आज भी मैं सिलवासा को दादरा और नगर हवेली की राजधानी के रूप में याद करती हूँ, जो कि मैंने अपने प्राथमिक विद्यालय की भूगोलशास्त्र की पुस्तक में पढ़ा था। मैं बस अनुमान से बता सकती हूँ कि भारत के नक्शे पर सिलवासा लगभग कहां पर बसा हुआ है, लेकिन इसके अलावा मैं सिलवासा के बारे में और कुछ नहीं जानती। सिलवासा काफी समय से मेरी यात्रा सूची में था और उसके बारे में और जानने की उत्सुकता के कारण मैंने आखिरकार सिलवासा की यात्रा करने का निश्चय कर ही लिया।
सिलवासा की मेरी यह यात्रा सच में बहुत आनंदमय थी। सिलवासा में बिताए हुए पूरे एक दिन में मैंने इसे एक उपवनों का नगर पाया, जहां पर सुव्यवस्थित रूप से पोषित एक से बढ़कर एक मनोरम उपवन थे। यहां पर आने के बाद मुझे पता चला कि दादरा और नगर हवेली वर्ली आदिवासी जाति, जिनके ज्यामितीय भित्ति चित्र आज इतने लोकप्रिय हैं, का मूल निवास स्थान है। व्यापार समुदायों के बीच तो दादरा और नगर हवेली का यह केंद्र शासित प्रदेश वहां के कम कर दरों के लिए काफी प्रसिद्ध है।
सिलवासा का इतिहास
सिलवासा, नगर हवेली का एक छोटा गाँव था। 1779 में मराठा के पेशवाओं ने मित्रता संधि के रूप में दादरा और नगर हवेली को पुर्तुगाल को सौंप दिया था। यह कुल 79 गाँवों का समूह था जो पुर्तुगाल की सरकार को कर अदा कर रहे थे। 1885 में जब उस समय के पुर्तुगाली सरकार ने सिलवासा को नगर हवेली की राजधानी बनाने का निश्चय किया, तब इस गाँव को एक शहर के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। बाद में पुर्तुगाल में स्थित लिस्बोन शहर के पास स्थित एक शहर विला दे पाको द’आरकोस के नाम से उसका पुनः नामकरण किया गया। तथापि किसी का नाम ऐसे ही बदलना आसान नहीं होता और इस प्रकार सिलवासा भी अपने पुराने नाम से ही जाना जाने लगा। आज भी सिलवासा एक छोटा सा शहर है, जिसकी जनसंख्या लगभग 100,000 होगी।
सिलवासा चर्च
सिलवासा के मध्यभाग में बसा हुआ यह छोटा सा गिरजाघर 1897 में बनवाया गया था। यह गिरजाघर शायद पुर्तुगालियों के साथ आए हुए केथलिक समुदायों के लिए निर्मित किया गया था। सिलवासा में स्थित यह एकमात्र गिरजाघर, पुर्तुगाली शासन काल के दौरान इस छोटे से शहर पर हुए अत्याचारों का जीता-जागता गवाह है। इस गिरजाघर के भीतर लकड़ी के तख्तों पर द लास्ट सप्पर यानी आखरी भोज की सुंदर सी चित्रकारी की गयी है जिसे अवश्य देखना चाहिए।
दादरा और नगर हवेली में पुर्तुगाली शासन काल का अंत 1954 में हुआ और 1961 में वह भारत के गणराज्य में विलीन हुआ।
1954-61 के बीच दादरा और नगर हवेली पर वरिष्ठ पंचायत द्वारा एक स्वतंत्र राज्य के रूप में शासन किया जा रहा था।
दादरा और नगर हवेली महाराष्ट्र और गुजरात के राज्यों की सीमाओं से सटकर बसा हुआ एक आदिवासी क्षेत्र है। वर्ली जनजाति के लोग इस क्षेत्र के मूल निवासी हुआ करते थे और आज भी यह भूमि उन्हीं के अधीन है। यहां पर आपको हर जगह वर्ली चित्रकारी के बेहतरीन नमूने देखने को मिलते हैं, चाहे वह शहर की दीवारें हों, उपवन हों, या फिर कोई भी कार्यालय, जहां देखो वहां आपको इसी प्रकार की चित्रकारी नज़र आती है। यहां तक कि इस क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा को भी वर्ली भाषा के नाम से जाना जाता है – जो कि गुजराती, मराठी और कोंकणी का अजीब सा मिश्रण है।
