कलमेड्त्तुम पाट्टुम मेरी केरल यात्रा की एक अप्रत्याशित खोज थी। यह उस समय की बात है जब मैं ‘भारत में देवी पूजन’, इस विषय पर एक संगोष्ठी अर्थात् सेमीनार में भाग लेने केरल आयी थी। उस समय तक मुझे यह अनुमान नहीं था कि केरल में देवी आराधना, विशेषतः देवी के भद्रकाली रूप की आराधना इतनी लोकप्रिय है। इस संगोष्ठी में प्रस्तुत कुछ परिसंवादों के द्वारा मुझे केरल में देवी आराधना की कुछ झलक प्राप्त हुई। यदि मैंने इस संगोष्ठी में भाग ना लिया होता तो मुझे रत्ती भर भी आभास नहीं होता कि संगोष्ठी कक्ष के बाहर स्थित मंदिर में मैं एक अद्भुत अतिरंजना के दर्शन करने वाली हूँ।
हमें बताया गया कि वहां एक भव्य कोलम अर्थात् रंगोली बनायी जायेगी, तत्पश्चात उसकी पूजा की जायेगी। मैंने अनुमान लगाया कि यह एक बड़ी एवं ज्यामितीय, मंडल के आकार की सुन्दर सी रंगोली होगी। परन्तु वहां मंदिर के भीतर एक अत्यंत ही लुभावना दृश्य हमारे सम्मुख प्रस्तुत हुआ। अमृतापुरी के इस मंदिर में जिस अद्भुत दृश्य ने हमें दंग कर दिया, आईये उसकी एक झलक आपको देती हूँ।
कलमेड्त्तुम पाट्टुम – केरल के मन्दिरों का अनुष्ठान
प्रातः ११ बजे:- पूजा द्वारा अनुष्ठान का आरम्भ
सर्वप्रथम पूजन द्वारा मंदिर के धार्मिक संस्कारों का आरम्भ किया गया। इसके लिए चार स्तंभों पर एक मंडप सजाया गया था। इसके ऊपर श्वेत वस्त्र का छत्र था, जिसे यहाँ ‘कूर’ कहा जाता है। मंडप के मध्य लकड़ी की चौकी को टिकाकर एक चंद्राकार तलवार रखी हुई थी। यह शस्त्र पूर्णतः तलवार ना होते हुए तलवार एवं हंसिये के मध्य का आकार लिए हुए था। वह चंद्रहास था, माँ भद्रकाली का शस्त्र । चौकी के ऊपर एवं चारों कोनों में केले के पत्तों पर धान्य के छोटे छोटे ढेर सजाये हुये थे। ये समृद्धी के प्रतीक हैं। अब उनके समक्ष दीप जलाये जा रहे थे।
धार्मिक विधि का प्रारंभ शंखनाद से किया गया। पूजा के यजमान ने पंडित को लाल वस्त्र प्रदान किया जिसे पंडित ने मंडप के छत्र पर रखा। तदनंतर वादकों के अप्रतीम संगीत के साथ पूजन आरंभ किया गया।
हमने लगभग आधे घंटे तक पूजा का आनंद लिया। उसके पश्चात हम संगोष्ठी कक्ष में वापिस लौट आये।
द्वितीय प्रहर १२ बजे – भद्रकाली का कोलम
दोपहर १२ बजे भोजन हेतु हमारी संगोष्ठी को कुछ समय के लिए लिए विश्राम दिया गया था। इस समय का सदुपयोग करते हुए मैं तत्काल मंदिर पहुँच गयी। मन में जानने की उत्सुकता थी कि रंगोली कितनी बन गयी व कैसी लग रही होगी। वहां पहुंचकर जो मैंने देखा, मैं दंग रह गयी। मंडप के नीचे, रंगोली द्वारा आठ भुजाओ वाली देवी की सुडौल व विशाल रूपरेखा बनायी हुई थी। देवी के प्रत्येक हस्त में उनका एक भव्य आयुध बनाया गया था। लगभग आधी रूपरेखा रंगों से भर चुकी थी। बचा आधा भाग रंगों की प्रतीक्षा कर रहा था।
