कला यात्रा Archives - Inditales श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Wed, 27 Mar 2024 14:07:33 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 बिहार की स्मृतियाँ हस्तनिर्मित कलाकृतियाँ https://inditales.com/hindi/bihar-kala-shilpa-uphar/ https://inditales.com/hindi/bihar-kala-shilpa-uphar/#respond Wed, 31 Jul 2024 02:30:05 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3654

बिहार एक सुंदर राज्य है। वहाँ की हस्तनिर्मित कलाकृतियाँ भी उतनी ही अप्रतिम हैं। अपने बिहार भ्रमण की स्मृतियों के रूप में आप इन हस्तनिर्मित कलाकृतियों को ला सकते हैं। चाहे मनमोहक चित्रकारी हो अथवा हाथों द्वारा सूक्ष्मता से गड़ी गई कांच की कलाकृति हो अथवा टेराकोट्टा के शिल्प हों, विकल्प प्रचुर मात्रा में उपलब्ध […]

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बिहार एक सुंदर राज्य है। वहाँ की हस्तनिर्मित कलाकृतियाँ भी उतनी ही अप्रतिम हैं। अपने बिहार भ्रमण की स्मृतियों के रूप में आप इन हस्तनिर्मित कलाकृतियों को ला सकते हैं। चाहे मनमोहक चित्रकारी हो अथवा हाथों द्वारा सूक्ष्मता से गड़ी गई कांच की कलाकृति हो अथवा टेराकोट्टा के शिल्प हों, विकल्प प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। वस्तुतः, मैने यहाँ जिन बिहार के हस्तनिर्मित कलाकृतियों के विषय में उल्लेख किया है, उनमें से प्रत्येक कलाकृति शैली बिहार के किसी विशेष क्षेत्र अथवा आयाम का प्रतिनिधित्व करती है।

इनके विषय में जानते ही आप भी मुझसे सहमत हो जाएंगे कि ये हस्तनिर्मित कलाकृतियाँ बिहार की सर्वोत्तम स्मारिकाएँ हो सकती हैं।

बिहार की सर्वोत्तम हस्तशिल्प एवं स्मारिकाएँ

मधुबनी चित्रकला

मधुबनी चित्रकला में श्री राम जानकी विवाह
मधुबनी चित्रकला में श्री राम जानकी विवाह

बिहार का सर्वोत्तम परिचय यदि किसी वस्तु से किया जा सकता है तो वह है, मधुबनी चित्रकला। यह हस्तकला बिहार का प्रतिनिधित्व करती है, ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। आप में से जिन पाठकों ने दिल्ली हाट का भ्रमण किया है, उन सबने वहाँ से यह लोक चित्रकला अवश्य ली होगी। बिहार के मिथिला क्षेत्र की इस प्रतिष्ठित मधुबनी चित्रकला एवं उसकी सूक्ष्मता-जटिलता पर मैंने एक विस्तृत संस्करण प्रकाशित किया है। उसे अवश्य पढ़ें।

मंजूषा कला शैली

जो चित्रकला की सूक्ष्मताओं से अनभिज्ञ है, हो सकता है उन्हे, प्रथम दृष्टि, मधुबनी चित्रकला शैली एवं मंजूषा चित्रकला शैली में अंतर स्पष्ट ना हो पाये। यह चित्रकला शैली बिहार के पूर्वी क्षेत्र, अर्थात भागलपुर क्षेत्र से उत्पन्न हुई है। इन चित्रों में प्रदर्शित कथाएं बिहूला विषहरी की गाथा पर आधारित है जिसने अपने परिवार की रक्षा करने के लिए अनेक बाधाओं का सामना किया था।

बिहार की मञ्जूषा कला
बिहार की मञ्जूषा कला

मंजूषा कलाकृतियों में लाल, हरा एवं पीला, केवल इन तीन रंगों का ही समावेश किया जाता है। इन चित्रों में किनारियाँ एवं उन पर चित्रित आकृतियों का विशेष महत्व होता है। मैंने विविध प्रकार के मंजूषा चित्र देखे हैं जिन पर मुख्यतः मनसा देवी एवं नाग कथाओं का चित्रण किया गया है।

टिकुली चित्रकला शैली

भारतीय स्त्रियाँ अपने माथे पर जो बिंदी लगाती हैं, उसे इस क्षेत्र में टिकली अथवा टिकुली भी कहा जाता है। १९ वीं सदी में पटना में कांच की टिकली बनाई जाती थी जिसके ऊपर सोने की परत चढ़ाई जाती थी। तत्पश्चात नुकीले औजारों से उस पर विविध आकृतियाँ गड़ी जाती थीं। ये आकृतियाँ भिन्न भिन्न पुष्पों की होती थीं। इन टिकलियों पर देवी-देवताओं की छवि भी गड़ी जाती थीं। हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं कि ऐसी टिकलियाँ कितनी राजसी व भव्य प्रतीत होती होंगी!

