श्रृंगेरी, अर्थात ऋषिश्रृंग गिरी। श्रृंगेरी को यह नाम ऋषि विभाण्डक के सुपुत्र ऋषि श्रृंगी से प्राप्त हुआ है। गिरी का अर्थ है पर्वत। अर्थात् श्रृंगेरी शब्द की व्युत्पत्ती एवं इसका इतिहास ऋषि-मुनियों के काल से जुड़ा हुआ है। यह प्रमाण है कि श्रृंगेरी प्राचीन काल से बसा हुआ है।
वर्तमान में जो श्रृंगेरी हमारे समक्ष है, उसका इतिहास, विरासत एवं वंशावली का श्रेय आदि शंकराचार्यजी को जाता है। श्रृंगेरी नगरी का अस्तित्व शारदम्बा मंदिर एवं श्रृंगेरी शारदा पीठम से है जिनकी स्थापना आदि शंकराचार्यजी ने ८ वीं. शताब्दी में की थी। इन दोनों के मध्य से तुंग नदी बहती है।
श्रृंगेरी के मंदिर
छोटे से श्रृंगेरी नगर में ४० से अधिक मंदिर हैं। ४० मंदिरों को एक ही यात्रा में देखना संभव नहीं था। अतः हमने कुछ मंदिरों के दर्शन किये जिनके विवरण मैं यहाँ देना चाहती हूँ:
श्रृंगेरी का शारदम्बा मंदिर
यहाँ पहुंचकर हमने एक ऊंचे राज गोपुरम अथवा गोपुर से शारदम्बा मंदिर के भीतर प्रवेश किया। २०१४ में निर्मित यह राज गोपुरम इस प्राचीन मंदिर के इतिहास में एक नवीन कड़ी है। श्रृंगेरी नगर की सबसे ऊंची संरचना होने के कारण यह नगर व आस पास के क्षेत्रों से स्पष्ट दृष्टिगोचर है। सही अर्थ में यह श्रृंगेरी के इस छोटे से नगर एवं शारदम्बा मंदिर परिसर का क्षितिज सिद्ध होता है।
शारदा देवी श्रृंगेरी की प्रमुख पीठासीन देवी हैं। कहा जाता है कि जब आदिशंकर कश्मीर में कुछ समय व्यतीत कर वापिस आये थे, तब वे शारदा देवी को वहां से श्रृंगेरी साथ लाये थे। कश्मीर का मूल शारदा पीठ अब पाकिस्तान अधिकृत क्षेत्र में है।
मंदिर के भीतर शारदा देवी एक माला हाथ में लिए एक चक्र पर आरूढ़ हैं। शारदा देवी की मूल प्रतिमा चन्दन काष्ठ में बनी थी। क्यों न हो! चन्दन इस क्षेत्र में बहुतायत में उपलब्ध है। स्वर्ण में निर्मित वर्तमान प्रतिमा संत विद्यारण्य द्वारा १४ वी. सदी में स्थापित की गयी थी।
संत विद्यारण्य श्रृंगेरी मठ के १२ वें. शंकराचार्य थे। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। शारदा देवी की प्रतिमा इतने वस्त्र, आभूषणों एवं पुष्पों द्वारा अलंकृत रहती है कि प्रतिमा की सूक्ष्म कारीगरी समझना कठिन हो जाता है। कठिनाई और बढ़ा देती है वहां की भीड़ जो आपको शारदम्बा के समक्ष कुछ क्षण से अधिक खड़े होने नहीं देती।
सरस्वती
शारदम्बा यहाँ देवी सरस्वती का प्रतिनिधित्व करती है। एक लेखिका के नाते मैं सदैव उनकी कृपादृष्टि की कामना करती हूँ ताकि मेरी लेखनी अत्यंत प्रभावशाली हो। यहाँ देवी को मंडन मिश्र की पत्नी उभय भारती का अवतार भी मानते हैं। ये वही देवी भारती हैं जिनका आदि शंकराचार्यजी के संग किया गया शास्त्रार्थ अत्यंत प्रसिद्ध है।
