गंगईकोंड चोलपुरम का भव्य बृहदीश्वर मंदिर

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तमिलनाडु के तंजावूर से लगभग ८० किलोमीटर की दूरी पर एक छोटी नगरी है – गंगईकोंड चोलपुरम। यह गाँव, अरियलूर जिले में जयनकोंडम नगरी के समीप स्थित है। चोल सम्राट राजेंद्र प्रथम ने सन् १०२५ में इसे अपनी राजधानी बनाई थी। यह लगभग २५० वर्षों तक चोल राजवंश की राजधानी थी।

मैं दक्षिण भारत के मंदिरों की यात्रा के अंतर्गत चोल मंदिरों का भ्रमण रही थी। इसके अंतर्गत मैं चिदंबरम, तंजावुर, गंगईकोंड चोलपुरम, दारासुरम तथा तिरुचिरापल्ली के मंदिरों के दर्शन कर रही थी। एक ओर तमिलनाडु की सड़कों पर एक मंदिर से दूसरे मंदिर जाते हुए चारों ओर के हरियाली से समृद्ध परिवेश मेरे नेत्रों द्वारा मेरे मनमस्तिष्क को सुख पहुँचा रहे थे तो दूसरी ओर तमिलनाडु की लोकप्रिय एवं मेरी प्रिय फिल्टर कॉफी मेरी जिव्हा के द्वारा मेरे शरीर को स्फूर्ति प्रदान कर रही थी।

गंगईकोंड राजेंद्र चोल (प्रथम)

गंगईकोंड नगरी की स्थापना चोल सम्राट राजेंद्र (प्रथम) ने की थी जो सुप्रसिद्ध चोल सम्राट राजराजा (प्रथम) के पुत्र थे। उनकी माता चेर राजकुमारी त्रिभुवन महादेवी थी। चोल साम्राज्य की वंशावली रेखांकित की जाए तो चोल सम्राट सूर्य वंश के वंशज हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे अयोध्या के श्री राम।

राजेंद्र चोल प्रथम को आशीष देते शिव एवं पार्वती
राजेंद्र चोल प्रथम को आशीष देते शिव एवं पार्वती

चोल सम्राट राजेंद्र (प्रथम) का राजतिलक सन् १०१६ में हुआ था। वर्तमान भौगोलिक अवस्थिति के अनुसार तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, कर्णाटक के कुछ क्षेत्र एवं श्री लंका उनके साम्राज्य के भाग थे। उन्होंने सन् १०५४ तक अर्थात् अपने मृत्युकाल तक शासन किया था।

अपने राज्यकाल में उन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार करते हुए तुंगभद्र, केरल, मालदीव व सुमात्रा को अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया तथा अनेक गौरवशाली उपाधियाँ अर्जित कीं। अपनी शक्तिशाली नौसेना की सहायता से महासागरों को पार करते हुए दूर-सुदूर के अनेक राज्यों से सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किए। उन्होंने अपने साम्राज्य को दक्षिण भारत का सर्व शक्तिशाली साम्राज्य बना दिया था।

गंगईकोंड चोलपुरम

गंगईकोंड चोलपुरम, इस नाम की पृष्ठभूमि में एक रोचक कथा है। एक समय राजेन्द्र चोल की विजय यात्रा पवित्र नदी गंगा तक पहुँची। उन्होंने बंगाल राजाओं को परास्त किया तथा अपनी मातृभूमि को पवित्र करने के लिए वहाँ से गंगा का पावन जल लेकर वापिस आये। उनके इस पराक्रम के उपरांत उन्होंने ‘गंगईकोंड चोल’ की उपाधि अर्जित की तथा इसी नाम से एक नवीन नगरी की स्थापना की। उसका नाम पड़ा, गंगईकोंड चोलपुरम।

अपने पराक्रमी विजयों के पश्चात् उनके द्वारा अर्जित अन्य उपाधियाँ हैं, मधुरान्तक, उत्तम चोल, वीर चोल, मुदिगोंडा चोल, पंडित चोल तथा कदरम कोंडन।

गंगईकोंड चोलपुरम का भव्य बृहदीश्वर मंदिर
गंगईकोंड चोलपुरम का भव्य बृहदीश्वर मंदिर

सन् १०२५ से लगभग २५० वर्षों तक गंगईकोंड चोलवंश की राजधानी रही। इस सम्राज्यकाल में तुंगभद्र के तटों से लेकर श्री लंका तक, सम्पूर्ण दक्षिण भारत चोल सम्राटों के अधिपत्य में था। सम्राट राजेन्द्र चोल के पश्चात भी अधिकाँश चोल राजाओं का राजतिलक इसी धरती पर हुआ तथा यहीं से उन्होंने राज्य किया। १३वीं शताब्दी में इस क्षेत्र पर पांड्य साम्राज्य ने अधिपत्य स्थापित कर लिया।