टिकुली कला का नया स्वरुप
टिकुली कला का नया स्वरुप

इसी टिकुली का आधुनिक रूप किंचित परिवर्तित हो चुका है। अब इन्हे लकड़ी अथवा परतदार लकड़ी के गोलाकार टुकड़ों पर कृत्रिम रंगों द्वारा रंग कर बनाई जाती हैं। इनका आकार भी अपेक्षाकृत बड़ा होता है। अब ये माथे पर सजने वाली बिंदी ना होकर प्रदर्शन की कलाकृति में परिवर्तित हो गई हैं। किसी ना किसी रूप में यह कलाशैली अब भी जीवित है। अब श्याम पृष्ठभूमि पर सुनहरे रंग की आकृतियाँ अत्यधिक लोकप्रिय हैं।

सुजनी कला

इस कला की उत्पत्ति उस भावना से हुई है जब माताएं अपने नवजात शिशुओं के लिए अपनी पुरानी साड़ियों से कोमल मृदुल गुदड़ी इत्यादि बनाती हैं ताकि शिशु को किसी प्रकार का कष्ट ना हो। वे पुरानी कोमल साड़ी के टुकड़ों को एक के ऊपर एक रखकर मोटी गुदड़ी सिलती हैं। उस पर कपड़े के छोटे टुकड़ों से विविध आकृतियाँ बनाती हैं। जिनके हाथों में कला की विशेष कृपा होती है, वे इन टुकड़ों से ऐसी आकृतियाँ बनाती हैं जो लोककथाओं को प्रदर्शित करती हैं।

प्रथमदर्शनी मुझे यह कला एप्लीक कला शैली प्रतीत हुई। कदाचित वे एक दूसरे से प्रेरित कला शैलियाँ हों। वर्तमान में इस कला शैली ने व्यावसायिक क्षेत्र में पदार्पण कर लिया है। इसके लिए सुजनी कला अब नवीन वस्त्रों पर की जा रही है। उन पर विविध आकृतियाँ बनाई जाती हैं जिनमें ज्यामितीय आकृतियाँ, पुष्पाकृतियाँ तथा रामायण आदि महाकाव्यों के लोकप्रिय दृश्य सम्मिलित होते हैं।

सुजनी कला बिहार के मुख्यतः दानापुर, भोजपुर तथा मुजफ्फरपुर क्षेत्रों में प्रचलित है।

कागज की लुगदी की कलाकृतियाँ

कागज की लुगदी से कलाकृतियाँ बनाना एक लोकप्रिय कला शैली है। इसके लिए कागज को पानी में तब तक भिगो कर रखा जाता है, जब तक वह कोमल ना हो जाए। साथ में सौंफ के दानों को भी भिगोया जाता है। तत्पश्चात गोंद तथा मुल्तानी मिट्टी के साथ पीसकर इसकी मृदु लुगदी तैयार की जाती है। इस लुगदी से विविध कलाकृतियाँ बनाई जाती हैं।

कागज की लुगदी से बने चित्र
कागज की लुगदी से बने चित्र

कागज की लुगदी से मूर्तियाँ, खिलौने, टोकरियाँ, पेटियाँ आदि बनाई जाती हैं। विविध रंगों से रंगकर उन्हे आकर्षक बनाया जाता है। कागज की लुगदी से गृह उपयोग की वस्तुएँ भी बनाई जाती हैं जैसे सामान रखने की टोकरियाँ, सूप आदि।

लुगदी सी बनी मातृका
लुगदी सी बनी मातृका

बिहार संग्रहालय में मैंने एक अनोखी किन्तु आकर्षक प्रतिमा देखी जिसे कागज की लुगदी से निर्मित किया गया था। वह मानवाकार प्रतिमा मातृका की थी। यहाँ के अनेक गाँवों में ऐसी ही मानवाकार मनमोहक प्रतिमाएं बनाई जाती हैं जिनका प्रयोग विविध धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता है। सर्वाधिक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि मुलायम लुगदी को हाथों द्वारा इतना सुंदर आकार दिया जाता है। प्रतिमा के विभिन्न आयामों को सूक्ष्मता से उत्कीर्णित किया जाता है। ये प्रतिमाएँ मन मोह लेती हैं।

वेणु शिल्प अथवा बाँस की कलाकृतियाँ

बाँस को संस्कृत में वेणु कहते हैं। आपको स्मरण होगा, श्री कृष्ण को वेणुगोपाल भी कहते हैं क्योंकि उनकी मुरली बाँस की बनी होती है। प्राचीन काल से बिहार में भोजन तथा जल को संग्रहीत करने के लिए बाँस का प्रयोग किया जाता रहा है। बौद्ध काल से विविध लिखित सूत्रों में यह विवरण है कि बौद्ध भिक्षु बाँस के द्वारा भिन्न भिन्न वस्तुएँ बनाते थे, जैसे हस्त पंखे, जूते आदि। बाँस का प्रयोग कर मानवी आकृतियाँ भी बनाई जाती हैं।

वेणु शिल्प से बना मंदिर
वेणु शिल्प से बना मंदिर

वर्तमान में भी बाँस का पर्याप्त प्रयोग किया जाता है। उससे गृहसज्जा की वस्तुएं, सूप, डिबिया, टोकरियाँ आदि बनाई जाती हैं। बिहार में दक्ष कलाकार बाँस का प्रयोग कर अत्यधिक आकर्षक कलाकृतियाँ बनाते हैं जिन्हे आप अवश्य क्रय करना चाहेंगे। उनमें कुछ हैं, नौका अथवा जलयानों के विस्तृत मॉडल, सम्पूर्ण मंदिर जिन्हे गृह के भीतर रखा जा सकता है।

बावन बूटी

बावन बूटी बिहार की स्वराज्यीय बुनाई तकनीक है। बुनाई की यह तकनीक मूलतः नालंदा के निकट स्थित बसवन बीघा ग्राम में प्रचलित है। ऐसा कहा जाता है कि यहाँ के बुनकर बावन भिन्न भिन्न प्रकार के भाव साड़ियों, चादरों अथवा पड़दों पर बुन सकते हैं। वे विविध आकृतियों के माध्यम से स्थानीय वास्तुशैली एवं उसके आयामों को भी इन वस्त्रों पर प्रदर्शित करते हैं।

