महाराष्ट्र में कोल्हापुर के निकट, खिद्रापुर का कोपेश्वर मंदिर चालुक्य देवालय वास्तुकला की उत्कृष्ट कृति है। कोपेश्वर मंदिर, तंजावुर के चोला मंदिरों अथवा खजुराहो के चंदेल मंदिरों की भान्ति प्रसिद्ध नहीं हो पाया है। कदाचित इस क्षेत्र में इस वास्तुकला का एक ही मंदिर होना इसका मुख्य कारण हो सकता है। अथवा इसके प्रसिद्धी प्राप्त करने का निर्धारित समय कदाचित अब आया हो।
कोल्हापुर की यात्रा करने का मेरा प्रमुख उद्देश्य ही खिद्रापुर के कोपेश्वर महादेव मंदिर का दर्शन था। अतः कोल्हापुर में अधिक समय व्यतीत ना करते हुए, प्रातः ही हम कोल्हापुर से ७० की.मी. दूर स्थित खिद्रापुर की ओर निकल पड़े। हमारा लक्ष्य था इस गरिमामयी मंदिर के भव्य दर्शन।
खिद्रापुर का कोपेश्वर मंदिर
दोनों ओर अपेक्षाकृत नवीन घरों के मध्य स्थित, इस मंदिर के पाषाणी द्वार तथा उसकी चौखट ने हमारा स्वागत किया। द्वार की प्रथम विशेषता जिसने मेरा ध्यान आकर्षित किया, वह थी उसकी चमक। और कुछ ही क्षणों में मुझे अचंभित करने वाले थे, इससे भी अधिक चमक लिए, चिकनी सतह के स्तंभ एवं प्रतिमाएं! इन्हें देख मेरे मष्तिष्क में बिहार की बराबर गुफओं में देखी चमक की स्मृतियाँ उभर आयी।
भीतर प्रवेश करते ही मैंने सूर्यदेव की प्रातःकालीन किरणों में चमचमाते मंदिर को देखा। मुझे अपनी ही आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। मेरी आँखों के समक्ष मंदिर का सर्वाधिक अनुपम वास्तुशिल्प, स्वर्ग मंडप खड़ा था। मैंने तत्काल इसके भीतर प्रवेश किया। मैं पत्थर के विशाल गोलाकार मंच पर खड़ी थी जिसके चारों ओर ४८ उत्कीर्णित स्तंभ थे तथा खुला नीला आकाश जिसकी छत थी। आप कितने ही चित्र तथा विडियो देख लें, प्रत्यक्ष इस मंडप के भीतर खड़े होकर इसका अनुभव करना अतुलनीय है।
एक वयोवृद्ध माताजी ने कहा कि मैं सर्वप्रथम कोपेश्वर महादेव के दर्शन कर लूं। कदाचित वे ऐसे पर्यटकों से अभ्यस्त थीं जो मंदिर की शिल्पकारी में खो जाते हैं तथा कुछ क्षण तक भगवान् के दर्शन करना ही भूल जाते हैं। मैंने सभामंडप के भीतर प्रवेश किया। सभामंडप के अप्रतिम सौन्दर्य युक्त द्वार एवं चौखट भी पत्थर के थे। मेरे समक्ष एक और गोलाकार पत्थर का मंच था जिसके चारों ओर भी उसी प्रकार के कई स्तंभ थे। मैं कल्पना करने लगी, इस वास्तु ने कितने ही गीत-संगीत एवं नृत्य के प्रत्यक्ष अनुभव किये होंगे।
मेरी दृष्टी अनेक कहानियां कहती इन गोलाकार स्तंभों पर से उठने के लिए तैयार ही नहीं हो रही थी। कितने ही क्षणों पश्चात मैंने मंदिर की अन्य विशेषताओं पर अपना लक्ष्य केन्द्रित किया। अंतराल अर्थात् अर्ध मंडप की ओर जाते अंतराल द्वार के दायीं ओर द्वारपाल की एक इकलौती प्रतिमा थी। दूसरी ओर का स्थान रिक्त था। वहां की द्वारपाल प्रतिमा निकाल ली गयी थी या द्वारपाल मूर्ति स्थापित होने की प्रतीक्षा में थी, यह मैं नहीं जान पायी। सम्पूर्ण अंतराल मदनिकाओं अथवा सुर सुंदरियों की प्रतिमाओं से भरा हुआ था। सुन्दर आभूषणों से अलंकृत अप्रतिम सौन्दर्यपूर्ण स्त्रियों को मदनिका कहा जाता है तथा उन्हें शुभ व मंगलकारी माना जाता है।
गर्भगृह के भीतर दो लिंग हैं। इससे जुड़ी एक मनोरंजक दंतकथा भी है जो मैं आपको कुछ क्षण पश्चात बताउँगी। गर्भगृह की भित्तियों पर भी मदनिकाओं की शिल्पकारी की गयी है। यह अत्यंत दुर्लभ है। वही वयोवृद्ध माताजी ने बाईं ओर स्थित ध्यान गुफा की ओर हमारा ध्यान खींचा। वह स्थान पूर्णतः अँधेरे में था। बैठकर कर ध्यान करने के लिए वह सर्वोत्तम स्थान था।
अब समय हो चुका था कि मैं मंदिर की बाहरी भित्तियों का अवलोकन करूँ। बाहरी भित्तियों पर उत्कीर्णित ब्रम्हा, विष्णु, शिव तथा देवी की मूर्तियों के साथ विभिन्न मुद्राओं में अनेक मदनिकाओं को देख मैं स्तब्ध रह गयी। केवल कृष्ण की एक अप्रतिम एवं पूर्ण मूर्ति ने मष्तिष्क पर प्रबल छाप छोड़ी थी। वह तो हमारा गाइड शशांक था जिसने एक घंटे से भी अधिक समय हमें दिया तथा मंदिर की एक एक प्रतिमा के विषय में हमें जानकारी दी। इसके पश्चात तो मानो एक एक मूर्ति हमसे अपनी कहानी कहने लगी। हमें कल्याणी चालुक्य राजकाल में ले गयीं।
