भानगढ़ दुर्ग – जब भी भारत के सबसे भुतहा स्थलों के सम्बन्ध में कहीं चर्चा हो तो इस दुर्ग का नाम अवश्य लिया जाता है। सूर्यास्त के उपरांत इस दुर्ग में प्रवेश करने वालों के साथ हुई भयावह घटनाओं से सम्बंधित कहानियां भी अत्यंत प्रचलित हैं। आपको यह जानकर अत्यंत आश्चर्य होगा कि भानगढ़ दुर्ग परिसर में सूर्यास्त से सूर्योदय तक प्रवेश की अनुमति आधिकारिक तौर पर निषिद्ध है। इस दुर्ग की कहानियां यात्री मित्रों, समाचारपत्रों एवं किताबों द्वारा मुझ तक भी पहुँची। चाह कर भी इस दुर्ग के दर्शनों का संयोग प्राप्त नहीं हो पा रहा था। और आकस्मिक ही मुझे अपनी जयपुर यात्रा के समय भानगढ़ के दर्शन का योग आया।
मेरी पिछली जयपुर यात्रा के समय, एक रात्रि भोज पर हम अगले दिन के लिए निश्चित चाँद बावड़ी के सम्बन्ध में चर्चा कर रहे थे। तभी वहां साथी यात्रियों ने भानगढ़ दुर्ग पर चर्चा आरम्भ कर दी। इसकी मंत्रमुग्ध कर देने वाली कहानियां एवं किस्सों ने अपना जादू चला ही दिया और भानगढ़ दुर्ग ने हमारे अगले दिन के कार्यक्रम सूची में अपना स्थान निश्चित कर लिया। अगले दिन चाँद बावड़ी के दर्शन तो किये ही, साथ ही वहां से वापसी के समय भानगढ़ दुर्ग का भी निरिक्षण किया।
भानगढ़ दुर्ग की भुतहा किवदंतियां
इस अभिशप्त, वीरान, उजाड़ एवं भुतहा दुर्ग के सम्बन्ध में मुख्यतः दो किवदंतियां प्रचलित हैं।
पहली किवदंती के अनुसार, इस पहाड़ी पर कभी एक तपस्वी बाबा बालकनाथ निवास करते थे। उन्होंने राजा माधो सिंह को इस पहाड़ी पर दुर्ग बनाने हेतु एक ही अवस्था में अनुमति प्रदान की थी। वह यह कि महल के किसी भी भाग की छाया उन पर या उनकी झोपड़ी पर नहीं पड़नी चाहिए। अन्यथा वह महल उजड़ जाएगा। किन्तु राजा माधो सिंह के देहांत के उपरांत उनके पौत्र अजब सिंह ने गढ़ का निर्माण कराते समय उसे इतना ऊँचा बनवाया कि सूर्य की किरणें तपस्वी की झोपड़ी तक नहीं पहुँच पा रही थी। स्वयं पर गढ़ की छाया पड़ते ही तपस्वी ने श्राप द्वारा समूचे राज्य को अपनी चपेट में ले लिया। और भानगढ़ दुर्ग एक भुतहा महल में परिवर्तित हो गया।
इस दुर्ग की दूसरी किवदंती के सम्बन्ध में निम्नलिखित, ‘भानगढ़ दुर्ग का इतिहास’ में पढ़ें।
भानगढ़ दुर्ग का इतिहास
भानगढ़ दुर्ग राजस्थान के अलवर जिले में सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान के एक छोर पर स्थित है। इस किले का निर्माण आमेर के राजा भगवंत दास ने सन १५७३ में अपने द्वितीय पुत्र माधो सिंह हेतु करवाया था। उनका प्रथम पुत्र मानसिंह, मुग़ल शासक अकबर के दरबार के नवरत्नों में शामिल सेनाध्यक्ष था। माधोसिंह के पश्चात उनके द्वितीय पुत्र छत्र सिंह ने भानगढ़ पर शासन किया जिनके शासनकाल से भानगढ़ का पतन आरम्भ हुआ। भारत के अन्य स्थानों में औरंगज़ेब के शासनकाल के समय राजकुमारी रत्नावती पर भानगढ़ के कार्यभार का उत्तरदायित्व था। राजकुमारी अपूर्व सुंदरी थी एवं उनके स्वयंवर की तैय्यारी आरम्भ हो चुकी थी। राजकुमारी तंत्र-मन्त्र विद्या में भी निपुण थी एवं काला जादू करने में सक्षम थी।
