श्री लंका यात्रा Archives - Inditales श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Tue, 05 Apr 2022 07:28:39 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.4 श्रीलंका का मन्नार द्वीप पर स्थित प्राचीन थिरुकितेश्वर मंदिर https://inditales.com/hindi/thirukeyeshawara-mandir-mannar-sri-lanka/ https://inditales.com/hindi/thirukeyeshawara-mandir-mannar-sri-lanka/#respond Wed, 06 Jul 2022 02:30:50 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2729

मन्नार श्रीलंका के उस छोर पर स्थित है जो भारत से सर्वाधिक निकट है। भारत एवं श्रीलंका के मध्य स्थित सुप्रसिद्ध राम सेतु के भारतीय छोर पर रामेश्वर स्थित है तथा श्रीलंका की ओर मन्नार स्थित है। रामेश्वरम के ही समान मन्नार भी मुख्य भूमि से पृथक द्वीप है जो मुख्य भूमि से सेतु द्वारा […]

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मन्नार श्रीलंका के उस छोर पर स्थित है जो भारत से सर्वाधिक निकट है। भारत एवं श्रीलंका के मध्य स्थित सुप्रसिद्ध राम सेतु के भारतीय छोर पर रामेश्वर स्थित है तथा श्रीलंका की ओर मन्नार स्थित है। रामेश्वरम के ही समान मन्नार भी मुख्य भूमि से पृथक द्वीप है जो मुख्य भूमि से सेतु द्वारा जुड़ा हुआ है। जिस प्रकार राम सेतु के भारतीय छोर पर रामेश्वरम मंदिर स्थित है, उसी प्रकार राम सेतु के लंका की ओर थिरुकितेश्वर मंदिर स्थित है। मध्ययुगीन काल (५वीं शताब्दी से १५ वीं शताब्दी) तक मन्नार चहल-पहल से भरा एक बंदरगाह नगर था, अतः विश्व के अन्य भागों से भिन्न भिन्न परिवहन मार्गों द्वारा जुड़ा हुआ था। वर्तमान में यह एक शांत तटीय नगर है जो पर्यटकों में लोकप्रिय है।

कोलम्बो से सड़क मार्ग द्वारा जब हम मन्नार पहुंचे, संध्या हो चुकी थी। मार्ग में कुछ स्थानों पर जलपान एवं अल्पविश्राम के लिए रुकते हुए हमने लम्बी दूरी की यह यात्रा पूर्ण की थी। मन्नार एक छोटा सा नगर है। मेरा विश्रामगृह भी अल्पतम सुविधाओं से युक्त एक छोटा सा यात्री निवास था। प्रातःकाल मैं थिरुकितेश्वर मंदिर के दर्शन करने के लिए निकली, जिसके दर्शन के लिए मैं अति उत्सुक  थी क्योंकि मैंने मार्ग में इस अद्भुत मंदिर के विषय में एक सम्पूर्ण पुस्तक पढ़ ली थी। अब उसके अवलोकन के लिए मैं अधीर हो रही थी।

मन्नार थिरुकितेश्वर मंदिर

मन्नार थिरुकितेश्वर मंदिर की कथा

थिरुकितेश्वर मंदिर श्री लंका
थिरुकितेश्वर मंदिर श्री लंका

इस मंदिर की कथा इसे प्रसिद्ध सागर मंथन की घटना से जोड़ती है। सागर मंथन से प्राप्त अमृत को जब देवताओं में बांटा जा रहा था तब एक असुर भी रूप परिवर्तित कर देवताओं की पंक्ति में बैठ गया। जैसे ही भगवान विष्णु को इस का आभास हुआ, उन्होंने अपने चक्र द्वारा उस असुर के दो टुकड़े कर दिए। किन्तु तब तक अमृत पान कर वह असुर अमर हो गया था। अतः उसकी देह के दोनों भाग भी अमरत्व प्राप्त कर गए थे। उसका धड़ विहीन मस्तक राहु कहलाया तथा मस्तक विहीन धड़ को केतु कहा गया।

ऐसी मान्यता है कि इस स्थान पर केतु शिव की आराधना करता था। उसी ने इस स्थान पर प्रथम शिवलिंग की स्थापना की थी। इसीलिए इस मंदिर का नाम थिरुकितेश्वर मंदिर कहा गया, अर्थात् केतु के इश्वर का मंदिर।

मन्नार को भगवान् विश्वकर्मा की कर्मभूमि भी कहा जाता है। विश्वकर्मा एक दिव्य स्थापत्यविद अथवा वास्तुविद हैं जिन्होंने अपने पुत्रों के साथ अनेक उत्कृष्ट स्थलों का निर्माण किया है। श्रीलंका भी उनमें से एक है। पारंपरिक स्थापति अथवा वास्तुविद स्वयं को उनके वंशज मानते हैं।

रावण की पटरानी मंदोदरी का भी मन्नार से गूढ़ सम्बन्ध था। वह महर्षि कश्यप के पुत्र तथा राक्षसों के विश्वकर्मा माने जाने वाले मायासुर की दत्तक पुत्री थी।

मन्नार थिरुकितेश्वर मंदिर का इतिहास

ऐसा कहा जाता है कि किसी समय इस मंदिर की भव्यता समुद्र के उस पार स्थित रामेश्वरम मंदिर के स्तर की थी। दक्षिण भारत के चोल वंश जैसे अनेक राजवंशों ने इस मंदिर को संरक्षण प्रदान किया था। कई तमिल भाषी संत-कवियों ने इस मंदिर की स्तुति में अनेक कवितायें लिखी हैं। किन्तु उन्होंने वास्तव में इस मंदिर के दर्शन किये थे अथवा नहीं, यह ज्ञात नहीं है। यहाँ तक कि चीनी यात्री व्हेन त्सांग ने भी अपने यात्रा संस्करणों में इस मंदिर का उल्लेख किया है।

प्राचीन चोल काल का शिवलिंग
प्राचीन चोल काल का शिवलिंग

कालांतर में ऐतिहासिक घटनाक्रम में पुर्तगालियों का आगमन हुआ तथा उन्होने इस मंदिर को पूर्णतः ध्वस्त कर दिया। सम्पूर्ण  क्षेत्र में इस मंदिर के अस्तित्व का कोई भी चिन्ह शेष नहीं बचा था। समय के साथ यह क्षेत्र वन में परिवर्तित हो गया। शनैः शनैः यह मंदिर लोगों की स्मृतियों से भी लुप्त होने लगा। १९वीं शताब्दी में जाफना के अरुमुगम नावलार नाम के एक नवयुवक ने शैव सिद्धांत का अध्ययन किया तथा उसे जनमानस तक पहुँचाने का कार्य आरम्भ किया। उसी काल में संयोग से उन्हें नयनमार सम्पन्द्रार तथा सुन्द्रार द्वारा रचित कवितायें पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जिसमें केतु के इष्ट देव के मंदिर के विषय में सुन्दर चित्रण किया गया था।

उसी क्षण से नवलर ने पूर्ण आवेग से इस मंदिर की खोज आरम्भ कर दी। जहाँ-तहाँ वनों की खुदाई भी की। अंततः उसकी मेहनत रंग लायी। उसने चोल काल के एक विशाल शिवलिंग को खोज निकाला, जिसकी अब भी इस मंदिर में पूजा-अर्चना की जाती है। यह एक प्रकार से इस मंदिर का पुनर्जन्म ही था। लोगों ने आरम्भ में यहाँ एक छोटा एकल-कक्ष मंदिर का निर्माण किया। शनैः शनैः वे अधिक धन एकत्र करते गए तथा मंदिर का विस्तार करते गए। मध्य काल में जनआंदोलनों के चलते अनेक अवसरों पर इसका निर्माण कार्य स्थगित करना पड़ा था। मंदिर के चारों ओर स्थित अनेक मठों को भी हानि पहुंचाई गयी थी किन्तु सौभाग्य से मुख्य मंदिर को कोई भारी क्षति नहीं हुई। आँदोलनों के चलते लोगों को मंदिर में जाने की अनुमति भी नहीं दी जाती थी।

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जब मैं इस मंदिर के दर्शन करने के लिए यहाँ आयी थी तब इसका विस्तार कार्य प्रगति पर था। मुझे यह लिखते हुए गर्व का अनुभव हो रहा है कि इस पुण्य कार्य में भारत सरकार एवं भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने भी सहयोग दिया है।

मन्नार थिरुकितेश्वर मंदिर के दर्शन

चूंकि इस मंदिर के निर्माण एवं विस्तार का विशाल कार्य प्रगति पर है, इस मंदिर को कुछ समय के लिए समीप ही अस्थायी रूप से स्थानांतरित किया गया है। इस अस्थायी स्थान पर भगवान की आराधना अनवरत रूप से की जा रही है। मैंने यहाँ एक विवाह समारोह भी संपन्न होते देखा।

राज गोपुरम पर कथाएं कहते दृश्य
राज गोपुरम पर कथाएं कहते दृश्य

मंदिर के समीप पहुंचते ही मंदिर का ऊंचा राज गोपुरम आपका मंदिर के भीतर स्वागत करता है। इस गोपुरम के एक ओर विशालकाय घंटा है जिसे इंग्लैंड से मंगवाया गया है। यह श्री लंका के मंदिरों की अनोखी विशेषता है। आप यहाँ के मंदिरों में गोपुरम के एक ओर अथवा दोनों ओर एक या दो घंटियाँ अवश्य देखेंगे। हो सकता है यह गिरिजाघरों का प्रभाव हो, विशेषतः जब इन घंटियों को यूरोपीय देशों से मंगवाया जाता था।

चोल काल की प्राचीन नंदी मूर्ति
चोल काल की प्राचीन नंदी मूर्ति

बाहर एक लघु मंदिर सदृश बाड़े के भीतर नंदी की एक प्राचीन मूर्ती है।

गर्भगृह के भीतर नवीन शिवलिंग की स्थापना की गयी है जिसे काशी से रामेश्वरम तक, तदनंतर रामेश्वरम से यहाँ तक लाया गया है। वाराणसी से लाये गए शिवलिंग की यहाँ श्री लंका में की जा रही पूजा-अर्चना देख मैं रोमांचित हो गयी थी। समीप ही एक लघु मंदिर गौरी अम्मा को समर्पित है जिसके गर्भगृह के भीतर उनकी मनमोहक प्रतिमा स्थापित है।

मंदोदरी मूर्ति
मंदोदरी मूर्ति

गर्भगृह के समक्ष, १०० स्तंभों के नवनिर्मित सभामंडप में केतु, मंदोदरी, कवि नयनमार सम्पन्द्रार तथा सुन्द्रार तथा चोल राजाओं की प्रतिमाएं हैं। साथ ही अश्वारोहण करते दो योद्धाओं की भी प्रतिमाएं हैं, मानो वे मंदिर का संरक्षण कर रहे हों। अन्य स्तंभों पर शिव तांडव की भिन्न भिन्न मुद्राओं, गणेश, विष्णु तथा देवी के विभिन्न स्वरूपों के शिल्प उत्कीर्णित हैं। इन शिल्पों के मध्य उर्वशी व रम्भा जैसे दिव्य नर्तकियों के भी शिल्प हैं। मंदिर की भीतरी छत पर नवग्रह, सूर्य, १२ राशि चिन्ह, कामधेनु तथा श्री यन्त्र उत्कीर्णित हैं।

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मंदिर के पुरोहितजी ने मुझे बताया कि पालवी यहाँ गंगा का प्रतिनिधित्व करती है। उन्होंने बताया कि प्रत्येक रात्रि भगवान शिव पार्वती के कक्ष में जाते हैं। प्रातः होते ही वे अपने कक्ष में वापिस आते हैं जहां वे गंगा से भेंट करते हैं क्योंकि पालवी के जल से ही उनका अभिषेक किया जाता है। कथाएं जिस प्रकार अनवरत जारी रहती हैं यह अत्यंत रोचक है।

मंदिर का जलकुंड/सरोवर – पलावी तीर्थं

जल कुण्ड के बिना एक मंदिर सम्पूर्ण नहीं होता। इस मंदिर का भी एक विशाल जलकुंड है जिसे पलावी तीर्थम कहा जाता है। यह मंदिर की उत्तरी दिशा में स्थित है। ऐसी मान्यता है कि किसी समय यह एक नदी थी जिसे गंगा जैसा मान प्राप्त था। इस जलकुंड अथवा सरोवर के जल का प्रयोग मंदिर के सभी अनुष्ठानों में होता है। शिवलिंग का अभिषेक भी पलावी जलकुंड के जल से ही होता है। यहाँ तक कि इस जलकुंड के तट पर श्राद्ध जैसे अनुष्ठान भी किये जाते हैं।

पलावी तीर्थम
पलावी तीर्थम

जलकुंड के एक ओर एक मंडप बना हुआ है। मंदिर के भगवान जब शोभायात्रा के लिए बाहर आते हैं तब वे इस मंडप के नीचे विश्राम करते हैं। यहाँ आप अनेक प्रकार के पक्षियों का भी अवलोकन कर सकते हैं।

मंदिर के समक्ष, गौशाला के समीप एक अन्य जलकुंड भी है।

उत्सव मूर्ति

इस मंदिर में कांस्य की प्राचीन मूर्तियों का अप्रतिम संग्रह है जिन्हें सुदर रेशमी वस्त्रों से अलंकृत किया हुआ है। उनमें चोल काल की नटराज एवं सोमस्कन्द की मूर्तियों का मैं यहाँ विशेष उल्लेख करना चाहती हूँ। ६३ नयनमार कवि-संतों की भी प्रतिमाएं हैं जिन्हें आप सामान्यतः सम्पूर्ण तमिल नाडु एवं श्री लंका के शिव मंदिरों देख सकते हैं।

कांस्य की सुसज्जित उत्सव मूर्तियाँ
कांस्य की सुसज्जित उत्सव मूर्तियाँ

इस मंदिर में १० दिवसों का एक वार्षिक उत्सव आयोजित किया जाता है जो साधारणतः वैशाख मास की पूर्णिमा के आसपास पड़ता है। इसके अतिरिक्त शिवरात्रि, नवरात्रि, गणेश चतुर्थी, स्कन्द षष्ठी जैसे अन्य हिन्दू उत्सवों का भी इस मंदिर में धूमधाम से आयोजन किया जाता है।

स्थापति से भेंट

स्थापति सेल्वनाथान अपने बनाये गोपुरम के साथ
स्थापति सेल्वनाथान अपने बनाये गोपुरम के साथ

इस मंदिर के दर्शन के उपरान्त जो सर्वोत्तम उपहार मुझे प्राप्त हुआ, वह है इस मंदिर के स्थापति सेल्वनाथन एवं उनकी पत्नी पोन्नी से भेंट। वे इस मंदिर में हो रहे निर्माण कार्यों की देखरेख कर रहे थे, जैसे विस्तार का वर्तमान चरण, मुख्य मंदिर के चारों ओर अन्य लघु मंदिरों की अनुवृद्धि, गर्भगृह के ऊपर नवीन विमान का निर्माण, जिसे अधिरचना भी कहते हैं, इत्यादि। मैंने उनके साथ मंदिर पर चर्चा करते हुए दो दिवस बिताये जो मेरे लिए एक प्रकार से महत्वपूर्ण अध्ययन था। मंदिर स्थापत्य की पृष्ठभूमि में एक मंदिर के निर्माण में क्या क्या नियोजन करने पड़ते हैं, उन्होंने मुझे उसकी जानकारी दी।

मंदिर वास्तुकला के विषय में मुझे जो जानकारी उनसे प्राप्त हुई, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

मंदिर के निर्माण में प्रयुक्त शिलाओं के प्रकार, स्त्रीलिंग शिलाओं, पुल्लिंग शिलाओं तथा नपुंसकलिंग शिलाओं में भेद। शिलाओं के प्रत्येक प्रकार का विशेष उपयोग है। जैसे, एक शिवलिंग केवल पुल्लिंग शिला पर ही उत्कीर्णित किया जा सकता है।

थिरुकितेश्वर मंदिर निर्माण का विडियो

मंदिर संरक्षण के लिए भिन्न भिन्न प्रकार के नियम हैं। इनमें कुछ नियमित रखरखाव हैं जिन्हें प्रत्येक १२ वर्षों के पश्चात किया जाता है। मंदिर की मूल रूपरेखा का अनुसार इसके विस्तार के कार्य नियोजित रूप से किये जाते हैं। कुछ संरक्षण के नियम ऐसे हैं जिनका प्रयोग विशेष परिस्थितियों में किया जाता है, जैसे उन मंदिरों का उद्धार जो किसी कारणवश अब जीवंत नहीं हैं अथवा उन मंदिरों का शुद्धिकरण जिन्हें किसी षडयंत्र के तले दूषित किया गया हो।

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मैंने मंदिरों में समाहित संगीत के विषय में जाना तथा उनकी कथाओं को समझा।

मैंने देखा वे किस प्रकार शिला पर आकृतियों की रूपरेखाएँ चित्रित करते हैं तथा अवांछित भागों को कुरेद कर निकालते हैं। यहाँ तक कि मुझे भी शिलाओं को उकेरने की प्रेरणा मिली तथा मैंने भी विशेषज्ञ के निरिक्षण में शिला पर कारीगरी करने की चेष्टा की।

मन्नार के अन्य दर्शनीय स्थल

मन्नार दुर्ग

मन्नार दुर्ग
मन्नार दुर्ग

सेतु पार कर जैसे ही हम मन्नार द्वीप-नगरी में प्रवेश करते हैं, हमारी दृष्टी एक छोटे से दुर्ग पर पड़ती है। पुर्तगालियों ने इस दुर्ग का निर्माण कराया था। तत्पश्चात डच निवासियों ने इस का अधिग्रहण किया। अंत में अंग्रेजों ने इस दुर्ग पर अधिपत्य जमाया। इससे आप इस दुर्ग के औपनिवेशिक इतिहास की कल्पना कर सकते हैं।

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आप इस दुर्ग के खंडहरों के मध्य भ्रमण कर सकते हैं तथा इसकी संरचना एवं खंडित कक्षों को देख सकते हैं। यहाँ मैंने कुछ शिलालेख भी देखे किन्तु उनसे मुझे कुछ ज्ञात नहीं हो पाया। दुर्ग के अधिकतर भागों की छतें अब नष्ट हो चुकी हैं।

राम सेतु

श्रीलंका को भारत से जोड़ने वाला प्राचीन सेतु बालू के टीलों के रूप में अब भी दृष्टिगोचर होता है। समीप ही समुद्र के तट पर अनेक जलक्रीड़ाओं का आयोजन किया जाता है, जैसे पैराग्लाइडिंग। यहाँ एक अनोखा तथ्य जो ध्यान में आता है, वह यह कि एक ओर का जल अत्यंत शांत है, वहीं दूसरी ओर का जल अत्यंत आक्रामक।

राम सेतु के तैरते पत्थर
राम सेतु के तैरते पत्थर

यहाँ से देखने पर दूर दूर तक बालू के अनेक टीले दृष्टिगोचर होते हैं जिनके पीछे चमकते हुए समुद्र के जल का किंचित भाग दिखाई देता है। मुझे बताया गया कि जिस दिन वायुमंडल अत्यंत स्वच्छ हो, उस दिन यहाँ से रामेश्वर मंदिर भी आसानी से दृष्टिगोचर होता है।

आप मनार के सभी विश्रामगृहों एवं जलपानगृहों में छिद्रों से भरी खंखरी शिलाएं देख सकते हैं जो डूबने की अपेक्षा, जल सतह पर तैरती हैं।

मन्नार के समीप डोरिक बंगला

डोरिक बंगला
डोरिक बंगला

समुद्र तट पर एक चट्टान के ऊपर एक प्राचीन बंगले का खँडहर है। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार इस स्थान पर सदियों से सीपियों में मोती ढूँढी जाती थी। कालान्तर में यह उद्योग अंग्रेजों के हाथों में चला गया जिन्होंने यहाँ से प्राप्त मोतियों का व्यापार कर अत्यधिक संपत्ति अर्जित की थी। इमारत के बाहर लगे एक सूचना फलक पर उन अमानवीय पद्धतियों का उल्लेख किया गया है जिनका प्रयोग कर वे समुद्र के भीतर से मोती ढूँढते थे। सीपियों को एकत्र करने के लिए वे स्थानिक गोताखोरों का प्रयोग करते थे।

वर्तमान में यह भवन खंडित अवस्था में है। इसके ऊपर चढ़कर आप अप्रतिम वातावरण का अनुभव ले सकते हैं। यद्यपि इसके ऊपर चढ़ना किंचित असुरक्षित सिद्ध हो सकता है क्योंकि किसी भी दुर्घटना की अवस्था में निकट कोई भी सहायता उपलब्ध नहीं है। समीप ही प्रकाशस्तंभ के समान एक संरचना है।

आवर लेडी ऑफ मधु गिरिजाघर

यह एक लोकप्रिय गिरिजाघर है जो मन्नार से किंचित दूरी पर है।

योधा वीवा

यह ५वीं सदी का एक प्राचीन जलकुंड है।

यहाँ स्थित बाओबाब के वृक्ष पर्यटकों में अत्यंत लोकप्रिय हैं। चूंकि बाओबाब वृक्ष मूलतः अफ्रीका में पाए जाते हैं, उनका यहाँ होना अफ्रीका से व्यापारिक संबंधों की ओर संकेत करते हैं।

मन्नार में नमक की खेती
मन्नार में नमक की खेती

मन्नार एवं इसके आसपास के क्षेत्र पक्षी दर्शन के लिए अत्यंत उत्तम हैं। यहाँ स्थित नमक के अनेक खेतों के कारण अप्रतिम दृश्य तो प्राप्त होता ही है, साथ ही यहाँ अनेक प्रजातियों के पक्षी भी एकत्र होते हैं। विदथल्ल्थीवु मछुआरों का ऐसा ही एक नगर है जो पक्षी दर्शन के लिए भी लोकप्रिय है। यहाँ आप नमक के अनेक ढेर देख सकते हैं जो प्राकृतिक रूप से एकत्र होते हैं तथा सूखते हुए रोचक गोलाकार आकृतियाँ बनाते हैं। स्थानिक गांववासी उन्हें टोकरियों में भरकर ले जाते हैं।

यहाँ की सडकों में आप कम ऊंचाई के विशेष गधे खोजने का प्रयास करें। यहाँ इस प्रजाति के अस्तित्व का कारण प्राचीन काल में किये गए दूर-सुदूर प्रदेशों से व्यापार हो सकता है।