कोपेश्वर मंदिर का इतिहास
इस मंदिर की निर्माण तिथि के विषय में विभिन्न मत हैं। कुछ स्त्रोतों के अनुसार इसकी स्थापना ७वी. सदी में कदाचित बदामी चालुक्य राजाओं ने की थी। कुछ अन्य स्त्रोतों के अनुसार, इसका निर्माण कल्याणी चालुक्य के राज में ९वी.सदी में किया गया था। एक अन्य स्त्रोत इसे १२वी. सदी में शैलहार राजाओं द्वारा निर्मित दर्शाता है जो एक समय चालुक्य राजाओं के सूबेदार थे।
मेरे अनुमान से यह कदाचित ९वी. सदी का मंदिर है जिसमें शैलहार राजाओं ने कालान्तर में वृद्धि की। इस मंदिर के कई स्थानों पर आपको अपूर्ण तत्व भी दृष्टिगोचर होंगे। जैसे उत्तर व दक्षिण-मुख मंडप तथा स्तंभों पर अपूर्ण शिल्पकारी दिखाई पड़ती है। कई स्थानों पर नक्काशी करने के लिए किये गए चिन्ह दिखाई देते हैं। कहा जाता है ना, अपूर्ण संरचना आपको इसकी निर्मिती के विषय में अमूल्य जानकारी प्रदान करती है। मंदिर का शिखर भी शेष संरचना से मेल नहीं खाता। कदाचित कालान्तर में जोड़ा गया है| वैसे भी मंदिर निर्माण साधारणतः एक ही समय पूर्ण नहीं होता| निर्माण प्रक्रिया लम्बे समय तक चलती रहती है|
मंदिर में १२ शिलालेख हैं जिनमें ११ प्राचीन कन्नड़ भाषा में लिखित हैं तथा एक देवनागरी भाषा में है। किन्तु इनमें से एक भी शिलालेख यह जानकारी प्रदान नहीं करता कि इस मंदिर का निर्माण किसने एवं कब करवाया था। १२०४ ई. का एक शिलालेख यह अवश्य कहता है कि देवगिरी के यादव राजाओं ने मंदिर का पुनरुद्धार किया था। इसका तात्पर्य यह है कि यह मंदिर १२वी. सदी से पूर्व भी अस्तित्व में था।
१७०२ ई. में औरन्गजेब ने इस मंदिर पर आक्रमण किया था। इसके चिन्ह मंदिर के खंडित भागों पर चारों ओर दृष्टिगोचर हैं। अधिकतर प्रतिमाओं के मुख एवं हाथ भंगित हैं तथा अस्त्र-शस्त्र भी खंडित हैं। उसी प्रकार मंदिर जिस मंच पर खड़ा है उस मंच को आधार देते कई हाथियों के सूंड भी छिन्न-भिन्न हैं।
कोपेश्वर महादेव की कथा
ऐसा कहा जाता है कि प्रत्येक किवदंती किसी ना किसी प्रकार से देवी सती द्वारा दक्ष के यज्ञकुण्ड में प्राण देने की कथा से आरम्भ होती है। कोपेश्वर महादेव इसी मूल कथा के एक क्षण को स्मरण करता है। सती द्वारा दक्ष के यज्ञ कुण्ड में प्राण देने के पश्चात भगवान् शिव के क्रोध की सीमा नहीं थी। वे सती के पार्थिव देह को उठाये क्रोध में तांडव नृत्य करने लगे थे। चारों ओर हाहाकार मच गया था।
तब भगवान् विष्णु को उनका क्रोध शांत करने आना पड़ा था। यह मंदिर इसी क्षण का प्रतीक है। मानो इस मंदिर में वह क्षण सदैव के लिए थम गया हो। क्रोधित अर्थात् कुपित शिव को कोपेश्वर कहा गया है। इसी कारण मंदिर में दो लिंग हैं। एक लिंग भगवान् शिव का तथा दूसरा लिंग उनका क्रोध शांत करते विष्णु का रूप है।
नंदी जो प्रत्येक शिव मंदिर का अभिन्न अंग होता है, इस मंदिर में अनुपस्थित है। यह बिना कारण नहीं है। जिस समय की यह घटना है, नंदी सती के साथ उनके पिता दक्ष के निवास स्थान गए थे। इसीलिए वे यहाँ उपस्थित नहीं थे। ऐसी मान्यता है कि दक्ष का निवास स्थान हरिद्वार के कनखल में था, किन्तु महाराष्ट्र के निवासियों का मानना है कि वह कृष्णा नदी से कुछ की.मी. दूर यदुर गाँव में था। इस गाँव के वीरभद्र मंदिर के भीतर स्थित नंदी इस कोपेश्वर मंदिर की ओर देखते हुए प्रतीत होते हैं। यद्यपि वीरभद्र मंदिर के दर्शन मैंने अब तक नहीं किये हैं, कदाचित इसका अवसर मुझे शीघ्र प्राप्त होगा।
मेरे मष्तिष्क में एक विचार कौंध रहा है, क्या यहाँ अनेक मदनिकाओं की उपस्थिति, विशेषतः गर्भगृह के भीतर, कोपेश्वर महादेव का क्रोध शांत करने हेतु है?