सिक्की कला

बिहार में जो स्थानीय घास उगती है उसे सिक्की अथवा कुश कहते हैं। इस घास पर मनमोहक सुहनरे रंग की आभा होती है। इस घास को स्वच्छ कर सूर्य प्रकाश में सुखाया जाता है। सूखने के पश्चात तृण को उष्ण जल में उबाला जाता है। तत्पश्चात उसे विविध रंगों में रंगा जाता है, जैसे गुलाबी, नीला, हरा, लाल, पीला आदि। उसके पश्चात सुई की सहायता से तृण को भिन्न भिन्न आकार दिया जाता है। इन रंगबिरंगे कुश को आपस में गूँथ कर खिलौने, टोकरियाँ, पीठिकाएं, कुश-आसन, गृहसज्जा की भिन्न भिन्न वस्तुएं आदि निर्मित किए जाते हैं।

सिक्की से बनी सरस्वती एवं राधा कृष्ण
सिक्की से बनी सरस्वती एवं राधा कृष्ण

ये प्राकृतिक उत्पाद हैं। सिक्की पर सभी उचित उपचार किए जाने के कारण उनसे निर्मित इन सभी वस्तुओं की आयु भी दीर्घ होती है। कीट अथवा फफूंद का इन पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं होता है। मैंने ऐसे ही सुनहरे तिनकों द्वारा निर्मित अनेक कलाकृतियाँ ओडिशा के जाजपुर में भी देखी थीं।

टेराकोट्टा, शैल तथा काष्ठ निर्मित कलाकृतियाँ

ये प्राचीन कला शैलियाँ हैं जो आज भी सम्पूर्ण भारत में प्रचलित हैं। तो बिहार उनसे कैसे अछूता रह सकता है! आप सम्पूर्ण बिहार में ऐसे कारीगर देख सकते हैं जो चिकनी मिट्टी, शिलाओं तथा लकड़ी के टुकड़ों का प्रयोग कर अनोखी कलाकृतियाँ रचते हैं।

मिटटी से बने पात्र
मिटटी से बने पात्र

मैंने टेराकोट्टा द्वारा निर्मित एक पात्र देखा जिसमें अनेक छिद्र थे। उन छिद्रों से नागकन्याएँ बाहर आ रहीं हैं। यह एक प्राचीन कलाकृति है जिसे मैंने इससे पूर्व नालंदा संग्रहालय में देखा था। वर्तमान काल के आधुनिक कारीगरों ने अब भी इस शैली एवं इस कलाकृति को जीवंत रखा है। वे आज भी इस प्रकार की कलाकृतियाँ बनाते हैं।

बिहार में शैलशिल्प सदियों से लोकप्रिय रहा है। दीदारगंज यक्षी उन सभी में सर्वाधिक लोकप्रिय है।

ऐसा कहा जाता है कि प्राचीन काल में पटना चारों ओर से काष्ठ की उत्कीर्णित भित्तियों से घिरी हुई थी। आप कल्पना कर सकते हैं कि पटना में काष्ठ पर कारीगरी करने वाले कितने अधिक कारीगर रहे होंगे।

उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान, पटना

इस संस्थान का आरंभ उपेन्द्र महारथी जी ने किया था। यह संस्थान बिहार की कला एवं शिल्प शैलियों को पुनर्जीवित करने के महत्वपूर्ण कार्य में रत है। वे प्राचीन कला शैलियों को वर्तमान परिदृश्यों की आधुनिक पृष्ठभूमि के अनुरूप ढालने का उत्तम कार्य कर रहे हैं। वे इन शैलियों में नित-नवीन आकृतियों, रंगों आदि का समावेश कर रहे हैं तथा उनके द्वारा नित-नवीन वस्तुओं की रचना कर रहे हैं। मैंने उनकी कार्यशाला का अवलोकन-भ्रमण किया था।  मुझे उन्हे अपनी कला में तल्लीन, अद्भुत कलाकृतियों को रचते देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

इस संस्थान में भिन्न भिन्न कलाशैलियों से संबंधित विविध पाठ्यक्रम भी चलाए जाते हैं जिनमें से अधिकांश निशुल्क हैं। वे बिहार की इन पारंपरिक कलाकृतियों के विषय में सीखने तथा उन्हे अपनी जीविका का साधन बनाने में इच्छुक विद्यार्थियों की हर संभव सहायता करते हैं। अपनी परंपरा को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाने का यह एक अप्रतिम मार्ग है।

बिहार की इन अद्भुत कलाकृतियों में आपके प्रिय कौन कौन से हैं?

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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बौद्ध कलाशैली में कथाकथन के रूप – शिलालेखों में बौद्ध कथाएं https://inditales.com/hindi/bouddh-kala-shaili-katha/ https://inditales.com/hindi/bouddh-kala-shaili-katha/#respond Wed, 08 Mar 2023 02:30:28 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2992

भारत में शैल प्रतिमाओं एवं शैल कलाकृतियों का आरम्भ लगभग २२०० वर्षों पूर्व, बौद्ध कला कथाकथन से हुआ था। इन कथाओं को हम जातक कथाओं के नाम से जानते हैं। इससे पूर्व भी यह कथाकथन की कलाशैली अस्तित्व में रही होगी किन्तु काष्ठ जैसे नश्वर या नाशवान माध्यमों पर की गयी होगी जो समय की […]