पड़ोस के राज्य अजबगढ़ का राजकुमार सिंघिया एक प्रचलित तांत्रिक था। वह राजकुमारी से अगाध प्रेम करता था एवं राजकुमारी की इच्छा के विरुद्ध उसे प्राप्त करना चाहता था। अतः उसने राजकुमारी को तंत्र विद्या द्वारा प्राप्त करने हेतु, इत्र क्रय करने बाजार आई राजकुमारी के सुगन्धित तेल को सम्मोहक बना दिया। इसकी भनक लगते ही राजकुमारी ने वह तेल एक चट्टान पर गिराकर चट्टान को तांत्रिक की ओर लुढ़का दिया। इसके फलस्वरूप तांत्रिक की मृत्यु हो गयी। किन्तु मृत्यु पूर्व तांत्रिक सिंघिया ने भानगढ़ नगर एवं राजकुमारी को नाश होने का श्राप दे दिया। ऐसी मान्यता है कि भानगढ़ का विनाश उसी श्राप के फलस्वरूप हुआ।
इसके उपरांत भानगढ़ एवं अजबगढ़ के बीच हुए युद्ध से भानगढ़ का पतन आरम्भ हो गया। तत्पश्चात सन १७८३ में हुए सूखे में इसकी सर्व प्रजा की अकाल मृत्यु हो गयी। तब से भानगढ़ भुतहा नगरी में परिवर्तित हो गयी तथा कोई जीवित मनुष्य इस गढ़ में नहीं रह सका।
भानगढ़ दुर्ग के दर्शन
भानगढ़ दुर्ग की ओर जाते धुल धूसरित सड़क के दोनों ओर सूर्यमुखी पुष्प के खेत फैले हुए थे। कुछ क्षण पश्चात यह सड़क हमें अरावली की हरी भरी पहाड़ियों के बीच ले गयी। वृक्षों से अटी अरावली पहाड़ी पर अचानक मेरी दृष्टि एक इकलौते भव्य मंडप पर जा कर ठहर गयी जो हमारे दाहिने ओर के वृक्षों में से झाँक रही थी। भानगढ़ दुर्ग की चारदीवारी के बाहर निर्मित यह मंडप वास्तव में उसी की समाधि है जिसने भानगढ़ दुर्ग को श्रापित किया था। आगे बढ़ कर हमने अपनी गाड़ी एक ओर खड़ी की एवं भुट्टे विक्रेताओं के समक्ष से होते हुए दुर्ग के प्रवेश द्वार पर पहुंचे। प्रथम दर्शन पर यह दुर्ग भारत में फैले ऐसे कई दुर्ग की तरह सामान्य संरचना प्रतीत हुई। सोच में पड़ गयी कि क्यों इसका सम्बन्ध भयावह कहानियों से जोड़ दिया गया है।
प्रवेशद्वार पर ही एक पाषाणी सूचना पटल पर भानगढ़ दुर्ग का नक्शा खुदा हुआ था। इस नक़्शे से ज्ञात होता है कि भानगढ़ एक व्यवस्थित एवं सुनियोजित नगरी थी। इसके अनुसार नगर में निर्धारित स्थानों पर आवासगृह, हवेलियाँ, मंदिर, हाट एवं अंत में राजमहल निर्मित थे। इतने सुनियोजित नगरी में वास करने का आनंद एवं सुविधाएं अतुलनीय रहे होंगे।
दुर्ग की भित्तियों से घिरी नगरी से प्रवेश कर हम आवासग्रहों एवं हवेलियों के दर्शनार्थ आगे बढे। विध्वस्त स्थिति में भी आप इन हवेलियों की भव्यता का अनुमान लगा सकते हैं। सुव्यवस्थित ढंग से निर्मित जौहरी बाजार की दुकानें जयपुर के जौहरी बाजार का स्मरण कराती हैं।
रेगिस्तान के बीच निर्मित होने के पश्चात भी भानगढ़ दुर्ग एवं भानगढ़ नगर हरियाली से परिपूर्ण है।
भानगढ़ दुर्ग के मंदिर
भानगढ़ दुर्ग परिसर में कई मंदिर हैं। इस सम्पूर्ण परिसर में केवल मंदिर ही ऐसी संरचनाएं हैं जो अखंडित एवं जीवंत हैं एवं स्पष्ट पहचानी जाती हैं।
प्रवेशद्वार से भीतर जाते ही दाहिनी ओर एक वृक्ष के समीप एक लघु मंदिर है। इसके भीतर प्रवेश करते ही आपके समक्ष परिसर के घने वृक्षों के बीच से मंदिर का शिखर प्रकट होने लगता है।
गोपीनाथ मंदिर
प्रवेश करते ही प्रथम भव्य एवं प्रमुख संरचना है गोपीनाथ मंदिर। एक ऊंचे मंच के ऊपर स्थापित यह मंदिर प्राचीन नगरी के मंदिरों का स्मरण कराती हैं। कुछ सीड़ियाँ चढ़ कर हम मंदिर पहुंचे। द्वार के चौखट पर महीन व आकर्षक नक्काशी की गयी थी। द्वार के दोनों ओर आलों पर गणेश एवं शिव-पार्वती की मूर्तियाँ स्थापित हैं। हालांकि गर्भगृह रिक्त था।