कोपेश्वर मंदिर का वास्तुशिल्प
शिल्प शास्त्र के आधार पर यह मंदिर कदाचित महाराष्ट्र का सर्वाधिक संपन्न मंदिर हो सकता है।
इस मंदिर के निर्माण में प्रयुक्त घनिष्ठ बसाल्ट शिलायें सह्याद्री पर्वत श्रंखला से लाई गयी हैं जिसका यहाँ से निकटतम बिंदु लगभग ६० की.मी. दूर है। अतः यह सर्वविदित है कि इन शिलाओं को पंचगंगा तथा कृष्णा नदियों को पार कर के ही लाया गया होगा। इसके आधार पर हम कह सकते हैं कि एक समय हमारी अधिकतर नदियों पर जल परिवहन के उत्तम साधन उपलब्ध थे।
आईये इस मनमोहक मंदिर की अप्रतिम वास्तुकला का विस्तृत अवलोकन करते हैं।
स्वर्ग मंडप
गोलाकार खुली छत लिए इस स्वर्ग मंडप की उत्कृष्ट उत्कीर्णित संरचना इस मंदिर की सर्वाधिक अनूठी विशेषता है। सम्पूर्ण भारत में मैंने ऐसा अद्भुत शिल्प नहीं देखा। ना ही विश्व के किसी कोने में ऐसी संरचना उपस्थित होने के विषय में सुना है।
स्वर्ग मंडप मंदिर का प्रथम भाग है जिस पर आपकी दृष्टी मंदिर के भीतर प्रवेश करते से ही पड़ेगी। अत्यंत सूक्ष्म अंतर से यह मुख्य मंदिर से पृथक है। मंडप की गोलाकार संरचना ४८ स्तंभों पर स्थिर है। प्रत्येक स्तंभ सुन्दरता से उत्कीर्णित है। बाहर से देखने पर यह छत से लटके उल्टे कमल सा प्रतीत होता है।
छत से १२ आड़े दंड निकले हुए हैं जो संरचना के भीतर एवं बाहर दोनों ओर दृष्टिगोचर हैं।
दंडों के भीतरी सतह पर १२ देवों की प्रतिमाएं उत्कीर्णित हैं। इनमें ८ दिशाओं के ८ आराध्य, जिन्हें दिगपाल भी कहा जाता है, सम्बंधित दिशाओं में स्थित हैं। शेष ४ प्रतिमाएं विष्णु, कार्तिक, सूर्य तथा शिव की हैं। सभी देव अपनी शक्तियों के साथ, अपने अपने वाहनों पर आरूढ़ हैं। केवल कार्तिक की एकल प्रतिमा है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि वे ब्रम्हचारी थे।
इन प्रतिमाओं को गढने से पूर्व जिस प्रकार की कल्पना शिल्पकारों ने की होगी, उसके विषय में विचार कर अचंभित होना स्वाभाविक है। इन प्रतिमाओं को यदि सामने से निहारा जाय तो देव अकेले ही अपने वाहनों पर सवार प्रतीत होते हैं। किन्तु यदि इन्हें एक ओर से निहारा जाय तो ये अपनी देवी समेत वाहन पर सवार दृष्टिगोचर होते हैं। आप भी इन्हें देख शिल्पकारों की कल्पनाशक्ति एवं कला पर मोहित हुए बिना नहीं रह सकते। आप अवश्य इस सोच में पड़ जायेंगे कि ऐसी अद्भुत शिल्पकारी एवं कलाकौशल्य हमने कब, कहाँ व कैसे खो दी!