यहाँ मुझे बताया गया कि इस कलमेडित्त अथवा रंगोली बनाने के लिए पांच रंगों का प्रयोग किया जाता है, लाल, पीला, काला, हरा एवं श्वेत। प्राकृतिक पदार्थों का प्रयोग कर वे स्वयं इन रंगों को बनाते हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं। रसायनों के अतिक्रमण से पूर्व भारत में प्राकृतिक पदार्थों का प्रयोग ही प्रचलित था। श्वेत रंग की रंगोली के लिए चावल का आटा, काले रंग के लिए कोयले का चूरा, पीले के लिए हल्दी, हरे रंग के लिए हरी पत्तियाँ तथा लाल रंग की रंगोली के लिए हल्दी एवं चूने के मिश्रण का प्रयोग किया जाता है।
वेष्टि धारण किये चार कलाकारों की निपुण उंगलियाँ जिस प्रकार रंगोली बनाने में व्यस्त थीं, वह देखने लायक था। सबसे चित्तरंजक था उनके द्वारा देवी के आभूषणों को रंगोली द्वारा उकेरना। जिस प्रकार उँगलियों के बीच से रंगो को गिरा गिरा कर वे आभूषणों को गड़ रहे थे, यह विस्मयाकारी दृश्य था। जब तक मैं उनकी रंगोली की कला को समझती, माँ भद्रकाली की विविध आभूषणों एवं वस्त्रों से सज्ज भव्य छवि तैयार हो चुकी थी।
मुझे बताया गया कि भद्रकाली कोलम का सम्पूर्ण रूप पूर्वनियोजित ना होकर उत्स्फूर्त होता है। केवल मूलभूत रूप एवं मौलिक चिन्हों में परिवर्तन नहीं किया जाता। देवी के परिधान एवं आभूषण प्रतिदिन भिन्न होते हैं। अर्थात् एक निर्धारित सीमा के भीतर कलाकारों को अपना कौशल्य प्रस्तुत करने की पूर्ण स्वतंत्रता रहती है।
संध्या ५ बजे:- भद्रकाली कोलम पूजने हेतु सज्ज
संध्या छाने से पूर्व भद्रकाली की रंगोली से बनी विलक्षण छवि पूर्णतः तैयार हो चुकी थी। विविध रंगों से युक्त माँ भद्रकाली का रौद्र रूप स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था। छाती पर लटकता भव्य कंठहार माँ की छवि को तीसरा आयाम दे रहा था ।
एक घंटे के पश्चात हम यहाँ फिर लौटे तो आभास हुआ कि पहले माँ भद्रकाली की छवि तो तैयार हो चुकी थी किन्तु रंगोली सम्पूर्ण नहीं हुई थी। उस रंगोली में सबसे कठिन भाग अब जोड़ा गया था। वह था दारुक दानव का सिर। दारुक वही राक्षस था जिसका देवी भद्रकाली ने वध किया था। दारुक का सिर इतना जीवंत प्रतीत हो रहा था मानो अभी ही देवी ने उसका वध किया हो।
हमें यहाँ कई नवीन वाद्य भी दिखे जैसे इलथलम, वीक्कम चेंडा, कुज्हल, कोम्बू तथा चेंडा।
रात्री ७ बजे:- भद्रकाली पूजन
देवी माँ अपने भद्रकाली अवतार में तैयार हो चुकी थी। एक हाथ में नाग तथा दूसरे हाथ में दारुक का सिर लिए उनका भव्य रूप अत्यंत आकर्षक प्रतीत हो रहा था। उनकी छवि के चारों ओर, नियमित अंतराल पर केले के पत्तों पर धान्य के छोटे छोटे ढेर रखे थे। मंडप के चार कोनों पर दीप जलाये हुये थे। एक पंडित ने देवी के चरणों के पास बैठकर उनकी पूजा प्रारम्भ की। पूजा द्वारा उसने देवी के स्वरूप को उस रंगोली की छवि में अवतरित की तथा उनकी आराधना की। तीन संगीतकार वाद्य बजाते हुए देवी की स्तुति गा रहे थे।
और पढ़ें – ५० भारतीय नगरों के नाम – देवी के नामों पर आधारित