यात्रा सुझाव

  • यह एक लघु नगरी है। अतः यहाँ सीमित पर्यटन सुविधाएं उपलब्ध हैं। तलैमन्नार में एक विशाल रिसोर्ट अवश्य है। किन्तु मन्नार के अधिकतर विश्रामगृह अथवा होटल छोटे एवं सीमित सुविधाओं से युक्त हैं।
  • यहाँ के अधिकतर जलपानगृहों में आपको ठेठ दक्षिण भारतीय भोजन उपलब्ध होगा, जैसे इडली, डोसा, वडा इत्यादि। इनके अतिरिक्त नूडल एवं फ्राइड राइस भी यहाँ लोकप्रिय है। कुछ स्थानों पर थाली परंपरा भी है।
  • श्री लंका के किसी अधिकारिक परिवहन केंद्र की गाड़ियों का प्रयोग करें। अन्यथा निजी परिवहन व्यवस्था का नियोजन करें।
  • इस क्षेत्र के अवलोकन के लिए १ से २ घंटों का समय पर्याप्त है।
  • समुद्री सीमा से निकट होने के कारण यह क्षेत्र राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टी से अतिसंवेदनशील है। यहाँ के सुरक्षा अधिकारी आपको अनेक स्थानों पर जांच के लिए रोक सकते हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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श्री लंका का दांबुला गुफा मंदिर में अप्रतिम बौद्ध प्रतिमाएं एवं भित्तिचित्र https://inditales.com/hindi/dambula-gufa-mandir-sri-lanka/ https://inditales.com/hindi/dambula-gufa-mandir-sri-lanka/#respond Wed, 19 Jan 2022 02:30:23 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2566

मैंने यह सुन रखा था कि मध्य श्रीलंका में स्थित दांबुला गुफा मंदिर में सर्वोत्तम रूप से परिरक्षित भित्ति चित्र हैं। इसके अतिरिक्त इस स्थल को यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल भी घोषित किया गया है। ये कारण मेरे लिए पर्याप्त थे कि मैं इन शैल गुफाओं तक पहुँचने के लिए आरोहण की योजना बनाऊँ। किन्तु, […]

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मैंने यह सुन रखा था कि मध्य श्रीलंका में स्थित दांबुला गुफा मंदिर में सर्वोत्तम रूप से परिरक्षित भित्ति चित्र हैं। इसके अतिरिक्त इस स्थल को यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल भी घोषित किया गया है। ये कारण मेरे लिए पर्याप्त थे कि मैं इन शैल गुफाओं तक पहुँचने के लिए आरोहण की योजना बनाऊँ। किन्तु, जून मास की तपती दुपहरी में अनुराधापुरा एवं पोलोनरूवा में पैदल भ्रमण के पश्चात मेरी उर्जा अपने निम्नतम स्तर पर थी।

 दांबुला गुफा में महापरिनिर्वाण मुद्रा में बुद्द
दांबुला गुफा में महापरिनिर्वाण मुद्रा में बुद्द

मिहिंतले में प्राप्त अनुभव मुझे चेता रहा था कि इस पर्वतीय स्थल का आरोहण प्रातःकाल अथवा संध्याकाल में ही करना चाहिए। अतः परिस्थिति का विश्लेषण कर मैंने निश्चय किया कि मैं दोपहर ढलने के पश्चात, लगभग शाम ४ बजे चट्टान का आरोहण आरम्भ करूंगी।

दांबुला गुफा से सिगिरिया का दृश्य
दांबुला गुफा से सिगिरिया का दृश्य

आप इस चट्टान का आरोहण, दो विपरीत दिशा में स्थित आरम्भ बिन्दुओं से कर सकते हैं। एक, जहां हम टिकट क्रय करते हैं, दूसरा जहां एक विशाल स्वर्ण मंदिर स्थित है। मैंने टिकट खिड़की से टिकट क्रय किया तथा स्वर्ण मंदिर की दिशा में आ गई, क्योंकि मुझे बताया गया कि इस बिंदु से आरोहण अपेक्षाकृत सुगम है। प्रवेशद्वार पर स्थित एक विशाल स्वर्ण प्रतिमा तथा एक स्वर्णिम पगोडा के दर्शन कर मैं आगे बढ़ी।

सीढ़ियाँ चौड़ी एवं आसान थीं। कुछ स्थानों पर सीढ़ियाँ सुव्यवस्थित प्रकार से उकेरी नहीं गयी थीं। वहां चट्टानी सतह पर चढ़ना पड़ा। एक बिंदु पर आकर हमारा पथ दो भागों में बंट गया। एक मार्ग तीव्र ढलान युक्त सपाट पथ है किन्तु अपेक्षाकृत किंचित छोटा पथ है। वहीं दूसरे पथ पर आसान सीढ़ियाँ हैं। मैंने चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ युक्त पथ का प्रयोग किया तथा उतरने के लिए सपाट ढलुआँ पथ का। मेरा सुझाव है कि आप भी इस प्रकार दोनों मार्गों का प्रयोग करें क्योंकि ये दो मार्ग चट्टान के दो ओर से जाते हैं तथा दोनों ओर के परिदृश्य अत्यंत भिन्न हैं। सीढ़ियों वाले मार्ग से आप अपने समक्ष प्रभावशाली सिगिरिया चट्टान देखेंगे जो अपने जुड़वा चट्टान के साथ गर्व से खड़ा है। ढलुआँ मार्ग की ओर से आप सुन्दर पहाड़ियों की पृष्ठभूमि में अनेक रंगों की छटा बिखेरती हरियाली देखेंगे।

दांबुला गुफा मंदिर का इतिहास

दांबुला शैल मंदिर स्थित स्वर्णिम स्तूप
दांबुला शैल मंदिर स्थित स्वर्णिम स्तूप

दांबुला दो शब्दों की संधि से बना है, दाम्बा तथा उला, जिनके अर्थ हैं चट्टान एवं झरने।  झरने? जी हाँ, यहाँ स्थित विशालतम गुफाओं में से एक गुफा के भीतर से जल अनवरत टपकता रहता है। ये सभी गुफाएं प्राकृतिक हैं, इस तथ्य ने मुझे अचंभित कर दिया। गुफा के भीतर जाते ही आपकी दृष्टी शिलाओं की प्राकृतिक आकृतियों पर पड़ेंगी। इन आकृतियों के अनुसार ही चित्रकारों ने इन शिलाओं को कुशलता से चित्रित किया है। ये गुफाएं अजंता, एलोरा अथवा बराबर गुफाओं के अनुरूप नहीं हैं क्योंकि वे गुफाएं मानवों द्वारा उत्खनित हैं।

अभिलेखों के अनुसार, प्राचीन काल में, लगभग प्रथम ईसा पूर्व, राजा वट्टगामिनी अभय ने इन गुफाओं में शरण ली थी। कालांतर में उन्होंने इन गुफाओं को मंदिरों में परिवर्तित दिया।

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राजा निषंकमल्ला, जिनके विषय में हमने पोलोनरूवा में जानकारी प्राप्त की थी, उन्होंने इन पर स्वर्ण पत्रों का आवरण चढ़ाया। इसी कारण इनका नाम रनगिरी पड़ा। स्वर्ण को श्री लंका की सिंहली भाषा में रन कहते हैं।

कहानियां कहते शैल चित्र
कहानियां कहते शैल चित्र

इन गुफाओं में बुद्ध की १५०  से भी अधिक प्रतिमाएं हैं। इनके अतिरिक्त हिन्दू देवी-देवताओं एवं राज परिवार के सदस्यों की भी छवियाँ हैं।

श्रीलंका के आधुनिक इतिहास के अनुसार, ये वे गुफाएं हैं जहां से बौद्ध भिक्षुओं ने सन् १८४८ में ब्रिटिश अधिपत्य के विरुद्ध राष्ट्रीय आन्दोलन आरम्भ किया था।

दांबुला गुफा मंदिर

५ प्रमुख गुफाएं

इस क्षेत्र में कुल ८० गुफाएं हैं। उनमें ५ गुफाएं प्रमुख हैं जिनके सामान्यतः पर्यटक दर्शन करते हैं। प्राकृतिक होने के कारण इन गुफाओं के आकार एवं आकृतियाँ भिन्न हैं।

विशाल शैल में दांबुला गुफाएं
विशाल शैल में दांबुला गुफाएं

गुफाओं से जब आपका प्रथम साक्षात्कार होगा तब आपके समक्ष एक विशाल चट्टान के नीचे पंक्तियों में लगे अनेक शुभ्र श्वेत द्वार होंगे। इस की वास्तुशैली औपनिवेशिक प्रतीत होती है, मुख्यतः प्रथम द्वार जो आपसे निकटतम स्थान पर स्थित है। मुझे बताया गया कि इन द्वारों को कालांतर में, लगभग २०वीं शताब्दी में बिठाया गया था। इसी कारण इनमें उस काल में प्रचलित वास्तुशैली की छाप है।

गुफाओं के समक्ष एक संकरा गलियारा है। प्रवेशद्वारों को मंदिर के द्वारों के समान निर्मित किया गया है जिन पर द्वारपाल, रक्षक तथा देवदूतों की आकृतियाँ उत्कीर्णित हैं।

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गुफाओं के भीतर लाल एवं पीले रंगों की प्राधान्यता है। प्रतिमाओं के ऊपर छत पर, छपे वस्त्रों के समान चित्रण किया गया है। उन पर प्रमुखता से श्वेत, श्याम एवं लाल रंग के चौकोर खंड हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रतिमाओं के ऊपर कपडे का तम्बू लगाया गया है।

१. देवराज लेणा अथवा दिव्य राजा की गुफा

यह गुफा अपेक्षाकृत छोटी है। इस गुफा में प्रमुखता से महापरिनिर्वाण स्थिति में बुद्ध की प्रतिमा है। प्रमुखता इसीलिए कहा क्योंकि गुफा के भीतर लगभग सम्पूर्ण स्थान इस प्रतिमा ने ग्रहण किया हुआ है। चूंकि सर्वप्रथम मैंने इसी प्रतिमा के दर्शन किये थे, इसकी विशालता देख मैं स्तब्ध रह गयी थी। भित्तिचित्रों एवं विग्रहों के चटक रंग अत्यंत आकर्षित हैं।

बुद्ध के चित्रित चरण
बुद्ध के चित्रित चरण

यहाँ की सर्वाधिक रोचक व आकर्षक रचना है, बुद्ध की आत्मा का चित्रण जिसमें धर्मचक्र एवं पद्म पुष्प की आकृतियों के संयोजन से सुन्दर चित्रण किया गया है।

दाहिनी ओर आसीनस्थ बुद्ध की छवि है जिनके पीछे अप्रतिम प्रभामण्डल है। उनके चरणों में आनंद बैठे हुए हैं। भित्तियों पर हाथ जोड़कर खड़े राजा एवं मंत्रियों की छवियाँ हैं। छत पर दो भागों में अनोखा चित्रण किया गया है जिसमें एक भाग में ज्यामितीय आकृतियाँ हैं तो दूसरे भाग में पुष्पाकृतियाँ हैं।

बुद्ध, अनुयायी और बेल बूटे
बुद्ध, अनुयायी और बेल बूटे

प्रथम गुफा के निकट एक लघु मंदिर है जिसके भीतर विष्णु एवं कार्तिकेय के विग्रह हैं।

२. महाराजा लेणा – दांबुला का प्रमुख गुफा मंदिर

विशालतम गुफा में स्तूप
विशालतम गुफा में स्तूप

यह यहाँ की विशालतम गुफा है। इसके भीतर खड़े होकर अपनी सूक्ष्मता का तीव्र आभास होता है। चारों ओर स्थित बुद्ध की आसीनस्थ एवं खड़ी प्रतिमाएं अभिभूत कर देती हैं। अधिकांश प्रतिमाओं के वस्त्र सुनहरे पीले रंग में रंगे हैं। गुफा के दो द्वार हैं जिनमें एक के समीप एक स्तूप है। गुफा के छत की विस्तृत सतह को पूर्ण रूप से चित्रित किया गया है। छत के सतह पर छोटे से छोटा स्थान भी चित्रण विहीन नहीं है। बुद्ध के चारों ओर उनका ध्यान भंग करने का प्रयास करते माराओं के चित्र हैं।

पंक्तिबद्ध बुद्ध प्रतिमाएं
पंक्तिबद्ध बुद्ध प्रतिमाएं

गुफा की छत पर एक चित्र है जिसमें सहस्त्र बुद्ध ध्यान मग्न बैठे हैं। इसी छवि अजंता गुफाओं की भित्तियों पर भी हैं।

भूमि स्पर्श मुद्रा में बुद्ध का भित्तिचित्र
भूमि स्पर्श मुद्रा में बुद्ध का भित्तिचित्र

इस गुफा में राजा वट्टगामिनी अभय एवं राजा निषंकमल्ला के भी चित्र हैं।

३. गुफा ३

आसनस्थ बुद्ध प्रतिमाएं
आसनस्थ बुद्ध प्रतिमाएं

यह गुफा प्रमुख गुफा का लघु प्रतिरूप है। प्रवेश करते ही एक विशाल प्रतिमा से आपका सामना होता है। चारों ओर ध्यानमग्न बुद्ध की प्रतिमाएं हैं।

४. गुफा ४

यहाँ तक पहुँचते पहुँचते आप को अनुमान लगने लगता है कि गुफा के भीतर आप क्या देखने वाले हैं। यह भी एक लघु गुफा है जिसके भीतर निद्रामग्न बुद्ध की मूर्ति है।

५. गुफा ५

बुद्ध के चित्रों और प्रतिमाओं से घिरा स्तूप
बुद्ध के चित्रों और प्रतिमाओं से घिरा स्तूप

इस गुफा में भी एक लघु स्तूप है जिसके चारों ओर बुद्ध के विग्रह हैं तथा भित्तियों पर कथाएं चित्रित हैं।

इन सभी पाँच गुफाओं के अवलोकन के पश्चात, मुक्त आकाश ने नीचे खड़े होकर आप आसपास के अप्रतिम परिदृश्यों का आनंद उठायें। आपको यहाँ आते श्रद्धालुओं को देख कर एवं उनकी श्रद्धा को अनुभव कर भी अत्यंत आनंद आएगा। आपको पर्यटकों एवं श्रद्धालुओं में भेद तुरंत दृष्टिगोचर होगा। अनेक पर्यटक यहाँ आकर इस स्थान का कौतूहलपूर्वक अवलोकन करते हैं, प्रशंसा करते हैं किन्तु उनका इस स्थान से जुड़ाव नहीं दिखता। इसके विपरीत, श्रद्धालुओं को यहाँ की कला एवं विरासत से सरोकार नहीं होता, वे यहाँ केवल उस परम भगवान को अनुभव करने एवं उनसे एकाकार होने की अभिलाषा लिए आते हैं।

और पढ़ें – श्रीलंका स्थित रामायण सम्बंधित स्थल – एक रोमांचक यात्रा कथा

मैंने यहाँ अनेक शालेय विद्यार्थियों को देखा जो प्रार्थना करने तथा क्रीड़ा करने आये थे।

दांबुला गुफा मंदिर के ऊपर बुद्ध की एक विशाल स्वर्ण प्रतिमा है तथा चट्टान की तलहटी पर एक संग्रहालय है। यहाँ से मैदानी क्षेत्रों एवं सिगिरिया चट्टान का सुन्दर दृश्य दिखाई देता है।

यात्रा सुझाव

दांबुला गुफा में बुद्ध
दांबुला गुफा में बुद्ध
  • दांबुला गुफा मंदिर के दर्शन के लिए प्रातःकाल अथवा संध्याकाल के समय ही आरोहण करें। दोपहर की तपती धूप कष्टदायी होती है।
  • पेयजल साथ रखें।
  • यूँ तो दर्शन स्थल पर गाइड उपलब्ध होते हैं। किन्तु यह विशाल अथवा जटिल स्थल नहीं है। अतः इनके विषय में अध्ययन कर अथवा पूर्व जानकारी प्राप्त कर जाएँ तो आप आसानी से स्वयं भी इनका अवलोकन कर सकते हैं।
  • चट्टान के एक ओर से आरोहण करें तथा दूसरी ओर से अवरोहण। इससे आप चट्टान के दोनों ओर के परिदृश्यों का आनंद उठा सकते हैं।
  • श्री लंका के नागरिकों के लिए प्रवेश शुल्क नहीं है। विदेशी पर्यटकों के लिए प्रवेश शुल्क उस समय १५०० श्री लंका रुपये थी।
  • गुफाएं अत्यंत आर्द्र एवं उष्ण हैं। गुफाओं के बाहर वातावरण आनंदमय होता है। गुफाओं का अवलोकन करते समय मुझे अनेकों बार बाहर आना पड़ा एवं स्वच्छ वायु में श्वास लेना पड़ा।
  • इन गुफाओं का अवलोकन करने के लिए डेढ़ से दो घंटों का समय लग सकता है।

इन गुफाओं के भ्रमण के लिए निकटतम विश्राम स्थल कैंडी है जो यहाँ से अधिक दूर नहीं है। अन्यथा आप मेरे समान हब्बरना के Cinnamon Lodge में  ठहर सकते हैं । वहाँ से आप ३० मिनट गाड़ी चलाकर गुफाओं तक पहुँच सकते हैं।

श्री लंका में करने योग्य २५ रोचक क्रियाकलाप – मेरे यूट्यूब चैनल पर यह विडियो देखें।

आप यह विडियो HD में देखें तथा अपनी यात्रा नियोजित करें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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श्रीलंका में खरीददारी- १५ सर्वोत्तम स्मृतिचिन्ह वस्तुएं https://inditales.com/hindi/sri-lanka-se-kya-uphaar-laayen/ https://inditales.com/hindi/sri-lanka-se-kya-uphaar-laayen/#respond Wed, 07 Jul 2021 02:30:26 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2341

श्रीलंका सर्वदा ग्राहकों का स्वर्ग रहा है। यह एक प्रमुख वस्त्र एवं परिधान निर्यातक है। हम भारतीयों में भी श्रीलंका वस्त्रों की खरीददारी हेतु जाना जाता रहा है। श्रीलंका यात्रा कार्यक्रम सूची में वस्त्रों एवं परिधानों की खरीददारी हेतु विशेष रूप से ओडेल बाजार का नाम सम्मिलित किया जाता रहा है। मेरी दो श्रीलंका यात्रा […]

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श्रीलंका सर्वदा ग्राहकों का स्वर्ग रहा है। यह एक प्रमुख वस्त्र एवं परिधान निर्यातक है। हम भारतीयों में भी श्रीलंका वस्त्रों की खरीददारी हेतु जाना जाता रहा है। श्रीलंका यात्रा कार्यक्रम सूची में वस्त्रों एवं परिधानों की खरीददारी हेतु विशेष रूप से ओडेल बाजार का नाम सम्मिलित किया जाता रहा है।

श्रीलंका के उपहार एवं स्मृतिचिन्ह मेरी दो श्रीलंका यात्रा के समय मैंने वस्त्रों के साथ साथ कई अन्य वस्तुएं भी देखी जो विशेष रूप से श्रीलंका की संस्कृति एवं धरोहर का प्रतीक है। इन्हें आप अपनी श्रीलंका यात्रा के समय स्मृतिचिन्ह के रूप में खरीद सकते हैं। श्रीलंका में ये प्रतीकात्मक स्मृतिचिन्ह हर प्रकार के ग्राहकों के अनुरूप कई मूल्य सीमाओं में उपलब्ध हैं। मेरे निष्कर्ष के अनुसार, वस्त्रों के अतिरिक्त अन्य मुख्य १५  वस्तुएं हैं जिन्हें आप स्मृतिचिन्ह के रूप में खरीद सकते हैं वे हैं-

रत्न एवं जवाहरात

आइये इस स्मृतिचिन्हों की सूची का आरम्भ सर्वाधिक मनमोहक एवं सर्वाधिक मूल्यवान वस्तु से की जाए। श्रीलंका में रत्नों की अनेक खदाने हैं। चन्द्रकान्ता की खदान इनमें प्रमुख है। मझे भी यहाँ की एक चन्द्रकान्ता खदान देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यहाँ रत्नों का उत्खनन एवं छंटनी कर तराशने एवं चमकाने की विधि को प्रत्यक्ष देखने का अवसर मिला। इन चमकदार रत्नों को विभिन्न धातुओं में जड़ कर आभूषण भी बनाए जा रहे थे। मेरा ह्रदय भी इन रत्नों पर मोहित हो गया और मैंने भी कुछ चन्द्रकान्ता रत्नों की खरीददारी की।

श्रीलंका के अमूल्य रत्न
श्रीलंका के अमूल्य रत्न

यूं तो आप श्रीलंका में कहीं भी इन रत्नों की खरीददारी कर सकते हैं। पर्यटन हेतु प्रसिद्ध उनावातुना एवं कैंडी में छोटी बड़ी कई रत्नों की दुकाने हैं। क्या कहा? आपको अपनी रत्नपारखी दृष्टी पर संदेह है! आप यहाँ स्थित कई संग्रहालयों के दर्शन कर सकते हैं जहां साहित्यों एवं लघु चलचित्रों द्वारा इनकी परख करना बताया जाता है। इन्हें देखने के पश्चात आप निर्भय होकर विभिन्न रत्नों की खरीददारी कर सकते हैं।

हाँ, मैं आपको सचेत कर दूं! हर छोटी बड़ी दुकानों में इन रत्नों की खरीददारी के समय मोलभाव करना ना भूलें।

लंका की प्रसिद्ध चाय

श्रीलंका की चाय सदा से प्रसिद्ध रही है। यह चाय के रसिकों हेतु श्रीलंका से लाया गया सर्वोत्तम उपहार साबित हो सकता है। आप चाय के बागानों पर जाकर उनका कारखाना देख सकते हैं और अपनी पसंदीदा चाय वहीं से ला सकते हैं। जहां तक मेरा सवाल है, मैं जब भी किसी क्षेत्र के चाय बागानों में जाती हूँ, वहां से ताज़ी चाय इतनी लाती हूँ कि मेरे कुछ महीनों की चाय आपूर्ति संतुष्ट हो जाती है।

लंका की प्रसिद्द चाय
लंका की प्रसिद्द चाय

श्रीलंका में चाय के बागानों के अलावा आप बाजार एवं स्मारिका दुकानों से भी सुन्दर डिब्बों में बंद चाय की पत्तियों की खरीदी कर सकते हैं।

श्रीलंका की सर्वाधिक प्रसिद्ध चाय, दिलमा चाय के नाम से बिकती है।

चीनी मिट्टी के बर्तन

आप में से बहुत कम लोगों को यह जानकारी होगी कि जापान में उपलब्ध नोरीटेक नामक सर्वाधिक प्रसिद्ध चीनी मिट्टी की वस्तुएं श्रीलंका में बनाइ जाती हैं। यदि आप उचित दामों में मनपसंद बर्तन खरीदना चाहते है तो कारखाने के विक्री केंद्र से खरीद सकते हैं। इसके अलावा, कोलम्बो के विशाल प्रदर्शनकक्ष से भी इन्हें खरीद सकते हैं। श्रीलंका स्थित ओडेल के प्रकार के अन्य बाजारों में भी इनके उत्पाद उपलब्ध हैं।

श्री लंका में बने चीनी मिट्टी के बर्तन
श्रीलंका में बने चीनी मिट्टी के बर्तन

१२ वर्षों पूर्व मेरी श्रीलंका यात्रा के समय खरीदे गये चीनी मिट्टी के बर्तन आज भी मेरी रसोईघर की शोभा बढ़ा रहे हैं। यहाँ कुछ लोगों ने बताया कि जब श्रीमती अम्बानी मुंबई के अपने नवीन गृह की साजसज्जा करवा रही थीं, तब अपने रसोईघर के लिए चीनी मिट्टी के बर्तन खरीदने श्रीलंका गयी थीं।