छत पर बने गोलाकार छिद्र के ही माप का नीचे धरती पर गोलाकार पाषाणी पाट है जिसे रंगशिला भी कहा जाता है। इसका व्यास लगभग १४ फीट का है। इसे अखंड शिला से बनाया गया है। एक ही व्यास का पाट तथा उसके ठीक ऊपर उसी व्यास का छिद्र, शिल्पकारों के गणितीय ज्ञान का अद्भुत उदाहरण है।
कोपेश्वर मंदिर पर एक विडियो
स्वर्ग मंडप के खुले भाग के चारों ओर स्थित ४८ स्तंभों पर ज्यामितीय आकृतियाँ उत्कीर्णित हैं। उसकी घातुई चमक का अनुमान देखे बिना नहीं लगाया जा सकता। इनमें से १२ स्तंभ रंगशिला को घेरे हुए हैं। इन स्तंभों के आधार पर भिन्न भिन्न देवालय वास्तुकला से नक्काशी की गयी है। स्तंभ की गोलाई में एक संकरी पट्टी है जिस पर विभिन्न पुष्प उत्कीर्णित हैं।
आपके मष्तिष्क में भी वही प्रश्न उभरा होगा जिसका उत्तर मैं भी जानना चाहती थी! अंततः छत खुली क्यों है? एक तर्कसंगत उत्तर मुझे प्राप्त हुआ कि इस स्थान पर यज्ञ व हवन किये जाते थे। अतः खुली छत की आवश्यकता थी। एक अन्य उत्तर के अनुसार मंदिर के भीतर से आकाश निहारने के लिए छत खुली रखी गयी थी। जैसा कि हम सब जानते हैं, सृष्टि की रचना में जिन पांच तत्वों का प्रयोग हुआ है, इनमें आकाश एक है। स्वर्ग मंडप ने अपने नाम इसी खुली छत के कारण प्राप्त किया है। जी हाँ, ऐसा माना जाता था कि इस खुली छत द्वारा आप स्वर्ग देख सकते हैं।
मुक्त आकाश की वास्तुकला
मेरे तार्किक मष्तिष्क ने एक क्षण यह विचार अवश्य किया था कि छत ना होने का कारण कदाचित अपूर्ण संरचना होगी अथवा किसी काल में छत गिर गयी होगी। मेरी जिज्ञासा जल्दी ही शांत हो गयी जब मेरी दृष्टी एक सुगठित नलिका पर पड़ी जिसके द्वारा मंदिर के भीतर से जल निकासी की जाती थी। अतः योजनाकारों ने मंदिर की खुली छत की ही कल्पना की होगी।
इस स्थान का प्रयोग कदाचित सांस्कृतिक प्रदर्शनों के लिए किया जाता रहा होगा क्योंकि आप यहाँ विभिन्न तलों पर प्राथमिक स्तर की बैठने की व्यवस्था देख सकते हैं। यह एक छोटे रंगभूमि का आभास देते हैं। खुली छत का उपयोग ध्वनी सुधारक के रूप में होता था या नहीं, यह ज्ञात करना शेष है।
स्वर्ग मंडप के रंगशिला के मध्य खड़े होकर, स्वर्ग मंडप की सुन्दरता तथा विलक्षण वास्तुकला में स्वयं को सराबोर करने के पश्चात, मैंने मंदिर की ओर दृष्टी घुमाई। मेरे अचरज की सीमा ना रही जब मैंने सनातन धर्म के त्रिमूर्ति, ब्रम्हा, विष्णु व महेश, तीनों को एक ही चौखट में समाते देखा। मंदिर के भीतर, अधिष्टाता देव के रूप में शिव हैं, मंदिर की बाईं भित्ति पर ब्रम्हा विराजमान हैं तथा दायीं भित्ति पर विष्णु। अचरज की बात यह है कि इस बिंदु से केवल ये तीन देव ही दृष्टिगोचर हैं, दूसरे नहीं!
सभा मंडप
स्वर्ग मंडप से पृथक, यह सभा मंडप मुख्य मंदिर का एक भाग है। इसके आकर्षक चौखट के ऊपर सरस्वती जी की मूर्ति तथा दोनों ओर पूर्ण कलश हैं। द्वार के दोनों पलड़ों के निचले भाग पर १० द्वारपाल हैं। ५ द्वारपाल प्रत्येक द्वार पर। प्रतिमायें पूर्णतः अलंकृत एवं सज्ज हैं। उनकी गदाएँ भंगित होते हुए भी ये प्रतिमाएं अत्यंत मनभावन हैं। द्वार के नीचे पौराणिक पशु व्याल की प्रतिमा है।
जाली युक्त झरोखों के चौराहों पर पुष्पाकृति का शिल्प है जो चालुक्य वास्तु का जीवंत उदाहरण है। द्वार के समक्ष एक अपूर्ण चंद्रशिला उत्कीर्णित है।
सभा मंडप के भीतर स्वर्ग मंडप की ज्यामितीय आकृतियाँ दुहराई गयी हैं। अंतर केवल छत का है। सभा मंडप छत से ढंका हुआ है। यहाँ तीन परिधियों में ६० स्तंभ हैं। अंतिम परिधि भित्त में सन्निहित है। चार कोनों में स्थित स्तंभ शेष स्तंभों से अपेक्षाकृत बड़े हैं।