मुझे जानकारी दी गयी कि लगभग १०० वर्षों पूर्व तक सम्पूर्ण मंदिर लकड़ी का बना हुआ था। कदाचित चन्दन की लकड़ी का प्रयोग किया गया था। किन्तु एक अग्निकांड में सम्पूर्ण मंदिर भस्म हो गया था। अब जो मंदिर यहाँ उपस्थित है वह इस अग्निकांड के पश्चात द्रविड़ पद्धति से पुनर्निर्मित किया गया है।
प्रत्येक शुक्रवार के दिन, नवरात्र के दिनों में तथा कुछ अन्य विशेष दिवसों में देवी को पालकी में बिठाकर उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है। आप सोने एवं चांदी से निर्मित बड़ी सी पालकी मंदिर परिसर में देख सकते हैं।
माता-पिता अपनी संतान के विद्या अभ्यास का आरम्भ माँ शारदा के आशीर्वाद से करते हैं। यदि समय उपयुक्त हो तो आप मंदिर परिसर में कई शिशुओं को अपनी स्लेट पट्टी एवं माता-पिता के संग देख सकते हैं।
विद्याशंकर मंदिर
पुरातत्व विज्ञान की दृष्टि से देखा जाये तो विद्याशंकर मंदिर श्रृंगेरी का सर्वाधिक आकर्षक मंदिर है। जैसे ही हमने शारदम्बा मंदिर परिसर में प्रवेश किया, हमारी दृष्टि विद्याशंकर मंदिर पर टिक गयी। एक ऊंचे मंच पर खड़े इस उत्कीर्णित शिलाओं से निर्मित मंदिर की विशेषता है इसका अर्धगोलाकार आकार जो अनायास ही हमारा ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। हम मंत्रमुग्ध से इस मंदिर की ओर खिंचते चले गए। कई क्षण इसके सम्मुख खड़े होकर इसके आकार को निहारते रहे तथा इसकी प्रशंसा करते रहे।
कुछ समय मंदिर को बाहर से निहारने के पश्चात हमने इसके भीतर प्रवेश किया। प्रवेश करते ही जो कार्य मैंने सर्वप्रथम किया, वह था इसके स्तंभों की गिनती करना। जी हाँ! मैंने कुल १२ स्तंभ गिने। ये १२ स्तंभ एक आकार के नहीं थे। कोने में स्थित ४ स्तंभ अन्य स्तंभों से अपेक्षाकृत विशाल थे। मैंने कहीं पढ़ा था कि ये १२ स्तंभ १२ राशियों के प्रतीक हैं। जब सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है तब सूर्य की प्रथम किरणें उस राशि के प्रतीकात्मक स्तंभ पर गिरती हैं। मैंने कुछ स्तंभों पर उनके राशि चिन्ह ढूंढ निकाले, किन्तु कोने में स्थित ४ स्तंभों पर मैं राशि चिन्ह नहीं ढूंढ पायी। तब मंदिर के सज्जन पुजारीजी ने हमारी सहायता की। उनके समक्ष भक्तजनों की इतनी भीड़ होते हुए भी उन्होंने हमें सभी स्तंभों के राशि चिन्ह दिखाये, जिनमें से कुछ मैं आपको बताती हूँ। मंदिर में प्रवेश करते से ही आपको मेष एवं वृषभ राशि से सम्बंधित स्तंभ दिखेंगे। वृश्चिक एवं तुला राशि से सम्बंधित स्तंभ देवी की प्रतिमा के समीप स्थित हैं।
मंडप के मध्य स्थित गोलाकार आकार के ग्रेनाइट शिला पर तिरछी रेखाएं उत्कीर्णित हैं। मेरे अनुमान से ये रेखायें सूर्य के प्रक्षेपपथ का अनुगमन करने के लिए बनायी गयी होंगीं। मंदिर का निर्माण करते समय इन रेखाओं का प्रयोग कर स्तंभों के सटीक स्थान की गणना की गयी होगी ताकि समयानुसार सूर्य की प्रथम किरणें सम्बंधित स्तंभ पर गिरे। इन रेखाओं का वर्तमान में क्या उपयोग है, यह मुझे ज्ञात नहीं हो पाया। इन सब के पश्चात मैंने छत पर दृष्टी डाली। छत पर कई कमल एवं तोतों की आकृतियां उत्कीर्णित थीं।