श्रीलंका की दालचीनी

दालचीनी की छड़ियाँ
दालचीनी की छड़ियाँ

दक्षिण भारत में उगाये जाने वाले लगभग सभी मसाले श्रीलंका में भी उगाये जाते हैं। इसका मुख्य कारण है हवा पानी की समानता। इसमें दालचीनी प्रमुख है। क्या आप जानते हैं, श्रीलंका विश्व में दालचीनी का सबसे बड़ा निर्यातक है? अतः यह स्पष्ट है कि मैंने कौन सा मसाला खरीदा होगा! मैंने नाजुक चिट्ठे की प्रकार लपेटे हुए दालचीनी के टुकड़े खरीदे। यह भारत में साधारणतः बिकने वाले दालचीनी से भिन्न दिखाई पड़ रहे थे।

दालचीनी टुकड़ों के अलावा चूर्ण रूप में भी उपलब्ध हैं। आप दालचीनी सहित अन्य कई मसालों से भरे सुन्दर पोटलियाँ भी खरीद सकते हैं। अपने रसोई के साथ साथ, यह एक उपयोगी उपहार भी हो सकता है।

लकड़ी के आकर्षक मुखौटे

काष्ठ के अनूठे मुखौटे
काष्ठ के अनूठे मुखौटे

लकड़ी पर नक्काशी सम्पूर्ण श्रीलंका में लिए जाने वाली हस्तकला है। श्रीलंका स्थित कई बौध मंदिरों में की गयी यह नक्काशी आपका मन मोह लेगी। लकड़ी के सुन्दर नक्काशी किये गए मुखौटे श्रीलंका के कलाकारों की पहचान है। ये रंगबिरंगे मुखौटे आपके घर की सजावट का हिस्सा हो सकते हैं। ऐसा माना जाता है कि लाल रंग के मुखौटे रक्षण करते हैं, पीले रंग के मुखौटे समृद्धि प्रदान करते हैं तथा नीले रंग के मुखौटे आपके व्यवसाय में मदद करते हैं।

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मेरी इच्छा थी शुद्ध लकड़ी की नक्काशी की गयी वस्तु जिस पर कोई अतिरिक्त रंग न लगा हो। अतः मैंने लकड़ी के खम्बे के ऊपर बैठे, हाथ में बंसी पकडे मछुआरे की मूर्ति अपने लिए पसंद की थी। मैंने रावण का एक मुखौटा भी खरीदा था। मेरी राय में यह भारत और श्रीलंका के प्राचीन सम्बन्ध का प्रतीक था। यह आज भी मेरे संग्रह का एक प्रमुख हिस्सा है।

दुमबारा चटाई एवं बेंत की वस्तुएं

बेंत से बनी वस्तुएं
बेंत से बनी वस्तुएं

दुमबारा बुनाई एक हथकरघे पर बनाई गयी खुरदुरी बुनाई है। कैंडी के समीप स्थित इसके उत्पत्ति क्षेत्र के नाम पर ही इसे दुमबारा बुनाई कहा जाता है। ज्यामितीय आकृतियों में बनाई गयी इस बुनाई में अधिकतर श्वेत, श्याम व लाल रंगों का प्रयोग किया जाता है। श्रीलंका में मैंने इस बुनाई द्वारा बनाए आकर्षक दीवारों की सजावट, मेजपोश, टोकरियाँ व थैले देखे। ये वस्तुएं स्मारिका दुकानों में भी उपलब्ध हैं। कई आकृतियों एवं आकारों में उपलब्ध ये वस्तुएं आपको चुनाव का पर्याप्त अवसर देते हैं।

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इसी प्रकार आप बेंत से बने सुन्दर टोकरियाँ एवं डिब्बे भी खरीद सकते हैं।

श्रीलंका की साड़ियाँ

श्रीलंका की साडी
श्रीलंका की साडी

दक्षिण भारतीय शहरों की प्रकार श्रीलंका में भी पारंपरिक स्त्री वेशभूषा साड़ी है। केरल की तरह श्रीलंका की साड़ीयाँ भी दो प्रकार की होती हैं। पहले प्रकार की साड़ी में चोली के साथ दो और भाग होते हैं। पहला दुपट्टा एवं दूसरा कमर पर झालर लगा हुआ अधोवस्त्र जिसे कमर पर लपेटा जाता है। दूसरी प्रकार की साड़ी भारतीय साड़ी की तरह पांच गज की होती है परन्तु इसे भारतीय परंपरा से विपरीत पद्धति से पहना जाता है। पल्लू से आरम्भ करते हुए पहने जाने वाली इस साड़ी की चुन्नटें अन्दर के बजाय, बाहर निकाल कर उसे कमर पर झालर का रूप दिया जाता है।

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पहली प्रकार की साड़ी पहनने में बहुत आसान है। मैंने भी वहां एक स्त्री से इस साड़ी को पहनना सीखा। यह आसाम की मेखला साड़ी की याद दिलाती है। कहा जाता है कि यह मूलतः इंडोनेशिया के जावा प्रदेश में पहने जाने वाली रेड्डा-हट्टे से प्रेरित वेशभूषा है। श्रीलंका की स्मारिका के रूप में यह एक सुन्दर उपहार हो सकता है।

पुरातन वस्तुएं

यदि आपको प्राचीन वस्तुओं के संग्रह में रूचि हो तो गॉल में स्थित अनेक दुकानों से इन वस्तुओं की खरीदी कर सकते हैं। मेरे साथ अनोखा संयोग यह हुआ कि गॉल में भ्रमण के समय वर्षा हो रही थी। अतः मैंने अपना पूर्ण समय दुकानों में ही बिताया। रत्नों एवं पुरातन वस्तुओं की अनेक दुकानें यहाँ स्थित हैं।

यहाँ प्राचीन बर्तन, घड़ियाँ, वाद्ययंत्र, पूजाघर की वस्तुओं की तरह अनेक वस्तुएं उपलब्ध हैं। इनमें से पसंदीदा वस्तु ढूँढने हेतु बहुत संयम की आवश्यकता है। यह खजाना ढूँढने से कम रोमांचक नहीं है।

नक़्शे, चित्र एवं कागज की वस्तुएं

गॉल की दुकानों में विचरण के समय मेरी दृष्टी दुकानों के एक समूह पर पड़ी जो प्राचीन श्रीलंका के चित्र व नक़्शे बेच रहे थे।

पुराने मानचित्र और पोस्टर
पुराने मानचित्र और पोस्टर

उनके पास श्रीलंका एवं गॉल के मनमोहक चित्र थे। उनमें कुछ चित्र कई वर्षों पुराने थे। फिर भी इन्हें अत्यंत सहेज कर रखा हुआ था। यदि आप प्राचीन चित्रों में रूचि रखते हैं तो गॉल की गलियों में आपकी इच्छा पूर्ण हो जायेगी।

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श्रीलंका में कुछ कलाकार कागज़ के पुनर्नवीनीकरण का कार्य अत्यंत आकर्षक ढंग से कर रहे हैं। मैंने रंगबिरंगी टोकरियाँ देखी जो कागज़ की पुनःचक्रण कर बनाई गयी थी। मेरी प्रबल इच्छा थी कि इन मनमोहक टोकरियों को अपने साथ भारत लाऊँ और यहाँ इनकी प्रतिलिपि बनवाऊँ। इन कागज़ से बनी वस्तुओं की खरीदी का सीधा अर्थ है पर्यावरण की रक्षा की ओर हमारा सहयोग।

पत्थरों पर रंगबिरंगी चित्रकारी

आपने चिकने पत्थर पर रंगे गए चित्र तो देखे होंगे। परन्तु खुरदुरे पत्थरों पर चित्रित किये सुन्दर हाथी एवं नर्तक कदाचित ही देखे होंगे।

पाषाण  चित्रकारी
पाषाण चित्रकारी

यदि आपका चित्त दाम्बुला एवं सिगिरिया के पाषाणी चित्रकलाओं पर मोहित हो तो इन्हें भी श्रीलंका के उत्तम स्मृतिचिन्ह के रूप में खरीदकर घर की शोभा बढ़ाई जा सकती है। कालान्तर में इन चित्रिकरणों की शैली में बदलाव भले ही आया हो, किन्तु इनकी मूल प्रकृति स्थिर है।

उत्कीर्णित रंगबिरंगे लकड़ी के साजसामान

रंग बिरंगी लकड़ी की पेटियां
रंग बिरंगी लकड़ी की पेटियां

कैंडी में कई कार्यशालायें हैं जहां लकड़ी की उत्तम मूर्तियाँ एवं घर के साजसामान निर्मित जाते हैं। ऐसे ही एक कार्यशाला के दर्शन मुझे भी प्राप्त हुए। वहां बनाए गए सभी वस्तुओं ने मेरा मन मोह लिया था। तथापि एक संदूक ने मुझे विशेष रूप से आकर्षित किया था। यह चित्रकारी किया हुआ अद्भुत संदूक था।

मुझे अवगत कराया गया कि यहाँ सभी कार्यशालाएं विश्व के कोने कोने में अपनी कलाकृतियाँ अपवाहन करते हैं। अतः चुनी हुई वस्तुएं आप आसानी से अपने घर पर मंगवा सकते हैं।

श्रीलंका की प्रतिष्ठित चित्रकारी

श्रीलंका के स्मृतिचिन्ह के रूप में आप यहाँ बनाए गए प्रतिष्ठित शैली के चित्र भी ले सकते हैं। ये चटक रंग में बने उज्जवल एवं  विशुद्ध चित्रकलाएं हैं। अधिकतर चित्रकलाएं पौराणिक कथाओं पर आधारित हैं। इनमें राजसी सवारी एवं महाकाव्यों के पात्रों की प्राधान्यता है।

इन चित्रों को देख मुझे ताम्बेकर वाडा के भित्तियों का स्मरण हो आया।

दालचीनी वृक्ष से निर्मित कटोरे

दालचीनी की लकड़ी से बना कटोरा
दालचीनी की लकड़ी से बना कटोरा

यद्यपि काष्ठ निर्मित कटोरे आप खरीद ही सकते हैं, परन्तु श्वेत और दालचीनी के रंग के चिकने कटोरे अत्यंत सुन्दर एवं अद्वितीय हैं। विक्रेता के अनुसार दालचीनी वृक्ष की छाल सर्वप्रथम दालचीनी मसाले हेतु तने से पृथक की जाती है। तत्पश्चात तने के भीतरी भाग की धूलि से इन कटोरियों को रंगा जाता है।

श्रीलंका के मुख्य मसाले, दालचीनी से रंगी कटोरी श्रीलंका की अनोखी पहचान है, एवं आपके लिए एक उत्तम स्मृतिचिन्ह।

वस्त्र

श्रीलंका वस्त्रों हेतु प्रसिद्ध है। ओडेल एवं ऐसी कई विशाल दुकानों से आप मनपसंद वस्त्रों की खरीदी कर सकते हैं।

गजशिल्प

हाथी की हड्डियों से गढ़े हुए  हाथी
हाथी की हड्डियों से गढ़े हुए हाथी

श्रीलंका में हाथी बहुतायत में पाए जाते हैं। श्रीलंका निवासियों को अपने हाथियों पर गर्व है। इसलिए हाथियों के चित्र, आकृतियाँ, शिल्प इत्यादि हर ओर दृष्टिगोचर हैं। हाथी से सम्बंधित स्मृतिचिन्ह जो आप ले सकते हैं, वे हैं-

  • सूत एवं कपास से बने हाथी शिशुओं हेतु उत्तम उपहार हैं।
  • रत्नपारखियों हेतु हाथी के आकर के रत्न।
  • गज अस्थियों द्वारा निर्मित आकर्षक गजशिल्प एवं मूर्तियाँ।
  • लकड़ी पर नक्काशी कर निर्मित मूर्तियाँ।
  • लकड़ी के साजसजावट की वस्तुएं जिन पर हाथी के चित्र अंकित हैं।
  • फ्रिज पर चिपकाने हेतु हाथी के चुम्बक।
  • गज के मल द्वारा निर्मित अनोखा कागज़ जो पर्यावरण का रक्षण भी करते हैं।

श्रीलंका में स्मृतिचिन्ह की खरीदी हेतु सुझाव

  • श्रीलंका में खरीदी हेतु मोलभाव करना अत्यंत आवश्यक है। वस्तुओं पर अंकित मूल्य मूल मूल्य से कई गुना हो सकते हैं। यद्यपि मोलभाव की सीमा से हम बहुधा अनभिज्ञ होते हैं, तथापि अधिकतम मोलभाव का प्रयत्न कीजिये।
  • लकशाला श्रीलंका सरकार द्वारा स्थापित विक्री भण्डार है जिसकी शाखाएं सम्पूर्ण श्रीलंका में उपलब्ध हैं। इस भण्डार में उपलब्ध स्मृतिचिन्हों का मूल्य निर्धारित है। आप यहाँ से निश्चिन्त हो कर मनचाही वस्तुओं की खरीदी कर सकते हैं।
  • “बेयरफुट” नामक विशाल दुकान एवं इसी प्रकार की कई दुकानें हैं जहां विशिष्ट रूप से निर्मित वस्तुएं उपलब्ध हैं। परन्तु ये वस्तुएं अधिक मूल्यवान हैं।

उपरोक्त स्मृतिचिन्हों में से अधिकतर वस्तुएं श्रीलंका के विमानतल पर भी उपलब्ध हैं। यद्यपि इनके मूल्य अधिक हैं एवं मोलभाव आसान नहीं। तथापि समयाभाव के रहते यहाँ से भी स्मृतिचिन्ह खरीदे जा सकते हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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उत्तरी श्रीलंका के प्राचीन जाफना नगर के दर्शनीय स्थल https://inditales.com/hindi/jaffna-ke-paryatak-sthal-sri-lanka/ https://inditales.com/hindi/jaffna-ke-paryatak-sthal-sri-lanka/#comments Wed, 12 Aug 2020 02:30:15 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1763

जाफना मेरे मानसपटल पर सदैव से श्रीलंका के एक युद्ध ग्रस्त क्षेत्र के रूप में छाप छोड़े हुए था। १९८० के दशक में पले-बढ़े होने के कारण श्रीलंका के जाफना का नाम हमने वहाँ के अन्य स्थलों की अपेक्षा अधिक सुन रखा था। उस समय मैं ना तो कोलंबो के विषय में जानती थी, ना […]

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जाफना मेरे मानसपटल पर सदैव से श्रीलंका के एक युद्ध ग्रस्त क्षेत्र के रूप में छाप छोड़े हुए था। १९८० के दशक में पले-बढ़े होने के कारण श्रीलंका के जाफना का नाम हमने वहाँ के अन्य स्थलों की अपेक्षा अधिक सुन रखा था। उस समय मैं ना तो कोलंबो के विषय में जानती थी, ना ही उस अनुराधापुरा के विषय में, जिसका नाम मेरे नाम से मेल खाता है। मैं केवल जाफना के विषय में ही जानती थी। हमारे लिए मानो श्रीलंका केवल जाफना ही था। उस समय सभी समाचारपत्र जाफना नगर के समाचारों एवं वहाँ चल रहे गृहयुद्ध के समाचारों से भरे रहते थे।

जाफना श्री लंका का परिदृश्य
जाफना श्री लंका का परिदृश्य

मैंने श्रीलंका की यात्रा सर्वप्रथम २००५ में की थी। उस समय मैं केवल कैंडी तक ही जा पायी थी। संवेदनशील क्षेत्र होने के कारण, उत्तरी श्रीलंका तब भी पहुँच से दूर था। २०१७ की मेरी श्रीलंका की यात्रा के समय मैं अनुराधापुरा तथा पोलोन्नरुवा के दर्शन कर पायी थी। जाफना श्रीलंका का और भी उत्तरी क्षेत्र है। २०१९ की मेरी श्रीलंका यात्रा के समय मैं उसके पूर्ण उत्तरी क्षेत्रों तक पहुँच पायी। मैंने श्रीलंका के उत्तरी क्षेत्र का पूर्व से लेकर पश्चिम तक अर्थात मन्नार से आरंभ कर त्रिन्कोमाली तक की यात्रा की।

जाफना प्रायद्वीप के उत्तरी नोक पर स्थित जाफना नगर मेरे लिए एक सुखद आश्चर्य था। मुझे यहाँ के कुछ प्राचीन मंदिरों के विषय में जानकारी थी। इस क्षेत्र में शैव तमिल भाषी जनमानस का प्रभुत्व अधिक रहा है। तथापि, मंदिरों की विशाल संख्या, चित्ताकर्षक झीलें, हिन्द महासागर के नीले जल पर बिखरे हुए इसके द्वीप, सब कुछ मेरे लिए सही मायने में एक सुखद आश्चर्य था। इसके साथ ही यह एक भीड़भाड़ भरा बड़ा नगर भी है।

तो आईए मेरे साथ, श्रीलंका के इस प्राचीन नगर की खोज में चलते हैं।

जाफना के मंदिर

नगर का क्षितिज इसके मंदिरों के ऊंचे ऊंचे एवं भव्य गोपुरों से शोभायमान है। यहाँ तक कि समुद्र में दूर दूर तक फैले द्वीपों पर भी ऊंचे ऊंचे मंदिर अपना अस्तित्व सफलतापूर्वक दर्शाते हैं। दो-तीन दिवसों में इन सर्व मंदिरों के दर्शन करना असंभव है। अतः मैंने कुछ प्राचीन तथा कुछ नवीन मंदिरों की एक मिश्रित सूची तय की तथा उनके दर्शन किये। आईए उन सब मंदिरों से आपका परिचय कराती हूँ।

कीरिमलई का नागुलेश्वरम मंदिर

यह मंदिर श्रीलंका के ५ पंचईश्वर मंदिरों में से उत्तरोत्तर मंदिर है। त्रिन्कोमाली के कोनेश्वर मंदिर तथा मन्नार के थिरुकेटेश्वर मंदिर के समान यह मंदिर भी एक प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर का नाम नागुला मुनि के नाम पर पड़ा जो यहाँ तपस्या किया करते थे। हम आसानी से अनुमान लगा सकते हैं कि यह मंदिर लगभग ६०० ई.पू. का है।

नागुलेश्वर मंदिर गोपुरम - कीरिमलाई जाफना
नागुलेश्वर मंदिर गोपुरम – कीरिमलाई जाफना

एक प्राचीन गोपुरम के नीचे से आप इस मंदिर के भीतर प्रवेश करते हैं। गोपुरम पर रंग बिरंगी प्रतिमाओं द्वारा शिव पार्वती विवाह का सुंदर दृश्य दर्शाया गया है। इसके पश्चात आपके समक्ष एक ऊंचा गोपुरम प्रकट होगा। हल्के मटमैले रंग में रंगे इस गोपुरम पर कई सुनहरी मूर्तियाँ बनी हुई हैं। इसके मध्य से आगे बढ़ते ही आप स्वयं को रंग-बिरंगे छोटे मंदिरों से घिरा हुआ पाएंगे। भित्तियों पर किवदंतियाँ उत्कीर्णित हैं जिसके नीले तोरण इसकी सुंदरता को चार चाँद लगाते हैं। मंदिर के बाहर एक विशाल शिवलिंग स्थापित है जिस पर अभिषेक किया जाता है। गर्भगृह के भीतर स्थित शिवलिंग कई द्वारों के पीछे रखा है।

शिव विवाह - नागुलेश्वर मंदिर के गोपुरम पर
शिव विवाह – नागुलेश्वर मंदिर के गोपुरम पर

भित्तियों पर शिव तांडव नृत्य की १०८ मुद्राएं उत्कीर्णित हैं।

शिव तांडव - नागुलेश्वर मंदिर कीरिमलाई
शिव तांडव – नागुलेश्वर मंदिर कीरिमलाई

भारत के प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने भी अपनी श्रीलंका यात्रा के समय इस मंदिर के दर्शन किये थे। मैंने जैसे ही पुजारीजी को मेरे भारतीय होने की जानकारी दी, उन्होंने तुरंत मोदीजी के छायाचित्र मुझे दिखाए।

नागुलेश्वर मंदिर - कीरिमलाई जाफना श्री लंका
नागुलेश्वर मंदिर – कीरिमलाई जाफना श्री लंका

कीरिमलई के गर्म जल के सोते

नागुलेश्वरम मंदिर के ठीक पीछे समुद्र तट पर जल के प्राकृतिक सोते हैं। उन्हे गर्म जल के सोते कहा जाता है किन्तु उनका तापमान सामान्य है। हो सकता है किसी समय उनका तापमान ऊष्ण रहा होगा। पुरुषों के स्नान हेतु खुला ताल है तथा स्त्रियों द्वारा स्नान के लिए घेराबंद भाग सुरक्षित किया गया है।

इन सोतों के जल को चिकित्सीय गुणों से युक्त माना जाता है। यहाँ का समुद्र तट सुंदर है। तट का एक भाग सँकरी पट्टी के रूप में समुद्र में प्रवेश करता हुआ प्रतीत होता है।

नल्लुर कंदस्वामी मंदिर

नल्लुर अब जाफना का एक उपनगर है किन्तु एक समय यह जाफना की राजधानी हुआ करता था। नल्लुर कंदस्वामी मंदिर इस क्षेत्र का सर्वाधिक मनोरम, सर्वाधिक वैभवपूर्ण तथा भव्यतम मंदिर है। इसका सुनहरा गोपुरम दूर से भी देखा जा सकता है। ऐतिहासिक आलेखों से मिली जानकारी के अनुसार इस मंदिर की निर्मिती १० वी. ईस्वी में की गई है। अब जो मंदिर हम देखते हैं उसका निर्माण १८ वी. ईस्वी में किया गया है।

नल्लुर कंदस्वामी मंदिर - जाफना
स्वर्णिम नल्लुर कंदस्वामी मंदिर

मंदिर के भीतर स्तंभों पर खड़े सुनहरे तोरण अत्यन्त भव्य है। प्रत्येक तोरण ६ छोटे स्तंभों पर खड़ा है। जब आप इनके नीचे से आगे जाते हैं इन स्तंभों पर जड़े आईने आपका प्रतिबिंब कुछ इस प्रकार बिखेरते हैं कि किसी की भी आँखें चुँधिया जाएंगी। इनके ऊपर एक विशाल मंदिर खड़ा है। जब मैं उन तोरणों के नीचे से जा रही थी मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो मैं कई काल पीछे चली गई हूँ तथा किसी भव्य राजमहल में जा रही हूँ। मंदिर की चार भित्तियों के भीतर एक कुंड भी है।

यह मंदिर मुरूगन अर्थात कार्तिकेयन को समर्पित है।

यदि आपके पास इतना कम समय हो कि आप जाफना का एक ही स्थल देख सकते हैं तो आप नल्लुर कंदस्वामी मंदिर देखिए।

नागपूषणी अम्मा मंदिर

यह मंदिर श्रीलंका में स्थित दो शक्ति पीठों में से एक है। मैंने त्रिन्कोमाली पर लिखे अपने यात्रा संस्मरण में शंकरी शक्ति पीठ के विषय में पहले ही लिखा है। यह दूसरा शक्ति पीठ है। यहाँ पहुँचने के लिए जाफना नगर से ४५ मिनट सड़क मार्ग से जाकर २० मिनट नौका सवारी करने की आवश्यकता है। मुख्यभूमि से नैनतिवु द्वीप के बीच प्रत्येक आधे घंटे में दोनों ओर से नौकाएँ चलती हैं।