प्रत्येक स्तंभ पर आप एक कीर्तिमुख देखेंगे। ध्यान से देखने पर आपको ज्ञात होगा कि प्रत्येक कीर्तिमुख भिन्न शैली का है तथा उन पर आकृतियाँ भी भिन्न हैं। आकृतियों में मोर, मगरमच्छ, नर्तक, गरुड़ जैसे वाहन, आराध्य जैसे विष्णुजी व शिवजी , साधू, फल, पुष्प इत्यादि सम्मिलित हैं। काले बसाल्ट पत्थर की चमक किसी आईने से कम नहीं थी।
स्तंभ
कुछ स्तंभों पर मैंने सूक्ष्म प्रतिमाएं देखी। इतनी छोटी प्रतिमाओं को भी पूर्ण दक्षता से उत्कीर्णित किया गया है। प्रत्येक प्रतिमा सम्पूर्ण है। विष्णु एवं लक्ष्मी की भी सूक्ष्म प्रतिमा उत्कीर्णित की गयी थी। उन पर सम्पूर्ण आभूषण एवं अन्य अलंकार विस्तृत रूप से उपस्थित हैं। प्रतिमाओं की बारीकियाँ इतनी स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती हैं कि इन्हें हम सरलता से पहचान सकते हैं।
मैंने स्तंभों पर दो जातक कथाएं भी उत्कीर्णित देखीं। हम भी इन्हें सरलता से पहचान जायेंगे। एक कथा है, मगर एवं बन्दर की तथा दूसरी है, बड़बोले कछुए की। एक स्तंभ पर वसंत ऋतु का चित्रण था। नर्तकों एवं पशुओं के दर्पण प्रतिबिम्ब भी थे। महाकाव्य रामायण के भी कुछ चित्रण थे जिनमें हनुमान को राम एवं लक्ष्मण के साथ दर्शाया गया है। कुछ स्तंभों पर उत्कीर्णित आकृतियाँ अपूर्ण हैं।
सभा मंडप के मध्य में भी एक गोलाकार रंगशिला है। गर्भगृह के भीतर स्थित देव के सम्मान में कदाचित यहाँ कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते थे अथवा पूजा अर्पित करते थे।
एक कोने में एक एकल शिला पर सप्तमात्रिका की प्रतिमा है। एक आले पर स्थित भैरव की प्रतिमा अपेक्षाकृत नवीन प्रतीत होती है।
द्वारपाल
सभा मंडप की सर्वाधिक उत्कृष्ट कृति है अंतराल के बाहर बनी द्वारपालों की प्रतिमाएं। ये प्रतिमाएं विस्तृत रूप से अलंकृत हैं। आभूषणों की सूक्ष्म शिल्पकारी उन्हें अत्यंत आकर्षक रूप प्रदान कर रही है। आभूषणों की यह शैली हम आज भी कोल्हापुर के बाजारों में देख सकते हैं। शीर्ष पर मुंड-माँला की पंक्ति है।
अंतराल
चौकोर अंतराल में भी सुन्दर आकृतियाँ उत्कीर्णित हैं। मंदिर के द्वार की चौखट यहाँ से आप देख सकते हैं। अंतराल के दाहिने भित्त पर प्राचीन कन्नड़ भाषा में शिलालेख हैं।
गर्भगृह
गर्भगृह के भीतर प्रवेश करने के लिए हमने एक उत्कीर्णित चंद्रशिला को पार किया। चंद्रशिला पर शंखों एवं मगरमच्छों की उत्कृष्ट शिल्पकारी की गयी थी। चौखट के ऊपर लक्ष्मी की प्रतिमा थी। द्वार के चारों ओर की नक्काशी पर जीवनचक्र का चित्रण था। इनके साथ पूर्ण कुंभ, मकर, घड़े, मगर एवं मोर जैसे पवित्र चिन्ह भी उत्कीर्णित थे।
गर्भगृह की अनोखी विशेषता है उसके भित्तियों पर उत्कीर्णित मदनिकाओं की प्रतिमाएं। आप इस गर्भगृह के भीतर इसकी भित्तियों पर अनेक मदनिकाएं देखेंगे। दुर्भाग्यवश अधिकतर प्रतिमाएं खंडित हैं।
जिन दो लिंगों के विषय में मैंने पूर्व में लिखा है, वे शिव एवं विष्णु के लिंग मंदिर के आधार तल पर स्थापित हैं। एक पुजारी नियमित इनकी पूजा अर्चना करता है। इन्हें कोपेश्वर एवं धोपेश्वर लिंग कहा जाता है।
कोपेश्वर एवं धोपेश्वर लिंग
जैसा कि मैंने पूर्व में कहा है, गर्भगृह के भीतर दो लिंग हैं, प्रथम लिंग शिवजी का स्वरूप कोपेश्वर है तथा दूसरा लिंग विष्णुजी का रूप धोपेश्वर है। विष्णु लिंग धोपेश्वर यहाँ शिव के कोप नाशक एवं शान्ति प्रदायक के रूप में है। यह मंदिर उस क्षण का आनंदोत्सव मनाता है जिस क्षण विष्णुजी ने शिवजी के क्रोध को शांत किया था। इसीलिए शिव एवं विष्णु दोनों यहाँ लिंग स्वरूप विराजमान हैं।
हमने यहाँ कोपेश्वर शिवलिंग का एक अनोखा श्रृंगार देखा। दही-भात! जी हाँ दही-भात से उनका अभिषेक किया गया था। इसका कारण भी आप समझ गए होंगे। दही-भात शीतलता प्रदान करता है। ग्रीष्म ऋतू में महाशिवरात्री से आषाढ़ शुक्ल पंचमी तक प्रतिदिन कोपेश्वर लिंग का दही-भात द्वारा अभिषेक किया जाता है। इसे कन्नड़ भाषा में भुक्ति अभिषेक तथा मराठी भाषा में दही-भात अभिषेक कहते हैं।
