्तव में कुमार गंधर्व बेलगाम के भी रहिवासी है जो यहां से बहुत दूर नहीं है। ‘स्पीकिंग ट्री’ द्वारा पोस्ट किया गया एक लेख इस बात पर प्रकाश डालता है कि, किस प्रकार से संगीत के उस्ताद और श्रोता संगीतमय वातावरण का निर्माण कर उभरते हुए संगीतकारों को खिलने और अपनी महक चारों ओर बिखेरने के लिए उचित मंच प्रदान करते है। संगीत में डूबे इस धारवाड़ शहर ने मुझे जर्मनी में स्थित लेपजिग शहर की याद दिला दी जो वर्षों से संगीत की विरासत को संभालते आ रहा है।
धारवाड़ में होसयल्लापुर नामक एक इलाका है जहां के चौक पर एक छोटा सा मंदिर बसा हुआ है। इस मंदिर से बाहर निकलती हुई, विराट रूप ग्रहण करती हनुमान जी की अप्रतिम मूर्ति को देखकर लगता है, जैसे शक्षात हनुमान जी ही वहां पर खड़े हैं। इस चौक से चलते हुए मैं लाइन बाज़ार की ओर गयी, जो बाबू सिंह ठाकुर का पेढ़ा के लिए मशहूर है। यहां पर मैंने आस-पास के लोगों से गंगुबाई हंगल के घर का पता पूछा, जिन्होंने मुझे गांधी चौक तक जाकर, वहां पर किसी से भी उनके घर का पता पूछने के लिए कहा। इसके अनुसार गांधी चौक पहुँचकर मैंने वहीं के कुछ बच्चों से गंगुबाई के घर के बारे में पूछा। तो उनसे मुझे यह जवाब मिला कि उन्होंने गंगुबाई के बारे में पहले कभी नहीं सुना था। लेकिन पीछे से आती हुई एक महिला ने रुकर मुझे उनके घर तक जाने का रास्ता बता दिया। यहां पर आपको अपनी मंजिल तक ले जाने वाले कोई भी दिशा निर्देशक पट्ट नहीं मिलते। लेकिन शुक्र है कि भारत में कम से कम लोग तो आपको सही जगह तक पहुंचा ही देते हैं। बहुत सी छोटी-छोटी गलियों से गुजरते हुए, छोटे-बड़े मंदिरों को पार करते हुए आखिर मैं उनके घर तक पहुँच ही गयी।
गंगोत्री – डॉ. गंगुबाई हंगल की जन्मभूमि
डॉ. गंगुबाई हंगल के घर के बाहर ही लगे नामपट्ट पर लिखा था – ‘गंगोत्री – डॉ. गंगुबाई हंगल की जन्मभूमि’। घर के छोटे से बरामदे में कोकम सुखाने के लिए रखा गया था। घर के प्रवेश द्वार की ओर बढ़कर मैंने देर तक दरवाजा खटखटाया और कुछ समय बाद एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने दरवाजा खोलते हुए मुझे शाम के 5 बजे फिर से आने के लिए कहा। लेकिन थोड़ा सा अनुरोध और कुछ मीठी बातें करने पर उन्होंने मुझे अंदर आने की अनुमति दे ही दी। भीतर प्रवेश करते ही उन्होंने घर की सारी बत्तियाँ जला दी, जिससे पूरा घर प्रकाशमय हो उठा। एक पतले से दलान, जिसमें डॉ. गंगुबाई हंगल की बड़ी-बड़ी तस्वीरें लगाई गयी थीं, से गुजरते हुए वे मुझे मुख्य घर तक ले गए। जो शायद कभी घर का बैठक कक्ष हुआ करता था अब संग्रहालय में परिवर्तित किया गया था। यह पूरा संग्रहालय परिवार की सबसे प्रख्यात बालिका को समर्पित किया गया था।
तस्वीरें – कुछ कैद की हुई यादें
इस संग्रहालय के बीचोबीच एक तस्वीर है जिसमें गंगुबाई हंगल अपने संगीत वाद्यों के साथ गाते हुए नज़र आती हैं। यहां पर चारों ओर आपको उन्हीं की तस्वीरें दिखाई देती हैं। इस कक्ष के एक दीवार पर उनकी दादी से लेकर उनके माता-पिता तथा उनके पति और बच्चों तक पूरे परिवार की तस्वीरे हैं। यहीं पर मैंने जाना कि उन्हें अपना ‘हंगल’ उपनाम ना ही अपने पति से मिला है और ना अपने पिता से, बल्कि यह उपनाम उन्हें अपनी नानी से मिला है, जो कि मातृप्रधान वंशावली को दर्शाता है। लेकिन इसके पीछे के कारणों की मुझे ठीक जानकारी नहीं मिल पायी। शायद, जिस समाज से गंगुबाई हंगल आई है वहां पर यही परंपरा रही होगी या फिर हंगल परिवार के संबंध में यह बात एक अपवाद का रूप भी हो सकती है।
यहां पर दो बड़े-बड़े सूचना पट्ट लगाए गए हैं, जिनमें से एक अंग्रेजी और दूसरा कन्नड में है। ये दोनों पट्ट गंगुबाई हंगल के जीवन से जुड़ी प्रमुख घटनाओं द्वारा उनके जीवन को रेखांकित करते हैं। उनके जीवन की उपलब्धियों पर गौर करें तो आपके रोंगटे खड़े हो जाते हैं, खास कर तब जब आपको एहसास होता है कि आप उन्हीं कि जन्मभूमि पर खड़े हैं।
मंच प्रदर्शन की तस्वीरें