चंद्रहास – भद्रकाली माँ के शीश के समीप चौकी को टेक लगाए हँसियानुमा तलवार, चंद्रहास रखा हुआ था। इसके पीछे केरल का धातु का बना आईना रखा था जिसे चटक हस्तपंखे से चारों ओर सज्जित किया था। कुछ क्षण पश्चात पूजन प्रक्रिया समाप्त हुई और इसके पश्चात ढोल बजने लगे।
रात्री ९ बजे:- देवी की उत्तर पूजा
अचानक हमारा ध्यान कक्ष के बाहर एक पुजारी ने खींचा जो कुछ समय पूर्व पूजा में संलग्न था। उसके शरीर में देवी अवतरित हो रही थी। वह कांपने एवं झूमने लगा। चारों ओर घुमते हुए नृत्य करने लगा। वहां उपस्थित सब भक्तों के लिए वह देवी का रूप था। सब ने दीप एवं पुष्प से सज्ज आरती की थालियां ले कर देवी का स्वागत किया। चूंकि मैंने उस दिन साड़ी पहनी थी, मुझे भी देवी का स्वागत करने का अवसर प्राप्त हुआ। मैंने भी आनंदपूर्वक इस अनुष्ठान में भाग लिया।
वह जगह जगह पर रुक जाते, हमारी थालियों में रखे धान्य व पुष्प उठाते तथा चारों ओर छिड़क कर हमें आशीर्वाद देते।
ढोल व नृत्य की ताल अब द्रुत होने लगी थी। वह पुजारी कक्ष के भीतर पहुँच गए थे। हम भी उसके साथ कक्ष के भीतर आ गये। कक्ष में वह देवी की रंगोली के चारों ओर नृत्य करने लगे। पूरे समय उन्होंने पूजित तलवार हाथ में उठायी हुई थी। भले ही उनके हाथ कांप रहे थे परन्तु तलवार पर उनकी पकड़ मजबूत थी। अपने प्रदर्शन के अंत में वह तलवार को और जोर से घुमाते हुए देवी भद्रकाली के कोलम की परिक्रमा करने लगे। जहां कुछ लोग डर रहे थे, वहीं हम जैसे अधिकाँश लोग सामने घटित दृश्य को देख स्तब्ध थे। कुछ ३० से ४० मिनट तक उसने नृत्य किया होगा।
और पढ़ें – ५० भारतीय नगर देवी नाम से
इसी बीच प्रमुख पुजारी ने देवी की रंगोली से उनका चेहरा मिटा दिया। पंडित, जिन पर देवी अवतरित हुई थी, उस रंगोली के ऊपर खड़ा होकर नृत्य करने लगे तथा धीरे धीरे उसने अपने पैरों से बची रंगोली मिटाने लगे। रंगोली का यह चूर्ण वहां उपस्थित लोगों को प्रसाद के रूप में दिया गया।
पांच रंगों द्वारा बनी देवी की भव्य छवि, सुन्दर सजीला मंदिर, ढोल का गूंजता स्वर, पंडित के भीतर देवी का अवतरण तथा अपने ही धुन में पुजारी का नृत्य करना, इन सब ने हमें स्तब्ध कर दिया था। नृत्य करते करते उन्होंने कब सम्पूर्ण रंगोली तहस नहस कर दी पता ही नहीं चला। हाँ, अंत में देवी के भव्य छवि के नष्ट होने का कुछ दुःख भी अवश्य हुआ।
कलमेड्त्तुम पाट्टुम का विडियो
मुझे मंदिर के इस कलमेड्त्तुम पाट्टुम अनुष्ठान का छायाचलचित्र लेकर छोटा सा विडियो बनाने का अवसर मिला। वह विडियो आप के लिए लेकर आयी हूँ। इसे देखिये एवं सम्पूर्ण दृश्य का आनंद लीजिये।
दूसरे दिन हमने स्थानीय विशेषज्ञों को कहा कि वे हमें केरल के कलमेड्त्तुम पाट्टुम मंदिर अनुष्ठान के विषय में हर दृष्टिकोण से समझाएं। उन्होंने जो हमें बताया वह कुछ इस प्रकार है।
कलमेड्त्तुम पाट्टुम क्या है?