मैंने इससे पूर्व किसी भी मंदिर में इतना मधुर अभिषेक नहीं देखा था। प्रातःकाल, पुजारीजी ४ घंटे व्यतीत कर दही-भात से लिंग के ऊपर शिव की प्रतिमा गड़ते हैं तथा उनके आसपास गणेश एवं नंदी की प्रतिमाएं बनाते हैं। इन दो मासों में प्रतिदिन यह परंपरा निभाई जाती है। यदि आप कोपेश्वर लिंग के सम्पूर्ण श्रृंगार का अवलोकन करना चाहते हैं तो आप इन दो मासकाल के भीतर आईये तथा दोपहर से पूर्व लिंग के दर्शन करिये।
आसपास के विद्यालयों में पढ़ने वाले बालक-बालिकाएं, अपने श्वेत व गुलाबी चारखानों की वर्दी धारण कर, प्रातः विद्यालय की ओर प्रस्थान करने से पूर्व मंदिर में देव के दर्शन करने आ रहे थे। उनकी यह दिनचर्या देख मन अत्यंत प्रसन्न हो उठा।
यद्यपि कोपेश्वर महादेव मंदिर का सर्वाधित महत्वपूर्ण एवं बड़ा उत्सव है महाशिवरात्रि। तथापि प्रत्येक सोमवार के दिन भी मंदिर में शिव की उत्सव मूर्ति की शोभायात्रा निकाली जाती है।
मंदिर की बाहरी भित्तियाँ
मंदिर की बाहरी भित्तियाँ मंदिर के सामान ही उत्कृष्ट एवं मनोहारी हैं।
हमारी दृष्टीस्तर पर, मंदिर की भित्तियों पर एक पट्टिका है जिस पर ९२ गज प्रतिमाएं हैं जो मंदिर को चारों ओर से घेरे हुए हैं। इन्हें देख ऐसा प्रतीत होता है मानो ये ९२ गज सम्पूर्ण मंदिर को अपनी पीठ पर उठाये हुए हैं। ये इस मंदिर को विशेष आयाम प्रदान करते हैं। प्रत्येक गज की प्रतिमा भिन्न है। उनके आभूषण भिन्न हैं। उन पर सवार देव-देवता भी भिन्न हैं।
यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि आक्रमणकारियों ने अधिकतर गजों की सूंडे भंगित कर दी है। कुछ प्रतिमाएं, जिनकी सूंड अब तक अखंडित है, उन्हें देख आप अनुमान लगा सकते हैं कि किसी काल में, आम एवं गन्ने उठाये ये गज कितने मनमोहक दिखाई दिए होंगे। ऐसी ही गज पट्टिका आप दिल्ली के अक्षरधाम मंदिर में भी देख सकते हैं।
मंदिर की तीन भित्तियों पर शिव पार्वती की प्रतिमाएं है जिनके दोनों ओर ब्रम्हा एवं विष्णु की प्रतिमाएं हैं। आपको देखकर अचरज होगा कि प्रत्येक प्रतिमा की शैली भिन्न है। कहीं कोई समानता आपको नहीं दिखाई देगी। मगरमच्छ के आकार का व्यालमुख अत्यंत सुन्दर है। इससे गिरता जल एक अनोखे सितारे के आकार के कुण्ड में एकत्र होता है।
बाहरी भित्तियों पर उत्कीर्णित देवी-देवताओं की प्रतिमाएं
सभा मंडप के चारों कोनों पर प्रमुख देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उत्कीर्णित हैं। आप ब्रम्हा, विष्णु, गणपति, मुरलीधर रूपी कृष्ण, शिव, देवी, भैरव, बाली, वामन, चन्द्र, सूर्य, अर्धनारीश्वर, मदन, रति, सरस्वती, गंगा, महिषासुरमर्दिनी, नटराज इत्यादि को विभिन्न मुद्राओं में देख सकते हैं।
रामायण एवं महाभारत के भी कई दृश्य दर्शाए गए हैं, जैसे हनुमान के संग राम, अंगूठी पकड़ी हुई सीता, भीम, द्रौपदी इत्यादि। अधिकतर देवी देवताओं को गजारूढ़ दर्शाया गया है, केवल शिव व पार्वती सदैव अपने वाहन नंदी पर आरूढ़ हैं।
सभा मंडप के प्रत्येक द्वार के दोनों ओर ५-५ द्वारपाल हैं। दक्षिणी द्वार पर स्थित द्वितीय द्वारपाल की मूर्ति भंगित है। यहाँ १० द्वारपालों में से ७ द्वारपाल स्त्रियाँ हैं।
द्वार के समीप देवनागरी लिपि में संस्कृत के शिलालेख हैं जो बताते हैं कि यादव वंश के सघन देव ने १२१४ ई. में इस मंदिर का पुनरुद्धार किया था। इस शिलालेख के ऊपर सूर्य एवं चन्द्र की आकृतियाँ उत्कीर्णित हैं। शिलालेख के नीचे दर्शाए दृश्य में एक पुरोहत एक शिवलिंग का अभिषेक कर रहे हैं। साथ में गौमाता एवं तलवार भी हैं। बाईं ओर एक शंख है जो यादवों का राजचिंह है। जैसा कि आप जानते हैं, यादव, विष्णु अवतार, कृष्ण के वंशज हैं।