गंगईकोंड नगरी की स्थापना एक राजधानी के रूप में हुई थी। इसी कारण दो सुदृढ़ भित्तियों द्वारा इसकी किलेबंदी की गयी थी। तमिल साहित्यों के अनुसार सम्पूर्ण नगरी में सड़कों व मार्गों की उत्तम व्यवस्था थी। राजा का भव्य बहुतलीय आवास स्वयं में एक उत्कर्ष स्थापत्य का उदहारण था। इसके निर्माण में पकी हुई ईंटों का प्रयोग किया गया था। इसमें काष्ठ के उत्कीर्णित स्तंभ थे तथा तलों पर ग्रेनाईट की शिलाएं बिछाई गयी थीं।

सम्राट राजेन्द्र ने यहाँ चोल गंगम नामक एक सरोवर का भी निर्माण कराया था। इस सरोवर को अब पोंन्नेरी सरोवर कहते हैं। यह सरोवर कावेरी नदी द्वारा पोषित था। सम्राट राजेन्द्र ने इस सरोवर में गंगा नदी का जल भी मिलाया था।

वर्तमान में गंगईकोंड नगरी में केवल गंगईकोंड चोलपुरम बृहदीश्वरमंदिर ही शेष है। इसके अतिरिक्त अन्य सभी संरचनाओं के ध्वंसावशेष ही रह गए हैं।

गंगईकोंड चोलपुरम का बृहदीश्वर मंदिर

ऐसा कहा जाता है कि किसी समय गंगईकोंड चोलपुरम का बृहदीश्वर मंदिर तंजावुर के बड़े मंदिर अथवा तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर की तुलना में अधिक विशाल था। गंगईकोंड चोलपुरम का बृहदीश्वर मंदिर गंगईकोंड नगरी के उत्तर-पूर्वी भाग में स्थित था, वहीं राजा का शाही निवास नगर के मधोमध स्थित था। ऐसा माना जाता है कि नगर के पश्चिमी भाग में एक विष्णु मंदिर था किन्तु अब वह अस्तित्वहीन है।

गंगईकोंड चोलपुरम के बृहदीश्वर मंदिर का प्रांगन
गंगईकोंड चोलपुरम के बृहदीश्वर मंदिर का प्रांगन

जैसे ही आप गंगईकोंड चोलपुरम के बृहदीश्वर मंदिर पहुँचेंगे, वहाँ से दूर दूर तक दृष्टि दौड़ाने पर आप पायेंगे कि यह मंदिर वहाँ स्थित लगभग इकलौती संरचना शेष है।

उत्तर दिशा में स्थित एक संकरे मार्ग से हम इस क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। तत्क्षण आपकी दृष्टि मंदिर के विशाल विमान पर पड़ेगी जिसे शिखर भी कहते हैं। इसका आकार लगभग शुण्डाकार है। इसकी ऊँचाई १६० फीट है जो तंजावुर के बड़े मंदिर के विमान से अपेक्षाकृत किंचित लघु है।

गोपुरम

मंदिर के गोपुरम एवं प्राकार भित्तियाँ अब अस्तित्व में नहीं हैं। सन् १८३६ में, जब यह क्षेत्र ब्रिटिश साम्राज्य के अधिपत्य में था, तब अंग्रेजों ने मंदिर की भित्तियों एवं गोपुरम को गिरा कर उसके शिलाखंडों से कुछ किलोमीटर की दूरी पर एक बाँध का निर्माण किया था। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का गोपुरम ठीक वैसा ही था जैसा तंजावुर के बड़े मंदिर का है। यहाँ के गोपुरम का आधारभाग साधारण था जिसके समीप केवल द्वारपाल की प्रतिमाएं रखीं थी। जहाँ अन्य चोल मंदिरों में दो गोपुरम होते थे, इस मंदिर में केवल एक गोपुरम था जो परिसर के पूर्व दिशा में स्थित था।

प्रवेश द्वार पर द्वारपाल
प्रवेश द्वार पर द्वारपाल

प्रवेश द्वार के दोनों ओर दो द्वारपालों की छवियाँ उत्कीर्णित हैं। उन्हें देख पूर्वकाल के प्रवेश द्वार का अनुमान लगाया जा सकता है। गर्भगृह के पार्श्वद्वारों के दोनों ओर भी द्वारपालों के विशाल शिल्प हैं। इन पार्श्वद्वारों के समक्ष कुछ सोपान हैं जो चोल शैली के मंदिरों की विशिष्टता है।