मैं अपने लिए सिलवासा से एक वर्ली स्मारिका तो ले आयी हूँ, लेकिन इस आदिवासी जाति के लोगों से मिलने हेतु मुझे एक बार फिर सिलवासा जरूर जाना है और इस बार मैं उनके घरों में जाकर उनसे भेट करना चाहती हूँ जो कि यहां के जंगलों में बसे हुए हैं।
सिलवासा के उपवन – घूमने की जगहें
सिलवसा का मनोरम उपवनों का शहर घूमकर मैं बहुत प्रफुल्लित हुई। इस यात्रा के बाद मुझे लगा कि मैं सभी से जाकर कह दूँ कि, बैंग्लोर के बदले अब सिलवासा भारत का नया बगीचों का शहर है। यहां पर एक से बढ़कर एक ऐसे कई उपवन हैं और प्रत्येक उपवन की अपनी अलग खासियत है। इन सभी उपवनों की बहुत अच्छे से देखरेख की जाती है। इन उपवनों की सैर करना मेरे लिए बहुत ही प्रसन्नता की बात थी, बावजूद इसके कि हमे दिन भर सूर्य की तपती किरणों को सहन करना पड़ा।
तो चलिये सिलवासा के इन उपवनों के बारे में थोड़ा और जान लेते हैं।
नक्षत्र वाटिका
दमन गंगा नदी के किनारे पर बसी हुई यह नक्षत्र वाटिका हाल ही में बनाई गयी है। लगभग 10-15 मिनटों में इस वाटिका की सैर करने के विचार से मैंने वहां पर टहलना शुरू किया और घूमते-घूमते मुझे पता ही नहीं चला कि समय कैसे बीत गया। मुझे यहां पर आए हुए घंटा भर से भी अधिक समय हो गया था। इस पूरी वाटिका की बनावट योजना अतुल्य है जिसमें वनस्पतियों का रोपण नक्षत्रों या ग्रहों की स्थिति के अनुसार किया गया है। यहां पर कुछ वनस्पतियाँ ऐसी हैं जो हिंदुओं द्वारा पूजे जानेवाले नौ ग्रहों से संबंधित हैं। इसके अलावा यहां पर राशि-चक्र के 12 चिह्नों से संबंधित भी वनस्पतियाँ हैं जिनका रोपण ज्योतिषीय रेखा-चित्र के आकार में किया गया है। यहां पर वनस्पतियों से बनी एक वृत्ताकार संरचना है जिसमें डंडे के रूप में 27 वनस्पतियाँ लगाई गयी हैं जो प्रत्येक नक्षत्र से संबंधित हैं।
नक्षत्र वाटिका में कमल पुष्पों के अनेक तालाब हैं जिन में रंगबिरंगी कमल और कुमुद के पुष्प खिले हुए नज़र आते हैं। आस-पास के हरे-भरे परिसर में अपने रंगों को बिखेरते हुए ये पुष्प अतिसुंदर लगते हैं। इन में से एक तालाब पर एक छोटा सा पुल बना हुआ है जहां से आप नीचे स्थित तालाब का सुंदर दृश्य देख सकते हैं। नक्षत्र वाटिका में कुछ छोटे-छोटे दर्शनगाह भी हैं जो अपने आगंतुकों को इस तपती हुई धूप से थोड़ी राहत प्रदान करते हैं। इसके एक कोने में पहरे की मीनार खड़ी है जहां से आप नीचे स्थित उपवन का सुंदर नज़ारा देख सकते हैं। यहीं से मैंने वनस्पतियों से बनी हुई वह स्वस्तिक की संरचना देखी थी।
नक्षत्र वाटिका का सबसे अद्भुत भाग तो जड़ी-बूटियों की बाड़ी थी जो थोड़ी सी ढलान वाली जमीन पर, एक विशाल भूलभुलैया के रूप में बनाई गयी थी। इस भूलभुलैया के भीतर यहां-वहां खड़े अनेक लोग सेल्फी लेते हुए नज़र आ रहे थे। इससे एक बात तो कहनी पड़ेगी कि सेल्फी लेने के लिए यह जगह बहुत ही अच्छी है। जड़ी-बूटियों की बाड़ी को इस प्रकार का रूप देना जहां पर लोग घूमते-घूमते वहां की प्रत्येक वनस्पति की प्रशंसा कर सके, वाकई में रचनात्मकता का कार्य है।
नक्षत्र वाटिका आज भी अपनी विकास प्रक्रिया में है। बहुत समय बाद मुझे एक ऐसा उपवन देखने को मिला जो भारतीय संस्कृत में पूर्ण रूप से डूबा हुआ है, फिर चाहे वह यहां की वनस्पतियाँ हो या फिर उनकी विन्यास पद्धति या फिर वहां के सूचना केंद्र हो जिनकी दीवारों पर सांस्कृतिक चित्रकारी सजी है।
यहां पर जाने के लिए कोई प्रवेश शुल्क नहीं लगता।
हिरवा वन