सभा मंडप के उत्तरी एवं दक्षिणी, दोनों द्वारों पर आप अपूर्ण संरचना देखेंगे। उन्हें देख ऐसा प्रतीत होता है कि इनकी योजना बनायी गयी थी किन्तु इन्हें कभी पूर्ण नहीं किया गया। क्या इन्हें हम अब अर्थात् २१वी. सदी में पूर्ण कर सकते हैं? अवश्य। आवश्यक है अद्भुत शिल्पकला में निपुण उस जैसे हाथों की जिन्होंने इन शिलाओं को सुन्दरता से तराशा है।
मदनिकाएं
खिद्रापुर के कोपेश्वर महादेव मंदिर की अति सुन्दर रचना है ये मदनिकाएं।
कुछ मदनिकाएं जो मेरे ध्यान में अब भी हैं, वह इस प्रकार हैं:
• मृदंगवादिनी – मृदंग बजाती मदनिका, जिन्हें मर्दला भी कहते हैं।
• विषकन्या – हाथों एवं पैरों पर सर्प धारण की हुई मदनिका।
• शुक सारिका – तोते के साथ मदनिका।
• पत्रलेखा – पत्र लिखती हुई मदनिका। इस मंदिर में इस प्रकार की तीन मदनिकाएं उत्कीर्णित हैं जो क्रमशः पत्र का आरम्भ, मध्य भाग एवं अंतिम भाग लिख रही हैं।
• मरीचिका – हाथों में धनुष धारण किये हुए मदनिका।
• मदनिका जिसके वस्त्र एक वानर खींच रहा है।
• चामरवाहिनी – हाथों में चामर पकड़ी मदनिका।
• नर्तकी – विभिन्न नृत्य मुद्राओं में मदनिकाएं।
• वीणावाहिनी – वीणा पकड़ी हुई मदनिका।
• शालभंजिका – वृक्ष की शाखा पकड़ी हुई मदनिका।
• भुजंग त्रासिता – सर्प से भयभीत मदनिका।
• कंदुक क्रीड़ा मगन – कंदुक खेलने में मग्न मदनिकाएं।
• पिचकारी से होली खेलती मदनिकाएं।
यदि आप ध्यानपूर्वक इन मदनिकाओं को देखेंगे तो आपको प्रत्येक काल के वस्त्रालंकार एवं आभूषण शैली दृष्टिगोचर होंगी। कुछ घुंघराले व कुछ सीधे केश, विभिन्न केश सज्जा शैली,नख कला, नीची व ऊंची एड़ी के चप्पल, श्रृंगार सामग्री, आभूषण, कमरबंद, वस्त्रों पर शीशे का कार्य, नाना प्रकार के अलंकार इत्यादि आप इन मदनिकाओं की प्रतिमाओं पर देख सकते हैं।
मंदिर की भीतरी भित्तियों पर जहां सूर्य व वर्षा का दुष्प्रभाव नहीं पड़ा है, वहां की मूर्तियों की सतह इतनी चमकदार है मानो इन्हें कल ही चमकाया गया हो। आप कल्पना कर सकते हैं, जब यह मंदिर नवीन था तब सब प्रतिमाओं की चमक कितनी अद्भुत रही होगी।
मदनिकाओं की प्रतिमाओं के मध्य अचानक आप कुछ विदेशी जोड़ों की प्रतिमा देखेंगे। उनकी निराली दाड़ी से वे अरबी तथा चीनी प्रतीत होते हैं। कदाचित ये प्रतिमाएं पूर्वी तथा पश्चिमी देशों से हमारे व्यापार सम्बन्ध दर्शाते हुए हमारे शिल्पों में सदा से ही बसे हुए हैं।
शिखर
जब आप मंदिर के एक ओर खड़े होकर सम्पूर्ण मंदिर पर दृष्टी डालेंगे तब मंदिर एवं उसके शिखर की शिल्प शैली में विशाल अंतर आपके ध्यान में अवश्य आएगा। कदाचित मंदिर का शिखर बाद में जोड़ा गया है। कदाचित मंदिर सम्पूर्ण करने की शीघ्रता में वास्तु शैली की भिन्नता पर ध्यान नहीं दिया गया हो।
कई बार मंदिर के भीतर-बाहर आते-जाते मैंने सम्पूर्ण मंदिर को अपने कैमरे में लेने का अथक प्रयास किया। एक एक बारीकियों पर कई छायाचित्र एवं चलचित्र लिए। अब यहाँ से विदा होने का समय हो चला था। किन्तु यहाँ से जाने से पूर्व मैंने इस मंदिर को भारत के अत्यंत दर्शनीय मंदिरों की सूची में अवश्य सम्मिलित कर लिया था।
खिद्रापुर के जैन मंदिर
कोपेश्वर महादेव मन्दिर से २०० मीटर दूर एक छोटा जैन मंदिर है। इसकी वास्तु शैली भी कोपेश्वर मंदिर के सामान है, किन्तु आकार में यह अत्यंत छोटा है। यह मंदिर जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर, आदिनाथ को समर्पित है।
इस मंदिर के शिखर पर रंग-रोगन किया हुआ है तथा उस पर जैन मूर्तियाँ हैं। किन्तु मुख्य मंदिर पत्थर से निर्मित है तथा उस पर भी सुन्दर मदनिकाएं उत्कीर्णित हैं।
मंदिर के समक्ष एक ऊंचा नंदी दीप है।
कोपेश्वर मंदिर कैसे पहुंचे?