कलमेड्त्तुम यह मलयालम भाषा के दो शब्दों से बना है, कलम एवं एड्त्तुम। कलम का अर्थ है छवि एवं एड्त्तुम का अर्थ है चित्रित करना। अर्थात् छवि चित्रित करना। यह और बात है कि छवि का चित्रीकरण पूर्ण अनुष्ठान का एक छोटा सा भाग है। इसका पूर्ण रूप से साथ देते हैं, गायन, नृत्य एवं सुर बिखेरते वाद्य। गायन जिस भाषा में किया जाता है वह वर्तमान के तमिल व मलयालम भाषाओं का मिश्रित रूप है।
इस संस्कारों के आरम्भ में स्तुति गाकर देवी को रंगोली की छवि में अवतरित किया जाता है। वहीं अनुष्ठान के अंत में देवी को शांत करने के लिए भजन गाये जाते हैं।
कलमेड्त्तुम का सम्बन्ध फसल से भी है जहां किसान देवी से अपने फसलों की रक्षा करने का अनुरोध करते हैं।
यह उत्सव विभिन्न समुदायों को एकत्र लेकर आता है। प्रत्येक समुदाय इस उत्सव में भिन्न भिन्न भूमिका निभाता है। मुख्य अनुष्ठान ब्राम्हणों द्वारा किया जाता है। कुरूप समाज वाद्य बाजाते हैं, पोल्लुवर समाज ढोल बजाते हैं तथा क्षत्रिय पुष्प एकत्र कर हार बनाते हैं। इस प्रकार प्रत्येक समाज को इस अनुष्ठान में भाग लेने का अवसर प्राप्त होता है।
कलमेड्त्तुम कला यूनेस्को की विरासती सूची में सम्मिलित है।
दार्शनिक रूप से देखा जाये तो कलमेड्त्तुम पाट्टुम विश्व में मानव अस्तित्व की तीन दशायें दर्शाता है, सृष्टि, स्थिति एवं संहार।
दरुकासुर की कथा
एक समय की बात है जब दरुक नामक एक असुर ने घोर तपस्या कर भगवान् शिव को प्रसन्न किया था। उसने भगवान् शिव से वरदान माँगा कि वह अमर हो जाय, अर्थात उसे कोई मार ना सके। भगवान् शिव ने उसकी मांग स्वीकार कर ली। अमरत्व का वरदान पाकर दरुकासुर घमंडी एवं उद्दंड हो गया। उसे किसी का भी भय ना रहा। वह लोगों पर अनेक प्रकार के अत्याचार करने लगा। सब ओर हाहाकार मचाने लगा। इसकी सूचना प्राप्त होते ही भगवान् शिव के क्रोध की सीमा ना रही। उन्होंने अपनी तीसरी आँख खोल दी जहां से क्रोध से तमतमाती भद्रकाली प्रकट हुई। भद्रकाली ने शिव की आज्ञा पाकर दरुकासुर का वध किया।
और पढ़ें – श्री कांची कामाक्षी मंदिर – कांचीपुरम की आत्मा
ऐसा कहा जाता है कि जब नारद मुनि भगवान् शिव को भद्रकाली द्वारा दारुकासुर वध की कथा सुना रहे थे तब उन्होंने विविध आयुधों व दारुकासुर का सर हाथ में लिये भद्रकाली की छवि बनाकर उन्हें दिखायी थी। तभी से दरुकाजीत, अर्थात् दारुक को जीतने वाली, इस रूप में काली की छवि बनाने की परंपरा चली आ रही है।
कलमेड्त्तुम पाट्टुम का अनुष्ठान कब किया जाता है?
