यदि आप मुझसे प्रश्न करें कि क्रोध एवं क्षमा में श्रेष्ठ क्या है, मुझे विश्वास है कि आप भी अधिकांश प्रसंगों में क्षमा का ही चुनाव करेंगे। हमें शिक्षा भी ऐसी ही दी गयी है। चूक करना मानवी स्वभाव है लेकिन क्षमा कर पाना एक दैवी उपलब्धि है।
क्रोध एवं क्षमा – श्रेष्ठ क्या है?
महाभारत के तीसरे भाग में, अर्थात वन पर्व में कौरवों ने पांडवों को द्यूत क्रीडा में परास्त किया था तथा उन्हे पूर्वनिश्चित नियमों के अनुसार १२ वर्षों तक वन गमन का दंड दिया गया था।
वन तक उनके साथ सहगमन करते तथा वन में उनसे भेंट के लिए आए कृष्ण व दृष्टद्युम्न जैसे परिजनों, मित्रों एवं नागरिकों को वापिस नगर में लौटने की विनती कर सभी पांडव भ्राता एक सरोवर के निकट स्थाई हो गए। द्वैतवन नामक इस सुंदर सरोवर के चारों ओर पुष्पों एवं फलों के वृक्ष थे।
सरोवर के निकट बसेरा स्थापित करने के पश्चात द्रौपदी के ध्यान में आया कि इतने दुर्भाग्यपूर्ण प्रसंग के पश्चात भी युधिष्ठिर अत्यंत शांत हैं। उन्हे ऐसा प्रतीत हुआ कि युधिष्ठिर अपने साथ हुए अन्याय को विस्मृत कर चुके हैं तथा दोषियों को क्षमा कर दिए हैं।
द्रौपदी युधिष्ठिर के निकट बैठकर उन्हे अपने साथ हुए अन्यायपूर्ण व्यवहार का स्मरण कराती हैं। उनका ध्यान इस ओर आकर्षित करती हैं कि किस प्रकार कौरवों ने उनका एवं उनके चारों भ्राताओं का अपमान किया था। उन्होंने एक सुंदर कविता की रचना की जिसमें वे प्रत्येक पांडव के निरादर का उल्लेख करती हैं तथा उनके वर्तमान परिस्थिति का वर्णन करती हुई युधिष्ठिर से प्रश्न करती हैं कि इस सम्पूर्ण परिस्थिति में उन्हे क्रोध क्यों नहीं आ रहा है?
अंत में वे युधिष्ठिर को कौरवों द्वारा उनके स्वयं के मानमर्दन का स्मरण करती हैं तथा पुनः उनसे प्रश्न करती हैं कि यह सब उन्हे क्रोधित क्यों नहीं कर रहा है?
द्रौपदी युधिष्ठिर का ध्यान इस ओर भी आकर्षित करती हैं कि हस्तिनापुर से उनके निष्कासन के समय सभी परिजनों, मित्रों एवं नागरिकों के नयन अश्रुपूर्ण थे, लेकिन दुर्योधन, कर्ण, शकुनि एवं दुशासन, इन चारों के नयन अश्रुरहित थे।
तत्पश्चात, अपना पक्ष स्पष्ट करने के लिए द्रौपदी प्रह्लाद एवं उनके पोते बलि के मध्य हुए संवाद का वर्णन करती हैं।
प्रह्लाद एवं बलि के मध्य क्रोध एवं क्षमा विषय पर संवाद
एक समय असुरों के राजा बलि ने अपने दादा प्रह्लाद से प्रश्न किया कि कठोरता एवं क्षमा में श्रेष्ठ क्या है?
प्रह्लाद ने उत्तर दिया कि इनमें से कोई भी दूसरे से श्रेष्ठ नहीं है। एक ज्ञानी व्यक्ति ने काल एवं परिस्थिति के अनुसार उनका प्रयोग करना चाहिए।
यदि कोई दोषी सुगमता से क्षमा प्राप्त कर लेता है तो उसके सुधार की संभावना कम हो जाती है। यदि आपने किसी दोषी को आसानी से क्षमा कर दिया तो वह ना आपका, ना ही उस विषय का महत्व जान पाएगा। किसी को अतिशीघ्र क्षमा करने का स्वभाव होने पर एक भय यह भी होता है कि आपके अपने परिजन, आपके शत्रु एवं सामान्य जन आपका महत्व ना समझें तथा आपका यथोचित सम्मान ना करें।
जिन व्यक्तियों का स्वभाव सदा ही क्षमाशील होता है, लोग उनके प्रति विनयी नहीं होते। अतः एक ज्ञानी व्यक्ति वही है जो सदा ही क्षमाशील नहीं होता। काल एवं परिस्थिति के अनुसार दोषी को दंड भी देना चाहिए।
आपका सेवक, कर्मचारी अथवा अधीनस्थ, प्रदत्त नियमों का पालन ना कर अपनी मनमानी कर सकता है क्योंकि वह जानता है कि आप अत्यंत क्षमाशील हैं। उसे तुरंत क्षमा कर देंगे। आगे जाकर वे अपराध कर सकते हैं। स्वयं के लाभ के लिए आपकी वस्तुओं का दुरुपयोग कर सकते हैं। आपकी अवमानना एवं अपमान कर सकते हैं।
अपने सेवक के द्वारा अपमानित होना मृत्यु से भी अधिक निकृष्ट माना जाता है।