गोपीनाथ मंदिर विशाल ना होते हुए भी इसका मंच बहुत ऊंचा था। यह इस तथ्य का द्योतक है कि यह एक महत्वपूर्ण मंदिर था।
सोमेश्वर मंदिर
भानगढ़ परिसर के मुख्य महल के बाहर एक जलकुंड है जिसके एक ओर एक शिव मंदिर है। जलकुंड को भरता प्राकृतिक झरना कदाचित् इस स्थल पर दुर्ग के निर्माण का मुख्य कारण रहा होगा। इस छोटे शिव मंदिर के भीतर एक शिवलिंग तथा नंदी की प्रतिमा स्थापित है जिनकी आज भी पूजा अर्चना की जाती है।
जलकुंड में आखेट करते नौनिहालों को देखते हुए मैंने कुछ क्षण वहां बिताए। जल में कई मछलियों को तैरते देखने का भी आनंद उठाया।
केशव राय मंदिर एवं मंगला देवी मंदिर के दर्शन समयाभाव के रहते मैंने दूर से ही किये।
भानगढ़ मुख्य महल
भानगढ़ दुर्ग का मुख्य महल अपेक्षाकृत ऊंचाई पर निर्मित था। कहा जाता है कि निर्माण के समय इसमें ७ मंजिलें थीं, परन्तु अब केवल ४ मंजिलें ही शेष हैं। तीव्रता से चढ़ती सड़क घूमती एवं बलखाती हुई महल के प्रवेशद्वार तक जा रही थी।
प्रवेशद्वार के सम्मुख सीड़ियाँ थीं जिसके दोनों ओर एक एक लम्बा गलियारा था। यह गलियारे ही वास्तव में राजमहल था। फौजी सैनिकों के आवासगृह के सामान प्रतीत होते इन गलियारों को महल मान कर इसमें लोग कैसे निवास करते थे, इसका अनुमान भी मैं नहीं लगा पायी।
सीड़ियाँ चढ़कर जब मैं ऊपर तक पहुँची, मेरे चारों ओर भंगित भित्तियों के अवशेष बिखरे हुए थे। महल के समक्ष, दुर्ग की भित्तियों के भीतर स्थित भानगढ़ नगरी के दर्शन आप यहाँ से स्पष्टता से कर सकते हैं। यहाँ से आप दुर्ग की भित्तियाँ, पगडंडियाँ, मंदिर एवं खँडहर प्रत्यक्ष देख सकते हैं। आसपास की पहाड़ियों की सतहें ऊबड़ खाबड़ थीं जैसे इन्हें अतिरिक्त संरचना निर्मिती हेतु खोदा गया हो और खुदाई कार्य अधूरा त्याग दिया गया हो।
वहां स्थित एक लघु एवं रिक्त कक्ष पर दृष्टि जा टिकी। पूछने पर ज्ञात हुआ कि वह राजकुमारी रत्नावती का मंदिर था। वहां खड़े जब मैंने चारों ओर दृष्टि घुमाई, चारों ओर बिखरे खंडहरों को देख कुछ क्षण विचारमग्न हो गयी कि वह विध्वंस प्राकृतिक था अथवा मानवीय या भुतहा।
हालांकि उजाले में दुर्ग का वातावरण अत्यंत सामान्य प्रतीत हो रहा था। दर्शनार्थी चारों ओर घूम रहे थे एवं बच्चे जलकुंड में आखेट कर रहे थे। तथापि ध्यानमग्न होकर आसपास की वस्तुस्थिति से स्वयं को पृथक कर अनुभव किया तब वहां एक अदृष्ट एवं अनजान ऊर्जा के होने की अनुभूति हुई। ऐसी ऊर्जा जो मुझे यहाँ से चले जाने हेतु बाध्य कर रही थी। इस नकारात्मक अनिष्ट ऊर्जा का अनुभव इससे पूर्व मुझे कभी नहीं हुआ था।
भानगढ़ दुर्ग दर्शन का मेरा अनुभव
भानगढ़ दुर्ग के भुतहा होने की चर्चा यदि आप लोगों के समक्ष करे तो दो प्रकार की प्रतिक्रिया प्राप्त होती है। कुछ इस तथ्य को स्वीकार कर उस पर अपनी मुहर अंकित करते हैं, तथापि कुछ अविश्वास व्यक्त कर इसे हंसी में उड़ा देते हैं। चूंकि मैं इस दुर्ग के दर्शन करना चाहती थी, मैंने कोई पूर्वकल्पित धारणा मन में नहीं रखी। पूर्णतः जिज्ञासा द्वारा मार्गदर्शित, मैं स्वयं अनुभव करना चाहती थी कि भारत के सर्वाधिक भुतहा घोषित इस दुर्ग के भीतर कैसा प्रतीत होता है!