हमें बताया गया कि यूँ तो यह अनुष्ठान कभी भी किया जा सकता है। अधिकतर लोग देवी से मन्नत प्राप्त करने के लिये यह अनुष्ठान कराते हैं। कई लोग व्याधियों से मुक्ति प्राप्त करने के लिये, तो कई काम-धंधे की कामना से एवं कई विवाह में आते रोड़े हटाने की इच्छा से यह अनुष्ठान कराते हैं।
वार्षिक रूप से यह अनुष्ठान कार्तिक मास में अवश्य कराया जाता है। कार्तिक मास अंग्रेजी पंचांग से अक्टूबर/नवम्बर महीने में आता है। केरल के भद्रकाली मंदिर में यह अनुष्ठान कार्तिक मास की प्रतिपदा अर्थात् प्रथम दिवस से लेकर ४१ दिनों तक दररोज की जाती है।
और पढ़ें – कार्तिक मास की तीर्थ यात्रायें – स्कन्दपुराण कार्तिक मास माहात्म्य
कलमेड्त्तुम पाट्टुम, यह अनुष्ठान विशेष रूप से संध्या में किये जाने वाला संस्कार है। रंगोली द्वारा देवी की छवि वनाने की प्रक्रिया सम्पूर्ण दिवस चलती है। रंगोली द्वारा छवि बनाना प्रातः से आरम्भ किया जाय अथवा दोपहर से, यह इस बात बार निर्भर करता है कि छवि कितनी बड़ी एवं जटिल है। मैंने आपको पहले बताया था कि मूलभूत विशेषता भले ही ना बदले, देवी की सम्पूर्ण वस्त्र एवं आभूषण सज्जा प्रत्येक छवि में भिन्न होती है। संध्या तक छवि बनाने के पश्चात देवी के सारे प्रमुख पूजा-अर्चना संध्या के पश्चात ही किये जाते हैं।
कलमेड्त्तुम पाट्टुम उत्सव कहाँ कहाँ मनाया जाता है।
पारंपरिक रूप से कलमेड्त्तुम पाट्टुम अनुष्ठान काली अथवा भगवती के मंदिरों में किया जाता है। केरल के भद्रकाली मंदिर का यह अनुष्ठान विशेष रूप से प्रसिद्ध है। कुछ इसी प्रकार के अनुष्ठान अय्यप्पा मंदिरों अथवा वेट्टाक्कोरुमाकन( शिव एवं पार्वती का शिकारी रूप में पुत्र) मंदिरों में भी किया जाता है। यहाँ मंदिर के पीठासीन देव की छवि बनायी जाती है।
यदि स्थल की पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाये तो यह अनुष्ठान कहीं भी किया जा सकता है। फिर वह कोई सार्वजनिक मंदिर हो अथवा आपके घर का देवघर।
आप सब के लिए मेरा सुझाव है कि केरल के कलमेड्त्तुम पाट्टुम अनुष्ठान के दर्शन आप अवश्य करें। जब तक आप देखेंगे नहीं, आपको विश्वास नहीं होगा कि जो कुछ मैंने यहाँ दर्शाया है, वास्तव में यह अनुष्ठान और भी भव्य, रोमांचक एवं संतोषप्रदायिनी है। यहाँ कला के कई आयामों का महासंगम होता है। जो तीव्र ऊर्जा यहाँ उत्पन्न होती है उसकी व्याख्या शब्दों में नहीं की जा सकती।
अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे
अनुराधा जी आपका धन्यवाद,अपने देश और दुनिया कि जानकारी देने के लिये |कही भी घुमने जाने से पहले जहा जाना है वहा की जानकारी के लिये आपका ब्लॉग से जानकारी प्राप्त करता हु |हिंदी में जानकारी देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद |
अनिल जी, हमारी यही आशा है की हम भारतियों को भारत से मिलवा सकें. आपका प्रोत्साहन आपकी टिप्पणियों से देते रहिये, हम भारत के कोने कोने से कहानियां आप तक लाते रहेंगे। धन्यवाद।