नागपूषनीअम्मा मंदिर - श्री लंका
नागपूषनीअम्मा मंदिर – श्री लंका

नागपूषणी अम्मा मंदिर का १०८ फीट ऊंचा गोपुरम बहुत दूर से दृष्टिगोचर होने लगता है। नौका सवारी करते समय जैसे जैसे आप इसके निकट जाते हैं, यह गोपुरम और बड़ा होता जाता है। उस पार उतरते ही एक सीधा सड़क मार्ग गोपुरम की ओर ही ले जाता है।

नागपूषणी अम्मा
नागपूषणी अम्मा

नाग की आकृति इस मंदिर में आप हर ओर देख सकते हैं। मंदिर के समक्ष एक विशाल नंदी विराजमान है। मंदिर में प्रवेश करते ही नंदी से ही आपका प्रथम साक्षात्कार होता है। यह एक विशाल मंदिर है जहां बड़ी संख्या में भक्तगण आते हैं।मुख्य गर्भगृह में नागपूषणी अम्मा का विग्रह है। इस प्रतिमा के एक ओर पीतल में बनी उनकी उत्सव मूर्ति है तथा दूसरी ओर श्री चक्र के समान एक विशाल रचना है जिसके समक्ष लोग पुष्प अर्पित करते हैं। मैं यहाँ शुक्रवार के दिन आई थी। अतः मुझे देवी की भव्य शोभायात्रा देखने का अप्रतिम सौभाग्य प्राप्त हुआ।

नागपूषनी अम्मा के मंदिर में नंदी
नागपूषनी अम्मा के मंदिर में नंदी

त्रिन्कोमाली के कोनेश्वर मंदिर के समान यहाँ भी मंदिर के चारों ओर वृक्षों पर छोटे छोटे झूले बंधे हुए थे।

इस मंदिर के संबंध में अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए विकिपीडिया में पढ़ें।

नागदीप पुराण विहार

यह एक सुंदर बौद्ध विहार है जो नागपूषणी अम्मा मंदिर के एक ओर स्थित है। यहाँ भी नाग से संबंधित आकृतियों की प्राधान्यता है। यहाँ तक कि बुद्ध की प्रतिमा के ऊपर भी नाग का फन है। मंदिर में समुद्र की दिशा में एक आकर्षक तोरण है जिसे भी दूर से देखा जा सकता है।

नागदीप पुराण विहार
नागदीप पुराण विहार

श्रीलंका के पोलोन्नरुवा तथा अन्य बौद्ध स्थलों के समान यहाँ भी श्वेत रंग का एक स्तूप है। एक छोटा मंदिर भी है जिसकी सीढ़ियों पर एक चंद्रशिला है।

मुझे कुछ ही क्षण इस विहार में व्यतीत करने मिले क्योंकि मुख्यभूमि पर पहुँचने के लिए मुझे फेरी पकड़नी थी। तथापि एक शांत एवं निर्मल स्थल के रूप में इस आकर्षक स्थल की स्मृति मेरे मानसपटल में सदैव जीवित रहेगी।

थिरुवसगम का महल

जाफना नगर में प्रवेश करने से पूर्व ही आप नगर के इस नवीनतम आकर्षण के दर्शन कर सकते हैं। यह है थिरुवसगम का महल। नेवत्कुली में स्थित यह महल ९ वी. ईस्वी के कवि मणिक्कवसागर द्वारा रचित एवं भगवान शिव को समर्पित तमिल कविताओं को एक श्रद्धांजलि है। भारत एवं श्रीलंका के तमिल भाषी क्षेत्रों के शिव मंदिरों में उनकी कविताओं को नियमित रूप से गाया जाता है।

थिरुवसगम का महल - जाफना
थिरुवसगम का महल – जाफना

इस महल की भित्तियों पर उनकी सभी ६१५ रचनाएं अंकित हैं। उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय रचना शिव पुराण है जिसे मंदिरों में सर्वप्रथम गाया जाता है। इस शिव पुराण का विश्व के कई भाषाओं में अनुवाद किया गया है तथा वे सभी अनुवाद भी थिरुवसगम महल की भित्तियों पर अंकित हैं।

दक्षिणामूर्ति मंदिर - थिरुवासगम जाफना
दक्षिणामूर्ति मंदिर – थिरुवासगम जाफना

महल के प्रांगण में शिव को समर्पित एक मंदिर है जिसे दक्षिणमूर्ति मंदिर कहा जाता है। इस मंदिर तथा महल की उस भित्ति के बीच, जिस पर कविताएं अंकित हैं, एक ही आकार एवं आकृति के १०८ शिवलिंग हैं। यहाँ तक कि मंदिर के शिखर पर भी सामान्यतः उत्कीर्णित देवी देवताओं की मूर्ति के स्थान पर अनेक शिवलिंग रखे हुए हैं। मंदिर के समक्ष स्थित कुंड के मध्य, एक रथ के आकार के एक छोटे मंदिर के भीतर मणिक्कवसागर की मूर्ति है। वहीं आगस्त्य मुनि की एक प्रतिमा अपने प्रतिष्ठापन की प्रतीक्षा कर रही है। यह सम्पूर्ण संरचना एवं प्रतिष्ठापन १८ मास से भी कम समय में सम्पूर्ण किया गया है। इस विशालकाय कार्य को सम्पन्न किया है एक व्यक्ति ने जिनका नाम है डॉ. अरू थिरुमुरूगन।

१०८ शिवलिंग - थिरुवासगम जाफना
१०८ शिवलिंग – थिरुवासगम जाफना

यह स्थान अत्यन्त तेजी से नगर के सर्वाधिक लोकप्रिय स्थान में परिवर्तित होता जा रहा है। एक सामान्य दिवस में मैंने यहाँ कई भक्तों को आते देखा जो अपने अपने कार्य पर जाने से पूर्व मंदिर के दर्शन कर रहे थे। लोगों में यह मान्यता विकसित होने लगी है कि यदि वे १०८ शिवलिंगों का अभिषेक करेंगे तो उनकी सर्व इच्छाएं फलित होंगी।

तमिल भूमि की प्राचीन कविताओं का उत्सव मनाते इस अनूठे मंदिर के दर्शन अवश्य करें।

हनुमान मूर्ति

नगर के एक मंदिर के समक्ष हनुमान की एक अतिविशाल मूर्ति है। ऐसा प्रतीत होता है मानो वे नगर का संरक्षण करते हुए उस पर अपनी दृष्टि रखे हुए हैं।

जाफना का परिदृश्य

‘लगून’ अर्थात अनूप, समुद्र जैसे विस्तृत जलस्त्रोतों के किनारे बनने वाला एक उथला जल क्षेत्र होता है। सभी द्वीप कॉज़वेस अर्थात सेतुमार्ग द्वारा जुड़े हुए हैं। जब आप उन सेतुमार्गों पर गाड़ी चलाते हुए जाएंगे, आपके चारों ओर आपको केवल जल ही दृष्टिगोचर होगा। एक क्षण को यदि आप अपने समक्ष स्थित मार्ग की ओर ध्यान ना दें तो आपको ऐसा प्रतीत होगा मानो आप जल की सतह पर गाड़ी चला रहे हैं। जाफना के लगून की स्मृतियाँ मेरे मनमस्तिष्क में लंबे समय तक रहने वाली है।
मैं नागपूषणी अम्मा मंदिर के दर्शन करने नैनतिवु द्वीप पर आई थी। मैं चारों ओर से जल द्वारा घिरी हुई थी। चारों ओर इक्का-दुक्का ही लोग अथवा गाड़ियां थीं। सम्पूर्ण दृश्य अत्यन्त ही शांत व मनोहारी था। मेरा रोम रोम रोमांचित हो उठा था। एक शांत दिवस व्यतीत करने के लिए यह सर्वोत्तम स्थान है।

मछली पकड़ने का जाल - जाफना
मछली पकड़ने का जाल – जाफना

समुद्र के जल में मछली पकड़ने के सँकरे लंबे जाल बिछाए हुए थे। कहीं कहीं यह जाल एक कीप के आकार में बिछाया हुआ था। मैं कल्पना करने लगी कि संध्याकाल तक यह जाल मछलियों से भर जाएगा। यहाँ-वहाँ छोटी नौकाएं लंगर डालकर रुकी हुई थीं। कुछ मछुआरे नौकाओं में जाल बिछाने की तैयारी कर रहे थे।

दूर पर एक द्वीप दृष्टिगोचर हो रहा था। मंदिरों के ऊंचे ऊंचे गोपुरम इन द्वीपों की उपस्थिति दर्शा रहे थे। इन मंदिरों के भव्य गोपुरमों देख आप भी दांतों तले उंगली दबा लेंगे।

जाफना के दर्शनीय सांस्कृतिक स्थल

जाफना का दुर्ग

यह एक माध्यम आकार का दुर्ग है जो ६२ एकड़ में फैला हुआ है। समुद्र में होती गतिविधियों पर दृष्टि रखने के लिए इस दुर्ग की अवस्थिति सर्वोत्तम है। इसके चारों ओर जल से भरा एक चौड़ा खंदक है। जब आप इसके किसी बुर्ज पर खड़े होंगे, आपको ऐसा आभास होगा मानो आप जल के मध्य बनी किसी संरचना के ऊपर खड़े हैं।

जाफना दुर्ग
जाफना दुर्ग

इस दुर्ग का निर्माण मूलतः पूर्तगालियों ने १६१९ ईस्वी में करवाया था। तत्पश्चात १६५८ ईस्वी में इस पर डच लोगों ने अपना आधिपत्य जमा लिया तथा जाफना को एक प्रमुख व्यापारिक बंदरगाह बनाया। यद्यपि यह दुर्ग जीर्ण अवस्था में है, तथापि इसका रखरखाव सही प्रकार से किया जा रहा है। दुर्ग के विभिन्न भागों की विस्तृत जानकारी देती सूचना पट्टिकाएं भिन्न भिन्न स्थानों पर लगायी हुई हैं

यहाँ प्रवेश निःशुल्क है। प्रवेश द्वार के निकट स्मारिकाओं की एक छोटी दुकान है जहां से आप श्रीलंका पर पोस्टर तथा पुस्तकें ले सकते हैं।

मंत्री मनई

मंत्री मनई - जाफना
मंत्री मनई – जाफना

जाफना नगर में विरासती धरोहरों की इमारतें अधिक शेष नहीं बची हैं। मैं तो केवल एक ही धरोहर संरचना ढूंढ पाई। यह धरोहर, मंत्री मनई एक विरासती निवासस्थान है जो किसी समय किसी मंत्री का निवासस्थान था। इस इमारत की अवस्था अधिक अच्छी नहीं है, फिर भी यह गर्व से खड़ा अपने इतिहास की गाथा कह रहा है।

यह एक औपनिवेशिक संरचना होते हुए भी इसमें स्थानीय तत्वों का सम्मिश्रण किया गया है। रसोईघर एवं कुआं इसका उदाहरण है।

पुरातात्विक संग्रहालय

नवलार मार्ग पर स्थित यह एक छोटा किन्तु रोचक संग्रहालय है। यहाँ उत्तरी श्रीलंका में खुदाई द्वारा प्राप्त कलाकृतियों का संग्रह है। मन्नार के थिरुकेटेस्वर मंदिर से लाया गया तथा पत्थर से निर्मित एक बड़ा घड़ा प्रवेशद्वार पर आपका स्वागत करता है। इसमें उसका साथ देता प्रतीत होता है, बौद्ध स्तूप का शिखर।

यहाँ प्रदर्शित कुछ रोचक वस्तुएं हैं:
• एक मिट्टी का घड़ा जिसके ७ मुंह हैं। यह एक संगीत वाद्य है।
• देवी लक्ष्मी की छवि से सज्ज सिक्के
• मोती चुनने की छलनी
• मछली के आकार के शतरंज जैसे खेलों के पट्टे
• ताड़ के पत्तों पर तमिल भाषी रामायण की पांडुलिपि

कंडारोडई का कडुरुगोडा विहारय

कडुरुगोडा विहार
कडुरुगोडा विहार

यह एक रोचक पुरातात्विक कार्यस्थल है जहां ४०-५० प्राचीन स्तूपों के अवशेष एक साथ स्थित हैं। इनमें कुछ स्तूप अभंजित हैं किन्तु कुछ स्तूपों की हरमिका नहीं है तथा कुछ के केवल आधार ही शेष हैं। खंडित अवस्था में होते हुए भी वे अत्यन्त आकर्षक व रोचक प्रतीत होते हैं। उनमें उनकी प्राचीनता स्पष्ट झलकती है। कदाचित ये स्तूप गर्व से अपनी प्राचीनता का प्रदर्शन भी कर रहे हैं।

यह एक संरक्षित स्थल है। साथ ही यह सेना संस्थापन के समीप स्थित है। अतः इसके दर्शन से पूर्व आपको पूर्व अनुमति प्राप्त करनी होगी। आप यहाँ आकर भी यह अनुमति प्राप्त कर सकते हैं।

जाफना सार्वजनिक पुस्तकालय

नगर का सार्वजनिक पुस्तकालय, निर्मल श्वेत रंग में रंगी एक मनभावन इमारत है। दूर से यह ताज महल का स्मरण कराती है। आप जब यहाँ आएंगे, प्रथम वस्तु जो आपका ध्यान आकर्षित करेगी, वह है देवी सरस्वती की प्रतिमा।

जाफना सार्वजनिक पुस्तकालय
जाफना सार्वजनिक पुस्तकालय

एक समय यह एशिया की विशालतम पुस्तकालयों में से एक थी। गृहयुद्ध के समय इसे अग्नि में भस्म कर दिया गया था। बड़ी संख्या में पुस्तकें नष्ट हो गई थीं। स्थानीय निवासियों ने मुझे बताया कि पुस्तकालय के संग्रह का पुनर्निर्माण किया जा रहा है। इसके लिये निवासियों से भी आवाहन किया जा रहा है कि वे पुस्तकों का दान करें अथवा उनका क्रय करने हेतु आर्थिक सहायता करें।

जाफना का घंटाघर

जाफना घंटाघर
जाफना घंटाघर

पुस्तकालय के समीप स्थित घंटाघर भी निर्मल श्वेत रंग में रंगा हुआ है। यह जाफना में ब्रिटिश औपनिवेशिक काल का स्मरण कराता है। १८७५ में प्रिंस अल्बर्ट द्वारा इस क्षेत्र की यात्रा की स्मृति में यह घंटाघर निर्मित किया गया है। किसी प्राचीन संरचना के लिए इसका रखरखाव आवश्यकता से अधिक प्रतीत होता है। मुझे जानकारी दी गई कि हाल ही में इसका पुनरुद्धार किया गया है। गृहयुद्ध के समय इसे भी क्षति पहुंचाई गई थी।

इसके चारों ओर इस क्षेत्र के राजाओं की घोड़े पर सवार प्रतिमाएं हैं। राजा एवं उनके घोड़े, दोनों को सुनहरे रंग में रंगा गया है।

जाफना में ये स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ अवश्य चखें

कुंद डोसइ
कुंद डोसइ

जाफना में आपको ठेठ तमिल खाद्य पदार्थ चखने को मिलेंगे। मेरे जैसे शाकाहारियों के लिए यह अत्यन्त आनंददायी है। यहाँ उपलब्ध इन खाद्य पदार्थों का अवश्य आस्वाद लें:

कुंद डोसइ – छोटी इडली के समान दोसा

रियो आइसक्रीम

नगर के सच्चे सार एवं यहाँ के जीवन को समझने के लिए यहाँ के बाजार में घूमिए।

जाफना कैसे पहुंचे?

जाफना का पर्यटन मानचित्र
जाफना का पर्यटन मानचित्र

जाफना पहुँचने के लिए निकटतम विमानतल कोलंबो अंतरराष्ट्रीय विमानतल है।
जाफना कोलंबो एवं श्रीलंका के अन्य प्रमुख नगरों से रेल एवं सड़क मार्ग से भी जुड़ा हुआ है।
जाफना के जिन दर्शनीय स्थलों की मैंने यहाँ चर्चा की है, उन्हे देखने के लिए दो दिवसों का समय पर्याप्त है। यदि आप द्वीप की यात्रा नहीं करना चाहते तो शेष स्थल आप एक दिन में आसानी से देख सकते हैं।
जाफना में कई अथितिगृह हैं। मेरा अनुमान है कि यहाँ बड़ी संख्या में व्यावसायिक यात्री आते हैं।

अनुवाद:मधुमिता ताम्हणे

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श्री लंका के पूर्वी भाग त्रिंकोमाली के दर्शनीय स्थल https://inditales.com/hindi/trincomaalee-sri-lanka-paryatak-sthal/ https://inditales.com/hindi/trincomaalee-sri-lanka-paryatak-sthal/#respond Wed, 11 Dec 2019 02:30:15 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1603

श्री लंका के अनेक प्राचीन किन्तु अब भी जीवंत नगरों में से एक है त्रिंकोमाली। यह स्थान पर्यटकों में इतना प्रसिद्ध नहीं है जितना अनुराधापुरा एवं पोलोन्नरूवा जैसे श्री लंका के कुछ अन्य स्थल। किन्तु मेरी मानें तो त्रिंकोमाली उनसे किसी प्रकार से न्यून भी नहीं है। आईये मैं आपको इसका प्रमाण भी देती हूँ। […]

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श्री लंका के अनेक प्राचीन किन्तु अब भी जीवंत नगरों में से एक है त्रिंकोमाली। यह स्थान पर्यटकों में इतना प्रसिद्ध नहीं है जितना अनुराधापुरा एवं पोलोन्नरूवा जैसे श्री लंका के कुछ अन्य स्थल। किन्तु मेरी मानें तो त्रिंकोमाली उनसे किसी प्रकार से न्यून भी नहीं है। आईये मैं आपको इसका प्रमाण भी देती हूँ। त्रिंकोमाली के अद्भुत दर्शनीय स्थलों के विषय में कुछ जानकारी देती हूँ ताकि आप अपनी श्री लंका यात्रा सर्वोत्तम प्रकार से नियोजित कर सकें।

त्रिंकोमाली श्री लंका श्री लंका की मेरी हाल ही की यात्रा के समय मैंने इसके उत्तरी तमिल बहुल भागों के प्राचीन स्थलों का भ्रमण किया था। मैंने यहाँ की कई अद्भुत मणियों को देखा एवं उनका आनंद उठाया, जैसे यहाँ के प्राचीन मंदिर, प्राचीन बंदरगाह, नमक के खेत, खाड़ी, उपद्वीप तथा कई सुन्दर गाँव! मुझे यहाँ के अधिकतर स्थानों में दक्षिण भारतीय व्यंजन खाने मिले। मेरा हृदय गदगद हो गया था । यूँ कहूं कि श्री लंका में मुझे लगा मानो मैं अपने ही देश में भ्रमण रही हूँ, तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। यदि किसी ने मुझसे मेरा पासपोर्ट माँगा, केवल तभी मुझे एक विदेशी पर्यटक होने का आभास हुआ।

बोलचाल की भाषा में त्रिंकोमाली नगरी को त्रिंको कहते हैं।

त्रिंकोमाली के दर्शनीय स्थल

कन्निया उष्ण जल-स्त्रोत

कन्निया गर्म जल का स्त्रोत इस क्षेत्र का एक प्राकृतिक अचम्भा है। एक दूसरे के समीप स्थित कुल ७ चौकोर कुँए हैं जिनमें विभिन्न तापमान के गर्म जल स्त्रोत हैं। इनकी गहराई अधिक नहीं है। केवल ३ से ४ फीट हो सकती है। इन कुओं के समीप खड़े होकर भीतर झांकने पर इनके तल स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। इनके भीतर पर्यटकों ने अनेक सिक्के डाले हुए हैं।

कन्निया उष्ण जल स्तोत्र - त्रिंकोमाली
कन्निया उष्ण जल स्तोत्र – त्रिंकोमाली

मुझे बताया गया कि इनके भीतर, गुनगुने से लेकर अत्यंत गर्म, ऐसे ७ विभिन्न तापमानों के जल हैं। मैंने प्रत्येक कुँए के जल को स्पर्श कर के देखा। प्रत्येक कुँए का जल उष्ण था। किन्तु मुझे विभिन्न तापमानों का आभास नहीं हुआ। कदाचित दोपहर की भरी गर्मी में कोई भी जल उष्ण हो जाता है।

मैंने कई लोगों को इनमें से जल निकालकर स्वयं पर उड़ेलते देखा।

अवश्य पढ़ें: मणिकरण के उष्ण जल-स्त्रोत

किवदंतियों के अनुसार, रावण ने खुदाई करवाकर इन जल स्त्रोतों को उत्पन्न किया था ताकि वह अपनी माता की अंतिम क्रिया संपन्न कर सके। उसी समय से कन्निया उष्ण जल-स्त्रोत के जल का प्रयोग अंतिम क्रिया संपन्न करने में किया जाता है। यह भी कहा जाता है कि रामायण में इसका उल्लेख गोकर्ण तीर्थ के एक भाग के रूप में किया गया है। यह त्रिंकोमाली खाड़ी का एक अन्य नाम भी है।

कन्निया का बौद्ध मठ
कन्निया का बौद्ध मठ

कन्निया गर्म जल-स्त्रोत के समीप एक बौध मठ तथा एक शिव मंदिर भी है। इनके सम्मुख एक प्राचीन स्तूप का खँडहर है। ठीक वैसा ही जैसा आपने अनुराधापुरा में देखा होगा।

कन्निया उष्ण जल-स्त्रोत के दर्शन करने के लिए टिकट मूल्य इस प्रकार है-

श्री लंका के निवासियों के लिए – १०/- श्रीलंकाई रूपया
विदेशियों के लिए – ५०/- श्रीलंकाई रूपया
आपके श्री लंका भ्रमण के समय त्रिंकोमाली के इस अद्भुत हीरे के दर्शन अवश्य करें।

त्रिंकोमाली युद्ध स्मारक

त्रिंकोमाली युद्ध स्मारक
त्रिंकोमाली युद्ध स्मारक

सुन्दर रखरखाव युक्त एक समाधिस्थल के लौह द्वार पर यह नाम अंकित है। साथ ही १९३९-१९४५, यह तिथि भी अंकित है। तिथि को देख यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह स्मारक द्वितीय विश्व युद्ध के युग से सम्बन्ध रखता है। जैसा कि चित्र में दिख रहा है, वास्तव में भी यह उतना ही सुन्दर दिखाई पड़ता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस स्मारक को पर्यटकों के लिये इससे अधिक नहीं खोला जाता।

ऑर्र पहाड़ी सेना संग्रहालय

ओर्र पहाड़ी सेना संग्रहालय
ओर्र पहाड़ी सेना संग्रहालय

यह एक अत्यंत मौलिक एवं उत्तम प्रदर्शित संग्रहालय है। एक साधारण व्यक्ति के लिए यह संग्रहालय, सेना में प्रयुक्त अनेक प्रकार के हथियारों को जानने एवं समझने के लिए एक अनूठा संग्रह है। किस हथियार का अविष्कार कहाँ एवं कब हुआ, इन्हें श्री लंका ने कब खरीदा इत्यादि। एक कक्ष में सेना की वर्दी, उनके ओहदे, विभिन्न पलटनों के विषय में जानकारी इत्यादि प्रदर्शित की गयी हैं। एक अन्य कक्ष में सेना में प्रयुक्त संचार साधनों का प्रदर्शन किया गया है।

