कुंभ मेला अपने नाम के अनुसार एक पूर्णतय: भरे घड़े के सामान है। इसके भीतर वास्तव में क्या है इसकी व्याख्या करना कठिन है। आप जितना अधिक इसे देखेंगे, अनुभव करेंगे तथा इसमें भाग लेंगे, यह और अधिक उजागर होता जाता है। आप इसे चाहे जितने दृष्टिकोण से देख लें, आपकी सूची समाप्त नहीं होगी।
यद्यपि कुंभ मेले का आयोजन कब आरम्भ हुआ, यह कोई नहीं जानता। तथापि कुंभ मेले का सर्वविदित इतिहास अवश्य है। ज्ञात प्राचीनतम अभिलेखों के अनुसार हम कह सकते हैं कि यह प्रथा कम से कम ३००० वर्षों से चली आ रही है।
कुंभ मेला क्या है?
कुंभ मेला एक उत्सव है जो भारत में ४ स्थानों, हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन एवं नासिक में प्रत्येक १२ वर्षों पश्चात मनाया जाता है। हरिद्वार एवं प्रयागराज में दो कुंभ मेलों के मध्य अर्ध-कुंभ मेला भी आयोजित किया जाता है। इस प्रकार प्रत्येक १२ वर्षों में कुल मिलाकर ६ कुंभ मेलों का आयोजन किया जाता है।
प्रयागराज में जहां गंगा, यमुना एवं सरस्वती, इन तीन नदियों का पवित्र संगम है, वहीं कुंभ लगता है। इस संगम को त्रिवेणी संगम कहा जाता है। जिस धरती पर मेले का आयोजन किया जाता है वह इन नदियों का बाढ़प्रवण क्षेत्र है। ऐसा कहा जा सकता है कि इस समय ये नदियाँ पीछे हटकर इस धरती को उजागर करती हैं। यही कुंभ हरिद्वार में गंगा किनारे हर की पौड़ी में, उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तीर तथा नासिक में गोदावरी नदी के घाट पर किया जाता है।
इन नदियों के पवित्र जल में स्नान कुंभ मेले का एक आवश्यक तत्व है।
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जिस समय यह संस्मरण लिखा जा रहा है, प्रयागराज में अर्ध-कुंभ मेला धूमधाम से आयोजित किया जा रहा है।
कुंभ मेले की तिथियाँ
प्रयागराज में कुंभ मेला मकर संक्रांति से आरंभ होकर महाशिवरात्रि में समाप्त होता है। अर्थात् प्रयागराज में कुंभ मेला १४ जनवरी, २०१९ से ४ मार्च, २०१९ तक मनाया जायेगा।
कुंभ स्नान की तिथि सारिणी
कुंभ की महत्वपूर्ण तिथियाँ उन्हें कहते हैं जब साधू-सन्यासी त्रिवेणी संगम के पवित्र जल में डुबकी लगाकर शाही स्नान करते हैं। २०१९ की वह महत्वपूर्ण तिथियाँ इस प्रकार हैं:
मकर संक्रांति – १३ जनवरी
पौष पूर्णिमा – २१ जनवरी
मौनी अमावस्या – ४ फरवरी
बसंत पंचमी – १० फरवरी
माघ पूर्णिमा – १९ फरवरी
महाशिवरात्रि – ४ मार्च
यदि आप इन शाही स्नान की तिथियों में प्रयागराज यात्रा का कार्यक्रम बनाएं तो यह स्मरण रखिये कि इन तिथियों में यहाँ अत्यधिक भीड़ की संभावना होती है। मैंने दो शाही स्नान के मध्य अपनी यात्रा नियोजित की थी।
कुंभ मेला – सर्व जनमानस का उत्सव
कुंभ मेले से कई किवदंतियां जुड़ी हुई हैं। सागर मंथन की घटना इनमें प्रमुख है। हिन्दू धर्म में कुंभ मेले एवं शाही स्नान को अत्यंत पवित्र माना है। भारत के सर्व मूल धार्मिक पंथों के लगभग सभी साधू-संतों ने कुंभ मेले के दर्शन किये हैं। यह सब कहने के पश्चात मैं यह भी कहना चाहूंगी कि धार्मिक विश्वासों एवं आध्यात्मिकता के साथ कुंभ के अन्य मायने भी हैं। कुंभ जनमानस को जोड़ने वाला एक अत्यंत महत्वपूर्ण सम्मलेन है। यह पूर्ण रूप से मानवता का उत्सव है। यह उस जनमानस का अनुष्ठान है जो समान विश्वासों एवं इतिहासों में आस्था रखते हैं तथा जो साथ चलना और आगे बढ़ना चाहते हैं।
कुंभ मेले में भाग लेने के लिए कोई किसी को आमंत्रित नहीं करता। साधू-संत एवं श्रद्धालु जनमानस हिन्दू पञ्चांग के अनुसार इन चार कुंभ मेलों की तिथियों की जानकारी रखते हैं। समय आने पर वे सब वहां पहुँच जाते हैं। यहाँ तक कि महामारी, प्रतिबंधित परिस्थिति, युद्ध अथवा आपातकालीन स्थिति में भले ही श्रद्धालुओं की उपस्थिति किंचित घटी होगी किन्तु मेला अनवरत लगता रहा है।
अतः आमंत्रण की प्रतीक्षा ना करें। इच्छाशक्ति को झकझोरें एवं कुंभ पहुँच जाएँ।
यहाँ किसी व्यक्ति की किसी भी आधार पर जांच अथवा छंटनी नहीं की जाती। कोई भी यहाँ आकर कुंभ मेले में भाग ले सकता है। हाँ, यदि यहाँ आकर कोई किसी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न करने का प्रयास करे तो उसके लिए प्रवेश निषेध हो सकता है।
कुंभ संचालित आयोजन नहीं!
