भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर- कलिंग स्थापत्यशैली की उत्कृष्ट कृति

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भुवनेश्वर के लिंगराज मंदिर से मेरा सर्वप्रथम परिचय राष्ट्रीय संग्रहालय में आयोजित ‘भारतीय कला’, इस विषय के अध्ययनकाल में हुआ था। इस पाठ्यक्रम के अंतर्गत, मंदिर निर्माण की उत्तर भारतीय नागर स्थापत्यशैली पर दिए गए व्याख्यान में जिस मंदिर को इस शैली में निर्मित सर्वोत्तम कृति के रूप में प्रस्तुत किया गया था, वह था भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर। जब व्याख्याता इस भव्य मंदिर के सभी आयामों एवं तत्वों का विस्तृत विवरण दे रहे थे, मेरे भीतर इस मंदिर के दर्शन करने की अभिलाषा जन्म ले रही थी। कुछ ही वर्षों में मेरी यह अभिलाषा पूर्ण भी हुई।

लिंगराज मंदिर भुवनेश्वर
लिंगराज मंदिर भुवनेश्वर

प्रथम दर्शन में भुवनेश्वर के भव्य लिंगराज मंदिर एवं उसके विस्तृत संकुल के आकार अचंभित कर देते हैं। हमारे परिदर्शक हमें सर्वप्रथम उस ऊँचे चबूतरे पर ले गए जहाँ से मंदिर का सम्पूर्ण परिदृश्य दृष्टिगोचर होता है। यह चबूतरा ब्रिटिश शासकों के लिए निर्मित किया गया था जिन्हें मंदिर के भीतर जाने की अनुमति नहीं थी। जी हाँ, यह उन कुछ मंदिरों में से एक है जहाँ केवल हिन्दू धर्म के अनुयायियों को ही भीतर जाने की अनुमति दी जाती है। इस चबूतरे से सम्पूर्ण मंदिर संकुल का विहंगम दृश्य दिखाई देता है जो संकुल के भीतर प्रवेश करने के पश्चात संभव नहीं होता है।

यहाँ से जो दृश्य दिखाई देता है, उसके केंद्र में एक विशाल मंदिर स्थित है जिसके चारों ओर अनेक छोटे मंदिर हैं। बड़ी संख्या में भक्तगण परिसर में एक मंदिर से दूसरे मंदिर में आते-जाते दिखाई पड़ते हैं।

लिंगराज मंदिर का इतिहास

ओडिशा में चार प्रमुख पवित्र क्षेत्र हैं। उनके नाम शंख, चक्र, गदा एवं पद्म हैं जो महाविष्णु के चार आयुधों द्वारा प्रेरित हैं। भुवनेश्वर चक्र क्षेत्र में स्थित है। इसे एकाम्र क्षेत्र भी कहा जाता है जो आम के वृक्ष की ओर संकेत करता है। इसका अर्थ कदाचित यह है कि मूल मंदिर आम के एक वृक्ष के नीचे स्थित था। आपको स्मरण होगा कि कांचीपुरम में भी एकाम्बरेश्वर नामक एक शिव मंदिर है।

लिंगराज मंदिर का निर्माण किसने किया?

प्रारंभिक साक्ष्यों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण ७वीं सदी के आरम्भ में केशरी राजाओं ने करवाया था। वहीं मंदिर के प्रमुख भागों का दिनांकन ११वीं शताब्दी किया गया है जिन्हें सोमवंशी राजा ययाति केशरी ने तब बनवाया था जब उन्होंने अपनी राजधानी जाजपुर से भुवनेश्वर स्थानांतरित की थी।

दर्शक दीर्घा से लिंगराज मंदिर का दृश्य
दर्शक दीर्घा से लिंगराज मंदिर का दृश्य

यह मंदिर स्थापत्य शैली का वह स्वर्णिम काल था जब खजुराहो के कंदरिया महादेव मंदिर एवं तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर जैसे सर्वोत्कृष्ट मंदिरों का निर्माण किया गया था।

लिंगराज मंदिर – नागर स्थापत्य शैली

भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर विश्व के विशालतम हिन्दू मंदिरों में से एक है। इसका परिसर ५२० फीट लम्बा तथा ४६५ फीट चौड़ा है। यह एक पूर्वाभिमुख मंदिर है जिसके निर्माण में बलुआ पत्थरों एवं लेटराइट पत्थरों का प्रयोग किया गया है।