इस संग्रहालय की एक विशेषता है आतंकवादियों से जब्त की गयी वस्तुओं का प्रदर्शन, जिनमें आत्मघाती बम भी सम्मिलित हैं।

सेना संग्रहालय - त्रिंकोमाली श्री लंका
सेना संग्रहालय – त्रिंकोमाली श्री लंका

इस संग्रहालय के अवलोकन के लिए लगभग ३० – ६० मिनटों का समय लग सकता है। यह आपकी रूचि पर निर्भर है। समुद्र के समीप स्थित इस संग्रहालय का रखरखाव अतिउत्तम है। इस संग्रहालय में घूमते हुए विभिन्न संग्रहीत वस्तुओं का अवलोकन करना मुझे अत्यंत भाया था। सेना का एक जवान आपको इन वस्तुओं की जानकारी देते हुए आपके साथ चलता है। हाँ, उनकी भाषा समझना किसी चुनौती से कम नहीं होता।

युद्ध संग्राम का एक कृत्रिम दृश्य उत्पन्न कर आपको भी निशानेबाजी के अभ्यास का अवसर दिया जाता है। आप भी सेना के एक जवान होने का अनुभव प्राप्त कर सकते हैं, कुछ समय के लिए ही सही। मेरे विचार से यह एक अत्यंत ही उत्तम अवसर है जिसके द्वारा हम जैसे आम नागरिकों को देश की सेना के जवानों के जीवन के विषय में जानने का अवसर प्राप्त होता है।

टिकट :
श्री लंका के निवासियों के लिए – २०/- श्रीलंकाई रूपया
विदेशियों के लिए – २५०/- श्रीलंकाई रूपया

त्रिंकोमाली के मंदिर

त्रिंकोमाली एक प्राचीन बंदरगाह है। यह तमिल भाषी हिन्दुओं का तीर्थस्थल भी है। पंच ईश्वरम् अर्थात ५ प्रमुख शिव मंदिरों में से एक, यह मंदिर स्वामी शिलाखंड के एक ओर स्थित है। इनसे सिवाय कई अन्य मंदिर यहाँ अब भी जीवंत हैं। आईये उन में से कुछ मंदिरों के विषय में चर्चा करते हैं:

थिरुकोनेश्वरम मंदिर

थिरुकोनेश्वर मंदिर - स्वामी पठार पर
थिरुकोनेश्वर मंदिर – स्वामी पठार पर

थिरुकोनेश्वरम अथवा कोनेश्वरम मंदिर त्रिंकोमाली का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंदिर है। यह सम्पूर्ण श्रीलंका के ५ शिव मंदिरों में से एक है। यह मंदिर कम से कम रामायण के युग से अस्तित्व में है। क्योंकि हमने रावण एवं उसके इस मंदिर से सम्बन्ध की कई कथाएं सुनी हैं।

कोनेश्वर मंदिर का प्रवेश द्वार
कोनेश्वर मंदिर का प्रवेश द्वार

उन कथाओं के अनुसार एक समय पार्वती को एक सामान्य स्त्री के समान एक गृह में निवास करने की इच्छा उत्पन्न हुई। भवन निर्माण के लिए उन्होंने इसी स्थान का चुनाव किया था। नवीन गृह में प्रवेश करने से पूर्व वास्तु पूजा करने के लिए पार्वती ने रावण को आमंत्रित किया। रावण इस भव्य ईमारत को देख इतना मंत्रमुग्ध हो गया कि उसने देवी पार्वती से अनुष्ठान की दक्षिणा स्वरूप इस भवन की ही मांग कर दी। जैसे ही देवी पार्वती ने उसकी इच्छा पूर्ण की, उसे अपनी भूल का आभास हुआ। उसने घोर तपस्या कर देवी से क्षमा मांगी तथा देवी से अनुनय किया कि वे यह स्थान छोड़ कर ना जाएँ। उसका अनुग्रह स्वीकार करते हुए पार्वती शंकरी देवी के रूप में यहीं स्थिर हो गयीं। भगवान् शिव उनके संग यहाँ कोनेश्वर अर्थात् पर्वतों के देव के रूप में निवास करते हैं। कुछ लोग थिरुकोनेश्वर का अर्थ त्रिकोण + ईश्वर अर्थात् तीन पर्वतों के ईश्वर, ऐसा भी मानते हैं।

दक्षिण कैलाश

त्रिंकोमाली के मंदिर का परिचित्र
त्रिंकोमाली के मंदिर का परिचित्र

एक अन्य किवदंती के अनुसार, रावण कैलाश पर्वत का एक टुकड़ा ले आया था जिसके ऊपर त्रिंकोमाली बसा हुआ है। वास्तव में कोनेस्वर मंदिर उसी देशांतर पर स्थित है जिस पर कैलाश पर्वत स्थित है। इसीलिए इसे दक्षिण कैलाश भी कहा जाता है। स्कन्द पुराण के दक्षिण कैलाश महात्म्य में भी इसका उल्लेख प्राप्त होता है।

अवश्य पढ़ें: श्रीलंका के रामायण सम्बन्धी पर्यटन स्थल

इस मंदिर को सहस्त्र स्तंभों का मंदिर भी कहा जाता है। इसके चारों ओर कई छोटे मंदिर हैं। इस क्षेत्र के कई प्रमुख मंदिरों के समान यह मंदिर भी पुर्तगाली सेना द्वारा नष्ट किया गया था। एक समय जहां मंदिर का प्रांगण स्थित था, आज वहां फ्रेडरिक का दुर्ग स्थित है। इन्हें देख अनुमान लगाया जा सकता है कि किसी समय यह एक अतिविशाल मंदिर संकुल था। इतिहास कहता है कि पुर्तगालियों ने तोपों द्वारा मंदिर तो ध्वस्त किया था। जान बचाकर भागते पुजारियों ने कुछ मूर्तियों को धरती में गाड़कर छुपा दिया था। लोग इनमें से कुछ प्रतिमाओं को ढूंढ निकालने में सफल हुए जो अब मंदिर संकुल का भाग हैं।

लक्ष्मी नारायण की प्राचीन मूर्ति
लक्ष्मी नारायण की प्राचीन मूर्ति

वसंत मंडप में आप इसी प्रकार ढूंढी हुई कुछ पीतल की प्रतिमाएं देख सकते हैं। एक अन्य छोटे मंदिर में आपको काले पत्थर में बनी बड़ी लक्ष्मी एवं नारायण की प्रतिमाएं दृष्टिगोचर होंगी। मंदिर के एक आले पर एक प्राचीन नंदी स्थापित था।

वर्तमान में यह एक छोटा सा मंदिर चट्टान के दूसरी छोर पर स्थित है जहां से चारों ओर समुद्र का अद्भुत दृश्य दिखाई पड़ता है। मुख्य मंदिर के भीतर एक शिवलिंग है। समीप ही देवी का छोटा सा मंदिर है जिसके भीतर देवी की खड़ी प्रतिमा स्थापित है।

कोनेश्वर मंदिर की भव्य शिव प्रतिमा
कोनेश्वर मंदिर की भव्य शिव प्रतिमा

मंदिर की भीतरी भित्तियाँ इस मंदिर की गाथाएँ कहती हैं। यहाँ आलेखित इतिहास के अनुसार इस मंदिर का मूल स्वरूप सम्पूर्ण पहाड़ी पर फैला हुआ था। मन्दिर की बाहरी भित्तियों पर मंदिर की उन कथाओं का उल्लेख है जो पुराणों में कही गयी हैं।

गाड़ी खड़ी करने के पश्चात, छोटी छोटी दुकानों से होते हुए जब हम मंदिर के समीप पहुंचते हैं, वहां स्थापित भगवान् शिव की एक विशाल प्रतिमा मन मोह लेती है।

रावण रसातल

रावण रसातल
रावण रसातल

रावण रसातल अथवा वेट्टा का अर्थ है स्वामी चट्टान के बीच का कटाव। स्वामी चट्टान वही चट्टान है जिस पर कोनेश्वर मंदिर स्थित है। ऐसा माना जाता है कि रावण ने अपनी तलवार से इस चट्टान को काटा था।

हाथ जोड़े रावण अपनी वीणा के साथ
हाथ जोड़े रावण अपनी वीणा के साथ

यहाँ मैंने रावण की एक अनोखी प्रतिमा देखी। चट्टान से जुड़ा किन्तु समुद्र पर टंगा एक मंच है जिस पर हाथ जोड़े खड़े रावण की प्रतिमा है। उसकी वीणा समीप ही रखी हुई है। यह उस क्षण को प्रदर्शित करता है जब रावण ने भगवान् शिव एवं देवी पार्वती को प्रसन्न करने के लिए अपने ही एक शीश को काटकर उससे वीणा की रचना की थी।

यह विडम्बना ही है कि सुवर्ण नगरी लंका का अधिपति समुद्र पर लटकते एक मंच पर हाथ जोड़े खड़ा है। लोग उसे सिक्के अर्पित करते हैं। आप उसके चरणों के आसपास सिक्के बिखरे देखेंगे।

झूले

मंदिर के प्रांगन में बंधे झूले
मंदिर के प्रांगन में बंधे झूले

थिरुकोनेस्वर मंदिर के पीछे भित्ति पर लकड़ी के कई छोटे छोटे झूले लटकते दिखाई देंगे। मेरे अनुमान से संतान की इच्छा रखते दंपत्ति यहाँ आकर ये झूले बांधते हैं। मैंने देखा कि कुछ झूलों से कपड़े में कुछ सिक्के लपेटकर बांधे हुए थे।

हमने मंदिर की प्राचीर से सूर्योदय का अप्रतिम दृश्य देखा।

थिरुकोनेश्वर मंदिर के प्रांगन में हिरण
थिरुकोनेश्वर मंदिर के प्रांगन में हिरण

हम मंदिर परिसर में स्वच्छंदता से घूमते हिरणों को देख अचंभित रह गए थे।

शंकरी देवी शक्ति पीठ

शंकरी देवी मंदिर कोनेश्वर मंदिर के परिसर में ही स्थित है। आदिशक्ति यहाँ शंकरी के रूप में स्थित है जो शिव की अर्धांगिनी हैं। खड़ी मुद्रा में स्थित इस प्रतिमा के ४ हाथ हैं। उनके चरणों के समीप ताम्बे का दो आयामी श्री चक्र रखा हुआ है। वहीं उनकी प्रतिमा के समक्ष तीन आयामी श्री चक्र खड़ा है।

ऐसा माना जाता है कि जब भगवान् शिव देवी सती की मृतदेह हाथों में उठाये तांडव कर रहे थे तथा भगवान् विष्णु ने चक्र द्वारा उसे छिन्न-भिन्न कर दिया था, तब देवी का एक पैर इस स्थान पर गिरा था।

आदि शंकराचार्यजी ने भारतीय उपमहाद्वीप में स्थित १८ शक्तिपीठों का जो उल्लेख अपने स्तोत्र में किया है, उनमें सर्वप्रथम उन्होंने इसी मंदिर का उल्लेख किया है। अतः भगवान् शिव एवं विष्णु के अनुयायियों के लिए यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।

भद्रकाली अर्थात् पथिरकाली अम्मा मंदिर

प्राचीन भद्रकाली मंदिर - त्रिंकोमाली के दर्शनीय स्थल
प्राचीन भद्रकाली मंदिर – त्रिंकोमाली के दर्शनीय स्थल

यह मंदिर नगर के बीचोंबीच स्थित है। दूर से यह किसी भी अन्य दक्षिण भारतीय मंदिर के समान दिखाई पड़ता है। द्रविड़ वास्तुशैली में निर्मित रंगबिरंगा गोपुरम तथा कथाएं कहती शिल्पकारियाँ!

देवी कथा कहती मूर्तियाँ
देवी कथा कहती मूर्तियाँ

किन्तु जैसे ही मैंने प्रवेश द्वार से भीतर प्रवेश किया, चारों ओर स्थित तीन आयामी प्रतिमाओं को देख मेरी आँखें फटी की फटी रह गयीं। ये प्रतिमाएं मुझे छत से, चौखटों से, भित्तियों से तथा स्तंभों से निहार रही थीं। ये प्रतिमाएं देवी के असंख्य रूपों की असंख्य कथाएं कह रही थीं। आदमकद से भी बड़ी, रंगों से परिपूर्ण ये प्रतिमाएं हमें अभिभूत कर रही थीं।

भद्रकाली की कथाएं कहती भित्तियां
भद्रकाली की कथाएं कहती भित्तियां

इस मंदिर की अधिष्ठात्री देवी महाकाली अथवा भद्रकाली हैं जो काली का उदार रुप है। उनके संग महालक्ष्मी एवं महासरस्वती भी वास करती हैं।

भद्रकाली अम्मा मंदिर त्रिंकोमाली
भद्रकाली अम्मा मंदिर त्रिंकोमाली

मंदिर के आलेखों से जानकारी प्राप्त होती है कि यह मंदिर चोल वंश से पूर्व का है। इसका अर्थ है कि ११वीं. सदी में यह मंदिर अस्तित्व में था। यह तथ्य इस मंदिर को १००० वर्षों से भी अधिक प्राचीन सिद्ध करता है।

सल्ली मुथुमरिअम्मा कोविल

सल्ली मुथुमरिअम्मा कोविल
सल्ली मुथुमरिअम्मा कोविल

उप्पुवेली समुद्रतट के समीप जिस स्थान पर एक छोटी जलधारा समुद्र से मिलती है, वहीं त्रिंकोमाली नगर के प्राचीनतम मंदिरों में से एक, यह मंदिर स्थित है। इस क्षेत्र के सभी देवी मंदिरों में से यह तीसरा प्रमुख मंदिर है।

अम्मा मंदिर में कांस्य का यन्त्र
अम्मा मंदिर में कांस्य का यन्त्र

अप्रवाही जल एवं समुद्र के बीच, संकरी धरती पर स्थित यह मंदिर बीहड़ चट्टानों से घिरा हुआ है। मंदिर के चारों ओर प्राकृतिक रूप से स्थित चट्टानों की पंक्ति उसे समुद्र से बचाती हैं। जब मैं यहाँ दर्शन के लिए आयी थी, तब यह मंदिर बंद था। किन्तु मुझे इतना आभास अवश्य हुआ कि यह अत्यंत पूजनीय मंदिर है तथा यहाँ अनेक भक्तगण दर्शनार्थ आते हैं। चारों ओर मुझे पूजा आराधना के चिन्ह स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे थे। यहाँ से हिन्द महासागर का सुन्दर दृश्य प्राप्त हो रहा था।
मंदिर के समक्ष मुझे ताम्बे का एक विचित्र यन्त्र दिखाई पड़ा। ऊपर उसका चित्र है। यदि आप में से किसी को भी उसके विषय में जानकारी हो तो कृपया मुझसे अवश्य साझा करें।

क्या आप जानते हैं कि त्रिंकोमाली खाड़ी को गोकर्ण भी कहते हैं?

लक्ष्मी नारायण मंदिर

लक्ष्मी नारायण मंदिर - त्रिंकोमाली
लक्ष्मी नारायण मंदिर – त्रिंकोमाली

नीले एवं सुनहरे रंग में रंगा यह एक विशाल मंदिर है। यह मंदिर दूर से ही दिखाई देने लगता है। यह मंदिर भी उस समय बंद था जब मैं यहाँ पहुँची। इसके चारों ओर स्थित चौड़ी खाई के कारण मैं इसका एक अच्छा चित्र भी नहीं ले पायी। मुझे बताया गया कि त्रिंकोमाली दर्शन के लिए आये पर्यटकों में यह मंदिर अत्यंत लोकप्रिय है।

लक्ष्मी नारायण के रूप में विष्णु का यह मंदिर अपेक्षाकृत नवीन है। मंदिर के ऊपर नीले एवं सुनहरे रंग को देख मुझे भगवान् विष्णु का स्मरण हो आया। मानो नीलवर्ण विष्णु ने सुवर्ण वस्त्र धारण किये हों।

बौध विहार

त्रिंकोमाली के बौद्ध विहार
त्रिंकोमाली के बौद्ध विहार

नगर में यत्र-तत्र बौध विहार दृष्टिगोचर हो जाते हैं। इन्हें आप श्वेत स्तूपों द्वारा पहचान सकते हैं। मैंने कुछ के समीप रुककर उन्हें देखा। इन विहारों में विद्यालय जैसा वातावरण था तथा युवा छात्र यहाँ वहां घूम रहे थे।

अवश्य पढ़ें: अनुराधापुरा – श्री लंका की प्राचीन राजधानी

त्रिंकोमाली के समुद्रतट

अद्भुत समुद्रतटों के धनी गोवा राज्य की निवासी होने के कारण त्रिंकोमाली दर्शन सूची में मैंने यहाँ के समुद्र तटों को अत्यंत निम्न तल में रखा था। किन्तु संध्या के समय कुछ अन्य स्थलों के दर्शन उपलब्ध न होने के कारण समुद्र तट का भ्रमण मुझे सर्वाधिक उपयुक्त प्रतीत हुआ। दिवस भर पर्यटन स्थलों के दर्शन कर थकने के पश्चात यहाँ आकर अत्यधिक चैन एवं सुकून प्राप्त हुआ। दिन भर की थकावट छूमंतर हो जाती थी। मन तरोताजा हो जाता था।

उप्पुवेली समुद्रतट

उप्पुवेली समुद्रतट श्री लंका
उप्पुवेली समुद्रतट श्री लंका

मेरी सम्पूर्ण त्रिंकोमाली यात्रा में मैं इस समुद्रतट पर दो बार आयी थी। सर्वप्रथम जब मैंने मंदिर के दर्शन किये थे। समुद्र से झांकती चट्टान पर खड़ी होकर मैंने कई क्षण सूर्यास्त के दर्शन करने में व्यतीत किये। गोधूली की बेला में वृक्षों के घिरे समुद्रतट पर बैठना मेरे लिए अविस्मरणीय क्षण थे जिनकी व्याख्या संभव नहीं।

दूसरी बार मैं यहाँ तब आयी जब मैं अपने अतिथिगृह द्वारा आयोजित अप्रवाही जल में नौका विहार का आनंद ले रही थी। अतिथिगृह से समुद्र तट तक एवं वापिस अतिथिगृह तक की ४० मिनटों की यह धीमी नौका यात्रा थी। खारे जल के मध्य खड़े वृक्ष, यहाँ वहां उड़ते पंछी एवं चारों ओर पसरी शान्ति मन मोह लेते हैं। इनका आनंद लेने के पश्चात अब मैं यही कहूँगी कि अपनी त्रिंकोमाली यात्रा के समय आप यहाँ अवश्य आईये।

नीलावेली समुद्रतट

उप्पुवेली समुद्रतट के उत्तरी दिशा में यह समुद्रतट है। नगर से दूर यह एक अत्यंत शांत समुद्रतट है।

पिजन द्वीप

इस द्वीप पर आप नीलावेली समुद्रतट से नौका द्वारा पहुँच सकते हैं। व्हेल मछली एवं डोल्फिन मछली के दर्शन करने तथा अन्य जलक्रीडाओं के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है।

यहाँ नील कपोत अर्थात पहाड़ी कबूतर घोंसले बनाते हैं। इसी कारण इसका नाम पिजन द्वीप अर्थात कबूतरों का द्वीप पड़ा है।

मार्बल समुद्रतट

इस समुद्रतट का जल सर्वाधिक स्वच्छ एवं स्पष्ट माना जाता है। मैं अपनी इस यात्रा में इस समुद्र तट के दर्शन नहीं कर पाई।

फ्रेडरिक दुर्ग

फ्रेडरिक दुर्ग त्रिंकोमाली
फ्रेडरिक दुर्ग त्रिंकोमाली

पुर्तगालियों ने एक मंदिर को धोखे से ध्वस्त कर उस स्थान पर उन्ही शिलाओं का प्रयोग कर इस दुर्ग को निर्मित किया था। अप्रैल १६२२ में तमिल नूतन वर्ष के उत्सव के समय यह घटना घटी थी। उस दिन मंदिर की उत्सव मूर्ति की नगर में शोभायात्रा निकाली जा रही थी। सर्व भक्तगण शोभायात्रा में सम्मिलित होकर मंदिर से दूर निकल आये थे। तब पुर्तगाली सैनिक मंदिर के पुजारियों का भेष धरकर मंदिर आये तथा उस पर तोपों से हमला किया। उन्होंने सम्पूर्ण मंदिर नष्ट कर दिया।

उनका राज्य अधिक समय तक नहीं चला। उनके द्वारा निर्मित संरचना को डच आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया तथा सन् १६६५ में उस स्थान पर नवीन दुर्ग का निर्माण कराया।

अवश्य पढ़ें: गल्ले दुर्ग – श्री लंका का औपनिवेशिक इतिहास

अब केवल मंदिर की ओर जाते मार्ग पर एक तोरण द्वार है। सेना द्वारा अधिकृत होने के कारण अब यहाँ पर्यटकों को प्रोत्साहित नहीं किया जाता। किन्तु आप चाहे तो यहाँ दर्शनार्थ आ सकते हैं।

त्रिंकोमाली के समीप दर्शनीय स्थल

आदि कोनेश्वर मंदिर

त्रिंकोमाली से लगभग २५ की.मी. दूर स्थित, तमपलकमम गाँव में यह साधारण किन्तु विशाल मंदिर है। इसका निर्माण सन् १६३२ में किया गया था। यहाँ कोनेश्वर मंदिर की मूल प्रतिमाएं स्थापित हैं।

आदि कोनेश्वर मंदिर
आदि कोनेश्वर मंदिर

श्री लंका के मैंने जितने भी मंदिर देखे, उन सब में से यह सर्वाधिक शांत मंदिर है। इसके विशाल गलियारे लगभग खाली रहते हैं। इसके कारण आप यहाँ शान्ति से घूम सकते हैं तथा मंदिर को निहार सकते हैं। मंदिर के पुजारी के अनुसार यहाँ की पीतल की उत्सव मूर्ति ही एकमेव प्राचीन मूर्ति है। भाषा अनजान होने के कारण मैं उनसे अधिक जानकारी प्राप्त नहीं कर पायी। किन्तु उन्होंने मुझे मूर्ति का चित्र लेने की अनुमति अवश्य दी।

श्री लंका गृह युद्ध के पश्चात अन्य मंदिरों के समान यह मंदिर भी उपेक्षित हो गया।

एलीफैंट पास स्मारक

श्री लंका के गृह युद्ध के समापन के स्मरण में इस स्मारक का निर्माण किया गया था। यहाँ की दो अर्ध-गोलाकार संरचना उत्तरी एवं दक्षिणी श्री लंका के मेल एवं लोगों का सम्पूर्ण देश में विचरण करने की संधि को दर्शाती हैं। मध्य में दो हाथों पर श्री लंका का नक्शा है। २००९ में इसका उद्घाटन महिंदा राजपक्सा द्वारा हुआ था।

एलीफैंट पास स्मारक
एलीफैंट पास स्मारक

यह एक सुन्दर कलाकृति है। इसके ऊपर स्थित ढलुआ मार्ग द्वारा आप इस पर चढ़कर घूम सकते हैं। स्मारक के चारों ओर की भित्ति पर युद्ध के तनावपूर्ण दृश्य प्रदर्शित हैं। इन्हें देखने में कुछ ही मिनटों का समय लगता है किन्तु इनके प्रतीकात्मक अर्थ की स्मृति आपके मानसपटल पर अमिट छाप छोड़ती है।