कुंभ किसी प्रकार का संचालित आयोजन नहीं है। यद्यपि सरकारी संस्थाएं इसके व्यस्थापन का दायित्व निभातीं हैं, तथापि वे इस मेले के आयोजक एवं आमंत्रणकर्ता नहीं हैं। यह जनता के लिए, जनता द्वारा आयोजित एक सार्वजनिक समारोह है।
कुंभ मेला पूर्णतः निःशुल्क है। यहाँ पहुँचने के पश्चात यहाँ की किसी भी गतिविधि में भाग लेने के लिए किसी प्रकार का टिकट नहीं है।
यदि आप चाहें तो आपको खाना एवं रहने की सुविधायें भी निःशुल्क उपलब्ध हो सकती हैं।
कुंभ मेले का विडियो
प्रयागराज में २०१९ के कुंभ मेले की एक झलक इस विडियो में देखें:
साधू एवं संतों का पर्व
कुंभ मेला वास्तव में हिन्दू धर्म में आस्था रखने वाले साधुओं की धार्मिक सभा है। १३ अखाड़ों एवं कई सम्प्रदायों के सभी साधुगण कुंभ मेले में आते हैं। वे यहाँ आकर तम्बुओं में अस्थायी आश्रय बनाते हैं तथा अन्य साधुओं व श्रद्धालुओं के संग निवास करते हैं।
कुंभ में साधू-संत आपस में भेंट करते हैं, वाद-विवाद करते हैं तथा प्रासंगिक विषयों पर चर्चा करते हैं जिनमें राजनैतिक विषय भी सम्मिलित हो सकते हैं। इस महासम्मेलन का उपयोग करते हुए कई नवीन साधुओं को समुदाय में सम्मिलित किया जाता है तथा कई साधुओं की पदोन्नति भी की जाती है। वे जनसमूह से संबोधित होते हुए विभिन्न विषयों पर व्याख्यान देते हैं, कथा व कीर्तन करते हैं तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन करते हैं। मैंने ऐसे ही एक सांस्कृतिक कार्यक्रम, कवि सम्मलेन देखा था। वहां बाबा रामदेव एवं स्वामी श्रद्धानंद भी उपस्थित थे तथा उन्होंने भी हम दर्शकों के साथ कवि सम्मलेन में भाग लिया था।
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मैंने कई ऐसे साधू-संतों को देखा जिन्हें अन्यथा देखना अथवा भेंट करना कठिन है। कुंभ मेले में इनसे आसानी से भेंट की जा सकती है। मुझे भी ऐसे ही एक संत से भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वे थे, भारत के प्राचीनतम अखाड़े, महानिर्वाणी अखाड़े के महामंडलेश्वर स्वामी विशोखानंद जी। मैंने उनके संगत में लगभग ३० मिनट व्यतीत किये। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ३० मिनट उनके व्याख्यान को सुनना मेरे लिए अत्यंत अनमोल अनुभव था।
आप इन साधुओं से अवश्य भेंट कीजिये किन्तु स्मरण रहे कि आप आदर की सीमा को कभी ना लांघें। यदि आप उनसे सहमत ना हों तब भी! यदि आप रिक्त पात्र की भान्ति कुंभ में जायेंगे तो मेरा दावा है कि आप उनकी बुद्धिमत्ता एवं ज्ञान के भण्डार से भरा पात्र लेकर वापिस लौटेंगे।
न्यूनतमवादी रहें
कुंभ मेला न्यूनतमवाद की एक महत्वपूर्ण सीख है। एक ओर आप कई नागा साधुओं को देखेंगे जो वस्त्र तक धारण नहीं करते तथा न्यूनतमवाद की पराकाष्ठा हैं। वहीं दूसरी ओर कई ऐसे तीर्थयात्री थे जो अपना सब सामान अपने सर पर उठाये मेले में भ्रमण कर रहे थे। अधिकतर यात्री तम्बुओं में आश्रय लिए हुए थे जो प्रयागराज में गंगा व यमुना के संगम पर स्थित बाढ़प्रवण क्षेत्रों में खड़े किये जाते हैं।