विद्याशंकर मंदिर का गर्भगृह
वहां से आगे बढ़कर हम गर्भगृह के समीप पहुंचे। गर्भगृह के भीतर काली शिला में एक बड़ा शिवलिंग था। इसे विद्याशंकर लिंग कहा जाता है। इस लिंग का ध्यान कर कई भक्तों को दिव्य दृष्टी प्राप्त होने की कई गाथाएँ प्रचलित हैं। किन्तु उपस्थित भक्तों की भीड़ एवं उनके शोर के मध्य मैं यहाँ ध्यान करने की कल्पना भी नहीं कर पा रही थी। शिवलिंग के बाईं ओर विद्या गणपति की काले पत्थर में बनी प्रतिमा है तथा दायीं ओर दुर्गा के रूप में देवी की प्रतिमा है। दोनों विषुवों के दिन सूर्योदय की किरणें सीधे विद्याशंकर लिंग पर पड़ती हैं।
मैंने श्रृंगेरी का भ्रमण दिसंबर मास के अंतिम दिनों में किया था। अतः मैंने जब विद्याशंकर मंदिर के दर्शन किये थे, सूर्य धनु राशि में प्रवेश कर चुका था।
धनु एवं मकर राशि के स्तंभों के मध्य मैंने एक सुन्दर धातु की प्रतिमा देखी। लगभग १२ इंच ऊंची यह प्रतिमा एक चौकी पर खड़ी थी। यह मूर्ति पुष्पों से ढँकी हुई थी तथा एक पुजारी उसकी पूजा कर रहा था। उन्होंने मुझे बताया कि यह प्रतिमा शनि देव की है जो धनु राशि के पीठासीन देव हैं।
विद्याशंकर मंदिर का इतिहास
१४ वीं. शताब्दी में जब हम्पी में विजयनगर साम्राज्य था, उस समय गुरु विद्याशंकर के लिए विद्याशंकर मंदिर बनवाया गया था। हालांकि इस मंदिर पर विजयनगर साम्राज्य से पूर्व के होयसल राजवंश अथवा चालुक्य वास्तु की भी झलक दिखाई पड़ती है। एक ऊंचे मंच पर स्थापित यह एक आयताकार मंदिर है जिसके दोनों अंग गजपृष्ठाकार अर्थात् गोलाई लिए हुए हैं। मंदिर की बाह्य भित्तियों पर कई प्रतिमाएं उत्कीर्णित हैं। यह प्रतिमाएं आदि शंकराचार्य द्वारा परिभाषित सभी ६ पंथों के भगवानों की हैं। ये ६ पंथ हैं, शिव, विष्णु, षन्मुख, देवी, गणेश एवं सूर्य। मंदिर के कोनों में पत्थर की गुंथी हुई श्रंखला है जो विजयनगर देवालय वास्तुकला का जीता-जागता नमूना है। मैंने इसी प्रकार की श्रंखला कांचीपुरम के वरदराज पेरूमल मंदिर के १०० स्तंभों के कक्ष में भी देखी थी। यदि आपने मेरा वह संस्मरण पढ़ा होगा तो आपको अवश्य स्मरण होगा।
शारदम्बा मंदिर परिसर के भीतर विद्याशंकर मंदिर के पृष्ठभाग में कुछ छोटे पाषाण मंदिरों की पंक्ति है। ये मंदिर इतने छोटे हैं कि प्रत्येक मंदिर के भीतर केवल एक प्रतिमा ही समा सकती है। वे सारे मंदिर बंद होने के कारण मैं यह ज्ञात नहीं कर पायी कि वे किन किन देवों के मंदिर हैं, क्या उन्हें कभी खोला जाता है व क्या अब भी उनकी नित्य पूजा अर्चना की जाती है?