आपकी क्षमाशीलता एवं मृदु स्वभाव देखकर आपके स्वयं के परिजन आपकी संपत्ति हथियाने का प्रयास कर सकते हैं। आपके सेवक, आपके पुत्र, आप पर निर्भर व्यक्ति, यहाँ तक कि असंबद्ध लोग भी कटु वचनों द्वारा आपकी आलोचना कर सकते हैं। आपकी अपनी ग्रहस्थी आपके नियंत्रण से बाहर जा सकती है।
दूसरी ओर, यदि आप प्रत्येक परिस्थिति का सामना क्रोध से करते हैं तो उसका प्रतिप्रभाव यह हो सकता है कि आप अविचारी होकर किसी निर्दोष व्यक्ति को दंड दे दें।
एक क्रोधी व्यक्ति के अनेक शत्रु होते हैं। उसका क्रोधपूर्ण स्वभाव उसके अपने भीतर तथा सामने वाले के भीतर शीघ्र ही शत्रुत्व उत्पन्न कर देता है। उसके अपने परिजनों के मन में तथा सर्व सामान्य लोग, जिनसे उसका निरंतर सामना होता है, उनके मन में भी उसके प्रति कुंठा अथवा कुढ़न उत्पन्न हो सकती है।
एक क्रोधी व्यक्ति, अपने स्वभाव के कारण, जाने-अनजाने दूसरों का अपमान कर बैठता है। इस प्रक्रिया में अपना सम्मान खो देता है। किसी अपमानित व्यक्ति की अवांछित प्रतिक्रिया के चलते उसकी संपत्ति भी नष्ट हो सकती है।
किसी पर अत्यधिक क्रोध करने तथा उसे अविचारपूर्ण दंडित करने के स्वभाव के कारण आपकी समृद्धि, आपका स्वास्थ्य तथा आपका परिवार आपसे रुष्ट हो सकते हैं।
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अतः एक संतुलित व्यवहार सदा ही उत्तम होता है। सदा क्रोध करना तथा सदा क्षमा कर देना, दोनों की अनुशंसा नहीं की जा सकती। दोनों ही आपको समान रूप से संकट में डाल सकते हैं। किसी भी प्रसंग में आप अपनी प्रतिक्रिया परिस्थिति, काल एवं स्थान के अनुसार विचारपूर्वक निश्चित करें। जो व्यक्ति माँग के अनुरूप अपना व्यवहार अतिमृदु से अतिकठोर के मध्य सुगमता से दोलित कर सकता है, वही विश्व विजेता होता है।
कब क्षमा करें?
- यदि किसी व्यक्ति ने भूतकाल में आपके प्रति दयालुता से व्यवहार किया हो तो उसके दोष को क्षमा किया जा सकता है। यह उसकी भद्रता की ओर आपकी मृदु प्रतिक्रिया होगी।
- यदि कोई व्यक्ति अनजाने में भूल करता है तो उसे क्षमा कर देना चाहिए। कोई भी व्यक्ति सभी परिस्थितियों में बुद्धि का सदुपयोग नहीं कर पाता है। भूल करना मानवी स्वभाव है। किन्तु उसने यह भूल अथवा अपराध अनजाने में की है, यह निश्चित हो जाना चाहिए। इसके लिए आप पर्याप्त संशोधन करें तथा विवेकपूर्ण निर्णय लें।
- यदि कोई व्यक्ति अभिप्रायपूर्वक अपराध करता है तथा ढोंग करता है कि उससे अजनाने में अपराध हो गया है तो ऐसे व्यक्ति को दंड अवश्य देना चाहिए। ऐसी परिस्थिति में छोटे से छोटा अपराध भी अक्षम्य है।
- किसी भी व्यक्ति की प्रथम भूल को क्षमा करना उचित होगा। किन्तु, यदि वह अपनी भूल की पुनः पुनः पुनरावृत्ति करता है तो वह कदापि क्षमाप्रार्थी नहीं हो सकता।
- मृदु व्यवहार साधारणतया शत्रुत्व पर विजय प्राप्त करता है। अतः जब तक संभव हो, मृदु व्यवहार करें।
- दंड दें अथवा क्षमा करें, यह निर्णय लेने से पूर्व अवस्थिति, काल एवं पारस्परिक सापेक्ष शक्ति का स्पष्ट आकलन कर लें। यदा-कदा समक्ष स्थित व्यक्ति की शत्रुता को निमंत्रण ना देने के लिए तथा उसको प्रसन्न करने के लिए उसे क्षमा करना पड़ता है।
ऐसे अनेक अवसर होते हैं जहाँ क्षमा करना उत्तम सिद्ध होता है। अन्य सभी परिस्थितियों में कठोर व्यवहार उचित होता है।
अंत में द्रौपदी युधिष्ठिर से कहती हैं कि कौरवों ने लालच एवं असम्मानजनक व्यवहार की सीमा पार कर दी है। अब समय आ गया है कि उन्हे उनके व्यवहार के लिए कठोर दंड दिया जाना चाहिए। उन्हे क्षमा करने का कोई भी कारण नहीं है।
इस विषय पर द्रौपदी एवं युधिष्ठिर के मध्य हुए संवादों में क्षमा के गुण-धर्म, कर्म की आवश्यकता आदि पर अनेक चर्चाएँ हुईं। उनके विषय में हम किसी अन्य अवसर पर चर्चा करेंगे।
स्रोत – अध्याय २८, वन पर्व, महाभारत। (गीत प्रेस द्वारा प्रकाशित)
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