लिंगराज मंदिर का शिखर
लिंगराज मंदिर का शिखर

विशिष्ट कलिंग नागर स्थापत्य शैली अथवा देउल शैली में निर्मित इस मंदिर में इस शैली के सभी तत्व उपस्थित हैं। इस मंदिर की सर्वोच्च संरचना है, इसका गर्भगृह अथवा विमान। ऊँचाई के मापदंड में दूसरे क्रमांक पर इसका मंडप अथवा जगमोहन है तथा तीसरे क्रमांक पर नाट्यमंडप है। चौथे क्रमांक पर भोग मंडप है। इन सभी संरचनाओं की छतें इसी घटते क्रमांकानुसार हैं।

मंदिर के चारों ओर ऊँची भित्तियाँ हैं जिन्हें प्राकार कहा जाता है। मंदिर परिसर के भीतर लगभग १५० छोटे मंदिर भी हैं। स्थानीय तीर्थ के अनुसार यहाँ सभी तीर्थों की परंपराओं का पालन किया जाता है। इसका अर्थ है कि यह एक राजसी मंदिर होने के साथ साथ एक पवित्र तीर्थ भी है। भगवती का मंदिर परिसर के उत्तर-पश्चिमी कोने में स्थित है। मैंने यहाँ अनेक प्राचीन शिवलिंग भी देखे थे। परिसर में कई मुक्तांगन हैं जहाँ बैठकर भक्तगण कुछ क्षण विश्राम कर सकते हैं।

मंदिर का शिखर अथवा अधिरचना १८० फीट ऊँचा है जिसे १२ शार्दुल उठाये हुए हैं। शिखर पर किया गया जटिल एवं सघन उत्कीर्णन मंदिर इतिहासकारों को भी अचंभित कर देता है। शिखर के सभी शिलाखंडों का एक एक बिंदु उत्कीर्णित है। प्रत्येक शिलाखंड अनेक कथाएं प्रस्तुत करता है।

मंदिर प्रवेशद्वार के दोनों ओर सिन्हाकृतियाँ उत्कीर्णित है जिसके कारण इस द्वार का नामकरण सिंहद्वार किया गया है।

देवी पदहरा कुण्ड

मंदिर के समक्ष देवी पदहरा कुण्ड है जहाँ तक पहुँचने के लिए कुछ सीढ़ियाँ उतरनी पड़ती हैं। इसके चारों ओर अनेक छोटे मंदिर एवं कई अति-लघु मंदिर हैं।

देवी पदहरा कुण्ड
देवी पदहरा कुण्ड

कुण्ड के उस पार एक सार्वजनिक उद्यान है जहाँ एक उंचा चबूतरा है। आप जब भी इस मंदिर में आयें, इस चबूतरे पर अवश्य चढ़ें। यहाँ से सम्पूर्ण मंदिर एवं कुण्ड का अप्रतिम विहंगम दृश्य दिखाई पड़ता है।

देवी पदहरा कुंड का सूचना पट्ट
देवी पदहरा कुंड का सूचना पट्ट

यह मंदिर से केवल १००-१५० मीटर की दूरी पर ही है। इसलिए यहाँ आना ना भूलें। अन्यथा आप एक अद्भुत दृश्य से वंचित रह जायेंगे।

अवश्य पढ़ें: भुवनेश्वर के प्राचीन मंदिर – ओडिशा की धरोहर

लिंगराज

लिंगराज का शाब्दिक अर्थ है लिंगों के राजा। यह एक शिव मंदिर है किन्तु यहाँ भगवान शिव के हरिहर रूप की आराधना की जाती है। हरिहर भगवान शिव एवं भगवान विष्णु का संयुक्त रूप है। मंदिर के लिंग पर एक रेखा खिंची हुई है जो यह दर्शाती है कि यह दो देवताओं का संयुक्त रूप है। इस तत्व का संकेत मंदिर के शीर्ष पर फहराते ध्वज पर भी दिखाई देता है जो त्रिशूल अथवा चक्र के ऊपर स्थित ना होकर एक पिनाकी धनुष के ऊपर स्थित है। उसी प्रकार, इस मंदिर में भगवान को बिल्व पत्र एवं तुलसी दोनों चढ़ाए जाते हैं।