मुख्य मंदिर के चारों ओर कुछ लघु मंदिर हैं। ये मंदिर देवी, सिंह सहित दुर्गा, चंडिकेश्वर, गणेश तथा नंदी के हैं। परिसर में आप एक क्षतिग्रस्त मंडप देखेंगे जिसका नाम अलंकार मंडप है।

मंदिर के आलों में दक्षिणमूर्ति, लिंगोद्भव, गणेश, नटराज, भिक्षान्तक, कार्तिकेय, दुर्गा, अर्धनारीश्वर तथा भैरवों के शिल्प हैं।

श्री विमान

मुख्य मंदिर के तीन भाग हैं, श्री विमान, मंडप तथा मुखमंडप अथवा ड्योढ़ी।

विशेषज्ञों ने इस विमान के ९ भाग स्पष्ट रूप से दर्शायें हैं। वे इस प्रकार हैं:

  • उप पीठ अथवा भू-गृह
  • अधिष्ठान अथवा आधार
  • भित्ति
  • प्रस्तर
  • हर अथवा देवकुलिका
  • तल
  • ग्रीवा
  • शिखर
  • स्तुपिका अथवा कलश

उप पीठ पर सिंह तथा पौराणिक जीव-जंतुओं की छवियाँ उत्कीर्णित हैं। अधिष्ठान कमल के आकार में निर्मित है। मुख्य भित्ति दो अनुप्रस्थ भागों में विभाजित है। इसके तीन पार्श्व भागों में आले निर्मित हैं। लम्बवत खांचों द्वारा भित्तियों की सतहों को चौकोर भागों में विभाजित किया गया है। इस प्रकार भित्तियों की सतहों पर अनेक देवकुलिकाएं अथवा अतिलघु मंदिर बन गए हैं जिनके भीतर देवी-देवताओं की प्रतिमाएं रखी हैं।

मंदिर के पृष्ठ भाग में लिंगोद्वभ मूर्ति
मंदिर के पृष्ठ भाग में लिंगोद्वभ मूर्ति

भित्ति के निचले अनुप्रस्थ पर स्थित देवकुलिकाओं में भगवान शिव के विभिन्न स्वरूपों को दर्शाती प्रतिमाएं हैं। साथ ही गणेश, विष्णु, सुब्रमन्य, ब्रह्मा, भैरव, लक्ष्मी, सरस्वती तथा दुर्गा की प्रतिमाएं भी हैं। ऊपरी अनुप्रस्थ पर स्थित देवकुलिकाओं में भी शिव की प्रतिमाओं की प्राधान्यता है। शिव अपने ११ रुद्रों तथा अष्टदिशाओं के अधिष्ठात्र दिकपालों के साथ विराजमान हैं। सभी रूद्र अपने चतुर्भुज रूप में विराजमान हैं जिनके ऊपरी दो हाथों में परशु तथा मृग हैं। वहीं निचले दो हाथ अभय एवं वरद मुद्रा में हैं।

मुक्तांगन में नंदी
मुक्तांगन में नंदी

इनके ऊपर शिखर के ९ तल हैं। शिखर का आकर एवं उस पर की गयी शिल्पकारी उसे शुण्डाकार रूप प्रदान करते हैं। ग्रीवा के चारों दिशाओं में आले हैं जिनके भीतर वृषभ की आकृतियाँ उत्कीर्णित हैं। शिखर के शीर्ष पर एक विशाल शिलाखंड है जिसके ऊपर कमल की कली के आकार का सुनहरा कलश स्थापित है। यह कलश कदाचित स्वर्णकलश रहा होगा।

गर्भगृह

मंदिर के भीतर गर्भगृह की परिक्रमा करने के लिए दो पथ हैं, एक प्रथम तल पर तथा एक दूसरे तल पर। तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर के विपरीत इस मंदिर में परिक्रमा पथ की भित्तियों पर किसी भी प्रकार के चित्र नहीं हैं।

गर्भगृह के भीतर १३ फीट ऊँचा एक विशाल शिवलिंग स्थापित है। ऐसा माना जाता है कि यह शिवलिंग दक्षिण भारत का विशालतम शिवलिंग है। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर संरक्षण करते दो द्वारपाल हैं।