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भारत में शैल प्रतिमाओं एवं शैल कलाकृतियों का आरम्भ लगभग २२०० वर्षों पूर्व, बौद्ध कला कथाकथन से हुआ था। इन कथाओं को हम जातक कथाओं के नाम से जानते हैं। इससे पूर्व भी यह कथाकथन की कलाशैली अस्तित्व में रही होगी किन्तु काष्ठ जैसे नश्वर या नाशवान माध्यमों पर की गयी होगी जो समय की मार झेल नहीं पायी तथा अब अस्तित्वहीन हो गयी।

साँची स्तूप में बुद्ध
साँची स्तूप में बुद्ध, चित्र – Shutterstock

प्रारंभिक शैल प्रतिमाएं एवं शैल कलाकृतियाँ मध्यप्रदेश में जबलपुर के निकट भरहुत क्षेत्र एवं कर्णाटक में गुलबर्गा के समीप सन्नति-कनगनहल्ली क्षेत्र में पाए गए थे। इसके पश्चात ही भारत उपमहाद्वीप में बिखरे अनेक क्षेत्रों में इनके चिन्ह प्राप्त हुए।

बौद्ध कलाशैली में कथाकथन

इस संस्करण में मैं शिलाओं पर बौद्ध कलाशैली में कथाकथन करने के लिए, उस काल के कलाकारों द्वारा अपनाए गए, ७ विभिन्न माध्यमों के विषय में चर्चा करुँगी। ये कथाएं मूलतः जातक कथाओं से आई हैं जिनमें बुद्ध के पूर्वजन्म की कथाएं कही गयी हैं। वैसे तो जातक कथाओं में लगभग ५५० से भी अधिक कथाएं हैं किन्तु अधिकतर कलाकार चित्रण के लिए सदा कुछ ही कथाओं का चयन करते आये हैं। वे उन्ही कथाओं को अपनी कलाकृतियों में प्रदर्शित करते रहे हैं।

बुद्ध के जीवन के दृश्य एवं उनकी जीवनी से सम्बंधित कथाएँ दूसरा सर्वाधिक सामान्य विषय होता था जिन्हें हम आज भी शैल कलाकृतियों में देख सकते हैं। इनके पश्चात उन दृश्यों का क्रमांक आता है जिसमें बुद्ध के पश्चात् जीवन का चित्रण किया गया है, जैसे महान सम्राटों द्वारा बौद्ध स्थलों के दर्शन एवं इन स्थलों को उभारने के लिए अनुदान प्रदान करने के दृष्य।

सभी कलाकृतियाँ स्तूप के चारों ओर होती हैं। स्तूप एक अर्धगोलाकार टीला होता है जिसके भीतर बुद्ध के अवशेषों की पेटी होती है। इसके चारों ओर प्रदक्षिणा पथ होता है। उसके बाहरी ओर कटघरा होता है जिस पर बहुधा आड़ी-सीधी पट्टियां होती हैं। कहीं कहीं स्तूप पर उत्कीर्णित शिलाखंड होते हैं तो कहीं सादे। स्तूपों की स्थापत्य शैली के विषय में अधिक चर्चा ना करते हुए मैं आरंभिक कालीन बौद्ध कथाकथन शैली के विषय में चर्चा करना चाहती हूँ।

जातक कथाओं के विषय में यहाँ पढ़ें। वेस्सन्तर जातक कथा, दीपंकर जातक कथा, महाकपि जातक कथा, नंदा जातक कथा, सिम्हला जातक कथा, आदि जातक कथा पढ़ें।

एक-दृश्य कथाकथन – विषयवस्तु का प्रदर्शन

यह कथाकथन का सर्वाधिक सरल माध्यम है। कलाकार सम्पूर्ण कथा के सार को अथवा कथा की एक घटना के सार को विषयवस्तु के रूप में चुनते हैं तथा उसे शिलाखंड पर उत्कीर्णित करते हैं। सामान्यतः वे कभी कथा के आरम्भ अथवा अंत का चित्रण नहीं करते थे, अपितु वे कथा के सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग का चित्रण करते थे।

एक-दृश्य कथाकथन - बौद्ध कलाशैली
एक-दृश्य कथाकथन – बौद्ध कलाशैली

कला इतिहासकारों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि कलाकार यह मान कर चलते थे कि दर्शक कथा के विषयवस्तु से परिचित हैं। इसी कारण सम्पूर्ण कथा का चित्रण ना करते हुए वे केवल महत्वपूर्ण दृश्यों द्वारा ही उन्हें सम्पूर्ण कथा का स्मरण कराते थे।

जैसे, भरहुत में कलाकारों ने वेस्सन्तर जातक कथा को केवल एक दृश्य द्वारा दर्शाने का प्रयास किया है। वेस्सन्तर ने अपनी समृद्धि के प्रतीक, मनोकामना पूर्ण करने वाले हाथी को कलिंग के ब्राह्मणों को दान के रूप में दे दिया था। दान के पुण्य को उजागर करने वाला यह दृश्य वास्तव में वेस्सन्तर जातक कथा का सार है जिसमें वेस्सन्तर को कलिंग के ब्राह्मणों को हाथी का दान करते दर्शाया गया है।

एक-दृश्य कथाकथन – सारांश

कथा के एक-दृश्य प्रदर्शन के इस रूप में कथा का सार चित्रित किया जाता है। मेरी व्याख्या के अनुसार, कथा से जो शिक्षा अथवा सीख प्राप्त होती है, उसका चित्रण किया गया है। इस चित्रण की पृष्ठभूमि में पुनः यह मान लिया गया था कि दर्शकों को कथा अथवा उसकी विषयवस्तु के विषय में पूर्व जानकारी है।