जब मैंने इस दुर्ग में प्रवेश किया, मैंने किंचित भी भिन्न अनुभव नहीं किया, सिवाय उस नीरवता एवं उदासी के जो किसी भी खँडहर का अभिन्न अंग होती है। दोनों ओर खँडहरों के बीच स्थित पगडंडी से चलते समय हम हंसते खेलते पर्यटकों का हिस्सा थे जो इन खंडहरों को देखने एवं छायाचित्र लेने में पूर्णतः लिप्त थे। मैं स्वयं भी छायाचित्र लेने में व्यस्त थी। बरगद के एक वृक्ष ने मेरा ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया। दुर्ग के खंडित अवशेषों को लपेटे इस वृक्ष की जड़ें अत्यंत चित्ताकर्षक कलाकृति प्रतीत हो रही थी। क्यों ना हो! बरगद का वृक्ष अपनी इन्ही कलाओं के लिए ही तो प्रसिद्ध है।
किन्तु यहाँ की असामान्य ऊर्जा का प्रथम अनुभव मुझे तब हुआ जब मैं दुर्ग के भीतर स्थित जौहरी बाजार से होकर जा रही थी। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे अकस्मात् मुझे किसी ने बाईं ओर धक्का दिया। मेरे आसपास कोई उपस्थित नहीं था, फिर भी कुछ कदम मुझे कोई शक्ति बाईं ओर धकेलती रही। जब मैंने पीछे पलटकर देखा, वहां एक विचित्र रिक्त स्थान था। सम्पूर्ण पगडंडी पर लोग चल रहे थे, सिवाय उस रिक्त स्थान के, जहां वे दायें अथवा बाएं से चल रहे थे। मानो उस रिक्त स्थान पर कोई अदृष्ट व्यक्ति खड़ा हो।
राजकुमारी रत्नावती का महल
कुछ देर पश्चात जब हम महल के ऊपर पहुँचने हेतु सीड़ियाँ चढ़ रहे थे, रिक्त गलियारों से हवा का झोंका आ रहा था। यह झोंका मुझे असामान्य सा, एक अनोखे ऊर्जा से भरा प्रतीत हुआ। ऊपर पहुँच कर मुझे ज्ञात हुआ कि वह राजकुमारी रत्नावती का महल था। खंडहरों को देख ऐसा आभास हो रहा था जैसे वह महल एक बिजली की कड़कड़ाहट से एक क्षण में खँडहर बन गया था। यद्यपि ऊर्जा का आभास अत्यंत तीव्र था, तथापि यहाँ से दुर्ग का परिदृश्य अत्यंत मनमोहक था। मेरे विचार से यहाँ के छोटे छोटे मंदिरों की अपेक्षा, इस लुभावने परिदृश्य ने मुझे अधिक आकर्षित किया था। केवल एक तथ्य मन को कचोट रहा था, वह यह कि इस दुर्ग के दर्शनार्थ मैं इस वर्ष अगस्त के महीने में आयी थी जब यह दुर्ग पर्यटकों से भरा हुआ था। कदाचित यहाँ अकेले उपस्थित होने पर यहाँ का अनुभव कुछ और ही हो!