शहर के केंद्र में बसा हुआ यह उपवन पहले पिपरिया बगीचे के नाम से जाना जाता था। पिपरिया वही इलाका है जहां पर यह उपवन बसा हुआ है। हिरवा वन नक्षत्र वाटिका और वनगंगा उपवन की तुलना में थोड़ा छोटा है।
हिरवा वन यहां की पत्थरों की दीवार के लिए बहुत प्रसिद्ध है। देखने में यह दीवार थोड़ी देहाती सी नज़र आती है। कभी-कभी दिन के समय इस दीवार पर से पानी गिरता है, जिससे कि देखने वालों को वह एक प्रकृतिक झरने जैसा लगता है। इस उपवन में प्रवेश करते ही चंचलतापूर्वक यहां से वहां उड़ते हुए श्वेत पक्षियों के समूह ने मेरा स्वागत किया।
इस हरे-भरे वन में यहां से वहां भागती पगडंडियों से गुजरते हुए इस पूरे परिसर की सैर करते-करते मैंने वहां के पत्थरों से बने मेहराब, धातु का बना पुल और ऐसी सी कई आकर्षक बातें देखी। मैंने वहां का कृत्रिम झरना भी देखा जो उस दिन बंद था। यहां पर बच्चों को खेलने के लिए भी खास जगह बनवाई गयी है जहां पर झूला आदि जैसी बहुत सारी क्रीडात्मक वस्तुएं हैं।
सबसे बड़े अचरज की बात तो यहां पर उपस्थित व्यायामशाला के उपकरण थे जो हाल ही में स्थापित किए गए थे। सफ़ेद और हरे रंग के व्यायाम उपकरणों की यह लंबी पंक्ति बहुत ही आकर्षक लग रही थी। मनोरंजन और स्वास्थ्य के मिलन का ऐसा नज़ारा मैंने पूरे भारत में अन्यत्र कहीं नहीं देखा था। इन सभी उपकरणों से लिपटे प्लास्टिक के कारण मैं ठीक से नहीं बता सकती कि अब तक उनका इस्तेमाल हुआ भी है या नहीं। कितने आनंद की बात है कि आप इस बगीचे में खुले आसमान के नीचे अपने दोस्तों के साथ व्यायाम कर रहें हैं।
जब हम वहां गए थे उस समय वहां के प्रवेश दर 20 रु. प्रति व्यक्ति थे।
वनगंगा सरोवर और उपवन
वनगंगा सरोवर को चारों ओर से घेरता हुआ यह उपवन अत्यंत मनोहारी है। शायद इसी सरोवर के कारण इस उपवन को वनगंगा के नाम से जाना जाता होगा। इस सरोवर के बीचोबीच एक छोटा सा द्वीप बसा हुआ है। कहा जाता है कि अगर आप वनगंगा सरोवर का एक पूरा चक्कर काट ले तो आपको रोज-रोज व्यायाम करने की कोई जरूरत नहीं होगी। यह उपवन दादरा शहर में होने के कारण पहले दादरा पार्क के नाम से भी जाना जाता था।
वनगंगा उपवन के प्रवेशद्वार पर बनी वर्ली चित्रकारी प्रसन्नता से आपका स्वागत करती हुई नज़र आती है। जैसे ही आप बगीचे में प्रवेश करते हैं वनगंगा सरोवर अपने निस्तब्ध रूप में आपके सामने प्रकट होता है। मैंने बड़े उत्साह के साथ इस पूरे सरोवर का एक चक्कर ले लिया। शुक्र है बीच-बीच में उपस्थित उन लकड़ी की बैठकों का, जहां पर थोड़ी देर के लिए आराम से बैठकर आप आस-पास के सुंदर नज़ारों का आनंद ले सकते हैं, या फिर सरोवर में नौकाविहार का आनंद लेते हुए आगंतुकों को देख सकते हैं। इस सरोवर के मध्य में स्थित द्वीप पर कई परिवार पिकनिक मनाते हुए देखे जा सकते हैं।
इस उपवन में एक पेड़ के नीचे स्थित लकड़ी के रंगीन सोफ़े पर बैठकर मैं अपने आस-पास के नज़ारों को अपने आप में समाने की कोशिश कर रही थी। यहां पर किसी भी प्रकार का कोई शोर नहीं था, सबकुछ बिलकुल शांत था। आस-पास के लोग भी जैसे मौन रूप से इस परिसर का आनंद ले रहे थे। समूह में उपस्थित लोग भी इस शांतता को भंग न करते हुए मूक बातचीत कर रहे थे या फिर यूं कहें कि उनके संवाद काफी विनम्र थे।
जब हम वहां गए थे उस समय वहां के प्रवेश दर 20 रु. प्रति व्यक्ति थे।