एक दृश्य कथानक सारांश में
एक दृश्य कथानक सारांश में

कथानक प्रदर्शन के इस रूप का प्रयोग बुद्ध की परम ज्ञान प्राप्ति के उपरांत की स्थिति को प्रदर्शित करने में किया जाता रहा है। अथवा महापरिनिर्वाण से पूर्व की स्थिति को दर्शाया जाता रहा है। इस कथा में वे परम व्यक्ति हैं। इस शैली का एक उत्तम उदाहरण आप भरहुत स्तम्भ पर देख सकते हैं। इस कथा में बुद्ध इंद्र एवं ब्रह्मा सहित स्वर्ण व रत्नों की सीढ़ियों से त्रयस्तृन्सा स्वर्ग से पृथ्वी पर संकिसा में अवतरित हुए थे। इस दृश्य को सीढ़ियों पर पदचिन्हों के रूप में उस स्तम्भ पर दर्शाया गया है।

अनुक्रमिक अथवा रैखिक कथाकथन

कथा की अनुक्रमिक घटनाओं अर्थात् एक के पश्चात एक आने वाली घटनाओं को अनुक्रमिक अथवा रैखिक रूप में दर्शाया जाता है। मुख्य पात्र या नायक प्रत्येक दृश्य का मुख्य भाग होता है। सभी दृश्य एक दूसरे से प्रत्यक्ष रूप से सीमांकित होते हैं। अर्थात् प्रत्येक दृश्य की पृथक सीमा इंगित होती है।

बौद्ध कलाशैली का अनुक्रमिक कथानक
बौद्ध कलाशैली का अनुक्रमिक कथानक

इसका एक उदहारण है, नन्द जातक जिसका चित्रण नागार्जुनकोंडा में किया गया है। इस उत्कीर्णन में प्रत्येक दो दृश्यों के मध्य दो स्तंभ हैं जिनके मध्य प्रेमी युगल को दर्शाया गया है जो दोनों दृश्यों की सीमा तय करता है। इस प्रकार दृश्यों को सीमाबद्ध किया गया है।

इतिहासकार यह शोध करने का प्रयास कर रहे हैं कि कथा में आये इन दृश्यों के मध्य युगल जोड़े के दृश्य का क्या औचित्य रहा होगा। यह भी उतना ही सत्य है कि इस प्रकार की सीमाबद्ध कथाकथन शैली समझने में अत्यंत आसान होती है तथा हमारी आधुनिक संवेदनशीलता के लिए अत्यंत सहज शैली होती है।

अविरत कथाकथन

कथा के अनेक दृश्यों को एक ही चौखट के भीतर दर्शाया जाता है। इसमें भी मुख्य पात्र या नायक सभी दृश्यों में अनिवार्य रूप से होता है।

साँची स्तूप पर अविरत कथाकथन
साँची स्तूप पर अविरत कथाकथन

सांची के स्तूप के तोरण खंड पर उत्कीर्णित कथा इसी शैली में है जिसमें बुद्ध महल त्याग कर प्रयाण कर रहे हैं। छत्र धारक अश्व, जिस पर सिद्धार्थ विराजमान है, उनका महल छोड़कर प्रयाण करना दर्शा रहा है। बिना सवार के अश्व का वापिस लौटने का दृश्य बुद्ध का वापिस ना आना दर्शाता है। यहाँ दृश्यों के मध्य सीमांकन नहीं हैं। दृश्यों की श्रंखला सीमाविहीन व अखंड है। अश्व की आकृति की पुनरावृत्ति द्वारा कथा की गति को दर्शाया गया है।

संक्षिप्त कथाकथन

यहाँ भी कथा के अनेक दृश्यों को एक ही चौखट के भीतर दर्शाया जाता है। किन्तु इसमें कथा के दृश्यों को क्रमवार रूप से नहीं दर्शाया जाता। इसमें भी मुख्य पात्र या नायक सभी दृश्यों में अनिवार्य रूप से होता है। एक चौकोर फलक के सीमित क्षेत्र में अनेक कथाओं को सम्मिलित किया जाता है। ये फलक किसी स्तम्भ का अथवा किसी बड़े पटल का भाग होते हैं।

संक्षिप्त कथाकथन बौद्ध कलाशैली में
संक्षिप्त कथाकथन बौद्ध कलाशैली में

इसका उदहारण है, सांची स्तूप के एक स्तम्भ पर बने एक फलक पर महाकपि जातक की कथा उत्कीर्णित है। इस चित्रण में कथानक स्पष्ट रूप से उत्कीर्णित नहीं है। यदि आप  कथानक को भलीभांति जानते हैं तो आप उस दृश्य को समझ सकते हैं।

कला इतिहासकारों ने इन दृश्यों पर क्रमांक अंकित करने का प्रयास अवश्य किया है। किन्तु फिर भी यह स्पष्ट नहीं है कि कलाकारों ने कथाकथन की यह शैली  क्यों चुनी। उन्होंने यह अवश्य माना होगा कि कथा सबको ज्ञात होगी। फिर भी वे कथा के क्रमवार घटनाओं के प्रति उदासीन क्यों थे? या जानबूझ कर उसकी उपेक्षा क्यों की?