विद्याशंकर मंदिर में सर्वाधिक प्रसिद्ध उत्सव कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में मनाया जाता है। अर्थात् दिवाली से १५ दिनों के पश्चात।
आदि शंकराचार्य मंदिर तथा शारदम्बा मंदिर परिसर
शारदम्बा मन्दिर से किंचित पीछे एक छोटा किन्तु सुन्दर मंदिर है जो आदि शंकराचार्य को समर्पित है। मंदिर की बाहरी भित्तियों पर उनकी जीवनी पर आधारित मनमोहक चित्र बनाये गये हैं। गर्भगृह की ओर जाती सीड़ियों के दोनों ओर शिला में बने हाथी के दो शिल्प रखे हुए हैं।
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इस मंदिर के एक ओर एक विशाल कक्ष है जहां आप कई शिशुओं को कतार में बैठे हुए देखेंगे जो अपनी प्रथम लेखनी की प्रतीक्षा कर रहे होंगे।
इसके समीप एक विशाल यज्ञशाला है जिसमें कई आकर्षक काष्ठी स्तंभ तथा एक मंच है। वो कैसा दृश्य होगा जब यहाँ कोई यज्ञ हो रहा होगा अथवा मंच पर कोई संगीत नाटक का मंचन हो रहा होगा? यहां बैठकर यह सब देखना कितना रोमांचक होता होगा!
परिसर के ठीक बाहर पुस्तकों की एक दुकान है जहां से आप अद्वैत वेदान्त तथा आदि शंकराचार्य पर आधारित साहित्य क्रय कर सकते हैं।
मलहणिकरेश्वर मंदिर
मल्लप्पा बेट्टा नामक पहाड़ी पर स्थित यह एक प्राचीन मंदिर है। हम मंदिर तक सड़क मार्ग से पहुंचे जो मंदिर के प्रवेशद्वार तक पहुंचाती है। यदि आप पैदल चढ़ने में रूचि रखते हैं तो इस रोमांच को प्राप्त करने के लिए मंदिर तक जाती सीड़ियाँ भी हैं। अधिकतर स्थानीय लोग इस मंदिर को इसके सम्पूर्ण नाम से नहीं जानते। अतः इस मंदिर के विषय में जानने के लिए आप उनसे बेट्टा के मंदिर के विषय में पूछिए।
मलहणिकरेश्वर मंदिर के प्रवेश द्वार के समीप संतों की छत्रियां अर्थात समाधियाँ हैं। इस प्राचीन मंदिर के मध्य एक अतिविशाल शिवलिंग है। ऐसी मान्यता है कि यह शिवलिंग हमारे जीवन के सारे मैल दूर कर देता है। इस परिसर के अन्य मंदिरों में एक मंदिर भवानी को समर्पित है। आप यहाँ एक स्तंभ मंदिर भी देखेंगे जो स्तंभ गणपति मंदिर है। यह उस आंजनेय मंदिर के समान है जो मैंने कांचीपुरम के एकम्बरेश्वर मंदिर के बाहर देखा था।
ऊंचाई पर स्थित यह मंदिर आपको सही मायनों में कई ऊंचाइयों तक पहुंचाता है, चाहे वह आध्यात्मिक ऊंचाई हो या बौद्धिक ऊंचाई। आश्चर्यजनक रूप से यहाँ लोगों की भीड़ नहीं थी। हमारे सिवाय यहाँ अन्य कोई भी उपस्थित नहीं था।
आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित ४ दिशाओं के मंदिर
प्राचीनकाल में किसी भी पवित्र क्षेत्र की सीमाओं को, उसके चार दिशाओं में मंदिर बनाकर अंकित करने की प्रथा थी। आदि शंकराचार्य ने भी श्रृंगेरी के चार दिशाओं में चार छोटे मंदिरों की स्थापना की थी। ये छोटे मंदिर चार पहाड़ियों पर अब भी हैं।
पश्चिम में केरे आंजनेय मंदिर – दुर्गाम्बा मंदिर जाते समय हमने यहाँ रूककर इस मंदिर के दर्शन किये थे। आंजनेय अर्थात यह हनुमानजी का मंदिर है।
पूर्व में काल भैरव मंदिर – यह मंदिर श्रृंगेरी शारदा पीठम से सर्वाधिक समीप है। आप यहाँ झूलते सेतु के द्वारा जायें। आपको यहाँ से तुंगा नदी के किनारे स्थित श्रृंगेरी मंदिर परिसर का विहंगम दृश्य प्राप्त होगा।
दक्षिण में दुर्गाम्बा मंदिर – मंगलुरु की दिशा में स्थित यह मंदिर श्रृंगेरी से सर्वाधिक दूरी पर स्थित है।