न्यूनतमवाद का एक उदाहरण कल्पवासी हैं जो यहाँ ३० से ४० दिवसों तक निवास करते हैं तथा दिन में एक ही भोजन पर निर्भर रहते हैं। वे अपना सम्पूर्ण समय आध्यात्मिक गतिविधियों में व्यतीत करते हैं। मैंने यहाँ अधिकतर श्रद्धालुओं को पैदल ही भ्रमण करते देखा। अन्यथा ई-रिक्शा की सुविधाएं यहाँ हर ओर उपलब्ध थी।
यद्यपि यहाँ आवश्यकता की हर सुविधाएं उपलब्ध हैं। तथापि, आप जब यहाँ आयें, न्यूनतमवाद की संकल्पना ध्यान में रखें। यह एक अवसर है यह जानने का कि हम कितनी वस्तुएं अथवा सुविधाएं त्याग कर भी आनंद से जी सकते हैं।
पैदल चलें तथा कुंभ का अनुभव करें!
आप यदि कुंभ का सच्चा आनंद उठाना चाहते हैं तो हर ओर पैदल विचरण करिये। कुंभ के तत्व को समझने का यह कारगर साधन है। हर गतिविधि का ध्यानूर्वक निरिक्षण कीजिये। हो सकता है आपको कोई नवीन एवं अनोखी घटना दिख जाये। मुझे हर ओर कुछ नवीन दृश्य दिखाई पड़ रहा था। उदाहरणतः मैंने एक छोटी सी नटी कन्या को खम्बों के मध्य बंधी रस्सी पर चलते देखा। अब तक यह दृश्य मैंने चलचित्रों में देखा था। जिस तथ्य ने मुझे अत्यंत प्रभावित किया वह यह कि प्रदर्शन के अंत में दर्शकों ने ना केवल उसे सराहना करते हुए पैसे दिए, अपितु उस कन्या के चरण स्पर्श भी किये।
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कुंभ का अनुभव करने के लिए नदी के किनारे पैदल भ्रमण करिये, कुंभ नगरी की सडकों पर टहलिये, अखाड़ों के भीतर झांकिये, नदी पार करिये, नगर का भ्रमण कीजिये, दुर्ग के भीतर चलिये एवं मंदिरों तक पदभ्रमण करिये।
समय-सीमा में ना बंधें!
कुंभ मेला एक निराला स्थान है। यहाँ सब गतिमान है किन्तु तभी, जब वह चाहे! यहाँ किसी भी कार्यक्रम अथवा घटनाक्रम की कोई समयसारिणी नहीं है। इसका जीवंत उदाहरण आप अधिकतर सांस्कृतिक कार्यक्रम की सूचना पताका पर देख सकते हैं जहां समय का कोई उल्लेख आपको नहीं मिलेगा। यदि समय सूचित भी किया गया हो तो वह परिवर्तनशील होता है। सब कार्यक्रम शुल्करहित हैं। कदाचित इसी कारण समय के बंधन का पालन नहीं होता। अथवा इसका यह कारण भी हो सकता है कि भक्तगण अन्यथा भी कुंभ में पूर्ण समय उपस्थित रहते हैं तथा यहाँ दिन एवं रात्रि में अंतर प्रतीत ही नहीं होता। अतः समय का थोडा हेरफेर किसी के ध्यान में नहीं आता। भक्तगण तो आध्यात्म के आनंद में सराबोर कुंभ के विभिन्न कार्यकलापों में भाग लेते रहते हैं।
शहरी आधुनिक यात्रियों के लिए हो सकता है यह सहज ना हो। किन्तु एक दिन के पश्चात वे भी कुंभ के रंग में रंग जाते हैं। तदनंतर कुंभ के ताल पर स्वयं को ढालकर वे भी आनंदमय होने लगते हैं। प्रथम दिवस मैंने भी स्वयं को इस असमंजस की स्थिति में पाया था। मेरी भी प्रथम दिवस के नियोजित कार्यक्रमों की सूची धाराशायी हो गयी थी। दूसरे दिन मैंने कोई सूची नहीं बनायी। मेरी सहज बुद्धी मुझे जहां ले जाती गयी, मैं वहां चलती गयी। इस प्रकार मैं कुंभ का सही मायनों में आनंद उठा सकी।
क्या कुंभ अव्यवस्थित एवं अक्रम है?