एलीफैंट पास स्मारक के ऊपर से आप एलीफैंट पास नमक निर्माण देख सकते हैं। समुद्र की लहरें यहाँ आकर जब सूखती हैं तब अपने पीछे नमक छोड़ जाती हैं। सूर्य की चमचमाती रोशनी में नमक की चमकती पंक्तियाँ आप यहाँ से देख सकते हैं।

यात्रा सुझाव

त्रिंकोमाली के परिदृश्य
त्रिंकोमाली के परिदृश्य

• त्रिंकोमाली कोलम्बो से रेल तथा बस परिवहन द्वारा पहुंचा जा सकता है।
• सिन्नामन एयर की एयर टैक्सी द्वारा भी यहाँ पहुंचा जा सकता है।
• नगर में घूमने के लिए टुक टुक सर्वोत्तम साधन है।
• यहाँ साधारण अतिथिगृह से लेकर सर्व सुख-सुविधा युक्त होटल्स तक की सुविधाएं हैं। मैं ‘अमरंथे बे’ नामक होटल में रुकी थी जो उप्पुवेली समुद्रतट के समीप स्थित है।
• मंदिरों के भीतर छायाचित्र लेने की अनुमति नहीं है। अन्य स्थानों पर ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
• त्रिंकोमाली के विस्तृत दर्शन के लिए २-३ दिनों का समय आवश्यक है। समय की कमी के रहते आप इसे एक दिन में भी देख सकते हैं।
• यहाँ आकर किंग नारियल का जल पीना ना भूलें, जो यहाँ सर्वत्र मिलता है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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अनुराधापुरा – श्रीलंका की प्राचीन राजधानी की एक झलक https://inditales.com/hindi/anuradhapura-oldest-living-city-sri-lanka/ https://inditales.com/hindi/anuradhapura-oldest-living-city-sri-lanka/#comments Wed, 10 Jan 2018 02:30:30 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=591

मुझे मेरे नाम, अनुराधा से विशेष रूचि नहीं थी। इस नाम के कई अन्य लोगों से भेंट के पश्चात तो मुझे यह नाम और भी सामान्य प्रतीत होता था। अपने इस नाम का महत्व तब ज्ञात हुआ जब मुझे श्रीलंका स्थित विश्व के सबसे प्राचीन नगर अनुराधापुरा के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त हुई। अनुराधा नामक […]

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अनुराधापुरा - श्री लंका
अनुराधापुरा – श्री लंका

मुझे मेरे नाम, अनुराधा से विशेष रूचि नहीं थी। इस नाम के कई अन्य लोगों से भेंट के पश्चात तो मुझे यह नाम और भी सामान्य प्रतीत होता था। अपने इस नाम का महत्व तब ज्ञात हुआ जब मुझे श्रीलंका स्थित विश्व के सबसे प्राचीन नगर अनुराधापुरा के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त हुई। अनुराधा नामक मंत्री के नाम पर आधारित इस पवित्र स्थल के नाम ने मुझे भी गौरान्वित होने का अवसर दिया। और तभी से मैंने इस सुन्दर नगर के दर्शन का निश्चय किया।

श्रीलंका में यूनेस्को के वैश्विक विरासती स्थलों के एकल सड़क यात्रा का आरम्भ मैंने, कोलम्बो उतरने के पश्चात, अनुराधापुरा से ही किया था। भोर होते ही ‘हाबरना सिनामन लॉज’ से निकल कर प्रातः ७.३० बजे के आसपास अनुराधापुरी पहंची। एक विशाल तालाब के पीछे स्थित पवित्र अनुराधापुरा की मेरी प्रथम झलक थी तालाब के ऊपर उड़ते अनेक पक्षियों के पीछे प्रकट होते दो विशाल स्तूप। स्वच्छ, श्वेत व उत्तम रखरखावयुक्त पहला स्तूप, व उसके पास स्थित ठेठ, प्राचीन, पकी लाल ईंटों द्वारा निर्मित, किंचित भंगित शीर्ष लिए दूसरा स्तूप! इन दोनों के समक्ष उड़ते निर्मल पक्षियों को देख मैं कुछ क्षण वहीं ठहर गयी। मंत्रमुग्ध होकर यह दृश्य निहारती रही। इस दृश्य ने मेरी अनुराधापुरा दर्शन की इच्छा को और प्रबल कर दिया था।

अनुराधापुरा की प्रथम झलक
अनुराधापुरा की प्रथम झलक

कुछ ही मिनटों में मेरी गाड़ी एक प्राचीन बौद्ध मठ के अवशेषों के बीच पहुंची। जैसे ही मैंने अनुराधापुरी की पवित्र धरती पर पहला कदम रखा, यहाँ प्रार्थना किये हुए लाखों बौद्ध भिक्षुओं की महिमा ने मेरे हृदय को भावविभोर कर दिया। यहाँ से हम ताल के पीछे स्थित उस श्वेत स्तूप के दर्शन हेतु प्राचीन पत्थर की सीड़ियों की ओर बढ़ गए।

रुवन्वेली सेया अथवा रुवन्वेली दगबा

रुवन्वेली दगबा - अनुराधापुरा, श्री लंका
रुवन्वेली दगबा – अनुराधापुरा, श्री लंका

रुवन्वेली दगबा नामक इस श्वेत स्तूप के प्रवेश द्वार पर नागराज की पत्थर में बनी रक्षक प्रतिमा स्थापित थी। मैंने इस तरह की रक्षक प्रतिमा अनुराधापुरा के कई स्थानों पर देखी। स्तूप भ्रमण के समय मैंने देखा कि पर्यटकों के रंगीन वस्त्रों के विपरीत, सभी स्थानीय दर्शनार्थियों ने श्वेत वस्त्र धारण किये हुए थे। मेरे परिदर्शक के अनुसार श्वेत वस्त्र धारण की यहाँ अनिवार्यता नहीं है। यह स्थानीय दर्शनार्थियों का निजी चयन है। संभवतः किसी कारणवश आरम्भ हुई इस परिपाटी का दर्शनार्थी अब भी पालन कर रहे हैं।

“श्रीलंका में स्तूप, दगबा नाम से जाना जाता है”

रुवन्वेली दगबा की गज मुख दीवार - अनुराधापुरा, श्री लंका
रुवन्वेली दगबा की गज मुख दीवार – अनुराधापुरा, श्री लंका

श्वेत बादलों से घिरा श्वेत दगबा ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो साक्षात् बादलों से अवतरित हुआ हो। इसकी बाहरी भित्तियों पर असंख्य गजशीषों की प्रतिमाएं थीं। इस नवीन संरचना के भीतर इसी तरह की प्राचीन भंगित भित्तियाँ अब भी स्तूप के आसपास विद्यमान हैं। मैंने इस स्तूप के चारों ओर कुछ क्षण भ्रमण किया। भक्तिभाव से ओतप्रोत वातावरण में, श्वेत वस्त्र धारण किये एवं धूप व पुष्प हाथों में लिए भक्तगणों को देखने का आनंद सर्वोपरि था। कुछ भक्तगण स्तूप के समक्ष ध्यानमग्न विराजित थे।

महाराज दत्त गामिनी द्वारा २ सदी ई.पू. में निर्मित, थेरवडा या हीनयान बौद्धधर्म के इस पवित्र स्थल के अन्य नाम हैं, महास्तूपा, स्वर्णमाली चैत्य, सुवर्णमाली महासती, रत्नमाली दगबा इत्यादि।

कार्तिकेय, विष्णु एवं अन्य प्रतिमाएं

श्री लंका के बौद्ध मंदिरों में भगवान् विष्णु एवं कार्तिकेय
श्री लंका के बौद्ध मंदिरों में भगवान् विष्णु एवं कार्तिकेय

प्रथम प्रतिमा जिसने मेरा ध्यान आकर्षित किया वह थी, महाराज की, कृतज्ञता में हाथ जोड़े, स्तूप के दर्शन करती आदमकद प्रतिमा। चार दिशाओं में चार व्रत्तखण्डों के नीचे स्थित प्रकोष्ठों के भीतर बुद्ध के चित्र अंकित थे। समीप स्थित एक छोटे मंदिर के भीतर बुद्ध का रंगीन विशाल चित्र महापरिनिर्वाण रूप में पूजा जा रहा था। एक अनोखी बात जो यहाँ एवं अन्य कई स्थानों में परिलक्षित हुई, वह थी, बुद्ध के चित्र के दोनों ओर स्थित हिन्दू देवता विष्णु एवं कार्तिकेय के चित्र। भावी बुद्ध मैत्रेय के साथ साथ, बुद्ध की कई प्राचीन पत्थर की प्रतिकृतियों को भी अत्यंत सहेज कर रखा गया था। कहा जाता है कि इस श्वेत स्तूप के शीर्ष पर प्राचीनकाल में एक बड़ा माणिक्य लगा हुआ था।

रुवन्वेली दगबा - अनुराधापुरा, श्री लंका
रुवन्वेली दगबा – अनुराधापुरा, श्री लंका

स्तूप के चारों ओर भ्रमण करते स्थानीय दर्शनार्थी पुष्प, दूध व धूपबत्तियों के अलावा कई जड़ीबूटियाँ भी रुवन्वेली दगबा में अर्पित कर रहे थे।

यहाँ मेरा ध्यान एक चित्रकथा ने खींचा जिसमें इस विशाल स्तूप के निर्माण का दृश्य दर्शाया गया था। तत्कालीन महाराज द्वारा इस स्तूपनिर्माण में दिया गया श्रमदान भी इसमें स्पष्टता से दर्शाया गया था।

श्रीमहाबोधि वृक्ष – अनुराधापुरा

श्री महाबोधि वृक्ष - अनुराधापुरा, श्री लंका
श्री महाबोधि वृक्ष – अनुराधापुरा, श्री लंका

अनुराधापुरा के विशाल पीपल के वृक्ष को देख अनायास मुख से ‘बोधिवृक्ष’ शब्द फूट पड़े। उसे सुन मेरे परिदर्शक ने अत्यंत श्रद्धा से इसे ‘श्री महाबोधि’ कह संबोधित किया। उसके ये उद्गार श्रीलंका में इस वृक्ष की महत्ता के द्योतक हैं। जैसे कि हमें ज्ञात है, सम्राट अशोक की पुत्री, बौद्ध भिक्षुणी संघमित्रा ने बोध गया, बिहार के मूल बोधि वृक्ष की एक शाखा को श्रीलंका में रोपित किया था, जो आज भी यहाँ विकसित हो रहा है। २४५ई.पू. में रोपित बोधिवृक्ष की शाखा से उत्पन्न इस वृक्ष को मूलतः ‘जय श्री महाबोधि’ कहा गया। हालांकि बिहार के बोध गया में स्थित मूल बोधिवृक्ष वर्तमान में नष्ट हो चुका है, परन्तु उसका वंशज श्रीलंका के अनुराधापुरा में आज भी जीवित है। बोध गया स्थित नवीन बोधिवृक्ष को, अनुराधापुरा के इस महाबोधिवृक्ष की शाखा द्वारा पुनर्जीवित किया गया है। इसका अर्थ है कि वृक्ष विकसित करने की यह कला उस काल में भी ज्ञात थी। मेरे परिदर्शक के अनुसार वृक्ष स्थानान्तरण में इसी कला का उपयोग किया जाता था।

“अनुराधापुरा का ‘जय श्री बोधि वृक्ष’ ऐतिहासिक दृष्टी से विश्व का प्राचीनतम प्रमाणित वृक्ष है।”

पवित्र स्थल

श्री महाबोधि वृक्ष का वो हिस्सा जो बोध गया से आया था - अनुराधापुरा
श्री महाबोधि वृक्ष का वो हिस्सा जो बोध गया से आया था

श्रीलंका का सर्वाधिक पवित्र स्थल माने जाने के कारण महाबोधि वृक्ष के रक्षण की भरपूर व्यवस्था की गयी है। इसके चारों ओर खड़ी की गयी दीवार से केवल इसका ऊपरी भाग दृष्टिगोचर है। मुझे बताया गया कि वनस्पति वैज्ञानिक दिन में दो बार इसके स्वास्थ्य की जांच पड़ताल करते हैं। भारत से लायी गयी वृक्ष की मूल शाखा को सुनहरे फलकों द्वारा सुरक्षित किया गया है। मंच, जिस पर यह बोधिवृक्ष स्थापित है, उसे सुनहरे बाड़ द्वारा घेरा गया है। बोधिवृक्ष के तले एवं अनुराधापुरा के अन्य स्थलों की धरती रेतीली होने के बावजूद वृक्ष यहाँ फलफूल रहे हैं।

महाबोधि वृक्ष के दर्शन हेतु हम उत्कीर्णित पाषाणी सीड़ियों द्वारा इसके प्रांगण के भीतर पहुंचे। सीड़ियों के दोनों ओर विस्तृत चंद्रकांत एवं नागराज रक्षक प्रतिमाएं स्थापित थीं। पुष्प विक्रेता रंगबिरंगे कमलों की विक्री कर रहे थे। कलियों की पंखुड़ियों को कलात्मकता से खोलकर उन्हें पुष्प का आकार प्रदान करते देखना मेरे लिए बहुत रोचक था।

महाबोधि वृक्ष के समीप स्थित महाविहार संग्रहालय अत्यंत औपनिवेशिक प्रतीत हो रहा था। हालांकि बंद होने के कारण हम इसके संग्रह का अवलोकन नहीं कर सके।

लोह प्रसादय अथवा लोवमहापाय

लोहा प्रासाद - अनुराधापुरा
लोहा प्रासाद – अनुराधापुरा

अनुराधापुरा में महाबोधि एवं रुवन्वेली सेया के मध्य स्थित, लोवमहापाय एक प्राचीन महल है। तांबे की छत के कारण इसे तांबे का महल या लोह प्रसादय भी कहते हैं। साहित्यों के अनुसार ९ मंजिलों एवं १६०० स्तंभों के इस भवन निर्माण में ६ वर्षों का समय व्यतीत हुआ. परन्तु १५ वर्ष उपरांत एक भीषण अग्नि में यह पूर्णतः स्वाहा हो गया। वर्तमान में मूल संरचना के केवल १६०० स्तंभों के अवशेष ही शेष हैं। महल के स्थान पर अब एक छोटी इमारत का निर्माण किया गया है।

कहा जाता है कि बोधिवृक्ष की देखरेख करने हेतु लगभग १०० भिक्षु लोवमहापाय में निवास करते थे। कदाचित स्वयं के रक्षण में सक्षम इस बोधिवृक्ष को उनकी देखरेख की आवश्यकता नहीं थी।

पुरातत्व संग्रहालय

अनुराधापुरा का पुरातत्व संग्रहालय अथवा पुराविदु भवन, श्रीलंका के कई पुरातत्व संग्रहालयों में से एक है। यह लोह प्रसादय एवं रुवन्वेली सेया के बीच, कचहरी इमारत के भीतर स्थित है। इस संग्रहालय के भीतर श्रीलंका के प्राचीन स्थलों की खुदाई के समय प्राप्त हुए प्राचीन कलाकृतियों को प्रदर्शित किया गया है। यहाँ प्रदर्शित बुद्ध प्रतिमाएं, अभिलेख, चित्रकलाएं, कठपुतलियाँ, सिक्के, आभूषण तथा अन्य कई वस्तुएं प्राचीन अनुराधापुरा से आपका परिचय कराते हैं।

जेतवनरम्या दगबा

विशाल जेतवनरम्या दगबा - अनुराधापुरा
विशाल जेतवनरम्या दगबा – अनुराधापुरा

३री. शताब्दी में निर्मित यह अतिविशाल स्तूप, मिश्र के पिरामिडों के पश्चात, दूसरी सर्वाधिक विशाल संरचना थी। पुरातत्व संग्रहालय में इसके पुनरुद्धार के पूर्व एवं पश्चात के चित्र प्रदर्शित हैं।

इस स्तूप के समीप, दगबा से अपेक्षाकृत छोटा, तथापि विशाल मंदिर है। इसके भीतर महापरिनिर्वाण मुद्रा में भगवान् बुद्ध का चित्र है। श्रीलंका के अन्य मंदिरों की भांति यहाँ भी बुद्ध के रंगीन चित्र में पीले व लाल रंगों की प्रधानता है। स्तूप की परिक्रमा के समय मैंने नाग की प्रतिकृतियाँ देखी जो अभी भी पूजी जाती हैं। दो विशाल पाषाणी अभिलेख इस स्तूप की कथा कह रहे थे।

मूर्ति घर के नीचे यंत्रगल - अनुराधापुरा
मूर्ति घर के नीचे यंत्रगल

इस अतिविशाल स्तूप के सानिध्य में मैं स्वयं को तुच्छ अनुभव कर रही थी। इसकी विशालता मेरे अहम् को यह आभास करा रही थी कि मैं इस विशाल ब्रम्हाण्ड का एक नगण्य अंश हूँ।

दगबा के समक्ष एक मूर्ति गृह के अवशेष थे। इसके मध्यवर्ती कक्ष के भीतर एक गोलाकार मंच के ऊपर चौकोर यंत्रगल्ल था जिस के ऊपर किसी काल में बुद्ध की प्रतिमा स्थित थी।

कुट्टम पोकुना

कुत्तम पोकुना - अनुराधापुरा के जुड़वाँ जल कुंड
कुत्तम पोकुना – अनुराधापुरा के जुड़वाँ जल कुंड

कोट्टम पोकुना अर्थात् जुड़वे कुंड, पत्थर से बने दो कुंड हैं। आस पास  स्थित ये सुन्दर कुंड, भारत के कुछ राज्यों में स्थित बावडियों की तरह, परन्तु अपेक्षाकृत छोटे हैं। इसकी एक दीवार पर नाग की सुन्दर आकृति की नक्काशी की गयी है। दो कुंडों के औचित्य के सम्बन्ध में मैं अनुमान लगाने लगी कि यह संभवतः ऊष्ण एवं शीतल जल अथवा स्त्री एवं पुरुष हेतु बनाए गए हों।

ये कुंड अनुराधापुरा के जल प्रबंधन प्रक्रिया का भाग हैं। कुंड के समीप कई जल निथारन कोष्ठ हैं जो अनुराधापुरा के जल आपूर्ति नहर से जल प्राप्त कर, उसका क्रमशः निथारन कर, इन कुंडों को भूमिगत नालियों द्वारा जल प्रदान करते थे। इन कुंडों को देख मुझे मुंबई के कान्हेरी गुफाओं में स्थित जल संग्रह एवं वितरण प्रणाली का स्मरण हो आया।

कोलम्बो के राष्ट्रीय संग्रहालय से इन कुंडों के सम्बन्ध में जानकारी हासिल करने के पश्चात मुझे इनके दर्शन करने की बहुत उत्सुकता थी। परन्तु दूषित, मटमैले जल एवं प्लास्टिक की फेंकी हुई बोतलों से भरे इन कुंडों को देख मन खिन्न हो गया।

समाधिस्थ बुद्ध

समाधी बुद्धा - अनुराधापुरा
समाधी बुद्धा – अनुराधापुरा

समाधि अर्थात् ध्यान की उच्चावस्था जहां साधक ध्येय के ध्यान में इतना तल्लीन हो जाता है कि उसे अपने अस्तित्व का भी भान नहीं रहता। बुद्ध की अधिकतर प्रतिमाओं में उन्हें इसी ध्यान मुद्रा में प्रतिबिंबित किया जाता है।

बुद्ध की इस ध्यानमग्न प्रतिमा की एक और विशेषता यह है कि तीन विभिन्न दिशाओं से देखने पर उनके तीन भिन्न भिन्न भाव परिलक्षित होते हैं। वह हैं शांति, आनंद एवं दया भाव।

अभयगिरी विहार

अभाय्गिरी स्तूप - अनुराधापुरा, श्री लंका
अभाय्गिरी स्तूप – अनुराधापुरा , श्री लंका

जेतवनरम्या की तरह ईंटों द्वारा बना यह स्तूप भी अनुराधापुरा के विशालतम स्तूपों में से एक है। मूलतः जैन विहार होते हुए भी यह ५००० भिक्षुओं के रहने लायक, बोद्ध धर्म के विशालतम मठ के रूप में जाना जाता है। यह वही विहार है जहां के भिक्षुओं ने सर्वप्रथम बुद्ध के पवित्र दन्त को श्रीलंका में स्वीकार किया था।

इस स्तूप की परिक्रमा करते समय हमें छत्र धारण किये बुद्ध की एक सुन्दर प्रतिमा के भी दर्शन हुए। भारत के कई पाषाणी मंदिरों की भान्ति यहाँ भी पत्थरों पर शतरंज के मंच की नक्काशी की गयी है।

थुपरामा एवं मिरिस्वेती स्तूप

थुपरामा दाग्बा - अनुराधापुरा
थुपरामा दाग्बा – अनुराधापुरा

श्वेत, स्वच्छ व सुन्दर रखरखाव के ये दोनों स्तूपों के चारों ओर ऊंचे पाषाणी स्तंभ खड़े हैं। इनको देख इनकी प्राचीन भव्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। किसी काल में छत्र के नीचे स्थित ये स्तूप अब भी बहुत आकर्षक प्रतीत होते हैं।

यूं तो अनुराधापुरा कई छोटे बड़े स्तूपों से भरा हुआ है। इनके दर्शन करते आप थक जायेंगे परन्तु स्तूपों की कतार समाप्त नहीं होगी।

अनुराधापुरा नगर का भ्रमण

चंद्रकार का प्रवेश पाषाण - श्री लंका का पुरातन चिन्ह
चंद्रकार का प्रवेश पाषाण – श्री लंका का पुरातन चिन्ह

अनुराधापुरा नगर के भ्रमण के समय आपको कई विहारों व निवासस्थानों के अवशेष दृष्टिगोचर होंगे। अधिकतर प्राचीन संरचनाएं केवल पत्थर एवं ईंटों के आधार व स्तंभों के रूप में ही शेष हैं। ये इतनी भंगित अवस्था में है कि इन्हें इनके मूल स्वरुप में कल्पना करना आसान नहीं। इन्हें देख सहसा विश्वास नहीं होता कि किसी समय यहाँ हजारों की संख्या में बोद्ध भिक्षु निवास करते थे। और वे यहाँ अध्ययन, मंत्रोच्चारण एवं प्रार्थना करते थे। तथापि इन अवशेषों द्वारा इनकी मूल विशालता का अनुमान अवश्य लगाया सकता है।

रक्षक प्रतिमा - नाग के फन लिए हुए
रक्षक प्रतिमा – नाग के फन लिए हुए

हर ओर दृष्टिगोचर चन्द्रकान्त एवं रक्षक प्रतिमाएं इस नगर को एक अदृश्य डोर से बांधती प्रतीत होती हैं।

अनुराधापुरा में स्थित कई छोटे बड़े संग्रहालय हैं। यहां खुदाई के समय प्राप्त प्रतिमाओं के अवशेष प्रदर्शित हैं। भरपूर अभिलेखों से परिपूर्ण इन संग्रहालयों को आप एक ही टिकट द्वारा देख सकते हैं।