उत्तर में कालिकाम्बा मंदिर – मैं यहाँ दोपहर के भोजन के समय पहुँची थी। जैसा कि आप समझ ही गए होंगे, यह मंदिर बंद था। यह मंदिर श्रृंगेरी नगर के भीतर एक पहाड़ी के कगार पर स्थित है।
श्रृंगेरी शारदा पीठम अथवा श्रृंगेरी मठ
श्रृंगेरी शारदा पीठम की स्थापना आदि शंकराचार्य ने की थी। लोकप्रिय इतिहासकारों तथा शारदा पीठ के अनुसार इसकी स्थापना ८ वी. सदी में हुई थी। इसका अर्थ है, शंकराचार्य १२०० वर्षों से भी अधिक समय से चली आ रही जीवंत परंपरा है। आपको स्मरण करा दूँ, आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित अन्य दो मठ, द्वारका एवं कांचीपुरम, का इतिहास ईसवी पूर्व ६ वी. सदी का माना जाता है जो इस परंपरा को २५०० से भी अधिक वर्ष प्राचीन सिद्ध करता है। वंशावली के अनुसार भी इन पीठों के शंकराचार्यों के इतिहास को अंकित किया गया है। श्रृंगेरी में शारदा पीठम के वर्तमान शंकराचार्य इसकी वंशावली में ३६ वें. क्रमांक पर आते हैं, वहीं कांचीपुरम के शंकराचार्य वहां की वंशावली में ७० वें क्रमांक पर।
तर्क कहता है, कदाचित श्रृंगेरी शारदा पीठम की स्थापना बाद में हुई थी। विडम्बना यह है कि श्रृंगेरी शारदा पीठम को आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित प्रथम पीठ माना जाता है। सुरेश्वराचार्य शारदा पीठम के प्रथम पुजारी थे। इनकी पहचान मंडन मिश्र के रूप में भी की जाती है जिन्होंने आदि शंकराचार्यजी के संग शास्त्रार्थ किया था।
किवदंतियों के अनुसार, एक समय आदि शंकराचार्य तुंग नदी के किनारे पदचाप कर रहे थे। उन्होंने वहां देखा कि प्रसव पीड़ा झेलती एक मेंढकी को चिलचिलाती धूप से बचाने के लिए एक नाग उस पर अपना फन फैलाए हुए था। उन्होंने विचार किया कि जिस स्थान पर दो जन्मजात शत्रु इस प्रकार एक दूसरे की रक्षा कर रहे हैं, वह स्थान अवश्य ही पवित्र है तथा यही विद्यार्जन जैसे पवित्र कार्य का कार्यस्थल होना चाहिए। इस प्रकार आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों में से प्रथम पीठ, श्रृंगेरी शारदा पीठम की स्थापना हुई।
मछली को दाना खिलाना
तुंग नदी के दो किनारों को जोड़ते सेतु द्वारा हम श्रृंगेरी मठ की ओर चल पड़े। इस सेतु पर चलते हुए हमें तुंग नदी के घाटों का विहंगम दृश्य प्राप्त हुआ। घाटों पर तीर्थयात्री मछलियों को दाना खिला रहे थे। यह एक अद्भुत दृश्य होता है। तुंग नदी का स्वच्छ जल तथा उसके बहाव में रुकावट उत्पन्न करती चट्टानें भी यहाँ से स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं। दाहिनी ओर, पश्चिमी घाट पर नदी का जल काली मछलियों से भरा पड़ा था जबकि बाईं ओर का जल मछली रहित था। क्यों ना हो! मछलियाँ भी सब के समान उसी तट पर जाती हैं जहां उन्हें भोजन प्राप्त होता है। सभी मछलियाँ खा-पीकर प्रसन्नता से जल में अठखेलियाँ करती हैं। वहीं दूसरी ओर मुरमुरे बेचने वाले भी भक्तों के द्वारा मछलियों का पेट भरते भरते अपनी जीविका भी चलाते हैं।
सेतु पार कर हम कुछ और आगे बढ़े। वहां जंगलों की हरियाली के बीच कई इमारतें थीं जिनमें शारदा मठ का प्रशासनिक भवन भी सम्मिलित है। अहम् ब्रह्म स्मि – यह महावाक्य जो आदि शंकराचार्य ने इस श्रृंगेरी शारदा मठ को प्रदान किया था, यह इन भवनों पर लिखा हुआ है। ४ वेदों में से श्रृंगेरी शारदा पीठम के पास यजुर्वेद है। एक स्थान पर हमने युवा विद्यार्थियों को उनके गुरु के चित्र के सम्मुख बैठकर वेदों का उच्चारण करते देखा।