कदापि नहीं! यद्यपि कुंभ मेला विश्व का सर्वाधिक जनाकीर्ण स्थान है। इसमें भाग लेनेवालों की संख्या विलक्षण एवं अकल्पनीय है। इसका विश्वास यहाँ आकर ही हो सकता है। इतनी बड़ी संख्या में जब जनमानस उपस्थित हो तब कुछ अव्यवस्था स्वाभाविक है। किन्तु क्या यह समस्याजनक है? इसका भी उत्तर ‘नहीं’ ही है।
यहाँ कोई उतावला प्रतीत नहीं होता। प्रथम दिवस मैं आकुल थी। शीघ्रता से भ्रमण सम्पूर्ण करना चाह रही थी। आतुर थी कि कहीं कुछ छूट ना जाये। किन्तु एक ही दिवस में मुझे अनुभव हो गया कि मैं चाहे जितना हड़बड़ी करूँ, एक दिन में एक छोटे से भाग का ही दर्शन कर सकती हूँ। अतः मैंने भी अपनी गति अन्य श्रद्धालुओं की गति से मिला ली। चलते चलते कुछ अद्भुत दृष्टिगोचर होता तो रुक जाती। भूख लगती तो कभी ठेले पर तो कभी छोटी छोटी दुकानों से कुछ ले लेती। कभी भंडारे पर जाकर संगी तीर्थयात्रियों के संग खाना खा लेती। उनके संग बतियाने में भी आनंद आता था। दूसरों के जीवन के विषय में कल्पना प्राप्त हो जाती थी। जीवन को देखने व जीने के नवीन आयामों की भी जानकारी मिल रही थी।
विश्वास कुंभ का आधार है। श्रद्धालु एक दूसरे पर विश्वास करते हुए निर्भय होकर विचरण कर रहे थे।
भीड़ में अकस्मात् ही संगीत लहरी बिखरने लगती हैं। कहीं साधुओं की शोभायात्रा निकलती तो कहीं भजन गाते एवं नाचते इस्कोन के अनुयायियों का जुलूस निकालता तो कहीं झांकियां दिखाई पड़ जाती हैं।
कुंभ मेले में कहाँ ठहरें?
नदियों द्वारा बनाए गए बाढ़प्रवण धरती पर कुम्भ नगरी बसाई जाती है। कुंभ मेले में भ्रमण के समय, परंपरागत रूप से, तीर्थयात्रियों को नदी के तट पर निर्मित मेले के इन्ही आश्रयों में निवास करना चाहिए। किन्तु श्रद्धालुओं का अपने सगे-सम्बन्धियों के साथ अथवा मेले के समीप किसी अतिथिगृह में ठहरना भी सामान्य है। ज्यों ज्यों कुंभ में तीर्थयात्रियों की संख्या में वृद्धी हो रही है, उनके आश्रय के लिए कई नवीन सुविधाएं भी निर्मित की गयी हैं।
आधुनिक शहरी यात्रियों के लिए सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण तम्बुओं का भी प्रावधान है। यह कुंभ मेले के एक छोर पर निर्मित किये गए हैं। यहाँ उनकी आवश्यकता के सभी विशेष साधन उपलब्ध हैं। यहाँ स्नान के लिए घाट में भी पृथक व्यवस्था है। यदि आप मेले के तम्बुओं में ना रहना चाहें तो प्रयागराज नगरी में भी अतिथिगृह हैं। किन्तु मेले के समयावधि में ये किंचित महंगे हो सकते हैं।
यूँ तो श्रद्धालुओं के लिए कुंभ नगरी में सर्व आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध हैं। मैंने एक विशाल तम्बू देखा जहां लगभग ३०० चारपाईयां बिछी हुई थीं। यहाँ आप १००/- रुपये प्रति रात्री की दर से चारपाई एवं बिछोना ले सकते हैं। जो यात्री खर्च करने में असमर्थ हैं उनके लिए निःशुल्क रैन बसेरे का भी प्रबंध है। इनके सिवाय अखाड़ों एवं आश्रमों में भी ठहराने की सुविधाएं हैं। सभी कल्पवासी प्रबंधन द्वारा प्रदत्त तम्बुओं में डेरा डालते हैं।