भानगढ़ पर इप्सिता रॉय चौधरी के अनुभव
इप्सिता रॉय चौधरी एक प्रशिक्षित विक्का तांत्रिक हैं। जनवरी २०१२ में वे अपने अन्य तांत्रिक साथियों की पलटन लेकर भानगढ़ दुर्ग पहुंची थीं। वे अपने साथ अत्याधुनिक कैमरे, चुम्बकीय बल मापक उपकरण एवं दिशा सूचक यंत्र भी ले गए थे। इप्सिता का मानना है कि इस धरती पर कुछ स्थल ऐसे हैं जहां अतृप्त आत्माओं की ऊर्जा रहती है एवं संवेदनशील लोगों को ही इसका आभास होता है। रत्नावती-सिंघिया की कहानी को आगे ले जाते हुए वे कहती हैं कि भानगढ़ कदाचित जादुई शक्तियों का स्थल है जहां लोग शारीरिक एवं मानसिक विकारों के निवारण एवं आध्यात्मिक शक्तियों की प्राप्ति हेतु आते हैं। उनका अनुमान है कि स्थानीय लोग बुरी आत्माओं के अधीन स्त्रियों को यहाँ झाड़फूंक हेतु अब भी लाते हैं। उन्होंने ऐसा ही एक दृश्य प्रत्यक्ष अपनी आँखों से देखा था। इस हेतु उनका इशारा लंबी कतारों में निर्मित छोटे छोटे कक्षों की ओर था जो ना तो आवासगृह हो सकते थे ना ही दुकानें। इनमें से कुछ कक्ष दुमंजिली भी थे जिन तक पहुँचने हेतु एक कोने में सीड़ियाँ बनी हुई थीं।
अग्नि संस्कार
मुख्य महल में स्थित गलियारे के अंत में दो अन्धकक्ष थे जहां इप्सिता ने अग्नि संस्कार क्रियान्वित होते देखा था। इप्सिता का कहना है कि उन्होंने ना केवल भूतकाल की जादुई शक्तियों का अनुभव किया, तथापि उन्हें यह भी ज्ञात हुआ कि इन जादुई शक्तियों को अग्नि संस्कारों द्वारा आज भी जागृत रखा हुआ है। उनका मानना है कि यह संस्कार भानगढ़ दुर्ग में स्थित आत्माओं की ऊर्जा को विचलित करती है। अतः हमें इस ऊर्जा को शांत होने देना चाहिए।
इप्सिता का कहना है कि उनके संवेदनशील कैमरों ने लिए चित्रों में एक अनोखा प्रकाश उपस्थित था। इप्सिता इस प्रकाश की गुत्थी सुलझाने में असमर्थ हैं। उनकी दृड़ मान्यता है कि भानगढ़ सैन्य दुर्ग ना होकर जादुई शक्तियों का दुर्ग है।
इप्सिता आगे कहती हैं कि भानगढ़ दुर्ग के दर्शनोपरांत उन्हें साथियों के व्यवहार में भी अजीब परिवर्तन का आभास हुआ था।
इप्सिता ने भानगढ़ दुर्ग के अपने अनुभवों का संकलन किया है एवं इस पुस्तक में प्रकाशित किया है – “ट्रेवलिंग इन, ट्रेवलिंग आउट”। आप इप्सिता की आत्मकथा भी पढ़ सकते हैं, उनका जीवन एक बहुत ही अनूठा जीवन है।
भानगढ़ दुर्ग के दर्शन हेतु आवश्यक सुझाव:-
• भानगढ़ दुर्ग में प्रवेश निःशुल्क है।
• भानगढ़ दुर्ग जयपुर से ८०कि.मी. एवं दिल्ली से २६०की.मी की दूरी पर स्थित है।
• दुर्ग में हल्के जलपान के अलावा खाद्य पदार्थ उपलब्ध नहीं हैं।
• अपने साथ पीने का पानी अवश्य रखें। यद्यपि भानगढ़ के दयालु नागरिक पर्यटकों की पानी की आवश्यकता को पूर्ण करने हेतु तत्पर रहते हैं।
• प्रातः मुँह अँधेरे एवं सूर्यास्त के पश्चात दुर्ग में ना जाएँ। तथापि दिन चढ़ने के उपरांत यहाँ आने पर धूप से त्रास भी संभव है। दुर्ग में छाँव हेतु कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है।
• महल की ओर तीव्रता से चढ़ती पगडंडी अत्यंत ऊबड़-खाबड़ है। चढ़ने की संपूर्ण तैयारी हो तभी चढ़ें। अन्यथा चढ़ने से बचें।
भानगढ़ में विश्रामगृह
भानगढ़ के आसपास मुझे किसी भी प्रकार के होटल अथवा विश्रामगृह दिखाई नहीं दिए। मेरे अनुभव से भानगढ़ के दर्शन हेतु जयपुर के किसी विश्रामगृह में रहना सुविधाजनक होगा। हम जयपुर के लेबुआ रिसोर्ट में ठहरे थे।
यदि आप सार्वजनिक परिवहन पर निर्भर हैं तो राजस्थान पर्यटन के विश्रामगृह सर्वाधिक उपयुक्त रहेंगे।
बढ़िया जगह है !! हालाँकि घूमते हुए डर तो लगता है
नहीं, डरने की बिलकुल आवश्यकता नहीं है, क्यूंकि जब डरने का समय होता है, वहां जाने की अनुमति नहीं होती 🙂