मुखमंडप

मुखमंडप के भीतर शिव पुराण में उल्लेखित इन प्रसंगों के दृश्य चित्रित हैं।

  • कैलाश पर्वत को हिलाता रावण (यह दृश्य एल्लोरा की गुफाओं में भी चित्रित है।)
  • १००८ पुष्पों द्वारा शिव की आराधना करते विष्णु जब एक पुष्प की कमी रह गयी थी।
  • शिव-पार्वती विवाह
  • किरात – अर्जुन संवाद जब भगवान शिव ने अर्जुन को पशुपति अस्त्र प्रदान किया था।
  • मार्कंडेय ऋषि की कथा
  • चंडिकेश्वर की कथा

महामंडप क्षतिग्रस्त है। उसे देख ऐसा प्रतीत होता है कि अपने उन्नत काल में यह एक दो-तलीय मंडप रहा होगा। यह एक ऊँचे चबूतरे पर स्थित है जिस पर पहुँचने के लिए उत्तर एवं दक्षिण दिशा में सोपान हैं। ऐसी मान्यता है कि इस मंडप के भूतल के नीचे एक गुप्त मार्ग है। कुछ मान्यताओं के अनुसार यह मार्ग राजमहल की ओर जाता है तो कुछ का मानना है कि यह मार्ग नदी की ओर जाता है, तो कुछ मानते हैं कि यह मार्ग मंदिर के कोषागार तक जाता है जहाँ कदाचित मंदिर की मूल्यवान वस्तुएँ रखी जाती थीं।

यहाँ नंदी की एक अतिविशाल प्रतिमा स्थापित है। तंजावुर के मंदिर के विपरीत नंदी की यह प्रतिमा मोनोलिथिक अथवा एकल शिला की नहीं है। किसी मंडप के भीतर अथवा किसी पीठ पर विराजमान होने के स्थान पर यह एक मुक्ताकाश भूमि पर स्थित है। समीप ही बलि पीठ है।

सिंहकेनी

सिंहकेनी
सिंहकेनी

इस मंदिर की एक अनूठी विशेषता है, सिंह की एक विशाल प्रतिमा जिसके भीतर स्थित सोपान हमें एक गोलाकार कुँए तक ले जाते हैं। इस कुँए को सिंहकेनी कहते हैं। इस कुँए के जल को गंगा के जल द्वारा पवित्र किया गया था। मंदिर के देवों के अभिषेक हेतु इसी कुँए के जल का प्रयोग किया जाता था।

मंदिर की काँस्य वस्तुएँ

बृहदीश्वर मंदिर में चोलकाल की कुछ दुर्लभ वस्तुओं का अनुपम संग्रह है। उनमें से कुछ राजा राजेन्द्र (प्रथम) के शासनकाल से भी संबंधित हैं। इसका अर्थ है कि वे उतने ही पुरातन हैं जितना कि यह मंदिर! उन चोल काँस्य वस्तुओं में निम्न मूर्तियाँ प्रमुख हैं।

  • भोगशक्ति
  • दुर्गा
  • अधिकारनंदी
  • सोमस्कन्द
  • सुब्रमन्य
  • वृषवाहन

चोल काल का विशालतम मंदिर

गंगईकोंड चोलपुरम मंदिर को चोल वंश द्वारा निर्मित विशालतम मंदिरों में से एक माना जाता है। यह तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर से साम्य रखता है। इसकी आयु तंजावुर के मंदिर से एक पीढ़ी कम है। मेरे अनुमान से एक पीढ़ी पश्चात उनका विचार अवश्य तंजावुर मंदिर की तुलना में अधिक विशाल एवं अधिक शक्तिशाली मंदिर के निर्माण का रहा होगा। बहुधा यह विचार नवीन राजा की भव्यता एवं शक्ति को गत पीढ़ी की तुलना में श्रेष्ठ दर्शाने की मंशा से उत्पन्न होता है।

तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर में जो उर्जा एवं भाव अनुभव में आते हैं, वो कहीं ना कहीं इस मंदिर में अनुभव में नहीं आते हैं। संग्रहालयविद्, कला इतिहासकार एवं पुरालेखविद् श्री शिवराममूर्ती लिखते हैं, यह मंदिर अत्यंत पुरुषप्रधान है वहीं तंजावुर का मंदिर अपने उत्तम अनुपातों के चलते स्त्रीसुलभ प्रतीत होता है।

गगईकोंड चोलपुरम मंदिर परिसर के भीतर अन्य मंदिरों के स्थान भी वही हैं जैसे कि तंजावुर मंदिर परिसर के भीतर हैं। मंदिर का परिसर अत्यंत विशाल व विस्तृत है जिससे ना केवल संरक्षणदाता सम्राट के मान-प्रतिष्ठा का अनुमान लगाया जा सकता है अपितु यह भी जाना जा सकता है कि प्राचीन काल में सामान्य जन-जीवन भी मंदिर के चारों ओर ही केन्द्रित रहता था।