श्रृंगेरी शारदा पीठम की कई इमारतें हैं जिनमें अधिकतर भूतपूर्व शंकराचार्यों की समाधियाँ हैं। गुरु निवास एक विशाल कक्ष है जहां शंकराचार्य अपने भक्तों को दर्शन देते हैं। हम भाग्यशाली थे जो हमारे वहां पहुंचते ही वे भी इस कक्ष में आये। हमने उन्हें प्रणाम किया तथा वहां से बाहर आ गए। तत्पश्चात श्रृंगेरी के अन्य भागों को देखने के लक्ष्य से आगे बढ़ गये।
श्रृंगेरी मठ के हाथी
जब हम शारदा मठ से तुंग नदी के सेतु की ओर वापस आ रहे थे, हमने मंदिर के हाथियों को सेतु की ओर आते देखा। अपनी मदमस्त चाल से चलते वे अपने गले पर लटकती घंटियों की मधुर ध्वनी द्वारा श्रद्धालुओं का मनोरंजन कर रहे थे। इस मधुर ध्वनी को सुनते हुए, मदमस्त चाल से चलते दो हाथियों के मध्य से जब हम निकले, हमारा रोम रोम रोमांचित हो उठा था। सब हाथी शारदम्बा मंदिर परिसर में जाकर खड़े हो गए। वहां भक्तों द्वारा अर्पित केले स्वीकार कर उन्हें आशीर्वाद देने लगे।
श्रृंगेरी शारदा पीठम में संस्कृत पांडुलिपियों का पुस्तकालय है। अपनी इस यात्रा में मैं इस पुस्तकालय को नहीं देख सकी। आशा करती हूँ कि अपनी अगली यात्रा में मैं इसे देखा पाऊँ।
पार्श्वनाथ जैन बसदी
पार्श्वनाथ जैन बसदी, जिसे पार्श्वनाथ बसदी भी कहा जाता है, शारदम्बा मंदिर की ओर जाने वाले मुख्य मार्ग पर स्थित है। यह गोपुरम से लगभग २०० मीटर की दूरी पर है। अपने आसपास की दुकानों के समान मंदिर के द्वार भी नीले रंग में रंगे होने के कारण यह आपको भ्रमित कर सकता है। अतः स्मरण रखें, आप इसे भी एक दुकान समझ आगे बढ़ सकते हैं। द्वार से भीतर प्रवेश कर हमने एक ठेठ जैन मंदिर देखा। ठीक वैसा ही, जैसा हमने मूदबिद्री में देखा था। प्रवेशद्वार के दोनों ओर स्तंभों से युक्त चबूतरे थे।
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पार्श्वनाथ जैन बसदी एक पाषाणी देवस्थान है जिसे सन् ११५० में निर्मित किया गया था। इस प्रकार यह श्रृंगेरी की प्राचीनतम जीवंत संरचना है। मंदिर के भीतर प्रवेश कर हम कई स्तंभों वाले एक मंडप के भीतर पहुंचे। यहाँ खुदाई कर निकाली गयी कई जैन संतों की प्रतिमाएं प्रदर्शित की गयी हैं। गर्भगृह बंद था। फिर भी हमें भीतर सब प्रतिमाएं स्पष्ट दिखाई पड़ रही थीं। काले पत्थर से बनी मुख्य प्रतिमा २३ वें. तीर्थंकर पार्श्वनाथ की है। इस मंदिर में एक विचित्र दृश्य हमने देखा। इस मंदिर के भीतर एक पालकी में पद्मावती की चांदी की मूर्ति थी।
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गर्भगृह के बाहर जैन संतों की धातु की बनी कई प्रतिमाएं हैं। मैंने मंदिर के आसपास घूमते हुए पत्थर की कई असाधारण शिल्पकारियाँ देखीं जिनमें एक नाग की मूर्ति भी थी। वहां के पुजारी के अनुसार श्रृंगेरी में अब केवल चार जैन परिवार बसते हैं।
श्रृंगेरी यात्रा का विडियो
हमारी श्रृंगेरी यात्रा के समय बनाया गया विडियो आपके लिए प्रस्तुत है। आप अपनी आँखों से इस विलक्षण विद्याशंकर मंदिर एवं अन्य मंदिरों का अवलोकन कीजिये।
श्रृंगेरी के निकट अन्य दर्शनीय स्थल
1. होरनाडू का अन्नपूर्नेश्वरी मंदिर
2. कुप्पाली का कवी कुवेम्पु संग्रहालय
3. तीर्थहल्ली के मार्ग पर उलुवे पक्षी अभयारण्य
4. सिरिमाने झरना – किग्गा गाँव के निकट श्रृंगेरी से १२ कि.मी. पर स्थित है
5. हनुमानगुंडी झरना – श्रृंगेरी से लगभग ३६ कि.मी. की दूरी पर स्थित है
6. उडुपी – श्रृंगेरी से लगभग ८० कि. मी. दूर स्थित नगरी
श्रृंगेरी कैसे पहुंचें?