इसुरुमुनिया पाषाणी मंदिर

इसुरुमुनिया पाषाणी मंदिर
इसुरुमुनिया पाषाणी मंदिर

अनुराधापुरा के सीमान्त पर स्थित इस मंदिर के भीतर कमलों से भरे दो सुन्दर ताल हमारा भव्य स्वागत कर रहे थे। भीतर एक सुन्दर कुंड के मध्य सपाट धरती को चीरते दो विशाल शिलाखंड थे। इस कुंड के चारों ओर आकर्षक बगीचा बनाया गया था।

एक शिलाखंड के ऊपर मंदिर स्थित था। हम दूसरी शिलाखंड पर सीड़ियों व एक पुलिया के सहारे चढ़े। यहाँ से श्रीलंका का विहंगम दृश्य दिखाई पड़ रहा था। पहाड़ियों की पृष्ठ भूमि में हरेभरे लहलहाते खेत बहुत आकर्षक दिखाई पड़ रहे थे। ऊपर से समीप स्थित कमलकुंड व बगीचा भी अप्रतिम प्रतीत हो रहा था।

गज अंकित पाशान - इसुरुमुनिया
गज अंकित पाशान – इसुरुमुनिया

इसुरुमुनिया की सबसे प्रसिद्ध प्रतिमाएं हैं एक युगल जोड़े की एवं ताल के समीप स्थित शिलाखंड के ऊपर बनायी गयी गज की प्रतिमा।

अनायास ही मेरी दृष्टी समीप ही कुछ कन्याओं पर पड़ी। वे लकड़ी के खपचियों से दोनों शिलाखंडों को जोड़ने का प्रयास कर रही थीं। काल्पनिक ही सही, किन्तु अपने प्रयास पर हुई उनकी ख़ुशी उनके चेहरे पर स्पष्ट विदित थी। उन्हें देख मुझे अपना बचपन स्मरण हो आया।

मिहिन्ताले –श्रीलंका में बौद्ध धर्म का आरंभिक स्थल

मिहिंताले की चोटी पे ले जाती सीढियां
मिहिंताले की चोटी पे ले जाती सीढियां

अपनी यात्रा के अगले पड़ाव के तहत मैं अनुराधापुरा से ११कि.मी. दूर स्थित एक पहाड़ी के पास पहुंची। ऐतिहासिक दृष्टी से महत्वपूर्ण यह पहाड़ी है, मिहिन्ताले। संघमित्रा एवं भ्राता महिंद्रा ने यहीं सर्वप्रथम श्रीलंका के तत्कालीन राजा से भेंट की थी। २४७ ई.पू. में हुई यह भेंट, श्रीलंका में बौद्ध धर्म के आरम्भ हेतु मील का पत्थर सिद्ध हुई।

निहित स्थल तक पहुँचने हेतु पहाड़ी चढ़ने की आवश्यकता थी। पहाड़ी काटकर बनायी गयी सीडियां यूँ तो बहुत आसान थीं। परन्तु भरी दुपहरी में किये गए मेरे इस प्रयास ने मुझे बहुत थका दिया था।

अनुराधापुरा की मेरी यह यात्रा मेरे लिए विशेष है। जिस दिन मैंने अनुराधापुरा में प्रवेश किया था, वह था जून के पूर्णिमा का दिन। कई सदियों पूर्व इसी पूर्णिमा के दिन महेंद्र ने भी अनुराधापुरा की धरती पर कदम रखा था। मुझे इश्वर का संकेत मिला। और मैं पहाड़ी चढ़ गयी। यहाँ से अनुराधापुरा का विहंगम दृश्य बहुत सुन्दर था। सूर्योदय एवं सूर्यास्त दर्शन हेतु यह उपयुक्त स्थल है। तथापि, अधिक श्रद्धा ना हो तो इस स्थल के दर्शन को टाला जा सकता है।

अनुराधापुरा का संक्षिप्त इतिहास

अनुराधापुरा के मंदिरों में बौद्ध प्रतिमाएं
अनुराधापुरा के मंदिरों में बौद्ध प्रतिमाएं

श्रीलंका के प्राचीनतम साहित्य महावंश के अनुसार, अनुराधापुरा को ५वी. सदी ई.पू. में श्रीलंका की पहली राजधानी घोषित किया गया था। तथापि पुरातात्विक साहित्यों ने अनुराधापुरा को १०वी. सदी ई.पू. का नगर प्रमाणित किया है। इसकी संकल्पना एवं संरचना राजा पांडुकाभया ने की थी। ३री. सदी ई.पू. में राजा देवंपिया तिस्सा के शासनकाल में इसकी समृद्धि में दिन दुगुनी रात चौगुनी वृद्धि हुई। इसी समय श्रीलंका में बौद्ध धर्म ने पदार्पण किया था।

राजा तिस्सा ने बहुत बारीकी से इस नगर की संकल्पना की थी। उन्होंने कृषि हेतु कई नहरों व तालाबों का तंत्र बनाया था। इनमें से कुछ अब भी उपयोग में लाये जा रहे हैं।

अनुराधापुरा पर कालान्तर में कई आक्रमण हुए। फिर भी ११ई. तक यह नगर प्रगति के पथ पर आगे बढ़ता रहा। तत्पश्चात पोलोनरुवा को श्रीलंका की राजधानी बनाया गया। पोलोनरुवा की कहानी मैं शीघ्र ही आपके समक्ष प्रस्तुत करुँगी।

अनुराधापुरा कई सदियों तक अदृष्ट पड़ा रहा। परन्तु सिंहलियों के मानसपटल में इसकी स्मृति धुंधली नहीं हुई। सन १९वी. शताब्दी में अंग्रेजों द्वारा की गयी खुदाई के समय लुप्त अनुराधापुरा सिंहलियों एवं सम्पूर्ण विश्व को पुनः प्राप्त हुई।

अनुराधापुरा यात्रा हेतु कुछ सुझाव

जेत्वराम्या स्तूप - अनुराधापुरा
जेत्वराम्या स्तूप – अनुराधापुरा

• पवित्र नगर अनुराधापुरा, यूनेस्को द्वारा, घोषित वैश्विक विरासती स्थल है। श्रीलंका निवासियों हेतु दर्शन शुल्क नहीं है। अन्य दर्शनार्थियों हेतु प्रवेश शुल्क २५ डॉलर है।
• संग्रहालय दर्शन हेतु समय सीमित है। अन्य सभी स्थलों के दर्शन किसी भी समय किये जा सके हैं।
• प्राचीन अनुराधापुरा में रहने योग्य कोई स्थल उपलब्ध नहीं है। तथापि नवीन अनुराधापुरा में रहने हेतु अनेक सुविधाएं उपलब्ध हैं। मैंने अपने रहने की व्यवस्था अनुराधापुरा से लगभग १ घंटे की दूरी पर स्थित हाबरना में की थी।
• यहाँ भोजन की विशेष व्यवस्था ना होते हुए, केवल कुछ जलपान, चाय एवं नारियल पानी उपलब्ध है।
• स्मारिका विक्री हेतु कई दुकानें हैं परन्तु मुझे इस स्थल से सम्बंधित कोई विशेष वस्तु प्राप्त नहीं हुई। अधिकतर दुकानों में वही वस्तुएं उपलब्ध थीं जो देश के किसी भी पर्यटन स्थल पर बेची जाती हैं।
• अनुराधापुरा भ्रमण हेतु साईकल सर्वोत्तम साधन है।
• संग्रहालय को छोड़, अन्य सभी स्थलों पर चित्रीकरण की अनुमति है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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श्रीलंका स्थित रामायण सम्बंधित स्थल एक रोमांचक यात्रा कथा https://inditales.com/hindi/ramayana-shiva-temples-sri-lanka/ https://inditales.com/hindi/ramayana-shiva-temples-sri-lanka/#comments Wed, 21 Jun 2017 02:30:07 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=302

एक इंसान अपने जीवनकाल में क्या अर्जित करने का स्वप्न देखता है? ज्ञान, धन, ख़ुशी या प्रेम? परन्तु यह मेरा स्वप्न नहीं था। मेरा स्वप्न था विश्वास, आस्था और श्रद्धा अर्जित करना। कुछ, जो मैंने खो दिया था और उसे फिर पाने हेतु अतिउत्सुक था। इसी उद्देश्य से मैंने महाकाव्य रामायण में दर्शाए गए भगवान् […]

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श्री लंका के रामायण स्थल
श्री लंका के रामायण स्थल

एक इंसान अपने जीवनकाल में क्या अर्जित करने का स्वप्न देखता है? ज्ञान, धन, ख़ुशी या प्रेम? परन्तु यह मेरा स्वप्न नहीं था। मेरा स्वप्न था विश्वास, आस्था और श्रद्धा अर्जित करना। कुछ, जो मैंने खो दिया था और उसे फिर पाने हेतु अतिउत्सुक था। इसी उद्देश्य से मैंने महाकाव्य रामायण में दर्शाए गए भगवान् हनुमान की श्रीलंका की ३०००कि.मी. की अजरामर यात्रा का अनुभव करने का निश्चय किया। इसके अंतर्गत दक्षिण भारत में हम्पी से कन्याकुमारी तक १२००कि.मी. की यात्रा पैदल चल कर पूर्ण की। इसके उपरांत श्रीलंका की परिधी, करीब २०००कि.मी., मोटरसाइकल द्वारा पूर्ण की। और श्रीलंका स्थित रामायण सम्बंधित कई स्थलों के दर्शन किये।

मंदिर, गुफाएं, बगीचे, पर्वत और विरासती स्थल, ऐसे करीब ४० छोटे बड़े रामायण सम्बंधित स्थल हैं जो पूरे श्रीलंका में फैले हुए हैं। इनमें से ज्यादातर स्थलों के दर्शन सुलभ हैं। कुछ स्थल ऐसे भी हैं जिन्हें नक़्शो व विस्तृत दिशानिर्देशों के बावजूद भी ढूँढना व वहां तक पहुँचना अत्यंत कठिन है। श्रीलंका में कई यात्रा संस्थाएं हैं जो रामायण सम्बंधित श्रीलंका के प्रमुख स्थलों के दर्शन करातीं हैं। परन्तु यदि आप श्रीलंका स्थित रामायण सम्बंधित प्रमुख व अप्रचलित, सभी स्थलों के दर्शन करना चाहें तब व्यवस्था आपको स्वयं ही करनी पड़ेगी।

श्रीलंका स्थित रामायण सम्बंधित दर्शनीय स्थल

श्रीलंका के शिव मंदिर

श्रीलंका में पहला वह रामायण सम्बंधित स्थल, जिसके दर्शन का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ, वह था चिलाव के समीप स्थित मुन्नेश्वरम मंदिर। श्रीलंका में रामायण सम्बंधित कुल ३ शिव मंदिर हैं जो एक कथा द्वारा जुड़े हैं। युद्ध जीतने के उपरांत भगवान राम ने अयोध्या वापसी की यात्रा आरम्भ की। पर, रावण वध के उपरांत उन्हें ब्राम्हण हत्या का दोष भी प्राप्त हुआ था। मुन्नेश्वरम में भगवान् राम को अपने इस दोष के कम होने की अनुभूति हुई और उन्होंने इस दोष से मुक्ति हेतु भगवान् शिव की आराधना की। भगवान् शिव ने उन्हें मनावरी, तिरुकोनेश्वरम, तिरुकेतीश्वरम और रामेश्वरम, इन ४ स्थलों में शिवलिंगों की स्थापना कर, दोष निवारण हेतु इनकी आराधना करने का मार्ग सुझाया।

चिलाव का मुन्नेश्वरम मंदिर

मुन्निश्वरम शिव मंदिर - श्री लंका
मुन्निश्वरम शिव मंदिर – श्री लंका

मुन्नेश्वरम मंदिर परिसर में कई छोटे मंदिर स्थित हैं जिनमें मुख्य मंदिर भगवान् शिव को समर्पित है। मेरी यात्रा के दौरान वहां उत्सव का वातावरण था। सम्पूर्ण मंदिर पुष्प द्वारा अलंकृत था व दीयों और रोशनी के प्रकाश में जगमगाता अद्भुत दृश्य प्रस्तुत कर रहा था। पूरा मंदिर दर्शनार्थियों द्वारा खचाखच भरा हुआ था फिर भी कहीं धक्कामुक्की व हडबडाहट नहीं थी। मेरे अस्तव्यस्त भेष के बावजूद लोग मुस्कुराकर मेरा स्वागत कर रहे थे।

मैंने भगवान के चरणों में पूजा अर्चना की। तभी यहाँ के एक अनोखे प्रथा ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। भगवान के चढ़ावे में तरबूज, पपीता, नारंगी, केले, सेब व अन्य कई फल चढ़ाए गए थे। मुझे बताया गया कि सभी मंदिरों में यही प्रथा है।

मनावरी शिवम् कोविल, चिलाव

मनावरी शिवम् कोविल - शिव मंदिर, श्री लंका
मनावरी शिवम् कोविल – शिव मंदिर, श्री लंका

दूसरे दिन सुबह मैंने चिलाव से १०कि.मी. उत्तर में स्थित मनावरी सिवम कोविल के दर्शन किये। तमिल भाषा में मंदिर को कोविल कहा जाता है। मनावरी सिवम कोविल या ईस्वरण कोविल एक छोटा परन्तु धार्मिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण मंदिर है। ब्राम्हण हत्या दोष निवारण हेतु भगवान् राम द्वारा स्थापित यह पहला शिवलिंग है। चूंकि इस शिवलिंग की स्थापना स्वयं भगवान् राम ने की थी, इसे रामलिंगम भी कहा जाता है। जैसा कि माना जाता है, भगवान् राम का जन्म ५११४ ई.पू. में हुआ था। इसका तात्पर्य है कि यह शिवलिंग ७०००वर्षों से भी अधिक प्राचीन है।

रामसेतु

राम सेतु – भारत – श्री लंका
राम सेतु – भारत – श्री लंका

इसके उपरांत मैं तलईमन्नार की तरफ रवाना हो गया जो भौगोलिक रूप से भारत से निकटतम स्थान है और रामसेतु का भारत की तरफ का छोर है। इसे ऐडम सेतु भी कहा जाता है। किवदंतियां कहतीं हैं कि, भगवान हनुमान द्वारा लंका में देवी सीता को खोजने के उपरांत, वानर सेना ने लंका की तरफ कूच किया व समुद्र तट तक पहुँच गए परन्तु लंका तक पहुँचने का कोई साधन नहीं था। उस क्षण लंका पहुँचने हेतु वानर वास्तुकार नल ने समुद्रतट से लंका तक सेतु निर्माण की योजना तैयार की। कहा जाता है कि सेतु निर्माण के दौरान पत्थर समुद्र में डूब रहे थे। तब वानर सेना ने पत्थरों पर भगवान् राम का नाम लिख कर उन पत्थरों द्वारा इस राम सेतु का निर्माण किया। इस सेतु निर्माण में उपयोग में लाये गए कुछ तैरते पत्थर हम रामेश्वरम के पंचमुखी हनुमान मंदिर में देख सकते हैं।

तलैमन्नार में स्थित पुराने प्रकाश स्तम्भ के समीप तट से श्रीलंका नौदल नौकासेवा उपलब्ध कराती है जो इस सेतु के दर्शन हेतु अति उपयुक्त है। जहाँ समुद्र का स्तर उथला है वहां इस सेतु के अवशेष अभी भी देखे जा सकते हैं।

राम सेतु के दर्शन उपरांत मैं रात के भोजन हेतु शहर की तरफ मुडा। मैंने एक छोटे भोजनालय में प्रवेश किया और उसके मालिक से तिरुकेतीश्वरम के मार्ग से सम्बंधित जानकारी हासिल की। जैसे ही उन्हें मेरे भारतीय होने व मेरी इस यात्रा के प्रयोजन के बारे में ज्ञात हुआ, उन्होंने भोजनालय में उपस्थित सभी ग्राहकों को बताया। शीघ्र ही सब मेरी मेज के चारों ओर एकत्र हो गए व क्रिकेट, राजनीति, भ्रष्टाचार व धार्मिक स्थलों पर चर्चा करने लगे। सारे अपरिचित पास आ कर मुझसे हस्तांदोलन करने लगे और मुस्कुराते हुए मेरा अभिनन्दन किया व मेरी यात्रा हेतु मुझे शुभकामनाएं दीं। यह सब कुछ मेरे लिए अद्भुत था। इतने सारे लोग मेरी यात्रा से रोमांचित थे। उन्होंने मुझ पर सलाहों और सहायताओं की बौछार कर दी।

तिरुकेतीश्वरम मंदिर, मन्नार

तिरुकेतीश्वरम मंदिर, मन्नार - श्री लंका
तिरुकेतीश्वरम मंदिर, मन्नार – श्री लंका

अगले दिन सुबह मैं तिरुकेतीश्वर मंदिर की तरफ रवाना हो गया। यह मंदिर मन्नार शहर से करीब १०कि.मी. दूर, मन्नार राजमार्ग पर स्थित है। यह श्रीलंका के तीन शिवलिंगों में से दूसरा शिवलिंग है। किवदंतियां कहतीं हैं कि इस मंदिर का निर्माण रावण के श्वसुर माया अथवा मायासुर ने किया था। वह एक कुशल वास्तुकार थे, जिन्होंने इन्द्रप्रस्थ के मायासभा का भी निर्माण किया था।

पुर्तगालियों द्वारा इसे नष्ट किये जाने के बाद, सन १९०० के शुरुआत में, मूल शिवलिंग की खुदाई के पश्चात, इसे पुनःस्थापित किया गया। नष्ट होने से पूर्व, इसे श्रीलंका स्थित सभी शिवमंदिरों में से विशालतम शिवमंदिर माना जाता था। कहा जाता है कि इस नष्ट किये गए शिवमंदिर के पत्थरों से ही मन्नार का किला, मन्नार के सभी गिरिजाघर और केट्स के हैमर्शील्ड किले का निर्माण किया गया था। आप इस तथ्य से अंदाजा लगा सकतें हैं कि मूल शिव मंदिर कितना विशाल रहा होगा!

इस मंदिर में कई सभामंडप थे जिनमें भगवान की विभिन्न मूर्तियाँ रखीं गईं थीं। इन सभामंडपों के प्रवेशद्वार पूर्णतः एक पंक्ति में बनाए गए थे। मैं पहले सभामंडप के प्रवेशद्वार से, सभी सभामंडपों के पार, मुख्य मंदिर में स्थित शिवलिंग को देख सकता था। इस अभूतपूर्व दृश्य को देख मन में एक अद्भुत शान्ति का अनुभव हुआ।

मुसीबत मोटरसायकल की

तिरुकेतीश्वरम मंदिर से शहर वापस आते समय मेरी मोटरसायकल ने मुझे तकलीफ देने का अवसर नहीं गंवाया। अपने मोबाइल फोन पर बात करते समय मैंने मोटरसायकल का इंजन जरूर बंद करा पर हेडलाईट बंद करना भूल गया। नतीजा! मोटरसायकल की बैटरी अचेत हो गयी। सुनसान जगह होने के कारण चारों ओर नजर दौडाने पर भी कोई सहायतार्थ मौजूद नहीं था। दौड़ कर मोटरसाईंकल चालू करने की भी असफल कोशिश की। इस दौरान सांस इतनी फूल गयी कि लगा दिल का दौरा ना पड जाए! भगवान् की दया से वहां कुछ दयालु कॉलेज के छात्र प्रकट हो गए और उन्होंने मोटरसाईकल चालू करने में मेरी सहायता की। मुझे जिस तरह लोगों की सहायता व आधार मिल रहा था, लोगों पर विश्वास करने को जी चाह रहा था। परन्तु मेरे विचार बदलने हेतु अभी यह शायद पर्याप्त नहीं था।

कोनेश्वरम कोविल

कोनेश्वरम मंदिर में रावण की प्रतिमा
कोनेश्वरम मंदिर में रावण की प्रतिमा

कुछ दिनों पश्चात, अनुराधापुरम व कुछ और विरासती स्थलों के दर्शनों के उपरांत मैंने त्रिंकोमाली स्थित कोनेश्वरम कोविल के दर्शन किये। यह, वह तीसरा व अंतिम शिवलिंग है जहां भगवान् राम ने ब्राम्हण हत्या दोष निवारण हेतु पूजा अर्चना की थी। इस मंदिर का निर्माण अगस्त्य मुनि ने किया था। इसे दक्षिण का कैलाश* भी कहा जाता है। इसके साथ साथ यह एक महाशक्ति पीठ भी है। यह मंदिर एक पहाड़ी के ऊपर बनाया गया है जहां से बंदरगाह का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है।
*श्रीलंका स्थित दक्षिण का कैलाश ठीक उसी देशांतर पर स्थित है जिस पर कैलाश पर्वत स्थित है।

दंतकथा

ऐसा कहा जाता है कि रावण की माता हर दिन शिवलिंग की पूजा किया करती थी। एक दिन उन्हें पूजा हेतु शिवलिंग नहीं मिला। उनकी पूजा सम्पूर्ण करने में मदद करने हेतु रावण ने दक्षिण कैलाश जा कर शिवलिंग प्राप्त करने हेतु घोर तपस्या की। भगवान् शिव के प्रकट ना होने पर रावण क्रोधित हो उठा और उसने दक्षिण कैलाश पर्वत को उठाने की चेष्टा की।परन्तु भगवान् शिव ने उसे पछाड़ दिया। उस पर भी रावण ने सीख नहीं ली और अपनी तलवार निकाल कर पर्वत पर एक बड़ा चीरा लगाया जिसे रावण चीरा कहते हैं। रावण की इस करनी पर दुखी होकर शिव ने उसे घोर सजा दी। रावण घबराकर भगवान् शिव को मनाने लगा। अपने सर व बाहों को वीणा बनाकर वह भगवान् की स्तुति गायन करने लगा। इससे प्रसन्न होकर शिव ने उसे क्षमा कर दिया व एक शिवलिंग उसे दिया।

प्राचीन कोनेश्वरम मंदिर

एक प्राचीन मंदिर के रूप में कोनेश्वर कोविल का उल्लेख रामायण व महाभारत दोनों महाकाव्यों में किया गया है। चोलवंशी राजाओं के संरंक्षण में इस मंदिर का शीघ्रता से विकास हुआ और यह एक विशाल गोपुरम और एक हज़ार स्तंभों का मंदिर बन गया। अपनी कीर्ति की चरम सीमा पर इसके परिसर ने पूरी पहाड़ी अपने अन्दर समा ली थी। जैसा कि कहा जाता है, प्रत्येक उत्थान के पश्चात पतन नियत होता है। सन १६२२ में पुर्तगालियों ने इसे नष्ट कर दिया था। खुदाई के पश्चात, भगवान् शिव, पार्वती और गणेश की मूर्तियों के खोज के उपरांत इस मंदिर का पुनःनिर्माण किया गया।

“ सन १९५६ में प्रसिद्ध लेखक आर्थर सी. क्लार्क ने गोताखोरी के दौरान इस स्वयम्भू लिंग को खोज निकाला जिसकी स्थापना कभी रावण ने की थी। “