मंदिर प्रांगन में पाषाण मूर्तियाँ
मंदिर प्रांगन में पाषाण मूर्तियाँ

भित्तियों पर उत्कीर्णित छवियों में भगवान शिव के अनेक अवतार हैं जिन्हें भिन्न भिन्न नामों से जाना जाता है। भित्तियों के रिक्त भाग अपूर्ण कार्य की ओर संकेत करते हैं तथा अन्य चोल मंदिरों की तुलना में उत्कीर्णित शिल्पों की सूक्षमता को किंचित निम्न स्तर पर लाते हैं। एक मंडप की भीतरी छत पर खाँचें हैं जिनमें कुछ खांचों में चित्रकारी के अवशेष दृष्टिगोचर होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो अन्य खाँचों के चित्रों को काल ने निगल लिया है।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अंतर्गत आने के कारण यहाँ के पुरोहितों की नियुक्ति भी उन्होंने ही की है। इन पुरोहितों ने यह पद पारंपरिक वंशानुगत रीति से नहीं प्राप्त किया है।

मंदिर परिसर में सुन्दर उद्यान एवं घास के मैदान हैं।

यह मंदिर दैन्दिनी पूजा-अनुष्ठानों के साथ एक जीवंत मंदिर है। किन्तु मंदिर के आसपास सामान्य जन-जीवन का अभाव खटकता है। जैसी उर्जा एवं भक्ति की तरंगें तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर में अनुभव में आती हैं, वैसा अनुभव यहाँ प्राप्त नहीं होता है। इससे मेरे मन में यह विचार आया कि मंदिर को कौन सजीव बनाता है? मंदिर के भीतर विराजमान भगवान अथवा भक्ति एवं श्रद्धा से ओतप्रोत भक्तगण?

शिलालेख

इस मंदिर से १२ सम्पूर्ण एवं अनेक भंगित शिलालेख प्राप्त हुए हैं। एक शिलालेख में उन गाँवों से प्राप्त वित्तीय अनुदानों का उल्लेख है जिन पर इस मंदिर के कार्यभार का उत्तरदायित्व था। इन शिलालेखों से चोलवंश के शासनकाल में पालित प्रशासनिक एवं राजस्व प्रणाली का भी अनुमान प्राप्त होता है।

शिलालेखों के अनुसार इस मंदिर का नाम गंगईकोंड चोलेश्वरम था। इन शिलालेखों के विषय में अधिक जानकारी के लिए डॉ. आर. नागस्वमी द्वारा लिखित यह पुस्तक पढ़ें।

यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल

गंगईकोंड चोलपुरम का बृहदीश्वर मंदिर यूनेस्को द्वारा घोषित एक विश्व धरोहर स्थल है। यह चोल वंश के राजाओं द्वारा निर्मित महान जीवंत चोल मंदिरों में से एक है। इसी कारण यह मंदिर तमिलनाडु के प्रमुख पर्यटन आकर्षणों में सम्मिलित है। चोल वंश के राजाओं द्वारा निर्मित महान जीवंत चोल मंदिरों में अन्य प्रमुख मंदिर हैं, तंजावुर का बड़ा मंदिर अर्थात् तंजावुर का बृहदीश्वर मंदिर तथा दारासुरम का ऐरावतेश्वर मंदिर

गंगईकोंड चोलपुरम के लिए यात्रा सुझाव

  • गंगईकोंड चोलपुरम का बृहदीश्वर मंदिर तंजावुर से लगभग ७५ किलोमीटर तथा पुदुचेरी से लगभग १०० किलोमीटर की दूरी पर है।
  • तंजावुर अथवा पुदुचेरी में ठहरने एवं भोजन की सुविधाएं अधिक सुलभ व उत्तम हैं। अतः आप तंजावुर अथवा पुदुचेरी से एक दिवसीय यात्रा के रूप में यहाँ आ सकते हैं।
  • पत्तदकल के मंदिर के पश्चात् यह भारत का दूसरा ऐसा विश्व धरोहर स्थल है जहाँ मंदिर स्थल के आसपास कोई भी जीवन संबंधी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। आप अपने साथ भोजन एवं पेयजल अवश्य ले जाएँ।
  • आप यहाँ मंदिर एवं आसपास के परिदृश्यों का अवलोकन करते हुए कुछ घंटों का समय आसानी से व्यतीत कर सकते हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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