सम्मिश्रित कथाकथन

यह शैली संक्षिप्त कथाकथन शैली के समान है। किन्तु इस शैली में मुख्य पात्र का एक ही शिल्प होता है जिसके चारों ओर कथानक के विभिन्न दृश्य दर्शाए जाते हैं। मुख्य पात्र का एक ही चित्रण होने के पश्चात भी वह सभी दृश्यों में समाहित होता है।

सम्मिश्रित कथाकथन
सम्मिश्रित कथाकथन

इसका एक उदहारण है, गांधार पटल पर दीपांकर जातक। इसमें बुद्ध की एक विशाल आकृति उत्कीर्णित है जिसके चारों ओर सुमेधा की कथा चित्रित है।

दृश्यों का संजाल – कथा का प्रसार

इस शैली में कथा विभिन्न दृश्यों के संजाल के रूप में प्रदर्शित की जाती है। सम्पूर्ण उपलब्ध स्थान पर कथा के विभिन्न दृश्य बिखरे हुए होते हैं जिनका आपस में कोई विशेष क्रम नहीं होता है। दर्शक को ही दृश्यों के क्रम को खोजते हुए कथानक को समझना पड़ता है।

भित्ति पर दृश्यों का जाल
भित्ति पर दृश्यों का जाल

जैसा कि प्रा. श्रीमती दहेजिया ने अपने व्याख्यान में समझाया था, कलाकार उपलब्ध स्थान का सबसे अच्छा उपयोग करते हुए स्थानिक कथाकथन कर रहा था, ना कि क्रमवार कथाकथन। इसका अर्थ है, एक स्थान पर जितनी भी घटनाएँ हुई, भले ही वे क्रमवार ना हों, उन्हें एक स्थान पर उत्कीर्णित किया गया। किसी दूसरे स्थान पर हुई सभी घटनाओं को दूसरे क्षेत्र में एकत्र प्रदर्शित किया गया। अतः आपको कथा के क्रमवार दृश्यों को ढूँढते हुए सम्पूर्ण क्षेत्र में घूमना पड़ता है।

अजंता के अधिकाँश चित्र इस जटिल शैली में दृश्यों का संजाल बनाते हुए कथा का प्रसार करते हैं। जैसे गुफा क्रमांक १७ के भीतर सिम्हला जातक कथा इसी शैली में चित्रित है। कथा के २९ दृश्यों को ४५ फीट चौड़ी एवं १३ फीट ऊँची भित्त पर जटिल रूप से चित्रित किया गया है। यह चित्र धरती से छत तक चित्रित किया गया है। हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि घुप्प अन्धकार भरी गुफा के भीतर इतनी विशाल व इतनी जटिल कलाकारी कैसे की गयी होगी।

मौखिक कथाकथन की परंपरा को शिलाखंडों पर दृश्य कथाकथन के रूप में उत्कीर्णित किया गया। तत्पश्चात लिखित कथाकथन की परम्परा का उद्भव हुआ। ये कथाकथन की यात्रा के महत्वपूर्ण मील के पत्थर हैं।

बौद्ध कला पर बनाया गया यह संस्करण ‘Visual Narratives in early Buddhist Art’ इस विषय पर आयोजित एक संगोष्ठी पर आधारित है जिसका आयोजन प्रा. श्रीमती विद्या दहेजिया ने किया था। उनके द्वारा किये गए शोधकार्य पर यह संस्करण लिखने से पूर्व मैंने उनसे रीतसर अनुमति ली थी। ७ चित्रों में से ६ चित्र मैंने गोवा विश्वविद्यालय द्वारा दी गयी सामग्री में से लिए हैं। इन चित्रों को अपने संस्करण में सम्मिलित करने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि मैं विभिन्न बौद्ध कथाकथन कलाशैलियों को सम्बंधित चित्रों द्वारा स्पष्ट रूप से दर्शाना चाहती थी ताकि पाठक इन शैलियों को स्पष्ट रूप से समझ सकें।

यदि मेरे ऐसा करने से किसी भी प्रकार का कॉपीराइट अथवा प्रतिलिप्याधिकार का दुरुपयोग हुआ हो तो कृपया मुझे इसकी जानकारी दें। मैं इन चित्रों को तुरंत अपने संस्करण से निकाल दूंगी। विभिन्न बौद्ध स्थलों पर किये गए बौद्ध कथाकथन के चित्र आप इनके वेबस्थलों पर देख सकते हैं, IGNCA, कला एवं पुरातत्व संग्रहालय, MetropolitanMuseum, British Museum। मैंने यहाँ जिन कथाकथन शैलियों का उल्लेख किया है, उनके केवल सांकेतिक उदहारण दिए हैं। उन बौद्ध कलाशैली के असंख्य कथानक आपको यहाँ देखने मिलेंगे।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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नृत्यसम्राट नटराज की कथा कहती चोल काल की कांस्य प्रतिमाएं https://inditales.com/hindi/natraj-shiv-kansya-murti-vyakhya/ https://inditales.com/hindi/natraj-shiv-kansya-murti-vyakhya/#respond Wed, 09 Mar 2022 02:30:18 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2613

नृत्य सम्राट भगवान शिव के नटराज रूप का उद्भव तमिलनाडु के चिदंबरम में हुआ था। भारतीय कलाकृति की कदाचित यह सर्वाधिक लोकप्रिय एवं जानी-पहचानी कलाकृति है। लोकप्रियता में इस कलाकृति की निकटतम प्रतिस्पर्धी केवल गणेश की विभिन्न मुद्राओं की प्रतिमाएं हैं। काल, स्थान एवं कला क्षेत्र में आये परिवर्तनों के पश्चात भी नटराज की नृत्य […]