कुंभ मेले में भोजन सुविधायें
कुंभ मेले में खाने पीने की भरमार है। समझ नहीं आता क्या खायें एवं क्या छोड़ें! यह सर्व विदित है कि मेले में केवल शुद्ध शाकाहारी भोजन ही उपलब्ध होता है।
विभिन्न आश्रम अपने भंडारे चलाते हैं जहां निःशुल्क भोजन उपलब्ध है। आवश्यक नहीं है किन्तु आप चाहें तो आश्रम को कुछ दान में दे सकते हैं। गरीबों को भोजन उपलब्ध कराने के लिए भी दान दे सकते हैं।
इनके अलावा छोटी छोटी दुकानें हैं जहां अल्पाहार एवं भोजन उपलब्ध हैं। ठेलों पर देशी अल्पाहार जैसे भुनी मूंगफली, भुना चना, भेलपूरी, चाट इत्यादि भी बिकते हैं। चाय तो यहाँ हर ओर उपलब्ध है। यहाँ तक कि आप किसी साधू से बतियाने बैठ गए तो मिनटों में आपको चाय परोसी जायेगी।
सुख-सुविधाओं से लैस वी आई पी घाटों, जैसे अरैल घाट पर कफ़े एवं रेस्तरां की कई सुविधाएं हैं।
भिन्न भिन्न विश्वों का मिलाप
कुंभ मेला एक ऐसा आयोजन है जहां विश्व के कोने कोने से त्यागी आते हैं तथा सांसारिक लोगों से ज्ञान का भण्डार बाँटते हैं। वहीं सांसारिक तीर्थयात्री यहाँ आकर कुछ समय सन्यासी का जीवन व्यतीत करते हैं। यह ऐसा स्थान है जहां दो विश्वों का आमना-सामना होता है। भिन्न विचारों का आदान-प्रदान होता है। यहाँ मानवता का अनोखा संगम होता है।
यहाँ आकर भरपूर भ्रमण कीजिये, अपने से भिन्न श्रद्धालुओं एवं यात्रियों से भेंट करिये तथा उनके जीवन को समझने का प्रयास करिये। जहां तीन नदियाँ मिलकर प्रयागराज की धरती को संपन्न बनाती हैं, उस स्थान पर विचारों का आदान-प्रदान हमें आध्यात्मिक रूप से संपन्न बनाते हैं।
यहाँ आकर स्वयं को भाग्यवान एवं धन्य अनुभव करना सामान्य है।
अनुराधा जी,
वाह..क्या बात है ! सुंदर आलेख ! लगभग तीन वर्षों पूर्व उज्जैन में सम्पन्न हुए “सिंहस्थ” की स्मृतियाॅं जिवंत हो उठीं ! आपने सही कहा हैं इन विशाल आयोजनों मे असंख्य संत-महात्मा तथा श्रद्धालु बिना किसी आमंत्रण के ही सम्मिलित होते हैं । वास्तव में यहीं हमारी सांस्कृतिक धरोहर भी हैं । लेकिन हमें ऐसे समय स्थानीय निवासीयों, शासकिय कर्मचारीयों, स्थानीय प्रशासन और सूबे की सरकारों को भी नहीं भुलना चाहिये जिनके अथक अनवरत प्रयासो के कारण ही ऐसे विशाल आयोजनों की सफल पूर्णता होती हैं ।
सुंदर आलेख हेतु अनेक अनेक धन्यवाद !
प्रदीप जी – सही कहा आपने, नगरवासी, प्रशासन और सरकार का योगदान तो सबसे सर्वोपरि है।
कुम्भ में घूमना अपने आप मे ही आनन्दायक अनुभव होता है हमे हमारे अतिप्राचीन संस्कृति से साक्षात्कार करवाता है और साधूओं के अकल्पनीय योग, तरह तरह के साधु के दर्शन होते है और ये सिर्फ कुम्भ में ही देखना सम्भव हैं। आपने कुम्भ का नए यात्री के लिए बहुत ही अच्छा मार्गदर्शन किया है। मैं भी उज्जैन के पिछले दो कुम्भ का भृमण कर चुका हूँ, जिसका अपना ही मजा है????
संजय जी, यह मेरा प्रथम कुम्भ अनुभव था, पर आशा है अगला महाकाल की नगरी का कुम्भ देखने का सौभाग्य प्राप्त होगा।