ग्रेनाइट पत्थर द्वारा निर्मित लिंग का व्यास लगभग ८ फीट है जिस पर कोई भी उत्कीर्णन नहीं किया गया है। यह भूमि से लगभग ८ इंच उंचा है। इसके चारों ओर काले क्लोराइट पत्थर की योनी है। इसे त्रिभुवनेश्वर भी कहा जाता है। अर्थात् तीन विश्वों के ईश्वर। इसका एक अन्य नाम है, क्रितिबासा।

कुण्ड से लिंगराज मंदिर का दृश्य
कुण्ड से लिंगराज मंदिर का दृश्य

मंदिर के लिंग को स्वयंभू लिंग माना जाता है। यह भारत के ६४ प्रमुख शिव क्षेत्रों में से एक है। कहा जाता है कि यह लिंग द्वापर एवं कलियुग में ही प्रकट हुआ है। ऐसा भी माना जाता है कि समीप स्थित बिन्दुसागर जलाशय में उस नदी का जल भरता है जिसका उद्गम इस मंदिर के नीचे से हुआ है।

परंपराओं के अनुसार जगन्नाथ पुरी की यात्रा इस एकाम्र क्षेत्र के दर्शन के अभाव में अपूर्ण मानी जाती है। यहाँ तक कि चैतन्य महाप्रभु ने भी पुरी के दर्शन से पूर्व इस परंपरा का पालन किया था।

एकाम्र कानन

पौराणिक कथाओं के अनुसार एकाम्र कानन अथवा आम का उद्यान भगवान शिव को अत्यंत प्रिय था। एकाम्र कानन उन्हें काशी से भी अधिक भाता था। यह सत्य उन्होंने देवी पार्वती के साथ साझा की। तब देवी के मन में भी इस स्थान के दर्शन की अभिलाषा उत्पन्न हुई। उन्होंने एक गोपिका के रूप में इस क्षेत्र में प्रवेश किया। जब वे इस एकाम्र क्षेत्र में विचरण कर रही थीं, तब कृति व बासा नाम के दो दैत्यों ने उनका पीछा किया। देवी के अप्रतिम रूप पर मोहित होकर उन्होंने देवी से विवाह करने की इच्छा जताई। देवी ने लजाते हुए सर्वप्रथम उनसे उन्हें अपने कन्धों पर उठाने का आग्रह किया। देवी के मूल रूप से अज्ञान दोनों दैत्य सहर्ष तत्पर हो गए। देवी को उठाते ही उनके भार के नीचे दबकर दोनों दैत्यों के प्राणपखेरू उड़ गए।

इस घटना के पश्चात पार्वती देवी को हुई तृष्णा को शांत करने के लिए भगवान शिव ने बिन्दुसागर जलाशय की रचना की तथा उसके जल से देवी की तृष्णा शांत की। ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव ने सभी पवित्र नदियों एवं जलाशयों के जल से अनुरोध किया था कि वे बिन्दुसागर जलाशय में आयें। कहा जाता है कि गोदावरी नदी को छोड़ सभी अन्य नदियों ने भगवान शिव के अनुरोध को स्वीकार किया। इसके कारण गोदावरी नदी शापित हो गयी। उन्हें इस श्राप से तभी मुक्ति मिली जब उन्होंने भगवान शिव एवं देवी पार्वती की आराधना की।

बिन्दुसागर जलाशय

भुवनेश्वर में तीर्थ यात्रा बिन्दुसागर जलाशय के जल में स्नान कर के आरम्भ की जाती है। संक्रांत अथवा ग्रहण के दिवसों में इसके जल में स्नान करने का विशेष महत्त्व है। उसके पश्चात ही भक्तगण अनंत वासुदेव के दर्शन करते हैं जो इस क्षेत्र के अधिष्ठात्र देव हैं। उनके परिवार के सभी सदस्यों के दर्शन करने के पश्चात वे परमपूज्य त्रिभुवनेश्वर भगवान के लिंगराज मंदिर में प्रवेश करते हैं। इस मंदिर के विभिन्न अनुष्ठानों का विस्तृत विवरण ब्रह्म पुराण में दर्शाया गया है।

बिंदु सागर सरोवर
बिंदु सागर सरोवर

जगन्नाथ पुरी मंदिर के ही समान इस मंदिर का प्रसाद भी बेंत की छोटी टोकरियों में दिया जाता है। सामान्यतः शिव मंदिरों में प्रसाद देने की प्रथा नहीं होती है। चूँकि इस मंदिर में भगवान विष्णु भी विराजमान है, उन्हें प्रसाद अर्पित किया जाता है।