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नृत्य सम्राट भगवान शिव के नटराज रूप का उद्भव तमिलनाडु के चिदंबरम में हुआ था। भारतीय कलाकृति की कदाचित यह सर्वाधिक लोकप्रिय एवं जानी-पहचानी कलाकृति है। लोकप्रियता में इस कलाकृति की निकटतम प्रतिस्पर्धी केवल गणेश की विभिन्न मुद्राओं की प्रतिमाएं हैं। काल, स्थान एवं कला क्षेत्र में आये परिवर्तनों के पश्चात भी नटराज की नृत्य मुद्रा में अधिक अंतर नहीं आया है। यद्यपि, बिरला संग्रहालय में मैंने नटराज की एक मुद्रा देखी जिसमें वे शीर्षासन अवस्थिति में थे।

नृत्यसम्राट नटराज

नटराज की भव्य कांस्य प्रतिमा दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में
नटराज की भव्य कांस्य प्रतिमा दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में

आईये हम भगवान शिव के नटराज रूप के पृष्ठभाग में निहित मूर्ति शास्त्र के विषय में कुछ चर्चा करें। भगवान शिव संहार के द्योतक हैं। इसके पश्चात सृष्टि की रचना होती है। यदि आप भगवान शिव के नटराज रूप का अवलोकन करें तो आप देखेंगे कि यह मुद्रा शिव की इस परिभाषा पर खरी उतरती है। उनकी इस छवि में जीवन चक्र दर्शाया गया है जिसके प्रत्येक भाग का शिव एक अभिन्न अंग हैं। नटराज का अर्थ है, नृत्यसम्राट, जो इस मुद्रा में दिव्य तांडव नृत्य कर रहे हैं।

नटराज की प्रतिमा

ऊपरी दाहिने हाथ में डमरू – चार भुजाधारी शिव के एक दाहिने हाथ में डमरू है जिस पर एक छोटी व मोटी रस्सी बंधी होती है। इस डमरू को जब वे कलाई से गोल घुमा कर बजाते हैं, तब रस्सी के सिरे पर बनी गाँठ डमरू के चमड़े पर टकराती है जिससे डमरू से नाद उत्पन्न होते हैं। डमरू से उत्पन्न नाद उस प्रणव स्वर का द्योतक है जिससे ब्रह्माण्ड की रचना हुई है। भगवान शिव का डमरू जगत की सृष्टि अर्थात जगत की रचना का प्रतीक है।

ऊपरी बाएं हाथ में अग्नि – उनके ऊपरी बाएँ हाथ में अग्नि है जो संहार अथवा विनाश या प्रलय का प्रतीक है। उनके दोनों ओर के दोनों हाथों में स्थित रचना एवं संहार के विपरीत चिन्ह, उनके मध्य संतुलन या स्थिति को दर्शाते हैं। यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि रचना एवं संहार एक दूसरी के अनुगामी है।

निचले दाहिने हाथ में अभय मुद्रा – उनका निचला दाहिना हाथ अभय मुद्रा में अवस्थित है। इसका अर्थ है कि वे धर्म के पथ पर अग्रसर शिव भक्तों का संरक्षण करते हैं। अभय एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है, भय विहीन।

निचले बाएं हाथ में वरद मुद्रा –नटराज का निचला बायाँ हाथ वरद मुद्रा में नीचे की ओर झुका हुआ है। यह समस्त जीवों की आत्मा का शरण स्थान अथवा मुक्ति का द्योतक है। उनका यह हाथ ब्रह्माण्ड के सुरक्षात्मक, पोषक व संरक्षक तत्वों का प्रतीक है। यह  एवं संहार के मध्यकाल से सम्बन्ध रखता है।

दाहिना पैर – उन्होंने अपने दाहिने चरण के नीचे अज्ञान के प्रतीक, एक बौने दानव को दबा रखा है। अतः, सृष्टि की रचना, पोषण, संहार तथा पुनर्रचना के अतिरिक्त भगवान शिव अज्ञानता के दानव पर भी अंकुश रख रहे हैं। एक तत्व पर अपना ध्यान अवश्य केन्द्रित करें, दानव आनंदित भाव से भगवान शिव को निहार रहा है।

बायाँ पैर – उनका बायाँ पैर नृत्य मुद्रा में उठा हुआ है जो नृत्य के आनंद को दर्शा रहा है।

कटि पर बंधा सर्प –  उनके कटिप्रदेश पर बंधा सर्प कुण्डलिनी रूपी शक्ति है जो नाभि में निवास करती है। अर्धचन्द्र ज्ञान का प्रतीक है। उनके बाएं कान में पुरुषी कुंडल हैं तथा दायें कान में स्त्री कुंडल हैं, जो यह दर्शाते हैं कि जहां शिव हैं, वहां उनकी शक्ति भी विराजमान हैं। उन्होंने एक नर्तक के समान अपने गले में हार, हाथों में बाजूबंद व कंगन, पैरों में पायल, पैरों की उँगलियों में अंगूठियाँ, कटि में रत्नजड़ित कमरपट्टा आदि आभूषण धारण किये हैं। उनके मुख पर समभाव हैं। पूर्णरुपेन संतुलित। न रचयिता का आनंद, नाही विनाशकर्ता का विषाद। वे जब नृत्य करते हैं तब उनकी जटाएं खुल जाती हैं। उनकी जटाओं के दाहिनी ओर आप गंगा को देख सकते हैं। उनके चारों ओर अग्नि चक्र है जो ब्रह्माण्ड को दर्शाता है।