वर्त्तमान में पहाड़ी के निचले भाग पर सेना की एक टुकड़ी को रखा गया है जो ध्यानपूर्वक पर्यटकों का निरिक्षण करती है। मंदिर की ओर जाते मार्ग पर कई दुकानें थीं जो पूजा सामग्री, कपडे, खिलौने, खाद्यवस्तुयें इत्यादि बेच रहीं थीं।

इसके पूर्व दर्शन किये स्थलों की तरह, यहाँ भी लोगों ने मेरा स्वागत किया। सब अत्यंत आगत्यापूर्ण व मित्रवत थे और अपने घर भोजन ग्रहण करने हेतु आमंत्रण देने को आतुर थे। मैं सोच रहा था कि मेरे प्रति इनका इतना अच्छा व्यवहार उनके स्वयं के अच्छे स्वभाव के कारण था या मेरी किसी कथनी अथवा करनी ने उनका दिल जीत लिया था। जो भी हो, मुझे अपनी इस यात्रा में बहुत आनंद प्राप्त हो रहा था और शायद इसलिए मेरे मुख पर निरंतर मुस्कान बिखरी रहती थी। भरे हुए रास्ते पर, काम पर जाने की जल्दी में गाडी चलाने की झुंझलाहट से कोसों दूर, इस सुन्दर प्रदेश में इत्मीनान से मोटरसाईकल चलाने के आनंद ने मेरी सारी अच्छाईयां उभारकर सम्मुख प्रस्तुत कर दिया था।

सिगिरिया

सिगिरिया शिला - श्री लंका
सिगिरिया शिला – श्री लंका

सिगिरिया का कोबरा हुड गुफा मेरा अगला पड़ाव था। दाम्बुला शहर से १५कि.मी. दूर यह एक विश्व विरासत स्थल है। दंतकथाएं कहतीं हैं कि सीता अपहरण के पश्चात, रावण को भय था कि भगवान् राम के शुभचिंतक या सहयोगी देवी सीता को ढूँढ लेंगे। इसलिए वह देवी सीता को इश्त्तिपुरा, सीता पोकुना, उसनगोडा, सीता कोटुवा और अशोक वाटिका जैसे अनेक स्थलों पर निरंतर विस्थापित करता रहा। सिगिरिया स्थित कोबरा हुड गुफा अर्थात् नाग शीर्ष सदृश गुफा भी ऐसा ही एक स्थल है जहाँ रावण ने सीता को कैद कर रखा था।

लायन रॉक अर्थात् शेर शिला

सिगिरिया का अर्थ है शेर रुपी शिला अर्थात् लायन रॉक। यह प्राचीन श्रीलंका की राजधानी थी। अपने आप में अनोखी यह अन्य शिलाओं से घिरी, १८०मी. ऊंची विशाल शिला पर स्थित है। राजधानी के रूप में इसकी स्थापना राजा कश्यप के शासनकाल में हुआ था जब उसने अपने पिता को मार कर, इस राज्य के असली उत्तराधिकारी, अपने भ्राता मोगल्लाना से इसे छीना था। कश्यप ने इसकी संरचना रक्षात्मक किला व आमोद महल के रूप में की थी। विडम्बना देखिये, कुछ समय पश्चात, इस किले में ही कश्यप अपने भाई मगल्लाना से युद्ध में पराजित हो गया। तत्पश्चात इसे सन्यासियों के हवाले कर दिया गया और इस तरह इसके निर्माण के दोनों उद्देश्य असफल हो गए।

चूंकि सिगिरिया एक गढ़ था, उसमें सभी अनिवार्य रक्षात्मक संरचनाएं उपस्थित थीं जैसे प्राचीर, स्तंभ, मुख्य द्वार और खन्दक जिसमें किसी समय मगरमच्छ रखे गए थे। इनका उद्देश्य गुप्तचरों, शत्रुओं व गद्दारों से गढ़ के रहवासियों की रक्षा करना था। गढ़ के प्राचीर के भीतर, सिगिरिया शिला तक के मार्ग पर पानी, शिलाखण्ड और मेंड़ बगीचे बनाए गए थे।

दर्पण दीवार

पहाड़ी के आधे रस्ते पर एक दर्पण भित्त थी, अर्थात् पलस्तर दीवार जो किसी समय इतनी ज्यादा चमकदार थी कि यह कश्यप के लिए दर्पण का कार्य करती थी। इस दर्पण के पर्यटकों ने इतने दर्शन किये, इन पर अंकित प्राचीन भित्तिचित्रण इसको प्रमाणित करतें हैं। परन्तु समय के साथ साथ, कला के साथ अपवित्रता और अश्लीलता जुड़ने लगी और उसका एक अभिन्न अंग बनने लगी। आश्चर्य होता है कि “राजू रानी से प्रेम करता है”, मेरा बाप चोर है” या “इधर पेशाब करना मना है” जैसे प्रचारवाक्य जो इन पर्यटन स्थलों पर लिखे जातें हैं, भविष्य में क्या यह भी हमारे विरासत का हिस्सा माने जायेंगे?

भक्त हनुमान, राम्बोड़ा

भक्त हनुमान मंदिर - राम्बोदा पर्वत
भक्त हनुमान मंदिर – राम्बोदा पर्वत

भक्त हनुमान मंदिर, कैंडी से ५०कि.मी. दूर, राम्बोड़ा के पास नुवारा एलिया के रास्ते पर स्थित है। ऐसा मानना है कि भक्त हनुमान देवी सीता को खोजने यहाँ भी आये थे। यहाँ समीप ही सीता अश्रु कुण्ड है जो दंतकथाओं के अनुसार सीता देवी के अश्रुओं से बना है। यह वही स्थान है जहां दोनों सेनायें पहली बार एक दूसरे के समक्ष आयीं थीं। राम्बोड़ा पहाड़ी की तरफ भगवान् राम की सेना व दूसरी तरफ की रावण सेना राम्बोड़ा झील के दोनों तरफ खड़ीं थीं।

एक अनुभव

राम्बोड़ा के भक्त हनुमान मंदिर की स्थापना चिन्मय मिशन ने एक पहाड़ी के ऊपर की थी जहाँ से राम्बोड़ा झील दिखाई देता है। इस मंदिर के पास ही मुझे इस यात्रा का अब तक का सबसे ज्यादा नागवार अनुभव प्राप्त हुआ। जब मैं अपनी मोटरसाईकल चला कर जा रहा था, मुझे राजमार्ग के बीचोंबीच एक कुत्ते का पिल्ला किसी इंतज़ार में बैठा दिखाई पड़ा। मैंने सड़क के बाजू में मोटरसायकल खड़ी कर उसे उठाया और सड़क के बाजू रखा। पास की दूकान से उसके लिए कुछ खाने का सामान खरीदा और जैसे ही मुडा,मैंने देखा की वह शैतान पिल्ला फिर सड़क के बीचोंबीच बैठ गया था। मैं एक बार फिर उसकी तरफ बढ़ा पर इस बार वह भाग गया। मैं भी उसके पीछे भागा परन्तु हड़बड़ी में एक ट्रक के नीचे आते आते बचा।

जब तक ट्रक मेरे सामने से गुज़रा, उन कुछ क्षणों में ही वह गायब हो गया। मैं डर गया था कि वह ट्रक के नीचे आ गया। परन्तु एक राहगीर ने इशारे से बताया कि वह पास के एक घर में घुस गया था। मुझे उस पर इतना गुस्सा आया कि शायद मेरे सामने होता तो अवश्य उसे सबक सिखाता।

यात्रा के दौरान अनुभव और ज्ञानार्जन

कुत्ते के पिल्ले के गायब होते ही मुझे अपनी बेवकूफी का अहसास हुआ जब मैंने सड़क बाजू खड़े कुछ लोगों को अपने ऊपर हंसते और लोटपोट होते देखा। बचीखुची इज्ज़त बचाने की कोशिश में मैं एक रेस्तरां में घुस गया। कुछ अच्छा काम करने जाएँ और उस पर भी लोग हम पर हंसें तो मन बहुत आहत होता है। परन्तु होटल के स्थूलकाय मालिक ने जोर से खिलखिलाते हुए मुझे समझाया तब मुझे अहसास हुआ कि लोग मुझ पर नहीं बल्कि उस पूरे घटनाचक्र पर हंस रहे थे। उसने वह पूरा दृश्य अपनी आँखों से देखा था। मुझ पर दया कर उसने रसोईघर फिर खोलने का भी प्रस्ताव दिया। खाने के पैसे देने पर उसने लेने से भी इनकार कर दिया। तब मैंने जाना कि दया, सहानुभूति और सहायता की इच्छा अभी लुप्त नहीं हुई है।

एडम चोटी

आदम छोटी - श्री लंका
आदम छोटी – श्री लंका

अगले कुछ दिनों में मैंने कैंडी, पोलोन्नारुवा, दाम्बुला, एडम चोटी और कई दूसरे स्थलों के दर्शन किये। कहा जाता है कि एडम चोटी पर भगवान शिव के पदचिन्ह अंकित हैं। अंततः मैं नुवारा एलिया से करीब ३०की.मी. दूर होर्टन मैदानी राष्ट्रीय उद्यान पहुंचा जिसे पाताल लोक अथवा विश्व का अंतिम स्थल भी कहा जाता है। यह वही स्थान है जहाँ अहिरावण ने राम और लक्षमण को बंदी बना कर रखा था। अपने पंचमुखी रूप में भगवान हनुमान ने उन्हें बाद में मुक्त कराया था।

“भगवान हनुमान ने अपने पंचमुखी रूप में राम और लक्षमण को अहिरावण से मुक्त कराया था।”

अशोक वाटिका

अशोक वाटिका - श्री लंका
अशोक वाटिका – श्री लंका

होर्टन मैदानी राष्ट्रीय उद्यान के समीप हकगला वाटिका अथवा अशोक वाटिका है जहां रावण ने देवी सीता को बंधक बना कर रखा था क्योंकि महारानी मंदोदरी ने उन्हें महल में लाने की अनुमति नहीं दी थी। यहीं पर हनुमान ने पहली बार देवी सीता से भेंट की थी और उन्हें भगवान राम की अंगूठी दी थी।

यह एक अविश्वसनीय रूप से खूबसूरत बगीचा था। यहाँ पौधों की हज़ारों प्रजातियाँ थीं जिन पर सैकड़ों तितलियाँ मंडरा रहीं थीं। कहा जाता है कि बसंत ऋतु में यह बगीचा सबसे खूबसूरत लगता है जब पौधे फूलों से भर जातें हैं। दुर्भाग्य से बसंत अभी बहुत दूर था।

सीता अम्मा मंदिर

हकगला वाटिका के दर्शन के पश्चात मैं सीता अम्मा मंदिर की ओर चल पड़ा जो सड़क के ठीक दूसरी तरफ था।किवदंतियां कहतीं हैं कि देवी सीता, मंदिर के पास स्थित नदी में स्नान करती थी। नदी के पास कई पत्थर थे जिन पर पैरों के पदचिन्ह थे। माना जाता है कि यह भगवान् हनुमान के पदचिन्ह हैं।

जीवन परिवर्तित करने वाला जो अनुभव मैंने यहाँ पाया, वह क्या मेरी नियति थी या मेरी अच्छी किस्मत! अभी भी कई बार इस बारे में सोच कर मैं अचंभित हो जाता हूँ।

यात्रा के कुछ और अनुभव

पूजा अर्चना करने के पश्चात मैं मंदिर के एक कोने में शांतिपूर्वक बैठ गया। एक छोटी सी बालिका मेरे पास आई व अपना कुछ प्रसाद एक बड़ी मुस्कराहट के साथ मेरे हाथ में रख दिया। उसकी मुस्कराहट ने मेरा दिल पिघलाकर रख दिया। मुझे अहसास हुआ कि बच्चे कितने मासूम और विश्वासी होते हैं। पर फिर मेरे दिल के किसी मानवद्वेषी कोने ने अपना सर उठाया और मुझे उस खतरे और विकट परिणाम के लिए आगाह किया जिसने इतने बार मेरे मन को उकसाया था। मन किया कि उस बालिका को डांट पिलाऊं कि यह दुनिया सुरक्षित स्थान नहीं है। बाहर इतने राक्षसी प्रवृत्ति के लोग हैं कि उसे अपने परिवारजनों के सानिध्य में सुरक्षित रहना चाहिए। परन्तु मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। क्यों? पता नहीं!

उस मासूम बालिका के हाथों दयालुता का प्रसाद ग्रहण कर उसकी मासूमियत पर प्रहार करना, क्रूरता और स्वार्थी बनने के सामान है। मैं उस निर्मलता और मानवता पर विश्वास की मूरत को अविरल निहारते रहना चाहता था। उसके मासूम हावभाव ने मुझे मेरे डर व अविश्वास को भुला दिया। लोगों पर विश्वास करना मैंने बहुत पहले छोड़ दिया था और इसी कारण मेरा अंतर्मन मलिन व क्लांत रहता था। यही अत्याचार मैं उस मासूम बालिका पर कैसे कर सकती थी।

मानवता

मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि उस वक्त मेरा कोई वजूद नहीं था। अगर उस वक्त कुछ अस्तित्व में था तो वह थी मेरी शंका।वह शंका जो हर इंसान के ऊपर मंडराती है, वह शंका जो हमें किसी अजनबी को देख मुस्कुराने से पहले सोचने पर मजबूर करती है, वह शंका जो हमें किसी से सहानुभूति के दो शब्द कहने व किसी की सहायता करने से रोकती है, उस शंका का आज अंत होना चाहिए। मुझे अभी इसी वक्त इस शंका को मारना होगा।

वैसे तो यह एक तुच्छ सी घटना थी, जिसे किसी और दिन मैंने ध्यान नहीं दिया होता। परन्तु उस स्थिति में उस घटना ने मेरे ऊपर बड़ा प्रभाव छोड़ा। इसे समझाना कठिन है परन्तु इस तरह कुछ अनुभव जीवन में आते हैं जो सही समय सही स्थान के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण बन जातें हैं। यह घटनाएँ तुच्छ भी हो सकतीं हैं जैसे पुस्तक की एक पंक्ति, चलचित्र का एक संवाद या घटना बड़ी भी हो सकती है जैसे एक दुर्घटना। परन्तु यही घटनाएँ हमारी जिंदगी बदल देती हैं। मेरे जीवन की इस घटना ने मानवता में मेरा विश्वास फिर जगा दिया।

दिवुरुम्पोला मंदिर, नुवारा एलिया

दिवुरुम्पोला मंदिर - श्री लंका
दिवुरुम्पोला मंदिर – श्री लंका

अगले दिन मैंने दिवुरुम्पोला मंदिर के दर्शन किये जो वेलिमडा की तरफ जाते मार्ग पर नुवारा एलिया से २०कि.मी. दूर स्थित है। पौराणिक कथाएं कहतीं हैं कि सीता देवी ने अपनी अग्नि परीक्षा इसी स्थान पर दी थी और यह मंदिर उन्हें ही समर्पित है। ‘दिवुरुम्पोला’ का अर्थ सिंहली भाषा में है सौगंध की धरती। यह मंदिर देवी सीता के सौगंध के लिए प्रसिद्ध है।स्थानीय लोग विवाद सुलझाने हेतु इस मंदिर में आ कर सौगंध दिलवाते हैं इस परिसर में स्थित बोधिवृक्ष बोध गया के उसी श्री महाबोधिवृक्ष का वंशज है जिसके नीचे बैठ कर भगवान बुद्ध को परम ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।

रावण मंदिर व गुफाएं

रावण मंदिर एवं गुफ़ा
रावण मंदिर एवं गुफ़ा

एला से करीब २कि.मी. दूर यह रावण मंदिर व गुफाएं स्थित हैं। रावण मंदिर बेहद छोटा है और आश्चर्यजनक रूप से यहाँ रावण की मूर्ती नहीं है। इस मंदिर के प्रवेश द्वार से पहाड़ी की ५००मि. चड़ाई के पश्चात रावण गुफाएं पहुंचते हैं। माना जाता है कि पूरे श्रीलंका में फैले इन गुफाओं के जालों को रावण को बनवाया था। सुरंगों के इस जाल के पीछे रावण की मंशा अपने राज्य के विभिन्न ठिकानों को आपस में जोड़ना था व इसे गुप्त जासूसी, सैनिक सर्वेक्षण और पलायन हेतु उपयोग में लाना था। गुफाओं का मुख्य द्वार और मुख्य कक्ष दोनों विशाल थे। मुख्य कक्ष से ३ सुरंगें निकल रहीं थीं। पहली सुरंग सबसे लंबी थी जो २० फीट बाद समाप्त हो रही थी। दूसरी १० फीट लम्बी थी और तीसरी, सबसे छोटी, का दूसरा छोर बंद था।

उस्सनगोड नगर – जिसे हनुमान ने भस्म किया था

अपने यात्रा के अंतिम पड़ाव में मैं उस्सनगोड़ा पहुँचा। किवदंतियां कहतीं हैं उस्सनगोड़ा, रावण राज्य के उन नगरों में से एक है जिसे भगवान हनुमान ने जला दिया था। देवी सीता को खोजने के पश्चात, भगवान हनुमान ने रावण से भेंट करने का निश्चय किया। इसलिए उन्होंने स्वयं को, रावण के सबसे शक्तिशाली पुत्र, इन्द्रजीत के हाथों बंदी बनवा लिया। हनुमान को सबक सिखाने की मंशा से रावण ने अपने राक्षसों को उनकी पूंछ को आग लगाने की आज्ञा दी। हनुमान ने, रावण को अपनी शक्ति का परिचय देने हेतु, अपनी पूंछ को खूब लम्बी बना लिया व पूरे लंका में नाच नाच कर जलती पूंछ से पूरी लंका जला डाली। लंका को नष्ट करने के पश्चात उन्होंने उस्सनगोड़ा पर छलांग लगाई, जो विमानों से भरा विमानतल था, और उसे नेस्तनाबूत कर दिया।

कठिन स्थान निर्धारण

उस्संगोड़ - श्री लंका
उस्संगोड़ – श्री लंका

रामायण सम्बंधित कई स्थलों की तरह, उस्सनगोड़ा को भी ढूँढना बेहद कठिन था। नक़्शे में स्पष्ट स्थान निर्धारित था, हम्बनटोटा-तन्गल्ले राजमार्ग पर हम्बनटोटा से ३०कि.मी. दूर। परन्तु निर्धारित स्थान पहुँचाने पर मुझे कोई भी सूचना पट्टिका दिखाई नहीं दी, ना ही उस स्थान की जानकारी रखने वाला कोई इंसान! अंततः, एक उदार ह्रदय ने मुझ पर दया की और मुझे सही दिशा दिखाई। “राजमार्ग पर कारखाने से बाएं मुड़ कर सीधे रास्ते खड़ी चट्टान तक जाएँ, तत्पश्चात पैदल चलें।” मैंने कुछ समय उनकी दिशा निर्देशों का पालन किया परन्तु एक बार फिर रास्ता भटक गया। मेरे स्वयं का अंतर्ज्ञान या अंतर्दृष्टि भी निस्तेज हो चुकी थी इसलिए मैं उस चट्टान तक भी नहीं पहुँच पाया।

एक घंटा भटकने के पश्चात में एक छोटे बालक से टकराया जिसकी सहायता से मैं उस्सनगोड़ा पहुंचा। ३की.मी. घेरे का समतल दायरा घनी झाड़ियों से चारों ओर से घिरा हुआ था परन्तु दायरे के भीतर कोई भी झाडी नहीं थी। शायद हनुमान द्वारा लगाए गए आग ने यहाँ सब भस्म कर दिया था!

रुमस्सला

रुमसल्ला - श्री लंका
रुमसल्ला – श्री लंका

इस यात्रा का अंतिम पड़ाव मैंने रुमस्सला का दर्शन निहित किया था। यह उनवंतुना के पास स्थित एक छोटी पहाड़ी है। रामायण के युद्ध के दौरान लंका में इन्द्रजीत ने लक्षमण की जख्मी किया था। लक्षमण के गहरे जानलेवा जख्मों को देख भालुओं के राजा जाम्बवंत ने, उनके इलाज हेतु, हनुमान से ४ प्रकार की जड़ीबूटियाँ ले कर आने को कहा। यह वनौषधियाँ, मृत संजीवनी, विशल्यकरणी, सुवर्णकरणी व सांधनी, सिर्फ हिमालय के ऋषभ पर्वत पर ही उपलब्ध थीं। हनुमान उड़ कर हिमालय तक पहुंचे, परन्तु वे वह वनौषधियों को पहचानने में असमर्थ थे। किसी उलझन में ना पड़ते हुए, उन्होंने सम्पूर्ण रिषभ पर्वत को ही उठा लिया और उड़ कर लंका पहुँच गए। मार्ग में इस पर्वत के टुकड़े कई जगह गिरे। यह जगहें हैं, सिरुमलाई(भारत), रुमस्सला, रितिगला, दौलकंदा, और तल्लदी। आज भी इन स्थानों से पारंपरिक चिकित्सक, जड़ीबूटियाँ एकत्र कर औषधियाँ बनातें हैं।

अन्य रामायण स्थल

लंका में इनके अलावा भी कई रामायण सम्बंधित स्थल हैं जिनके मैंने दर्शन किये थे। उनमें से कुछ हैं, नागदीप( जहां नागों की माता सुरसा देवी ने हनुमान की परीक्षा ली थी), कटरगामा (भगवान कार्तिकेय का मंदिर), सीता कोटूवा (जहां देवी सीता बंधक बना कर रखीं गईं थीं), नग्गला (वह पहाड़ी जहाँ से भगवान् राम के सेना को देखा गया था।), येहंगला (जहां रावण का पार्थिव शरीर दर्शनार्थ रखा गया था), केलनिया मंदिर (विभीषण मंदीर), कन्निया (रावण द्वारा बनवाये गए भूमिगत जलस्त्रोत) इत्यादि। यह संस्मरण पहले ही बहुत लम्बा हो जाने के कारण इनका उल्लेख मैं इस लेख में नहीं कर रहा हूँ।

अंत में यदि आप मुझसे यह सवाल करें कि इस यात्रा में जितने कष्ट मैंने सहे व जितनी मेहनत मैंने की, क्या इस तरह व इस परिमाण की यात्रा उस लायक थी? मेरा जवाब होगा, शत प्रतिशत हाँ! पूरे यात्रा में मैंने उन संकेतों का अनुभव किया जिन्होंने मुझे मेरे अंतर्मन के दर्शन कराये, अपनी आत्मा से एकाकार किया और श्रद्धा व विश्वास को आत्मसात करने में मेरी मदद की। मेरी श्रीलंका की यात्रा ने मानवता में मेरा विश्वास एक बार फिर जगा दिया और मुझे एक बेहतर इंसान बनने में मदद की। जीवन में क्या सिर्फ यही परम सत्य नहीं है?

यह संस्मरण “मंकीस, मोटरसायकल्स एंड मिसएडवेंचर्स” के लेखक हर्ष द्वारा अतिथी की हैसियत से प्रदत्त है। नक़्शे, चित्र व और अधिक जानकारी हेतु एम्एम्एम् की फेसबुक पेज पर जाएँ। उनकी पुस्तक की प्रति ‘यहाँ’ से खरीद सकतें हैं। पुस्तक की मेरे द्वारा की गयी समीक्षा ‘यहाँ’ उपलब्ध है।

हिंदी अनुवाद : मधुमिता ताम्हणे

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