मंदिर के नियमों के अनुसार यहाँ सम्पूर्ण दिवस में २२ विभिन्न अनुष्ठान किये जाते हैं जिनमें जल, दुग्ध तथा भांग आदि से अभिषेक, आरती तथा भोग सम्मिलित हैं। ये अभिषेक प्रातः उन्हें निद्रा से उठाने से आरम्भ होकर उनके शयन पर समाप्त होते हैं।

लिंगराज मंदिर के विभिन्न उत्सव

शिव मंदिर होने के कारण महाशिवरात्रि इस मंदिर का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उत्सव है। यह उत्सव इस मंदिर में सर्वाधिक धूमधाम से मनाया जाता है। भक्तगण भगवान लिंगराज की भक्ति में व्रत रखते हैं, उन्हें बेल पत्तियाँ अर्पित करते हैं तथा उनका अभिषेक करते हैं। इस दिन एक महादीप प्रज्ज्वलित किया जाता है।

श्रावण का पावन मास भगवान शिव के भक्तों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। इस मास में बोल बम नाम के भक्त महानदी से जल लाकर भगवान शिव को अर्पित करते हैं। वे उत्तर भारत के कांवड़ियों से समानता रखते हैं।

प्राकार से लिंगराज मंदिर
प्राकार से लिंगराज मंदिर

अशोक अष्टमी अथवा चैत्र शुक्ल अष्टमी के दिन रथ यात्रा या रथोत्सव का आयोजन किया जाता है। इस दिन मंदिर से लिंगराज एवं रुक्मिणी की मूर्तियाँ भुवनेश्वर के ही प्राचीन रामेश्वर मंदिर के दर्शन के लिए जाती हैं। यह उस परंपरा का पालन है जिसके अंतर्गत नगर के प्राचीनतम देव प्रतिमा के दर्शन करने के लिए वे मूर्तियाँ आती हैं जो अपेक्षाकृत नवीन हैं तथा अब अधिक महत्वपूर्ण हो गयी हैं।

चन्दन यात्रा २२ दिवसों का उत्सव होता है जहाँ भक्तों को चन्दन दिया जाता है। भगवान के विग्रह, पुरोहितजी एवं मंदिर के सभी कर्मचारी अपने शरीर पर चन्दन का लेप लगाकर बिन्दुसागर के जल में स्नान करते हैं।

सुन्यान दिवस का आयोजन भाद्रपद मास में किया जाता है। इस उत्सव में मंदिर से सम्बंधित सभी व्यक्ति मंदिर के प्रति अपनी निष्ठा का प्रण लेते हैं। मेरे अनुमान से इतिहास के किसी कालखंड में यह राजसी प्रथा प्रचलित रही होगी।

यात्रा सुझाव

  • इस मंदिर में केवल हिन्दू धर्म के अनुयायियों को ही प्रवेश करने की अनुमति दी जाती है। अन्य दर्शनार्थी अथवा पर्यटक दर्शक दीर्घा से मंदिर के दर्शन कर सकते हैं।
  • आदर्श स्वरूप भक्तगणों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे मंदिर में दर्शन के लिए आने से पूर्व स्नान आदि से स्वच्छ होकर आयें। वे धार्मिक अथवा किसी भी अन्य प्रकार से मंदिर को अपवित्र ना करें।
  • मंदिर में दर्शन का समय प्रातः ६ बजे से दोपहर १२ बजे तक तथा संध्या ३:३० बजे से रात्रि ९ बजे तक का है।
  • मंदिर के भीतर छायाचित्रीकरण की अनुमति नहीं है। मंदिर के भीतर मोबाइल फोन ले जाने की भी अनुमति नहीं है।
  • यह मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधिकार क्षेत्र में आता है किन्तु इसका प्रबंधन मंदिर न्यास समिति करती है।
  • सामान्यतः सम्पूर्ण मंदिर परिसर के दर्शन के लिए २ घंटों का समय पर्याप्त है। यह अवधि भक्तगणों की संख्या के आधार पर परिवर्तित हो सकती है।
  • यह मंदिर नगर के मध्य स्थित है। यहाँ आने के लिए बस, ऑटो अथवा टैक्सी जैसे सार्वजनिक परिवहन के साधनों की पर्याप्त व्यवस्था है।
  • भुवनेश्वर ओडिशा राज्य की राजधानी होने के कारण देश के अन्य भागों से वायुमार्ग, रेलमार्ग अथवा सड़क मार्ग द्वारा सुव्यवस्थित रीति से जुड़ा हुआ है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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