खिद्रापुर अपने निकटतम नगर कोल्हापुर से लगभग ७० की.मी. की दूरी पर है। आप यहाँ कर्नाटक के बेलगावी नगर से भी आ सकते हैं।
कोल्हापुर से सड़क मार्ग द्वारा आप २ घंटे में पहुँच सकते हैं। हम प्रातः शीघ्र ही खिद्रापुर के लिए निकले थे। अतः हमें केवल ९० मिनटों का समय लगा।
कोपेश्वर मंदिर के दर्शन के साथ आप पंच गंगा एवं कृष्णा नदी के संगम पर स्थित नरसिंहवाडी एवं जयसिंगपुर के नवीन गणेश मंदिर के भी दर्शन कर सकते हैं। समीप स्थित जैन मंदिर भी अवश्य देखिये।
मैंने कोपेश्वर मंदिर में ६-७ घंटे का समय व्यतीत किया था क्योंकि मैं इस पर मुग्ध हो गयी थी तथा इसका ध्यानपूर्वक अवलोकन करना चाहती थी। साधारणतः आपको इस मंदिर के दर्शन के लिए २ घंटे पर्याप्त होंगे।
मेरी सलाह है कि आप कोपेश्वर मंदिर दर्शन के लिए महाराष्ट्र पर्यटन विकास निगम MTDC अनुमोदित गाइड श्री. शशांक छोटे की सहायता अवश्य लें। आप shashank5889@gmail.com अथवा 88880 05889 पर उनसे संपर्क कर सकते हैं।
यूँ तो मंदिर सूर्योदय से सूर्यास्त तक खुला रहता है। चूंकि यह एक खुला मंदिर है। आप किसी भी समय इसके दर्शन कर सकते हैं।
स्वर्ग मंदिर के भीतर छायाचित्रण की अनुमति है। मंदिर के बाहर सभी स्थान पर आप छायाचित्रण कर सकते हैं। मंदिर के भीतर चित्र खींचने के लिए आप मंदिर के पुजारी अथवा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग से पूर्व-अनुमति प्राप्त कर लें।
Goosebumps, can I use your videos and photos for my paintings/ book/articles?
Rachna – you can use them for paintings. For books and articles, please take explicit written permission by writing to us on our email id.
अनुराधा जी,
अद्भुत…! खिद्रापुर का कोपेश्वर मंदिर वास्तव में अद्भुत वास्तुकला की उत्कृष्ट कृति है । मंदिर निर्माण के लिये उपयोग की गयी विशाल पाषाण शिलाओं को नदियों को पार कर लाया जाना उस समय की जल परिवहन तकनिक की उत्कृष्टता को ईंगीत करता हैं ।इसमें तनिक भी अतिशयोक्ती नहीं कि तत्कालिन शिल्पकारों की शिल्पकारी,उनका ज्यामितीय ज्ञान,उनकी अकल्पनीय परिकल्पना, वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी बेज़ोड़ हैं । उन अनाम शिल्पकारों,कारागीरों को शतश: नमन !
आलेख के साथ विडियो भी लाज़वाब हैं ।
धन्यवाद !
धन्यवाद प्रदीप जी
कोपेश्वर मंदिर का बहेात ही सुदंर जीता जागता सजीव हींदी अनुवाद मधुमीताजी ने किया है. ये सचित्र वर्णन इस आलेख मे चार चांद लगाता है. प्रतीत होता है कि मंदिर परिसर का हम भ्रमण कर रहे हो. मधुमिताजी की उच्च भाषा शैली मे अनुवादित इस वर्णन को मेरा सलाम.लेखक अनुराधाजी भीबहोत प्रंशसा की हकदार है. धन्यवाद.
धन्यवाद दिलीप जी आपके प्रोत्साहन के लिए
कोपेश्वर मंदिर खिद्रापुर – एक अद्भुत वास्तुकला
वाकई आप अपने अद्भुत यात्रा को जो कलमबद्ध करती है वह पढ़कर ही हम उस ऐतिहासिक धरोहर का काफी कुछ आनन्द प्राप्त कर लेते है, हिंदी में अनुवाद भी काबिलेतारीफ है।
यहाँ कलाकार ने अपनी कल्पनाशीलता, धैर्य (तब शायद एक भव्य मंदिर बनाने में ही इन कलाकारों का पूरा जीवन खप जाता होगा) से अपनी कला द्वारा पाषाण में जान डाल दी है। आपकी कल्पना भी लाजवाब है (मैं कल्पना करने लगी, इस वास्तु ने कितने ही गीत-संगीत एवं नृत्य के प्रत्यक्ष अनुभव किये होंगे) वीडियो भी शानदार रहा। घर बैठे ऐसी यात्रा करवाने के लिए आपका धन्यवाद।????????????????
धन्यवाद संजय जी, जो देखते और अनुभव करते हैं, वही आप से साँझा करते हैं
So beautifully written like a poetry with complete justice to the magnificent grandeur of a rich ornamented temple like this. Really inspirational and right benchmark for writing blogs for amateur like myself
धन्यवाद, छोटी सी कोशिश है भारत को भारत से मिलाने की
कोपेश्वर मंदिर के दर्शन कर लिये हों जैसे…
सजीव चित्रण हो गया आंखों के सामने स्वर्ग मंडप व सभा मंडप का तो।
भारतीय संस्कृति, शिल्प, वास्तुशिल्प, विज्ञान का अद्भुत समन्वय….आनंददायक अनुभव
beautifully narrated thru words.
like a virtual tour it was..
धन्यवाद मनोज जी
कोपेश्वर मंदिर के दर्शन कर लिये हों जैसे..
स्वर्ग मंडप, सभा मंडप दोनों ही तो इतने विस्तार से इतनी सूक्ष्मता से समझाते हुए दिखाये आपने।
भारतीय संस्कृति, वास्तुशिल्प, विज्ञान का अद्भुत समन्वय।
गौरवमयी आनंद…
beutifully narrated…
like a virtual trip it was.
स्वर्ग मंडप की खुली गोलाकार छत…
कुछ तो कारण अवश्य रहा होगा।
anyway…
heartily thankful anuradha ji