इन सभी उपवनों की सैर करके मुझे लगा कि सिलवासा एक बहुत ही प्रफुल्लित जगह है जहां पर कई लोग अपने परिवार के साथ कुछ अनमोल समय बिताने आते हैं, जहां पर युवक युवतियाँ या नवविवाहित जोड़े अपने लिए शांति के कुछ पल चुरा सकते हैं और जहां पर मेरे जैसे अनेक पर्यटक बिना किसी चिंता के आराम से इन उपवनों की सैर कर सकते हैं।
इन उपवनों के अतिरिक्त मैंने यहां का इंदिरा प्रियदर्शिनी उपवन, नक्षत्र वाटिका के पास यानी दमन गंगा नदी के किनारे पर बसा हुआ वनधारा उपवन भी देखा, लेकिन मैं वहां का दूधनी सरोवर उपवन नहीं देख पायी जो कि प्राप्त जानकारी के अनुसार वनगंगा सरोवर और बगीचे के जैसा ही है।
मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि सिलवासा बॉलीवुड फिल्मों की शूटिंग के लिए काफी प्रसिद्ध स्थान है और देखा जाए तो यह जगह मुंबई से ज्यादा दूर भी नहीं है।
स्वामीनारायण मंदिर – सिलवासा में घूमने की जगहें
नारोली गेट से सिलवासा में प्रवेश करते ही मुझे सबसे पहले स्वामीनारायण मंदिर के दर्शन हुए। मंदिर की शिलाओं का रंग, उसकी वास्तुकला और चारों तरफ फैले उपवन यह घोषित कर रहे थे कि यह स्वामीनारायण का मंदिर है। सामान्य तौर पर उनके सभी मंदिर लगभग एक जैसे ही होते हैं। ये मंदिर प्रचुर रूप से उत्कीर्णित होते हैं और उनकी छत को ज्यामितीय आकारों से उत्कीर्णित किया जाता है।
इन मंदिरों के स्तंभ तोरण रूपी जटिल नक्काशी काम से एक दूसरे से जुड़े होते हैं। इनमें स्थापित मूर्तियाँ भी बहुत ही मनमोहक होती हैं। ये मंदिर हमेशा साफ-सुथरे होते हैं। इन मंदिरों का दर्शन करना बड़े सौभाग्य की बात है।
संयोग से मैं सुबह की आरती के समय ही स्वामीनारायण के मंदिर में पहुंची और मैंने अपनी इस उपस्थिती का पूरा आनंद लिया। भक्ति में लीन इन श्रद्धालुओं के भजनगीत सुनते हुए मैं पूर्ण रूप से इस मंदिर की प्रशंसा में डूब गयी थी।
सिलवासा संग्रहालय
सिलवासा संग्रहालय एक छोटा सा संग्रहालय है जो सिलवासा में स्थित पुर्तुगाली गिरजाघर के ठीक सामने खड़ा था। यहां पर कुछ चित्रावलियों और दैनिक जीवन में इस्तेमाल होनेवाली वस्तुओं के द्वारा वर्ली आदिवासी जाति के जीवन को दर्शाया गया है। वहां पर मौजूद एक बड़ा सा मुखौटा, जो शायद धार्मिक क्रियाओं के दौरान या फिर उत्सवों के लिए इस्तेमाल किया जाता होगा, मुझे सबसे अधिक दिलचस्प लगा। इसके अलावा वहां पर और एक चीज थी जो बहुत रोचक थी और वह थी मदिरा तयार करने के स्थानीय उपकरण, जो गोवा में फेणी का उत्पादन करने के लिए इस्तेमाल होने वाले उपकरणों से काफी मिलते-झूलते थे।
इस संग्रहालय के बाहर ही स्मारक वस्तुओं की एक छोटी सी दुकान थी जहां पर वर्ली चित्र और मिट्टी की छोटी-छोटी संरचनाएं जिन पर वर्ली चित्र बने हुए थे, बेची जा रही थीं।
संग्रहालय के पास में ही सिलवासा आर्ट गॅलेरी है जहां पर अनेक बड़े-बड़े वर्ली चित्रों का प्रदर्शन किया गया था। इन में से कुछ चित्र समकालीनता के रंगों में घुलते हुए दिखाई दे रहे थे।
सिलवासा संग्रहालय में प्रवेश निशुल्क है।
कुल-मिलाकर कहा जाए तो मैं केंद्र शासित प्रदेश दादरा और नगर हवेली और सिलवासा, जिसका आधा भाग घूमना अभी बाकी है, का भ्रमण करके बहुत प्रसन्न थी। सिलवासा के उपवन तो जैसे मेरी इस यात्रा के के केंद्रबिंदु थे।
I am living in Silvassa. Really its a beautiful place.
Now it is developing as a smart city
Yes Deepak, Silvassa is a beautiful place and very unexplored at the moment.