बाकी 2-3 कमरों में उनके विविध जगहों पर आयोजित गायन कार्यक्रमों की तस्वीरें लगाई गयी हैं। यहां पर उनकी और भी तस्वीरें हैं जिनमें गंगुबाई हंगल अन्य जाने-माने संगीतकारों तथा फिल्मी हस्तियों के साथ नज़र आती है। उनके परिवार की भी कुछ तस्वीरें आपको यहां पर नज़र आती हैं। इसके अलावा यहां पर उनके जीवन के विविध चरणों की तस्वीरें भी मिलती हैं, जो एक नन्ही सी लड़की से एक महान संगीतकार बनने तक के उनके सफर को दिखाती हैं। इन सभी तस्वीरों में से उनकी दो तस्वीरें मुझे सबसे ज्यादा पसंद आयी जो एक साथ लगाई गयी हैं। इन दोनों तस्वीरों में वे सितार पकड़े एक जैसे खड़ी हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि दोनों तस्वीरों के बीच 50 सालों का अंतर है। इसके बाद मैं उस जगह पर गयी जहां गंगुबाई हंगल ने अपना बचपन बिताया था। वहां पर कुछ पल बिताने के बाद उनके घर को चुप-चाप अलविदा कहकर मैं वहां से निकल गयी।
डॉ. गंगुबाई हंगल गुरुकुल, हुबली
दूसरे दिन मैं हुबली गयी जहां पर डॉ. गंगुबाई हंगल ने अपनी अंतिम सांसे ली थीं। इस स्थान पर अब उनके नाम से गुरुकुल बनवाया गया है। नृपटुंगा पहाड़ी के चक्कर काटते हुए आखिर मैंने इस गुरुकुल के व्यापक परिसर में प्रवेश किया। यहां पर प्रवेश करते ही मुझे आस-पास सिर्फ हरियाली ही हरियाली दिखाई दी जिसके बीच में गुरुकुल की इमारतें खड़ी थीं। मैंने वहां के प्रशासकीय भवन में जाकर इस गुरुकुल के पूरे परिसर की यात्रा करने की इच्छा प्रकट की। पद्मश्री नामक एक युवा महिला, जो इस गुरुकुल की करता-धरता है, ने मुझे गुरुकुल का पूरा परिसर घुमाया। उन्होंने मुझे गुरुकुल के वर्ग तथा यहां के शिक्षकों के निवास स्थान भी दिखाये। उन्होंने मुझे बताया कि गुरुकुल में कुल 6 गुरु हैं और प्रत्येक गुरु के 6 शिष्य हैं। इन शिष्यों को गुरुकुल में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित किया जाता है, ताकि वे अपने प्रेक्षकों के सामने अपनी काला का उत्तम प्रदर्शन कर सके।
शिष्य – गुरुकुल का भविष्य
यह गुरुकुल कर्नाटक की सरकार द्वारा चलाया जाता है और शिष्यत्व के अंतर्गत लिए गए शिष्यों के लिए यहां पर निशुल्क प्रवेश होता है। यहां के गुरु और शिष्य दोनों गुरुकुल द्वारा दिये गए निशुल्क निवासों में ही रहते हैं। शिष्यत्व रहित शिष्य भी इस गुरुकुल में प्रवेश पा सकते हैं। इस गुरुकुल में प्रवेश पाने के लिए एक शिष्य के पास 10वी उत्तीर्ण करने का प्रमाणपत्र तथा संगीत का मूल ज्ञान होना आवश्यक है। एक बार शिष्यों का चुनाव होने पर उन्हें 2-4 सालों के लिए संगीत में पूर्ण रूप से प्रशिक्षित किया जाता है। इन शिष्यों को रोज़ संगीत के वर्गों में उपस्थित रहना पड़ता है और नियमित रूप से अपनी शिक्षा भी करनी पड़ती है। इसके अलावा उन्हें रोज़ मंच प्रदर्शन भी करना पड़ता है। जिसके लिए गुरुकुल के उद्यान में एक खुला मंच बनाया गया है, जहां पर ये शिष्य अपना मंच प्रदर्शन करते हैं। मेरे खयाल से इन उभरते हुए कलाकारों को निखारने का यह बहुत ही बढ़िया तरीका है।
गुरुकुल के वर्ग
इस गुरुकुल के वर्ग बहुत ही भिन्न रूप से बनाए गए हैं। रोशनी का स्वागत करती इनकी त्रिकोणी खिड़कियाँ वास्तुकला की दृष्टि से बहुत ही सुंदर लगती हैं। इसकी छत भी एक ओर से थोड़ी ढलती हुई सी बनाई गयी है जैसे कि वह वर्ग में उपस्थित सकारात्मक शक्तियों को गुरु के आसान पर केन्द्रित करती हो।
गुरुकुल में संगीत वाद्यों के लिए भी एक खास कक्ष बनवाया गया है जिसमें सारे वाद्ययंत्र रखे गए हैं। और यही नहीं, यहां पर उपस्थित सभी वाद्ययंत्रों के चित्रों द्वारा उनके विविध भागों के विस्तृत विवरण भी दिये गए हैं।
पूरा गुरुकुल घूमने के बाद जब में अपनी गाड़ी की ओर जा रही थी, तो मेरे दिमाग में एक विचार आया कि कितनी अजीब बात है कि, कोई महान व्यक्ति अपने पीछे कितनी अनमोल विरासत और बहुत सारी अच्छी बातें छोड़ जाते हैं। वे सिर्फ अपनी कला द्वारा प्राप्त की गयी अपनी उपलब्धियों को ही अपने पीछे नहीं छोड़ जाते बल्कि वे अनेवाली पीढ़ी के लिए एक परंपरा छोड़ जाते हैं, जो उत्तम रूप से उसका अनुसरण कर उसे और आगे ले जाएंगे।
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