श्रृंगेरी, कर्नाटका के चिकमंगलूर जिले में, मंगलुरु से लगभग १०५ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। श्रृंगेरी से बंगलुरु अथवा मंगलुरु के लिए कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम (KSRTC) की कई बसें चलती हैं।
श्रृंगेरी के विद्याशंकर मंदिर एवं शारदम्बा मंदिर प्रातः ६ बजे से दोपहर २ बजे तक तथा संध्या ४ बजे से रात्री ९ बजे तक खुले रहते हैं।
मंदिरों के बाहर छायाचित्रिकरण की अनुमति है किन्तु मंदिरों के भीतर नहीं।
श्रृंगेरी एक प्राचीन तीर्थस्थल होने के कारण यहाँ ठहरने हेतु कई प्रकार के अतिथिगृह सुविधाएं हैं।
श्रृंगेरी नगरी का भृमण आपके सारगर्भित शब्दों द्वारा एक काल्पनिक यात्रा तो हम कर ही लेते है तथा वहाँ सभी मंदिरों में विद्याशंकर मंदिर बहुत सुंदर व ज्योतिष विज्ञान पर भी आधारित है जो हमारे वैभवशाली और गौरवशाली इतिहास पर हमे गर्व करने का मौका देता है। साधुवाद ।????????
संजय जी, आशा है आपकी काल्पनिक यात्रा शीघ्र ही यथार्थ का रूप ले ले। श्रृंगेरी का वातावरण आपको अचंभित कर देगा।
अनुराधा जी,
आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित श्रृंगेरी शारदा पीठ तथा वहां स्थित अति प्राचीन भव्य मंदिरों का अति सुंदर शब्द-चित्रण….प्रस्तुत विडियो,आलेख को और भी सुंदर बना देता है ! प्राचीन विद्यासागर मंदिर में बारह राशियों के बारह स्तम्भ होना तथा सूर्य द्वारा राशि परिवर्तन पर पहली किरणे उस राशि के स्तम्भ पर गिरना, तत्कालिन वास्तुविदों के खगोल शास्त्र के ज्ञान की पराकाष्टा है !
धन्यवाद ।
प्रदीप जी – विद्याशंकर मंदिर भारत की प्राचीन अभियांत्रिकी ज्ञान का उत्कृष्ट उदहारण है, आशा है यह लेख पढ़ कर कुछ लोग श्रृंगेरी देखने जायेंगे।
मेंने साक्षात श्रृंगेरी तीर्थ यात्रा कर ली . परम पिता परमात्मा की आज्ञा हुई तो जाना भी हो जायेगा । आप लेख लिखते रहे में यात्रा का पुर्णाननंन्द ले सतु ।
नरपत जी, इश्वर से प्रार्थना है की आपको शीघ्र ही श्रृंगेरी यात्रा का आनंद प्राप्त हो।
It’s really awesome Shringeri Sharada Peeth Temple. All the places are amazing as well as you have mentioned the gorgeous pictures.
मै पूरी कोसिस करूँगा के 2022 में सृंगरी के दर्शन करू।