रचना व संहार का लय

नृत्य सम्राट नटराज
नृत्य सम्राट नटराज

जाने माने भौतिक शास्त्री Fritjof Capra ने अपनी पुस्तक में कहा है, “आधुनिक भौतिक शास्त्र ने यह दिखाया है कि रचना एवं विनाश की लय केवल काल की गति तथा सभी जीवित प्राणियों के जन्म – मृत्यु का  द्योतक मात्र नहीं है, अपितु यह समस्त अजीव पदार्थों का भी सार है।” उस पुस्तक में यह भी कहा गया है कि “उस काल के आधुनिक विज्ञान शास्त्रियों के लिए भगवान शिव का नृत्य उपपरमाण्विक या सूक्ष्माणुओं का नृत्य है।”

उस पुस्तक में लेखक ने यह निष्कर्ष निकाला है कि “सहस्त्रों वर्षों पूर्व भारतीय कलाकारों ने नृत्य में तल्लीन भगवान शिव की छवियों को अनेक कांस्य प्रतिमाओं में साकार रूप प्रदान किया है। उनके काल में भौतिक विदों ने सर्वाधिक उन्नत तकनीक का प्रयोग कर इस दिव्य ब्रह्मांडीय नृत्य की विभिन्न मुद्राओं की श्रंखला को प्रदर्शित किया है। ब्रह्मांडीय नृत्य का यह रूप प्राचीन पौराणिक कथाओं, धार्मिक कलाओं एवं आधुनिक भौतिक शास्त्र का एकीकरण करता है।“

मेरी उनसे एक प्रश्न करने की अभिलाषा है कि क्या आधुनिक कण-भौतिकविद शिव एवं शक्ति को ही कण एवं प्रतिकण कहते हैं, जिनके मिलन से अनंत उर्जा उत्पन्न होती है?

भगवान की स्पष्टतम छवि

कला इतिहासकार आनंद केंटिश कुमारस्वामी कहते हैं कि नटराज भगवान् के कार्यकलापों की स्पष्टतम प्रतिकृति है। नटराज भगवान शिव के नृत्यमग्न छवि की सर्वाधिक उर्जावान प्रतिकृति है। कलामर्मज्ञ भारत-चिन्तक आनंद केंटिश कुमारस्वामी के अनुसार भगवान शिव का नृत्य उनके पाँच क्रियाकलापों का प्रतिनिधित्व करता है जिन्हें पंचक्रिया कहते हैं। वे हैं:

सृष्टि : निरिक्षण, सृजन, विकास

स्थिति : संरक्षण, समर्थन

संहार : विनाश, संसरण

तिरोभाव : अवगुंठन, मूर्त रूप, भ्रम,

अनुग्रह : मुक्ति, मोक्ष, कृपा

शिव के नटराज रूप में इन क्रियाओं की हाथों द्वारा अभिव्यक्ति की गयी है। डमरू द्वारा सृजन, अभय मुद्रा द्वारा संरक्षण, अग्नि द्वारा संहार अथवा विनाश तथा वरद मुद्रा द्वारा मोक्ष की अभिव्यक्ति की गयी है।

वर्णन

आनंद कुमारस्वामी ने नटराज का इन शब्दों में वर्णन किया है। चार भुजा धारी, नृत्य मग्न शिव, गुंथे हुए मणिजड़ित केश जिनकी जटाएं उनके साथ नृत्य कर रही हैं। उनके केश सर्प द्वारा बंधे हुए हैं जिन पर अर्धचन्द्र शोभायमान हैं। उस पर अमलतास की पत्तियों का हार है। अपने दाहिने कर्ण में उन्होंने पुरुषी कुंडल धारण किया है तथा बाएं कान में स्त्री कुंडल। गले में हार, हाथों में कंगन व बाजूबंद, पैरों में पैंजन, हाथों एवं पैरों की उँगलियों में अंगूठियाँ हैं। परिधान के नाम पर उन्होंने मुख्यतः एक लघु धोती, अंगवस्त्र तथा जनेऊ धारण किया है। एक दाहिने हाथ में डमरू तथा दूसरा दाहिना हाथ अभय मुद्रा में उठा हुआ है। एक बाएं हाथ में अग्नि अग्नि धारण की है तो दूसरा बायाँ हाथ बौने दैत्य मुयलका की ओर संकेत कर रहा है। मुयलका ने एक सर्प उठाया हुआ है। बायाँ पैर धरती से नृत्य मुद्रा में उठा हुआ है। शिव कमल के आसन पर खड़े होकर नृत्य कर रहे हैं। उनके चारों ओर गौरव चक्र तिरुवासी है जिससे अग्नि की लपटें निकल रही हैं। चक्र के भीतर से शिव के डमरू एवं अग्नि उठाये हुए हस्त उस चक्र को भीतर से स्पर्श कर रहे हैं।

८१ मुद्राएँ दर्शाते शिव

एक मूर्ति ८१ मुद्राएँ - बादामी कर्णाटक
एक मूर्ति ८१ मुद्राएँ – बादामी कर्णाटक

कर्णाटक के बादामी गुफाओं में स्थित भगवान शिव की एक छवि जिसमें कुल ८१ नृत्य मुद्राएँ प्रदर्शित की गयी हैं।

भारतीय कला के विषय में लिखा गया यह संस्करण इस क्षेत्र में मेरा प्रथम प्रयास है। इस विषय में मैं स्वयं को केवल एक विद्यार्थी मानती हूँ। यदि मेरे प्रयासों में कहीं कोई त्रुटि रह गयी हो तो कृपया मुझे क्षमा करते हुए मेरा मार्गदर्शन करें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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